उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
मोम्बासा, अफ्रीका में दिए गए अपने इस विशिष्ट उद्बोधन में परम पूज्य गुरुदेव यज्ञ की विशद व्याख्या करते हुए नजर आते हैं। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि यज्ञ में हम देवावाहन का क्रम करते हैं और देवता वहीं आते हैं जहाँ पर सच्ची भावनाओं से उन्हें पुकारा जाता है।युगऋषि कहते हैं कि देवता वो नहीं है जो स्वर्ग में विशेष रूप धारण करके बैठते हैं बल्कि देवता वे हैं जिन्होंने देने का भाव अंगीकार कर लिया है। जो समाज से लेना कम और समाज को देना ज्यादा जानते हैं, वे ही सच्चे अर्थों में देवता कहे जा सकते हैं। इन अर्थों में यज्ञसमाज का ऋण चुकाने का माध्यम बन जाता है और यह प्रक्रिया हमारे शरीर से लेकर प्रकृति की व्यवस्था, सबमें सदा देखने को मिलती है। यदि सभी लेने का भाव रखें और बदले में कुछ दें नहीं तो यह सृष्टि देखते-देखते नष्ट हो जाए। आइए हृदयंगम करते हैं उनकीअमृतवाणी को........
भावनाओं के भूखे हैं भगवान
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! हमारे यज्ञ आयोजन का आज दूसरा दिन है। भगवान को और देवताओं को वेदमंत्रों के द्वारा आवाहन करके बुलाया गया और देवता लोग भागते हुए चले आये। देवता क्यों आये? चावल खाने, फूल खाने और घी खाने के लिए नहीं आये, वरन् घी, चावलऔर फूल के साथ में जुड़ी हुई आपकी जो भावनायें हैं, उन भावनाओं को सूँघते हुए वे चले आये। वेदमंत्रों के आह्वान के द्वारा वे चल आये। देवता बिना कारण नहीं आते। कोई किसी के यहाँ बिना वजह के जाता है क्या? नहीं जाता है।
देवता आपके चावल के भूखे नहीं, जिनका कि आपने आह्वान किया है। तैंतीस कोटि देवता यज्ञ में आह्वान किये गये और वे एक विशेष कार्य के लिए आये और विशेष मार्ग ढूँढ़ने के लिये आये। जब कभी यज्ञ किया जाता हैं, उसमें मंत्र बोले जाते हैं, पूजा की जाती है, घीहवन किया जाता है। इन सबके साथ में मनुष्य की भावनायें भी जुड़ी होती है। देवता भावना को देखने के लिये, सूँघने के लिए और खाने के लिए आते हैं। आपकी भावनायें यदि श्रेष्ठ रही होंगी, तो उन भावनाओं के आधार पर देवता आपके ऊपर कृपा करेंगे और आशीर्वाददेकर के जायेंगे। अगर आपकी भावनायें नहीं हैं, केवल आपकी क्रिया है, केवल आप शरीर से काम कर रहे हैं, तो जो लाभ मिलना चाहिए था, तो वह नहीं मिल सकेगा। देवता क्रिया के भूखे नहीं, देवता भावनाओं के भूखे हैं। आप लोगों ने हवन किया, उसके साथ-साथ मेंआपकी भावनायें भी जुड़ी रही होंगी।
संसार के कर्ज को चुकाने का नाम है यज्ञ
मित्रो! प्राचीनकाल में जब लोग यज्ञ करते थे, तो उनकी भावनायें रहा करती थी कि संसार में से हमने श्वास ली है और श्वास को हमने जिंदा किया है। नाक के द्वारा जब हम श्वास लेते हैं तो अच्छी वाली लेते हैं और जब मुँह में से और नाक में से होकर श्वास बाहरनिकलती है, तो गंदी होकर के निकलती है। संसार से हमने अच्छी श्वास ली है। हमारा काम है कि हम इस दुनिया को अच्छी वायु देकर के जायँ। इस धरती से हमने अनाज लिया। सारे समाज से हमने शिक्षायें ली, हमने विद्या पढ़ी, ज्ञान पाया। माता-पिता की सहायताप्राप्त की। अध्यापकों से पढ़ना सीखा। न जाने कितने लोगों से हमने क्या-क्या लिया?
हमारा यह काम है कि जब हम संसार से जायँ, तो हम सबका कर्ज चुकाते हुए जायँ। कर्ज चुकाने की विद्या का नाम ‘यज्ञ’ है और वह भावना यज्ञ है, जिसमें कि मनुष्य के मन में यह विचार हमेशा भरा रहता है कि संसार में लेने वालों की अपेक्षा देने वालों में हमारा नामगिना जाय। संसार में दो प्रकार के जीव हैं—एक को कहते हैं-‘देव’ और दूसरे को कहते हैं-‘लेव’। देव वे लोग हैं जिन्होंने दिया है। पिता ने पढ़ाया, बदले में पिता की सेवा की। बड़े भाई ने, बड़ी बहन ने देख−भाल की। अध्यापक ने पढ़ाया। उसका ऋण माना। समाज से पाया, तो समाज का ऋण चुकाया। ये लोग कौन कहलाते हैं? ये लोग देवता कहलाते हैं। स्वर्ग में भी यही लोग रहते हैं और जमीन पर भी यही लोग रहते हैं।
देने वाले का नाम है देवता
मित्रो! ब्राह्मण को हम ब्राह्मण देवता कहते थे। क्यों कहते थे? इसलिए कहते थे कि वे थोड़ा लिया करते थे और ज्यादा दिया करते थे। ब्राह्मण ने थोड़ा-सा खा लिया, संतोष से रहा और सारा का सारा अपना समय समाज का कल्याण करने के लिए, विद्यालय चलाने केलिए, धर्मग्रंथ लिखने के लिए, चिकित्सा के लिए, दवा−दारू के लिए ब्राह्मण का जीवन लगा रहता था। उपकार करने वाले लोगों का नाम देवता है।
देवताओं को हमने मंत्रों के द्वारा बुलाया और वे यह परख करने के लिए आये कि आपके भीतर यज्ञ की भावना, यज्ञ की प्रवृत्ति है कि नहीं। बेशक आपने घी होमा, आप चाहते तो घी खा सकते थे, मिठाई बना सकते थे, अपनी दाल में डाल सकते थे, पूड़ी बना सकते थे, पर आपने अपने लिए वह नहीं किया और न खाया। उसको आपने हवा के द्वारा सारे प्राणियों के पास भेज दिया। यह यज्ञ की वृत्ति और यज्ञ भावना है, जो हवन से शुरू होती है। हवन से खत्म नहीं होती है। हवन से तो शुरू करते हैं। बच्चा जब स्कूल में जाता है तो पट्टीपर ‘‘श्री गणेशाय नमः’’ लिखता है। पढ़ाई शुरू होती है, फिर बंद नहीं होती।
मित्रो! आपका यज्ञ यहाँ से शुरू हुआ। आप लोगों ने अपना घी, जिसे आप अपने खाने-पीने के काम में ला सकते थे, अपने बच्चों को भी खिला सकते थे, लेकिन आपने अपने लिए नहीं खाया। आपके जी में यह ख्याल आया कि सारे संसार की वायु को सुगंधित बनाने केलिए आपने घी को हवा में मिला करके सारे प्राणियों के शरीर की पुष्टि के लिए, रोगों के निवारण करने के लिए, हरेक प्राणी के अंदर अच्छी भावना उत्पन्न करने के लिए आपको अपना घी, आपको अपना पैसा, आपको अपना समय खर्च करना चाहिए। हवन के द्वाराभक्ति का यह अभ्यास आपको कराया गया। हवन एक अभ्यास है। हवन एक शुरुआत है कि मनुष्य को किस तरीके से जिंदगी जीना चाहिए।
क्या है रामायण का सच्चा संदेश
मित्रो! आपके यज्ञ में देवता आये और आपकी भावनाओं को देखा और वे प्रसन्न हो गये। आपने यज्ञ के द्वारा जो यह भावना शुरू की है, वह आगे भी बढ़ती रहनी चाहिए। आप जहाँ कहीं भी निवास करते हैं, घर में रहते हैं, तो घर के सारे के सारे लोगों के साथ प्रेमभावपैदा कीजिए। एक-दूसरे के लिए त्याग करना सीखिए। सारी की सारी रामायण इसी बात पर लिखी हुई है कि एक गृहस्थ को आदर्श गृहस्थ कैसे बनाया जा सकता है?
राम ने भरत जी के लिए त्याग किया और भरत ने राम जी के लिए त्याग किया। कौशल्या ने कहा कि पिता की आज्ञा है कि मेरे बच्चे वनवास जायें। सीता जी ने भी त्याग किया। उन्होंने कहा कि हमारा पति वनवास जाता है, तो हम राजमहल के सुख को लेकर के क्याकरेंगे? लक्ष्मण ने कहा कि हमारा बड़ा भाई पिता के समान है। वह जंगल में जाता है, वनों में रहता है। हमें वनवास नहीं मिला तो क्या हुआ? हमें भी वनवास जाना चाहिए और भाई की सहायता करनी चाहिए। सीता जी ने कहा था कि मैं अपने पति के साथ वनवासजाऊँगी, लेकिन लक्ष्मण जी की स्त्री ने एक कदम और आगे बढ़ाया और यह कहा कि पति देवता, आप जाओ। रामचन्द्र जी की सेवा करो, सीता जी की सेवा करो। मैं तो भूखी रह लूँगी, अकेली रह लूँगी, मुसीबत उठा करके अकेले रह लूँगी, लेकिन आपके कर्तव्य औरसेवा के मार्ग में कोई रुकावट नहीं डालूँगी।
मित्रो! यह क्या है? यह वह चीज है जो यज्ञ के ऊपर टिकी हुई है। रामायण यज्ञ की व्याख्या में लिखी गयी है। रामचन्द्र जी कहाँ से पैदा हुए? यज्ञ से पैदा हुए। लक्ष्मण यज्ञ से पैदा हुए, भरत-शत्रुघ्न यज्ञ से पैदा हुए। जिन लोगों के जीवन यज्ञ से भरे हुए हैं, परोपकार से भरेहुए हैं। जिनका जीवन यज्ञ से भरा हुआ है, उनकी संतान हमेशा लक्ष्मण के तरीके से होगी, राम के तरीके से होगी। भरत-शत्रुघ्न के तरीके से होगी। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न यज्ञ से पैदा किये गये थे।
भारतीय संस्कृति का पिता है यज्ञ
भगवान राम अपनी जान हथेली पर रखकर यज्ञ की रक्षा करने के लिए विश्वामित्र जी के आश्रम में चले गये। राक्षसों ने हमला किया। उन्होंने यज्ञ की रक्षा करने के लिए राक्षसों से लड़ाई लड़ी। यज्ञ हमारी भारतीय संस्कृति का पिता है। और हवन? हाँ हवन भी और हवनके अलावा यह वृत्ति भी कि हमको एक-दूसरे के साथ में मिल-जुलकर रहना चाहिए। हमको लोभी नहीं होना चाहिए और हमको समाज के लिए उपयोगी होकर जीना चाहिए। यज्ञ की यह मूलवृत्ति है। यज्ञ हमारा पिता है, जिससे हिन्दू धर्म पैदा हुआ है। जिससे हिन्दूसंस्कृति पैदा हुई है।
मित्रो! अगर हिन्दू संस्कृति दूसरे लोगों के तरीके से रही होती, जो पेट भरने के लिए पैदा होते हैं और पेट भरते-भरते ही मौत के मुँह में चले जाते हैं, तो हम दुनिया में देवता कहलाने लायक नहीं रहे होते। देवता हम इसलिए कहलाते रहे कि हमने अपने जीवन को नमूनेका बनाया, आदर्श बनाया, ऊँचा बनाया। जीवन को ऊँचा बनाने की शिक्षा, जीवन को अच्छा बनाने की शिक्षा देने के लिए हमारी यज्ञीय परम्पराएँ हैं। इसमें आप हर बात को देख लीजिए।
यज्ञ में यही शिक्षण दिया जाता है। हम स्वयं घी नहीं खाते। दुनिया की सुख-शांति के लिए, दुनिया का स्वास्थ्य अच्छा रखने के लिए अपने घी को हम अग्नि में हवन करके वायु के द्वारा बिखेरते हैं। वायु हमने ली। अच्छी वायु लेना हम अपना कर्तव्य मानते हैं, फर्जमानते हैं। समाज से हमने लिया है, उसका हम बदला चुका कर जायेंगे। हम ऐसा ही परोपकारी जीवन जियेंगे, यही यज्ञ की शिक्षा है। यह सारा का सारा संसार, मनुष्य का जीवन यज्ञ के विचारों से ऊपर टिका हुआ है।
मित्रो! हमारा शरीर कैसे पैदा हुआ? यह शरीर माँ के त्याग का परिणाम है। माँ ने हमें अपने पेट में नौ महीने तक रखा। अपना खून, माँस, हड्डियाँ निचोड़ करके हमको दी। अगर माँ ने अपना यह त्याग न किया होता, तो शायद हमारा जन्म भी संभव नहीं होता। माँ कात्याग है, जिसके फलस्वरूप हमारा शरीर जिंदा है। माँ ने अपना लाल रंग का खून सफेद दूध के रूप में बदल दिया और वही सफेद दूध पीकर के हम जीवित रहे।
अगर माँ ने त्याग नहीं किया होता, सेवा का भाव उसके अंदर नहीं रहा होता, परोपकार की वृत्ति उसके अंदर नहीं रही होती, प्रेम उसके अंदर नहीं रहा होता, तो हम और आप में से किसी की भी जिंदगी-जीवन दुनिया में संभव नहीं रहा होता। मनुष्य माँ के प्रेम के ऊपरजिंदा है। त्याग के ऊपर जिंदा है और यही है यज्ञ। यह सारी की सारी दुनिया जो चल रही है, यज्ञ के ऊपर चल रही है। यज्ञ की मनोवृत्तियाँ दुनिया में से जब समाप्त कर दी जायेंगी, तो दुनिया में कलह फैल जायेगा, पाप फैल जायेगा। दुनिया में अशांति हो जायेगी औरदुनिया में नरक पैदा हो जायेगा, अगर हम यज्ञ की मनोवृत्तियों को दुनिया में से निकाल दें, तब।
पूरी सृष्टि में गतिमान है यज्ञ का भाव
मित्रो! बादल समुद्र का पानी पीकर आता है और जमीन पर बरसता है। यह मेहनत बिना कीमत, बिना किसी स्वार्थ, बिना किसी लोभ के बादल करते हैं। समुद्र बिना किसी लोभ के, बिना किसी लालच के, बिना किसी स्वार्थ के बादलों को पानी दिया करता है। बादलजमीन पर बरसते रहते हैं, जमीन को पानी पिलाते रहते हैं। जमीन उस बादल के पानी को पीकर के घास, अनाज उगाती है, पेड़-पौधे उगाती है। शाक-भाजी उगाती है, फल उगाती है, जिसके ऊपर हम और आप जिंदा हैं। अगर जमीन ने त्याग नहीं किया होता तो पानी, जोकि बादलों से गिरा था, पीकर के अपने आप में चुप बैठ गयी होती, तो अनाज कहाँ से आता, घास कहाँ से आती। दूध कहाँ से आता और दुनिया में जिंदगी कहाँ से रही होती।
त्याग और सेवा की यह वृत्ति जमीन के अंदर, बादल के अंदर, समुद्र के अंदर, नदियों के अंदर न रही होती और बादलों का दिया हुआ पानी नदियों ने अगर रोक लिया होता, तो सर्वत्र बाढ़ आ जाती, मुसीबत आ जाती। समुद्र सूख गया होता, लेकिन नदियों ने वह पानीबहने दिया जो आगे चलकर समुद्र में चला गया। समुद्र भरता हुआ चला गया। इस तरह नदियों का पानी समुद्र में, समुद्र का पानी बादलों में, बादलों का पानी जमीन पर और जमीन का पानी नदियों में चला जाता है। यह चक्र सतत चल रहा है। यही यज्ञ है। इस यज्ञ केआधार पर ही दुनिया टिकी हुई है। हम और आप यज्ञ की इन्हीं मनोवृत्तियों को जीवन में जगह देने का प्रतिदिन प्रयत्न करते हैं।
लें कम और दें ज्यादा—ये है देवत्व की परिभाषा
मित्रो! हम कर्तव्य को भूल जाते हैं और अधिकार माँगते हैं। इसलिए हर जगह क्लेश पैदा होता है। हर जगह लड़ाइयाँ पैदा होती हैं। हमारी मुसीबतों का समाधान सिर्फ एक ही है और वह है कि हम लें कम और दें ज्यादा। अगर हमारा यह स्वभाव बन जाय, तो हम देव बनसकते हैं देव बन करके दुनिया में शांति ला सकते हैं। हमारा शरीर एक यज्ञ है, हाथों ने कमाया, पर क्या हाथ ने खाया? नहीं, हाथ ने नहीं खाया। किसने खाया? मुँह ने खाया। मुँह ने खा करके अपने पास जमा रखा? नहीं, जमा नहीं रखा। फिर कहाँ चला गया? वह अनाजजो मुँह ने खाया था, मुँह ने खाना चबाने के बाद पेट को दे दिया। पेट ने क्या किया? पेट को जमा नहीं रखना चाहिए? पेट को सारे शरीर के लिए खर्च कर देना चाहिए। पेट का यह स्वभाव है। अगर पेट जमा करके रखेगा, तो क्या हो जायेगा? तो पेट फूल जायेगा, पेट में दर्दहो जायेगा। उल्टी हो जायेगी, दस्त हो जायेंगे। सौ बीमारियाँ पैदा हो जायेंगी। नया अनाज आप नहीं खा सकेंगे। अनाज देने से भगवान अपना हाथ सिकोड़ लेंगे और मना करेंगे कि इस आदमी को हक नहीं है कि नया अनाज खाये। इस स्वार्थी और चालाक आदमी को मैंनहीं दूँगा।
मित्रो! भगवान उस आदमी को देने से हाथ सिकोड़ लेते हैं, जिस आदमी ने यह समझ लिया है कि हमको अपनी कमाई सिर्फ अपने लिए ही खर्च करनी है। अपनी कमाई को सिर्फ हमें ही खाना है। इसमें से किसी को हिस्सा नहीं देना है। ऐसे लोग हिन्दू नहीं होते थे। ऐसेलोग देवता नहीं होते। देवताओं का आवाहन करने के साथ हमको देवताओं की मनोवृत्ति पैदा करनी चाहिए। देवता माँगने आते हैं। हमारा शरीर देवालय है। इसमें देवता निवास करते हैं। पेट ने जो खाना खाया, वह कहाँ चला गया? खून बना करके हृदय में भेज दिया गया।खून का क्या हुआ? खून को नाड़ियों में भेज दिया गया। नाड़ियों ने हृदय को दिया, हृदय ने नाड़ियों को दिया।
क्या है आध्यात्मिक साम्यवाद?
मनुष्यो! तुम समाज को दो, समाज तुमको देगा। समाज को उन्नतिशील बनाओ, समाज तुम्हें उन्नतिशील बनायेगा। रोककर रखोगे तो तुम दुःख पाओगे और सारा समाज भी दुःख पायेगा। यह आध्यात्मिक साम्यवाद है, जिसे हमारे ऋषियों ने भी समझाया और जबलोगों ने मानने से इंकार कर दिया, तो वह दूसरे तरीके से दुनिया में तूफान के तरीके से, लहरों के तरीके से बढ़ता चला आ रहा है। हर आदमी को वह मजबूर करेगा कि उसे अपने लिए नहीं जीना चाहिए। यही तो समाजवाद है, इसी का नाम तो साम्यवाद है। आप अपनीइच्छा से नहीं करना चाहते, तो जबरदस्ती यह प्रक्रिया भगवान लायेगा। अच्छा हो कि आप अपनी इच्छा से करें, भगवान को आपके साथ जबरदस्ती न करना पड़े। यह बातें हमें यज्ञ की साइंस, यज्ञ की फिलॉसफी समझाती है।
मित्रो! जो खून हृदय में था, वह नाड़ियों को दिया गया। नाड़ियों ने हृदय को दिया। क्या हाथ बेकार में दिये गये? नहीं, हाथ के पास भी रक्त आया, जिसने कमाया था और अपने लिए खाया नहीं था। उसने मुँह को खिला दिया था। क्या वह खाली हाथ है? नहीं, वह खालीहाथ नहीं है। घूम फिर करके रक्त फिर से उसके पास आ गया और जब हम नाड़ी छूते हैं तो रेलगाड़ी के तरीके से धक-धक करता हुआ, खून बहता हुआ मालूम पड़ता है।
अगर हाथ चाहते तो अपने आप खून नहीं बना सकते थे। दो शिलिंग कमाया। दो शिलिंग से हम चाहें कि खून बना दें, तो यह अपने हाथ के बूते का नहीं है कि खून बना लें। अगर उसको अपनी नाड़ियों में खून लेना है और हाथ को मजबूत रहना हैं, लाल रंग का रहना है, भरापूरा रहना है, शान से भरा रहना है, तो हाथ को, उस अनाज को जो उसने कमाया था, अपनी मुट्ठी में नहीं रोकना चाहिए, वरन् मुँह को दे देना चाहिए। मुँह को चाहिए कि वह पेट को दे। पेट को चाहिए कि वह हृदय को दे। हृदय को चाहिए कि वह नाड़ियों को दे। नाड़ियोंको चाहिए कि वह सारे शरीर को दे और उस हाथ को भी दे जो कमाई करता है। यही समाज का चक्र है। इसी के ऊपर दुनिया में शांति टिकी हुई है। अगर कभी आप शांति को तोड़ना चाहेंगे, तो मुसीबत में फँस जायेंगे। कठिनाइयाँ आयेंगी। सैकड़ों तरह की अशांतियाँआयेंगी।
मित्रो! अगर आप माँ-बाप से लेते हुए चले जायँ और देने से इनकार कर दें कि हमको माता की सेवा की जरूरत नहीं है। यह बुढ़िया बेकार है। इस बुढ़िया को हम क्यों खाना खिलाते हैं और बुढ़िया की हम सेवा क्यों करें? यह तो फालतू है। जिस तरीके से बूढ़े बैल को कसाईके यहाँ भेज देते हैं, उसी तरीके से आप बूढ़े बाप को कसाई के यहाँ भेजने लगें और इतने स्वार्थी हो जायँ, तो फिर आप यह यकीन रखिए कि आपका बेटा भी उसी तरीके से आपके साथ पेश आयेगा। अपनी माँ के साथ में बुरा व्यवहार करने के बाद आप पर स्वयं मुसीबतआयेगी। बाप बेकार है तो उसे हटाइए, मत खाना खिलाइए, अपमान कीजिए, लेकिन आप तैयार हो जाइये कि आपका बेटा भी आपको साथ में वही व्यवहार करने वाला है, जो आपने अपने बाप के साथ किया।
बच्चों को संस्कारित बनायें
मित्रो! यह अपने फायदे के लिए है कि हम समाज को सुखी बनाने के लिए काम करें। बच्चों को अच्छे संस्कारवान बनाने के लिए काम करें। इसके लिए सबसे पहले अपने आपको संयमशील बनायें, चरित्रवान बनायें। बच्चों को स्कूल में पढ़ा करके आप उन्हें अच्छाआदमी नहीं बना सकते। बच्चों को अच्छा बनाना हो, तो आपको अपने आप में अच्छा बनना पड़ेगा।
बच्चों की शिक्षा के लिए अध्यापक जिम्मेदार नहीं हैं, माता-पिता जिम्मेदार हैं, जिन्होंने स्वार्थी जीवन जिया। जिन्होंने बच्चों के सामने नमूना पेश नहीं किया। अगर हमने अपने माँ-बाप की सेवा की होती, तो छोटे बच्चों ने सीख लिया होता कि हमारे माँ-बाप के साथहमको क्या व्यवहार करना चाहिए। यह हमारे अपने पक्ष में है और हमारे लिए लाभदायक है कि हम सेवा का जीवन जियें, संयम का जीवन जियें, सदाचारी का जीवन जियें।
सदाचारी जीवन जीना समाज में शांति की स्थापना करना है। संयमी जीवन जीना समाज में शांति की स्थापना करना है। अपने कामों में से, अपने पेट में से कुछ पैसा निकालना, कुछ वक्त निकालना, कुछ समय निकालना, कुछ चीजें निकालना और यह देखना किहमारे चारों ओर कितनी मुसीबतें छाई हुई हैं, उसमें हमको हिस्सा बटाना चाहिए। उन मुसीबतों को कम करने के लिए अपने ज्ञान और अपने पसीने की कमाई का लोगों को फायदा देना चाहिए। यह वृत्ति देवताओं की है।
लोक-मंगल है देवताओं की वृत्ति
मित्रो! देवता उन्हीं लोगों पर प्रसन्न हुआ करते हैं, जिनके विचार ऊँचे होते हैं और जिनके जीवन के कार्य अच्छे, नेक और भले होते हैं। देवता यह नहीं कर सकते कि आप बकरी का गला काट दें और यह कहें कि हमको लॉटरी में पैसा मिल जाय। हराम की कमाई खाने केलिए, पाप का खून देवता को पिलाएँ, ऐसे देवता दुनिया में नहीं हैं। देवता ऐसे हैं, जो भले मानुषों की मनोवृत्ति को देखते रहते हैं और उन पर दया किया करते हैं, प्रेम किया करते हैं।
एक बार मुसलमानों के एक खलीफा हजरत उमर बैठे हुए थे। आसमान से देवता-फरिश्ते जा रहे थे। उनके हाथ में मोटी वाली एक किताब थी। उन्होंने फरिश्ते को बुलाया और यह कहा कि इस किताब में क्या लिखा हुआ है? फरिश्ते ने कहा कि इसमें उन लोगों के नामलिखे हुए हैं, जो खुदाबंद करीम की इबादत करते हैं। पूजा करते हैं। जिन्होंने भगवान की भक्ति की है, पूजा की है, उनका नाम लिखा हुआ है। उन्होंने पूछा कि इसमें हमारा भी नाम कहीं लिखा हुआ है क्या? नाम दिखाना। नाम देखा गया, तो उनका नाम नहीं मिला।उनको बड़ा दुःख हुआ कि हमने जिंदगी भर भगवान के लिए काम किया। भगवान की दुनिया को सुखी बनाने के लिए काम किया, पर भगवान के भक्तों में हमारा नाम नहीं आया। उनको बहुत दुःख हुआ और वे रोने लगे।
थोड़े दिनों बाद एक और फरिश्ता आसमान से जाता दिखाई दिया। उसके पास एक छोटी सी किताब थी। हजरत उमर ने उन्हें नीचे बुलाया और कहा कि फरिश्ते। इस किताब में किन लोगों के नाम लिखे हुए हैं? फरिश्ते ने कहा कि इस किताब में उन लोगों के नाम लिखेहुए हैं, जिनकी पूजा खुदाबंद करीम करता है। जिनकी वह इबादत करता है और जिनका ध्यान करता है।
हजरत उमर ने कहा-‘क्या दुनिया में ऐसे भी आदमी हैं, खुदा जिनकी इबादत किया करता है?’ फरिश्ते ने कहा-हाँ, दुनिया में ऐसे भी आदमी हैं, खुदा जिनकी इबादत किया करता है। भगवान जिनकी पूजा करते हैं। दुनिया में ऐसे भी आदमी हैं। वे आदमी कौन हैं? छोटी सीकिताब में से फरिश्ते ने नाम सुनाने शुरू किये। उसमें हजरत उमर का नाम लिखा हुआ था। क्या मेरी इबादत खुदा करते हैं? मेरा ध्यान भगवान करते हैं? मेरा नाम भगवान लेते हैं?
उन्होंने कहा-हाँ, आपके नाम का जप भगवान करते हैं। क्यों, किसलिए करते हैं? आपने राम का नाम नहीं लिया तो क्या हुआ? खुदा का नाम नहीं लिया तो क्या? भजन नहीं किया तो क्या? लेकिन दुनिया को अच्छा बनाने के लिए, दूसरों के कष्टों को कम करने केलिए, अपना जीवन अच्छा और नेक बनाने के लिए सारी जिंदगी भर काम किया। ऐसे ही आदमियों को देवता प्यार करते हैं। ऐसे ही आदमियों को भगवान प्यार करते हैं। यही शिक्षण हमको यज्ञ दिया करता है।
उत्तरार्ध
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परम पूज्य गुरुदेव अफ्रीका में दिए गए अपने इस विशिष्ट उद्बोधन में यज्ञ को हिन्दू धर्म का, सनातन धर्म का पिता बताते हुए, उसके दर्शन की विस्तृत व्याख्या करते हैं। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि यज्ञ में देवावाहन का क्रम होता है जिसकाउद्देश्य उन देवशक्तियों को आमंत्रण देना है, जो लेना कम और देना अधिक जानते हों। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि यदि यज्ञ की सच्ची शिक्षाओं को अंगीकार किया जाए तो हमें अपने माता-पिता के रूप में प्यार देने वाले, अपनी पत्नी के रूप में अपना सर्वस्व देने वाली वअपने बच्चों के निष्कलुष रूप में भगवान-अपने ही घर में देखने को मिल सकते हैं। यज्ञ की सच्ची विचारधारा यही है कि हम मंत्रों के उच्चारण के साथ-साथ उसमें निहित त्याग, बलिदान व सेवा की वृत्ति को भी अपनायें। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणीको........
जीवन है यज्ञ
मित्रो! यह जिंदगी क्या है? यह जिंदगी एक यज्ञ है। छोटे से छोटे एवं बड़े से बड़े यज्ञों, हवनों में हम यज्ञ की परिक्रमा लगाते हैं। यज्ञ के बिना हम लोगों का विवाह नहीं हो सकता। कोई कहते हैं कि हवन में स्त्रियों को नहीं बैठना चाहिए। तो फिर ऐसा करना चाहिए कि मर्दोंको परिक्रमा कर लेनी चाहिए और स्त्रियों को अलग बैठा देना चाहिए। तुमको यज्ञ का अधिकार नहीं है, अतः तुम अलग बैठो और मर्द परिक्रमा कर लेगा, यज्ञ कर लेगा।
आपने भी ऐसी मनोवृत्ति देखी होगी? हाँ साहब! देखी है। इन पंडितों को मैं क्या कहूँ। इनके लिए कौन सा शब्द ढूँढ़कर लाऊँ। ऐसा शब्द कहीं मिलता नहीं। अगर कहीं से ऐसा शब्द मिल जाता तो पंडित जी के सामने एक और शब्द लगा देता। कैसी-कैसी बेअकली की बातकरते हैं। स्त्रियों को अधिकार क्यों नहीं है? हमारा पिता अंधा हो गया था। बेटे, हिन्दू का शरीर यज्ञ भगवान की गोदी में सौंपा जाता है। उसे और कोई नहीं लेगा। उसे छूना मत। हिन्दू यज्ञ में से पैदा हुआ और जायेगा कहाँ? यह अपने पिता यज्ञ पिता की गोद में समाजायेगा।
मित्रो! यज्ञ में आहुतियाँ दी जाती हैं। अंतिम संस्कार के समय तक हिन्दू की लाश चिता पर रखी जाती थी, तब संस्कार होता था। अब तो हमने सबकी मिट्टी पलीद कर दी है। हवन में तब मृत शरीर रखा जाता था और हम आहुतियाँ देते थे। क्या कहते थे? ‘‘आयुर्यज्ञेनकल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, बाहुर्यज्ञेन कल्पताम्।’’ हमारी भुजाओं ने जीवन भर यज्ञ के लिए शुभ कर्म किये। अब अंत में हमारी भुजाएँ यज्ञ भगवान आपके लिए समर्पित हैं। इन आँखों से जीवन भर शुभ कर्म किये, अब हमारी आँखें हमारे पिता की आँखों में हवनहुईं। हमारे शरीर का रोम-रोम हे यज्ञ पिता। आपकी गोद में हवन किया जाता है।
हिन्दू धर्म का पिता है यज्ञ
यज्ञ हमारा पिता है, जिसको हमने भुला दिया और वह अंधा हो गया। जिसके बारे में हमें कहना पड़ता है और यह जवाब देना पड़ता है कि यज्ञ से क्या फायदा है? सीधे कहिए न कि हिन्दू धर्म से क्या फायदा है? हिन्दू धर्म में बहुत दिक्कतें हैं। इसमें विवाह-शादी, कन्यादान, लगन, जन्मपत्री, पंडित-पुरोहित की जरूरत पड़ती है। सीधे गिरजाघर में जाओ माला पहनाओ और हाथ में हाथ मिलाओ, बस हो गयी शादी। पन्द्रह दिन बाद जाओ और कह दो कि यह आदमी खराब है, छोड़ो, भाग जाओ या कह दो कि चल निकल घर से।मंदिर में शादी किया, तो बेवकूफ है और गिरजाघर में किया, तो होशियार है।
मित्रो! यह कैसी बेअकली है? पन्द्रह दिन पहले कैसी अच्छी बात कह रहा था, मिठाई खिलाता था, सिनेमा दिखाता था। अब कहता है कि खाना पकाओ। ऐसा व्यवहार क्यों करता है? कैसे निभेंगे सम्बन्ध? निकाल दो बाहर। हिन्दू धर्म बेकार है। ईसाई धर्म अच्छा है।इसमें कोई खर्च नहीं, कोई बात नहीं कोई पैसा खराब नहीं। हाथ में हाथ मिलाकर गिरजाघर में गये और पादरी से कहा कि हमारी शादी करा दीजिए। दो मिनट में अपनी बात कही, पानी पिलाया, माला पहनाई और बस हो गयी शादी। हमारे हिन्दू धर्म में इसके लिए पैसा, समय, शक्ति, खर्च करनी पड़ती है। कार्यक्रम बनाना पड़ता है। यह हमारी प्रतीक पूजा है। कौन सी? गायत्री और यज्ञ। यज्ञ हमारी प्रतीक पूजा है, जिसके अंदर प्रेरणा और शिक्षण भरा पड़ा है। काश! हम सभी सीख पायें और बोल पायें, तो मजा आ जाय। यज्ञमय जीवनजीना हमारे लिए संभव हो सका होता, तो हमारे जीवन में मजा आ जाता।
मित्रो! मैं परलोक की बात नहीं कह रहा हूँ, वरन् उच्च कोटि की विचारधारा की बात कह रहा हूँ। उच्चकोटि के दृष्टिकोण की बात कह रहा हूँ। उच्च विचारधारा वाले युग की बात को जाने दीजिए। अगर आप लोगों ने गृहस्थ जीवन में यज्ञ के प्रशिक्षण का, प्रेरणाओं का प्रयोगकिया होता, तो मजा आ जाता। हमारे छोटे-छोटे घरौंदे और घर में स्वर्ग का अवतरण हो जाता।
त्याग की प्रतिमा है—माँ का प्यार, पत्नी का समर्पण
अगर आपने अपनी बीबी को इस आँख से देखा होता कि प्यार की देवी, त्याग की देवी, बलिदान की देवी सब कुछ छोड़कर, अपने माता-पिता को छोड़कर हमारे पास चली आयी। बाप का मोह छोड़ दिया, भाई-बहनों का मोह छोड़ दिया। पूरे दिन नौकरानी के तरीके से नदिन का ख्याल किया, न रात का, न नौकरी की माँग की, न बोनस की माँग की, न पैसे की माँग की ।। कुछ नहीं माँगा। चौबीसों घंटे दिन-रात काम करती है। अंगुलि के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती रहती है। प्यार और अभिमान कहीं दिखता हो तो दो जगह देखाजा सकता है। या तो वह माँ की छाती में दूध की तरह बहता हुआ या दूसरा प्यार पत्नी के रूप में, जिसने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। पराये आदमी के ऊपर विश्वास कर लिया और पूरा हक दिया, यह सोचकर कि अगर धोखा देगा, तो देखा जायेगा। वह प्यार कीदेवी है, त्याग की देवी है, बलिदान की देवी है। वह घर की सरस्वती है, लक्ष्मी है। वह दुर्गा है। अगर इस दृष्टि से हमने अपनी धर्मपत्नी को कभी देखा होता। कभी हमने अपनी पत्नी को प्यार भरी दृष्टि से देखा होता, गरीबी में मक्का की रोटी और छाछ पीकर के अगरआप दोनों की आत्मा में प्यार की भावना बढ़ रही होती, तो गंगा और यमुना घर में प्रवाहित हो रही होतीं और आपने देखा होता कि स्वर्ग किसे कहते हैं?
दृष्टिकोण में है स्वर्ग
मित्रो! स्वर्ग कहीं होता होगा, मैंने देखा नहीं है। अगर स्वर्ग कहीं हो भी तो मुझे नामंजूर है। स्वर्ग को जाने के लिए जरूरी क्या है? एक बार ऐसा हुआ कि हजरत इब्राहिम जन्नत में गये, तो फरिश्तों ने कहा-आइये आपको जन्नत दिखाऊँ। फरिश्ता उन्हें जन्नत दिखाताफिरा। महल, फकीरों के लिए, इनके लिए, उनके लिए, सब दिखा दिया। एक शहर खाली पड़ा हुआ था, एक पूरी लाइन खाली पड़ी हुई थी। यह किनके लिए है? उन्होंने कहा-यह उन लोगों के लिए है, जिन्होंने सेवाएँ की हैं। उन्होंने कहा कि सेवा करने वाले लोग यहाँ कम हीआते हैं। सेवा करने वाले यहाँ इसलिए नहीं आते, क्योंकि यहाँ स्वर्ग में जो आनन्द है, उससे हजार गुना आनन्द हमको जमीन पर दीन-दुखियों की सेवा करने में मिलता है।
उच्च श्रेणी का दृष्टिकोण हो तो उन लोगों की तरीके से हो, जिन्होंने सेवा के लिए अपना बलिदान कर दिया। अगर हम भी इसी तरह के सेवाव्रती होते तो स्वर्ग को इस जमीन के ऊपर ले आते, फिर स्वर्ग में जाने के उपाय हमको न करने पड़ते। स्वर्ग हमारे घरों में होता।जिन स्त्रियों की आँखों में मर्दों के प्रति वफादारी में आँसू बहते रहते हैं और मर्द जब घर में आता है तो देखता है कि सारे दिन किस तरीके से खाना पकाने से लेकर चार-चार लोगों की सेवा में वह तत्पर है, तो उसकी आँखों में से आँसू बाहर आते हैं। यह क्या है? कैसी सेवाहै? क्या करूँ इसके लिए, क्या कर डालूँ इसके लिए? अगर उच्च कोटि के ज्ञान, विचारधारा हमारे घर में रही होती, तो स्वर्ग हमारे पास आता और हमको स्वर्ग के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती।
मित्रो! स्वर्ग की कामना हमको क्यों करनी पड़ती है? स्वर्ग की कामना करने की हमको जरूरत नहीं है। भगवा बुद्ध से एक बार लोगों ने पूछा-भगवान! क्या आप स्वर्ग में जायेंगे? उन्होंने कहा-नहीं, मैं स्वर्ग में नहीं जाऊँगा। क्यों? मैं बार-बार जन्म लूँगा और बार-बारमेरी मृत्यु होगी। क्यों? इसलिए कि दुनिया में एक भी आदमी जब तक बंधन में बँधा हुआ है, तब तक मैं स्वर्ग में जाकर के क्या करूँगा। मैं अंतिम आदमी होऊँगा, जब दुनिया के सब आदमी स्वर्ग चले जायेंगे, तब सबसे पीछे मैं स्वर्ग जाऊँगा।
सेवा की भावना में है स्वर्ग
जिन लोगों की इस तरह की उच्चकोटि की विचारधारा हो, क्या वे स्वर्ग में नहीं रहते? स्वर्ग बनाये जाते हैं? बने बनाये कहीं नहीं हैं। बना बनाया स्वर्ग है कि नहीं, मुझे नहीं मालूम। कहीं है क्या? लोग रॉकेट से चाँद के ऊपर चले गये हैं। चन्द्रमा को देवता कहा जाता था।लोग वहाँ पहुँचे तो, वह मिट्टी का ढेर निकला। चारों तरफ हताशा फैल गयी। क्या करेगा चन्द्रमा देवता पर जाकर? दूसरे देवताओं की तलाश कर ली गयी। शुक्र देवता की तलाश कर ली गयी। मंगल की तलाश कर ली गयी। अब और आगे रॉकेट चल रहे हैं, लेकिन अभीतक स्वर्ग का कहीं पता नहीं चल सका है। मेरा ख्याल है कि यह मुश्किल है और शायद उसके बारे में पता लगेगा भी नहीं। वह हमारे और आपके ख्याल से कहीं अधिक ऊँचाई पर है, जिसमें जाने के लिए आप बहुत लालायित रहते हैं।
स्वर्ग है? हाँ है। तो कहाँ है स्वर्ग? स्वर्ग वहाँ है जहाँ सेवा की भावना मनुष्यों के भीतर रहती है। गायत्री माँ और यज्ञ भगवान हमको स्वर्ग देते हैं और स्वर्ग ही देंगे। कौन सा स्वर्ग देंगे? उच्चकोटि की विचारधारा और उच्चकोटि का दृष्टिकोण देंगे। गायत्री और यज्ञ कीफिलॉसफी अगर हमने समझी होती, तो स्वर्ग हमारे घर में आता। एक ऋषि ने कहा-
‘‘न त्वहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनभर्वम्।
कामये दुखःतप्तानां प्राणिनां आर्त्तनाशनम्।’’
हम क्या करेंगे राज्य का। न सौख्यं—न सुख का, न पुनर्भवम्—मुक्ति का, क्या करेंगे, मक्खी मारेंगे। घर में अकेले बैठा रहता है, मक्खी मारेगा। कहीं जा, कुछ कर, जिससे कुछ लाभ हो, घर में बैठा क्या करेगा? फिर क्या चाहता है? ‘‘कामये दुःखतप्तानाम् प्राणिनांआर्त्तनाशनम्’’-संसार में जितने भी दुःखी प्राणी हैं, पिछड़े हुए लोग हैं, उन्हें ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने के लिए, सेवा करने की जो वृत्ति है, वह स्वर्ग नहीं है क्या? हाँ, वह स्वर्ग है। अगर हमारी यह भावना रही होती, यह मनोवृत्ति रही होती, तो हमको स्वर्ग मिल गया होताऔर मुक्ति मिल गयी होती और भगवान मिल गया होता।
मित्रो! भगवान कैसे मिल गया होता? ईसामसीह से एक आदमी ने पूछा—‘‘आपने भगवान को देखा है?’’ उन्होंने कहा—हाँ, हमने देखा है। आप हमको दिखा सकते हैं? उन्होंने कहा—हाँ, हम आपको दिखा सकते हैं। तो दिखा दीजिए? उन्होंने कहा—बैठ जा, अभीदिखाते हैं। इतनी जल्दी दिखा देंगे? उन्होंने कहा—हाँ। आँखों से दिखा देंगे, तो दिखाइये ना? बस ईसामसीह बैठ गये। उस आदमी को भी बिठा दिया। चुपचाप गये, पास ही एक छोटा-सा बच्चा खेल रहा था, उसको उठा लाये और उसे गोदी में उठाकर उन्होंने कहा-यहभगवान है। यह भगवान कैसे होगा? जिसके अंदर द्वेष नहीं है, घृणा नहीं है, चिन्ताएँ नहीं हैं। काम नहीं है, क्रोध नहीं है, लोभ नहीं है, मद-मत्सर नहीं है। भले से ज्ञान नहीं है, भले से विद्वान नहीं है, भले से पढ़ा-लिखा नहीं है। भले से पूजा न करता हो, लेकिन जिसआदमी का मन शुद्ध और पवित्र है, वही भगवान है।
घर-घर में हैं भगवान
मित्रो! हमारे घरों में भगवान आते थे। चार-चार बच्चे आते थे, लेकिन हमको फुर्सत कहाँ मिलती थी। छोटा बच्चा इंतजार में बैठा रहा कि मम्मी पिता जी कब आयेंगे, डैडी कब आयेंगे? अभी आते होंगे। थोड़ी देर में थककर आयेंगे, फिर फ्रेश होंगे, फिर सिनेमा देखनेजायेंगे। बच्चा शाम को सो गया। सुबह पूछता है कि मम्मी। रात को डैडी नहीं आये थे? हाँ बेटे आये थे और सबेरे ऑफिस चले गये। समय सबके पास रहता है। गप्पें हाँकने के लिए समय है, सिनेमा देखने के लिए समय है, लेकिन बच्चों के लिए फुर्सत नहीं है। बच्चेहमारा रास्ता देखते रहे।
बाल-गोविन्द भगवान हमारा इंतजार करते रहे कि पिताजी आयेंगे और हमको गोद में खिलायेंगे। आपने बच्चे को खिलाया, बच्चे को प्यार दिया है? प्यार दिये बिना ही आपके बच्चे बड़े हो गये। वे आपको गाली देते हैं और पैसे चुरा लेते हैं। अब आप क्या करेंगे? बच्चोंकी खुराक अनाज नहीं है। इंसान की खुराक अनाज नहीं है। इंसान की खुराक मोहब्बत है, प्यार है। आपने प्यार से सींच करके अपनी बीबी को पाला-पोसा होता, तो वह कल्पवृक्ष के तरीके से होती और आप उसकी छाया में बैठ करके स्वर्ग का आनन्द ले रहे होते। अगरआपने अपने बच्चों को प्यार दिया होता, तो वे बच्चे भगवान के तरीके से आपके ऊपर आनन्द की वर्षा कर रहे होते।
मित्रो! समाज सेवा की बात मैं कैसे कहूँ, जब आप अपने शरीर की सेवा ही नहीं कर सके और उसका नुकसान कर डाला, एक्सीडेंट कर डाला, तोड़-फोड़ डाला। दुनिया में आपने किसी जानवर को बीमार होते देखा है? गाय जंगल में रहती है, पर क्या वह बीमार रहती है? जंगली जानवर—हिरन, खरगोश, हाथी, चीते, गैण्डे कोई बीमार रहता है क्या? क्या कभी आपने किसी हिरन को जुकाम होते देखा है? किसी खरगोश को खाँसी होते-खाँसते देखा है क्या? कोई भी बीमार नहीं होता। दुनिया में एक ही बेवकूफ जानवर है, जो बार-बार बीमारहोता है और उस बेवकूफ जानवर का नाम इंसान है।
हकीम लुकमान ने कहा—‘‘आदमी अपने मरने के लिए कब्र इस जीभ के किनारे से खोदते रहते हैं।’’ हमको जो चीजें नहीं खानी चाहिए, हम वही खाते हैं। जो बात श्रवण नहीं करनी चाहिए, हम उसी का श्रवण करते रहते हैं। शराब कोई पीने की चीज है? मैं पूछता हूँ कितम्बाकू कोई खाने-पीने की चीज है। पीजिए मत, तम्बाकू को घोलकर पी जाइये। हजम कर लीजिए न? नहीं साहब! उसे पीने से उल्टी हो जायेगी, मुँह और नाक में से निकल जायेगी। तो पीने की चीज हुई क्या? नहीं साहब! सिगरेट तो पीनी ही पड़ेगी। ऐसा आदमीबेवकूफ जानवर है, जो पैसे भी खराब करता है और सेहत भी खराब करता है।
मित्रो! यह वह बेवकूफ जानवर है, जो अपनी बीबी को, जो भगवान के बेटी की तरीके से अपने प्यार का अमृत पिलाने के लिए हमारे पास हमारे पास आयी थी और जिसे हमने जरा-जरा सी बात पर फटकारा कि तुमको तो सब्जी में नमक डालना नहीं आता। तुमको कपड़ासाफ करना नहीं आता। गाना तुमको नहीं आता। तुम तो बेवकूफ हो। तुम्हारी माँ ने क्या सिखाया है? तुम तो ऐसी हो, वैसी हो—आदि-आदि। सारे दिन क्लेश से समूचे घर को नरक बना डाला। ऐसा बेवकूफ इंसान है। इसको अकलमन्दी सिखाने की कभी जो फिलॉसफीहमारे यहाँ थी, हमारे घरों में थी, जहाँ हमारे घरों में स्वर्ग न्यौछावर होते रहते थे, वह था गायत्री माता का मंत्र और यज्ञ, जिसका कि आज मनु समाज वाले कंधे पर श्रवण कुमार की तरह से कॉवड़ उठाकर चले हैं। यज्ञ पिता की कॉवड़ उठाने के लिए आप चले हैं। यज्ञ कीपूजा और हवन करने चले हैं।
क्या है यज्ञ की विचारधारा?
मित्रो! यज्ञ के द्वारा हम यह साबित करते हैं और बताते हैं कि हम लोग स्वार्थी नहीं हैं। आपको इस हवन से क्या फायदा हुआ? ड्रामा था, तमाशा था, नाटक था। नहीं कुछ भी नहीं था। आप धुएँ में बैठे रहे, अग्नि के सामने, अपने पैसे जलाते रहे, ताकि दुनिया काकल्याण हो। दुनिया का वायुमण्डल अच्छा हो। दुनिया में अच्छी विचारधारा पैदा हो। यह यज्ञ की मनोवृत्ति है। गायत्री की मनोवृत्ति है। यह मनोवृत्ति हमारी महान सांस्कृतिक परंपरा है। देवता इसी आधार पर प्रसन्न हुआ करते हैं। आप देवताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो पूजा के साथ-साथ सेवा को जोड़कर चलना पड़ेगा।
पूजा और सेवा दो पहलू हैं। पूजा अकेली काफी नहीं है। पूजा के साथ में सेवा जुड़ी रहनी चाहिए। सेवा के दो अर्थ होते हैं—एक तो यह कि हम अच्छा जीवन जियें। अच्छा जीवन जीने वाला आदमी दुनिया की सेवा करता है। अपना नमूना और अपना आदर्श पेश करने वालेमनुष्य दुनिया में रोशनी पैदा करते हैं और एक फिजा पैदा करते हैं। सेवा का अर्थ यह भी होता है कि दूसरों के दुःखों में सहायता करें। दूसरों को आगे बढ़ाने में हम सहायता करें। मीठे वचन बोलें। हिम्मत बढ़ाने वाले वचन बोलें। उत्साह की वृद्धि करने वाले वचन बोलें।
मित्रो! हमारी जीभ साँप के तरीके से दूसरों को काटती रहती है। दूसरों को निरुत्साहित करती रहती है। हमारे लिए यह आवश्यक है कि जो कोई भी हमसे मिले, उनकी हमको प्रशंसा करनी चाहिए। उनके गुणों का वर्णन करना चाहिए। उनके उत्साह को बढ़ाना चाहिए। अगरहम इतना भी काम कर सकते हों, तो हम देवता कहलाने के अधिकारी हैं। यदि हमने दूसरे लोगों को सही रास्ता बताया, नेकी की राह बतायी, अच्छी सलाह दी, उनकी प्रशंसा की, उनकी हिम्मत को गिरने नहीं दिया, हिम्मत को बढ़ाया, तो यह छोटी-सी सेवा भी हम औरआप कर सकते हैं। ऐसी असंख्य सेवाएँ हैं, जो हमारे हिन्दू धर्म के साथ में जुड़ी हुई हैं।
सेवा की वृत्ति में है यज्ञ का दर्शन
मित्रो! आपने यज्ञीय धर्म की शिखाएँ, प्रेरणाएँ और यज्ञ की फिलॉसफी को जाना-समझा और आज के यज्ञ में आपने देवताओं का आह्वान किया। देवता यह परखने के लिए आये कि आपके अंदर पूजा और सेवा की वृत्ति थी कि नहीं। अगर वे यह पायेंगे कि आप लोगों केअंदर सेवा की वृत्ति थी, तो वे आपको जरूर आशीर्वाद दे करके जायेंगे। अगर उनको यह मालूम पड़ा कि आपके अंदर सेवा की वृत्ति नहीं थी, तो वे ऐसे ही खाली हाथ चले जायेंगे और यह कहेंगे कि हम चावल खाने के लिए हजारों मील का सफर करके यहाँ नहीं आये थे। हमफूल सूँघने के लिए हजारों मील का सफर करके नहीं आये थे। हमको एक चम्मच घी की जरूरत नहीं थी, हम घी का चम्मच नहीं, हम तो आप लोगों की भावना को परखने के लिए आये थे। अब आपकी भावनाओं की परख कल पूर्णाहुति के समय भी होगी। आप लोगों नेजिस तरीके से घी का हवन किया, आहुति दीं, तिल हवन किये, चावल, मीठा हवन किया, ठीक उसी तरीके से अपनी बुराइयों को भी हवन करने के लिए तैयार होना चाहिए, ताकि सच्चे मायने में आपको देवता सच्चे धर्म का, हिन्दू धर्म का उपासक मानें।
मित्रो! आप लोगों में से किसके अंदर न जाने क्या-क्या बीमारियाँ हैं। शरीर की दृष्टि से हो सकता है कि आप में से कोई माँस खाने वाले रहे हों। यह हिन्दू परंपराएँ नहीं हैं। हम दूसरों को पीड़ा दे करके, दूसरों को कष्ट देकर के अपना माँस बढ़ायें, पर हमारा धर्म यह नहीं है।हमारा माँस कम होता हो तो हो जाये, लेकिन दूसरों को सुखी होना चाहिए। आप लोगों में से किसी के अंदर ऐसी बुराई हो गयी हो, तो हवन करने वाले लोगों, देवताओं को बुलाने वाले लोगों, देवताओं का प्यार पाने वाले लोगों, देवताओं के आशीर्वाद प्राप्त करने की इच्छारखने वाले लोगों अपने आपको तैयार रखना। कल पूर्णाहुति के वक्त आप लोग अपने आपको तैयार रखना। अगर आप लोगों के अंदर इस तरह की बुराइयाँ हों, जो मैं इजहार कर रहा हूँ। माँस खाने के आदी लोगों, आप लोग माँस खाना छोड़ देना, ताकि देवता सच्चे अर्थोंमें आपको देवता मान सकें। केवल आहुतियाँ करने वाला नहीं। आप लोगों में से कोई शराब पीने वाला भी हो सकता है, नशा करने वाला भी हो सकता है।
मेरी प्रार्थना है कि आप अपने शरीर को जलाइए मत, स्त्रियों के भविष्य को जलाइए मत, बच्चों के भविष्य को जलाइए मत और इन शैतानों को आप त्याग दीजिए। हवन में आपने लकड़ी जलाई, घी जलाया। क्या आप ऐसी बुराइयों का त्याग नहीं करेंगे। आप में से कोईव्यक्ति व्यभिचारी रहा हो, क्रोधी रहा हो, जुआरी रहा हो, झूठ और फरेब का धंधा करने वाला रहा हो, बुरी जबान बोलने वाला रहा हो, गाली-गलौज करने वाला रहा हो। मनुष्य में हजारों बुराइयाँ हैं और उन हजारों बुराइयों को भी हवन में आहुति देना पड़ेगा, अगर आपदेवताओं का सच्चा प्यार पाने के इच्छुक हों, तब।
मित्रो! मैं आपको यज्ञ की साइंस को बता रहा था और यज्ञ के ज्ञान को, यज्ञ की शिक्षाओं को भी बता रहा था। यज्ञ की शिक्षा यह है कि हर मनुष्य को मनुष्य के तरीके से जीना चाहिए, जानवर के तरीके से नहीं जीना चाहिए। पेट के लिए तो जानवर जिया करते हैं। मनुष्यपेट के लिए नहीं जीता। वह ईमान के लिए जीता है। उसका लक्ष्य रोटी कमाना नहीं होता, वरन् उसका लक्ष्य ईमान होता है। उसका लक्ष्य आदर्श होता है। उसका लक्ष्य सिद्धांत होता है। उसका लक्ष्य देश और धर्म होता है। उसका लक्ष्य संस्कृति होता है। उसका लक्ष्यपरलोक और भगवान होता है। इन सारे के सारे लक्ष्यों की ओर आप कदम बढ़ायें। हवन में आहुतियाँ देते हुए, गायत्री मंत्र का जप करते हुए भावनापूर्वक यज्ञ सम्पन्न करें, तो आपके हवन का और आपके गायत्री के जप का मजा आ जाय। हमारा कर्मकाण्ड केवल क्रिया-काण्ड हो करके ही न रह जाय, अन्यथा बात अधूरी रह जायेगी। आहुतियाँ देकर के हम चुप नहीं हो जायँ, वरन् आहुतियाँ और गायत्री मंत्र, अग्निहोत्र—इनके पीछे जो प्रकाश, प्रेरणाएँ और शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं, उनको भी हम अपने जीवन में धारण करें और आगे बढ़ायें, तोमजा आ जाय। और तब? सच्चे अर्थों में हमारा यज्ञ सार्थक हो जाय। हमारी आशा है कि आप हवन करते हुए और हवन करने के बाद में इसी तरह कदम बढ़ाएँगे।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥