उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो ! भाइयो !!
मानव जीवन भगवान द्वारा प्रदान की गयी एक बहुमूल्य निधि है। मनुष्य विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यह एक ऐसा सत्य है, जिसे तथ्यों के आधार पर भी स्वीकार करना ही पड़ता है साथ ही, हर व्यक्ति इस गौरवपूर्ण स्थिति को अनुभव भी करता है। परन्तु दूसरी ओर यह बात भी उतनी ही सत्य है कि अधिकांश व्यक्ति क्षुब्ध, दीन-हीन एवं दुःखी जीवन जीते रहते हैं। इस प्रकार अनन्त मनुष्यों की समस्याएँ भी अनेक हैं, जिसके कारण वे हमेशा दुःखी रहते हैं, उदास रहते हैं। वास्तव में हमें इस मानव-जीवन को भौतिक दलदलों में फँसाकर रोने-कलपने की अपेक्षा ऊपर उठाना चाहिए तथा परमेश्वर के द्वारा बनाये गये इस संसार में सुख-शान्ति का रसास्वादन करते हुए अपने आपको धन्य बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह बात भी सत्य है कि भगवान ने वरिष्ठता के कारण मनुष्य को कुछ अधिक ही दिया है, परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी इन विशिष्ट क्षमताओं को न पहचान पाए, न विकसित कर पाए और न ही उनको सही दिशा दे पाये यही कारण है कि भगवान का इतना श्रेष्ठ अनुदान पाकर भी हम दुःखी हैं और रात-दिन रोते-कलपते रहते हैं।
प्राचीनकाल में भारतीय तत्त्ववेत्ता ऋषि-मुनि इस तथ्य को जानते थे तथा वे मनुष्य जाति को आगे बढ़ाने, प्रगति करने एवं सुखी-समुन्नत बनाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते थे। बेटे, आज हम उसी परम्परा के अनुसार मनुष्य को सुखी बनाने हेतु युग-निर्माण योजना के माध्यम से प्रयत्नशील हैं, ताकि हम भी भगवान के श्रेष्ठ पुत्र को सुखी बना सकें।
वास्तव में आपको यह मालूम नहीं है कि हमें सुख कहाँ मिल सकता है तथा शान्ति कहाँ मिल सकती है? इस सुख-शान्ति की खोज में हम इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, परन्तु हमें वह चीज प्राप्त नहीं होती है। हिरन जंगलों में पानी के लिए रातभर घूमता रहता है, परन्तु उसे पानी नहीं मिलता है। दिन में वह रेगिस्तान में चमकते बालू के ढेर को पानी समझकर उधर को जाता है, परन्तु वहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगती है। वही हालत आज मनुष्यों की हो रही है। अशान्त मनुष्य भी मृगतृष्णा की तरह इधर-उधर भटक रहा है। वह समझता है कि हमें शान्ति उत्तम स्वास्थ्य से, धन से और विद्या से मिलेगी और वह इसी के पीछे पागल हो रहा है। उसे मालूम नहीं है कि किसी भी क्षेत्र में मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए एक व्यवस्थित प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। उसे अपनी प्रत्येक गतिविधियों का सर्वेक्षण करना पड़ता है एवं उसके साथ कुछ नये लक्ष्य निर्धारित करने पड़ते हैं।
यह एक कटु सत्य है कि मनुष्य शरीर धारण करने का अवसर ही प्रगति का शुभ अवसर है परन्तु, यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्रगति की आकांक्षा मात्र से प्रगति सम्भव नहीं है। इसके लिए मनुष्य को प्रयास, पुरुषार्थ एवं साहस करना पड़ता है। सामान्य लौकिक पद-प्रतिष्ठा के लिए भी जब पुरुषार्थ करना पड़ता है, तो आत्मिक प्रगति जैसे महान लक्ष्य के लिए इसकी उपेक्षा करना नितान्त भूल मानी जानी चाहिए। पहले हम स्वास्थ्य की बात को ही लें, तो आज के युग में मनुष्य अच्छी सेहत के लिए विटामिन—ए, बी, सी से लेकर न जाने क्या-क्या अभक्ष्य पदार्थ खाता रहता है, परन्तु ताकत मिलने की बजाय उसका पतन ही होता चला जाता है। आज कृत्रिम रूप से ताकत बढ़ाने के विभिन्न प्रयोगों के कारण हर व्यक्ति ४०-५० वर्ष की आयु में ही अपने को वृद्ध मानने लगता है। उसमें कुछ करने की हिम्मत, साहस प्रायः समाप्त होता दिखाई देता है। उनकी शक्तियाँ प्रायः पंगु हो जाती हैं।
परन्तु अगर हम महापुरुषों की ओर ध्यान दें, तो पायेंगे कि इन लोगों ने अपने जीवन में ५०-६० साल के बाद ही महान कार्य सम्पादित किये हैं। महात्मा गाँधी ने ५३ वर्ष की आयु के बाद ही अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। युवावस्था में ही वृद्धावस्था आ घेरने का प्रमुख कारण यह है कि हमें इस बात की जानकारी नहीं है कि हमारे शरीर के संचालन के लिए प्रकृति ने भी कुछ व्यवस्था बना रखी है। अगर हम उस क्रम में कोई गतिरोध पैदा करते हैं, तो हमारे स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव आते हैं। हमारा शरीर कमजोर हो जाता है। उस समय मौसम एवं वातावरण के परिवर्तन का भी प्रभाव शरीर पर पड़ता है। हमारे शरीर पर विजातीय तत्वों का भी आक्रमण होता है, परन्तु आपको मालूम नहीं है कि हमारे शरीर के भीतर ऐसी प्रतिरोधक शक्ति भी भगवान ने दे रखी है, जो उन आक्रमणकारी तत्वों को नष्ट करती रहती है। यह सब मनुष्य के शरीर के अन्दर होता रहता है। वास्तव में यह एक परिशोधन प्रक्रिया है, जो प्रकृति द्वारा सम्पन्न होती है।
मनुष्य को अपने शरीर को ठीक रखने के लिए अपने आहार-विहार तथा संयम पर ध्यान रखना चाहिए। बीमारी के दिनों में हमें यह करना चाहिए कि अपने शरीर को अनावश्यक श्रम से बचाएँ और प्रकृति को अपना काम करने दें। प्राकृतिक चिकित्सा जैसे—जल, मिट्टी, धूप आदि की सहायता प्राप्त करें। घबराने की अपेक्षा, रोग-निवृत्ति में थोड़ा समय लगे तो उसे धैर्यपूर्वक हमें सहन कर लेना चाहिए। इस प्रकार थोड़ी-सी सावधानी बरत लेने पर हम रोग से छुटकारा पा जाएँगे और स्वस्थ हो जाएँगे। वस्तुतः स्वास्थ्य के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए, तभी हम स्वास्थ्य बल से लाभ उठा सकते हैं अन्यथा हम अल्पायु में ही बूढ़े हो जाएँगे। स्वास्थ्य-बल का लाभ लेने के लिए हमें संयम, नियम, आहार, विहार, श्रम आदि तत्वों पर विशेष ध्यान देना होगा। हमने साल में दो बार गायत्री अनुष्ठान की प्रक्रिया इसीलिए चलायी है, ताकि आप लोग अपने स्वास्थ्य-बल को ठीक रख सकें।
स्वास्थ्य-बल के बाद दूसरा बल विद्या-बल माना गया है। लोग हमें कहते हैं कि विद्या मनुष्य को शान्ति प्रदान करती है, मनुष्य को ऊँचा उठा देती है, इस सन्दर्भ में आप भी कुछ प्रकाश डालने-समझाने की कृपा करें।
मित्रो! यह सत्य है कि प्राणिजगत् में सर्वोपरि गौरव पाने का अधिकार जो मनुष्य को मिला है, उसका मूल कारण उसकी विकसित बुद्धि एवं विवेक ही है। मनुष्य में यही एक ऐसी विशेषता है, जिसके कारण वह प्राणिजगत् का स्वामी तथा गुरु बना हुआ है। यद्यपि यह सत्य है कि शारीरिक रूप से पशुओं की तुलना में मनुष्य बहुत ही निर्बल तथा अपूर्ण है, किन्तु परमात्मा से विशेष वरदान के रूप में मिली हुई बुद्धि ने उसे सर्वश्रेष्ठता प्रदान कर दी है। मनुष्य के बौद्धिक विकास के प्रमाण के रूप में हम आज के उन्नत, ज्ञान, आश्चर्यजनक वैज्ञानिक प्रयोग, विशाल उद्योग, चिकित्सा विज्ञान आदि की ओर देखकर गर्व अनुभव करते हैं। यह सब वास्तव में मनुष्य की बुद्धि का चमत्कार है।
विद्या के अभाव में उन्नति असम्भव है। यही वह पूँजी है जो सच्चे अर्थों में मनुष्य का उत्थान करती और यश, गौरव का अधिकार बनाती है। ऐसा एक भी उदाहरण इस संसार में नहीं पाया जा सकता, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि बिना ज्ञान एवं विद्या के सभी प्रकार की उन्नति एवं प्रगति सम्भव मानी जा सकती है। वास्तव में उत्कर्ष का एक ही उपाय है और वह है—‘ज्ञान’—‘विद्या’—इसके बिना मनुष्य की आध्यात्मिक या भौतिक प्रगति सम्भव नहीं है। मनुष्य के मानसिक, सामाजिक, आर्थिक एवं व्यक्तिगत हर प्रकार की उन्नति का मूल कारण विद्या ही है। आज संसार में विद्यावान् की ही पूजा होती है। अशिक्षित-अज्ञानी की कहीं पूछ नहीं होती है। जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए सारा संसार अंधकार से पूर्ण रहता है उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में मनुष्य इस संसार का मधुर रहस्य, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला आदि का रसास्वादन नहीं कर सकता है। इसके अभाव में मनुष्य इस स्वर्गीय संसार में पशु के तुल्य ही माना जा सकता है। ऐसा मनुष्य केवल पेट और प्रजनन में ही इस दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर देता है।
इस संसार में आत्मा से लेकर जितने भी शारीरिक सुख हैं, वह विद्या के अभाव में हम प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ज्ञान को—विद्या को ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति माना गया है। वास्तविक वस्तु वह है जो सदैव रहने वाली हो, चिरस्थायी हो। संसार में हर वस्तु एक निश्चित काल पश्चात् नष्ट हो जाती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, साथी-सहयोगी छूट जाते हैं, केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है जो कहीं भी, किसी भी अवस्था और किसी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता है।
धनबल को भी एक शक्ति माना गया है, किन्तु यह उसकी वास्तविक शक्ति नहीं है। इसका मूल स्त्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान के आधार पर ही धन की उपलब्धि होती है और ज्ञान के बल पर ही समाज में लोगों को अपना सहायक तथा सहयोगी बनाया जाता है। अज्ञानी व्यक्ति के लिए संसार की कोई वस्तु सम्भव नहीं है अतः हम चाहते हैं कि आप भी ज्ञानवान बनें। अपने घर में एक छोटा-सा पुस्तकालय रखें तथा हमारे साहित्य को पढ़े और दूसरों को भी पढ़ाने का प्रयास करें। यह साहित्य हमने अपने मार्गदर्शक के आदेशानुसार तैयार किया है। इसमें हमने प्राण का अंश लगाया है और अपनी भावनाओं को, संवेदनाओं को और अन्तः की पीड़ा को उँड़ेल दिया है। आप इसे पढ़ेंगे तो आपका विचार बदलता चला जाएगा तथा आप समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त करते हुए चले जाएँगे।
प्रायः धनबल के बारे में लोगों की मान्यता यह है कि यह धन जिसके पास अधिक होगा वह उतना ही प्रसन्नचित्त होगा तथा उसके अन्दर खुशियों का भण्डार होगा, परन्तु हमारा यह सोचना गलत है। आज जिसके पास जितना अधिक धन है, वह उतना ही अधिक अशान्त तथा सुख-चैन से वंचित है। शक्ति भी उसमें नहीं है। हमारे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि धन कोई बुरी चीज है, निःसन्देह धन एक शक्ति है और वर्तमान समय तो ऐसा हो गया है, कि बिना धन के मनुष्य का जीवन निर्वाह भी सम्भव नहीं रहा। परन्तु यह बात भी सत्य है कि धन तभी तक शुभ और हितकारी है, जब तक उसे ईमानदारी के साथ कमाया जाए और उसका सदुपयोग किया जाए। इसके विपरीत यदि हम धन कमाने और चारों तरफ से उसे बटोरकर अपनी तिजोरी में बन्द करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं, तो यह हमारे लिए अभिशाप बन जाता है। ऐसे मनुष्य अपना पतन तो करते ही हैं, साथ ही दूसरे लोगों को उनके उचित अधिकार से वंचित करके विपत्ति का कारण बनते हैं।
आजकल समाज में, देश में यही हो रहा है। जिसमें अक्ल, चतुरता और शक्ति की तनिक भी अधिकता है, वह कोशिश करता है कि मैं संसार की अधिक से अधिक सुख-सामग्री अपने कब्जे में कर लूँ। अपनी इस हवस को पूरा करने के लिए वह अपने पड़ोसियों के अधिकारों के ऊपर हमला करता है और उनके हाथ की रोटी, मुख का ग्रास छीनकर खुद मालदार बनना चाहता है। वास्तव में एक आदमी का मालदार बनने का अर्थ है—अनेकों का शोषण, अनेकों की सुख-सुविधाओं का अपहरण। इस प्रकार समाज के अन्तर्गत अधिक धन इकट्ठा होने से आपस में राग-द्वेष पनपता है। इस तरह हम देखते हैं कि धन की अधिकता समाज में मनुष्य-मनुष्य के बीच विरोध पैदा करती है, वैमनस्य को बढ़ाती है। वास्तव में हमने मिट्टी के ढेलों को धन मानकर रखा है। यह हमारी कमी है। इसके द्वारा कभी भी मनुष्य का कल्याण न तो हुआ है और न कभी सम्भव होगा।
मनुष्य धन इसलिए जमा करना चाहता है कि उसे आगे सुख और संतोष मिल सके, किन्तु जमा करने की यही आदत जब तृष्णा बन जाती है तो उस व्यक्ति को धर्म एवं अधर्म का ख्याल नहीं रहता और अज्ञानतावश वह ऐसा काम कर बैठता है, जिसके द्वारा उसका कल्याण होने की बजाय उसे जीवन भर दुःख ही भोगना पड़ता है। अतः हमें ऐसे धन से दूर ही रहना चाहिए। इस प्रकार के धन के संचय होने पर हमारी आने वाली पीढ़ी का भी संस्कार दूषित हो जाता है तथा वह भी पतन की ओर अग्रसर हो जाती है। अतः हम इस धनबल के पीछे न पड़कर संस्कारवान बनने का प्रयास करें ही, अपने बच्चों को भी संस्कारवान बनाएँ।
वास्तव में हमारे ख्याल से स्वास्थ्यबल, विद्यमान एवं धनबल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण एक और बल है, जिसका नाम—‘आत्मबल’ है। आत्मबल के धनी ऋषि-मुनियों ने, हमारे पूर्वजों ने सब कुछ प्राप्त कर लिया था। यह एक तथ्य है कि भौतिकबलों से भौतिक साधन मिलते हैं और आत्मबल के सहारे आत्मिक प्रगति के साधन मनुष्य को मिलते हैं। महान् पुरुष जिस स्वर्गीय परिस्थितियों में निवास करता है तथा उसे जो भी विभूतियाँ जगत् में प्राप्त होती हैं, उसका प्रमुख माध्यम आत्मबल ही होता है। अन्य तीन बलों की जो बातें हमने बतलायी हैं, उससे इन चीजों की प्राप्ति नहीं होती है। हर मनुष्य को आत्मिक प्रगति एवं सफलता के लिए यही सिद्धान्त अपनाना पड़ता है। आत्मबल ही मनुष्य की वह पूँजी है, जिसके आधार पर मनुष्य दैवी-अनुग्रह, भगवत्कृपा एवं ऋषि-सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य को शरीरबल प्राप्त करने के लिए आहार-विहार का संयम, धनबल के लिए योग्यता, श्रम, कार्यकुशलता तथा ज्ञानबल के लिए अध्ययन, लेखन, शिक्षक, गुरु, साहित्य आदि की आवश्यकता पड़ती है। ठीक उसी प्रकार आत्मबल के लिए मनुष्य को संकल्प, संयम, आदर्शों के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास की नितान्त आवश्यकता है। फूटे हुए बर्तन में दूध दुहने से कोई फायदा नहीं मिलता है, उसी प्रकार मनुष्य के भीतर कषाय-कल्मष भरे हों तो ईश्वर-प्रदत्त चीजें अर्थात् आत्मबल नहीं मिल सकता है। उसे पहले अपने आपका सुधार करना आवश्यक है। इसके द्वारा ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है। अतः इसे अपने अन्दर धारण करने का प्रयास करना चाहिए। इसका एक ही माध्यम है कि व्यक्ति अध्यात्मवादी दृष्टिकोण अपनाए एवं परिस्थितियों से प्रभावित न हो।
आज हर व्यक्ति समस्याओं के जाल में निरन्तर उलझता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण है व्यक्ति के अन्दर आध्यात्मिक दृष्टिकोण का अभाव। हमें हर प्रकार से यह समझ लेना चाहिए कि मनुष्य के विकास के लिए उसके सामने दो ही रास्ते हैं—(१) भौतिकवादी रास्ता और (२) आध्यात्मिक रास्ता। चाहे तो आप इसे प्रेय एवं श्रेय मार्ग भी कह सकते हैं। मनुष्य में उत्कृष्ट चिन्तन की पृष्ठभूमि बनाने का काम अध्यात्म करता है। आत्मा में विद्यमान परमात्मा को हम कैसे विकसित करें, इस विद्या का नाम अध्यात्म है, परन्तु आज का मनुष्य तो पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, अनुष्ठान तथा हनुमानजी को प्रसाद चढ़ा देने की प्रतिमा को ही अध्यात्म क्या, सब कुछ मान बैठा है। यह उसकी भूल है। वास्तव में अध्यात्म का मतलब है—आदमी के चिन्तन, चरित्र, आदर्श एवं व्यवहार को ऊँचा उठाना जो इस तथ्य को जानता है, वही सच्चा अध्यात्मवादी है।
प्रायः लोग मनौती मानने और प्रसाद चढ़ा देने, धूपबत्ती, अगरबत्ती जला देने और पूजा-पाठ को ही अध्यात्म मान बैठते हैं। वे नहीं जानते कि देवता बहुत ही व्यस्त होते हैं। एक कम्पनी को सँभालने में मैनेजर का कचूमर निकल जाता है, फिर भगवान को तो सारी सृष्टि का नियन्त्रण करना पड़ता है। अतः उसके पास उतना समय कहाँ जो आपके प्रसाद के लिए दौड़ा चला आवे और आशीर्वाद, वरदान दे जाए। भगवान मूर्ख नहीं है जो आपकी माला और पूजा से प्रसन्न हो जाए। आपको अपने चरित्र एवं व्यक्तित्व को ऊँचा उठाना होगा तभी परमात्मा की अनुकम्पा आपको मिल सकती है। इसके लिए ऋषियों ने चार साधनाएँ बतलायी हैं, जो मनुष्य को करनी चाहिए। वे हैं—‘सादा जीवन उच्च विचार’, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’, ‘लोष्ठवत् परद्रव्येषु’ एवं ‘मातृवत् परदारेषु।’ इन सूत्रों को अपनाकर ही हम अध्यात्मवादी बन सकते हैं तथा हमारे अन्दर अध्यात्म का बल—‘आत्मबल’ आ सकता है।
अगर हम अध्यात्मबल का व्यापार करें तो अधिक लाभ कमा सकते हैं। गुरुनानक का उदाहरण सामने है। नानक के पिताजी ने नानक को २० रुपये दिये और उन्हें व्यापार करने को कहा। आत्मबल के धनी नानक ने ऐसा व्यापार किया कि आज वह करोड़ों के व्यापारी बन गये। आपने अमृतसर में स्वर्णमन्दिर देखा होगा, वह आत्मबल का व्यापार है। आत्मबल का व्यापार अध्यात्म का व्यापार कहलाता है, भगवान बुद्ध, जो अपने बचपन में एक बूढ़े, बीमार तथा एक मरे हुए आदमी को देखकर घबरा गये थे, उन्होंने जब आत्मबल का व्यापार किया तो विश्व के अनेक जगहों में उनके मन्दिर सोने के बने हुए हैं। द्रौपदी ने भी अध्यात्म का व्यापार किया था। चीर-हरण के समय भगवान् ने उसे सभी स्थानों का कपड़ा अनुदान में दे दिया था। दुःशासन उसे नंगा न कर सका, कपड़े से कपड़े निकलते चले गये। हनुमान जी ने भी अपने जीवन में अध्यात्म का ऐसा व्यापार किया कि सारे देश में आज जितने अधिक मन्दिर उनके बने हुए हैं, उतने मन्दिर राम के नहीं हैं। यही सबसे महत्त्वपूर्ण बल है।
एकलव्य ने भी अध्यात्म का व्यापार किया था और मिट्टी के द्रोणाचार्य से इतना सीख लिया कि कुत्ते का मुँह तक सिल दिया था। अर्जुन जो पहले कायर बना हुआ था, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण के समझाने पर जब उसने भी अपने अन्दर आत्मबल धारण किया तो वह फायदे में रहा। भगवान आगे-आगे थे तथा उसके सारथी बनकर चल रहे थे।
बेटे, आत्मबल एक सुन्दर तथा नफे का व्यापार है। हम भी इसके व्यापारी हैं। हमारा आपसे निवेदन है कि आप भी भगवान की इस लिमिटेड कम्पनी में अपना शेयर खरीद लीजिए और भागीदार बन जाइये। आप भी फायदे में रहेंगे। सुना है रुड़की में हरिद्वार के पास एक बड़ा पावर हाउस है। उसी तरह भगवान के पास भी एक बिजलीघर है। उसी से हम सभी को जिसने आत्मबल का व्यापार किया है, शक्ति मिलती रहती है और हमारा काम चलता रहता है। इस आत्मबल की प्राप्ति अध्यात्म मार्ग पर चलने से ही होती है।
अध्यात्म एक भावना का नाम है, श्रद्धा का नाम है। आप जिस श्रद्धा एवं भक्ति के साथ गायत्री माता के फोटो को देखते हैं, आपको उसी प्रकार का लाभ मिलता है। इसे हम अध्यात्म का लाभ कहते हैं। अनुष्ठान उसे कहते हैं, जो किसी खास विधान एवं खास उद्देश्य से किया जाता है। अनुष्ठान में आहार का नियन्त्रण परम आवश्यक है। अभी तो गर्मी के कारण हमने अनुष्ठान में आपको छूट दे रखी है। यह एक तथ्य है कि भगवान को प्राप्त करने के लिए भावना पवित्र होनी चाहिए तथा भावना को पवित्र करने के लिए आहार को ठीक करना परम आवश्यक है। आपके आहार के अनुसार ही भावना होगी। आपने गलत ढंग से पैसा कमाया है और उस पैसे का अन्न ग्रहण किया है तो आपकी भावना भी दूषित होगी। आपका आहार तमोगुणी होगा तो भावना भी उसी प्रकार की होगी। अतः हर साधक को अपने भोजन के बारे में सही मात्रा, सही समय तथा संस्कार सम्बन्धी दोष एवं अवांछनीयता का ध्यान रखना चाहिए।
संस्कारवान बनने के लिए अपने आहार का नियंत्रण करना आवश्यक है, तभी हमारी उपासना में सामर्थ्य एवं बल की प्राप्ति होगी। हमने चौबीस साल तक जौ की रोटी तथा छाछ का आहार लिया है। अपने को परिष्कृत-परिमार्जित किया है। वास्तव में उपासना के लिए अपने को पवित्र बनाना परम आवश्यक है। इसी कारण से कबीर ने कहा है—
कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पाछे-पाछे हरि फिरैं, कहत कबीर-कबीर।।
हमने चौबीस वर्ष जो आहार-संयम किया था, उसके कारण आज भी हमारी पाचनशक्ति ठीक है। हम जो ग्रहण करते हैं, उसे पेट ठीक ढंग से पचा लेता है। पिप्पलाद ऋषि ने अपना सारा जीवन केवल पीपल के फल से ही काटा था। इससे उन्हें बहुत फायदा था।
आहार के द्वारा मनुष्य के विचार बनते हैं। शास्त्रों में कहा गया है—‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।’ आपमें से अधिकांश होटलों में खाते हैं। वहाँ आपको जूठन भी मिलता है। वहाँ काम करने वाले नौकर ठीक से बर्तनों की सफाई या मँजाई नहीं करते हैं। ड्रम में रखे थोड़े-से पानी में बार-बार धो-पोंछकर पुनः आपको परोसकर दे देते हैं। इस प्रकार के आहार द्वारा आपका अन्नमय कोश कैसे ठीक होगा? आपकी उपासना कैसे ठीक ढंग से संचालित होगी।
आपने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन भी नहीं किया है। आपकी पत्नी कितनी खूबसूरत, सुकोमल आयी थी, आपने उसके साथ भी संयम नहीं बरता और बच्चे पर बच्चे पैदा करते चले गये। आपकी जो थोड़ी-सी शक्ति अर्जित होती थी, वह भी बार-बार निकल जाती रही। अगर आपको सीमित ब्रह्मचर्य का पालन कर संयमशील बनना चाहिए, तभी मन की चंचलता थमेगी और आपका मन उपासना में लगेगा।
आपने अपनी जीभ को भी नहीं साधा है। इसके द्वारा न जाने क्या-क्या खाते रहते हैं? दिनभर बकरी की तरह से आपका मुँह चलता रहता है, जबकि यह कहा गया है कि बिना कड़ी भूख लगे मनुष्य को कुछ भी नहीं खाना चाहिए। इससे लाभ की बजाय हानि ही होती है। आपने अगर अपनी जीभ को साध लिया, किसी की चुगली नहीं की, कभी अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाया, किसी का दिल नहीं दुःखाया तो आपकी यह जीभ भगवान बन जाएगी। आप जिस किसी को भी कुछ कहेंगे वह उसके लिए वरदान सिद्ध हो जाएगा। हमने अपनी जीभ को अपनी इन्द्रियों को साधा है, तब ही यह चमत्कार आपको यहाँ दिखायी पड़ रहा है।
अनुसूया ने ब्रह्मचर्य का पालन किया था। एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके पास भिक्षा माँगने गये और कहा कि आप कपड़ा निकाल कर देंगी तो हम ग्रहण करेंगे। अनुसूया ने अपने ध्यान में देखा तो मालूम पड़ा कि ये त्रिमूर्ति हैं। अतः वह बोल पड़ीं कि आप लोग बच्चे हो जाएँ तो हम आपके आदेश का पालन करेंगे। इस प्रकार कहते हैं कि वे बच्चे बन गये तथा अनुसूया ने उन लोगों को प्रेम से भोजन कराया था। यह है बेटे, साधना-उपासना का महत्त्व, जो साधारण से के आदमी को महान् बना देता है।
मित्रो, ब्रह्मचर्य के साथ-साथ मनःसंयम भी बरतना आवश्यक है। संयम शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार का होता है। स्त्री-पुरुष के बीच एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। जब भी कोई जवान व्यक्ति एक-दूसरे को देखते हैं तो उन्हें लगाव महसूस होता है। दोनों अगर अपनी भावनाओं में परिवर्तन कर लें तो दोनों ही महानता की ओर अग्रसर हो सकते हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो इस प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक संयम का प्रतिपादन करती हैं। शिवाजी ने जब मुगलों पर विजय पायी थी, तो उनके सेनापति ने एक सुन्दर युवती को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया था। उसे देखकर उनकी भावनाओं में परिवर्तन आया और वे बोल उठे—काश अगर हमारी माँ भी ऐसी सुन्दर होती तो हम भी सुन्दर होते। उन्होंने सेनापति को बुलाकर भला-बुरा कहा और उसे उसके निवास स्थान पर छोड़ आने का निर्देश दिया।
स्वामी विवेकानन्द जब विदेश गये थे, तो एक लड़की ने भी उनकी परीक्षा ली थी, परन्तु वे डिगे नहीं, अपनी वासना को जला दिया और उस लड़की को शिष्या बना लिया। एक साथ काम करने वाली लड़की आगे चलकर सिस्टर निवेदिता के नाम से प्रख्यात हुई। यह सब आप जानते ही हैं। यह सब संयम की बात है। अपनी भावनाओं के परिवर्तन की बात है। साधक को इस प्रकार का होना आवश्यक है। आपको आत्मबल प्राप्त करने के लिए अध्यात्म के रास्ते पर चलना होगा और उसके लिए निम्नलिखित सिद्धान्तों को अपनाना होगा। पहला—माला के विधान समझना होगा—यानि कि व्यक्तित्व का परिष्कार करना होगा। दूसरा—एक नये किस्म की आरती एवं दीपक का थाल सजाना होगा—अर्थात् अपने को भगवान् के प्रति समर्पित करना होगा। तीसरा—आहार पर नियंत्रण करना होगा। चौथा—शारीरिक एवं मानसिक संयम साधना होगा और पाँचवाँ—स्वाध्यायशील बनना होगा। आप इस प्रकार कर सकेंगे तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपका जीवन महान् बन जायगा। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥