उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
मुनासिब जगह पर मुनासिब चीज पैदा होती है। नागपुर के सन्तरे अगर आप अपने यहाँ बोना चाहें तो मीठे नहीं होंगे। बम्बई वाला केला जो कि वहाँ की जमीन में पैदा होता है, दूसरी जगह नहीं हो सकता। लखनऊ का आम सारी दुनिया में मशहूर है। अगर वही आम आप अपने गाँव में बोएँ तो उतना मीठा नहीं होगा जैसा कि वहाँ का होता है। नीलगिरी का चन्दन कितना खुशबूदार होता है? यदि उसी चन्दन का पेड़ आप ले आवें और अपने गाँव के बगीचे में लगा दें, तो इतना खुशबूदार नहीं होगा। देवगण जहाँ हिमालय पर रहते हैं, वहाँ एक लम्बा वाला शकरकन्द जैसा कन्द पैदा होता है और वह कई दिन तक खाने के काम आ जाता है। उसी शकरकन्द का बीज आपको दे दें तो आप बो लेंगे? नहीं। पैदा नहीं होगा। ब्रह्मकमल, जिसके लिए द्रौपदी ने भीम से आग्रह किया था कि ‘तुम ब्रह्मकमल ला करके दो।’ यह कहाँ पैदा होता है? यह उत्तराखण्ड में जहाँ गोमुख है, उसके आगे तपोवन के नजदीक पैदा होता है। यह ब्रह्मकमल का फूल जमीन पर खिलता है, पानी में नहीं। यह अपनी जगह पर होता है। आप कहीं से बीज ले आयें ब्रह्मकमल के, अपने घर में बोना चाहें तो हो सकता है? ना, वहाँ नहीं हो सकता। जगह की अपनी महत्ता होती है।
हिमालय की अपनी महत्ता है। सारे ऋषियों ने वहीं निवास किया था। स्वर्ग भी पहले वहीं था। ऋषियों की भूमि भी वही है। बड़ी सामर्थ्यवान, बड़ी संस्कारवान भूमि है। हमको भी तप करने के लिए वहाँ भेज दिया गया था और अब हम यहाँ सप्तऋषियों की भूमि शान्तिकुञ्ज में हैं। देवात्मा हिमालय का अपना महत्त्व है। गंगा का अपना महत्त्व है। गंगा अपने में आध्यात्मिक शक्तियों को समेटे हुए है। यह न केवल उसके पीने के पानी में है, बल्कि वह जहाँ सप्तऋषियों की भूमि, जहाँ सातों ऋषियों ने तपश्चर्या की थी और जो अभी भी ऊपर आसमान में दिखाई पड़ते हैं। उनकी जो भूमि है—सप्तऋषि भूमि, वह भी यहीं हैं, जहाँ आपका शान्तिकुञ्ज बना हुआ है और भी गंगा के किनारे बहुत ऐसे स्थान हैं, जहाँ सिंह और गाय कभी एक घाट पर पानी पीने लगते थे। ऐसे प्राणवान स्थान भी होते हैं और सिद्धपुरुष भी होते हैं। हम यहाँ ऐसे स्थान पर ही आये हैं। यहाँ आकर हमने आपकी भावनाओं को दिव्यता का स्मरण कराने के लिए देवात्मा हिमालय का एक मन्दिर बना लिया है। हिमालय का मन्दिर और कहीं नहीं मिलेगा आपको। लोगों ने देवताओं के मन्दिर बनाए हैं, अमुक के मन्दिर बनाये हैं, तमुक के मन्दिर बनाए हैं, पर हिमालय का मन्दिर सिर्फ आपको यहीं देखने को मिलेगा। हमने यह भी बनाया है। यह सप्तऋषि की भूमि है। सप्तऋषियों की भूमि और कहाँ है, बताइये आप? कहीं नहीं है, मात्र यहीं पर है, जहाँ आज शान्तिकुञ्ज बना हुआ है। गंगा पहले यहीं पर बहती थी। यहाँ की थोड़ी-सी जमीन भर गई है, इसलिए शान्तिकुञ्ज वाली जमीन में जो पानी हजारों वर्षों से बहता था वह बन्द नहीं हुआ है। वह धारा अभी भी बह रही है, उसके लिए सामने रास्ते बना दिये गये हैं।
हिमालय-मन्दिर क्या है? ये प्रतीक क्यों बना दिये हैं? प्रतीकों का अपना-अपना महत्त्व है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य का प्रतीक बना लिया था। रामचन्द्र जी ने शंकर जी का प्रतीक बना लिया था। जब वे वनवास गये थे और सीताहरण के कारण दुःखी मन से वन-वन भटक रहे थे, उस समय उन्हें जब प्रतीक की आवश्यकता हुई तो उन्होंने शंकर जी के मन्दिर की स्थापना की थी, रामेश्वर में। ये सब प्रतीक हैं, जैसे तिरंगा झण्डा अपना राष्ट्रीय प्रतीक है। कम्युनिस्टों का भी झण्डा होता है। लोग कहते हैं कि वे प्रतीकों को नहीं मानते। कैसे नहीं मानते? लाओ हम उनके झण्डे को उखाड़ फेंके, फिर देखो क्या होगा? मुसलमान भी प्रतीकों को नहीं मानते हैं क्या? मक्का-मदीना में प्रतीक ही तो रखा हुआ है जिसका वे चुम्बन लेते हैं। समस्त देवात्मा हिमालय का मन्दिर कहीं था नहीं। भारतवर्ष का यह एक बड़ा अभाव था। वह हमने दूर किया है, ताकि साधना की दृष्टि से कोई आदमी आना चाहे तो इस स्थान पर आकर वह महत्त्वपूर्ण लाभ उठा सके। इसलिए यह बनाया गया है। मुनासिब जगह पर मुनासिब काम होते हैं। हिमालय में बहुत सारे ऋषि रहते हैं और जो भी आये हैं, वे सब हिमालय से आये हैं। उन्हीं ऋषियों का स्मरण दिलाने के लिए हमने यह कोशिश की है कि जो उन्होंने काम किये थे, उनको समेट करके पूरा न सही, थोड़ा-थोड़ा काम करें तो अच्छा होगा। हमने वही किया है।
व्यासजी ने अठारह पुराण लिखे थे। दर्शन भी लिखे थे। पुराणों और दर्शनों को हम लिख तो नहीं सके, पर हमने उनका अनुवाद किया है। वेदों का अनुवाद किया है। व्यासजी ने जो काम किये थे, उस रास्ते पर हम भी चले हैं और यहाँ जब शान्तिकुञ्ज में आयेंगे तो देखेंगे कि उसकी निशानी यहाँ भी विद्यमान है। महर्षि पतंजलि ने गुप्तकाशी में रहकर योगाभ्यास किया था। आप जब आएँगे तो देखेंगे कि यहाँ जो कल्प-साधना शिविर कराये जाते हैं, अन्य दूसरे शिविर कराये जाते हैं और यहाँ योगाभ्यासों का, प्राणायामों का विधि-विधान सिखाया जाता है, वह हमने भी किया है और आपको भी सिखाते हैं। पुराने-जमाने के ऋषियों में याज्ञवल्क्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने यज्ञ के सम्बन्ध में शोध की थी। यज्ञ से किस तरीके से मनुष्य के शारीरिक और मानसिक रोगों का निराकरण होना सम्भव है? ऐसी बहुत-सी बातों की महत्ता थी तब, लेकिन लोग उस महत्त्वपूर्ण यज्ञ को भूल-भाल गये थे। ऐसे ही हवन कर लेते थे सुगन्ध फैलाने के लिए। हमने उसको फिर से जीवित किया है। शोध करके जैसे कि याज्ञवल्क्य ऋषि ने किया था। लगभग उसी तरीके से यहाँ शान्तिकुञ्ज में भी हमने कोशिश की है कि वह परम्परा चलती रहे।
विश्वामित्र ऋषि थे। वे गायत्री के मन्त्रदृष्टा हैं। गायत्री मन्त्र जो हम बोलते हैं, उसका विनियोग है, सविता देवता है और विश्वामित्र ऋषि। गायत्री छन्द विनियोग है। विश्वामित्र उसके पारंगत थे। विश्वामित्र का भी यहाँ स्थान बना हुआ है। गायत्री का मन्दिर भी बना हुआ है शान्तिकुञ्ज में। हमने भी गायत्री के पुरश्चरण किये हैं। विश्वामित्र को भी हम गुरु मानते हैं, जो हमारे हिमालय वाले गुरु हैं, वे अगर विश्वामित्र हों तो आप अचम्भा मत मानना। भगीरथ भी नाम आपने सुना होगा। उन्होंने हिमालय पर तप किया था और तप करके ज्ञानगंगा को लाये थे। गंगा जब धरती पर आने लगीं तो उनके प्रचण्ड वेग को देखकर भगीरथ ने सोचा कि यह तो हमारे बूते का नहीं है। गंगा जी ने भी कहा कि जब मैं नीचे जमीन पर गिरूँगी तो सूराख हो जाएगा। सो तुम मुझे स्वर्ग से बुलाकर कैसे धारण करोगे? तब भगीरथ ने शंकर जी से मदद माँगी। शंकर जी ने अपनी जटाएँ फैला दीं। इस तरह स्वर्ग से जब गंगा आयी थीं तो पहले शंकर जी की जटाओं में आयीं, पीछे जमीन पर गिरीं। भगीरथ आगे-आगे चले, इसलिये गंगा भगीरथ तो अब नहीं हैं, मगर उनके तप का स्थान अभी भी है। गंगोत्री के पास गौरीकुण्ड है, उसके पास एक शिला है, जिसका नाम भगीरथ शिला है, जहाँ भगीरथ ने बैठकर तप किया था। उस स्थान पर बैठकर हमने भी ठीक उसी तरीके से एक साल का अनुष्ठान किया था। हम भी ज्ञान-गंगा को लाये हैं। यह ऋषियों की परम्परा है। हमने कोशिश की है कि ऋषिगण जिस रास्ते पर चले हैं, हम भी उस रास्ते पर चलें। ऋषियों की वजह से हिमालय धन्य हुआ, नहीं तो हिमालय में क्या बात है? इससे ऊँचे-ऊँचे और भी पहाड़ हैं। सारी दुनिया में पहाड़ों की कोई कमी है क्या? उत्तराखण्ड इसी वजह से प्रख्यात हुआ है कि इसमें चारों धाम भी बने हैं। पाँच गुप्त काशियाँ भी हैं। पाँच सरोवर भी हैं। समूचे भारतवर्ष के जो कुछ भी महत्त्वपूर्ण स्थान हैं, जो कुछ भी तीर्थ हैं, सब इकट्ठे होकर इसी जगह पर एकत्रित हो गये हैं। हमारा भी प्रयत्न इसी तरीके से रहा है।
परशुराम जी का नाम आपने सुना होगा। उन्हें शंकर भगवान् ने एक कुल्हाड़ा दिया था। उस कुल्हाड़े से उन्होंने लोगों के सिर काट डाले थे। जो खराब दिमाग वाले थे, बददिमाग वाले थे, उन बददिमाग वालों के सिर काटकर परशुराम जी ने फेंक दिये थे और वह भी इक्कीस बार। सिर काटने से मतलब? सिर काटना तो मेरे ख्याल से ऋषि के लिए क्या सम्भव रहा होगा? यह कथन तो अलंकारिक मालूम पड़ता है। दिमाग बदलने के लिए विचार-क्रान्ति की दृष्टि से हम लगभग वही काम कर रहे हैं, जो कि परशुराम जी ने फरसा लेकर किया था। फरसा तो हमारे हाथ में नहीं है, मगर कलम जिन्दा है। दोनों चीजें हमारे हाथ में है और उन्हीं के सहारे हम लोगों के दिमागों को बदलने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं। परशुराम जी यमुना जी को लाये थे और फरसा भी लाये थे। परशुराम जैसा लगभग वही काम हमने किया है।
प्रायः सभी ऋषि उत्तराखण्ड में ही हुए हैं। ऋषियों ने इसी पुनीत भूमि में रहकर तपस्या की, ताकि अध्यात्म शक्तियों को ठीक ढंग से सँभाल सकें। इसलिए उन्होंने इसी स्थान को चुना था। हमने भी इसे ही चुना है। हमारा और आपका मिलन हो सके, इसलिए हिमालय की यहाँ से शुरुआत होती है—हरिद्वार से, उस स्थान पर हम बैठे हैं ताकि आपके लिए भी यहाँ आने में मुश्किल न हो। ऊँची जगह पर चढ़ना मुश्किल है। जहाँ बर्फ पड़ती है और अत्यधिक ठण्डक रहती है, जहाँ खाने-पीने का कोई सामान नहीं है, यदि वहाँ आप जाएँगे तो आपके लिए मुश्किल पड़ेगी। इसीलिए हमने हरिद्वार में रहना मुनासिब समझा। यहीं से हिमालय शुरू होता है। गंगा में यहाँ से पहले कोई गन्दी चीज नहीं डाली जाती और न कोई नाले पड़ते हैं बाद में पड़ते हैं। इसलिए हरिद्वार को हमने मुनासिब समझा।
चरक ऋषि को आप जानते हैं क्या? चरक ऋषि प्राचीनकाल में हुए हैं। उन्होंने दवाओं, प्राकृतिक औषधियों के सम्बन्ध में शोधें की थीं, खोजे की थीं। उनका स्थान केदारनाथ के पास था, जहाँ सिक्खों का गुरुद्वारा है। केदारनाथ के पास फूलों की घाटी है, जो उन्हें बहुत प्रिय थी। अब तो वहाँ तोड़-फोड़ के कारण सब जड़ी-बूटियाँ नष्ट हो गयी हैं। वहाँ तो अब फूलों की घाटी देखने का मन हो तो आप गोमुख से आगे ऊपर तपोवन जाना-नन्दनवन जाना। तपोवन और नन्दनवन ऐसे स्थान हैं जहाँ विचित्र दुर्लभ फूलों की छटा देखते ही बनती है। इनमें ब्रह्मकमल भी शामिल है। वह आपको वहीं मिलेगा। चरक के रास्ते पर हम भी चले हैं। वनौषधियों के प्राचीन श्लोकों को ठीक तरीके से खोजबीन करने के लिए और उनके सही और गलत होने की बावत जानकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ ब्रह्मवर्चस् शोध-संस्थान की स्थापना की है। जो कुछ भी सम्भव है पुराना और नया अर्थात् पुराने ढंग से कैसे शोध की जाती थी और नये ढंग से कैसे की जाती है? यह हमने यहाँ बनाने की कोशिश की है।
उत्तरकाशी में आरण्यक हैं। आरण्यक किसे कहते है? आरण्यक उसे कहते हैं जहाँ लोग वानप्रस्थ लेकर समाज-सेवा के लिए समर्पित हो जाते हैं, उनके निवास स्थान को आरण्यक कहते हैं, गुरुकुल छोटे बच्चों का होता है। विद्यार्थियों का होता है। वहाँ तो आरण्यक ही था, पर यहाँ पर हमने गुरुकुल और आरण्यक दोनों चलाने की कोशिश की है। बच्चों का भी यहाँ विद्यालय है, खास विद्यालय जिसके बारे में कहना चाहिए कि हिन्दुस्तान भर में शायद ही कहीं ऐसा विद्यालय आपको देखने को मिले। प्रचारक और लोकसेवी तैयार करने के लिए हमने यहाँ आरण्यक बनाया है। भगवान् बुद्ध ने भी बनाये थे नालन्दा और तक्षशिला में। उनमें प्रचारक और कार्यकर्ता तैयार किये जाते थे। हमारे यहाँ भी कार्यकर्ताओं को संगीत की शिक्षा, व्याख्यानों की शिक्षा, समाजसेवा की शिक्षा, चिकित्सा की शिक्षा आदि सारी शिक्षाएँ यहाँ दी जाती हैं। यहीं जमदग्नि का आश्रम है। नारद जी का नाम तो सुना है न आपने? वे संगीत के द्वारा सारी की सारी भक्ति का प्रचार करते थे और हिन्दुस्तान से ले कर सारे विश्वभर में घूमते थे। चाहे जब भगवान के पास जा पहुँचते थे। उनका स्थान कहाँ था? विष्णु प्रयाग में उन्होंने तप किया था। वहाँ तो हम आपको नहीं ले जा सकते, लेकिन यहाँ पर नारद जी का जो काम था संगीत शिक्षा का, वह हमने किया है क्योंकि इस जमाने में लोकशिक्षा के लिए संगीत बेहद आवश्यक है। संगीत के बिना देहाती मुल्कों में जहाँ बिना पढ़े-लिखे लोग अधिक रहते हैं, उनको प्रशिक्षित करना बड़ा मुश्किल है। हमने उसकी भी यहाँ व्यवस्था बना ली है।
वशिष्ठ जी का तो नाम आपने सुना है। उन्होंने राजनीति और धर्म-दोनों को मिलाया था। राजा दशरथ के यहाँ भी रहते थे। धर्म का भी काम करते थे और राजनीति की भी देख−भाल करते थे। हमारी भी जिन्दगी कुछ इसी तरह की हो गयी है। पौने चार वर्ष तो जेलखाने में रहना पड़ा। सन् १९२० से लेकर १९४२ तक बाइस साल तक हम दिन-रात राजनीति में लगे रहे। समाज को ऊँचा उठाने के लिए और अँग्रेजों को भगाने के लिए, देश की आजादी के लिए हमने जो काम किया है, वशिष्ठ भगवान् भी यही काम करते थे। पीछे वे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को अपने पास ले गये थे। हम भी आपको लेकर आये हैं। हमारे बच्चे तो क्या आयेंगे, पर आप आ सकते हैं। आप भी हमारे बच्चे हैं। शंकराचार्य के बच्चे थोड़े ही थे। रामचन्द्र जी के पिता का नाम वशिष्ठ थोड़े ही था ? दशरथ जी था। आप भी तो हमारे बालक हैं? जिस तरीके से राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चारों भाइयों को लेकर वशिष्ठ जी आ गये थे, और उनको यह बतलाया था कि धर्म और राजनीति का, विज्ञान और अध्यात्म का सम्मिश्रण-समन्वय कैसे हो सकता है ??
आद्यशंकराचार्य का नाम सुना है न आपने। जिन्होंने चारों धाम बनाये थे। चारों धाम कौन-कौन से हैं? रामेश्वर, द्वारिका, बद्रीनाथ और जगन्नाथपुरी। चारों धामों में चार मठ उन्होंने स्थापित किये थे। उनका अपना निवास स्थान था ज्योतिर्मठ ।। ज्योतिर्मठ के पास शहतूत का एक पेड़ था। उसी के नीचे उनकी गुफा थी। वे वहीं रहते थे। वहीं उन्होंने अपने ग्रन्थ लिखे थे और वहीं तप किया था और वहीं जो कुछ भी काम कर सकते थे, चारों धाम बनाने का, वे भी योजनाएँ उन्होंने वहीं बनायी थीं। मान्धाता को कहकर वह काम उन्होंने वही से कराया था। हमने भी यहीं से बैठकर गायत्री के चौबीस सौ धाम बनाये हैं। इसके अलावा भी चौबीस सौ और छोटे-छोटे धाम हैं। शंकर जी का एक ही धाम है—रामेश्वरम में और बद्रीनाथ का एक ही धाम है, लेकिन गायत्री के हमने चौबीस सौ धाम बनाये हैं। आपने पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना है। वह भी यहीं रहते थे हिमालय पर, लक्ष्मण झूला के पास। पीपल के फल खाकर के ही उन्होंने जिन्दगी काट दी थी, क्योंकि वे जानते थे—‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन’—यदि हम अपने मन को अच्छा बनाने की फिकर में हैं तो सबसे पहले शुरुआत अच्छे खाने से करनी चाहिए। अच्छे अन्न से करनी चाहिए। अच्छे अन्न का मतलब होता है कि बेईमानी से कमाया हुआ अन्न न हो। बिना हराम का जो अपने खून-पसीने से कमाया हो, उसी को खा करके रहना चाहिए। पीपल के पेड़ उन दिनों ज्यादा थे। उनके फल भी ज्यादा होते होंगे। तोड़-ताड़ कर उन्हें साल भर के लिए रख लेते रहे होंगे और उसे ही खाते रहे होंगे। हमारा भी आहार ऐसा ही रहा है। आपको मालूम है न, जौ के ऊपर हम कितने दिन तक रहे हैं। अभी भी ठीक तरह से अन्न नहीं खाते हैं।
सूत और शौनक ऋषि की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। वे कहाँ रहते थे? हिमालय पर। कौन-सी जगह? ऋषिकेश में। ऋषिकेश में वह पुराणों की कथाएँ कहते थे। शौनक जी पूछते थे और सूत जी कहते थे। दोनों ही कथाएँ कहते थे। पुराने-जमाने के तो अठारह पुराण अठारह समय पर लिखे गये थे। हमने नया प्रज्ञापुराण ही बना दिया है। एक खण्ड तो अभी छप गया है, जो तीन खण्ड और अभी तैयार हो गये हैं, वे भी इसी वर्ष छपकर तैयार हो जाएँगे। आपको अठारह पुराणों के स्थान पर, शायद यह अठारह खण्डों के प्रकाशन के रूप में मिलेगा। ये सब ऋषियों के काम हैं। एक-एक ऋषि ने एक-एक काम किया था, लेकिन हमने सारे ऋषियों के कामों का समन्वय किया है। ऋषियों के तरीके से यह सब बनाने की कोशिश की है। राजा हर्षवर्धन थे जिन्होंने हर की पौड़ी पर बैठकर अपना सर्वस्व दान किया था तो उसी से तक्षशिला का विश्वविद्यालय बनाया गया था। हम हर्षवर्धन तो नहीं हैं पर, जो कुछ भी हमारे पास था, वह सब का सब हमने दिया है। हर्षवर्धन की जो परम्परा सर्वमेध की थी हर की पौड़ी के नजदीक थी, वह हमने शान्तिकुञ्ज में ही लाकर के स्थापित कर दी। कणाद ऋषि विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने के लिए प्रयत्नशील रहा करते थे। उन्होंने ‘एटम’ के सम्बन्ध में अणु के सम्बन्ध में, बहुत सारी खोजें की हैं। अपना ब्रह्मवर्चस भी विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने की कोशिश कर रहा है। आप यहाँ जो कुछ भी देख रहे हैं वह ऋषि-परम्परा है, जिसे हमने जिन्दा रखा है।
बुद्ध का नाम सुना है न आपने? धर्म-चक्र के लिए उनके कितने शिष्य थे, जो आकर समय-समय पर साधनाएँ किया करते थे और उपासनाएँ करते थे। वे कहाँ रहते थे? बुद्ध के पास? नहीं, बुद्ध के पास नहीं रहते थे। नालन्दा में रहते थे। तक्षशिला में रहते थे और कुछ हिमालय में रहते थे। कुछ कहीं तो कुछ कहीं। बुद्ध की परम्परा को भी हमने कायम रखा है। यहाँ शान्तिकुञ्ज में पहले दो विश्वविद्यालय थे, पर अब एक ही है अपनी तरह का निराला। धर्म-चक्र के लिए प्रज्ञाचक्र को घुमाने के लिए बुद्ध जैसा क्रिया-कलाप आप शान्तिकुञ्ज में पायेंगे। हिमालय की गतिविधियों का एक केन्द्र यह भी है। आर्यभट्ट ने भी इसी हिमालय में तप किया था। उन्होंने ज्योतिर्विज्ञान, ग्रह-नक्षत्रों के विज्ञान की खोज की थी कि किस तरीके से ग्रह-नक्षत्र घूमते हैं तो पृथ्वी पर क्या असर पड़ता है? पृथ्वी के निवासियों पर क्या-क्या असर पड़ता है? ये सारी की सारी खोजें आर्यभट्ट ने अपने जमाने में इसी हिमालय में की थी। आप कभी शान्तिकुञ्ज आएँ तो देख लीजिए कि उनके जो सारे क्रियाकलाप थे, जहाँ तक हमसे मुमकिन हुआ है, वह बनाने की कोशिश की है। पंचांग भी यहाँ से प्रकाशित होता है। इसमें नौ ग्रहों का पंचांग भी केवल यहाँ से ही प्रकाशित होता है और कहीं से नहीं होता। नागार्जुन रसायनशास्त्री थे। उन्होंने रसायनों की खोज की थी। हमारे यहाँ भी देवताओं का और दूसरे अन्य रसायनों की खोज का क्रम है। हम जड़ी-बूटी से कायाकल्प का नूतन अनुसन्धान कर रहे हैं।
शृंगी ऋषि मन्त्र विद्या में पारंगत थे। वे लोमष ऋषि के बेटे थे, उन्होंने परीक्षित को शाप दिया था कि तुझे सातवें दिन साँप काट खायेगा, तो सातवें दिन साँप ने उन्हें काट खाया था। उन्होंने ही राजा दशरथ के यहाँ यज्ञ कराया था। राजा दशरथ के बच्चे नहीं होते थे तो पुत्रेष्टि यज्ञ कराने के लिए शृंगी ऋषि को उपयुक्त समझा गया। वे ब्रह्मचारी थे और मन्त्र विद्या में पारंगत भी। वह भी हिमालय में रहते थे। मन्त्र-विद्या के बारे में गायत्री के बारे में हम कोशिश करते हैं। दोनों नवरात्रियों में अनुष्ठान कराते हैं। जो भी आदमी इस महत्त्वपूर्ण समय पर आते हैं वे सब गायत्री का अनुष्ठान करते हैं। कैलाश पर्वत कहाँ है? यहीं हिमालय पर है। यह स्वर्ग है। हिमालय केवल ऋषियों की ही भूमि नहीं है—देवताओं की भी भूमि है। इसको स्वर्ग भी कहा गया है। सबसे पहले सृष्टि का उद्भव यहीं हुआ। मनुष्य यहीं जन्मे इतिहास के हिसाब से। हमने भी कहा है कि स्वर्ग कहीं आसमान पर न होकर अगर जमीन पर रहा होगा तो वह देवात्मा हिमालय वाले हिस्से में रहा होगा कैलाश पर्वत पर। नन्दनवन जो स्वर्ग में था, वह यहीं है। तपोवन भी, मानसरोवर भी यहीं है। गोमुख से जरा आगे चलेंगे जहाँ हमारे गुरुदेव का थोड़ी दूर पर निवास है, वह कैलाश में ही है। वह कैलाश तो अलग था जो तिब्बत में है। अब वह चीन के हाथों में चला गया। लेकिन यह कैलाश पर्वत उसी पर है। इसीलिए यह स्वर्ग भी है। हिमालय क्या है? स्वर्ग है। स्वर्गारोहण के लिए जब पाण्डव गये थे तो यहीं गये थे तो यहीं गये थे। स्वर्गारोहण-बद्रीनाथ से आगे वसोधारा है और वसोधारा से आगे एक पहाड़ है, वही स्वर्गारोहण है। सुमेरु पर्वत भी यहीं है सारे देवता उसी पर रहते थे। यह सोने का पहाड़ था। हमारे पास उसका फोटोग्राफ भी है। जब हम वहाँ प्रातःकाल एवं सायंकाल के समय सुनहरी छाया रहती है। ध्रुव ने यहीं तप किया था। श्रीकृष्ण भगवान् तप करने के लिए बद्रीनाथ गये थे। रुक्मिणी और कृष्ण दोनों ने वहीं तप किया था। तप करने के बाद में उनके प्रद्युम्न जैसी सन्तान पैदा हुई।
वाल्मीकि की और सीताजी की घटना तो आपने सुनी है। रामचन्द्रजी ने जब सीताजी को वनवास दिया था तो व वाल्मीकि के आश्रम में रही थी और वहाँ लव-कुश नाम के दो ऐसे बालक पैदा हुए थे, जो रामचन्द्र जी से, लक्ष्मण जी से और हनुमान जी से लोहा लेने के लिए तैयार हो गये थे। शकुन्तला का नाम सुना है आपने? और चक्रवर्ती भरत ! जिसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। शकुन्तला कौन थी? वह कण्व ऋषि की बेटी थी, हाँ बेटी ही कहिए और उसके बच्चे भरत का जन्म, लालन-पालन जो हुआ था यहाँ कोटद्वार नाम की एक जगह है हिमालय में वहीं हुआ था। हिमालय की इन सारी की सारी विशेषताओं का सिकोड़ करके हमने उनका विशाल मन्दिर बना दिया है। ये सारी चीजें कहाँ हैं? अगर आप देखना चाहें तो यहाँ आकर देख भी सकते हैं। चार धाम कौन-कौन से हैं? बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री। चार धाम ये ही कहलाते हैं। ये सारे के सारे पवित्रतम स्थान इसमें बने हुए हैं। उसका हमने मन्दिर भी बनवाया है। जो उससे आपको सम्बन्ध जोड़ने की बीच की कड़ी है। सीढ़ी पर पहला पाँव को हम मुख्य मानते हैं। उसको देहरी कहते हैं। इसीलिए हरिद्वार इसका नाम रखा गया है। यहाँ पहाड़ों पर जाने के लिए रास्ता है। पार्वती जी ने तप यहीं किया था। यहाँ एक विल्वकेश्वर मन्दिर है। वहाँ पार्वती जी ने तप किया था और वहीं नजदीक में ही उनका विवाह हुआ था। यहीं पार्वती जी अपने पूर्व जन्म में जिनकी नाम सती था जन्मी थीं और सती हुई थीं, वह दक्ष प्रजापति नामक स्थान है। दक्ष एक वैज्ञानिक थे, उनका सिर काटा गया था और महादेव जी उनसे नाराज हो गये थे, वह स्थान भी यहीं है। यह देवात्मा हिमालय है बड़ा शानदार। इसको क्या कहें?
आपसे क्या अनुरोध है? यह कि हम तो सारी जिन्दगी के लिए चले आये। मरेंगे तो भी हम इधर ही कहीं मरेंगे, लेकिन आपसे हमारी प्रार्थना है कि ऐसे पुनीत स्थान से आपको जीवन में कहीं न कहीं जुड़ा रहना चाहिए। हमको जिन्दगी भर में तीन बार हमारे गुरु ने एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाया, बैटरी चार्ज करने के लिए। गाड़ियों की बैटरी जब धीमी हो जाती है तो उसको फिर दोबारा चार्ज कर देते हैं। फिर वह बैटरी काम करने लगती है। इसलिए जब हमारी बैटरी धीमी पड़ी तब हमको हमारे गुरु ने बुलाया और अब हम यहाँ हैं। आपको हम निमन्त्रण भेजते हैं इस व्याख्यान के द्वारा। आपको तीर्थयात्रा का जब कभी भी मौका मिले, आप यहाँ शान्तिकुञ्ज में आने की कोशिश कीजिए, जहाँ सारे ऋषियों की परम्परा है। जहाँ हिमालय की सारी विशेषताओं को हमने एकत्रित करके रखा है। जब आपका जन्म-दिन हो, विवाह-दिन हो तो यहाँ आने की कोशिश कीजिए और बच्चों के संस्कार कराने के लिए, सोलह संस्कार कराने हों तो आप यहाँ आने की कोशिश कीजिए। बच्चों के संस्कार कराने के लिए पुनीत स्थान की लोग तलाश करते हैं। किसी देवी के यहाँ, किसी मन्दिर में लोग संस्कार कराते हैं। आप भी यहाँ आ सकते हैं। श्राद्ध और तर्पण कराने के लिए भी ऐसा नियम है कि यहाँ बद्रीनाथ के पास में ब्रह्मकपाल नाम का स्थान है, वहाँ लोग तर्पण कराते हैं। यहाँ भी तर्पण कराते हैं। श्राद्ध कराते हैं। आप चाहें तो हरिद्वार में भी करा सकते हैं, लेकिन वह स्थान कहाँ है? कैसे हैं? इसके बारे में हमें कुछ कहना नहीं। लेकिन हमारा जो स्थान है वह बहुत सुन्दर स्थान है। यहाँ जो भी आते हैं, नवरात्रि के दिनों में यहाँ अनुष्ठान कराते हैं। यह अनुष्ठान की भूमि है। शिक्षण की भी सारी व्यवस्था यहाँ है। शिक्षण के लिए आपका कभी मन हो, गुरुजी ने जो सीखा था, उसको आगे चलकर हम भी सीखें, तो यहाँ दस दिन के शिविर भी होते हैं। एक महीने के शिविर भी होते हैं। यहाँ पर एक छोटा स्थान आप ऐसे मान लीजिए जैसे गणेश जी ने राम नाम लिख करके, उसकी परिक्रमा लगा ली थी और परिक्रमा लगाने के बाद में उनको वह सारा का सारा पुण्य मिल गया था, जो कि विश्व की परिक्रमा से मिलना चाहिए। गणेश जी को पहला नम्बर मिला। उनका चूहे की सवारी पर बैठकर सारे विश्व भर में घूमना तो सम्भव नहीं था अतः उन्होंने विवेक से काम लिया और रामनाम की परिक्रमा लगा ली। यह छोटा-सा गायत्री-तीर्थ है। छोटा-सा शान्तिकुञ्ज उन सारी विशेषताओं से भरा पड़ा है। हम तो अब ज्यादा समय तक रहेंगे नहीं, अभी सन् दो हजार तक तो रहने वाले हैं नहीं, किन्तु इस शरीर से नहीं तो सूक्ष्म शरीर से रहेंगे। यहाँ हमारी प्रेरणा बराबर रहेगी और आपको बराबर वह लाभ मिलता रहेगा जो कि मिलना चाहिए। बहुत शानदार जगह है शान्तिकुञ्ज। इन सारे ऋषियों का, यहाँ के चौबीस गायत्री के चौबीस ऋषि हैं और उन चौबीस ऋषियों का सार यहाँ है, वे ऋषि जो करते थे, उनकी परम्परा का सार देखना हो तो यहाँ है। यह तीर्थों में ऐसा तीर्थ है कि यहाँ आ करके आप कभी उपासना करें तो जिस तरीके से नागपुर के सन्तरे, बम्बई के केले फलदायक होते हैं, ठीक उसी तरीके से फलदायक आप अपने को पायेंगे। यह शान्तिकुञ्ज तीर्थ हमने बनाया है तो समझना चाहिए यह आपके लिए बनाया है। हिमालय बना होगा तो हमारे गुरु ने हमें खींच करके हिमालय पर बुलाया और हमको वहाँ पर रखा। हम आपको खींच करके यहाँ बुलायेंगे कि आप यहाँ शान्तिकुञ्ज में आया करें। साल में एक बार किसी प्रकार आने की कोशिश किया करें। यहाँ के आने-जाने में जो पैसा लगा है, समय लगा है, जो कुछ भी चीजें लगी हैं वे सब सार्थक सिद्ध होंगी। निरर्थक सिद्ध नहीं होंगी। आप शान्तिकुञ्ज आ करके यह ख्याल नहीं करेंगे कि हम निरर्थक आये और हमने बेकार में समय और पैसा गँवाया। बस और तो कुछ कहना नहीं। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति।