उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
November 2003
गायत्री महामंत्र हमारे साथ-साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो। लोहे को गलाए बिना हम उससे कीमती हथियार नहीं बना सकते, पुरजे नहीं बना सकते। आप इससे क्या बनाएँगे? साहब! हमारा मन पुरजे बनाने का है, तलवार बनाने का है, तरह-तरह के औजार बनाने का है। लोहे से कैसे बनाएँगे? पहले इसको गलाएँगे, तपाएँगे? जब तक इसे गलाएँगे-तपाएँगे नहीं, तब तक कोई हथियार नहीं बन सकता। सोना हमारे पास है और उससे हमें कई तरीके के जेवर बनाने हैं। क्या-क्या जेवर बनाने हैं? बहुत बढ़िया वाले जेवर बनाने हैं। तो सोने से यों ही बनाइए न? नहीं साहब! जब तक तपाएँगे नहीं, गलाएँगे नहीं, तब तक सोने से कोई जेवर नहीं बन सकता।
गलाई और ढलाई
मित्रो! ठीक इसी तरह इन्सान को गलाए बिना, तपाए बिना कोई कीमती नसल नहीं बन सकती। बहादुर महापुरुषों के इतिहास जब हम पढ़ने लगते हैं तो हमको यह बात पता चलती है कि इनमें से हर व्यक्ति को तपना पड़ा है, गलना पड़ा है और ढलना पड़ा है। गरम होना पड़ा है। आप क्या चाहते हैं? साहब, हम तो चैन की जिन्दगी जीना चाहते हैं और खुशहाली की जिन्दगी जीना चाहते हैं, मौज करना चाहते हैं, मजे उड़ाना चाहते हैं। और क्या करना चाहते हैं आप? और हम आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलना चाहते हैं। खबरदार! बकवास बंद कीजिए। किस बात की? इस बात की कि आप आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलना चाहते हैं, भगवान के रास्ते पर चलना चाहते है। अपने शरीर में से शक्तियाँ उभारना चाहते हैं। सिद्धियाँ उभारना चाहते हैं। देवता को इस शरीर में अवतरित करना चाहते हैं। इस घिनौने जीवन में जिसमें कि विलासिता कूट-कूटकर भरी हुई है, ऐय्याशी कूट-कूटकर भरी हुई है, खुदगरजी कूट-कूटकर भरी हुई है। इस शरीर में महानता किस तरह से पैदा कर पाएगा?
नहीं साहब! हम महानता पैदा कर सकते हैं। ग्यारह माला जप करेंगे। बंद कीजिए आप ग्यारह माला। नहीं साहब! ग्यारह माला जप करेंगे, हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे, देवी का पाठ करेंगे। आपकी मरजी है, चाहे जो करें या ना करें, लेकिन महानता का उद्देश्य, आध्यात्मिकता का एक मात्र उद्देश्य है कि आपको अपने आप को तपाना पड़ेगा, अपने बहिरंग जीवन को गरम करना पड़ेगा। तपाने और गरम करने की प्रक्रिया को मैं समझाता हुआ चला आ रहा हूँ आपको और यह बताता आ रहा हूँ कि आदमी को अपना उद्धार करने के लिए और दूसरों का उद्धार करने के लिए तपस्वी का जीवन जीने के अतिरिक्त कोई और कोई रास्ता नहीं है। आध्यात्मिकता के लिए भी इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। विलासिता का जीवन जीएँगे, अय्याशी का जीवन जीयेंगे और आध्यात्मिकता के लाभों को प्राप्त करेंगे—बेटे, ये बेकार के सपने देखना बंद कर। दोनों काम साथ-साथ नहीं हो सकते—”दुइ कि एकसंग नहिं होहि भुआलू। हसब ठठाइ फुलाउब गालू॥” आप दोनों काम एक साथ किस तरह से करेंगे। जोर से हँसेंगे तो आप गाल नहीं फुला सकते और अगर गाल फुलाएँगे तो हँसने का उद्देश्य पूरा नहीं कर पाएँगे। हँसना और गाल फुलाना, दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते।
मित्रो! स्वार्थी और घिनौना जीवन, विलासी और निकम्मा जीवन जीते हुए आप आध्यात्मिकता की दिशा में नहीं बढ़ सकते। दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं। हम पूरब को भी चलेंगे और पश्चिम को भी चलेंगे। पूरब और पश्चिम, दोनों दिशाओं की ओर आप एक साथ नहीं चल सकते हैं। अगर आप पूरब की ओर चलेंगे तो पश्चिम की ओर नहीं जा सकते और पश्चिम को चलेंगे तो पूरब को नहीं जा सकते। इसी तरह तृष्णाओं का, वासनाओं का जीवन जिएँगे तो आप आध्यात्मिक प्रगति की ओर नहीं बढ़ सकते। आध्यात्मिक प्रगति की ओर बढ़ेंगे तो आपको वासनाओं-तृष्णाओं से भरे जीवन पर अंकुश लगाना पड़ेगा। आप इन दोनों के फायदे उठाना चाहते हैं तो यह नहीं हो सकता। एक को मंजूर कर लीजिए और एक को मना कर दीजिए। ”हमको यह करना है कि नहीं करना है।” ”इधर चलना है कि नहीं चलना है।”—आप यह फैसला कर लें तो नफे में रहेंगे। दोनों तरफ चलेंगे तब? तब हम क्या कह सकते हैं।
दोहरा व्यक्तित्व न हो
बेटे, इस सम्बन्ध में हम कछुए का एक छोटा सा किस्सा सुनाते हैं। दोनों तरफ से चलने वाले एक साँप का और एक कछुए का किस्सा अखण्ड ज्योति में छपा है। एक साँप के दो मुँह थे, एक आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ। यह जापान का किस्सा है। उसका मालिक जब उसे दूध पिलाता था तो दोनों के बीच में रस्सी लगा देता था, ताकि दोनों साँप आपस में लड़ने न पाएँ। ये क्या करते थे? दोनों एक दूसरे को काटने की कोशिश करते थे और दूध छीनने को प्रयत्न करते थे। कछुआ भी ऐसे ही था। उसका एक मुँह पीछे की तरफ था और एक आगे की तरफ। पीछे वाला कछुआ यह कोशिश करता था कि आगे की ओर चलना चाहिए। इस तरह सारा दिन खींच-तान करता रहता था। आधा इंच इधर चला, आधा इंच उधर चला सारे दिन ऐसे ही चलता रहता था।
मित्रो! आपके भीतर भी अगर दो व्यक्तित्व बने रहेंगे तो आप एक में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकेंगे। अगर आप दुनिया में ऐय्याशी का, विलासिता का, तृष्णा का जीवन भी जीना चाहेंगे और आध्यात्मिकता की चालें भी चलना चाहेंगे तो आपकी हैसियत उस कछुए जैसी हो जायेगी, जैसे मैं अभी कह रहा था। एक फैसला कर लीजिए कि आपको कहाँ चलना है? एक रास्ता बंद कर दीजिए। अगर आपको आध्यात्मिकता की राह पर चलना है तो आप अपने भौतिक जीवन को तपस्वी बनाने के लिए कष्ट कीजिए।
तपस्वी जीवन बनाइए
भगवान बुद्ध अन्तिम भगवान हैं, जो हमारे सबसे नजदीक आते हैं। भगवान के दस अवतार हुए हैं या बीस, इस बहस में मैं नहीं पड़ता। दस अवतारों का भी जिक्र आता है और चौबीस अवतारों का भी जिक्र आता है। दोनों ही अवतारों में अन्तिम हमारे बुद्ध हुए। भगवान बुद्ध ने जनसाधारण का जैसा बढ़िया मार्गदर्शन किया है, मैं नहीं जानता कि इससे भी अच्छा कोई मार्गदर्शन किया गया हो।
कलाओं के इतिहास में भगवान की कलाओं का जैसे-जैसे विकास हुआ है, उस क्रम में सबसे ज्यादा कलाएँ भगवान बुद्ध में है। परशुराम जी में तीन कलाएँ थी। रामचन्द्र जी की बारह कलाएँ मानी गयी हैं। बुद्ध की कितनी कलाएँ मानेंगे, मुझे मालूम नहीं, लेकिन कलाओं के क्रम में यह इतिहास बढ़ता हुआ चला गया। मत्स्य, कच्छप से लेकर वामन, वाराह तक कलाओं का यह क्रम पुराण ग्रंथों में भरा हुआ पड़ा है। श्रीकृष्ण भगवान को हम सोलह कला का मानते हैं तो बुद्ध भगवान की भी इतनी तो होगी ही। बीस कलाएँ तो उनकी माननी पड़ेंगी। पुराणों में कही लिखा जरूर होगा, पर मेरी निगाह में नहीं आया। उनकी जरूर ज्यादा कलायें रही होंगी। उन्होंने यह बताया था कि अपने आप को सम्पन्न और दूसरे आदमियों को समुन्नत बनाने के लिए अगर आदमी को कुछ करना चाहिए । तो उसकी गतिविधियाँ क्या होनी चाहिए? इसके लिए भगवान बुद्ध के पास एक ही हथियार था—तपस्वियों का हथियार। तपस्वियों का हथियार प्राप्त करके बुद्ध स्वयं समर्थ बने थे।
मित्रो! मैं सोचता हूँ कि दुनिया में सबसे सम्पन्न आदमियों में भगवान बुद्ध का नाम होना चाहिए। इनसे ज्यादा और कोई मालदार है? नहीं, उनसे और अधिक कोई मालदार नहीं हो सकता। मालदारों में फोर्ड का नाम मैंने सुना है, निजाम हैदराबाद का सुना है और भी बेटा छप्पन आदमियों का नाम आते हैं, पर मैं जानता हूँ कि भगवान बुद्ध का नाम, केवल आज के जमाने में ही नहीं है। पहले भी उनसे अधिक मालदार कोई भी आदमी नहीं हो सकता। अंगकोरवाट कम्बोडिया का एक शहर था, जो अब मात्र खंडहर है। यह इतना बड़ा खंडहर है, इतना शानदार खंडहर है कि लोग अभी भी यह कहते हैं कि दुनिया के इतिहास में इतनी बड़ी इमारत किसी ने नहीं बनाई। पुरातत्त्ववेत्ता, जो खंडहरों का इतिहास जानते हैं वे भी मानते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा खंडहर कौन सा हो सकता है? दुनिया पैसे पर जाती है फिर भी लोग इस सबसे प्राचीन और सबसे बड़े खंडहर और इमारत को देखकर आते है। कम्बोडिया का अंगकोरवाट भगवान बुद्ध की सम्पन्नता का स्मरण दिलाता है। यह एक विशाल बुद्ध विहार था।
बेटे और क्या बताऊँ आपको, सारे संसार में चले जाइए, अरब देशों में मक्का-मदीना के पास जो पुराने बौद्ध विहार बने हुए हैं, उनका इतिहास हमने अपनी 'भारतीय संस्कृति के विश्व को अजस्र अनुदान' में लिखा हुआ है। मक्का-मदीने में जहाँ हजरत मोहम्मद साहब की मीनार बनाई गयी थी, वहाँ का बौद्ध विहार उससे भी ज्यादा ऊँचा था, ऊपर से दिखाई पड़ता था, अतः हुक्म दिया गया कि इसको तोड़ा जाए, गिराया जाए और यहाँ के विहार बंद किए जाएँ। सारे-के-सारे मुस्लिम देशों में और सारे-के-सारे अरब देशों में बुद्ध विहार फैले हुए पड़े थे।
बुद्ध का चमत्कार
मित्रो! बुद्ध विहार में कितनी सामर्थ्य थी—यह मैं इमारतों की बात कह रहा हूँ। तक्षशिला की बात कह रहा हूँ। नालंदा विश्वविद्यालय की बात कह रहा हूँ। हिन्दुस्तान में श्रावस्ती की कह रहा हूँ। अजंता और एलोरा के बुद्ध विहारों की बात कह रहा हूँ, रंगून के पगोड़ा की बात कह रहा हूँ, जो स्वर्णमंदिर के नाम से प्रचारित है। पगोड़ा में सात टन भारी सोने की बुद्ध की मूर्ति बनी हुई है। बेटे, मैं यह इमारतों की बात कहता हूँ। बुद्ध के ज्ञान की बात मैं नहीं कहता, बुद्ध-साहित्य की बात नहीं कहता, केवल इमारतों की बात करता हूँ। चाइना में जितने ज्यादा प्राचीनकाल के मन्दिर दिखाई पड़ते हैं, सब बुद्ध का इतिहास है। आप सारे चीन में घूम आइए, कितना बड़ा देश है-हिन्दुस्तान से कई गुना बड़ा है, लम्बाई-चौड़ाई में और जनसंख्या की दृष्टि से भी। मन्दिर हिन्दुस्तान में भी हैं और मन्दिर चीन में भी हैं। लेकिन चीन में किसके मन्दिर हैं? वे सब बुद्ध के मन्दिर हैं। बुद्ध की यह समर्थता बेटे, इमारतों के हिसाब से बता रहा हूँ और किसी हिसाब से नहीं बता रहा हूँ।
मित्रो! सम्पन्न बुद्ध ने क्या काम किया? मैं सोचता हूँ कि इतनी बड़ी क्रान्ति और किसी आदमी ने नहीं की। जिस समय में बुद्ध ने विचार-क्रान्ति की थी, उस समय और कोई नहीं कर सका। बुद्ध ने कहा, "बुद्धं शरणं गच्छामि"-बुद्ध की शरण जाओ। नाम तो उनका सिद्धार्थ था, पर लोगों ने उनका नाम बुद्ध दे दिया। बुद्ध माने बुद्धि के देवता, विचारों के देवता, क्रान्ति के देवता। उस जमाने में उन्होंने जो गदर किया था, क्रान्ति की थी, आपका यह मिशन उसी का अनुगमन करता है। 'धर्मचक्र प्रवर्तन' उनका उद्देश्य था। 'विचार क्रान्ति अभियान' हमारा उद्देश्य है। दोनों में पूर्ण संगति और तालमेल है। वह पूर्वार्द्ध था और ये उत्तरार्द्ध है। उन्होंने सारे एशिया में बहुत भारी परिवर्तन किया था और अब युग निर्माण योजना अंत में बहुत बढ़िया और शानदार क्रान्ति के लिए कटिबद्ध हुई है। धर्मचक्र प्रवर्तन और युग निर्माण क्रान्ति की संगति मिलाकर मैं एक लेखमाला बना रहा हूँ। अभी तीन-चार लेख लिख लिए हैं। चार-पाँच और लेख लिखने अभी बाकी हैं। इनको आप पढ़िए कि बुद्ध की क्रान्ति और आपकी आज की क्रान्ति में कितना साम्य है। दोनों ने किस तरीके से एक ही सिद्धान्त का अनुकरण किया है। दोनों की कार्यपद्धति में कैसी एकरूपता है।
क्रान्ति का मूल : तप
भगवान बुद्ध ने अपने समय में समय के प्रवाह को बदलने के लिए प्रयत्न किया था। यह प्रयत्न उन्होंने किसके माध्यम से किया था? प्रचारकों के द्वारा। उनके पास प्रचारकों की सेना रहती थी। तो क्या सेना पंडितों की थी या उपदेशकों की? नहीं भाई! तपस्वियों की थी। तपस्वियों की सामर्थ्य असीमित होती है। सामर्थ्य की दृष्टि से एक ही व्यक्ति सम्पन्न हो सकता है और उसका नाम है—तपस्वी। लेकिन संसार की दृष्टि में वही व्यक्ति बलवान हो सकता है, जिसके हाथ में या तो पैसा हो अथवा बन्दूक। चीनी नेता माओ कहते थे, "क्रान्ति या ताकत बन्दूक की नली में से निकलती है।" माओ की बात भी ठीक हो सकती है। क्या पता, ताकत बन्दूक की नली से निकलती होगी? लेकिन जिसको हम आध्यात्मिक ताकत कहते हैं, उस आध्यात्मिकता की शक्ति को यदि आप स्वीकार करते हों तो मैं यह कहता हूँ कि यह ताकत एक ही जगह से निकलती है और उसका नाम है—तपश्चर्या। तपश्चर्या के अलावा वह कहीं से नहीं निकलती है और न निकल सकती है।
गुरुजी और ये भजन-पूजन? बेटे ये तो उसके शृंगार हैं। जिस तरह बन्दूक की, तलवार की मूठ तरह-तरह की होती है, म्यान तरह-तरह के होते हैं। कोई मखमल के म्यान होते हैं, कोई मूठ किसी चीज की बनी होती है, कोई सोने की बनी होती है, किसी में हीरे के नग जुड़े हुए होते हैं। तरह-तरह के शृंगार होते हैं और उनके अनुसार तलवार की कीमत ज्यादा हो जाती है। हम जानते हैं कि किसी जमाने में बादशाह की तलवारें बहुत अच्छी और कीमती होती थीं। ये शृंगार के कारण थीं। इसी तरह मंत्र आपके शृंगार हैं, जप आपके शृंगार हैं, पूजा आपके शृंगार है, शक्ति के स्त्रोत नहीं हैं। अगर ये शक्ति के स्त्रोत रहे होते तो पंडितों के पास तो अब तक कब की ताकत आ गई होती। पंडित तो सारे देवी-देवताओं का पाठ करना जानते हैं। आप नहीं जानते, आपको देवी का, चंडी का पाठ करना नहीं आता, परन्तु पंडित जी को आता है। पंडित जी श्लोक बोलना ठीक से जानते हैं, आपको नहीं आता। अगर इसके साथ तप भी जुड़ा होता तो, अब तक पंडित अमीर हो गये होते, अगर इनके कर्मकाण्ड में ताकत रही होती।
तप से उत्पन्न होती है विद्या
मित्रो! कर्मकाण्डों में ताकत नहीं है। ताकत वहाँ होती है, जहाँ पर अपने आप को तपाने के बाद में आदमी शक्ति का उदय करते हैं। हमने आपको शृंगी ऋषि का किस्सा बताया था और कितनों का किस्सा बताया था। ऋषियों के पास किसकी महत्ता थी, क्या महत्ता थी-बताइए? विद्वान थे, किताब पढ़े थे? नहीं पढ़े थे वहाँ तक जहाँ तक हम लोग पढ़े हैं। क्या वे लोग इतने ही ज्ञानी थे, जितने कि हम लोग विद्वान हैं? आज के पी.एच.डी. के ज्ञान का मुकाबला प्राचीनकाल के विद्वान से कैसे किया जाए? बेटे, प्राचीनकाल में एक-एक ऋषि एक-एक विषय में पारंगत होता था। विश्वामित्र जी ने एक विषय में पारंगतता हासिल की थी और वह थी—गायत्री। गायत्री में पी.एच.डी. थे विश्वामित्र जी। आज हम सारे-के-सारे तीस हजार वेद के मंत्रों का व्याख्यान कर सकते हैं। इस जमाने में शिक्षा ज्यादा है। उस जमाने में शिक्षा की वजह से 'एग्जाम'-परीक्षा नहीं होती थी, वरन् तपश्चर्या की वजह से 'एग्जामिनेशन' होते थे। ऋषियों की महत्ता, ऋषियों की गरिमा, ऋषियों का गौरव इस बात पर टिका हुआ था कि उन्होंने अपने जीवन में तपश्चर्या को किस मात्रा में ग्रहण किया था।
साथियो! मैं आपसे यह निवेदन कर रहा था कि आपके जीवन में तपश्चर्या के लिए स्थान मिले। अगर आप स्वीकार करें कि हम तपस्वी जीवन जिएँगे, तब क्या हो जायेगा? तब आपका बहिरंग जीवन, जो पंचतत्त्वों का बना हुआ है, जो पदार्थों से सम्बन्धित है, जो दुनिया से सम्बन्धित है और उसे प्रभावित करता है, उसे प्रभावित करने के लिए आप तपश्चर्या के माध्यम से शिक्षित कर सकते हैं और श्रद्धालु बनने के बाद में अगर आप में सामर्थ्य है तो भगवान को भी अपनी सहायता करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। 'मजबूर' शब्द? हाँ बेटे, इसके अलावा और कोई शब्द मेरे पास नहीं है।
आप भगवान से दया की बात करते हैं कि भगवान बड़े दयालु हैं, कृपालु हैं। नहीं बेटे, मेरा ऐसा विश्वास नहीं कि भगवान दयालु हैं, कृपालु हैं। अगर भगवान दयालु हैं, कृपालु हैं तो मैं यह सोचता हूँ कि मय्यत में जाकर के मैं बैठूँ और सवेरे से शाम तक भगवान की दयालुता की पोल खोलता जाऊँ। मरघट में आप जाइए और भगवान की पोल खोलते जाइए-ये कौन मर गया? जवान आदमी मर गया। उसकी माँ बिलख रही है, उसके बच्चे बिलख रहे हैं, औरत बिलख रही है। यह कैसे हो गया? यह किसने मार डाला? भगवान ने। भगवान को आप गाली देंगे। आप अस्पताल होकर आइए और देखिए कि भगवान कितना दयालु है। वहाँ कितने आदमियों की आँखें फोड़ी जा रही हैं, कितनों के हाथ काटे जा रहे हैं, कितनों का क्या किया जा रहा है। ये कौन कर रहा है? भगवान कर रहा है। तो भगवान को गाली दें? नहीं, मैं गाली नहीं दे सकता, आप गाली दीजिए। तो फिर आप क्या कहेंगे? बेटे, इसे मैं केवल न्यायाधीश कह सकता हूँ।
कायदे-कानून वाला भगवान
गुरुजी! आप भगवान को न्यायाधीश क्यों कहते हैं? बेटे, मैं न्यायाधीश इसलिए कहता हूँ कि बिजली के तरीके से भगवान के कुछ कायदे और कानून हैं। बिजली के कायदे और कानून का हम पालन करते हैं तो वह पंखा चलाती है, बत्ती जलाती है, हमारा रेफ्रिजरेटर चलाती है, हर चीज चलाती है। भगवान भी बड़े दयालु हैं, बिजली के तरीके से। बिजली हमारी बहुत सेवा करती है। बिजली हमारे कमरे को गरम करती है। बिजली हमारे कमरे को ठंडा भी कर देती है। हमें टेलीविजन दिखा देती है। हमारा रेडियो चला देती है। बिजली हमारे कुएँ में से पानी निकाल कर लाती है। बिजली जितनी सेवा कर सकती है, उतनी दस नौकर भी नहीं कर सकते। बिजली रातभर हमारे ऊपर पंखा झलती है। बेटे, वह बड़ी दयालु है। इससे बड़ा दयालु और कौन हो सकता है। माता और नौकर भी रातभर पंखा नहीं झल सकते। नौकर को भी नींद आ जाती है, कभी हाथ धीमा चलाता है तो कभी तेज चलाता है, लेकिन बिजली आपका पंखा बिना रुके एक स्पीड से चलाती रहेगी। एक दिन चलवाइए, दो दिन चलवाइए, वह बिना थके चलाती रहेगी। इससे बड़ा दयालु और कोई हो सकता है क्या? नहीं बेटे, बिजली से बड़ा दयालु कोई नहीं हो सकता। इसलिए उसे दयालु कहने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।
लेकिन मित्रो! आपको मालूम होना चाहिए कि बिजली बड़ी खौफनाक और खतरनाक भी है। अगर आप बिजली का गलत तरीके से इस्तेमाल करेंगे तो वह आपको मार डालेगी, आपके बच्चे को मार डालेगी, आपकी औरत को मार डालेगी। सब चीजें बरबाद हो जाएँगी। अरे साहब! आप तो दयालु हैं। नहीं भाईसाहब। हम दयालु नहीं है । तो आप क्या है? नियम हैं, मर्यादा हैं, कायदा हैं और कानून हैं। अगर यह बात आप मान लेंगे तो आगे चलेंगे। आप यदि यही मानते रहेंगे कि भगवान को फुसलाकर उल्लू सीधे किए जाते हैं तो आप झक मारते रहेंगे । आप फुसलाने के चक्कर में फँस रहेंगे तो फुसलाइए। अच्छा आप भगवान को फुसलाकर क्या करेंगे? अपना उल्लू सीधा करेंगे। उल्लू सीधा करना किसे कहते हैं? जो हमारी उचित और अनुचित माँगों को पूरा कर दे, जो हम माँगें, वह लाकर दे दे, वह उल्लू है।
बेटे, ये विचार आप मन से निकाल दें। यदि यही विचार अपने मन में भरे रहेंगे तो आप आध्यात्मिकता से बहुत दूर बने रहेंगे। आध्यात्मिकता भी आपसे बहुत दूर रहेगी, क्योंकि आप आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को नहीं जानते। आप भगवान के सिद्धान्तों को नहीं जानते। भगवान को सहायता करने के लिए मकबूल किया जाता है । बिजली को मकबूल किया जाता है पंखा झलने के लिए। अपने आप बिजली पंखा नहीं चला देगी। पहले हमें बिजली का बटन दबाना पड़ता है। इसी तरह तपश्चर्या द्वारा भगवान को मकबूल करना पड़ता है। तपश्चर्या करना आपको स्वीकार न हो तो फिर आप यह उम्मीद मत रखिए कि भगवान दयालु हैं, देवता दयालु हैं, अमुक दयालु हैं, इसलिए दयालुता के वशीभूत होकर के आपकी सहायता करेंगे। बेटे ऐसी सहायता आपको नहीं मिलेगी। आप लिख लीजिए, यदि इस तरह से सहायता मिल जाए तो हमसे कहना।
(क्रमशः अगले अंक में)
December 2003
(गतांक से आगे)
आप ऐसा शोध मत करिए
मित्रो! अगर आप कल को यह कहेंगे कि भगवान बड़े दयालु थे, देवी बड़ी दयालु थीं और हमने अगरबत्ती जला दी, नारियल चढ़ा दिया तो देवी प्रसन्न हो गईं और हमारे पास रुपयों का बंडल लेकर आ गईं। अगर आपका यह ख्याल सही है तो बेटे, हम भी यही करेंगे और लोगों से भी यही कहेंगे कि आपने एक बहुत बड़ा आविष्कार कर लिया। बहुत से लोगों ने भी आविष्कार किए हैं, किसी ने बिजली का आविष्कार किया है, किसी ने रेडियो का आविष्कार किया, किसी ने अमुक का आविष्कार किया। आपको भी मैं आविष्कारक मानूँगा, अगर आप यह साबित करेंगे कि भगवान को धूपबत्ती खिलाकर फुसलाया जा सकता है और फुसलाने के बाद में मनमरजी के काम निकाले जा सकते हैं। अगर आपका यह प्रयोग सफल हो जाए तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी कि आपने एक बड़ा भारी एवं क्रान्तिकारी आविष्कार कर लिया।
मित्रो! तब मैं हर आदमी से यही कहूँगा कि आपको अपना व्यक्तित्व विकसित करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी आदमी को पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है। किसी आदमी को जीवन संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इन महाशय जी ने नया आविष्कार करके यह दिखा दिया है कि धूपबत्ती से, देवी का पाठ करने से देवी-देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और मनमरजी की मनोकामना पूरी कराई जा सकती है। फिर मैं सब लोगों से कहूँगा कि आप लोग गलत थे। इतनी मेहनत आपने बेकार कर डाली। आपने जो किताब पढ़ाई, गलत पढ़ाई। आपने पुरुषार्थ बेकार किया। आपको इन महाशय जी का कहना मानना चाहिए था और आपको हनुमान चालीसा पढ़ना चाहिए था, धूपबत्ती जलानी चाहिए थी और अपना उल्लू सीधा कर लेना चाहिए था। फिर मैं आज तक की हर परंपरा को बदल देने के लिए कहूँगा। हर आदमी जो सोचता है, गलत सोचता है और ये महाशय जी सही सोचते हैं। ये नए आविष्कारक हैं। बेटे, मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप वास्तविकता के नजदीक आइए। अगर आप वास्तविकता के नजदीक नहीं आएँगे तो बेकार परेशान होंगे और अपना समय खराब करेंगे।
तप रहा है सफलताओं के मूल में
मित्रो! तपश्चर्या का महत्त्व आपको मैं बता चुका हूँ। भौतिक प्रगति की दिशा में आपका बढ़ने का वास्तव में मन हो तो आपको तपस्वी जीवन जीने की तैयारी करनी चाहिए। भगवान बुद्ध ने तपस्या की वजह से सारे-के-सारे विश्व में नई क्राँति की और उसकी काया पलट दी। उस गंदे जमाने को ठीक कर दिया था। वे कौन से आविष्कार थे, जो उन्होंने किए थे? वे थे उनके चीवरधारी भिक्षु, परिव्राजक। परिव्राजक कौन होते हैं—घुमक्कड़? नहीं बेटे! तो लोहे की गाड़ी वाले होते होंगे, जो गाड़ी लिए इस गाँव से उस गाँव घूमते-फिरते हैं? हाँ, ये भी परिव्राजक हैं, पर वो परिव्राजक अलग तरह के थे। भगवान बुद्ध ने सबसे पहला शिक्षण अपने परिव्राजकों को यह दिया था कि आपको तपश्चर्या करनी चाहिए। उनका हर शिष्य पहला शिक्षण तपश्चर्या का लेता था, देवी-देवता का पाठ करने का नहीं। तपश्चर्या का क्या पाठ करते थे वे? उनके हर परिव्राजक पर खान-पान के संबंध में, रहन-सहन के संबंध में, कपड़े पहनने के संबंध में, उपवास करने के संबंध में, सारे-के-सारे इतने कठोर नियम उन पर लागू होते थे कि वे अपने बुद्ध विहारों में तपस्वी जीवन जीने के बाद जब बाहर निकलते थे और जहाँ कहीं भी जाते थे, क्राँति करते हुए चले जाते थे।
हिंदुस्तान से निकलने के बाद में वे परिव्राजक समूचे एशिया में छा गए। रेगिस्तानों को पार करते हुए, तिब्बत के पठार और चट्टानों को पार करते हुए वे चीन जा पहुँचे। चीन में भारत से गए कुमारजीव से लेकर अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बौद्ध धर्म को दूर-दूर तक फैलाया। अशोक से लेकर हर्षवर्धन तक ने जनता और शासन दोनों को एक बना दिया। बौद्ध धर्म को सबसे अधिक दूर-दूर तक फैलाने में इन्होंने अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। असल में आपको बौद्ध देश देखना हो तो आपको आज से तीस साल पहले के चाइना में जाना होगा। अब तो तीस साल से वहाँ कम्युनिज्म आ गया है, पर तीस साल पहले वहाँ असली बौद्ध थे। चीन हिंदुस्तान से भी बड़ा है। तब वहाँ एक करोड़ आबादी थी। सारे-के-सारा हिस्सा तब बौद्ध धर्म में दीक्षित था। न केवल चाइना, वरन् मंचूरिया, मंगोलिया, जापान, कोरिया आदि सारे देश एवं कम्बोडिया से लेकर जावा, सुमात्रा तक, इंडोनेशिया से लेकर मलेशिया तक सारे-के-सारे द्वीप यहाँ से लेकर वहाँ तक पूरे में बौद्ध धर्म फैला हुआ था। न केवल पूरा एशिया, वरन् यूरोप के बहुत सारे हिस्सों व अन्य देशों में बौद्ध धर्म फैला हुआ था। अमेरिका में तो अभी पता नहीं चला है कि कभी वहाँ बौद्ध धर्म था। वहाँ तो मय सहायता का पता चला है, लेकिन इसके अतिरिक्त सारे एशिया एवं विश्व में बौद्ध धर्म छा गया था।
अक्षुण्ण कीर्ति मिलती है तपस्वी को
मित्रो! यह क्या बात थी? यह थी कीर्ति, जो व्यक्तित्व की चमक से पैदा होती है। यह धर्म-प्रचारकों का व्यक्तित्व ही है, जिन्होंने अपनी गरिमा को बढ़ाने के साथ-साथ में अपने धर्म अर्थात् जिस मिशन को लेकर वे चले थे, उसे जादू के तरीके से और तूफान के तरीके से, आग के तरीके से आगे बढ़ाते चले गए। सफलता उनके चरण चूमती चली गई। सफलता उनके ही चरण चूमती है, जो तपश्चर्या के सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं। जो तपश्चर्या के सिद्धान्त पर विश्वास नहीं करते, जिनको अपनी जबान पर काबू नहीं है, खाने पर काबू नहीं है, इंद्रियों पर काबू नहीं है, लोभ पर काबू नहीं है, मोह पर काबू नहीं है और ऊपर से कहते हैं कि हमको भगवान के दर्शन करा दीजिए, अमुक सिद्धि दिलवा दीजिए, वे परले सिरे के धूर्त हैं। जो हराम का पाना चाहते हैं, सफलता ऐसे आदमियों से बहुत दूर भागती है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको अपना जीवन तपस्वी जीवन में ढालने के लिए तैयार करना होगा। यह कठिन चीज है, अतः ज्यादा कीमत चाहिए। यह न तो सस्ती चीज है और न सस्ते में मिल सकती है। इसके परिणाम बड़े मूल्यवान हैं। इसलिए मूल्यवान वस्तुओं का मूल्य चुकाने के लिए तैयार हो जाइए। आपके बचपन से मैं आपको यही सिखाता चला आया हूँ कि ब्रह्मवर्चस् का सिद्धान्त क्या है? ब्रह्मवर्चस् अर्थात् ब्रह्मतेजस् आप प्राप्त करना चाहते हैं तो आप तपस्वी बनिए। तैयारी कीजिए। धीरे-धीरे जैसे-जैसे ब्रह्मवर्चस् आपको बर्दाश्त होता जाएगा, वैसे-वैसे आपको अधिक तपस्वी बनाने के लिए हम प्रयत्न करेंगे। आपको हमने आरंभ से कराया है और आगे भी कराएँगे। क्या कराएँगे? दधीचि की हड्डियों में से जैसे आग निकलती थी, बिजली निकलती थी, वैसे ही आपकी आँखों में से आग, आँखों में से बिजली, आपकी वाणी में से बिजली, आपके चेहरे में से बिजली निकालेंगे। आपको तपा-तपाकर चलता-फिरता बिजलीघर बनाएँगे। तपाने से बन सकती है? हाँ बेटे, बन सकती है। आपको तपस्वी जीवन की शिक्षा दी जाएगी।
‘योगा’ नहीं योग
साथियो! अभी एक और हिस्सा रह गया था, उसको बताना चाहता हैं। उसका नाम है—‘योग।’ योग किसे कहते हैं? योग कहते हैं—परमात्मा से जुड़ने को। आज का ‘योगा’ अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होता है। अगर योगा देखना है तो आप यूरोप में चले जाइए। मैं यूरोप घूमकर आया हूँ। मैंने जगह-जगह योगा देखा। हमने देखा कि वहाँ योगा कैसे होता है। यों मालूम पड़ता है कि वहाँ योगा का कोई ताऊ, भतीजा या चाचा, मामा होगा। योगा तो है नहीं, हाँ, कोई उसका रिश्तेदार होगा। आपको रात को वहाँ का योगा देखना हो तो उनका मेडीटेशन देखिए। यह बीसवीं शताब्दी का चमत्कार है। बीसवीं शताब्दी योगा पर कैसे हावी हो गई है, आप वहाँ जाकर देखिए कि शराब पिए धुत पड़े हुए लोग क्या कर रहे हैं? मेडीटेशन कर रहे हैं। भला मेडीटेशन ऐसा होता है कि आप नशा कीजिए, एकान्त में रहिए, हिप्पी बनकर इकट्ठे होते चले जाइए और दुनिया भर की सब बदमाशी कीजिए और योगा करते चलिए। किसी जमाने में हमने बाजीगरों का खेल देखा था, जादूगरों का खेल भी देखा था, लेकिन इस जमाने में पढ़े-लिखे लोगों में नए किस्म की जादूगरी चालू हो गई है और इसका नाम हो गया है—’योगा’ । कुछ सेंटरों में समाधियाँ लगवाते हैं। वे कहते हैं—देखिए, हम अभी आपके सेंटरों में समाधि लगवा देते हैं। आपको कोई पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है। देखिए, अभी हम आपके ऊपर जादू करते हैं और आपकी समाधि लगवाते हैं, आपका ध्यान लगवाते हैं, मेडिटेशन करवाते हैं।
मित्रो! सब जगह यही धूर्तता जहाँ-तहाँ सारे संसार में फैली हुई है। इस अनाचार को देखकर मालूम पड़ता था, मानो योग की जीवात्मा ही खत्म हो गई। यही ढकोसला सब जगह न खड़ा हो जाए, यह आशंका बनी रहती है। अब योगा में क्या होता है? आसन होता है। नाक में रस्सी डाल लेंगे, भीतर तक ले जाएँगे और फिर बाहर निकाल लेंगे। क्यों साहब! योगा तो भगवान से मिलने को कहते हैं। क्या इससे भी भगवान मिल जाएगा? हाँ साहब! अच्छा तो जब भगवान मिल जाए तो हमें भी दिखाना।
बेटे! योगा वह हो सकता है जिसमें हमारा मन, हमारा चिंतन आदर्शवादिता के साथ जोड़ा जाता है। यह थिंकिंग है, विचारणा है। क्रियायोग का जितना भी संबंध है, वह तपश्चर्या से है। कौन-सी? जो हम शरीर के द्वारा करते हैं। शरीर के सारे-के-सारे अंगों की जितनी भी क्रियाएँ हैं, वे सब तपश्चर्या में आती हैं। जप, यह भी उसी में आता है। यह शरीर की क्रिया है। प्राण भी शरीर में आता है, क्योंकि यह शरीर की क्रिया है। शरीर के द्वारा जो भी क्रिया की जाती है, वह योग में नहीं आती, तप में आती है। योग चीज अलग है।
चिंतन का परिष्कार है योग
योग किसे कहते हैं? बेटे, हमारा चिंतन, हमारी विचारणा—इसको परिष्कृत करना और हमारा क्रियापक्ष, इसका परिशोधन करना—इसका नाम योग है। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को परिशोधित करने का नाम योग है। ये सारी-की-सारी क्रियाएँ हमारी विचारणा से संबंधित हैं। आपके लिए कोई योग शब्द का इस्तेमाल करे तो आप समझना कि इसका सारे-का-सारा दबाव, सारे-का-सारा शिक्षण, सारी-की-सारी गतिविधियाँ केवल हमारे चिंतन को परिष्कृत करने तक शायद सीमित हैं। अंतरंग को परिष्कृत करने तक सीमित हैं। योग में क्या आता है? ध्यान आता है। ध्यान की असंख्य प्रक्रियाएँ आती हैं। ध्यान की असंख्य प्रक्रियाओं में से प्रत्येक को हम कर्मयोग कह सकते हैं। आपने राजयोग का नाम सुना होगा। राजयोग के चार हिस्से शरीर से संबंधित हैं। ये हैं यम, नियम, आसन और प्राणायाम। ये चार शरीर की तपश्चर्या से संबंधित हैं कि शरीर को कैसे स्वस्थ रखना चाहिए। प्राणवायु को हमें कैसे ठीक रखना चाहिए। आहार और विहार के नियमों का हमको कैसे पालन करना चाहिए। ये चार पक्ष तपश्चर्या के हैं। इसको हम तप कह सकते हैं।
योग के अन्य चार पक्ष कौन से हैं? प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। बेटे, ये हमारे चिंतन के ऊपर निर्भर हैं। हमारा चिंतन किधर चलना चाहिए? चिंतन को कहाँ लगाना चाहिए? अस्त-व्यस्त चिंतन की रोक-थाम हमें कैसे करनी चाहिए? चिंतन का परिष्कार हमको कैसे करना चाहिए? चिंतन को हमें कहाँ तक ले जाना चाहिए और अपने चिंतन को हमें भगवान में विलय कैसे कर देना चाहिए? ये सारी-की-सारी चिंतनपरक कसरत योग कहलाती है। यह योग आपको सीखना चाहिए। इस योग के सिद्धान्त मैं आपको बताऊँगा। क्रिया तो वही है? जो आपको हम यहाँ कराते हैं। क्रियाओं को फिर किसी दिन बता दूँगा। सायंकाल को हम जो आपको ध्यान कराते हैं, उस ध्यान के पीछे योग के कौन-कौन से सिद्धान्त जुड़े हुए हैं, यह हम किसी दिन आपको समझा देंगे। यहाँ जो क्रियाएँ हम आपको कराते हैं—व्यायाम से लेकर आसन कराने तक, जप कराने से लेकर तप कराने तक। उसमें से तप का अंश कौन-सा है और योग का कौन-सा तथा यहाँ के बताए हुए शिक्षण को आगे चलकर कैसे बढ़ाना पड़ेगा, यह सब हम आगे चलकर बताएँगे। अभी तो हम उसका मूलभाव समझा रहे हैं और यह बता रहे हैं कि ध्यान क्या है?
ध्यान के दो भाग
मित्रो! ध्यान को हम दो हिस्सों में बाँट देते हैं। एक हिस्सा वह है जो हमारे चिंतन के बिखराव को रोकता है, विचलन को रोकता है। इसको हम क्या कहते हैं? इसका नाम है—एकाग्रता। एकाग्रता किसे कहते हैं? जिसे आप बार-बार कहते हैं कि हमारे मन का निग्रह कीजिए, वस्तुतः वह योग का पहला वाला हिस्सा है। हमारा मन जो चारों ओर भाग-दौड़ करता है, भगदड़ मचाता है, बेसिलसिले चलता है, व्यर्थ की बातों में चलता रहता है, इसको एक सिरे पर ले आना, एक क्रम में ले आना—इसका एकाग्रता वाला भाग है। मन का एक और भाग वह है, जिसे हम काम पर लगा देते हैं, किसी लक्ष्य पर लगा देते हैं। मन का यह दूसरा वाला हिस्सा है। बंदूक में क्या होता है? बंदूक में दो भाग होते हैं। एक का काम यह होता है कि बारूद को और गोली को दोनों चीजों को कारतूस में बंद करके छोटे से दायरे में कैद कर देते हैं। कैद न करें तो? कैद न करें तो बेटे, बारूद चारों तरफ फैल जाएगी और यदि उसे जला दें तो भक से जलकर खत्म हो जाएगी। बारूद के लिए यह पहला काम करना पड़ता है—एकाग्रता का। कारतूस में एकाग्रता अर्थात् बंदूक की लंबी नली में कारतूस और बारूद को एकाग्र करके यह देखते हैं कि यह बहुत देर तक एकाग्रता की दिशा में चले।
अगर बंदूक की नली छोटी हो तब? तब मुश्किल पड़ जाएगी। लंबी नली की विशेषता यह है कि यह गोली को दूर तक फेंक सकती है। पिस्तौल दूर तक नहीं फेंक सकती। इसके लिए उसकी नली लंबी होनी चाहिए। लंबी नली में कारतूस बहुत दूर तक एकाग्र एक दिशा में चला जाता है, इसलिए बहुत दूर तक फेंक सकती है। पिस्तौल ऐसा नहीं कर सकती। पिस्तौल सामने मार सकती है, लंबी दूरी तक गोली नहीं फेंक सकती। उसमें लंबे फेंक कर मारने की गुँजाइश नहीं है। नली लंबी है ही नहीं तो लंबे तक कैसे मार कर सकती है? अतः ध्यान का पहला वाला हिस्सा है—एकाग्रता, जिसको लोगों ने ‘मेडिटेशन’ नाम दिया हुआ है। यह पहला वाला हिस्सा है।
ध्यान योग का दूसरा वाला हिस्सा है—लक्ष्यवेध। अर्थात् हमारा चिंतन किसी लक्ष्य विशेष में लगाया जाए। लक्ष्य विशेष से क्या मतलब है? लक्ष्य विशेष का मतलब यह है कि बंदूक कहाँ चलाई जाएगी और कहाँ मारी जाएगी? इसका निशाना कहाँ लगेगा? कोई निशाना भी तो होना चाहिए। नहीं साहब! निशाने की क्या आवश्यकता, हम तो यों ही हवा में चलाएँगे। तो निशाना नहीं लगाएगा, हवा में बारूद बेकार करता रहेगा? मित्रो! जब कहीं निशाना लगाते हैं, तब उसको कहते हैं—लक्ष्य। ध्यान के दो हिस्से हैं। एक तो हमारा लक्ष्य है कि इसको कहाँ लगाएँ। दूसरा है—निग्रह। यदि मन का निग्रह हम नहीं कर सकेंगे, मन का फैलाव और बिखराव निग्रहीत नहीं कर सकेंगे तो हमारे भीतर मनःशक्ति का विकास नहीं हो सकेगा। हमारा मन सामर्थ्यवान नहीं बन सकेगा और सदैव कमजोर ही बना रहेगा।
एकाग्रता की परख
साथियो! हमारा मस्तिष्क, हमारा चिंतन, जो हमेशा बिखराव में व्यस्त रहता है, उसको किसी उद्देश्यपूर्ण काम में व्यस्त होना चाहिए, तभी इसमें ताकत आती है और आदमी के खुद के भविष्य का निर्माण होता है। मुझे एक घटना याद आ गई। राजा द्रुपद की बेटी थी द्रौपदी, जो बहुत खूबसूरत और योग्य थी। उसके पिता ने निश्चय किया कि इस लड़की का ब्याह हम किसी ऐसे आदमी से करेंगे, जिसका भविष्य उज्ज्वल हो। कितने भविष्यवक्ता आए, पंडित आए। उन्होंने कहा कि हमें आपकी बात पर विश्वास नहीं है। पहले आप अपना भविष्य बताइए, तब हम आपकी भविष्यवाणी मानेंगे। आपको भविष्य में कब मरना हैं, बताइए? हमें मालूम नहीं, तो फिर आप हमारा मरना कैसे बता सकते हैं? उन्होंने भविष्य बताने वाले सब पंडित वापस कर दिए। तब समझदारों, विद्वानों ने कहा कि फिर यह बताइए कि किस आदमी का भविष्य अच्छा है? इसका सबूत क्या है?
गुरु द्रोणाचार्य ने एक बात बताई कि राजन्! किस आदमी का भविष्य अच्छा है या बुरा है, यह जानने का एक ही तरीका है उस आदमी की अक्ल एक काम पर एकाग्र होती है या नहीं। जिस आदमी की अक्ल बंदर के तरीके से इस डाली से उस डाली पर उचक-मचक करती होगी। ऐसा करेंगे तो यह होगा, वह होगा, न कोई निश्चय है, न कोई संकल्प है, न कोई श्रद्धा है, न कोई इच्छा है, न कोई धारणा है। इसके यहाँ, उसके वहाँ, यहाँ सत्संग, वहाँ अमुक का सत्संग, यह भी शामिल, वह भी शामिल। सब एक-एक जायके खाता रहता है। 32 चीजों का जायकेदार चूरन खाता रहता है। आज इसके यहाँ चलूँगा, कल उसके यहाँ चलूँगा। एक निश्चय नहीं है, जीवन में कोई लक्ष्य नहीं है। जायके तो जीवन में बहुत मिल जाएँगे, पर ऐसी स्थिति में सफलता कहीं नहीं मिलेगी। द्रोणाचार्य ने कहा कि केवल वही आदमी सफल हो सकता है, जो दृढ़ निश्चय वाला हो और जिसका मन एकाग्र हो। एकाग्र मन वाले आदमी का भविष्य अच्छा है, साँसारिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी।
एकाग्रता की परख करने के लिए लकड़ी की एक मछली मँगाई गई। उसे ऊँचाई पर रखे एक चक्र पर घुमाया गया। उसके नीचे तेल का कड़ाह रखा गया और यह कहा गया कि ऊपर की ओर कोई मत देखिए, केवल कड़ाह में देखकर ऊपर तीर चलाइए। मछली की आँख में जो कोई तीर मार देगा, उससे ही द्रौपदी का ब्याह किया जाएगा। बहुत से राजकुमार स्वयंवर में आए। द्रोणाचार्य ने कहा—भाई साहब! तीर चलाने से पहले आप हमारे पास आइए और यह बताइए कि मछली का क्या-क्या आपको दिखाई पड़ता है। किसी ने कहा कि हमको मछली की मूँछ दिखाई पड़ती है, किसी ने कहा—हमको पूँछ दिखाई पड़ती है। इस तरह के लोगों को वे हटाते गए और जब अर्जुन की बारी आयी तो उन्होंने पूछा, “बेटे! तुझे क्या दिखाई पड़ता है?” अर्जुन ने कहा, “हमें केवल मछली की आँख दिखाई पड़ती है।” “अच्छा बताओ, मछली की पलक, मछली का सिर आदि कुछ दिखाई पड़ता है?” उसने कहा, “नहीं, केवल आँख की पुतली दिखाई पड़ती है।” राजा ने हुक्म दिया कि बस यही लड़का निशाना साध सकता है। स्वयंवर की तैयारी की गई। लड़की को तैयार किया। बाजे बजने लगे। अर्जुन ने अपना धनुष उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई और झट से तीर लक्ष्य पर छोड़ दिया। तीर ठीक आँख की पुतली में जा लगा। उसको वरमाला पहना दी गई।
मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ एकाग्रता की बात, जिसका आपको ज्ञान नहीं है। एकाग्रता का न आपने अभी मूल्य समझा, न कभी महत्त्व समझा और न यह जाना कि एकाग्रता के सिद्धान्त का परिपालन करने के लिए क्या करना चाहिए। आप तो हर चीज के लिए कहते हैं कि मम्मी! यह चीज दिला। तो हम क्या करें? तो गुरुजी, आप आशीर्वाद दे दीजिए। आशीर्वाद से नहीं बेटा! तप से, एकाग्रता से जीवन में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ मिलती हैं।
(क्रमशः)
(समापन किस्त)
February 2004
इस स्तंभ की कड़ी क्र. २ के अंतर्गत विगत दिसंबर, २००३ के अंक में अमृतवाणी में पूज्यवर ने भाँति-भाँति के उदाहरणों से समझाया था कि हर महापुरुष की सफलता के मूल में तप रहा है। बौद्ध धर्म का उदाहरण देकर उनने समझाया कि सारे विश्व में यह धर्म तपस्वी परिव्राजकों के माध्यम से फैला। इसके पश्चात पूज्यवर ने योग ध्यान-एकाग्रता के विषय में हमें बताया। अब इस समापन किस्त में पढ़ें—तप एवं योग के और अधिक मार्मिक पक्षों के विषय में।
आशीर्वाद लूट नहीं है
महाराज जी! आप तप कीजिए और आशीर्वाद देकर हमारा फायदा करा दीजिए। बेटे, आशीर्वाद माने लूट नहीं है, जो तू समझता है—'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।' ऐसे किसी चीज की लूट नहीं पड़ रही है। आशीर्वाद की तो पड़ रही है? नहीं बेटे, आशीर्वाद की तो बिलकुल नहीं पड़ रही। आशीर्वाद की बहुत कीमत है। कीमत चुकाए बिना न आशीर्वाद मिलता है, न वरदान मिलता है, न सिद्धि मिलती है, न चमत्कार मिलता है और न मनोकामना पूरी होती है। हर आदमी को हर चीज की कीमत चुकानी पड़ी है। नहीं गुरुजी, हम तो बिना कीमत चुकाए ही पाएँगे। क्या करेंगे? लूट करेंगे। कैसे? 'राम नाम लड्डू, गोपाल नाम खीर। हरि का नाम मिश्री तो घोल-घोल पी।' हाँ बेटे, ये तो हो जाएगा। ये लूट अलग है। इसमें कोई एतराज नहीं है, लेकिन जो व्यक्ति कीमती चीज पाना चाहता है, उसे कीमत चुकानी पड़ेगी।
मित्रो! अभी मैं एकाग्रता की बात कह रहा था। एकाग्रता लाने का फैसला आप करते हैं तो मैं यह कहूँगा कि आप योग के मार्ग पर चल रहे हैं और योगी बनने की कोशिश कर रहे हैं। यह हुई नंबर एक की बात—एकाग्रता की बात। अब मैं नंबर दो—योग के दूसरे वाले लक्ष्य की बात बताता हूँ।
योग के दूसरे वाले भाग में शामिल होता है—ध्यान। वह क्या है ? बेटे, इसका मंतव्य यह है कि भगवान के चिंतन का कोई लक्ष्य होना चाहिए। इसका नाम है—इष्ट। इष्टदेव का ध्यान करना चाहिए। कौन-सा इष्टदेव? जो भी आपने तय किया हो। महाराज जी! कौन-सा इष्टदेव बनाऊँ? जो भी आपका मन हो, बना लीजिए, लेकिन ध्यान पूरा कीजिए। इष्टदेव का आप ध्यान करेंगे तो क्या हो जाएगा? इष्ट माने लक्ष्य, इष्ट माने देवता। देवता पहला प्रतीक माना गया है। देवता किसी शक्ति के प्रतीक हैं, जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम। मर्यादा वाला व्यक्ति बनना है तो आपको अपना इष्टदेव राम को मानना चाहिए। आपको पूर्णपुरुष बनना है तो आपको अपना इष्टदेव कृष्ण को मानना चाहिए। अगर आपको रामभक्त बनना है तो आपको अपना इष्ट भक्त हनुमान को बनाना चाहिए।
इष्ट हमारे लक्ष्य-ध्येय के प्रतीक
मित्रो! हनुमान से लेकर प्रत्येक देवता एक-एक इष्ट के प्रतीक हैं, एक-एक लक्ष्य के प्रतीक हैं। आपके जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? जो भी आपका लक्ष्य हो, चाहे उसे आप सिद्धांत मान लीजिए, चाहे उसकी शक्ल बना लीजिए। शक्ल बनाने से, चेहरा बना लेने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। शक्ल तो ध्यान की सुगमता के लिए बना दी गई है। इस बात से मैं बहुत सहमत हूँ कि देवताओं के बारे में जो इष्टदेव बना दिए गए थे, वे इसलिए बना दिए गए थे कि आदमी यह समझे कि हमको कहाँ पहुँचना है? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमको किस प्रकार की गतिविधियाँ अपनानी चाहिए? लेकिन पीछे क्या कर दिया गया कि देवता, जो इष्ट के रूप में बनाए गए थे, उनके साथ में हमने सांसारिक मनुष्य के सिद्धांत को जोड़ दिया। इससे अध्यात्म में विसंगतियाँ पैदा हो गईं, विकृतियाँ पनपने लगीं। इष्टदेवता के साथ जहाँ मनुष्यों के तरीके से उनके साथ में इतिहास जोड़ दिए गए हैं, उनको इष्टदेव मानना हमारे लिए मुसीबत पैदा करता है।
उदाहरण के लिए, जब भगवान श्रीकृष्ण को अपना इष्ट देवता मान लेते हैं तो ठीक है। जहाँ तक गीता के योगेश्वर श्रीकृष्ण का संबंध है, इनको इष्टदेव मानने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन जहाँ उनके गृहस्थ जीवन की बात आ जाती है, उसको मानने से हमारे ऊपर बुरा असर पड़ता है। कृष्ण जी का मनुष्य जीवन का इतिहास जानकर हम मुसीबत में फँस जाते हैं। कृष्ण जी के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं। एक औरत थी। उसका नाम था रुक्मिणी। रुक्मिणी के बाद थीं सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ। उनके कितने बाल-बच्चे थे। एक-एक औरत के अगर आठ-आठ बच्चे मान लिए जाएँ तो कितने हो गए—१६,१०८ x ८ = १,२८,८६४ अर्थात एक लाख से भी ज्यादा बाल-बच्चे हो गए श्रीकृष्ण भगवान के। तो फिर अब आपको क्या करना चाहिए—हम तो आपको फेमिली प्लानिंग की सलाह दे रहे हैं। नहीं साहब! अभी तो हमारे चार ही बच्चे हैं, श्रीकृष्ण के बराबर तो हो जाएँ, कम-से-कम आठ-नौ बच्चे तो हो जाएँ। न जाने और क्या-क्या इतिहास में भरा पड़ा है। श्रीकृष्ण इसकी बहन का अपहरण कर लाए, उसका अपहरण कर लाए। जाने क्या-क्या बवाल भर दिया है। इसलिए हम किसी ऐसे भगवान को अपना इष्टदेव नहीं मानेंगे, जो किसी व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है।
एक ही देवता—भगवान
मित्रो! हम भगवान को एक मानते हैं। भगवान एक है। अगर दुनिया में अनेक देवता रह गए तो आफत पैदा कर देंगे। इनमें आपस में लड़ाई हो जाएगी, मार-काट मचेगी, फौजदारी हो जाएगी। इलेक्शन में प्रतिद्वंद्वी तैयार हो जाएँगे। दुनिया में अनेक देवता नहीं रह सकते। दुनिया में एक ही देवता रह सकता है और उसका नाम है—भगवान। अब प्रश्न उठता है कि भगवान को हम अपना इष्ट कैसे बनाएँ ? इसको बनाने का एक ही तरीका है कि आप जीवन में यह निश्चय कीजिए कि आपको क्या बनना है? ऊँचाई के रास्ते पर चलने के लिए आपको क्या बनना है? आपको लोकहित करना है या आपको भगवान का भक्त बनना है? भगवान का भक्त बनना हो तो आपको हनुमान जी को इष्टदेव बनाने में कोई हर्ज नहीं है। यदि आपको उदात्त बनना हो और मानवता के सिद्धांतों से ओत-प्रोत होना हो तो गायत्री से बढ़िया इष्ट और क्या हो सकता है?
बेटे! देवियाँ, देवियाँ नहीं हैं। ये भगवान की एक-एक कला हैं, एक-एक विशेषता हैं। अगर आपको सारी विशेषताओं को इकट्ठा करना हो तो आप सविता को अपना इष्ट मान सकते हैं। सविता में—सूर्य में बहुत सारी किरणें होती हैं, बहुत-सी विशेषताएँ होती हैं। भगवान की दयालुता का, भगवान की नियमितता का, विश्व-व्यापकता का—इन सारी-की-सारी विशेषताओं का सविता में समावेश है। इन विशेषताओं के समाविष्ट होने में आप एकमत हो सकते हैं। कोई इष्टदेवता आप बनाएँ, चाहे न बनाएँ, लेकिन अगर निराकार को मानने वाले हैं तो आपको देवता नहीं मिलेगा। अगर आप साकार को मानने वाले हैं तो देवता को बनाने के लिए बैठना नहीं पड़ता। मैं तो कहता हूँ कि आपका इष्टदेवता ऐसा होना चाहिए कि आपको अपने जीवन में पहुँचना कहाँ है, जो तदनुरूप आपके समग्र व्यक्तित्व को ढाल दे। इसके लिए आपका 'स्व' में ध्यान एकाग्र होना चाहिए। यह योग की स्थिति है।
योग में मन की एकाग्रता—एक और लक्ष्य का निर्धारण—दो, ये दो बातें प्रमुख हैं—लक्ष्य का निर्धारण करते हुए चिंतन को आगे बढ़ाते जाना और चिंतन को बढ़ाते जाने के लिए आवश्यक गतिविधियों का समावेश करते जाना। केवल चिंतन-ही-चिंतन करते रहेंगे तो गतिविधियों कहीं और चलेंगी और चिंतन कहीं और चलेगा। ऐसा नहीं हो सकता कि जहाँ चिंतन चलेगा, वहाँ गतिविधियों भी चलेंगी। आदमी के भीतर जब संस्कार पैदा होता है तो वह विचार और कर्म, दोनों के समन्वय से पैदा होता है। जीवन में जो स्थिरता आती है, वह विचार और कर्म, दोनों के समन्वय से आती है। अगर आप विचार करते रहें और उस तरह का कर्म न करें, तो संस्कार नहीं मिलेगा। विचार तो बन जाएगा, पर आदमी के जीवन में जो धर्म स्थापित होता है, वह संस्कार से स्थापित होता है। टिकाऊपन संस्कार में है, विचार में नहीं है। विचार तो अभी आते हैं और अभी बदल जाते हैं। विचार से टिकाऊपन नहीं आएगा, वरन् संस्कार से आएगा।
एकाग्रता हेतु भिन्न प्रकार के ध्यान
साथियो! संस्कार उसे कहते हैं, जो विचार और कर्म, दोनों के समन्वय से बनता है। इसलिए हमें अपना योगाभ्यास अर्थात मानसिक स्तर अर्थात अपने चिंतन को ऊँचाई की ओर ले जाने के लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए, संक्षेप में यह योग की परिभाषा है। योग को पूरा करने के लिए एक काम करना पड़ता है और उसका नाम है—ध्यान। ध्यान की अनेक क्रियाएँ हैं, जैसे हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, पाँच कर्मेंद्रियाँ हैं। पाँच तत्त्वों से हमारा शरीर बना हुआ है और योग की भी पाँच धाराएँ प्रख्यात हैं। पाँच ध्यान मुख्य हैं। इनमें से एक ध्यान तो वह है, जो हमारे शरीर में अग्नितत्त्व के रूप में स्थापित है। अग्नितत्त्व का प्रतीक हमारी ये आँखें हैं। उसमें जब हम प्रवेश करते हैं तो हमको शक्ल का ध्यान करना पड़ता है। निराकार में जब आप जाएँगे तो प्रकाश का और साकार में जाएँगे तो किसी आकार का, देवी-देवता, मूर्ति, फल, फूल, किसी भी शक्ल का ध्यान करना पड़ेगा। शक्ल का ध्यान करना हमारी तन्मात्रा से संबंधित है। इनमें से रूप-तन्मात्रा का उद्देश्य है—हमारे नेत्र। इसी तरह अन्यान्य तन्मात्राओं का भी अपना-अपना स्वरूप और उद्देश्य है, जिनमें मन को एकाग्र किया जाता है।
मित्रो! मेरा उद्देश्य है—मन को एकाग्र करना। मन को एकाग्र करने के लिए मैं आपको बहुत से ध्यान बताऊँगा। मन को एकाग्र करके फिर क्या करना पड़ता है ? उसे किसी दिशा में बढ़ा देना पड़ता है, जिससे कि हमको अभीष्ट परिणाम प्राप्त हो सके। ध्यानयोग का एक तरीका यह है कि हम किसी शक्ल की सहायता से अपने भीतर काम करने वाला जो अग्नितत्त्व है अर्थात हमारी जो नेत्र इंद्रिय है अर्थात उसका जो रूप तन्मात्रा है, उसका हम ध्यान करते हैं तो कोई शक्ल का ध्यान आता है। इसी तरह रस तन्मात्रा के बारे में है। यह सब मैं आगे चलकर आपको बताऊँगा। अभी हम आपको गायत्री के पाँच मुखों के रूप में पंचतत्त्वों की—पंचकोशों की उपासना सिखाते हैं। इन पाँच योगों से क्या ताल्लुक है, यह बताते हैं।
पाँच प्रकार के ध्यान
पहला ध्यान हमने अग्नितत्त्व का बताया है, जिसका माध्यम नेत्र हैं। दूसरा ध्यान है—नाद का। 'नादयोग' किसे कहते हैं? नादयोग के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा वह है, जो गाने के माध्यम से—संगीत के माध्यम से करते हैं। जब हम गाना सुनकर कानों को बंद कर लेते हैं तो बाद में कई तरह की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। कभी घंटे की आवाज, घड़ियाल की आवाज, कभी अमुक की आवाज, बादल गरजने की आवाज, पानी बरसने की आवाज, शंख बजने की आवाज सुनाई देती है। यह सब नादयोग का हिस्सा है। नादयोग का दूसरा हिस्सा वह है, जिसमें शब्द के साथ-साथ में हम लय हो जाते हैं। इसमें अखण्ड कीर्तन भी शामिल है, संगीत भी शामिल है, ओंकार की ध्वनि भी शामिल है।
नादयोग कानों के माध्यम से शब्दों को सुनने की एक प्रक्रिया है, जो कबीर-पंथ में सिखाई जाती है, और कई मतावलंबियों में सिखाई जाती है। नाथ संप्रदाय में सिखाई जाती है। वह तो मैं नहीं सिखाना चाहूँगा, लेकिन शब्द के माध्यम से अपने आप को लय कर देना, मन को—ध्यान को एकाग्र कर देना, यह भी एक तरीका है। इसके लिए ओंकार की ध्वनि सबसे श्रेष्ठ माध्यम है। अहमदाबाद में एक योगाश्रम है, जहाँ ओंकार की ध्वनि के साथ आदमी के मन को लय करना सिखाया जाता है। मन को लय करते-करते साधक वहाँ पहुँच जाते हैं, जहाँ पर हम अपने मन को ले जाना चाहते हैं। इसमें भगवान तक पहुँचने की वह समाधि-अवस्था भी आ सकती है, जो हर साधक का लक्ष्य है। अभी मैं आपको इसकी प्रक्रिया सिखाने की व्याख्या कर रहा हूँ, विधियाँ नहीं सिखा रहा, वरन् समझा रहा हूँ। इनमें पाँचों का समन्वय हो सकता है और पाँचों में से एक को लेकर भी आगे बढ़ सकते हैं। यह ध्यानयोग की बात मैं आपको बता रहा हूँ।
अगला योग हमारी नासिका से संबंधित है। तीसरी इंद्रिय है—नाक। नाक से हमें क्या करना पड़ता है? नाक से जब हम साँस अंदर खींचते हैं तो सामान्य प्राणायाम करना पड़ता है और प्राणायाम में ध्यान करना पड़ता है। प्राणायाम क्या है? एक ध्यान है। प्राणायाम में पाँच तत्त्वों में ध्यान-ही-ध्यान करते रहिए। जब हम साँस भीतर खींचते हैं तो ध्यान करते हैं कि साँस भीतर जा रही है, अब यह यहाँ तक पहुँच गई, इतनी देर तक रुकी रही, इतनी देर तक बाहर निकली—यह सब ध्यान का हिस्सा है। बाहर कितनी देर तक रुकी हुई है, यह सब ध्यान का हिस्सा है। जब हम प्राणायाम के माध्यम से ध्यान करते हैं तो साँस माध्यम बनती है। इससे मन का निग्रह करते हैं, मन को भागने से रोकते हैं, काबू में लाते हैं, मन को एक काम में लगा देते हैं। तब क्या हो जाता है—प्राणयोग होता है।
बिंदुयोग हो गया, प्राणयोग हो गया, नादयोग हो गया। अब अगला योग आता है, जो हमारी जीभ का है। जीभ का क्या है? बेटे, जीभ का जो ध्यान है, वह जप है। जप किससे होता है? शब्द से। और शब्द कहाँ से निकलता है? हमारी वाणी से निकलता है। इसे जपयोग कहते हैं। जप के भी दो भाग है—जिह्वा का एक भाग उच्चारण करता है, तो दूसरा भाग स्वाद चखता है। जिह्वा का जो भाग स्वाद चखता है, उसके लिए दूसरा अभ्यास कराते हैं और उसका नाम है—'खेचरी मुद्रा'। इस तरह जीभ का उच्चारण वाला अभ्यास है—जपयोग एवं स्वाद वाला अभ्यास है—खेचरी मुद्रा। खेचरी मुद्रा वाले अभ्यास से रसानुभूति होती है। रस के माध्यम से हम ध्यान को एकाग्र करते हैं। मन के एकाग्र होने के पश्चात हमारे पास इतना बड़ा हथियार आ जाता है कि उसकी तुलना में और कोई हथियार नहीं है। ये सारे-के-सारे पाँच ध्यान हैं, पाँच योग हैं, जो पाँचों इंद्रियों के माध्यम से हम आपको यहाँ सिखाते हैं। ये गायत्री की पंचकोशीय साधना से आसान हैं, जिनको हम सिखाते हैं।
मित्रो! हमने आपकी उपासना में इन्हें कैसे समन्वय किया हुआ है और समन्वय के साथ-साथ इसकी कैसे वृद्धि होनी चाहिए, यह सब आगे अच्छी तरह से समझाने की कोशिश करेंगे। अभी तो हम इसकी भूमिका बता रहे हैं, कल से मैं आपको बताऊँगा कि इन पाँचों योगों का सम्मिश्रण हमने किस तरह से किया हुआ है। गायत्री उपासना में ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र करने के लिए जो पहला उसूल आता है, उसको हमने आपको पहले भी बताया है, उसे आप न भूले होंगे। ध्यान के लिए गीता में जो उपाय बताए गए हैं, यदि उन्हें आप अपनाएँ तो आपका ध्यान सार्थक हो जाए। गीता में अर्जुन पूछता है कि भगवान! यह मन तो हवा की तरह है, भाग जाता है, काबू में नहीं आता, रोकने से भी नहीं रुकता। इसको कैसे रोकें? तो उन्होंने जो उपाय बताए. उनके नाम हैं—वैराग्य और अभ्यास।
मन को काबू करने के उपाय
महाराज जी! वैराग्य क्या होता है? बेटे! वैराग्य यह होता है कि जिन चीजों में मन के भागने की बहुत आदत है, उन आदतों से उसको विरक्त कर दिया जाए। आपको हमने ध्यान का पहला लक्षण यह बताया था कि आप कृपा करके जब तक यहाँ हैं, अपने घर की आदतों से छुटकारा पा लीजिए, उन आदतों पर विचार करना छोड़ दीजिए। कई योगाभ्यासों में ऐसे भी नियम है कि अख़बार पढ़ना बंद कर देते हैं। चिट्ठी-पत्री के लिए मना कर देते हैं और डालना ही है तो गुरुजी के नाम डालिए। कोई बहुत आवश्यक बात होगी तो वे हमें बता देंगे। इससे क्या फायदा होगा? बेटे, यहाँ जो आप ध्यानयोग के लिए आए थे, जो आध्यात्मिक लाभ उठाने के लिए आए थे, उससे आपका ध्यान बार-बार वहाँ जाएगा, बार-बार वहीं बना रहेगा। आपको अपने अंतरंग जीवन में प्रवेश करने का जो अध्यास हम यहाँ लाना चाहते थे, इससे आपको उसमें सफलता कभी नहीं मिल सकती। हमने आपको उस दिन भी कहा था कि आप अपनी सांसारिक समस्याओं को लिखकर हमारे हवाले कर दें और फिर आप मिशन पर जाएँ। नहीं साहब! हमारी दुकान का बहुत नुकसान हो जाएगा। तो बेटे, फिर दो ही उपाय हैं—या तो तू दुकान पर चला जा या फिर नुकसान उठाना बरदाश्त कर या फिर हमारे ऊपर छोड़ दे। गुरुजी! हम महीने भर यहाँ रहेंगे तो हमारी दुकान का नुकसान होगा। हम सँभाल लेंगे और हमारे ऊपर विश्वास नहीं होता तो नौकर दें। नहीं महाराज जी. इन तीनों में से मैं कोई भी काम नहीं करूँगा। तो फिर क्या करेगा? चिंता करूँगा। बेटे, चिंता करेगा तो यहाँ से भी मारा जाएगा और वहाँ से भी मारा जाएगा।
वैराग्य एवं अभ्यास
मित्रो! मैंने आपसे यह कहा था कि जब तक आप यहाँ पर हैं, तब तक एक वैरागी के तरीके से रहें। मन का अभ्यास बार-बार यहाँ से भागने का है, अत: उसे रोकने का प्रयास करें, तभी आपको ध्यानयोग में सफलता मिलेगी। ध्यानयोग की सफलता का अर्थ यह है कि आपकी मानसिक शक्ति इतनी मजबूत होती चली जाएगी कि कुछ ही दिनों में आप इसका चमत्कार देखेंगे। 'हिप्नोटिज्म' में केवल एकाग्रता की शक्ति का उपयोग किया जाता है। योरोप आदि देशों में सम्मोहन के माध्यम से मानसिक शक्ति का प्रयोग किया गया है। इसमें केवल एकाग्रता की शक्ति का प्रयोग होता है। हिप्नोटिज्म क्या है ? मैस्मेरिज्म क्या है ? एक काला गोला लेते हैं और उसके मध्य सफेद बिंदु पर यह ध्यान करते हैं कि हम इस बिंदु के बीच में धँसते चले जा रहे हैं। हमारी ताकत धँसती चली जा रही है। दुनिया में एक ही बिंदु है, और दूसरी कोई चीज नहीं है। काले-सफेद बिंदु को पूरी एकाग्रता से देखते हैं। एकाग्रता से शक्ति आती है, तभी तो बेहोश करने से लेकर मैस्मेरिज्म तक बहुत तरह के लाभ मिलते हैं। नजर लगने में एकाग्रता की शक्ति काम करती है। आँख से देखकर किसी को अच्छा करने में एकाग्रता की शक्ति काम करती है। बहुत-सी चीजें हैं, जो एकाग्रता से संबंध रखती हैं। आँखों में से एकाग्रता की शक्ति बाहर भी निकलती रहती है।
अजगर की एक विशेषता होती है, वह अपनी आँखों की ताकत से सब चीजों को गिरा लेता है। वह पेड़ के नीचे बैठा रहता है और सिर ऊपर की ओर करके पेड़ पर बैठे हुए बंदर या पक्षी को एकटक देखता रहता है। बंदर या पक्षी नीचे गिरता है और उसे वह निगल जाता है। इसी तरह शिकारी लोग शेर का शिकार करने के लिए दूर जंगल में बकरा बाँध देते हैं। जब तक शेर की आवाज सुनाई देती है, गंध आती है, तब तक बकरा चिल्लाता है और जैसे ही शेर दिखाई देता है, ऐसे चुपचाप खड़ा हो जाता है, मानो हाथ जोड़कर कह रहा हो कि आप मुझे खा लीजिए। बंदरों के बारे में भी यही सुना है कि बंदर जहाँ होता है, वहीं-का-वहीं बैठा रहता है, न भागता है, न भाग सकता है और मारा जाता है। यह क्या चीज होती है? यह एकाग्रता की शक्ति है, जो हिप्नोटिज्म के नाम से, आँखों के प्रभाव के नाम से, प्रतिभा के नाम से जिस भी आदमी में पाई जाती है, वह सब एकाग्रता का चमत्कार है।
एकाग्रता के चमत्कार
मित्रो! एकाग्रता के चमत्कार, एकाग्रता की शक्ति के बारे में भला मैं आपको क्या बताऊँ ! ध्यान की एकाग्रता जिसमें आ जाती है, वह फर्स्ट डिवीजन में पास हो जाता है। यह ध्यान की एकाग्रता है। ध्यान की एकाग्रता कालिदास के पास थी, जो उनकी धरोहर थी। ध्यान की एकाग्रता विद्वानों के पास होती है। एकाग्रता से जब वे अपने मन को एक जगह इकट्ठा कर लेते हैं तो हजारों तरह के विचार चले आते हैं। साहित्यकारों से लेकर कलाकारों तक, जितने भी दुनिया में सफल हुए हैं, वे ध्यान की पहली वाली कला, जिसे हम एकाग्रता कहते हैं, पकड़े हुए हैं। यह मनःशक्ति को विकसित करने वाला पहला तरीका है, पहला चरण है।
सूक्ष्म में प्रवेश
साथियो! दूसरा चरण उससे बहुत ऊँचा है। वह हमारे सूक्ष्म जगत से संबंधित है, जिसमें देवी-देवताओं का भी निवास है, जिसमें हमारे भगवान का भी निवास है, जिसमें हमारे अंतरंग जीवन की क्षमताएँ भरी पड़ी हैं, जिन्हें हम सिद्धियाँ कहते हैं। ये सभी एकाग्रता की शक्ति से ही हस्तगत होती हैं। हमारे अंतरंग जीवन में खजाने भरे पड़े हैं। ध्यान के सहारे हम अपने भीतर प्रवेश करके उनको तलाश कर सकते हैं। जमीन में से पानी तलाश करने वाले एक स्वामी जी थे—माधवानन्द जी। उन्होंने राजस्थान में जाकर बहुत जगह बताया था कि यहाँ गड्ढा खोदिए, पानी मिलेगा। पंडित नेहरू से वे मिले थे और उन्होंने उन्हें जल विभाग के हाथ सुपुर्द कर दिया था। कहा था कि स्वामी जी को ले जाइए और जहाँ ये पानी बताएँ, वहाँ पर ट्यूब-वेल लगाइए, जिससे राजस्थान में पानी मिल सकता है। उन्होंने बहुत से कुएँ बनवाए थे। उन्होंने जमीन में गड़ा हुआ धन बताया था, नमक बताया था, अमुक-अमुक चीजें अमुक-अमुक जगह होना बताया था।
मित्रो! यह क्या है? एकाग्रता की शक्ति है। जब यही शक्ति बाहरी जीवन में प्रयुक्त होती है तो टेलीस्कोप की तरह से देखने में समर्थ हो जाती है, लेकिन जब हमारे अंतरंग जीवन में प्रवेश करती है तो सारे-के-सारे सूक्ष्म जगत में विद्यमान रहस्यों को खोलकर रख देती है, जिसमें देवी-देवता भी शामिल हैं। चक्रों के रूप में देवता हमारे भीतर विद्यमान हैं। एक-से-एक बढ़िया चीजें हमारे भीतर विद्यमान हैं, जिनमें कुंडलिनी भी शामिल है। हमारे भीतर दो ध्रुव हैं—एक उत्तरी ध्रुव और एक दक्षिणी ध्रुव। उत्तरी ध्रुव हमारा मस्तिष्क है, जो शक्तियों का पुंज है। इसमें अनेक लोक-लोकांतर की चेतन शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। दक्षिणी ध्रुव हमारा मूलाधार चक्र है। एक हमारा सिर वाला सहस्रार चक्र उत्तरी ध्रुव है और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। पृथ्वी को जो आंतरिक ताकत मिलती है, वह उसके दोनों ध्रुवों से मिलती है। इसी तरह हमारे भीतर विद्यमान दोनों ध्रुव शक्तिशाली जेनरेटर की तरह लगे हुए हैं। उनकी शक्ति के बारे में मैं क्या कह सकता है, किंतु ये दोनों सोए हुए पड़े हैं। सोई हुई चीज को ठीक करने के लिए क्या बाहरी शक्ति काम कर सकती है? नहीं कर सकती। हमारे भीतर कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती।
हमारे भीतर एक ही चीज प्रवेश कर सकती है और वह है—ध्यान। अगर हम अपनी मन:शक्ति को ध्यान द्वारा एकाग्र करना सीख लें, ध्यान को एक ताकत बना लें तो सब कुछ हस्तगत हो सकता है। ध्यान को जहाँ कहीं भी, जिस स्थान पर भी हमने भेजा है, एक चमत्कार देखा है। ध्यान की शक्ति अगर हृदय पर लगा दी जाए और हृदय से कहा जाए कि भाईसाहब, आपको बंद होना है तो उसका धड़कना बंद हो जाता है और आदमी समाधि में चला जाता है। लोग ६-६ महीने समाधि में रह सकते हैं। बस, करना इतना होता है कि ध्यान की स्थिति में मन को कहते हैं कि भागना मत और मरना भी मत। ये दो काम मत करना। समाधि में मन चला भी जाता है।
योग से सिद्धि
समाधि का एक वर्णन आता है। पंजाब में एक महात्मा थे—संत हरिदास जी। उस जमाने में पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह थे। कोई एक रेजीडेंट आया और उनसे कहा कि मैंने सुना है, आपके यहाँ कोई योगी समाधि ले लेते हैं, मर जाते हैं और फिर जिंदा हो जाते हैं। हाँ साहब! बात तो ठीक है, हम आपको दिखा सकते हैं। उन्होंने महात्मा स्वामी हरिदास जी को बुलाया और कहा कि ये मेरठ से आए हैं, अंगरेज हैं और यह देखना चाहते हैं कि क्या मरा हुआ आदमी जिंदा हो सकता है? स्वामी जी ने कहा कि हम दिखा सकते हैं।
अंगरेज ने कहा कि अगर ये चालाकी करते हैं तो हम पकड़ लेंगे। ठीक है, आप चालाकी पकड़ लेना। निश्चित हुआ कि स्वामी हरिदास छह महीने के लिए समाधि लेंगे। जमीन में गड्ढा बना दिया गया। उसमें स्वामी जी को बैठा दिया गया और ऊपर से बंद कर दिया गया। अंगरेज रेजीडेंट ने कहा कि इसे तो कोई भी खोल लेगा, हवा पहुँचा देगा, पानी पहुँचा देगा, भोजन पहुँचा देगा चालाकी हो सकती है। उन्होंने दो इंतजाम किए। एक तो पहरा बैठा दिया और दूसरा उसी जगह पर उसी समय गेहूँ बो दिया, ताकि जब गड्ढा खोदा जाएगा तो गेहूँ पहले उखाड़े जाएँगे।
समाधि के ऊपर मिट्टी बिछाई गई और गेहूँ बो दिया गया। ठीक छह महीने बाद उनको खोला गया। खोलने के बाद में स्वामी जी अचेत पाए गए और जब ठीक टाइम आया तो उन्होंने एक लंबी साँस खींची और फिर जिंदा हो गए ।
सब कुछ प्राप्त करना संभव
मित्रो! पुराने जमाने की बात मैं नहीं कहता हूँ। यह तो मैं अभी की बात कह रहा हूँ कि योग के द्वारा सब कुछ हो सकता है। इससे हम अपने शरीर पर नियंत्रण कर सकते हैं, हृदय को बंद कर सकते हैं, हृदय को चालू कर सकते हैं। अपने शरीर के नए-नए जीवकोषों को उलटा पुलटा कर सकते हैं। हमारे जो हॉर्मोन्स गरम हैं, उन्हें ठंडा कर सकते हैं, ठंडे को गरम कर सकते हैं। ये किससे कर सकते हैं? यह सिद्धियों की बात कह रहे हैं, समझदारों की बात कह रहे हैं कि हमारे भीतर जितनी विशेषताएँ हैं, उन्हें अतींद्रिय विशेषता कहते हैं। इन अतींद्रिय विशेषताओं की क्षमता को जगा लेना ध्यानयोग के द्वारा संभव है।
यह तो हुई एक बात और दूसरी? दूसरी यह है कि ध्यानयोग के द्वारा वे विशेषताएँ प्राप्त करना भी संभव है, जिनको हम भगवान कहते हैं, ब्रह्मतत्त्व कहते हैं। ब्रह्मतत्त्व के साथ में हम अपने आप को मिला लें, जो सारे विश्व में छाया हुआ है, जिसके नियंत्रण में सारी सत्ता चलती है। जो विश्व का स्वामी है। जिसके अंतर्गत तमाम सारी चीजों की दिव्य धाराएँ बहती हैं, वह हमारी जीवात्मा का मूल लक्ष्य है। उस लक्ष्य को प्राप्ति और अप्राप्ति, दोनों कहते हैं। प्राप्ति वह है, जो विशुद्ध रूप से भगवान से संबंध रखती है और हमारी जीवात्मा को शांति-संतोष से लेकर के मुक्ति और मोक्ष तक प्रदान करती है। एक स्थिति यह है। दूसरी स्थिति वह है, जिसमें सिद्धियाँ रहती हैं, चमत्कार रहते हैं। हमारे पाँचों शरीरों-कोषों में विशेषताएँ भरी पड़ी हैं, छिपी पड़ी हैं। सौंदर्य हमारे शरीर में छिपा पड़ा है, बल हमारे शरीर में छिपा पड़ा है, श्रम करने की क्षमता हमारे शरीर में छिपी पड़ी है। ऐसी क्षमताओं वाला हमारा सूक्ष्मशरीर है, प्राणशरीर है। पाँचों कोष हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, विलक्षणताएँ हैं, जिनको सिद्धियाँ और चमत्कार कहते हैं।
इनको प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ेगा? बेटे, इसके लिए हमारे पास एक ही हथियार है और उसका नाम है—ध्यानयोग। ध्यानयोग किसे कहते हैं ? योग को। योग की व्याख्या कीजिए? योग की व्याख्या है—ध्यानयोग। ध्यानयोग के बहुत से तरीके हैं। इनमें से थोड़े-थोड़े तरीके हम आपको सिखाते हैं। आपको साधना की ज्यादा जानकारियाँ मैं बाद में दूँगा। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥