उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो-भाइयो! दो प्रश्न आपके मस्तिष्क में संभवत: उठते रहते होंगे। एक प्रश्न यह कि हमें क्या करना है और क्या बनना है? दूसरा यह कि हमें क्या कराना है और क्या बनाना है ? इसके संबंध में स्थूल रूप से आपको कई चीजें दिखाई पड़ती हैं। क्या करना है? सवेरे उठना चाहिए, नहाना चाहिए, पूजा करनी चाहिए, हवन करना चाहिए। ये क्रियाएँ हैं और जनता में क्या कराना चाहिए? जनता में हवन कराने चाहिए, सम्मेलन कराने चाहिए, त्योहार-संस्कार कराने चाहिए।
क्रिया व विचार दोनों महत्वपूर्ण
मित्रो! ये क्रियाएँ आपको दिखाई पड़ती हैं कि जनता के बीच में आपको क्या क्रियाएँ करानी चाहिए और अपने आप में क्या क्रियाएँ करनी चाहिए। क्रियाओं का अपना मूल्य है, महत्त्व है। हम जानते हैं कि क्रियाओं के माध्यम से विचारों के निर्माण में बहुत ही अधिक सहायता मिलती है। क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण होती हैं, यह बात भी सही है, लेकिन मित्रो! यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि क्रियाओं और विचारणा में जमीन-आसमान का अंतर होना भी संभव है। क्रिया क्या हो सकती है और हमारे ढंग क्या हो सकते हैं। इसमें फरक रह गया तो क्रिया का, खासतौर से धार्मिक क्रिया का कोई लाभ न मिलेगा। भौतिक क्रिया का लाभ तो मिल भी जाएगा। जैसे आपके जी में हरामखोरी का मन है, चोरी-चालाकी का मन है तो बात अलग है, लेकिन अगर आप काम करते हैं, मेहनत-मशक्कत करते हैं, रिक्शा चलाते हैं तो आपको उसकी मजदूरी के पैसे मिलते हैं। चाहे आप अपने मालिक से बैर रखते हैं, लेकिन अगर आप काम करते हैं तो भौतिक जीवन में आपको मजदूरी के पैसे मिल भी सकते हैं।
मित्रो! चूँकि हमारा जीवन भौतिक जीवन नहीं है। हमारे क्रिया-कलाप, भौतिक क्रिया-कलाप नहीं हैं। हमारा कार्यक्षेत्र भौतिक कार्यक्षेत्र नहीं है अतः विचार यह करना पड़ेगा कि हमारी दृष्टि और हमारा चिंतन आध्यात्मिक क्रिया के अनुरूप है कि नहीं। यदि क्रिया के अनुरूप हमारी दृष्टि और चिंतन नहीं हुआ तो उससे कुछ लाभ नहीं मिलेगा। दृष्टि कुछ और रही, चिंतन कुछ और रहा, तो जो यह विडंबना आज हमको अपने धार्मिक क्षेत्र में आमतौर से दिखाई पड़ती है कि लोग बाहर से कृत्य तो बहुत अच्छे-अच्छे करते हैं, पर उस क्रिया-कलाप के साथ में जैसी दृष्टि का समावेश होना चाहिए था, उसका अभाव दिखाई पड़ता है। कृत्यों का मित्रो! कुछ खास महत्त्व नहीं होता, बल्कि और भी ज्यादा नुकसान होता है। कैसे? नुकसान ऐसे होता है जैसे गोशाला के नाम पर कई आदमी गायों की रक्षा के लिए चपरास पीठ पर बाँध लेते हैं। डंडा और गुल्लक हाथ में ले लेते हैं। गोरक्षा के लिए रेल के डिब्बों में आवाज लगाते हैं, चंदा इकट्ठा करते हैं। क्यों साहब! आप तो गो-रक्षक हैं ? बिलकुल। कितनी जिंदगी खतम हो गई आपकी? साहब चालीस साल। बीस वर्ष की उम्र से हम गोरक्षा का काम करते आ रहे हैं और अब साठ साल के हैं। गऊओं की जय बोलते हैं।
दृष्टिदोष का परिणाम
आपको क्या फायदा हुआ? कुछ फायदा नहीं हुआ। बेसिलसिले की गलत तसवीरें छपवा लेते हैं। रेलगाड़ियों में चंदा माँगते हैं। यहाँ-वहाँ चंदा माँगते हैं और रात को सिनेमा देखते हैं, सिगरेट पीते हैं। न कोई गाय है, न कोई बैल, फिर कैसी गोसेवा? अरे साहब ! हमारी ये इंद्रियाँ ही गाय हैं। हमारी जो जीभ है, यह गाय है। जीभ को हम मिठाई खिलाते हैं, कॉफी पिलाते हैं। तो क्या यह गऊ माता को खिलाना नहीं हुआ? हमारी आँखें भी गाय हैं। देखिए हम अपनी आँखों को सिनेमा दिखाते हैं। गायों का पालन करते हैं। इंद्रियाँ जितनी भी हैं, सब गाय हैं। संस्कृत में इन्हें गाय कहते हैं। तो आपकी गऊशाला है कि नहीं? नहीं साहब ! गऊशाला तो नहीं है।
अनाथालयों का काम कैसा है ? बहुत ही अच्छा काम है। बेचारे अनाथ बच्चों का शिक्षण करें, पालन-पोषण करें। जिनके माँ-बाप नहीं हैं, उन अनाथों की आप सेवा करें। जिनका कोई आश्रय नहीं है, उनको आश्रय देना बहुत अच्छी बात है। इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है? लेकिन मित्रो! आपकी क्रिया में और दृष्टि में फरक हुआ तब? तो आपका अनाथ पालन ऐसी विडंबना बन जाएगा, मसलन ऐसे कई अनाथालय देखे गए हैं, जो किराए के बच्चों को नौकरी पर रख लेते हैं। तू अपने लड़के को छह-आठ घंटे के लिए भेज दिया कर रे! हाँ साहब! हम तो गरीब आदमी हैं। हम तुझे पच्चीस रुपया महीना दिया करेंगे। तेरे बच्चे को रोटी खिला दिया करेंगे। बस पाँच-सात बच्चे पकड़ लिए और बाँसुरी बजाना, ढोल बजाना सिखा दिया। बच्चे घर-घर भीख माँगते रहे। पच्चीस-पच्चीस रुपये बच्चों के हवाले कर दिए और हजार रुपया महीना अपनी जेब में डाल लिया। क्या करते हैं साहब? हम तो अनाथों का पालन करते हैं। बेटे! तेरी दृष्टि में फरक रहा तो कुछ बनेगा नहीं।
हवन भी एक तमाशा
अच्छा तो महाराज जी! हवन किया करें। हवन तो पंडित भी करते हैं, और लोग भी करते हैं। हवन को भी लोगों ने धंधा बना लिया है। चंदा जमा करते हैं और सब हजम कर जाते हैं। हम तो हवन करते हैं, यज्ञ करते हैं। हाँ बेटे! यज्ञ भी करते हैं। इससे कुछ लाभ होगा? नहीं, कुछ लाभ नहीं होगा। न तो वातावरण का संशोधन होगा, न ही करने वालों को धर्म की शान्ति मिलेगी। जो लोग हवन में शामिल हुए थे, उनके भीतर जो छाप, जो प्रभाव पड़ना चाहिए था, वह प्रभाव भी नहीं पड़ सकेगा, क्योंकि छाप डालने वाली शक्ति हमारी जीवात्मा होती है। अगर हमारी जीवात्मा ही कमजोर है, निर्बल है तो कैसे पड़ेगा प्रभाव, आप बताइए तो सही। हवन करने वालों की, हवन-व्यवस्था करने वालों की, पंडित जी, पुरोहित जी की हरेक की नीयत खराब है तो उस अग्नि जलाने का, सुगंधि फैलाने का, जलाने का फायदा मनुष्यों के मनों में, हृदयों में, अंत:करण में मिलेगा क्या? मेरा विश्वास है कि शायद न मिल सकेगा। खेल-तमाशा तो हो गया, विडंबना तो बन गई। वातावरण नहीं बन सकता।
चिंतन उच्चस्तरीय हो
इसीलिए मित्रो! यह बात ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा कि आपको बनना क्या है और बनाना क्या है? करना क्या है और कराना क्या है ? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में एक ही जवाब है कि हमको अपनी दृष्टि का परिशोधन करना है। स्वयं का प्रश्न जहाँ तक आए, आप एक ही बात ध्यान रखिए कि हमारी दृष्टि परिष्कृत होनी चाहिए। हमारा चिंतन उच्चस्तरीय होना चाहिए। हमारे मनों में सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए ऊँची निष्ठा होनी चाहिए। अगर ये आपके भीतर है, तो आप क्या क्रिया करते हैं, क्या नहीं करते? चलिए आपकी क्रिया घटिया किस्म की हो तो भी मैं यह कहूँगा कि आप योगी हैं, आप संत हैं, आप तपस्वी हैं और आप ज्ञानी हैं। क्रिया-कृत्य आपका सामान्य जैसा दिखाई पड़ता हो तो भी, उसके लिए हँसी-मजाक उड़ाया जाता हो तो भी, इतिहास में नाम छपने लायक न हो तो भी। इसका बड़ा भारी असर पड़ेगा, फिर आपके लिए तो पड़ना भी चाहिए। इसलिए दृष्टि को ऊँचा करना, चिंतन को ऊँचा करना, आस्थाओं-निष्ठाओं को ऊँचा करना, यह हमारा पहला काम है।
मित्रो! यह मुख्य काम है और आखिरी काम भी है। इसी के लिए हम तरह-तरह के क्रिया-कृत्य करते हैं। उसमें जप भी शामिल है, भजन भी शामिल है, अनुष्ठान भी शामिल है। ये जप, भजन और अनुष्ठान एक कृत्य हैं। अगर आपने इनको उच्चस्तरीय दृष्टिकोण बनाने के लिए किया है, तो मैं आपको बधाई देता हूँ और ये कहता हूँ कि भगवान करे ऐसा भाव हरेक के मन में उत्पन्न हो। ऐसा अनुष्ठान हरेक के मन में हो, लेकिन अगर आपकी दृष्टि अनुष्ठानों के पीछे निकृष्ट है। किसी का पैसा लेकर जप करने की आपके मन में दृष्टि है तो मैं समझता हूँ कि कोई खास फायदा नहीं है। आप एक मजदूरी करते हैं। गायत्री माता का कोई फल मिलेगा? बेटे ! मैं कह नहीं सकता, क्योंकि तेरा उद्देश्य मजदूरी है। गायत्री माता का फल मिलेगा? बेटे! जरूर मिलेगा, अगर तेरी दृष्टि ऊँची रहेगी तब । दृष्टि का उसमें समावेश नहीं हुआ तो मैं जानता हूँ कि शायद ही इसका कोई परिणाम और शायद ही कोई अच्छा फल तुझे मिल सकता होगा।
ऐसी भावना लेकर जप निरर्थक
क्या करते हैं साहब? गायत्री माता का जप करते हैं। यह तो बहुत अच्छी बात है। किस काम के लिए करते हैं? साहब! हमारे पड़ोसी के ऊपर जो मुकदमा चल रहा है, वे जीत जाएँ। और किसके लिए करते हैं? हमारे बेटियाँ न हों, बेटा हो जाए। बेटे! बेटियाँ तो बहुत अच्छी होती हैं। बेटा होने से क्या फायदा है? नहीं महाराज जी! बेटा हो जाए, इसलिए हम गायत्री माता का जप करते हैं। तेरी दृष्टि बहुत छोटी है, ओछी दृष्टि है, घटिया दृष्टि है, कमीनी दृष्टि है, जानवरों जैसी दृष्टि है। ऐसी दृष्टि को लेकर के तू गायत्री माता का जप कर रहा होगा तो मैं नहीं जानता कि इससे तेरी जीवात्मा को कोई लाभ मिल सकता है कि नहीं। तेरी जीवात्मा में कोई प्रकाश आ सकता है कि नहीं। भगवान की कृपा और अन्य शक्तियाँ मिलेंगी कि नहीं। नहीं साहब! मैं तो ८१ हजार जप करूँगा। चाहे ८१ हजार जप कर ले, चाहे ५१ हजार, अगर दृष्टि तेरे पास नहीं है तो उस क्रिया-कृत्य का क्या परिणाम निकलेगा, मैं नहीं जानता। मेरा विश्वास है कि दृष्टि को ऊँचा किए बिना अध्यात्म और धर्म जो कि हमारा कार्यक्षेत्र है, उसमें कोई महत्त्वपूर्ण लाभ नहीं मिल सकता। इसीलिए हमको दृष्टि का परिष्कार करने वाली बात सोचकर चलना चाहिए।
बोलना सीखना कोई बड़ा काम नहीं
मित्रो! आप हमारे वानप्रस्थ शिविर में आ करके क्या फायदा उठाएँगे? महाराज जी! बोलने की शैली आ जाए बस। बोलने की शैली बेटे! एक छोटी-सी, जरा-सी बात है, 'तिल के पीछे ताड़' है। इस जरा-सी बात को तू अपने मन से निकाल दे। इसमें कुछ है नहीं। बोलना तो बच्चों को भी आता है। आपको अपने पड़ोसी से बात करनी पड़ती है तो धारा प्रवाह बात करते चले जाते हैं। घर में गप्पें हाँकते चले जाते हैं। स्टेज पर बैठकर बोलने में क्या आफत आ गई आपको? नहीं साहब! स्टेज पर बैठकर बोलना नहीं आता। दो बातें हो जाती हैं, इसलिए बोलना नहीं आता। हम सिखा देंगे। साइकिल चलानी आती है तुझे? हाँ महाराज जी! कभी आती है, कभी भूल जाते हैं। नहीं बेटे! साइकिल चलाना सीख ले। साइकिल चलाने में जिन दो बातों का ध्यान रखना पड़ता है, उन्हीं बातों को व्याख्यान देने में भी याद रखना पड़ता है। यहाँ से जाऊँगा तो गुरुजी! व्याख्यान आ जाएगा? बेटे! साइकिल चलाना आता होगा तो आ जाएगा। कैसे? साइकिल चलाने में डर लगता है। गिर पड़ेंगे तो, डर पक्का है। दो इंच की चौड़ाई पर दो पहिये चलते हैं और हम भी चलेंगे तो गिरेंगे। बेटे! जरूर गिरेगा। इसके पहिये समान—बराबर भी नहीं हैं। देख, हमारी टाँगें बराबर हैं और टाँगें आगे-पीछे होती तो? शायद हम गिर पड़ते। साइकिल के पहिये तो आगे-पीछे हैं, बेटे! गिरेगा जरूर। लेकिन अगर यह सोच लेगा कि सैकड़ों आदमी चलते हैं तो खट चल जाएगी तेरी साइकिल। हिम्मत अगर आदमी के पास आ जाए, तो फिर कुछ भी कठिन नहीं है।
मात्र झिझक निकलनी चाहिए
मित्रो! झिझक—आत्महीनता का भाव कि हम बड़े कमजोर हैं, लोग हमारी मजाक उड़ाएँगे, हमारी दिल्लगीबाजी हो जाएगी। हमारा भाषण किसी काम का नहीं होगा और हम पढ़े-लिखे नहीं हैं, मूर्ख हैं। इतनी कमजोरियाँ बस जबान पर आकर हावी हो जाती हैं और आदमी को बोलने में रुकावट पड़ती है। गुरु जी! व्याख्यान करना सीख जाऊँगा? हाँ, सीख जाएगा, बस झिझक निकाल दे। यहाँ व्याख्यान देना सीख कर गंगा जी के किनारे चला जाया कर। वहाँ पत्थर रहते हैं। पत्थरों को बिठा लिया कर—अरे प्यारे पत्थरो! हमारी बात तुमको सुननी पड़ेगी। तुम्हारे पत्थर जैसे दिमाग और पत्थर जैसी अक्ल, पत्थर जैसी जिंदगी को मुलायम बनना चाहिए। हमारे गुरु जी बताते हैं कि आपको हमारी बात सुननी चाहिए। गंगा के किनारे रहकर भी अरे मूर्खो! ऐसे-के-ऐसे ही रह गए। ये तो तुम्हारी नासमझी है। समझ से काम लो और जरा गीले होने की कोशिश करो। जरा चलने-फिरने की कोशिश करो। लुढ़कना शुरू करोगे तो तुम थोड़े दिनों में शालिग्राम बन सकते हो। अभी तो तिकोने पत्थर पड़े हो। समझा न व्याख्यान देना—झिझक खुली, गाड़ी चली तो चली। साइकिल चली तो चली, पहिया घूमा तो घूमा और बात खतम हो गई।
व्याख्यान देना एक कला
बेटे! व्याख्यान देना कोई खास बात नहीं है। मुझे फुरसत कम मिलती है, नहीं तो मैं तेरे पीछे पड़ जाऊँगा व्याख्यान देने के लिए। तो मैं समझता हूँ कि एक सप्ताह में तुझे बुलवा कर छोडूँगा। ये हमारी लड़कियाँ हैं। बाहर भेजा था इनको। बस इनके ऊपर हावी हो गया था—बैठो, बोलो, यह क्या, ऐसे बोल, ऐसे बोल। क्यों नहीं बोलती? ऐसे बोला जाता है। फिर ऐसे बोलने लगी कि बस गजब हो गया। व्याख्यान में भी कुछ होता है क्या? कुछ भी नहीं है। बस तेरा दिमाग अपसेट हो जाता है। तेरी जिंदगी फैली हुई है, बंदर की तरह मचक-मचक करता है। किसी बात में दिमाग नहीं लगाता, किसी बात पर ध्यान नहीं देता। अपने प्वाइण्ट बना ले, दिशाधारा निर्धारित कर ले कि ये-ये बोलना है। नहीं साहब! उस वक्त जो मन में आएगा, सो बोलेंगे। नहीं बेटे! अपने प्वाइण्ट निश्चित कर ले, सामने रख ले और उसी हिसाब से कायदे से बोलता हुआ चला जा। पहले उसे याद कर ले, रिहर्सल कर ले तो फिर बोलना आ जाएगा। गुरु जी। मैं अपनी जिंदगी में वक्ता हो जाऊँगा? जरूर हो जाएगा, मैं यह आशीर्वाद देता हूँ।
बेटे! अपने मन को नियंत्रित करना और झिझक हटाना सीख ले। जहाँ ये दो बातें सीखीं, बस वहीं तेरी सारी-की-सारी बात ठीक हो जाएगी। शरीर का बैलेन्स बनाना सीख ले और हिम्मत से साइकिल पर सवारी करना सीख ले। पढ़ा है, बिना पढ़ा है तो भी बोल जाएगा। गँवार है तो भी बोल जाएगा और विद्वान है तो भी बोल जाएगा। बेटे! बोलना एक कला है, विद्या थोड़े ही है। बाजीगरों को यह कला आती है और वे जनता को इकट्ठा कर लेते हैं। ताबीज बेचने वालों को बोलना आता है। गोशाला वालों को, अन्य सैकड़ों आदमियों को बोलना आता है। नहीं साहब, गुरु जी यहाँ से जाऊँ तो आशीर्वाद देना कि मैं बोलता चला जाऊँ। हाँ, मैं दे दूँगा आशीर्वाद, कुछ है नहीं इसमें, यह एक खेल है, तमाशा है, जादू है।
सफलता का मापदण्ड
मित्रो! यहाँ जो वानप्रस्थ शिविर में हम आपको रामायण की कथा कहने के लिए बुलाते हैं। व्याख्यान के लिए स्टेज पर जाकर आप मचक करके बैठ जाएँ और जनता आपको सुनने लगे। आपके गले में फूलमाला पहनाई जाए तो यह कोई सफलता नहीं है। इस सफलता में क्या रखा है ? यह तो स्कूलों के सब मास्टर, लेक्चरर कर लेते हैं। क्या पोस्ट है आपकी? लेक्चरर। आप क्या काम करते हैं? अरे साहब! लेक्चर झाड़ने का पैसा कमाते हैं । धत् तेरे की? और कुछ काम करते हो? नहीं साहब! कुछ काम नहीं, आप देख लीजिए हमारी पोस्ट। लेक्चर झाड़ना, रोटी कमाना। कॉलेज और स्कूल कितने हैं? लाखों की तादाद में हैं। और लेक्चरर? जितने देखिए लेक्चरर ही लेक्चरर। लेक्चर से हम जनता का उद्धार कर देंगे। लेक्चर से हम यश कमा लेंगे। लेक्चर से हम बड़े आदमी हो जाएँगे। नहीं बेटे! लेक्चर बड़ी वाहियात और घटिया चीज है। थोड़े दिन पीछे अभी और देखना तमाशा। जिन लोगों ने लेक्चर देने का धंधा कायम कर रखा है और जिनके चाल-चलन में जमीन-आसमान का फरक है। इन लोगों को सड़क पर बैठना मुश्किल पड़ जाएगा। कौन है यह? लेक्चरर है। अरे यह चालाक आदमी है, बदमाश आदमी है। लोगों को बहकाने के लिए आ गया है। अभी भी हो गया है, थोड़े दिनों बाद तो बिलकुल खतम हो जाएगा। लेक्चरर की क्या कीमत रह सकती है?
अनुशासन जरूरी
बेटे! हम यहाँ जो प्रशिक्षण करते हैं। जो क्रिया कृत्य कराना चाहते हैं, उसमें अनुशासन जरूरी है। अच्छा तो गुरु जी! हवन करने की विधि सिखा दीजिए। हाँ बेटे! हवन करने की विधि भी सिखा देंगे, इसमें कोई खास बात नहीं है। थोड़े दिन, महीना-पंद्रह दिन तू मेहनत कर ले। श्लोक बोलने की शैली सीख ले। क्रिया-कृत्य में किसके बाद क्या करना चाहिए, यह देख ले। अनुशासन किस तरह से सभा में रखा जाता है यही नेता बनाने के लिए सिखाते हैं। पच्चीस आदमी हवन करने के लिए बैठे हों तो क्या करना चाहिए? डिसिप्लिन कायम रखना चाहिए और देखना चाहिए कि एक तरीके से सबकी क्रियाएँ हो रही हों। इतने आदमियों पर हावी रहो कि कोई आदमी गलत काम न कर रहा हो। बोलने में सबकी आवाजें साथ-साथ आ रही हों। नहीं साहब! बकरों की तरह से में-में, में-में। कोई तो प्रचोदयात् बोल रहा है, कोई तत्सवितुर बोल रहा है, लगा गाल में एक चाँटा। हम यहाँ बोलते हैं कि हमारे साथ-साथ बोलिए। कोई पीछे बोल रहा है, कोई इधर, कोई उधर बोल रहा है। ये बेटे! डिसिप्लिन का उल्लंघन है।
मित्रो! हम डिसिप्लिन—अनुशासन सिखाते हैं। हर आदमी को अनुशासित होना चाहिए, डिसिप्लिन में रहना चाहिए। नहीं साहब! हमारी मरजी है, हम तो जोर से चिल्लाएँगे। नहीं, जोर से नहीं चिल्लाने देंगे, जबान बंद रखो। या तो हमारे साथ-साथ बोलो या चुप बैठो। नहीं साहब! आप प्रचोदयात् बोलिए हम धीमहि बोलेंगे। एक ऊँचा चिल्ला रहा है, एक नीचा चिल्ला रहा है, ऐसे नहीं बोलने देंगे। साथ-साथ गले से गला मिलाकर बोलो। हम यह अनुशासन सिखाते हैं, ताकि आप में से हर आदमी हवन कराने में डिसिप्लिन रखना सीख जाए और अपने पड़ोस को एक कायदे-कानून में चलाना सीख जाए। यदि आप अनुशासन में रहना सीख लेते हैं तो मैं आपका ब्रह्मा नाम, आचार्य नाम रख दूँगा। नहीं साहब! हमको श्लोक आते हैं, और झपकी लेते रहते हैं और श्लोक बोलते रहते हैं। हमें तो अपने माइक से और किताब से काम है। कोई सुने, चाहे न सुने, बोले या न बोले। हम तो बकवास करते चले जाते हैं। बेटे! थोड़ी सी बातें हैं, जो तुझे वहाँ यज्ञ में करनी चाहिए। बोलना और यज्ञ करना, ये बिलकुल मामूली बातें हैं। महीने भर में नहीं सीखेगा तो दो महीने में सीख जाएगा।
हमारा उद्देश्य अलग है
लेकिन मित्रो! इससे हमारा वह उद्देश्य पूरा नहीं होगा, जिसमें कि हम अपनी कीमती जिंदगी को खरच करते चले जाते हैं और जिसके आधार पर हम लंबे-चौड़े ख्वाब देखते चले जाते हैं। उन ख्वाबों के आधार पर मनुष्य जाति के भाग्य का फैसला टिका हुआ है। अगर हमारे ये विचार और हमारे सपने नाकारा और निरर्थक साबित हुए तो हम कह सकते हैं कि यह असफलता केवल हमारी नहीं है, अपितु समूची मानव जाति की असफलता है। यह असफलता सभ्यता की है, संस्कृति की है, धर्म की है, अध्यात्म की है, ऋषियों की है। यह असफलता हमारी उन महान परंपराओं की है, जिन्होंने विश्व का निर्माण, निर्धारण किया था। इसीलिए मित्रो! मैं आपसे अपने सपनों के पीछे छिपी हुई दृष्टि की बावत कहना चाहूँगा। हमको आखिर करना क्या है और बनना क्या है? कराना क्या है और बनाना क्या है ?
मित्रो! आप सिर्फ यह ध्यान रखिए कि हमको मनुष्य का चिंतन, मनुष्य की दृष्टि और मनुष्य की निष्ठाएँ, इनका स्तर ऊँचा उठाना है। इसके लिए आपको कर्मकाण्डों की सहायता लेनी पड़ेगी। ठीक है, लेकिन आपकी स्वयं की दृष्टि जिसको मैं फिलॉसफी—दर्शन कहता हूँ। वास्तव में जो दर्शन था, प्राचीनकाल में इसी मामले में इस्तेमाल हुआ था। अब तो दर्शन के नाम की ऐसी मिट्टीपलीद हो गई है जैसे गाँधी जी ने हरिजन नाम दिया था। क्यों साहब! आप तो हरिजन मालूम पड़ते हैं, तिलक लगाए हैं, जनेऊ पहने हुए हैं। अरे साहब! हमें हरिजन क्यों कहते हैं आप? हरिजन तो उन्हें कहते हैं, अछूतों को। अरे बेटे! हरिजन माने जो भगवान का आदमी मालूम पड़ता हो। नहीं साहब! हरिजन मत कहिए हमें! धत् तेरे का। हरिजन नाम की ऐसी मिट्टीपलीद हो गई। इतना ऊँचा नाम था और कितना घटिया अर्थ उसका लग गया। ठीक इसी तरीके से दर्शन की भी ऐसी मिट्टीपलीद हुई है कि क्या कहें।
दर्शन का अर्थ देखना नहीं
मित्रो! कहाँ गए थे? दर्शन करने गए थे? किसका दर्शन करने गए थे? साहब! बदरीनाथ का दर्शन करने गए थे। तो कर लिया दर्शन? हाँ साहब! खूब दर्शन हो गए। भीड़ तो बहुत थी, पर हम पंद्रह मिनट खड़े रहे और अच्छी तरह से दर्शन हो गए। दर्शन से आपका मतलब क्या है? बेटे! दर्शन का अर्थ यदि देखना भर लगाता है तो देखने का इतना ही फायदा होगा कि उसकी यह व्याख्या कर सकता है कि बदरीनारायण संगमरमर के बने हैं या भूसा के बने हुए हैं। उनकी नाक लंबी है कि चौड़ी है। बस, इतनी ही जानकारी तुझे होगी और इतना ही पुण्य मिलेगा। बस, इतना ही फायदा होगा। इस दर्शन से तो महाराज जी! इस दर्शन से तो बैकुंठ मिलेगा न? नहीं बेटे! तुझे नहीं मिलेगा; क्योंकि तेरे दर्शन के माने-मतलब का अर्थ जो तुमने समझा है, वह मात्र देखना समझा है। वास्तव में दर्शन का अर्थ देखना नहीं है ।
साथियो! दर्शन का मतलब 'दर्शन—ट्रू फिलॉसफी'। दर्शन के पीछे एक दृष्टि काम करती है। आप किसको देखने के लिए गए थे? गाँधी जी को। गाँधी जी को देखने के लिए तो लाखों लोग गए होंगे। तो क्या पुण्य मिला? बेटे! मैं समझता हूँ कि कोई पुण्य नहीं मिला होगा। जो भी आदमी उन्हें देखने के लिए अपना किराया-भाड़ा खरच कर गए होंगे तो सिर्फ इतनी जानकारी लेकर के आए होंगे कि एक छोटी कद-काँठी का काला व ठिगना आदमी था, जिसकी आँखें छोटी और नाक लंबी थी। बस, इतनी-सी जानकारी का जो पुण्य होगा, मिला होगा। नहीं महाराज जी! गाँधी जी के पास जाने से तो बड़ा पुण्य मिलता है। नहीं बेटे! अगर उनके दिमाग में दृष्टि नहीं है, तब कोई पुण्य नहीं मिलता। हाँ, जिनकी आँखों में दर्शन रहा होगा, उनने गाँधी जी को देखा होगा और देख करके उनकी फिलॉसफी को समझा होगा। उनके प्रति जो उनकी निष्ठा- श्रद्धा थी कि गाँधी जी बहुत अच्छे आदमी हैं, उस निष्ठा को ग्रहण किया होगा और ग्रहण करने के बाद उनका नाम विनोबा हो गया।
विनोबा कौन हैं? दूसरे नंबर के गाँधी हैं। गाँधी जी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह में जब अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो लोग बहुत उम्मीद लगाए बैठे थे कि गाँधी जी के जेल जाने के बाद में दूसरे नंबर पर कौन हो सकता है? दूसरा नंबर जवाहरलाल नेहरू का होना चाहिए, सरदार पटेल का होना चाहिए। सब अखबार वाले इंतजार कर रहे थे कि गाँधी जी अपना उत्तराधिकारी डिक्लेयर करेंगे। दोनों में से या तो जवाहरलाल नेहरू हो सकते हैं या फिर सरदार पटेल हो सकते हैं। ये दोनों बड़े दबंग थे, लेकिन गाँधी जी ने, सन् १९३६ में जब व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन शुरू हुआ था तो उसमें डिक्लेयर किया कि मेरे गिरफ्तार होने के बाद में राष्ट्र की लगाम चलाने वाला और दूसरे नंबर का सत्याग्रही होगा तो विनोबा भावे होगा।
अंतर दो स्थितियों में
मित्रो! विनोबा भावे और जवाहरलाल नेहरू में क्या मुकाबला है? एक छोटे, गरीब घर में कंगाल घर में पैदा हुए। न इनके पास साइकिल है, न इनके पास मोटर है, न इनके पास और कुछ भी है, बिलकुल नाचीज आदमी। ऐसे नाचीज आदमी और दुनिया में नहीं हैं तो क्या विनोबा भावे व्याख्यान दे सकते हैं? बेटा! मामूली सा देते हैं, कोई खास व्याख्यान नहीं देते। पढ़े-लिखे हैं? अरे साहब! वो क्या पढ़े-लिखे हैं, ऐसे ढेरों आदमी पढ़े-लिखे हैं। अभी कल-परसों अपने यहाँ हरिद्वार के एक प्रिंसिपल आए थे। उन्होंने बताया कि मैंने कितने विषयों में एम० ए० किया है। ढेरों विषयों में एम० ए० किया हुआ है। उन्होंने कहा कि अभी बहुत सारे विषयों में और एम० ए० करूँगा। अगर विनोबा भावे ने एम० ए० कर लिया है या कई भाषाएँ पढ़ ली हैं तो कौन सी नई बात हुई? कोई खास बात नहीं है। मित्रो! उनके अंदर क्या विशेषता है? उनकी दृष्टि, उनका चिंतन, उनकी मान्यताएँ, उनकी निष्ठाएँ, उनकी आस्थाएँ—बस। असल में आदमी की शक्ति इसी में है। आदमी का वर्चस्व इसी में है। आदमी का गौरव इसी में है। आदमी का प्रभाव इसी में रहता है। आदमी की सामर्थ्य इसी में रहती है।
मित्रो! आपसे हम कर्मकाण्डों का जो कृत्य कराते हैं और जिस पर हम अधिक जोर देते हैं। 'धर्मतंत्र से लोकशिक्षण' में कर्मकाण्डों की धूम मचा दी है और कहा है कि आप पर्व मनाइए, संस्कार मनाइए, यज्ञ कराइए, वसंतपंचमी का त्योहार मनाइए, जन्मदिन मनाइए। रामायण की कथा कराइए, भागवत की कथा कराइए, कितने सारे धार्मिक क्रिया-कलाप लोगों को दिए हैं। आपको स्वयं कितने क्रिया-कलाप दिए हैं। जप कीजिए, उपासना कीजिए, खेचरी मुद्रा कीजिए, ध्यान कीजिए आदि कितने सारे कर्मकाण्ड जनता को एवं आपको बता दिए हैं। तो क्या गुरुजी ! इन कर्मकाण्डों का इतना बड़ा महत्त्व है? बेटे ! कोई महत्त्व नहीं है। इन कर्मकाण्डों का महत्त्व व्यक्तिगत जीवन में और सामूहिक जीवन में सिर्फ एक बात पर टिका हुआ है कि आपने इन कर्मकाण्डों के साथ दृष्टि, चिंतन, फिलॉसफी को जोड़ करके रखा है कि नहीं रखा। यदि ये चीजें आपके कर्मकाण्डों के साथ जुड़ी होंगी तो आपके व्यक्तिगत जीवन में उससे बहुत फायदा होगा। और सामूहिक जीवन में, सामाजिक जीवन में—जिस क्षेत्र को आप ऊपर उठाना चाहते हैं, आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसको बेहद लाभ होगा।
जरूरी है दृष्टिकोण का परिष्कार
साथियो! अगर अपने स्वयं में दृष्टिकोण का परिष्कार नहीं किया और जनता के दृष्टिकोण का परिष्कार नहीं किया। आप मात्र हवन कराते रहे। कितनी आहुतियाँ दीं? साहब! बाईस हजार आहुतियाँ दे दीं, दस हजार आहुतियाँ दे दीं, तो मैं यह पूछता हूँ कि इतनी आहुतियाँ देने के बाद, जो लोग उसमें आहुतियाँ देने के लिए आए थे, आखिर में आहुति देने के पीछे जो फिलॉसफी जुड़ी हुई है कि हमको उसमें किसकी आहुति देनी चाहिए; क्या त्याग करना चाहिए; बलिदान करना चाहिए; सेवा को जीवन का अंग बनाना चाहिए—यह भी सिखाया क्या? नहीं साहब! यह तो नहीं सिखाया। फिर क्या सिखाया—दे आहुति-दे आहुति.....। बेटे! इससे तेरा क्या फायदा हुआ होगा? मालूम नहीं, शायद धुएँ से किसी की आँखें खराब हो गई हों। नहीं महाराज जी ! उस समय तो किसी की आँखें खराब नहीं हुई थीं, हाँ, आँखों में से पानी तो बहुतों की से टपक रहा था। देख ले, यही फायदा हो गया कि आँखों में कोई कीचड़-वीचड़ रहा होगा, सो धुएँ से निकल गया। और क्या फायदा हो गया होगा? और बेटे! ठंढक में हवन कराया था या गरमी में कराया था? गुरुजी! ठंढक में कराया था। अच्छा तो एक फायदा यह हो गया कि जाड़े के मारे जो लोग काँप रहे होंगे, वे हाथ सेंक रहे होंगे और हवन भी कर रहे होंगे। और कोई फायदा हुआ? और कोई फायदा नहीं हुआ।
सोने का नेवला
मित्रो! हवन का, कर्मकाण्ड का जो मूल लाभ है, वह उसके चिंतन का लाभ है। दृष्टिकोण के स्तर की ऊँचाई बढ़ाने का लाभ है—आप यह बात ध्यान रखना। प्राचीनकाल का इतिहास और नया इतिहास यह बराबर बताते हैं कि यदि क्रिया-कृत्य सामान्य हो, तो भी उसके फल असामान्य होंगे। पिछले शिविर में एक दिन मैंने आपको एक नेवले की कहानी सुनाई थी। एक ब्राह्मण थे, जो चार रोटी का अनाज कहीं से लाए थे और भूखे रहते हुए उन्होंने चारों रोटियाँ दान कर दी थीं। रोटी एक चांडाल ले गया था। उसके जूठे पानी में नेवले का थोड़ा अंग भीग गया था और वह सोने का हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने जब पाण्डवों का यज्ञ कराया था तो उसमें वह नेवला गया था और कहने लगा था कि साहब! इस यज्ञ का इतना पुण्य नहीं हुआ। तो महाराज जी! किससे होता है पुण्य? इससे पुण्य होता है कि तुम अपनी थाली में एक-एक रोटी रख लो और जो कोई भी आदमी आए, उसे चारों रोटी दान कर दो। महाराज जी! तो क्या नेवला इससे सुनहला हो जाएगा? नहीं होगा। अच्छा तो मैं चार रोटी की जगह छह रोटियाँ रख दूँ अथवा एक किलो आटे की रोटियाँ थाली में रख दूँ? और दान कर दूँ तो तो भी नहीं होगा। क्यों?
क्योंकि इसका जो अर्थ तू समझता है, वह दृश्य का समझता है; कृत्य का समझता है; पदार्थ का समझता है । यही मतलब है न तेरा? लेकिन पदार्थ का क्या मूल्य हो सकता है, क्या महत्त्व हो सकता है? पदार्थ को तो घर में चूहे भी खा जाते हैं। हाँ महाराज जी। चार रोटी का अनाज तो रोज चूहे खा जाते हैं। तो महाराज जी ! अनाज का पुण्य करने से क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं हो जाएगा। तो कैसे हो जाएगा? बेटे! उसका एक ही आधार है, और दूसरा कोई नहीं है और उसका नाम है—दृष्टि। अभी मैंने आपको उस आदमी का हवाला दिया, जिसकी चार रोटियों ने यह कमाल कर दिया था। उसके पीछे एक दृष्टि थी, एक फिलॉसफी थी और वही यज्ञ हो गई। इतना बड़ा यज्ञ हो गई कि उसके मुकाबले में श्रीकृष्ण का पाण्डवों द्वारा लाखों रुपया खरच करके कराया हुआ यज्ञ नाचीज हो गया। लेकिन भूखे ब्राह्मण का वह चार रोटी दान करने वाला यज्ञ बड़ा हो गया।
मित्रो! वह क्या था? वह एक दृष्टि थी, जो उस आदमी के भीतर काम करती थी। वह दृष्टि यह काम करती थी कि मैं अपने पेट पर पट्टी बाँध सकता हूँ, लेकिन यदि मुझसे जो ज्यादा पिछड़े हुए आदमी हैं, गिरे हुए, दुखियारे आदमी समाज में हैं तो उनका यह हक है कि मैं उनकी सेवा करूँ। इसके लिए चाहे मुझे मुसीबतें ही क्यों न उठानी पड़ें, तो उठाऊँ। यह दृष्टि, यह निष्ठा, यह आस्था, यह विश्वास इतना शक्तिशाली था कि देवताओं के सोने के सिंहासन हिल गए।
तोते की मुक्ति गायत्री मंत्र से
मित्रो! पिछले दिनों मैं वहाँ गया—केन्या। नैरोबी (केन्या) में एक लड़की रहती है—विद्या। उसने कांगो का एक तोता पाल रखा था। तोता जो था, वह ऐसा बढ़िया साफ-साफ गायत्री मंत्र बोलता था। मैंने उसको कैसेट में टेप कर लिया और कहा कि जब हिंदुस्तान जाऊँगा तो लोगों को बताऊँगा कि एक सुग्गा इतना सही गायत्री मंत्र बोलता है। टेप के बिना तो मेरी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। इसीलिए मैं टेप करके लाया। जब मैं वहाँ ठहरा था तो देखा कि सुबह-सवेरे चार बजे कौन इतना साफ गायत्री मंत्र बार-बार बोलता है? यह चक्कर क्या है? मैं बहुत देर तक देखता रहा, लेकिन समझ में नहीं आया। फिर मैंने उस लड़की से पूछा कि यह गायत्री मंत्र कौन बोलता है? वह बोली—गुरुजी! कांगो एक देश है, जहाँ के सुग्गे बड़े-बड़े होते हैं और वे मनुष्य की आवाज को ठीक तरीके से याद कर लेते हैं। उस तोते ने भी गायत्री मंत्र याद कर रखा था। अच्छा महाराज जी! वह कितनी बार गायत्री मंत्र बोलता होगा? बेटे! वह सौ बार या एक सौ आठ बार तो बोलता ही होगा। तो क्या उसकी मुक्ति हो जाएगी? आपके खयाल से तो हो भी सकती है, पर मेरे खयाल से नहीं होगी; क्योंकि उसके भीतर कोई चिंतन नहीं है; कोई दृष्टि नहीं है; कोई आस्था नहीं है; कोई विश्वास नहीं है। केवल शब्दों को ही रिपीट करता रहता है।
अध्यात्म : आस्थाओं का परिपाक
अच्छा महाराज जी! शब्दों में कितनी ताकत है? बेटे! बस, इतनी ताकत है कि हम उसे टेप कर लाए और हम उस सुग्गे का नाम ले रहे हैं। और कोई ताकत है? और कोई ताकत नहीं है। बस, इससे लोगों को जानकारी मिल जाती है कि चार हजार जप कर लिया या तीन हजार जप किया। तो इसका कोई पुण्य नहीं है? न बेटे! कोई पुण्य नहीं है। पुण्य कैसे हो सकता है? दृष्टि से हो सकता है। दृष्टि अगर हमारे पास हो, चिंतन हमारे पास हो, आस्थाएँ हमारे पास हों, हमारे जप में भावविह्वलता जुड़ी हो तो यही सामान्य जप इतना बड़ा फलदायक हो सकता है, जिसके मुकाबले में तराजू में बड़ी-से-बड़ी चीज तौली जा सकती है। और इसके मुकाबले बड़ी-से-बड़ी चीज इतने कम मूल्य की हो सकती है, छोटे मूल्य की हो सकती है कि ढेरों-का-ढेरों श्रम, ढेरों-का-ढेरों धन खरच करने के बाद भी हम उसको हिकारत की नजर से देख सकते हैं और उसे छोटी चीज ठहरा सकते हैं। अगर उसके पीछे निष्ठाएँ हों तब, आस्थाएँ हों तब। आस्थाओं का परिपाक—इसी का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म और कोई चीज नहीं है, मात्र दृष्टि के परिष्कार का नाम है।
मित्रो! दृष्टिकोण के परिष्कार की बात पर जब हम विचार करते हैं, तब हमको मालूम पड़ता है कि छोटी छोटी घटनाएँ धार्मिक क्षेत्रों में घटित हुई हैं तो उनके कितने तीव्र और कितने महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न हुए हैं। एक साधु और चिड़िया की कहानी कितनी बार आपको सुनाता रहता हूँ। एक साधु आया था। अपनी नजरों के तेज से उसने चिडि़या को जला दिया था। एक स्त्री थी, जिसने कहा था कि मैं योगाभ्यास कर रही हूँ। योगाभ्यास में वह खाना पका रही थी और अपने सास-ससुर की सेवा कर रही थी। तो महाराज जी! हमारी बहू भी सास-ससुर की सेवा करती है और हमको खाना खिलाती है तो उतना ही पुण्य हमको भी मिल जाएगा क्या, जितना कि आप जो महाभारत का किस्सा सुना रहे थे? नहीं बेटे! तेरी बहू को नहीं मिलेगा। क्यों महाराज जी! उसमें क्या बात है? और उसमें क्या बात थी? वह भी खाना पकाती थी और हमारी औरत भी खाना पकाती है। बेटे! मुख्य बात—असल बात यह है कि तेरी औरत किस भाव से खाना पकाती है और किस दृष्टि से तेरी सेवा करती है? सारे-का-सारा चमत्कार, सारे-का-सारा जादू यहाँ है। अगर वह मजबूरी से खाना पकाती है, पेट के लिए खाना पकाती है तो समझ ले बेटे कि वह एक नौकरानी के तरीके से है, मजदूरनी के तरीके से है। उसमें वह योग की दृष्टि नहीं आ सकती, जो जिस महिला की बात मैंने बताई थी।
सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी
मित्रो! नकल क्रिया की मत कीजिए, भावनाओं की कीजिए। आपको तौल भावनाओं से करनी पड़ेगी, क्रियाओं से नहीं। क्रियाओं से तौल करके मैंने उसी कहानी में बताया था कि एक चांडाल था, जो टट्टी साफ करने का काम करता था, लेकिन वह बहुत बड़ा ब्रह्मज्ञानी था। उसी कहानी में मैंने तुलाधार वैश्य की कहानी बताई थी। वह लौंग-हींग बेचता था, लेकिन ब्रह्मज्ञानी था, तपस्वी था। मित्रो! गाड़ी वाले रैक्य की घटना का वर्णन उपनिषदों में आता है। एक दिन एक हंस और हंसिनी बैठे हुए बात कर रहे थे। राजा जनक वहीं समीप में बैठे थे। हंस-हंसिनी कहने लगे कि इस जमाने का सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी कौन हो सकता है? उसने किसी एक ऋषि का नाम लिया। उसने कहा कि इस जमाने का सबसे बड़ा ऋषि गाड़ी वाला रैक्य है। राजा को चैन नहीं मिला। उसने कहा कि हमारे राज्य में गाड़ी वाला रैक्य सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी है। चलो, उसकी तलाश कराएँ और पता लगाएँ कि वह कैसा ब्रह्मज्ञानी है। पता लगाने के लिए बहुत दिनों तक नौकर-चाकर भेजते रहे। आखिर में जब पता लगा तो देखा कि जैसे आपने गाड़िया लोहार देखे हैं, जो अपनी गाड़ी लिए गाँव-गाँव फिरते हैं। ऐसे ही एक गाड़ी लिए, मजदूरी करता हुआ, गाड़ी में सामान ढोता हुआ एक छोटा-सा वृद्ध मजदूर दीखा। बात-चीत करने पर उसकी विद्वत्ता का, श्रेष्ठता का राजा को भान हुआ कि वास्तव में वे इस जमाने के सर्वश्रेष्ठ ऋषि हैं।
साथियो! क्रिया-कृत्य करने वाले कितने ही महात्मा होते हैं; संत होते हैं; ज्ञानी होते हैं। लेकिन हम देखते हैं कि छोटी-छोटी क्रियाएँ करने वाले, जिनकी क्रियाएँ नगण्य थीं, जिनकी क्रियाएँ मजाक उड़ाने वाली थीं, उपहास करने वाली थीं, फिर भी उनका ब्रह्मज्ञान, भगवान की भक्ति उच्चस्तरीय रही है। जैसे कबीर का किस्सा अभी तो मैंने आपको नहीं सुनाया, परंतु पहले के शिविरों में सुना चुका हूँ। अभी मैं आपको रैदास की बात सुना रहा हूँ। वे चप्पल सिला करते थे, चमड़े का काम किया करते थे, लेकिन उनकी कठौती में से गंगा प्रकट हुई थीं। महात्मा पाण्डुरंग जब उनके दिए हुए दो पैसे लेकर गंगा जी में गए थे तो गंगा जी ने हाथ निकाल दिए थे और कहा था कि रैदास के पैसे हैं तो हमको दे दीजिए। क्या ये बातें सही हैं? हाँ बेटे! सही हैं।
सिद्धपुरुष कबीर
कबीर क्या करते थे? क्रिया-कृत्य कितना करते थे? जप कितना करते थे? अनुष्ठान कितना करते थे? बेटे! मुझे मालूम नहीं है, लेकिन इतना मुझे मालूम है कि कबीर अपना पेट पालने के लिए भिक्षा माँगने के बजाय हाथ से सूत कातते थे। उस सूत से कपड़ा बुनते थे और कपड़ा बुनने से जो दो-चार आने की मजदूरी मिल जाती होगी, उसी से अपना पेट भर लेते और अपना गुजारा कर लेते थे। महाराज जी! तो वे अनुष्ठान नहीं करते थे? हाँ बेटे! वे अनुष्ठान नहीं करते थे। और प्राणायाम? प्राणायाम भी नहीं करते थे। और समाधि? समाधि भी नहीं लगाते थे। कपड़ा बुनते थे। तो महाराज जी! कपड़ा बुनने पर भी, कोई अनुष्ठान न करने पर भी, जप-तप न करने पर भी वे कैसे इतने उच्चस्तरीय संत हो गए कि जिनके मरते समय हिंदू और मुसलमानों में लड़ाई हुई। मुसलमान कहते थे कि यह तो हमारा है और हिंदू कहते थे कि हमारा है। इस झगड़े को देखकर कबीर ने सोचा कि जिंदगी भर हम मोहब्बत पैदा करते रहे और अब मरते समय हमारी लाश के पीछे लड़ाई हो तो यह खराब बात है। उनकी मरी हुई लाश गायब हो गई और वहाँ, जहाँ उनकी लाश पड़ी हुई थी, केवल फूल पड़े रह गए। आधे फूल मुसलमान उठा ले गए, क्योंकि वे जुलाहे के यहाँ पैदा हुए थे और जुलाहे ने पालन-पोषण किया था। उन्होंने कहा कि इसकी मसजिद बनाएँगे, मकबरा बनाएँगे और मकबरा बना दिया गया।
मित्रो! आधे फूल हिंदू उठा ले गए। उन्होंने उन फूलों को जला दिया। जलाने के बाद में कबीरचौरा बना दिया गया। ऐसे थे वे सिद्धपुरुष, ऐसे थे महापुरुष। क्यों साहब! सूत बुनने से हो सकते हैं? हाँ बेटे! सूत बुनने से हो सकते हैं। देख-सूत बुनने की खड्डियाँ हमारे यहाँ लगी हुई हैं। तू यहाँ से खड्डी ले जा और अपने घर में सूत बुना कर। थोड़े दिनों में कबीर हो जाएगा। तो महाराज जी! मैं कबीर हो जाऊँगा बेटे! तू कबीर नहीं हो सकता। ऐसी दृष्टि कहाँ है? तेरे पास, चिंतन कहाँ है? तेरे पास आस्थाएँ कहाँ हैं? तेरे पास विश्वास कहाँ है? अगर तेरा यह खयाल है कि कृत्यों के माध्यम से, घटनाओं के माध्यम से, क्रिया-कलापों के माध्यम से भगवान को पाना चाहता है, तो यह नामुमकिन है।
विधि क्यों पूछते हैं?
यहाँ कितने लोग आते रहते हैं और बार-बार यही पूछते रहते हैं कि विधि बताइए। किसकी विधि बताएँ? गायत्री माता का साक्षात्कार करने की विधि बताइए। अरे अभागे! विधि तो पूछ मत। तू तो केवल रामनाम लेता चल, इसी से पार हो जाएगा। वाल्मीकि इसी से पार हो गए थे। प्रह्लाद इसी से पार हो गया था। मैंने तो यह गायत्री मंत्र बता दिया है। नहीं साहब! आपने गायत्री मंत्र तो बता दिया है, पर विधि नहीं बताई है। क्या विधि बताऊँ? नहीं महाराज जी! बीजमंत्र लगाने की विधि बताइए। बताऊँ तेरा सिर, बेहूदा कहीं का। विधियाँ पूछता है। विधियों में क्या रखा है! नहीं साहब! ऐसी विधि बताइए कि फट से भगवान मिल जाएँ। बेटे! कोई विधि नहीं है ऐसी, केवल एक ही विधि है। कौन-सी? अपना ईमान और अपनी निष्ठाएँ, अपने विश्वासों की गहराइयों को मजबूत बनाता चला जा। फिर देख तू रामनाम लेता हो, तो भी तुझे मुबारक। रामनाम न भी आता हो, मरा मरा कहता हो, तो मुबारक! मरा-मरा कहने से, उलटा नाम जपने से—
उलटा नाम जपा जग जाना।
वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना॥
वाल्मीकि ब्रह्म के समान हो गए थे। विधियाँ बताइए। बेटे! मैं विधियाँ बताता तो हूँ। विधियों पर प्रचार करता हूँ, विधियाँ आपको भी सिखाता हूँ। विधियाँ जनता को भी सिखाई हैं, पर मैं हमेशा यह कहता रहा हूँ और कहता रहूँगा कि विधियों के माध्यम से हम लोगों की निष्ठाओं को परिपक्व करते हैं। जनमानस का परिष्कार हमारा मूल उद्देश्य है।
मित्रो! एक दिन मैंने कहा था कि पहले के जमाने में बड़ी गरीबी के, कंगाली के दिन थे। हमें कंगाली के वे दिन अभी भी याद हैं। जब हम छोटे थे तो हमारे गाँव के लोग साग-भाजी के लिए हमारे यहाँ आया करते थे। हमारी माताजी शाम को जब सोया करती थीं तो दो कटोरे साग उठाकर रख दिया करती थीं और दोपहर के भोजन के बाद भी दो कटोरे साग-भाजी उठाकर रख दिया करती थीं। किस काम के लिए रख रही हैं? इतना बड़ा गाँव है, किसी के घर मेहमान आ गया तो? साग नहीं था तो दाल से खाते थे। साग-भाजी का उन दिनों नाम भी नहीं था। कोई मेहमान आ जाए, जमाई आ जाए तो सब भाग करके आते थे और माताजी से साग-सब्जी माँगकर ले जाते थे। गेहूँ का आटा किसी के यहाँ नहीं है तो हमारे यहाँ से ले जाते थे। उन दिनों गेहूँ नहीं था, लोग मक्का खाते थे। बड़ी गरीबी के दिन थे।
(क्रमशः)
बदला हुआ समाज
मित्रो! हमने सारे समाज को देखा है। आज हम गरीब नहीं हैं, संपन्न हैं, पैसे वाले हैं, लेकिन पुराने लोगों की तुलना में आज के लोगों में जो फरक दिखाई पड़ता है, वह एक ही है कि आदमी का चिंतन और आदमी का दृष्टिकोण बराबर घटिया होता हुआ चला जा रहा है। पहले एक घर में ३०-३०, ४०-४० आदमी मिल-जुलकर रह लेते थे, पता ही नहीं चलता था। हर आदमी अपना काम करता और मजे से रहता था। स्वार्थपरता, आपा-धापी, छीना झपटी नाममात्र की भी नहीं थी। अरे साहब ! इतना बड़ा घर पड़ा है। भगवान सबका पालन कर रहा है। इस घर में हमारा भी गुजारा हो जाएगा। पच्चीस आदमी मरेंगे तो हम भी मर जाएँगे। पच्चीस आदमियों को रोटी नहीं मिलेगी तो हमको भी नहीं मिलेगी। परंतु अब हर आदमी यह सोचता है कि इस घर से मैं कितना चुरा सकता हूँ और अलग से कितना-क्या बना सकता हूँ?
यह दृष्टिकोण आने से क्या होता चला गया? मित्रो! इसके आने से हमारे घरों का सत्यानाश होता चला गया। हमारी संपत्ति बेकार हो गई, नाकारा हो गई। ज्यादा आमदनी से कुछ फायदा न हो सका। ज्यादा आमदनी हो गई तो बाप बेटों के लिए जमा करके रख गया। होना यह चाहिए था कि बाप की कमाई से सारा-का-सारा घर गुजारा करता और चैन से हर व्यक्ति आगे बढ़ता। परंतु जैसे ही बाप के मरने के दिन आए, आपस में मुकदमेबाजियाँ शुरू हो गईं। मार-काट शुरू हो गई। फौजदारी शुरू हो गई। खून खराबियाँ शुरू हो गईं। कत्ल शुरू हो गए। संपत्ति थी, तो खुशहाली बढ़नी चाहिए थी, लेकिन खुशहाली नहीं बढ़ सकी, उलटे विनाश खड़ा हो गया। क्यों? क्योंकि दृष्टिकोण घटिया हो गया।
दृष्टिकोण घटिया हो जाने से मित्रो! हमारे सारे समाज का सर्वनाश होता चला गया और यह दौलत हमारे किसी काम नहीं आ रही है। यह दौलत हमारे लिए विनाश खड़ा करेगी। क्यों? क्योंकि दृष्टिकोण का स्तर गिरा और सामान का स्तर बढ़ा तो कितनी बड़ी असमानता आ गई। सामान का स्तर बढ़ना चाहिए था तो दृष्टिकोण भी ऊँचा होना चाहिए था। तब जो साधन-संपत्ति हमारे पास है, उसका फायदा समाज ने उठाया होता। विद्या हमारी बढ़ी तो विद्या के साथ-साथ हमारा हृदय भी बड़ा होता, दिमाग की चौड़ाई बढ़ी होती। अगर ये दोनों साथ-साथ बड़े और बढ़े होते तो फिर चाहे हम कम पढ़े-लिखे होते अथवा ज्यादा पढ़े लिखे होते, फिर हमारे ज्ञान का फायदा सारे समाज ने उठाया होता।
बढ़ना चाहिए सहृदयता का क्षेत्र
मित्रो! महर्षि चरक के श्रम ज्ञान का लाभ हम और आप अभी तक उठा रहे हैं। हजारों वर्ष हो गए, चरक अपनी पुस्तक 'चरक संहिता' जैसा महान आयुर्वेदिक ग्रंथ लिखकर रख गए हैं। चरक ने अपने उस ज्ञान का लाभ स्वयं तो उठाया ही, संसार भर के बीमारों ने उसका लाभ उठाया, पीछे वाले लोगों ने, हकीमों ने उसका लाभ उठाया। चरक की लिखी हुई किताब को पढ़ कर सैकड़ों आदमी अपना पेट पाल रहे हैं, गुजारा कर रहे हैं, दवा-दारू कर रहे हैं। हजारों आदमियों का इलाज कर रहे हैं।
बेटे! ज्ञान और अक्ल के साथ-साथ यदि आदमी का कलेजा बढ़ जाए तब? हृदय बढ़ जाए तब? दृष्टिकोण बढ़ जाए तब? तब फिर मजा आ जाए और अगर हमारा कलेजा-हृदय छोटा होता हुआ चला जाए, तब फिर हमारा दिमाग सफाया करेगा और हममें से हर आदमी ठग बनने की कोशिश करेगा। धूर्त और बेईमान बनने की कोशिश करेगा। जालसाज बनने की कोशिश करेगा और ऐसी अक्ल से अपने पड़ोसी की गरदन काटने की तैयारी करेगा। आज जो अक्ल मनुष्य को मिली हुई है, उससे वह ऐसे-ऐसे जाल रचेगा, जिसमें वह स्वयं ही उलझकर मरेगा और जो भी उसके संपर्क में आएगा, उसको भी मार डालेगा। आज की अक्ल ऐसी ही है।
मित्रो! पिछले दिनों जिन लोगों के पास अक्ल थी, वह बड़ी जबरदस्त थी। एक सज्जन थे, जिन्होंने पाकिस्तान की हिमायत की और पाकिस्तान बनाया। मुंबई के मालाबार हिल पर उनकी जो कोठी थी, उस पर उनके जूनियर लोग काम करते थे। कितने लोग काम करते थे? यही कोई ४२-४३ एडवोकेट, सोलीसिटर काम करते थे। वे उनके अंडर में केस तैयार करते थे। वे एक बहुत बड़े वकील थे, बहुत बड़े बैरिस्टर थे, लेकिन अक्ल ने क्या काम किया? अक्ल ने यह काम किया कि हिंदुस्तान का बँटवारा हो गया। अगर उनकी अक्ल ने यह काम किया होता कि हिंदू और मुसलमान मिलकर रहें, मुहब्बत से रहें, प्यार से रहें तो मैं समझता हूँ कि हमारा देश—यह साठ करोड़ का हिंदुस्तान और उसके तिहाई के करीब पाकिस्तान, दोनों को मिला कर एशिया का सबसे बड़ा देश होता। एशिया में चाइना से बड़ा, दुनिया का सबसे बड़ा देश होता और हमारी संयुक्तशक्ति ने क्या किया होता? लेकिन हम आपस में कट मरे, खून-खराबा हुआ। इधर के लोग उधर भाग गए और उधर के लोग इधर भाग आए। अभी भी उसका फल भुगत रहे हैं। अक्ल ने क्या किया? अक्ल की बड़ी महत्ता है।
लानत है ऐसी अक्ल पर
लेकिन मित्रो! ऐसी अक्ल के ऊपर लानत है। ऐसे एम० ए० होने के ऊपर, बी० ए० होने के ऊपर धिक्कार है। अगर यह अक्ल मनुष्य के हृदय को विकसित न कर सकती हो, हृदय को विकसित करने में इसने सहायता न की हो तो मैं अक्ल से ज्यादा खराब, अक्ल से ज्यादा खौफनाक कोई चीज नहीं समझता। अगर दृष्टिकोण का परिष्कार न हो और केवल शिक्षा का एवं दिमाग का विकास हो तो मेरी बात चले तो—मैं यह नहीं जानता कि मेरी बात चलेगी कि नहीं चलेगी, किंतु अगर मेरी बात चले और कोई माने तो मैं सब स्कूलों को बंद करा दूँ और ये कहूँ कि बिना पढ़े आदमी अच्छे होते हैं। बिना पढ़े आदमी किसान हो सकते हैं, मजदूर हो सकते हैं, शरीफ हो सकते हैं और अगर किसी का नुकसान करेंगे तो थोड़ा-सा करेंगे। गाली-गलौज करेंगे, किसी का सिर फोड़ देंगे, लेकिन जिसके पास अक्ल है और हृदय नहीं है, ईमान नहीं है, वह आदमी तो दुनिया का सफाया करके रहेगा। उसका सत्यानाश और सर्वनाश करके रहेगा। जितनी पैनी अक्ल होगी, उतने ही तीखे विनाश के साधन होंगे। इसीलिए मैं अक्ल को न उठाने की बात कहूँगा, जब तक कि हृदय को ऊँचा न उठाया जा सके, समझदारी को ऊँचा न उठाया जा सके।
हृदय न बदले तो पैसा भी न बढ़े
मित्रो! मैं पैसे की वृद्धि करने के संबंध में भी इसी तरह का रुख अख्तियार करूँगा। भले ही लोग यह कहें कि इनके विचार दकियानूसी हैं और ये प्रतिगामी हैं। मैं पैसे के बारे में भी यही कहता हूँ कि लोगों के पास पैसा नहीं बढ़ना चाहिए। यदि उनके हृदय न बढ़ते हों, दृष्टिकोण न बढ़ता हो तो ब्रिटिश संसद में वेतन बढ़ाने की माँग को लेकर फिलॉस्फरों की राय जानने के लिए पार्लियामेंट में कुछ विशेषज्ञों को बुलाया गया। उनमें से एक फिलॉस्फर थे—जॉन स्टुअर्ट मिल। उस जमाने के वे माने हुए फिलॉस्फर थे। जॉन स्टुअर्ट मिल आए। उनने छूटते ही यह कहा "मजदूरों का वेतन न बढ़ाया जाए। वेतन बढ़ाने के मैं सख्त खिलाफ हूँ। उन्होंने अपनी गवाही में कहा कि जो वेतन बढ़ाया जा रहा है, उसकी तुलना में उनके लिए स्कूलों का प्रबंध किया जाए। उनके पढ़ने-लिखने का प्रबंध किया जाए, उनकी दवा-दारू का इंतजाम किया जाए, उनके शिक्षण का प्रबंध किया जाए और जब वे सभ्य एवं सुसंस्कृत होने लगें, तब उनके पैसे की वृद्धि की जाए, अन्यथा पैसे की वृद्धि करने से मुसीबत आ जाएगी। ये मजदूर तबाह हो जाएँगे।" बात खत्म हो गई। सभी ने एक मत से मजदूरों का वेतन ड्यौडा बढ़ा दिया।
तीन साल बाद जब इन्क्वायरी हुई कि ड्यौड़ा वेतन जो बढ़ाया गया था, उसका क्या फायदा हुआ? यह पता लगाया गया कि उसका लाभ मजदूरों को क्या मिला? मालूम पड़ा कि मजदूरों की बस्तियों में जो शिकायतें पहले थीं, वे पहले से दोगुनी हो गईं। खून-खराबा पहले से दोगुना हो गया। शराबखाने पहले की अपेक्षा दूने हो गए। वेश्यालयों की संख्या दोगुनी-चौगुनी हो गई। सुजाक, गरमी आदि गुप्त रोग पहले जितने मजदूरों को होते थे, उससे दूने-चौगुने हो गए। यह देखकर लोगों ने कहा कि जॉन स्टुअर्ड मिल की गवाही सही थी कि वेतन नहीं बढ़ाना चाहिए।
मित्रो! पैसा जरूर बढ़ाना चाहिए, लेकिन पैसा बढ़ने के साथ-साथ लोगों का ईमान, लोगों का दृष्टिकोण, लोगों का चिंतन भी बढ़ना चाहिए। आखिर जो पैसा हमें मिलेगा, उसका हम करेंगे क्या? अगर 'करेंगे क्या' की बात न हो तो इससे अय्याशी बढ़ सकती है। इससे फैशनपरस्ती की वृद्धि हो सकती है। इससे सिनेमाखोरी की वृद्धि हो सकती है। इससे नशेबाजी की वृद्धि हो सकती है। इससे दुनिया में तबाही आ सकती है और गरीबी से भी ज्यादा अमीरी महँगी पड़ सकती है, जैसे कि आजकल पड़ रही है।
यही बात धर्म क्षेत्र पर भी लागू होगी
मित्रो! दृष्टिकोण के विकास की आवश्यकता नहीं समझी गई तो हमारा धार्मिक क्षेत्र भी नाकारा होता हुआ चला जाएगा। इसमें भी ढोंग और विडंबनाएँ जड़ जमाती चली जाएँगी, निहित स्वार्थ अपना फायदा उठाएँगे और बेचारे भावुक लोग बेमौत मारे जाएँगे। फिर हमारा, धार्मिक
क्षेत्र धूर्तों और मूर्खों की ऐसी जोड़ी बनेगा कि 'राम मिलाई, जोड़ी एक अंधा-एक कोढ़ी' की उक्ति ही चरितार्थ होगी। कोढ़ी कौन? ये धूर्त, जिनको हम पंडा- पुरोहित कहते हैं, बाबा जी, साधु कहते हैं और महंत कहते हैं। ये कौन? धूर्त और बेईमान हैं। और वे बेचारे भावुक, जो बेमौत मारे जाते हैं? जो अपना पैसा खराब करते हैं ? समय खराब करते हैं ? अक्ल खराब करते हैं ? उनका नाम है—मूर्ख, जो कर्मकाण्डों को ही सब कुछ समझते हैं। साहब! फलाने स्वामी जी भंडारा कर रहे हैं। अच्छा, पहले यह बता कि भंडारे में क्या होगा? नहीं साहब! भंडारे में बाबा जी आएँगे
और गाँजा पिएँगे। उखाड़ बाल इन बाबा जी के। ये कौन हैं ? धूर्त हैं, जो जनता को मूर्ख बनाते हैं।
मित्रो! क्या होता रहता है कि जनता का धन अनावश्यक कार्यों में खरच होता हुआ चला जाता है। हम लोग समझते हैं कि इससे हमारा अमुक फायदा हो जाएगा। इससे हमें यह पुण्य मिल जाएगा। इससे हमारे देवी-देवता प्रसन्न हो जाएँगे। धर्मभीरु बेचारी जनता बेकार में मारी जाती है। हमारा धर्मक्षेत्र अगर ढोंग और विडंबनायुक्त बना रहेगा तो नुकसानदेह बना रहेगा। इससे हानियाँ होंगी, धन की बरबादी होगी और निहित-स्वार्थ अपना थोड़ा-सा फायदा करने के लिए जनता से ढेरों धन कमाएँगे। अगर उनको दो हजार रुपये चुराने हैं तो जनता के बीस हजार रुपये भंडारे में खरच कराएँगे, ताकि बीस हजार रुपये में से दो हजार रुपए हमको चुराने को मिल जाएँ। अठारह हजार रुपए तो तुमने खराब करा दिए। इससे तो यह अच्छा था कि तुम दो हजार रुपये की भीख माँग लाते और अपनी जेब में जमा कर लेते। नहीं साहब! ऐसे तो कोई नहीं दे सकता था। इसलिए हमने बीस हजार रुपये का ढोंग रचाकर खरच कराया और तब हमें दो हजार रुपये मिले।
हमारा मिशन जनमानस के परिष्कार हेतु
मित्रो ! कर्मकाण्डों का, क्रिया-कृत्यों का मैं प्रचार-प्रसार करता हूँ। आप सबको, दुनिया को कर्मकाण्ड सिखाता हूँ, पर आप एक बात मत भूलना। अगर आपने यह बात भुला दी तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे और हम जिस मिशन के लिए काम करते हैं, उसी को काटकर फेंक देंगे। हम इस मिशन के लिए काम करते हैं, ताकि जनमानस का परिष्कार हो। शाहजहाँ के ताजमहल की तुलना में आज यदि मुझसे पूछा जाए कि ज्यादा दिलेर कौन-सा था और जनता की श्रद्धा किसके ऊपर टपकती है ? तो मैं समझता हूँ कि शाहजहाँ की तुलना में हजारी किसान था, जिसके ऊपर हमारी आँखों में से आँसू और श्रद्धा के भाव जो टपकते हैं, वे बहुत हैं। क्यों साहब! हजारी किसान पढ़ा-लिखा नहीं था? हाँ बेटे ! पढ़ा-लिखा नहीं था। अमीर था? नहीं था। विद्वान था? नहीं, विद्वान भी नहीं था। ज्ञानी था? भक्त था? नहीं था। फिर क्या था? उसका कलेजा चौड़ा था। जिन आदमियों का कलेजा चौड़ा होता है, उनके चिंतन का तरीका, सोचने का ढंग मक्खी-मच्छरों जैसा नहीं होता, वरन् दिलेर लोगों जैसा होता है, ऊँचे लोगों जैसा होता है, हमारे जैसा होता है।
मित्रो! अगर हमारे दृष्टिकोण ऊँचे हों तो हर जिंदगी में मजा आ सकता है। अगर हमारे कलेजे छोटे हों तब? बेटे! तब हमारे पास पैसा-दौलत हो जाए तो क्या? ज्ञान हो जाए तो क्या? भक्ति हो जाए तो क्या? विद्या हो जाए तो क्या? उससे कोई खास फायदा नहीं हो सकता है। इसलिए मैं आपसे एक निवेदन कर रहा था कि हमको बड़ी फैक्ट्रियाँ नहीं बनानी हैं। हमको बड़े इनसान बनाने हैं। बड़े इनसान बनाने के लिए क्या करना पड़ता है? अगर पेड़ को बड़ा एवं ऊँचा बनाना हो तो क्या करना पड़ेगा? इसके लिए सिर्फ एक काम करना पड़ेगा कि उसकी जड़ों के लिए गुंजाइश छोड़नी पड़ेगी। जड़ें जितनी गहरी होंगी, पेड़ उसी हिसाब से बढ़ता चला जाएगा। क्यों साहब ! बरगद का पेड़ क्यों बड़ा हो जाता है ? क्योंकि बेटे! उसकी जड़ें इतनी पैनी हो जाती हैं कि दूर-दूर तक फैलती चली जाती हैं। बरगद की जटाएँ निकलती हैं, उनकी ये विशेषता होती है कि वे नीचे की ओर आती हुई जमीन में घुस जाती हैं और जमीन से खुराक लेने लगती हैं और पेड़ फैलता हुआ चला जाता है।
जड़ों को देखें
साथियो! बरगद का पेड़ इसी आधार पर फैलता है कि उसकी जड़ें गहरी होती हैं। गहरी जड़ें, नीची जड़ें, अगर हमारी हों, तब? बेटे! हमारी बाहर की जिंदगी फैलती हुई चली जाएगी। जड़ों से क्या मतलब है? जड़ों से मेरा मतलब है बेटे! ईमान। आदमी का व्यक्तित्व वह नहीं है, जो बाहर दिखाई पड़ता है। किसी का चेहरा अच्छा और खूबसूरत है। किसी आदमी में ताकत बहुत है। किसी में अक्ल समझदारी बहुत है। बेटे ! इन सबको मैं नहीं मानता। आदमी का व्यक्तित्व वह है, जो उसकी निष्ठाओं पर टिका हुआ है, आस्थाओं पर टिका हुआ है। अगर वह व्यक्तित्व गहरा है तो आदमी को महापुरुष कहा जा सकता है, ज्ञानी कहा जा सकता है और न जाने क्या-क्या कहा जा सकता है।
मामूली आदमी असाधारण काम
मित्रो! आदमी की जिंदगी अगर बदल जाए, दृष्टिकोण बदल जाए तो मामूली आदमी, जिसमें हम और आप भी शामिल हैं, ऐसे-ऐसे काम कर सकते हैं, जो दुनिया के इतिहास में अजर-अमर रह सकें। कुछ लोगों के नाम मैं अक्सर गिनाया करता हूँ। उनमें राजस्थान के एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का नाम न जाने क्यों मेरी जबान पर अक्सर आ जाता है, जिसे मैं भूल नहीं सकता। उन्होंने यह निश्चय किया था कि पेट भरने के लिए नौकरी करने से क्या फायदा? पेट तो हम किसी भी तरीके से भर सकते हैं। जिन छोटे देहातों में शिक्षा का अभाव है, वहाँ हम एक कन्या पाठशाला चलाएँगे। उन्होंने निस्स्वार्थ भाव से बिना कोई वेतन लिए एक छोटे से देहात में शिक्षण-कार्य शुरू कर दिया था। उस प्राइमरी के अध्यापक हीरालाल शास्त्री ने सारी जिंदगी कन्याशिक्षा के लिए काम किया। उनका वह स्कूल जो फूँस के छप्पर के नीचे था, बढ़ते-बढ़ते वनस्थली बालिका विद्यालय' के नाम से प्रख्यात हुआ। वहाँ मोटर चलाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाना तक लड़कियाँ सीखती हैं। अब वह यूनिवर्सिटी बनने जा रहा है।
मित्रो! आदमी का ईमान कितना प्रभावशाली होता है, आदमी की अंतरात्मा कितनी शक्तिशाली होती है, आपने कभी अंदाज ही नहीं लगाया है। उस अध्यापक की अंतरात्मा में विशुद्ध रूप से एक ही दृष्टि थी कि हमको समाज की सेवा करनी है। न उसमें चालाकी की गुंजाइश थी, न बेईमानी की गुंजाइश थी, न चोरी की गुंजाइश थी, न बदनीयती की और न नाम-यश की गुंजाइश थी। बस, छोटा-सा काम करता चला गया। ऐसे निस्स्वार्थ काम, चाहे उसका नाम भजन हो, चाहे सेवा-कार्य, हमेशा फलते-फूलते रहे हैं। उस प्राइमरी के अध्यापक ने चरित्र के हिसाब से, अपने दृष्टिकोण के हिसाब से एक नई फिजाँ, एक नई दिशा और नया आदर्श, नया चिंतन लोगों के सामने रखा।
तो महाराज जी! हम भी स्कूल खोल सकते हैं? नहीं बेटे! तू नहीं खोल सकता। क्यों? तेरा कलेजा मक्खी-मच्छर जैसा है। चंदा आएगा तो पहले तू उससे अपना उल्लू सीधा करेगा। इसलिए जनता का धिक्कार, भगवान का धिक्कार, तेरी जीवात्मा का धिक्कार तेरे ऊपर बरसता चला जाएगा। उसका परिणाम यह होगा कि तेरे हर काम की पोल खुलती चली जाएगी। तेरे हर काम में असहयोग होता हुआ चला जाएगा। नहीं महाराज जी! मैं तो बहुत चालाक हूँ और लोगों को उल्लू बना सकता हूँ। नहीं बेटे! भगवान को कोई उल्लू नहीं बना सकता। जनमानस को उल्लू बनाना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
मित्रो! उस प्राइमरी स्कूल के अध्यापक के तरीके से ढेरों-के-ढेरों आदमी हैं, जिनने ऊँचा दिल रखा और उनको सफलताएँ मिलती चली गईं। मैं उनका यश और गुणगान करता हूँ। उन्हीं में से एक हैं—नागपुर के एक मामूली से वकील, जिनका नाम बाबा साहब आमटे है। बस, एक दिन मन में आ गया कि कोढ़ियों की सेवा करनी चाहिए। वकालत करके झूठमूठ में लोगों को मुकदमेबाजी में फँसा देने, झूठ बोलना सिखाने की अपेक्षा क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम गरीबी में जिएँ, पेट भरने के लिए किसी तरीके से रोटी कमा लें और अपनी सारी जिंदगी दीन-दुःखियारों के लिए लगा दें। उन्होंने जो कोढ़ी सड़क किनारे बैठे थे, उनको लेकर एक निश्चय किया कि ये सभी स्वावलम्बी बन सकते हैं। वे उन्हें लेकर एक छोटे से गाँव में चले गए और वहाँ बकरी पाल ली, मुरगी पाल ली, जिसे कोढ़ी भी चरा सकते थे। वे स्वयं भी चराने लगे। उनसे दूध, ऊन आदि जिन चीजों से आमदनी होती थी, उससे अपना गुजारा करने लगे। कोढ़ियों का इलाज भी स्वावलम्बनपूर्वक होने लगा। उन्होंने कहा कि मनुष्य अगर कमजोर हो, अंधा हो, कोढ़ी हो, तो भी स्वावलम्बी बनकर स्वाभिमानपूर्वक रह सकता है। वे कमजोर और उपेक्षित लोगों का शिक्षण करते चले गए।
मैं ईमान का शिक्षण करता हूँ
आदमी के ईमान से ज्यादा कशिश और प्रभावशाली ताकत दुनिया में और कोई नहीं है। दुनिया में मनुष्य के उच्च दृष्टिकोण के अतिरिक्त और किसी में भी इतनी ताकत नहीं है। भजन में भी नहीं है। नहीं साहब ! भजन में बड़ी ताकत है। बेटे ! तुझसे हम कह रहे हैं कि भजन में कोई ताकत नहीं है। अगर कोई ताकत रही होती तो ये भजन करने वाले सवेरे से शाम तक क्यों बैठे रहते हैं और भीख माँगते रहते हैं ? अगर ऐसा है तो फिर क्यों दरवाजे-दरवाजे पर भीख माँगते हैं ? क्यों दुनिया भर की चालाकी करते हैं? नहीं साहब! भजन में बड़ी ताकत है। कोई ताकत नहीं है। फिर किसमें ताकत है ? मित्रो! भजन में अगर ताकत है तो वह आदमी के ईमान से मिली हुई ताकत है। भजन से बड़ा ईमान है। भजन बड़ा नहीं, छोटा है ईमान से। ईमान बड़ा है।
साथियो! मैं आपसे यह कह रहा था कि आदमी की जड़ें नीचे रहती हैं, जिनको हम सिद्धांत कहते हैं, आदर्श कहते हैं, आस्थाएँ कहते हैं, मान्यताएँ कहते हैं। वे अगर हमारे पास हों तो मजा आ जाए। हम आपसे बराबर निवेदन करते आ रहे हैं कि आप स्वयं अपने जीवन में दृष्टिकोण का परिष्कार करें। हमने आपके कर्मकाण्डों को कोई महत्त्व नहीं दिया है। उस दिन हम आपको शिक्षण दे रहे थे कि हमने आपको स्नान क्यों कराया? पीला कपड़ा क्यों पहनाया? क्यों महाराज जी! अगर हम पीला कपड़ा पहन लें तो क्या वैकुण्ठ को चले जाएँगे? नहीं बेटे! कहीं नहीं जाएगा, चाहे पीला कपड़ा पहन ले, चाहे हरा पहन ले। इससे क्या बनता है? हम तो यह याद दिलाना चाहते थे कि हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होना चाहिए। आपको उस दिन व्याख्या करते हुए हम यह कह रहे थे कि आपके हाथ में दंड और कौपीन इसलिए दिया गया है कि आप मुस्तैदी सीखें। कमर में रस्सी इसलिए बँधवाई गई थी कि आपका ढीला-पोला जीवन, वाहियात जीवन है, जिसमें न कोई नियमितता है, न कोई व्यवस्था है, न कोई निरंतरता है, न कोई कर्त्तव्य है, न कोई जिम्मेदारी है। आप फौजी सिपाही के तरीके से कमर की पेटी बाँध कर खड़े हो जाइए, जिससे मालूम पड़े कि ये सैनिक हैं।
कौपीनधारी की जिम्मेदारी अनुभव करें
मित्रो! आप धर्म के सैनिक हैं, अध्यात्म के सैनिक हैं, इसीलिए आपको कौपीन बँधवाई थी, पेटी बँधवाई थी। आप कौपीनधारी होने के कारण से जिम्मेदारी का अनुभव कीजिए। जब कभी किसी फौजी या पुलिस वाले का कोर्टमार्शल किया जाता है तो उसकी पेटी जमा करा ली जाती है। क्यों साहब! पेटी पहने रहें तो? नहीं, पेटी नहीं पहन सकते। पेटी इज्जत है। तो महाराज जी! आपने लँगोटी क्यों दी, पैंट क्यों नहीं दिया, जिससे ठंढक भी दूर हो जाती। अरे अभागे ! तू बाहर की व्याख्या करता है। हम क्या कह रहे हैं, उसे समझता नहीं है। अरे! हमने तो तुझे एक दृष्टि
दी थी, दृष्टिकोण दिया था।
एक सेठ जी थे। एक रात स्वप्न में लक्ष्मी जी आईं और कहने लगी कि अब तो हम आपके यहाँ से चले जाएँगे और गरीबी आपके घर में रहेगी। अब इसमें कोई सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि आपका पुण्य खतम हो गया। लेकिन आपने हमारी बीस साल से बहुत सेवा की है, इसलिए एक वरदान माँग लीजिए, परंतु यह वरदान मत माँगना कि हम आपके यहाँ रह जाएँ। सेठ ने लक्ष्मी जी से कहा कि आप एक वरदान दे जाइए कि हम घर में जितने भी आदमी हैं, प्यार से रहें, मोहब्बत से रहें, मिल-जुलकर रहें । सेवा और सहायता की दृष्टि से रहें। बस, इतना वरदान दे जाइए और चली जाइए।
लक्ष्मी जी वरदान देकर चली गईं। उस गरीबी में भी वे बड़े प्यार से रहने लगे, मिल-बाँटकर खाने लगे। कपड़े कम पड़ गए तो एक ने दूसरे के उतरे पहन लिए। एक बीमार पड़ गया तो दूसरे आदमी सेवा करने लगे। गरीबी में भी इतना आनंद, इतनी खुशी, इतनी मस्ती बनी रही कि उनका जो संकट था, कंगाली थी, धीरे-धीरे दूर होने लगी। लक्ष्मी जी फिर सपने में आईं और कहा कि हम तो फिर से आपके यहाँ आ गए। सेठ ने कहा—एक साल पहले तो आप कह रही थीं कि तुम्हारा पुण्य खतम हो गया। अब आप कैसे आ गईं ? लक्ष्मी जी ने कहा कि जहाँ कहीं भी प्यार रहता है, सहकार रहता है, सेवावृत्ति रहती है, उदारता रहती है, हमको वहाँ झक मार कर आना पड़ता है। हम वहाँ से जा नहीं सकते। हमने देखा कि आपके यहाँ तो प्रेमभाव है, सहकारिता है, उदारता है, सेवा है, फिर हम कैसे आपको छोड़ेंगी? बस, लक्ष्मी जी आ गईं और गरीबी चली गई।
दृष्टिकोण का परिष्कार : प्रशिक्षण का मर्म
मित्रो! हमारा अध्यात्म तीन धाराओं में बँटा हुआ था। व्यावहारिक अध्यात्म और उसके पीछे दृष्टि एक होती थी—उदार दृष्टि, उदात्त दृष्टि और सेवा की दृष्टि। हमारी यह दृष्टि विकसित हो तो जो कर्मकाण्ड हम आपको सिखाते हैं और जिन कर्मकाण्डों का हम विस्तार करना चाहते हैं ? आप यह कसौटी तैयार रखना कि हमने जो कर्मकाण्ड कराए थे, वे केवल क्रिया मात्र रह गए। आप यह ध्यान रखना कि वानप्रस्थ शिविर में आकर हमने जो ध्यान करना, कर्मकाण्ड करना, हवन करना सीखा, तो क्या दृष्टिकोण का परिष्कार करना भी सीखा या नहीं सीखा? अगर आपने दृष्टिकोण का परिष्कार किया हो तो आपका वानप्रस्थ ठीक और आपने इसी दृष्टि से जनमानस का परिष्कार करने के लिए क्रिया-कृत्यों को, व्याख्यान की शैली को कथावार्ता को, या अन्य ज्ञान को सीखा हो तो आपका सीखना सार्थक। मित्रो! क्रिया के पीछे दृष्टि और कलेवर के पीछे प्राण होता है, यह मत भूलना। अगर आप ये बातें भूलेंगे नहीं तो हमारे वो ख्वाब और इस मिशन के वो सपने पूरे हो कर रहेंगे, जिसके लिए हमने यह मिशन स्थापित किया है और जिसके लिए हम आपका शिक्षण करते हुए, इतना बड़ा संगठन बनाते हुए, क्रिया-कृत्यों को गति देते हुए चले जा रहे हैं।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥