उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो !
जानवर की एक विशेषता यह होती है कि उसे अपने पेट की हमेशा फिक्र बनी रहती है। जब वह जवान होता है तो उसे सन्तान पैदा करने का ख्याल आता है। दो के अलावा वह और कोई काम कर नहीं पाता और इनसान? इनसान देखने में तो जानवरों जैसा ही मालूम होता है, किन्तु उसमें भावनाएँ पाई जाती है। वनमानुष, बन्दर, लंगूर शायद आपने देखे हों, इनसे मिलती-जुलती है आदमी की देह। लेकिन उसकी विशेषता खासतौर से यह है कि उसमें भावनाएँ होती हैं। कहीं अकाल पड़ता है तो आदमी अपने अनाज के कोठों को खाली कर देता है। कहता है हम अकेले जीकर के क्या करेंगे? बाकी लोग भी खाएँ तो क्या हर्ज है? यदि किसी के छप्पर में, मुहल्ले में आग लगे तो वह सबसे पहले दौड़ता है आग बुझाने के लिए। यह क्या है? यह है आदमी की भावनाएँ। दूसरों की सेवा के लिए दौड़ पड़ना, यह इनसानियत की एक ही परीक्षा है। अगर इस परीक्षा में फेल हो जाएँ तो जानना चाहिए कि शक्ल इनसान जैसी भले हो, पर है तो वास्तव में जानवर।
इस समय जिसमें आप हमारी बात सुन रहे हैं, ऐसा समय है, जिसको सामान्य नहीं कह सकते। इसे असामान्य ही कहा जाएगा। वैसे आपका सूरज सबेरे निकलता है, शाम को अस्त हो जाता है। कुएँ से पानी निकालते हैं, चक्की से आटा पीसते हैं, चौके से खाना खा लेते हैं। समय मामूली-सा मालूम पड़ता है, लेकिन हम और आप विचारपूर्वक अगर इसका अन्दाज लगाना चाहें तो मालूम पड़ेगा कि यह बहुत भयंकर समय में तूफान भले ही न आते हों, आपके ऊपर घनघोर बारिश भले ही न होती हो, लेकिन संसार की निगाह से और जरा लम्बी दृष्टि फेंककर देखेंगे तो आपको यह मालूम पड़ेगा कि यह बहुत ही असाधारण समय है। दस समय में हवा में जहर ही जहर घुला हुआ है। जो साँस आप लेते हैं उससे आपके भीतर जहर चला जा रहा है और आपकी जिन्दगी को रोज कम कर रहा है।
इस भयंकर समय में प्रत्येक आदमी के ऊपर मुसीबत छाई हुई है। थोड़े आदमियों के ऊपर नहीं, बहुत आदमियों के ऊपर, सारे संसार के ऊपर। पानी गन्दा हुआ जा रहा है। विकिरण बढ़ता जा रहा है। इससे बच्चे अपाहिज, लँगड़े-लूले पैदा हो रहे हैं। जनसंख्या की दृष्टि से आदमी किस कदर बढ़ता हुआ चला जा रहा है और खाने के लिए सामान कम पड़ता चला जा रहा है। आपने देखा, सुना? आपकी इतनी उमर हो गई? जिस भाव से आपको आज गेहूँ मिलता है, चावल, घी मिलता है, क्या आपने इससे पहले कभी सुना था? नहीं, कभी नहीं सुना था। यह महँगाई बढ़ रही है। अभी और बढ़ेगी। मुझे घटने की कोई सूरत नजर नहीं आती। वस्तुतः यह मुसीबत का समय है और आदमी पर मुसीबतें बढ़ती ही चली जा रही हैं और बढ़ेंगी अभी।
यह ऐसा समय है जिसमें किसी को किसी पर विश्वास नहीं रह गया है। आतंक और आशंकाओं से वातावरण चारों ओर घिरा हुआ है। सड़क पर जब आप निकलते हैं तो मालूम नहीं कि आपके साथ पड़ोस में चलने वाला आपके चाकू भोंककर कब आपकी सम्पत्ति छीन लेगा, इसका क्या विश्वास है? इनसान का चाल-चलन, इनसान का विचार इतना गन्दा-घटिया हो गया है कि यह स्थिति अगर बनी रही तो कोई किसी पर विश्वास नहीं करेगा, न भाई-भाई पर विश्वास करेगा, न स्त्री पुरुष पर विश्वास करेगी, न पुरुष स्त्री पर विश्वास करेगा, ऐसा गन्दा, ऐसा वाहियात समय है यह। यह समय इसलिए भी घटिया और वाहियात है कि नेचर हमसे आप सबसे नाराज हो गई है। जब उसकी मौज आती है तो अन्धाधुन्ध पानी बरसा देती है और जब मूड आता है तो सूखा नजर आता है। कहीं मौसम का ठिकाना नहीं कि मौसम पर पानी बरसेगा कि नहीं, ठण्ड के समय ठण्ड ही पड़ेगी कि गर्मी पड़ेगी, कोई नहीं कह सकता। भूकम्प कब आ जाए, कोई नहीं कह सकता? बाढ़ कब आ जाए, कोई ठिकाना नहीं? प्रकृति हम सबसे बिल्कुल नाराज हो गई है, इसलिए उसने काम करना बन्द कर दिया है। यह ऐसा भयंकर समय है।
ऐसे भयंकर समय में आपके ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या आपके कोई कर्तव्य नहीं है? क्या आपके अन्दर भावनाएँ नहीं हैं? क्या आपका हृदय पत्थर और लोहे का हो गया है? नहीं, मेरा ख्याल है कि सब आदमियों का ऐसा नहीं हुआ होगा। ज्यादातर लोगों का तो ऐसा ही हुआ है कि वे घटते-घटते जानवर की तरीके से बनते चले जा रहे हैं। जवान आदमी जब ज्यादा बुड्ढा हो जाता है तो कमर झुकने लगती है, आँखें नीची हो जाती हैं, लाठी टेककर चलता है। इनसान की जवानी चली जाती है तो वह बौना हो जाता है, घटिया हो जाता है, कमर झुक जाती है, उसका आसमान की ओर देखने का न मन होता है, न उसकी बनावट ही ऐसी रह जाती है कि वह ऊपर देखे। अधिकांश आदमी आज ऐसे हो गए हैं।
लेकिन आप ऊपर की ओर सिर उठाकर देखेंगे, हमें आपसे यह उम्मीद है। यह उम्मीद है कि ऐसे भयंकर समय में अपना सारा वक्त केवल पेट पालने के लिए और सन्तान पैदा करने के लिए जाया नहीं करेंगे। अगर आप चाहें तो ढेरों समय बचा हैं, बीस घण्टे में अपना, अपने शरीर व कुटुम्ब का आराम से आप गुजारा कर सकते हैं। आठ घण्टा काम करने के लिए, सात घण्टा विश्राम के लिए और पाँच घण्टा घरेलू काम के लिए। फिर भी चार घण्टा आप समाज के लिए आई हुई परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए, समय को ऊँचा उठाने के लिए इनसान का भाग्य और भविष्य शानदार बनाने के लिए आप लगा सकते हैं। करना ही पड़ेगा यह आपको। इसमें तो नुकसान पड़ेगा? नहीं, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि नुकसान नहीं पड़ेगा। जिन्होंने भी अपने समय को लोकसेवा में लगाया है, वे चाहे गाँधी रहे हों या नेहरू, विनोबा रहे हों या विवेकानन्द किसी भी तरह वे नुकसान में नहीं रहे हैं। वे ऊँचा उठे हैं, आगे बढ़े हैं और उन्होंने हजारों आदमियों को ऊँचा उठाया व आगे बढ़ाया है। स्वयं भी नफे में रहे हैं। वे नुकसान में रहे? क्या नुकसान में रहे आप बताइए? किसी एक का नाम तो बताइए।
गाँधीजी ने वकालत की होती तो वकालत में कितना कमा लेते? लेकिन जब उन्होंने अपना समय सेवा में लगा दिया तो आप बताइए, क्या कमी रह गई उनके पास। उन्होंने इस्तेमाल नहीं किया। यह उनकी इच्छा पर है। ब्राह्मण अपने लिए कभी इस्तेमाल नहीं करते। गाँधी ब्राह्मण थे, बड़े शानदार आदमी थे और शानदार सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपने समय को पेट-पालन और जानवर के तरीके से औलाद पैदा करने में नहीं, बल्कि इनसान के तरीके से खर्च किया।
यह समय ठीक ऐसा ही है। इस विषम समय में मेरी आप लोगों से, प्रत्येक से यही प्रार्थना है कि आप अपने समय का थोड़ा अंश निकालें। हमने कितनी बार कहा व छापा है कि आप समयदान कीजिए। चन्द्रमा पर ग्रहण जब पड़ता है तब कितने ही लोग आते हैं व पुकार करते हैं कि चन्द्रमा पर ग्रहण पड़ा है, पुण्य कमाना हो तो दान करो। इस खराब समय में हमारी भी एक रट है—महाकाल की भी एक ही पुकार है—आप समय दीजिए, समय खर्च कीजिए। किस काम के लिए? आप इस काम के लिए समय लगाइए जिससे आप लोगों के दिमागों और विचारों को ठीक कर सकें। इनसान के अन्दर क्या है? वस्तुतः न हाड़ है, न माँस है, न मिट्टी, न पखाना, जो भी कुछ काम की चीज है वह है विचार।
विचारों से ही अब्राहम लिंकन जैसे, जार्ज वाशिंगटन जैसे, गारफिल्ड जैसे छोटे-छोटे इनसान कितने महान् बन जाते हैं। विचार अगर मनुष्य के पास हों तो, आज अगर विचारशीलता और दूरदर्शी विवेकशीलता लोगों के अन्दर आ गई होती तो दुनिया खुशहाल होती। इनसान, इनसान न रहकर देवता हो गया होता और जमीन का वातावरण स्वर्ग जैसा होता। पर विचारशील है कहाँ? समझदारी है कहाँ? अगर समझदारी बढ़ेगी तो आदमी के अन्दर ईमानदारी बढ़ेगी, ईमानदारी बढ़ेगी तो आदमी में जिम्मेदारी आयेगी और जिम्मेदारी आयेगी तो बहादुरी आयेगी। चारों चीजें एक साथ जुड़ी हुई हैं। समझदारी इसका मूल है। हमको लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिए जी-जान से कोशिश करनी चाहिए। प्राचीनकाल के ब्राह्मण और सन्त यही काम करते थे। वे अपना गुजारा कम में करते थे व जीवन का उद्देश्य यही रहता था कि लोगों की समझदारी बढ़ाएँ। आप लोगों से भी मेरी यही प्रार्थना है कि लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिए अपने समय का जितना अंश आप लगा सकते हों, लगाएँ। दिमाग में से आप यह ख्याल निकाल पाए तो बड़ा अच्छा हो कि बहुत-सा पैसा इकट्ठा होना चाहिए। पैसा रहेगा नहीं। मैं एक बात आपको बताए देता हूँ। अगले दिनों समाज की ऐसी व्यवस्था बनने वाली है, जिससे कि धन व्यक्तिगत नहीं रह जाएगा। सच्चा अध्यात्मवाद आपको मालदार नहीं बनने देगा। चौबीसों घण्टे आपका दिमाग व शक्तियाँ मालदार बनने की ख्वाहिश में लगते हैं तो आप गलती पर हैं, आप ठीक कीजिए अपने आपको।
अपना गुजारा सामान्य मनुष्य जिस तरीके से करते हैं, आप भी उसी तरीके से गुजारा करना सीखिए। फिर आप देखेंगे कि आपके पास समय, श्रम, बुद्धि, क्षमताएँ कितनी ही चीजें बच जाती हैं, जो समाज के काम में लगाई जा सकती हैं। जरूरी नहीं कि आप अपना मकान छोड़कर बाहर चले जाएँ। आप अपने घर रहकर भी बहुत काम कर सकते हैं, जिससे आपका क्षेत्र, आपका गाँव, आपके समीपवर्ती वातावरण में जाने कैसी हवा पैदा हो सकती है। कमाल हो सकता है तो इसके लिए क्या करना पड़ेगा? इसके लिए मेरे ख्याल से आपको एक ट्रेनिंग लेनी चाहिए, छोटी से छोटी चीजों के लिए ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है। लुहार, संगीतज्ञ, रेलगाड़ी चलाने वाले, मोटर चलाने वाले, अध्यापक, चिकित्सक सभी को ट्रेनिंग लेनी पड़ती है।
ट्रेनिंग बड़ी आवश्यक है। विश्वमित्र राम व लक्ष्मण को उनके पिता से माँगकर ले गए थे और उनको ट्रेनिंग दी थी। काहे की ट्रेनिंग दी थी। बड़ी महत्त्वपूर्ण ट्रेनिंग थी। शिवाजी का इतना भारी धनुष तोड़ा जाए? लंका में जो राक्षस रहते हैं, उनको किस तरीके से समाप्त किया जाए? रामराज्य की स्थापना कैसे की जाए? ये सारी बातें विश्वमित्र के आश्रम में जाकर सीखी थीं। ऐसी ही एक ट्रेनिंग की व्यवस्था हमने अपने शान्तिकुञ्ज में की है, ताकि आप समाज में छाई असुरता से लड़ सकें। शान्तिकुञ्ज को पहले से भी हमारा तीस गुना करने का मन था, किन्तु अब बहुत दिनों से नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालय, यही हमारे दिमाग में घूमते रहते हैं। हमें यही सपना आते रहता है कि नालन्दा, जिसमें हजारों धर्म-प्रचारक तैयार किए गए थे एवं तक्षशिला जिसमें हजारों संस्कृति प्रचारक तैयार किए गए थे, यहाँ पर बने। धर्म का नाम तो मैं अब नहीं लूँगा। यह नाम बहुत बदनाम हो गया है। मैं समाज-सेवा की बात आपसे कहूँगा। यह कहूँगा कि आपकी महानता की वृद्धि के लिए सेवा नहीं करेंगे, तब तक आप उन्नतिशील नहीं बनेंगे? आपकी आत्मा में सन्तोष और शान्ति का निवास नहीं होगा।
आत्मसन्तोष के अलावा समाज का सहयोग व भगवान् का अनुग्रह कैसे मिल सकता है, शानदार जिन्दगी कैसे जीनी चाहिए? इसके लिए हमारे यहाँ ट्रेनिंग चलती है। ट्रेनिंग तो पहले भी चलती थी। नौ दिन की, पाँच दिन व एक माह की, पर अब हमने सारे के सारे शान्तिकुञ्ज को विश्वविद्यालय के रूप में परिणत कर दिया है। कानूनन तो यह विश्वविद्यालय नहीं है, क्योंकि विश्वविद्यालय के लिए तो खानापूर्ति की जाती है, वह बहुत बड़ी है लेकिन पुराने समय में नालन्दा में कोई खानापूर्ति नहीं हुई थी और न तक्षशिला में कोई खानापूर्ति हुई थी। ये गवर्नमेण्ट से कोई सम्बन्धित नहीं हुए थे। हमारा यह विश्वविद्यालय इसी प्रकार का है।
आज मनुष्य को जीना कहाँ आता है? जीना भी एक कला है। सब आदमी खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं और मौत के मुँह में चले जाते हैं, किन्तु जीना नहीं जानते। जीना बड़ी शानदार चीज है। इसको संजीवनी विद्या कहते हैं—जीवन जीने की कला। यहाँ हम अपने विश्वविद्यालय में, शान्तिकुञ्ज में जीवन जीने की कला सिखाते हैं और यह सिखाते हैं कि आज के गए-बीते जमाने में आप अपनी नाव पार करने के साथ-साथ सैकड़ों आदमियों को बिठाकर पार किस तरह से लगा पाते हैं? नाव चलाना भी एक कला है। हम आपको नाव दे दें व आपको नदी के किनारे छोड़ दें, कहें कि आप जाइए तो इतने मात्र से आप नाव नहीं चला सकेंगे। कहीं लहरों के चक्कर में पड़ेंगे और बहते हुए चले जाएँगे। नाव को डुबो देंगे और आप भी डूब जाएँगे। लेकिन अगर आपको ट्रेनिंग मिली हो तो आप सकुशल पार हो जाएँगे। हमने अपने जीवन के इस अन्तिम समय में सारी हिम्मत और शक्ति इस बात में लगा दी है कि शान्तिकुञ्ज को हम एक विश्वविद्यालय बना देंगे। पाँच सौ व्यक्तियों के लिए हमने एक माह में शिक्षण देने की व्यवस्था की है। इतना बड़ा काम व मात्र एक महीना? हमने इसलिए बड़ा नहीं रखा, क्योंकि हमको कम समय में एक लाख से अधिक सही जीवन जीने वाले आदमी तैयार करने हैं। हमने पाँच सौ आदमियों को प्रत्येक माह ट्रेण्ड करके स्वयं का महान् और शानदार जीवन जीने के लिए शिक्षण देने का प्रबन्ध किया है। न केवल स्वयं का जीवन बल्कि समाज की सेवा का शिक्षण। न केवल समाज की सेवा बल्कि यह भी कि आज की समस्याएँ क्या हैं? गुत्थियों का हल और समाधान निकालने के लिए क्या कदम बढ़ाए जाने चाहिए और किस तरीके से काम करना चाहिए? यह सिखाने का प्रबन्ध किया है।
एक और आपको अचम्भा होगा। यहाँ बहुत दिनों से जब से यह आश्रम बना है, यहाँ के निवास के लिए, बिजली तो जलती है, कुएँ से पानी जो लेते हैं, उसके लिए किसी से कुछ भी नहीं लिया गया है। अब एक और हिम्मत बढ़ाई है। वह यह कि अब खाने की जिम्मेदारी भी हम अपने कन्धों पर उठाएँगे, गरीब और अमीर दोनों के लिए कोई खर्च वसूला नहीं जाएगा। यदि कोई कहे कि हमने आपका खाया है, दान का पैसा है, ब्राह्मण का, साधु का पैसा है, हम खाना नहीं चाहते तो हम कहेंगे कि मुट्ठी बन्द करके दे जाइए, हम रसीद काट देंगे आपकी। तो इस शिक्षण में यह नवीन विशेषता है कि अधिक से अधिक आदमी लाभान्वित हो सकें।
सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में आपने देखा होगा कि वहाँ बोर्डिंग फीस अलग देनी पड़ती है। पढ़ाई की फीस अलग देनी पड़ती है, लाइब्रेरी फीस अलग व ट्यूशन फीस अलग। लेकिन हमने यह हिम्मत की है कि कानी कौड़ी की भी फीस किसी के ऊपर लागू नहीं की जाएगी। यही विशेषता नालन्दा-तक्षशिला विश्वविद्यालय में भी थी। वही हमने भी की है, लेकिन बुलाया केवल उन्हीं को है, जो समर्थ हों, शरीर या मन से बूढ़े न हो गए हों, जिनमें क्षमता हो, जो पढ़े-लिखे हों। इस तरह के लोग आयेंगे तो ठीक है, नहीं तो अपनी नानी को, दादी को, मौसी को, पड़ोसन को लेकर के यहाँ कबाड़खाना इकट्ठा कर देंगे तो यह विश्वविद्यालय नहीं रहेगा? फिर तो यह धर्मशाला हो जाएगी। साक्षात् नरक हो जाएगा। इसे नरक मत बनाइए आप। जो लायक हों वे यहाँ की ट्रेनिंग प्राप्त करने आएँ और हमारे प्राण, हमारे जीवट से लाभ उठाना चाहें, चाहे हम रहें या न रहें, वे लोग आएँ। प्रतिभावानों के लिए निमन्त्रण है, बुड्ढों, अशिक्षितों, उजड्डों के लिए निमन्त्रण नहीं है। आप कबाड़खाने को लेकर आएँगे तो हम आपको दूसरे तरीके से रखेंगे, दूसरे दिन विदा कर देंगे। आप हमारी व्यवस्था बिगाड़ेंगे? हमने न जाने क्या-क्या विचार किया है और आप अपनी सुविधा के लिए धर्मशाला का लाभ उठाना चाहते हैं? नहीं, यह धर्मशाला नहीं है। यह कॉलेज है, विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारे सतयुगी सपनों का महल है। आपमें से जिन्हें आदमी बनना हो, बनाना हो, इस विद्यालय की संजीवनी विद्या सीखने के लिए आमन्त्रण है। कैसे जीवन को ऊँचा उठाया जाता है, समाज की समस्याओं को कैसे हल किया जाता है? यह आप लोगों को सिखाया जाएगा। दावत है आप सबको। आप सबमें जो विचारशील हों, भावनाशील हों, हमारे इस कार्यक्रम का लाभ उठाएँ। अपने को धन्य बनाएँ और हमको भी। हमारी बात समाप्त।
ॐ शान्ति।