उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
भक्ति संबंधी भ्रांतियाँ एवं उसका सच्चा विज्ञान भाग-१
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
सीपों और बाँसों की शिकायत
देवियो-भाइयो! जब स्वाति नक्षत्र आया और स्वाति नक्षत्र में वर्षा हुई तो बरसात से सीपों में मोती पैदा हो गए। बाँसों में वंशलोचन पैदा हो गए। सबने खुशियाँ मनाईं, लेकिन बहुतों ने ये शिकायत की कि हमारे अंदर मोती क्यों नहीं पैदा हुए? थोड़ी-सी सीपों के अलावा सभी सीपें इकट्ठी होकर जमा हो गई और शिकायत करने लगी कि आपने हमारे अंदर मोती क्यों नहीं पैदा किए? हमारी पुकार को क्यों नहीं सुना? स्वाति की बूँदों ने जवाब दिया कि आप में से जिन सीपियों ने मुँह खोलकर रखा था और जिन सीपों में मोती पैदा करने की ताकत थी, उनको हमारी सहायता मिली और मोती पैदा हो गए। जिन सीपों की बनावट ऐसी नहीं थी कि उनमें मोती पैदा किए जा सकें और जिन सीपों ने मुँह नहीं खोले, वे खाली हाथ रह गईं और खाली हाथ रहना पड़ेगा। जिन बाँसों के पेड़ों के अंदर सूराख नहीं थे, उनमें वंशलोचन पैदा नहीं हो सका। पेड़ों की शिकायत अपनी जगह पर कायम और स्वाति बूँदों की सफाई अपनी जगह पर कायम। ये शिकायतें तो होती रहेंगी और होती रहनी चाहिए कि हमने भगवान की भक्ति की, पूजा की, उपासना की, जप-अनुष्ठान किए फिर भी हम खाली हाथ रह गए। शिकायत अपनी जगह पर सही और जवाब एवं समाधान अपनी जगह पर सही है। आपने मुँह क्यों नहीं खोला? अपने अंदर विशेषता पैदा क्यों नहीं की? जिससे हमारी स्वाति की बूँदें तुम्हारे अंदर प्रवेश करने के बाद में मोती बना देने में समर्थ होती। तुमने यह क्यों नहीं किया?
चट्टानों को भी है शिकवा
मित्रो! एक बार बहुत जोर से वर्षा हुई। सब जगह पानी-ही-पानी दिखाई देने लगा, लेकिन चट्टानों ने शिकायत की कि हमको इस पानी से कुछ भी फायदा नहीं हो सका। वर्षा ने हमारे साथ अन्याय किया, पक्षपात किया। हजार वर्षों से एक भी घास पैदा नहीं हो रही है। हजारों इंच वर्षा हो गई, पर घास का एक तिनका तक पैदा नहीं हुआ। तो क्या यह शिकायत गलत है? बिलकुल सही है। सौ फीसदी सही है। यह बादलों का बड़ा अन्याय व पक्षपात है। ये कहीं हरियाली पैदा करते हैं, कहीं तालाब बना देते हैं, लेकिन इन चट्टानों को कोई फायदा नहीं पहुँचा सकते। क्यों साहब! ये शिकायतें सही हैं? हाँ, शिकायतें तो बिलकुल सही हैं, लेकिन जवाब उससे भी ज्यादा सही हैं। आपने अपने अंदर मुलायमियत क्यों पैदा नहीं की? अगर आपने अपने अंदर मुलायमियत पैदा की होती, अपने भीतर गड्ढे बनाए होते, तो हमने आपके भीतर तालाब, झरने, गड्ढे भर दिए होते। आप क्यों नहीं अपने भीतर गड्ढे बनाते? मुलायमी क्यों नहीं अपने भीतर पैदा करते?
साथियो! समाधान अपनी जगह पर सही है। भगवान अपनी जगह पर सही है और भक्त अपनी जगह पर सही है। हमने आपका जप, ध्यान, पूजन किया, अनुष्ठान किया, भजन किया। वो तो सब कुछ ठीक है आपका, लेकिन जप-पूजन किस काम के लिए किया जाता है, वह काम आपने क्यों नहीं किया? तो आपको रिझाने के लिए कौन-सा काम किया जाता है? नाच-कूद करते तो हैं। भगवान को रिझाने के लिए नाच-कूद करने की कोई जरूरत नहीं है। आपका नाच-कूद देखने के लिए भगवान को फुरसत नहीं है। बाजीगर तरह-तरह की छलाँग लगाते, तमाशे दिखाते हैं। बच्चों को बहकाने के लिए यह काफी है, लेकिन बड़े आदमियों को उन बहकावों को देखने की कोई फुरसत नहीं है।
पात्रता है कि नहीं?
मित्रो! आपका अनुष्ठान देखने के लिए गायत्री माता को फुरसत नहीं है। उनके पास जरा-सा भी समय नहीं है कि आप कितना नाच-कूद कर सकते हैं, कितनी बाजीगरी दिखा सकते हैं और कितनी तरह के खेल-खिलौने कर सकते हैं। आपका खेल-खिलौना देखने को उनको फुरसत कहाँ है? उनको एक ही चीज देखने की फुरसत है कि आपके अंदर पात्रता कितनी है। आपको कोई सुख मिला या और कोई दूसरी बात हुई, यह न किसी को सुनने की जरूरत है और न किसी के सुनने से फायदा है। आध्यात्मिकता का एक ही उद्देश्य है और दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है, वह उद्देश्य यह है कि आदमी की पात्रता का विकास हो। बादल पानी तो बरसा सकते हैं, लेकिन पानी से फायदा उठाने के लिए कोई-न-कोई बरतन घर में रखना पड़ेगा। एक कटोरी आपके आँगन में रखी है तो एक ही कटोरी पानी मिलेगा। यदि एक बालटी आँगन में रखी है तो आपको एक बालटी भर पानी मिलेगा। एक गड्ढा बना करके रखा है तो गड्ढा भर पानी मिलेगा।
मित्रो! आपको भगवान से, बादलों से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए। आप अपने आपसे शिकायत कीजिए कि अपने अंदर हमने पात्रता का विकास क्यों नहीं किया; जिसकी वजह से भगवान जी को झख मारकर आना पड़ता। अब तो मैं ये कहता हूँ कि भगवान जी को झख मारकर हमारे चरण चूमने पड़ते, जैसे कि हम भगवान जी के चरण चूमते हैं। आप भगवान को मजबूर कीजिए, भगवान पर दबाव डालिए और भगवान को विवश कर दीजिए, लाचार कर दीजिए, इस बात के लिए कि वे आपकी मदद करें और सहायता करें। आप लाचार क्यों नहीं करते भगवान जी को? आप भगवान जी को लाचार कीजिए—अपने चरित्र के द्वारा, अपने गुण, कर्म और स्वभाव के द्वारा। वास्तव में भक्ति का सारा आधार जो खड़ा हुआ है, वह भगवान के ऊपर दबाव डालने के लिए नहीं है, वरन अपने ऊपर दबाव डालने के लिए है। भक्ति अपने भीतर प्यार और मुहब्बत जगाने के लिए की जाती है।
कब माने कि भक्ति का विकास हो रहा है
साथियो ! हमारे भीतर प्यार का माद्दा जगे, हमारे भीतर मुहब्बत का माद्दा जगे तो समझना चाहिए कि हमारे भीतर भक्ति का विकास हो रहा है। अभी तो हमारा दिल पत्थर जैसा कठोर, चट्टान जैसा कठोर है, जिसके कारण हमको किसी के ऊपर दया नहीं आती है। हम किसी के दुःख से पिघलते नहीं हैं; क्योंकि मुरगी मरती है तो मरे, हमको तो जायका चाहिए। जीभ को जायका चाहिए। अरे साहब! मुरगी की जान चली जाएगी तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। जान निकलती रहे, आप हमको विटामिन लाकर दीजिए। बेटे! हम पत्थर के बने हुए हैं, कठोर बने हुए हैं। हम चट्टान हो गए हैं, हमें किसी के ऊपर दया-धर्म करने की जरूरत नहीं है। हमारे पड़ोस के आदमी दुखी फिरते हैं तो फिरें, हम क्या कर सकते हैं? दूसरों को हमारी सेवा की जरूरत है तो हम क्या कर सकते हैं? हमारा पैसा, जो अय्याशी में खरच होता चला जा रहा है, जो संग्रह में खरच होता चला जा रहा है, जो निठल्लों और निकम्मों के लिए जमा होता हुआ चला जा रहा है। आपकी एक-एक पाई की उन लोगों के लिए जरूरत है जो पिछड़ गए हैं, जो घायल होकर गिर पड़े हैं, उन्हें आपके पैसे की जरूरत है।
नहीं साहब! हम तो अपना पैसा किसी को नहीं दे सकते। हम तो जमा कर सकते हैं और अपनी औलाद को दे सकते हैं। अरे! तू पत्थर का, चट्टान का बना हुआ है, फौलाद का बना हुआ है, ऐसी धातु से बना हुआ है, जिसे हम अष्टधातु कह सकते हैं। तेरा कलेजा अष्टधातु का बना हुआ है, फौलाद का बना हुआ है। अष्टधातु का, फौलाद का जिनका दिल बना हुआ है, उन्हें किसी के ऊपर दया नहीं आती। वे सेवा करने के लिए जरा भी तैयार नहीं होते। अपनी धुलाई और सफाई करने में तनिक भी विश्वास नहीं करते। मित्रो! मैं कैसे कह सकता हूँ कि यह भक्ति है?
घिनौनी भक्ति-विडंबना भरा स्वरूप
मित्रो! भक्ति का स्वरूप पिछले दिनों बहुत ही घिनौना होता हुआ चला गया। लोगों ने परावलंबन का
अर्थ भक्ति समझा। भगवान जी की खुशामद कीजिए, चापलूसी कीजिए और भगवान जी से ये माँगिए, भगवान जी से वो माँगिए। यह परावलंबन आध्यात्मिकता के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ है। भीख माँगना अध्यात्मवाद के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। मुझसे अगर कोई ये कहे कि चोर बुरा होता है या भिखारी? तो मैं दोनों का मुकाबला करते हुए चोर को कम सजा दूँगा और भिखारी को ज्यादा सजा दूँगा; क्योंकि भिखारी ने अपना ईमान गँवा दिया, अपनी आस्था गँवा दी, अपना स्वाभिमान गँवा दिया और सब कुछ गँवा दिया। भीख माँगने के लिए उतारू हो गया। चोर ने भीख नहीं माँगी। चोर ने कहा कि जो कोई जोखिम होगा, सो उठाएँगे। हम अपनी इज्जत नहीं गँवा सकते और किसी के आगे पल्ला नहीं पसार सकते। पल्ला न पसार करके चोर चला गया और डाका डालने लगा, जेब काटने लगा। जोखिम उठाकर के चोर छत पर चढ़ गया। कुत्ता काट खाएगा तो काट खाए, जख्म हो गया तो हो जाए। जेल जाना पड़े तो जाएँगे, पिटाई होगी तो खाएँगे, लेकिन किसी आदमी के सामने हम अपनी इज्जत-आबरू नहीं गवाएँगे और किसी के सामने फोकट में कुछ माँगने के लिए चापलूसी नहीं करेंगे।
परावलंबी मत बनिए
साथियो! भिखारी की बनिस्बत मुझे चोर पसंद है। नापसंद तो मैं चोर को भी करता हूँ, लेकिन भिखारी को ज्यादा नापसंद करता हूँ; क्योंकि भिखारी ने अपना स्वावलंबन गँवा दिया। भिखारी ने अपना आत्मसम्मान गँवा दिया, आत्मगौरव गँवा दिया। बेटे! जिसने अपना आत्मगौरव गँवा दिया, वह खाली हो गया, निरर्थक हो गया। अब यह अगर भगवान का भक्त हो गया तो भी मैं क्या कर सकता हूँ? मित्रो! भगवान की भक्ति का तरीका तो आपको मालूम होना चाहिए। सुदामा जी इच्छा लेकर के भगवान श्रीकृष्ण के पास गए थे कि उनको कुछ मिलना चाहिए। सुदामा से भगवान जी ने कहा—"भाईसाहब! हमारे यहाँ कायदा कुछ अलग है। हम पहले लोगों से कुछ माँगते हैं कि आपके पास क्या है निकालिए? तब हम आपको देने के लिए तैयार हैं। जो भी आपके पास हो, पहले हमारे हवाले कीजिए, फिर हम विचार करेंगे कि हमारे पास जो है, सो हम आपको दे सकते हैं कि नहीं दे सकते।" सुदामा जी अपनी पोटली बगल में दबाए बैठे थे, संकोच की वजह से। उन्होंने कहा—"भगवान की भक्ति का तरीका यहाँ से प्रारंभ होगा कि आपकी पोटली में जो कुछ भी है, उसे हमारे हवाले कीजिए।" भगवान जी ने जबरदस्ती उनसे पोटली छीन ली। पोटली जब खाली हो गई तब भगवान जी ने कहा—"अच्छा आप खाली हो गए, लीजिए अब हम भी खाली होते हैं।" भगवान जी के पास जो कुछ भी सामान था, वह सब उन्होंने द्वारका से पोरबंदर भेज दिया, सुदामानगरी को भेज दिया। उन्होंने कहा—"आप खाली हो गए हमारे लिए और हम खाली हो गए आपके लिए।"
मित्रो! भक्ति की बात यहाँ से शुरू हुई है, आप भी वहीं से शुरू कीजिए। ऐसा नहीं हो सकता कि ये हमारी चीज है और हम इसे बगल में दबाकर रखेंगे, लेकिन आपसे लेंगे। बेटे! ये संभव नहीं है, हम खुशामद कर सकते हैं, चापलूसी कर सकते हैं, चावल, धूपबत्ती खिला सकते हैं। मुबारक हो आपकी धूपबत्ती और चावल, आप इसे अपने पास रखिए। अच्छा साहब! तो हम चौबीस हजार जप करके सुना सकते हैं। वह भी आपको मुबारक। चौबीस हजार जप सुनने की अपेक्षा हमारे लिए ये ज्यादा अच्छा है कि सीलोन रेडियो लगा लें और अपना टेपरिकॉर्डर खोल लें, रिकॉर्डप्लेयर खोल लें और लता मंगेशकर के बढ़िया-बढ़िया गाने सुनें। चौबीस हजार अनुष्ठान सुनने की हमें फुरसत नहीं है। आपके चौबीस हजार के अनुष्ठान में कोई गाना नहीं है, कोई बजाना नहीं है। चल-पागल कहीं का।
भक्ति का विज्ञान समझें
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको असलियत समझनी पड़ेगी। असलियत कड़वी है तो रहे, भक्ति का विज्ञान आपको जानना चाहिए। भक्ति का विज्ञान है—आदमी की जिंदगी में मुहब्बत का सराबोर होना। हम भगवान की इस व्यायामशाला में भक्ति का अभ्यास करते हैं, प्यार का अभ्यास करते हैं, मुहब्बत का अभ्यास करते हैं। प्यार करने का अभ्यास कैसे किया जाता है? प्यार कैसे होता है, जरा बताना? प्यार करने का दुनिया में एक ही तरीका है कि जिसको हम मुहब्बत करते हैं, उसको कुछ दें। बच्चे को हम प्यार करते हैं तो उसके लिए खिलौने, टॉफी आदि लाकर देते हैं। गुब्बारा और कपड़े लाकर देते हैं। क्योंकि हम उसको प्यार करते हैं। बीबी को हम प्यार करते हैं, उसके लिए सेंट की शीशी लाकर देते हैं, रूमाल, साबुन, कंघा, नायलॉन की साड़ी लाकर देते हैं। सिनेमा का टिकट लाकर देते हैं। प्यार-मुहब्बत में देने के अलावा और कुछ नहीं है। भगवान की भक्ति अगर आपके पास है तो आप देना शुरू कीजिए, जैसे हम धूपबत्ती, चंदन, रोली, मिष्टान्न, फूल आदि लाकर देते हैं। दीजिए, देने से शुरू होती है भगवान की भक्ति। भक्ति का मतलब है मुहब्बत और मुहब्बत का मतलब है—देना।
देने के बाद लें
मित्रो! जब हम देना शुरू करते हैं तो क्या हो जाता है? हमारा वो अधिकार हो जाता है कि पाने के लिए हम अपने आपको पात्र साबित कर सकें। हम नाक से गंदी हवा निकाल देते हैं तो इस बात के अधिकारी हो जाते हैं कि हमको नई वाली साँस मिले। पेट में.से जब हम भरे हुए मल को निकाल देते हैं तो इस बात के अधिकारी हो जाते हैं कि नई खुराक हम पाएँ। नई खुराक पाने के लिए देना आवश्यक है। पेड़ पुराने वाले पत्ते जब गिरा देते हैं तो बाद में मिलती हैं नई कोंपलें। नहीं साहब! हमको कोंपलें दीजिए तब हम अपने पुराने पत्ते गिराएँगे। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता, पहले पुराने पत्ते गिरा तब नई कोपलें पा। नहीं साहब! हम पुराने पत्ते कायम रखेंगे और नई कोपलें भी दीजिए। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। हम आपको बढ़िया-से-वढ़िया नई कोपलें देंगे, लेकिन पहले पत्ते गिराकर दिखाइए। नहीं साहब ! पुराने पत्ते हम नहीं गिरा सकते। नहीं बेटे! पुराने पत्ते गिराने पड़ेंगे तब नई कोपलें मिलेंगी। भक्ति इसी का नाम है। भक्ति भावावेश का नाम नहीं है, जैसा कि आम लोग समझते हैं।
भावावेश नहीं है भक्ति
आम लोग भावावेश को भक्ति कहते हैं। उनकी दृष्टि में भक्ति कैसी होती है? भक्ति ऐसी होती है, जैसे आदमी नाचते हैं, कूदते हैं, उछलते हैं, आँखों में से आँसू बहाते हैं। ऐसी भक्ति का तमाशा तो मैंने कई जगह देखा। अब मैं नाम नहीं बताना चाहता; क्योंकि आप लोग स्वयं जानते होंगे। एक बार मैं वहाँ गया तो लोग मुझे कीर्तन में ले गए। बोले—अरे साहब! ऐसा कीर्तन तो आपने कभी नहीं देखा होगा, हम ऐसा कीर्तन दिखाकर लाएँगे। चला गया वहाँ, मैंने अपनी जिंदगी में ऐसा बढ़िया कीर्तन कभी नहीं देखा था। लोग ऐसे नाच रहे थे और नाचते-नाचते इस कदर बेहोश हो जाते थे, जैसा चैतन्य महाप्रभु के बारे में सुना है। चैतन्य महाप्रभु के बारे में सुना था कि भक्ति में जब वे कीर्तन करते थे तो बेहोश हो जाते थे, गिर पड़ते थे और जो कोई आ जाता था, उससे लिपट जाते थे और रोने लगते थे, हँसने लगते थे। उनके होश-हवाश गायब हो जाते थे। ठीक ऐसा ही कीर्तन मैंने एक बार देखा—लोग 'हारे-रामा-हारे-कृष्णा।' गा रहे थे, आपस में लिपट गए, गिर पड़े, उठा लिए, बड़ा मजेदार कीर्तन हो रहा था। मैंने कहा कि भाई! यह बहुत जबरदस्त कीर्तन है। अरे गुरुजी! आपको मालूम नहीं, ये क्या मामला है? क्या है, बताइये? रविवार का दिन है। इन्होंने सुबह ही सब इंतजाम कर रखा है। ये लोग वकील, मुंशी आदि बहुत बड़े लोग हैं और ये सब शराब पीते हैं, शराब पी कर के इन्होंने इसे भक्ति का रूप बना लिया है। कीर्तन करते हैं और ये सब शराब के नशे में धुत्त हैं। धुत्त होकर, 'हारे रामा-हारे कृष्णा' कर रहे हैं। उछल-कूद कर रहे हैं, आँसू टपका रहे हैं। कह रहे हैं भावावेश आ गया, भक्ति का भूत आ गया, भूत की भक्ति आ गई। क्या यही भक्ति है? पागल कहीं का।
मित्रो! भक्ति ऐसी नहीं हो सकती। भक्ति का इन भावों से कोई ताल्लुक नहीं है। ये क्षणिक आवेश हैं। अभी क्षण भर में प्रेम का आवेश आ सकता है और अभी क्षण भर में बुराई का आवेश आ सकता है। आवेशों में कोई दम नहीं है और न कोई सार्थकता है। हाँ, है तो निरर्थकता मात्र। मित्रो! भक्ति का ताल्लुक जैसा आम लोगों ने समझा है, वैसा है नहीं। गुरुजी ! पहले हमको भगवान पर बड़ा प्यार आता था, पर अब तो ठंढा हो गया। बेटे! वो तो भावावेश है, जब किसी आत्मीय व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो आदमी को बड़ा रोना आता है। छह महीने बाद जब कोई पूछता है कि आपके पिताजी मर गए थे तो वही कहता है कि हाँ साहब! पिताजी बुड्ढे थे और मर गए। अब तो हमारा सारा काम चल रहा है, तब तो हमें बड़ा रोना आता था। रोना क्या है? भावावेश है। इसी तरह विवाह हुआ था तो बड़ी खुशी हो रही थी। बड़े उछल रहे थे कि आज विवाह हो रहा है। विवाह हुए दो वर्ष हो गए। क्यों साहब! विवाह का दिन है, आज तो प्रसन्न हैं? अरे साहब! विवाह क्या हुआ, आफत आ गई। बीबी आ गई, बाल-बच्चे हो गए। अब तो कोई खुशी नहीं है, उस दिन तो कितनी खुशी थी। भावावेश कभी टिकाऊ नहीं होता है।
भक्ति एक दर्शन, एक विज्ञान
साथियो! भावावेश कभी किसी के टिकाऊ नहीं हो सकते। भावावेश जाएगा तभी भक्ति आएगी। भक्ति को अगर आप भावावेश मानते हैं तो मैं कहता हूँ कि आप गलती पर हैं। भक्ति का अर्थ आप नाच-कूद मानते हैं और नाच-कूद कर भगवान को पाने का स्वाँग बनाते हैं तो मैं कहूँगा कि ये आपका विशुद्ध भावावेश है और अज्ञान है। भक्ति एक सिद्धांत पर टिकी हुई है, भक्ति एक आदर्श पर टिकी हुई है। भक्ति एक फिलॉसफी है, भक्ति एक जीवन की प्रक्रिया है। अगर आप उसको ग्रहण कर सकते हों तो मैं आपको वचन दे सकता हूँ, विश्वास दिला सकता हूँ कि भक्ति आपका फायदा करके जरूर दिखाएगी और भक्ति के चमत्कार आपको जरूर देखने को मिलेंगे, लेकिन भक्ति सही होनी चाहिए। भक्ति का यही अज्ञान इस समय सब जगह फैला हुआ है। भक्त और भक्ति दोनों ही डूबने वाले हैं। मित्रो! भक्ति का एक इतिहास मैं देखता हूँ कि पिछले दिनों इसका कितना बड़ा रिएक्शन हुआ था, कितनी बड़ी प्रतिक्रिया हुई थी। ऋषियों ने, तत्त्वदर्शियों ने कहा था कि ऐसी भक्ति बेकार है, हटाओ इस भक्ति को जो व्यक्ति को कर्त्तव्य विमुख बनाती हो।
मित्रो! जब भगवान भक्ति के बिना प्रसन्न नहीं हो सकते तो चलिए हम भक्ति के धुर्रे उखाड़ते हैं। भगवान बुद्ध आए। उनने शून्यवाद की स्थापना की। शून्यवाद माने नास्तिकवाद। नास्तिकवाद माने भगवान ऐसा नहीं है, जो खुशामद से पाया जा सकता हो, चापलूसी से पाया जा सकता हो। भगवान बुद्ध की सारी फिलॉसफी पढ़िए। वह शून्यवाद फिलॉसफी है। उन्होंने कहा कि कोई भगवान नहीं है, शून्य है। उन्होंने भगवान को मानने से इनकार कर दिया और कहा कि दुनिया में कोई भगवान नहीं है। जब यह बुद्धवाद सारी दुनिया में तेजी से फैलता हुआ चला गया तो क्या आप समझते हैं कि आस्तिकता के सिद्धांत भगवान को न मानने से कमजोर हो गए? नहीं। सिद्धियों की उनमें कमी आ गई? नहीं। चमत्कार में कोई कमी आ गई? नहीं आई। मनुष्य के गौरव-गरिमा में कोई कमी आ गई? नहीं, कोई कमी नहीं आई। उन्होंने वह आधार हटा दिया तो भी भगवान को मानने से इनकार कर दिया तो भी कोई कमी नहीं आई।
बुद्ध का उदाहरण
मित्रो! बुद्ध स्वयं भगवान हो गए और भगवान के अंदर जो विशेषताएँ होनी चाहिए, जो गौरव-गरिमा होनी चाहिए, चमत्कार होने चाहिए, जो सिद्धियाँ होनी चाहिए, वे सब उनके अंदर थीं। अंगुलिमाल उनके सामने आया तो काँपने लगा। उन्होंने कहा कि तेरे पास तलवार की ताकत है तो चला। अंगुलिमाल जब तलवार चलाने को उद्यत हुआ तो उन्होंने कहा कि हमारे पास आकर तलवार चला, वहाँ से क्या दिखाता है? पास आया तो काँपने लगा। जमीन पर गिरा तो भगवान बुद्ध ने उसकी तलवार को उठा करके अलग फेंक दिया। उन्होंने कहा—"मूर्ख किस पर तलवार चलाता है? आत्मा पर तू तलवार चला सकता है? आ इधर, उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा कि जा, आज से तू डाकू नहीं, संत है।" अंगुलिमाल डाकू संत हो करके चला गया। हिंदुस्तान से बाहर उसे विदेश भेज दिया। कंबोडिया गया, वर्मा गया, जावा गया, सुमात्रा गया और जितने मध्यपूर्वी देश हैं उनमें अंगुलिमाल घूमता रहा।
इसी तरह आम्रपाली नामक एक वेश्या आई थी भगवान बुद्ध का शील डिगाने के लिए। जब उनके पास आई तो काँपने लगी और काँपकर जमीन पर गिर पड़ी और यह कहने लगी कि पिताजी मैं तो नरक की एक कीड़ी हूँ, आपके पास उद्धार पाने के लिए आई हूँ। उन्होंने कहा—"बेटी! तू नरक की कीड़ी नहीं है, तू कन्या है।" आज से तेरे अंदर की वेश्या की मृत्यु हो गई। आज से तेरे भीतर से संत का जन्म हो गया। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा तो आम्रपाली वेश्या से संत हो गई और संघमित्रा के तरीके से वह हिंदुस्तान से बाहर गई थी। वह श्रीलंका और दूसरे देशों में गई और उसने ढेरों-के-ढेरों विहार बनाए थे। नालंदा का बौद्धविहार उसी के पैसे से बना था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का जीर्णोद्वार हर्षवर्द्धन के पैसे से हुआ था, लेकिन नालंदा के विश्वविद्यालय का विकास आम्रपाली के पैसों से हुआ था। भगवान बुद्ध ने उसकी शान बदल दी। हर्षवर्द्धन को उन्होंने क्या-से-क्या बना दिया। अशोक को उन्होंने क्या-से-क्या बना दिया। समय को उन्होंने कहाँ-से-कहाँ बदल दिया। उस समय जहाँ पाप और अनाचार की धाराएँ बहती चली जा रही थीं, उन्हें अपनी ताकत से उन्होंने उखाड़कर फेंक दिया। वे शक्ति के पुंज थे।
(क्रमशः)
भक्ति संबंधी भ्रांतियाँ एवं उसका सच्चा विज्ञान भाग - २
मित्रो! नास्तिकता की वजह से क्या भगवान बुद्ध में कोई कमी आ गई? नहीं बेटे! कोई कमी नहीं आई और न आ सकती है। भगवान को माने या न माने, किंतु अगर आस्तिकता के सिद्धांत अपने जीवन में धारण कर सकता हो तो आदमी भगवान का सच्चा भक्त हो सकता है। सच्चा ईश्वरवादी हो सकता है, जैसे कि भगवान बुद्ध ईश्वर को न मानते हुए भी हो गए। मित्रो! पिछले दिनों भक्ति के नाम पर फैले अज्ञान ने, जिसे हम परावलंबन कहते हैं, जिसका एक अमेरिकन महिला ने खूब व्यंग्य उड़ाया है। यह महिला हिंदुस्तान आई थी। उसने एक बड़ी मजेदार किताब लिखी है—'स्लेव्स ऑफ दि गॉड्स'—देवताओं के गुलाम। कभी मौका मिले तो आप उसे पढ़ना। हिंदुस्तानियों के ऊपर उसने आक्षेप लगाया है और कहा है कि ये हिंदुस्तानी बौद्धिक दृष्टि से गुलाम हैं और ऐसे जरखरीद गुलाम हैं कि किसी-न-किसी की गुलामी किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। इसलिए उसने यह हिमायत की कि जिस जमाने में यहाँ अँगरेज थे, उस समय हिंदू बिना गुलामी के रह नहीं सकते थे। इसलिए उन्हें किसी-न-किसी का गुलाम रहना पड़ेगा। राजनीतिक दृष्टि से तो क्या, भावनात्मक दृष्टि से भी वे गुलाम हैं।
उसने अपनी पुस्तक में बार-बार आक्षेप लगाया है कि ये गुलाम हैं। देवताओं के बिना ये अपने बच्चों की ब्याह-शादी नहीं कर सकते, क्योंकि शुक्र देवता डूब गया। अब ब्याह नहीं हो सकता। आ हा.....अब सूरज किधर चलेंगे? अब दिल्ली जाना है तो वह कौन-सी दिशा में है? अच्छा दक्षिण दिशा में है। उधर तो बृहस्पति जी दिशाशूल लेकर बैठे हुए हैं। दिल्ली की तरफ गाड़ी में बैठ करके गए तो दिशाशूल तीर-कमान चला देगा और आपको शूल के मारे मार डालेगा। दिल्ली आज मत जाना। ओ हो......ये दिशाशूल जो बैठा हुआ है, अब यात्रा नहीं हो सकती। चूल्हा बनाने के लिए तो मुहूर्त, चक्की बनाने के लिए तो मुहूर्त, शादी करने के लिए तो मुहूर्त, खाने के लिए, टट्टी जाने के लिए, नहाने के लिए—सब काम के लिए मुहूर्त। मुहूर्त के बिना ये कुछ नहीं कर सकते। चारों तरफ बैठे हुए देवी-देवता इनको पकड़ लेंगे और कान उखाड़ देंगे, दाँत तोड़ देंगे। देवताओं के बिना इनका गुजारा नहीं हो सकता।
वास्तविकता क्या?
उसने कहा कि मानसिक दृष्टि से ये इतने परावलंबी लोग हैं कि अपने जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए देवताओं के बिना इनका गुजारा नहीं हो सकता। इसलिए परलोक वाले देवता हों या चाहे न हों, पर अँगरेजों को देवता के रूप में इनके ऊपर रहना चाहिए, नहीं तो ये किसी और के गुलाम हो जाएँगे। अँगरेजों के चंगुल से छूटेंगे तो चायना वालों के गुलाम हो जाएँगे। गुलामी के बिना इनको चैन नहीं है। गुलामी इनकी मनोवृत्ति है। गुलामी इनकी फिलॉसफी, गुलामी इनकी शक्ति है। ऐसा उसने छापा है। जब मैंने उसकी किताब पढ़ी तो पहले मुझे बहुत गुस्सा आया। फिर जब मैंने धीरे-धीरे सारे अध्याय पढ़े, यह जानने के लिए कि देखें इसने जो आक्षेप लगाए हैं, वे हमारे ऊपर लागू होते हैं कि नहीं होते। जब मैंने इस दृष्टि से देखा तो माना कि सौ फीसदी यह बात सही है कि हम मानसिक दृष्टि से गुलाम, अपना भाग्य बनाने के लिए गुलाम, भविष्य बनाने के लिए गुलाम, अपनी समस्याओं को हल करने के लिए गुलाम और अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए देवी-देवताओं के गुलाम हैं। इस मन:स्थिति और परिस्थिति को लेकर तब ढेरों लोग आग-बबूला हो गए थे, पर वास्तविकता तो यही थी।
मित्रो! भगवान को सही तरीके से जानने को लेकर तब एक और भी धर्म फैला हुआ था। उसका नाम था जैन धर्म! जैन धर्म क्या है? जैन धर्म को जरा पढ़िए, उसने भगवान का ऐसा सफाया किया है कि उसका नामोनिशान मिटा दिया गया है। उसने कहा कि कोई भगवान नहीं होता और भगवान की भक्ति की जरूरत नहीं। आप जैन धर्म की फिलॉसफी पढ़िए, जैन धर्म के सिद्धांत पढ़िए, उसमें भगवान का नाम भी नहीं है। उसमें से भगवान का नाम काटकर फेंक दिया गया है। ठोकर मारकर भगवान को भगा दिया है। कौन से भगवान को? जो हमारी मनोकामना पूरी करने में सहायता करता है, उस भगवान को उन्होंने मारकर फेंक दिया है। जैन धर्म में भगवान की कोई गुंजाइश नहीं है। इसी तरह बौद्ध धर्म में भी भगवान की कोई गुंजाइश नहीं है। मित्रो ! भगवान की गुंजाइश तो थी और है ही, लेकिन वो भगवान, जो हमारी चापलूसी से प्रसन्न हो जाता है। वो भगवान, जो हमारी खुशामद का इंतजार करता रहता है। वो भगवान, जिसे हमारी धूपबत्ती के बिना चैन नहीं, वो भगवान, जो हमारे साथ में रियायत और हमारी सिफारिश करता रहता है—हमारे पूजा-पाठ के खेल-खिलौने देख करके। ऐसे भगवान को दोनों धर्मों से हटा दिया गया।
देववाद के नाम पर अज्ञान
मित्रो! हिंदू धर्म में उसी जमाने में एक और क्रांति हुई है। लगभग उसी जमाने में और समकालीन क्रांतियाँ हुईं। तब प्रत्येक क्षेत्र के प्रगतिशील लोगों ने समझा कि यह हमारे लिए नुकसानदेह चीज है। यह हमारे लिए हानिकारक चीज है। यह मनुष्य के उत्थान में कोई सहायता नहीं करती, वरन मनुष्य के अध:पतन में सहायता करती है। देववाद के नाम पर, पूजा-पत्री के नाम पर, मंत्र-तंत्रों के नाम पर, मनोकामना के नाम पर यह जो अज्ञान फैला दिया गया है, सिवाय नुकसान के और कुछ भी नहीं कर सकता। हिंदू धर्म में एक और समकालीन महर्षि हुए हैं। उनका नाम था—जगद्गुरु शंकराचार्य। आद्य शंकराचार्य ने वेदांत की फिलॉसफी का प्रतिपादन किया। वेदांत क्या है? वेदांत का अर्थ है—नास्तिकवाद। नास्तिकवाद का अर्थ क्या होता है? नास्तिकवाद का अर्थ ये होता है कि भगवान के लिए जो परावलंबन है, उसे काटकर फेंक दिया जाए। आप वेदांत के सारे ग्रंथों को पढ़ते चले जाइए, पंचदशी को पढ़ लीजिए, ब्रह्मसूत्र को पढ़ लीजिए, सब ग्रंथों को पढ़ लीजिए और पता लगाकर आइए कि वेदांत में क्या है? अयमात्मा ब्रह्म अर्थात—यह जो आत्मा है, इसी का सफाई किया हुआ हिस्सा, जिसको श्रेष्ठ कहें, भगवान है। तत्त्वमसि, प्रज्ञानं ब्रह्म, चिदानंदोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम्, सोऽहम्—ये सारे-के-सारे जितने भी वेदांत के महावाक्य हैं, ये सिर्फ यह बताते हैं कि आपको भगवान की तलाश में बाहर जाने की और झख मारने की कोई जरूरत नहीं है। भगवान की खुशामद करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
मित्रो! हवा की खुशामद करने की कोई जरूरत नहीं है। सूरज की खुशामद करने की कोई जरूरत नहीं है। आप धूप में जाकर बैठ जाइए और सूरज की गरमी तथा रोशनी का फायदा उठाइए। नहीं साहब! हम सूर्य नारायण की प्रार्थना करेंगे कि वे हमारे घर में आकर के दीपक जला जाया करें और हमारे घर में रोशनी कर जाया करें। नहीं बेटे! सूरज भगवान को कोई फुरसत नहीं है। तू धूप में बैठ जाया कर और सूरज के कायदे का फायदा उठा। नहीं महाराज जी ! हम तो प्रार्थना करेंगे कि सूरज भगवान अपने नियम बिगाड़ दें और हमारे घर में घुस आया करें और रात को चार घंटे बैठा करें और चले जाया करें। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। भगवान का एक कायदा और भगवान का एक कानून है। उसी पर चलना पड़ेगा, इसके अलावा दुनिया में और कोई तरीका नहीं है, जिसका आप फायदा उठा सकते हों।
आत्मशोधन पहली आवश्यकता
मित्रो! यह प्रक्रिया अनादिकाल से चली आ रही है कि हमने भगवान के लिए अपने आत्मसंशोधन की प्रक्रिया को जारी रखा। हमने अपने आप को धोया, अपने आप को साफ किया, अपने आप को इस लायक बनाया कि भगवान का निवास वहाँ होना संभव हो सके। अवागढ़ महाराज ने एक बार पंडित मोतीलाल नेहरू को किसी सलाह के लिए अपने यहाँ बुलाया। उन दिनों वे एक हजार रुपया रोज अपनी फीस लिया करते थे। अवागढ़ महाराज के यहाँ जब पंडित जी आए तो उन्होंने क्या काम किया? सबसे पहले अपने नहाने-धोने और टट्टी-पेशाब वगैरह जाने के स्थान देखे। उन्होंने देखा कि यहाँ तो दुर्गंध आ रही है। उन्होंने कहा अरे भाई! हमें बीमार करोगे क्या? यहाँ तो हम नहीं रह सकते। अवागढ़ महाराज ने तुरंत दूसरा इंतजाम किया। उनके लिए नए कमोड मँगवाए और नई जगह बनवाई, जहाँ गंदगी न पैदा होती हो और बदबू न आती हो। भगवान को आप बुलाना चाहते हैं तो बेटे! तुझे नहीं मालूम कि क्या करना पड़ता है? कल गवर्नर आ रहा है। सबकी अक्ल लग रही है कि देखिए कूड़ा हटाइए, सड़क साफ कीजिए, रास्ता बंद कीजिए। नाली को यहाँ से निकालिए, यहाँ से अमुक सामान उठाइए। गवर्नर के आने पर कितनी आफत आ रही है और सफाई में कितना पैसा खरच करना पड़ रहा है।
मित्रो! अगर भगवान आपके पास आए, तब क्या करना पड़ेगा? तब बेटे! रोम-रोम साफ करना पड़ेगा। अपनी नस-नस साफ करनी पड़ेगी। इससे कम में काम नहीं चल सकता। गंदगी में आकर भगवान क्या करेगा?अवागढ़ महाराज के यहाँ जब वे तब के मामूली से वकील गंदगी पसंद न कर सके और जब गवर्नर आ रहे हैं तो ट्रैफिक पुलिस वाले, पुलिस वाले लग रहे हैं। हम लग रहे हैं, सारे कर्मचारी लग रहे हैं। आप लग रहे हैं, कार्यकर्ता लग रहे हैं। साफ करो, साफ करो.... ! क्यों साहब! साफ करने से क्या मिलेगा? साफ करने से यह मालूम पड़ेगा, समझ में आएगा कि ये इस लायक हैं कि इनके यहाँ जाया जा सकता है। अगर हम दरवाजे तक कुत्ते की टट्टी का ढेर लगा दें तब? तब मित्रो! गवर्नर साहब कहेंगे कि ये बड़े घटिया आदमी हैं। भगवान के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। बस, एक काम करना पड़ेगा—अपने आपकी सफाई। अपने आपकी धुलाई को अगर समझ सकते हों तो मैं आपको यह कह सकता हूँ कि आपने अध्यात्मवाद का आदर्श स्वीकार कर लिया, आपने अध्यात्मवाद से फायदा उठाने का सही रास्ता जान लिया। इससे कम में कोई रास्ता नहीं है। नहीं साहब! हम तो देवता की खुशामद करेंगे। बेटे! अगर देवता की खुशामद से फायदे हुए होते तो ये लोग, जो मंदिरों में सवेरे से लेकर शाम तक सारे दिन आरती उतारते हैं, घंटी बजाते हैं, सवेरे चार बजे से उठकर रात के नौ बजे तक ये सारे दिन भगवान जी के गोरखधंधे में लगे रहते हैं। इतने पर भी इन बेचारों को न खाने के लिए रोटी का इंतजाम है, न बीमारियों से बचने के लिए दवा खरीदने का पैसा है, न बाल-बच्चे किसी काम के हैं, न औरत का ठिकाना है, न रहने के लिए मकान है। खुशामद से ही सब कुछ हो गया होता तो ये पुजारी लोग अब तक मालदार हो गए होते। न लक्ष्मी ने कोई हिमायत की और न नारायण ने कोई हिमायत की। लक्ष्मीनारायण जी का आप तो जप करते हैं, फिर भी उन्होंने एक पैसे का भी फायदा नहीं दिया?
पुजारी क्यों है खाली हाथ?
मित्रो! आपको यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि जो पुजारी मंदिर में बारह घंटे और सोलह घंटे पूजा करने, काम करने के बाद खाली हाथ है, वहीं आप पंद्रह मिनट या आधा घंटा पूजा करके यह मानते हैं कि हमारी ये मनोकामनाएँ पूरी हो सकती हैं और हमको यह फायदा हो सकता है। आपको यह बात समझ में नहीं आती, इतनी भी अक्ल नहीं है, इतनी भी बुद्धि आपकी काम नहीं करती। नहीं साहब! बुद्धि से क्या फायदा? हम तो ऐसे ही ले लेंगे। यहाँ तो अँधेरगरदी चल रही है, जो कोई खुशामद कर लेता है, उसका उल्लू सीधा हो जाता है। बेटे ऐसा कोई कायदा नहीं है। भगवान बड़े कायदे से चल रहा है। यह दुनिया बड़े कायदे से चल रही है। सूरज कायदे से चल रहा है। धरती कायदे से चल रही है। हवा कायदे से चल रही है। समुद्र कायदे पर टिके हुए हैं और मनुष्य के जीवन की उन्नति भगवान के कृपा-कायदे पर टिकी हुई है। नहीं साहब! बिना कायदे के चल रही है और ऐसे ही जो कोई उनकी खुशामद कर लेता है, पा लेता है। नहीं बेटे! ऐसा नहीं है।
परब्रह्मरूपी भगवान
मित्रो! आप कहेंगे कि ये सारे-का-सारा पूजा उपासना का विधान किसलिए बनाया गया है? चलिए मैं समझाता हूँ आपको कि पूजा-उपासना का विधान किस मकसद से चलाया गया है। आप उसके असली मकसद को नहीं समझते, केवल बाहरी क्रियाकलाप को समझते हैं। बाहरी क्रियाकलाप को आप यह मान लेते हैं कि यही सब कुछ है और जिस काम के लिए बनाया गया है, उस ओर ध्यान नहीं देना चाहते। यही आपकी गलती है। आपको यह समझना चाहिए कि पूजा-उपासना का सारे-का-सारा स्वरूप किसलिए बनाया गया है? चलिए पहले तो मैं यह कहूँगा कि भगवान किसलिए बनाया गया है। भगवान बनाया गया? हाँ, भगवान बनाया गया है। एक भगवान तो वो है, जो सारी दुनिया में छाया हुआ है और उस भगवान को हम नहीं समझ सकते, उस भगवान को हम नहीं जान सकते। वह इतना बड़ा भगवान है। भगवान की बात तो जाने दीजिए, हम फिजिक्स को नहीं जान सकते—फिजिक्स जो साइंस है। यह साइंस हमारी जमीन पर किसी और तरीके से काम कर रही है। यहाँ एटम दूसरे तरीके से काम करता है। जमीन का जो दूसरा वाला हिस्सा है—हवा का, उस पर आप चले जाइए। वहाँ का जो एटम है, पक्का नहीं, कच्चा एटम है। वहाँ से आप दो हजार मील (लगभग ३००० किमी०) ऊपर चले जाइए, वहाँ पर आप एक ऐसी हवा पाएँगे कि पहाड़ के तरीके से आग के शोले जलते हुए कहीं-से-कहीं भागते चले जा रहे हैं। कहीं नीली रोशनी होती है, फुलझड़ियाँ जल रही हैं। कहीं पीली रोशनी दिखाई पड़ती है। कहीं हवा के ऐसे चक्र भँवर जैसे दिखाई पड़ते हैं। उन्हें देख करके आप हैरान हो जाएँगे कि हम भूतों की दुनिया में कहाँ आ गए?।
मित्रो! मैं जमीन की ग्रेविटी की बात कहता हूँ। यहाँ के एटमास्फियर का जो दूसरा वाला हवा का हिस्सा है, वहाँ की परिस्थितियाँ और यहाँ की परिस्थितियाँ अलग हैं। यहाँ की फिजिक्स, यहाँ की हवा का दबाव अलग है। यहाँ की अमुक गैस और अमुक गैस के पैदा होने की प्रतिक्रिया अलग है; जबकि दो हजार मील (लगभग ३००० किमी०) ऊपर के गैस का तरीका, उसकी फिजिक्स अलग है। राहु की फिजिक्स अलग है, केतु की फिजिक्स अलग है। जितने भी लोक-लोकांतर हैं, सबकी फिजिक्स अलग-अलग है। आप इस फिजिक्स को तो समझते नहीं हैं, फिर भगवान को क्या समझेंगे? भगवान बहुत बड़ा है, विशाल है। वह इतना विशाल है कि हम उसका वर्णन नहीं कर सकते कि वह कितना विशाल है। हमारी अक्ल ऐसी है, जैसे मक्खी-मच्छर के बराबर। हम इस ब्रह्मांड की कल्पना नहीं कर सकते; क्योंकि हमारी अक्ल बहुत कम है। जिस मंदाकिनी में, नीहारिका में हम लोग रहते हैं, उसमें दस अरब तारे हैं। वे सब एक-एक सूरज के बराबर हैं। एक सूरज की कल्पना करना ही हमारे लिए मुश्किल हो रहा है कि वह कितना लंबा-चौड़ा है? कितना उसका विस्तार है? फिर उतने तारों की कल्पना हम कैसे करेंगे और फिर एक-एक नीहारिका इतनी दूर है। एक-एक नीहारिका का प्रकाश, जो एक सेकंड में एक लाख छियासी हजार मील के (लगभग तीन लाख किमी०) हिसाब से चलता है और यहाँ हजारों वर्षों बाद पहुँचता है। कितनी दूरी है? बेटे! दूरी की हम कल्पना नहीं कर सकते। यह हमारी कल्पना से बाहर है।
नेति-नेति
मित्रो! ब्रह्म को 'नेति-नेति' कहा गया है। इस ब्रह्मांड के बारे में भी और भगवान के बारे में भी तथा इस पृथ्वी के बारे में भी यही बात है। उस भगवान की हम कल्पना नहीं कर सकते, जो सर्वव्यापी है। वह भगवान हमारे काबू से बाहर है। भगवान का स्वरूप समझने के लिए हमारे पास कोई शक्ति नहीं है। हमारे शरीर में जो छोटे-छोटे जीवाणु हैं, वे किस तरीके से पैदा होते रहते हैं और किस तरीके से मरते रहते हैं? इस छोटे से जीवाणु के भीतर जो एक न्यूक्लियस काम करता है, वह सूरज के बराबर शक्तिशाली है। बेटे! हम इसकी क्षमता की कल्पना नहीं कर सकते। इसी तरह हम भगवान की शक्ति का चिंतन नहीं कर सकते। भगवान का स्वरूप जानना हमारे काबू के बाहर है। भगवान की गतिविधियों के बारे में जो वेदों ने कहा है—'नेति-नेति।' यह हमारे चिंतन से बाहर है। हमारी अक्ल मच्छर के बराबर और भगवान पहाड़ के बराबर है। फिर हम कैसे कल्पना कर सकते हैं, उस भगवान की, जो सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में लोक लोकांतरों में, ब्रह्मांडों में समाया हुआ है। उसके कायदे और कानूनों तक को हम जान नहीं पाते हैं, फिर हम कैसे कह सकते हैं, उस भगवान के बारे में जो विराट है और विशाल है।
हमारा बनाया भगवान
मित्रो! जो भगवान हमारे पास है, जिसकी हम खुशामद करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं। यह भगवान क्या है? यह तो हमारा बनाया हुआ है। आप विश्वास रखिए, यह सभी भगवान हमारे गढ़े हुए हैं। अगर ये भगवान हमारे बनाए हुए न होते तो दुनिया में केवल एक ही भगवान की कल्पना रही होती। इस दुनिया का नियामक एक ही भगवान है। एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति—एक ही ब्रह्म है और उस एक ही ब्रह्म के असंख्य नाम दिए गए हैं, लेकिन हमारे पास ढेरों-के-ढेरों ब्रह्म हैं और ढेरों-के-ढेरों भगवान हैं। आपका भगवान कौन सा है? साहब! लंबी मूँछों का। आपका भगवान? लंबी पूँछ वाला। आपका भगवान? दाढ़ी रखाए हुए। आपका भगवान? खप्पर लिए हुए। आपका भगवान? जीभ निकालता हुआ। ऐसे-ऐसे ढेरों भगवान हैं कि हम क्या कह सकते हैं। एक भगवान सख्त वेजिटेरियन हैं—पानी छानकर पीजिए, जीव हिंसा मत होने दीजिए, सड़क झाड़कर चलिए, किसी पर पाँव न पड़ जाए। ये हैं भगवान नंबर एक। अच्छा साहब! ये तो बहुत अच्छे भगवान हैं। भगवान नंबर दो—बकरी के बिना काम नहीं चलेगा, मुरगे के बिना काम नहीं चलेगा, आमलेट या अंडे के बिना काम नहीं चलेगा। यह हैं—नॉन वेजिटेरियन। अरे साहब! आप नॉन वेजिटेरियन हैं या वेजिटेरियन? वेजिटेरियन लोगों ने भगवान जी को वेजिटेरियन बना लिया है और नॉन वेजिटेरियन ने भगवान जी को नॉन वेजिटेरियन बना लिया है। सारे-के-सारे भगवान, जो आपको देवी-देवताओं के नाम पर दिखाई पड़ते हैं, ये सब खालिश मनुष्यों के बनाए हुए हैं। ये इसलिए बनाए गए हैं, ताकि हमारे ध्यान का उद्देश्य पूरा हो सके, ध्यान को बिखरने से रोका जा सके, ताकि हम जो ध्यान करते हैं, किसी-न-किसी छवि पर उसे रोक सकें।
कल्पना ने रचा है भगवान को
मित्रो! एक दिन मैंने आपको बताया था कि हमारा जीवन कैसा होना चाहिए और हम क्या बनना चाहते हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? इसके लिए हमने अपने-अपने इष्टदेव मुकर्रर किए हुए हैं। एक दिन मैंने ताजमहल का हवाला दिया था, जहाँ मॉडल बना हुआ रखा है। एक दिन दयालबाग का हवाला दिया था, जहाँ मॉडल बना हुआ रखा है। हम जैसा बनना चाहते हैं, भगवान भी हमने वैसे ही बनाए हैं। ये हमारे बनाए हुए भगवान हैं। जिसकी जैसी मरजी होती है, वह वैसे बना लेते हैं। क्यों साहब! श्रीकृष्ण भगवान काले रंग के थे या गोरे रंग के? बेटे! हमने तो देखे नहीं। तो साहब! छापेखाने से जो छपे हुए आते हैं, वे ऐसे ही भगवान थे? ये भगवान तो गोल-मटोल चेहरे वाले हैं। शायद असली श्रीकृष्ण भगवान जो रहे हों, आँखें गड्ढे में फँसी रही हों और हो सकता है श्रीकृष्ण भगवान की नाक हमारे जैसी लंबी रही हो। नहीं महाराज जी! श्रीकृष्ण भगवान ऐसे थे, कल देखे थे हमने। बेटे! ये हमने कल्पना से बना लिए हैं।
अगणित मान्यता, अगणित भगवान
मित्रो! जितने भी देवी-देवता बनाए हैं, हमने अपनी-अपनी कल्पना से बनाए हैं। किसी की देवी सिंह पर सवार है, किसी की देवी नंग-धड़ंग जीभ निकालती हुई और बारह भुजा वाली है। किसी की देवी चंडी दो भुजाओं वाली है। किसी की देवी उल्लू पर बैठी हुई है, किसी की किसी पर बैठी हुई है। कितनी देवियाँ हैं कोई खप्पर लिए, कोई जीभ निकाले हुए, कोई सोने के जेवर पहने हुए, कोई मुंडमाला पहने हुए है। बेटे ! इतनी देवियाँ दुनिया में कहाँ से हो सकती हैं? कोई देवी नहीं है। दुनिया में एक ही देवी है, जिसका नाम है—भगवान। उसी को माता कहा गया है, उसी को पिता कहा गया है। उसी को—त्वमेव माता च पिता त्वमेव कहा गया है। एक ही सर्वशक्तिमान के कल्पित नाम, कल्पित तरु हैं। ये सब हमारी कल्पनाएँ हैं, जो देवियों के नाम पर, देवताओं के नाम पर, गणेश जी के नाम पर, महादेव जी के नाम पर, हनुमान जी के नाम पर कितने सारे देवी-देवता बना करके रखे हैं। बेटे! अभी ये कम हैं। कितने होने चाहिए? पुराने जमाने में तैंतीस कोटि मनुष्य थे यहाँ और हर आदमी का एक भगवान अलग था। अभी हम कितने हो गए हैं—साठ करोड़।* अतः साठ करोड़ देवता तो कम-से-कम होने ही चाहिए। ज्यादा हो जाएँ तो भी कोई हर्ज नहीं। हर आदमी की अपनी-अपनी कल्पना, अपनी-अपनी मान्यता, अपने-अपने विचार और अपने-अपने सिद्धांत के हिसाब से चाहे जितने देवी-देवता बनाए जा सकते हैं और बन सकते हैं। बनते रहे हैं और बनेंगे।
(क्रमश:)
* तत्कालीन आँकड़े (१९७३-७४ के)
भक्ति संबंधी भ्रांतियाँ एवं उसका सच्चा विज्ञान भाग-३
रोज पैदा हो रहे हैं नए देवता
मित्रो! जो पुराने देवी-देवता थे, वे सब रिटायर्ड हो गए, बरखास्त हो गए। कौन-कौन से बरखास्त हो गए। वेदों के देवता बिलकुल अलग थे, जो आज के देवताओं से कोई माने नहीं रखते। एक था पूषा, आपने सुना है कभी? पूषा तो साहब! बिहार में है, जहाँ गेहूँ की फसल तलाशी जाती है। अरे नहीं बेटे! वो नहीं है। पूषा एक देवता था। वह बड़ा जबरदस्त था। हमने तो नाम भी नहीं सुना। वेदों के काल में जो वैदिक देवता माने जाते थे, बेटे! आज उनका कोई नाम भी नहीं मालूम होता। पौराणिक देवता जो आए, वे भी बेटे ! अब धीरे-धीरे समाप्त होते चले जा रहे हैं; जैसे—विष्णु भगवान। विष्णु भगवान का तो उत्तर भारत से बॉयकाट हो गया। और ब्रह्माजी का? ब्रह्माजी तो बिलकुल रिटायर हो गए। उनका तो पता भी नहीं है, वे तो बहुत बुड्ढे हो गए और बाबा जी के तरीके से बैठे रहते हैं।
बेटे! अब नए-नए भगवान, नए-नए देवता पैदा होते चले जा रहे हैं; मसलन—संतोषी माता। संतोषी माता अभी निकलकर आई हैं। मेरे देखते-देखते पैदा हुईं और देखते देखते जवान हो गईं। ये बड़ी जबरदस्त हो गई हैं और सब जगह फैलती हुई चली जा रही हैं। ये संतोषी माता दस साल बाद मर जाएँगी, फिर कोई और पैदा होंगी। देवी-देवता इतने हो गए हैं कि मक्खी और मच्छर के तरीके से, मेंढक और बंदरों के तरीके से रोज मरते हैं और रोज पैदा होते हैं। जहाँ कहीं भी जाइए, ये हमारी कुलदेवी और कुलदेवता हैं। सारे हिंदुस्तान में जाइए और पता करके आइए कि कुलदेवियाँ कितनी हैं, कुलदेवता कितने हैं। मैं समझता हूँ कि लाखों की तादात में कुलदेवियाँ और कुलदेवता हैं। उनके नेचर को आप देखेंगे तो हैरान होना पड़ेगा।
देवी माता संबंधी भ्रांतियाँ
ये कहाँ रहती हैं देवी खोडयारी माता? ये जैसलमेर में रहती हैं। कलकत्ते (कोलकाता) का मारवाड़ी भागते-भागते वहाँ पहुँचता है। कहाँ? जैसलमेर। बीबी को, मोहल्ले वालों को, बुआ जी को, पंडित जी को लेकर पहुँचता है। चार हजार रुपया खरच करता है। किसके लिए? देवी पर मुंडन होगा। फिर क्या करेगी देवी? बाल खाएगी? बाल तो बेटे ! तू कलकत्ते (कोलकाता) से भी पेटी में बंद करके भेज सकता था। लो महाराज जी! देवी को बाल खिला देना। नहीं महाराज जी! देवी तब प्रसन्न होती है, जब उसके सामने ही फ्रेश माल, गरमागरम माल, नया माल आता है। पुराना माल नहीं खाती देवी। बाल खाती है या माल? अरे महाराज जी ! माल तो यहाँ भी बहुत है। वे तो बाल खाती हैं। धत् तेरे का, बाल खाती है देवी ! मारवाड़ी की देवी अलग, फलाने की देवी अलग। बेटे ! मुझे इतना गुस्सा आता है कि कई बार आग-बबूला हो जाता हूँ इन देवी-देवताओं के अज्ञान के नाम पर। सो भी ऐसे-ऐसे, जो बाल खाए बिना काम नहीं चला सकते, जिनको न रोटी की जरूरत है, न पूरी-कचौरी की। और बाल खाने को नहीं मिलें तब? फिर देखना देवी का हाल। इसको बुखार बुला देगी, उसको बीमार कर देगी, उसके पैसे का नुकसान कर देगी। अरे बाबा, देवी ! तू तो देवी है, फिर नुकसान क्यों करती है? ऐसी देवी सारे हिंदुस्तान में फैल गई हैं। सारे देश में देवी-देवताओं के, भक्ति के और भगवान के नाम पर अज्ञान फैल गया है। फिर असलियत क्या है?असलियत जो है, वह आपको जाननी ही चाहिए। आखिर देवता क्या हैं?
देवता क्या हैं, अंतत:
देवता हैं मित्रो! मनुष्य के गुण, मनुष्य के कर्म और मनुष्य के स्वभाव। हनुमान जी प्रतीक हैं—बल के और व्रत में ब्रह्मचर्य के। चंडी प्रतीक हैं—संघशक्ति और संगठन की। सरस्वती प्रतीक हैं—कला एवं ज्ञान की। गायत्री प्रतीक हैं—भावनाओं से जुड़ी सद्बुद्धि की। जितने भी देवी-देवता हैं, वे मानवीय गुणों के प्रतीक हैं। ये बात अगर आपकी समझ में आ जाए तो ये समझ भी आएगी कि देवताओं का अनुग्रह पाने के लिए आपको अपने जीवन में गुणों का विकास, कर्मों का विकास, स्वभाव का विकास करना पड़ेगा। मानवीय श्रेष्ठता को निरंतर बढ़ाने के लिए कमर कसकर चलना पड़ेगा; ताकि हमारे अंदर जो महानता है, वह विकसित होती हुई चली जाए।
शंकर जी कहाँ होते हैं? बेटे ! हमें नहीं मालूम कहाँ होते हैं और कहाँ नहीं होते। आपने देखे हैं? हमने तो नहीं देखे। और आपने देखे हैं? हाँ महाराज जी ! सपने में देखे हैं। सपने की कोई कीमत नहीं होती, सपने तो ख्वाब होते हैं। मित्रो ! शंकर भगवान क्या हो सकते हैं? शंकर भगवान श्रेष्ठ गुणों का समुच्चय और समन्वय हैं। शंकर जी का उदाहरण मैं आपको समझाना चाहूँगा। शंकर जी की शक्ल-सूरत आप देखिए, उनके सिर से गंगाजी निकलती हैं। क्यों साहब ! किसी के सिर में से गंगाजी निकलेंगी तो आदमी करवट कैसे लेगा, सोचिए। अगर मैं बैठा रहूँ और सिर में से पानी निकलता रहे तो पानी जमीन पर गिरेगा और बहता चला जाएगा, लेकिन मैं कभी सोऊँ तब, करवट लूँ तब? पानी मेरे सिर में से निकलता है तो नाक में, कान में और मुँह में घुसेगा कि नहीं, फिर मैं मरूँगा कि जिऊँगा? शंकर भगवान चौबीस घंटे बैठे रहते हों, तब तो मैं नहीं कहता, लेकिन उनको कभी भी सोने का मौका मिला होगा तो गंगाजी उनके नाक-कान में घुस गई होंगी और शंकर जी उसमें डूब गए होंगे।
आलंकारिक विवरण देवी-देवताओं के मूल के
मित्रो! यह एक अलंकार है। जिसमें यह बात बताई गई है कि जिस शक्ति या जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में से ज्ञान की गंगा निकलती है, शुद्ध-पवित्र विचार निकलते हैं। ऐसे विचार. जो मनुष्य को शुद्ध-पवित्र बनाने में समर्थ हों। उस आदमी का, उस देवता का, उस शक्ति का नाम शंकर, जिसके मन-मस्तिष्क में से हमेशा ज्ञान की गंगा प्रवाहित होती हो। शंकर जी के सिर पर चंद्रमा टँगा हुआ है। चंद्रमा कैसे टाँगा जा सकता है? वह तो बेटा! फुटबॉल के तरीके से गोल-मटोल है। चंद्रमा को सिर पर टाँगना हो तो उसके दो ही तरीके हो सकते हैं—एक तो सिर में सुराख करके उसमें से बोल्ट कस दिए जाएँ अथवा स्टैंड लगा दिया जाए। यहाँ हमारे सामने रखनी हो गेंद तो स्टैंड पर गेंद रखी रहा करेगी और हम अपना सिर उसके पास लगा दिया करेंगे। एक और तरीका है कि आप रस्से या तार लाइए, उससे गेंद को चारों तरफ से हमारे सिर में बाँध दीजिए। नहीं साहब! शंकर जी के सिर पर तो चंद्रमा टँगा हुआ है। बेटे! चंद्रमा एक अलंकार है, जिसका अर्थ होता है—संतुलन। शांति का प्रतीक है, चंद्रमा। हमारा मस्तिष्क प्रत्येक परिस्थिति में संतुलित रहना चाहिए।
मित्रो! घबराहट, हैरानी, परेशानी, जलन—इन सारी बातों में हमारा दिमाग अशांत रहता है और हमारे ढेरों-के-ढेरों नुकसान होते रहते हैं। हम जिस समस्या का समाधान करने के लिए चलते हैं, उसका समाधान तो नहीं होता, बल्कि समस्या और भी उलझती चली जाती है। प्रत्येक परिस्थिति में, मुसीबत में, शोक में भी अपने दिमाग के बैलेन्स को आप सही रखिए। जो मुसीबत आई है, उसका रास्ता निकालने के लिए अपने दिमाग के अलावा और है क्या आपके पास! दिमाग का बैलेन्स सही रख सकें, इसके लिए आप सिर के ऊपर चंद्रमा टाँगिए। यह क्या चीज है? यह बेटे! शिक्षा है, दिशा है, धारा है और एक फिलॉसफी है जिंदगी की।
शिक्षण एवं दिशाधारा
शंकर जी की आँखें होती हैं तीन। तीन कैसी आँखें होती हैं? बेटे! शंकर जी की एक आँख ऐसी है कि जब कभी उसे खोल देते हैं और उससे जिस किसी को देखते हैं, वह जल करके भस्म हो जाता है; जैसे कामदेव को एक दिन शंकर जी ने आँख खोलकर देखा तो वह तुरंत जल करके राख हो गया। तो महाराज जी! अगर मैं जाऊँ शंकर भगवान के सामने तो? बेटे! तू ऐसे वक्त जाना जब महादेव जी सोकर के नहीं उठे हों। सोकर के उठते ही शायद आँखों को मलते हों और आँख खुल गई तो समझ लेना। तू गया तो इसलिए कि मनोकामना पूरी करा करके लाऊँगा, पर शंकर जी ने खुली आँख से देख लिया तो, तेरा सफाया हो जाएगा। सो तू मत जाना। कौन से वक्त जाऊँ? नौ बजे के बाद, जब शंकर जी कुल्ला-उल्ला करके, आँख-मुँह धोकर चश्मा पहनकर ठीक हो जाते हैं, तब जाना। महाराज जी! ऐसी आँख होती है? बेटे! कोई आँख नहीं है। फिर यह क्या है? तीसरी आँख विवेक की आँख, दूरदर्शिता की आँख, टेलीस्कोप की आँख, जिससे हमको परलोक दिखाई पड़ता है, जिससे नरक दिखाई पड़ता है, जिससे पुनर्जन्म—अगला जीवन दिखाई पड़ता है, जिससे हमको बुढ़ापा दिखाई पड़ता है।
दूरदर्शिता एवं विवेक का प्रतीक
मित्रो! हमको तो केवल आज का फायदा दिखाई पड़ता है, कल क्या परिणाम होगा, यह दिखाई नहीं पड़ता। हम वह चीजें खाते हैं कि कल हमारा पेट खराब हो जाए तो क्या? दावत खाने जाते हैं तो खाते ही चले जाते हैं। अरे बाबा पेट में दरद हो जाएगा। अरे साहब! कल दरद होगा तो लवणभास्कर चूर्ण खा लेंगे, आज तो खा ही लेने दीजिए। आज खाता है और घंटे भर की बात भी नहीं मालूम तुझे। नहीं महाराज जी! जो कुछ होगा, सो देखा जाएगा। मित्रो! हम और आप वो आदमी हैं, जिनको अभी इसी वक्त का फायदा याद है, दूर का नुकसान, दूर का फायदा ध्यान में नहीं आता। अगर यह हमको याद आया होता तो हमने अपनी जिंदगी का क्रम ऐसे बनाया होता कि हमारा वर्तमान जीवन, बुढ़ापे का जीवन, भावी जीवन, मरने के बाद का जीवन शानदार बना होता। आज के फायदे के लिए हमने सब कुछ गँवा दिया। हमारी वह तीसरी आँख, जिसको हम टेलीस्कोप कह सकते हैं, जिससे हमको अपना भविष्य दिखाई पड़ता है।
मित्रो! शंकर जी के पास थी यह आँख। जब कामदेव आया तो उन्होंने इस आँख को खोला। अच्छा आप पधारे हैं। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और अपने जबड़े में जख्म कर लेता है। जबड़े के जख्म से जो मुँह में खून टपकता है, उसे समझता है कि न जाने कैसा जायका आ रहा है। कहिए कामदेव साहब! आप सूखी हड्डी हैं न? हाँ साहब! और हम लोग कुत्ते हैं न, हाँ! देखिए हम अपनी जवानी, अपना शौर्य, अपना तेज, अपना ओजस्, बारूद के तरीके से और फुलझड़ी के तरीके से सब जलाते हैं और यह समझते हैं कि न जाने हमने क्या कमा लिया और क्या फायदा उठा लिया। मित्रो! यह काम-वासना का स्वरूप शंकर जी की समझ में आया और उन्होंने काम-वासना को मारकर भगा दिया। कामदेव को जला दिया। विवेक अगर हमारे पास आए तो हम असंख्य बुराइयों, असंख्य दुर्बलताओं को, कमजोरियों को सहज ही मारकर भगा सकते हैं। यह है शंकर जी की तीसरी आँख। जिस सिद्धांत में यह तीसरी आँख जुड़ी हुई हो, जिस व्यक्ति के जीवन में यह तीसरी आँख जुड़ी हुई हो, वह शंकर अथवा शंकर का भक्त है।
मित्रो ! शंकर भगवान गले में मुंडों की माला पहने हुए हैं। क्या मतलब? शंकर जी ने कंकालों से बनी मुंडों की माला गले में पहन रखी थी। आप भी अगर मुंडों की माला गले में पहन करके रखें और यह देखें कि हमारी बीबी मुंड, हमारा बच्चा मुंड, हमारा शरीर मुंड है। ये सब हड्डियों के जंजाल और हड्डियों के जखीरे मरे हुए पड़े हैं और हमारे गले में बँधे हुए हैं। खोपड़ी वाला कंकाल, जो हमको अपना दिखाई पड़ता है, उसके साथ मौत और जिंदगी को मिला करके—समन्वय करके रखा होता तो मजा आ जाता। एक कंधे पर आपने मौत का हाथ पकड़ रखा होता और दूसरे कंधे पर जिंदगी का हाथ रखा होता तो मौत और जिंदगी के समन्वय से मित्रो! आपकी जिंदगी राजा परीक्षित जैसी हो गई होती। अगर आपने मौत को समझा होता तो सिकंदर के तरीके से आपको अफसोस न करना पड़ता।
मौत को याद रखिए
मित्रो! सिकंदर जब मरने को हुआ तो उसने कहा कि हमारा सामान लाइए, हम लेकर के जाएँगे। लोगों ने कहा कि यह सामान आपके साथ नहीं जा सकता। सामान तो जमीन का था और यहीं रहने वाला है, आप क्या कर सकते हैं। आपने जो इस्तेमाल कर लिया, वह आपका है, बाकी तो सब यहीं का है। सिकंदर की आँख खुली तो उसने कहा कि मुझसे कितनी बड़ी गलती हो गई। मुझे अगर यह मालूम होता कि यह दौलत, जिसके लिए मैंने अपनी सारी जिंदगी गँवा दी यह मेरे साथ चलने वाली नहीं है, यह मेरे काम आने वाली नहीं है। चार रोटी खाने के अलावा पाँचवीं रोटी मुझे नसीब नहीं हो सकती। अगर यह मुझे मालूम रहा होता तो मैंने अपनी जिंदगी सुकरात के तरीके से, ईसा के, बुद्ध के तरीके से शानदार बिताई होती। मैं ऐसी घटिया जिंदगी जीने को क्यों तैयार होता? उसने अपने हाथ ताबूत से बाहर निकालने को कहा और बोला कि लोगों से कहना कि सिकंदर बड़ा होशियार था और बड़ा बेवकूफ भी। हीरे-मोतियों जैसी जिंदगी उसे जिस काम के लिए मिली थी, उसमें इस्तेमाल न कर सका। बेकार के, बेवकूफी के कामों में जिंदगी को गँवा बैठा। सिकंदर के दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकाल दिए गए। लोगों ने देखा कि सिकंदर खाली हाथ माँ के पेट से पैदा हुआ और यहाँ से भी खाली हाथ चला गया। अगर यह बात आप समझते कि मौत और जिंदगी के दो पहियों के ऊपर हमारी जिंदगी की गाड़ी चल रही है, तब सही नीति निर्धारित करने का विचार करते। आज हम लाखों-करोड़ों वर्ष जीने की कल्पना करते हैं, मौत तो कभी ख्वाब में भी नहीं आती। मौत अगर हमारे ख्वाब में आती तो हम कैसी शानदार जिंदगी जी पाते।
प्रतीकों को समझें
शंकर भगवान के गले में साँप पड़े हुए हैं। वे जिन लोगों को अपना मित्र बना करके रखते थे, वो थे बेचारे—तन झीन कोऊ अति पीन, पावन कोऊ अपावन तन धरे। कमजोर आदमी, बीमार आदमी, गए-गुजरे आदमी। जापान के गाँधी कागावा का मैं एक दिन हवाला दे चुका हूँ। उन्होंने पिछड़े हुए लोगों के लिए, दीन-दुखियों के लिए अपनी जिंदगी गँवा दी। मैं एक दिन बाबा साहब आप्टे का हवाला दे चुका हूँ। उन्होंने गरीबों, कोढ़ियों के लिए अपनी जिंदगी गँवा दी। हमारे समाज में चारों ओर कोढ़ी और अंधे फैले पड़े हैं। क्या आप उनकी सहायता नहीं कर सकते? कोढ़ी और अंधा कौन? आप और हम। हम और आप नैतिक दृष्टि से कोढ़ी और अंधे ऐसे, जिनको अपना भविष्य, अपना व्यक्तित्व, अपना लोक-परलोक कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। इन अंधों को, कोढ़ियों को, शराबियों को, पिछड़ों को, पापियों को सहायता की जरूरत है, जो हमें करनी चाहिए।
नहीं साहब! हम शंकर जी की भक्ति करते हैं। बड़ी भक्ति करता है ! तीन घड़ों में सूराख करके, पानी भरकर तिपाई पर रख देता है। सावन के महीने में शंकर जी के सिर पर सारे दिन टप-टप पानी टपकता रहता है। शंकर जी को जुकाम हो गया, मलेरिया बुखार आ गया, पानी में नहाते-नहाते। महाराज जी! शंकर भगवान मेरी मनोकामना पूरी नहीं करेंगे? बेटे ! तूने, महीने भर हो गया, शंकर जी को न तो कुछ खाना खिलाया, न दवाई दी, फिर तुम्हारी मनोकामना कैसे पूरी करेंगे? अच्छा महाराज जी! मैं शंकर जी के लिए दवा लेकर आऊँ। ये लीजिए, आक के फूल खा लीजिए और ये धतूरे के फल खा लीजिए। तूने महादेव जी को धतूरे के फल खिला दिए और उन्हें ज्यादा बुखार आ गया। वे बीमार पड़ गए और चेले ने उनकी झोली में जो कुछ माल था, सब निकाल लिया। शंकर जी की झोली में बिहार गवर्नमेंट की लॉटरी के नंबर और गुजरात गवर्नमेंट की लॉटरी के टिकट के नंबर रखे थे, वे सब नंबर चुरा ले गया और शंकर भगवान ताकते रह गए। जालिम और जाहिल कहीं का, यही है तेरी शंकर जी की भक्ति!
सच्ची भक्ति : गुणों का परिष्कार
मित्रो! इन्हीं बेकार की बातों को, बेवकूफी की बातों को लोग समझते रहते हैं कि हम भगवान की भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं। कहाँ है यह भक्ति और पूजा? मित्रो! भक्ति वह हो सकती है, जिसमें कि हम मुहब्बत, अपने चरित्र और अपने व्यक्तित्व द्वारा समाज को श्रेष्ठ और उपयोगी बनाते हैं। इससे कम में कोई भक्ति नहीं हो सकती और ज्यादा भक्ति की कोई जरूरत नहीं।
शंकर जी की उपासना का स्वरूप मैंने बताया। अगर आप उनके भक्त हैं तो अपने गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार अपने जीवन में समन्वित कीजिए। मशक्कत कीजिए, अपने आप से लड़ाई कीजिए, अपने आप को तपाइए, भूखा मारिए, अपने आप को अनुशासन में रखिए। ऐसा करेंगे तो मैं आपको शंकर जी का भक्त कह सकता हूँ।
मित्रो! गायत्री माता की जो मूर्ति है, उसके सामने हम और आप रोज जप करते हैं। आप उसके कलेवर को तो समझते हैं, पर प्राणों को क्यों नहीं समझते। गायत्री माता का प्राण। वह मानवता की देवी, आदर्शों की, सिद्धांतों की, शालीनता, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता की, विवेकशीलता की देवी है। धियो यो नः प्रचोदयात् यह देवी है, आप इसकी उपासना कीजिए। नहीं महाराज जी ! हम तो हंस पर बैठी देवी की उपासना करते हैं। चलिए, मैं आपसे कहना चाहूँगा कि यह भी अलंकार है। हंस जैसी जिंदगी बनाइए, नीर और क्षीर का विवेक करना सीखिए, उचित और अनुचित का फरक करना सीखिए। मोती खाइए और कीड़े खाने से इनकार कर दीजिए। तालाबों में जो हंस पाया जाता है, वह तो कीड़े खाता है, मोती कहाँ मिलते हैं बेचारे को। नीर क्षीर का विवेक करना कहाँ आता है। यह तो पानी पीता है। न बेचारे को दूध मिलता है, न नीर-क्षीर-विवेक करता है। गायत्री माता का हंस ऐसा होना चाहिए, जैसा एक विवेकशील मनुष्य होता है। जो उचित और अनुचित का—यह करने लायक है, यह न करने लायक; यह करूँगा, यह नहीं करूँगा; इधर चलूँगा, इधर नहीं चलूँगा—२४ घंटे यह फरक करता है। उस आदमी का नाम है—हंस। अगर आप हंस का जीवन जिएँ तो मैं आपसे वायदा करता हूँ कि गायत्री माता की शक्ति अनायास ही आपके ऊपर आएगी और सवारी करेगी।
हंसवृत्ति विकसित करें
हंस को गायत्री माता कंधे पर रखकर चलती है या हंस गायत्री माता को कंधे पर रखकर चलता है, बताइए जरा? हंस गायत्री माता को कंधे पर रखकर चलता है। आप अगर हंस हैं तो गायत्री माता को कंधे पर बिठाकर चाहे जहाँ लेकर जा सकते हैं। कैसे? जैसे अभी युगाँडा में हवाई जहाज पकड़ ले गए थे। कौन? छापामार। आप छापेमार के तरीके से गायत्री माता को कंधे पर बिठाइए, चलिए हमारे घर। नहीं बेटे! हम तो स्वर्गलोक जाना चाहते हैं। नहीं आप स्वर्गलोक नहीं जा सकती हमारे साथ चलिए। हंस जहाँ चलेगा, वहीं गायत्री माता को चलना पड़ेगा। अगर आप हंस हैं तो गायत्री माता को मजबूर कर सकते हैं।
माता का भाव, देवी का भाव; भोग्या का नहीं
गायत्री माता क्या हैं? गायत्री माता बेटे ! उन सिद्धांतों का, आदर्शों का नाम हैं, जिनसे हमारी आँखें और हमारा दिमाग ठीक हो जाता है। हमने आपको जवान नारी का एक फोटो छापकर दिया है। जवान नारी की मंदिर में स्थापना की हुई है। हमने आपसे यह कहा है कि इसको माता कहिए। नारी मात्र को माता मानकर चलिए; अर्थात जहाँ भी आपको श्रेष्ठता दिखाई पड़े, मनुष्य के भीतर जो राम चमचमा रहा है, उसे देखिए। मनुष्यों के भीतर जो शैतान चमचमा रहा है, उसे मत देखिए। हमने यह कहा था और गायत्री माता उसी सौंदर्य का प्रतीक हैं, ताकि आप जवान महिला को माता के रूप में देखना शुरू करें। गाँधारी के तरीके से आँखों में वह ताकत पैदा करें, जिससे पट्टी खोलकर जिसको भी आप देखें तो वज्र का होता चला जाए। आप नारी को शिवाजी के तरीके से देखें। एक मुसलमान महिला को देखकर उन्होंने कहा कि काश ! इतनी खूबसूरत अगर हमारी माँ होती तो हम कितने सुंदर होते! यही वह रहस्य था भवानी तलवार का, जो उनके हाथ में आई और वह अक्षय विजय करते चले गए। गाँडीव किस चीज का बना हुआ था? गाँडीव बेटे! बाँस का बना हुआ था। अर्जुन जब स्वर्गलोक गए तो देवताओं ने एक अप्सरा को उनके पास भेजा। अप्सरा ने जाकर अर्जुन से कहा कि आपके जैसा एक बच्चा हमको चाहिए तो उन्होंने कहा कि हमारे जैसा बच्चा तो नहीं मालूम कि आपको मिलेगा या नहीं मिलेगा, पर हम आपकी इच्छा अभी पूरी कर सकते हैं। आप कुंती के तरीके से हमारी माँ और हम आपके बेटे बन जाते हैं। आप हमारे सिर पर हाथ रखिए और कहिए बेटा और मैं आपके चरणों की धूल उठाकर सिर पर लगा लेता हूँ। आप मेरी माँ बन जाइए और समझिए कि आपकी मनोकामना पूरी हो गई।
अध्यात्म सिद्धांतवाद का नाम
बेटे! यह सिद्धांतवादिता है, आदर्शवादिता है। इसी का बना था गाँडीव, जिसने सारे महाभारत को जीत करके दिखा दिया। लड़ाई हथियारों से नहीं होती, कलाई से होती है। बंदूक काम नहीं करती, काम करती हैं—कलाइयाँ और ताकत। ताकत तो क्या काम करेगी, असली काम करेगी आदमी की हिम्मत। आदमी की जो हिम्मत है, उसे आत्मबल कहते हैं। मित्रो! इसी आत्मबल का नाम भगवान है। इसी का नाम सिद्धियाँ, इसी का नाम चमत्कार है। आत्मबल बढ़ाने के लिए आपको शालीन होना चाहिए। समुन्नत, श्रेष्ठ और आदर्शवादी होना चाहिए। अगर आप आदर्शवादी बनने के लिए तैयार हैं तो मैं कह सकता हूँ कि भगवान आपको गाँडीव के तरीके से अक्षय हथियार देने को तैयार हैं। अगर आप शिवाजी के तरीके से चरित्रवान बन सकते हैं तो आपको वह अमोघ भवानी तलवार मिल सकती है, जिसका पराजित होना कभी संभव नहीं है। आपको गाँधारी के तरीके से शक्ति मिल सकती है, अगर आप गायत्री के उपासक हों, तब।
मित्रो! सावित्री और सत्यवान कथा आपने पढ़ी होगी। सत्यवान को सावित्री ने वरण किया था और उसको मृत्यु के मुँह से छुड़ाकर लाई थी। सावित्री किसे कहते हैं? यह बेटे! गायत्री का नाम है और सत्यवान माने चरित्रवान। अगर आदमी चरित्रवान है तो गायत्री माता उसकी स्वयं तलाश करती है कि कहाँ बैठा है सत्यवान। वह सारी दुनिया में चक्कर लगाती है सत्यवान को ढूँढ़ने के लिए। ये लड़कियाँ गाती रहती हैं—कहाँ छिपा बैठा है सच्चा इनसान, खोजते जिसे स्वयं भगवान। वह इनसान कहाँ छिपा बैठा है. जिसको कि भगवान की तलाश है। भगवान इनसान को तलाशता है। इनसान को भगवान को तलाशने की कोई जरूरत नहीं है। भगवान तलाशता है, अगर इनसान के भीतर इनसानियत हो, तब। हमने इनसानियत तो गँवा दी और भगवान के लिए खुशामद करते हैं। सड़े हुए आदमी, गले हुए आदमी, निकम्मे आदमी, चोर-उचक्के आदमी क्या जाएँगे भगवान के यहाँ! मित्रो! सफाई की जरूरत है और यही है आध्यात्मिकता का उद्देश्य।
हमारा लक्ष्य, इष्ट : देवत्व
देवताओं की स्थापना का मतलब यही है कि हम अपने जीवन में देवत्व का समाविष्ट करें। देवत्व हमारा लक्ष्य हो, देवत्व हमारा इष्ट हो। हम देवताओं की लाइन में खड़े हों, देवताओं की पंक्तियों में अपना नाम लिखाने की कोशिश करें। आज तो हमने राक्षसों की लाइन में अपना नाम लिखा रखा है। हमारा विचार, हमारे कर्म, हमारी इच्छाएँ, हमारी कामनाएँ, हमारी भावनाएँ, हमारे अभ्यास, हमारी आदतें सब-की-सब ऐसी निकम्मी बनी पड़ी हैं कि हमें देख करके कोई आदमी नफरत ही कर सकता है। ऐसी स्थिति में अगर भगवान के दरबार में जाएँ तो सिवाय घृणा के और क्या मिल सकता है हमको? मित्रो! अगर आपको आध्यात्मिकता से लाभ उठाने हों तो आपको देवताओं का स्वरूप धारण करना पडेगा। देवताओं को प्रसन्न करने के बारे में जो प्रक्रियाएँ हैं, उनको आप समझिए। पंचोपचार पूजन, षोडशोपचार पूजन का क्या मतलब है, इसका मतलब समझिए। इसका उद्देश्य समझिए।
(क्रमश: समापन अगले अंक में )
भक्ति संबंधी भ्रांतियाँ एवं उसका सच्चा विज्ञान भाग-४
(समापन किस्त)
परमपूज्य गुरुदेव अपनी अमृतवाणी द्वारा इस महत्त्वपूर्ण प्रवचन में आज अध्यात्म के क्षेत्र में विशेषत: भक्ति संबंधी भ्रांतियों की बात बता रहे हैं। तीन किस्तों से आप इसे पढ़ रहे हैं। वे देवता की परिभाषा बताते हैं। उनके आलंकारिक रूपों से हम क्या शिक्षण लें, यह हमें समझाते हैं; विशेषतः शंकर जी एवं गायत्री माता के उदाहरणों द्वारा। वे बताते हैं कि अध्यात्म सिद्धांतवाद का नाम है। देवताओं की स्थापना उनकी धारणा के मूल में यही है कि हम अपने जीवन में देवत्व को समाविष्ट करें। अब इस समापन किस्त में आगे पढ़ें—
षोडशोपचार का मर्म
मित्रो! पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजन करके देवताओं को प्रसन्न किया जाता है। षोडशोपचार का क्या मतलब है, यह आप समझिए तो सही। पंचोपचार का उद्देश्य तो समझिए। नहीं साहब ! उद्देश्य तो हम नहीं समझते। हम तो चावल खिलाएँगे, धूपबत्ती व दीप जलाएँगे, पानी पिलाएँगे, फूल चढ़ाएँगे और सब देवताओं की हजामत बनाएँगे। नहीं बेटा! ऐसा नहीं हो सकता। ये सारे-के-सारे खालिस प्रतीक हैं। हम जल चढ़ाते हैं—'पाद्यं समर्पयामि,' 'अर्घ्यं समर्पयामि,' 'स्नानं समर्पयामि।' क्या मतलब है? हम अपना श्रम, अपना पसीना लगाएँगे भगवान के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए। समाज, लोक-मंगल, विराट ब्रह्म के लिए हम श्रम का पसीना बहाएँगे, उनके पाद धुलाएँगे पसीने के द्वारा, यह है—'पाद्यं समर्पयामि।' इस पानी से क्या काम बनेगा। नहीं साहब! एक चम्मच जल से हम भगवान जी को नहलाएँगे। भगवान जी तो बहुत बड़े हैं? हाँ महाराज जी! हमसे तो चौगुने, सौगुने बड़े हो सकते हैं। फिर उन्हें तो पीछे नहलाना, पहले तू एक चम्मच पानी से नहा करके दिखा। नहीं महाराज जी! 'स्नानं समर्पयामि।' बेकार की बात मत कर, किसे करा रहा है स्नान? स्नान की जो वृत्ति, जो भावना है, उसके पीछे रहस्य छिपा है कि हम पहले स्वयं अपनी सफाई करेंगे, अंतरंग से स्नान करेंगे। यह हमारा भगवान और ईमान जो गंदा, कलुषित हो गया है, आप इसको स्नान कराइए। यह ही है 'स्नानं समर्पयामि।'
'अक्षतान् समर्पयामि' का क्या मतलब है? मित्रो! इसका मतलब एक ही है कि हमारी जो कमाई है, उसका एक अंश हमें भगवान को देना चाहिए। अक्षत इसका स्मरण दिलाते हैं कि हम जो पैसा कमाते हैं, उसमें से आपका हिस्सा निकालते हैं, लीजिए यह अंशदान—'अक्षतान् समर्पयामि।' हम सब नहीं खाएँगे, जो कमाएँगे, उसका थोड़ा हिस्सा अपने लिए रखेंगे और शेष लोक-मंगल के कार्यों में लगाएँगे। हे भगवान! हमारे भीतर इतनी निष्ठा जगाना कि हम कम-से-कम में अपना गुजारा करें और अधिक-से-अधिक धन आपको देते चले जाएँ। इसका प्रतीक (सिंबल) है—'अक्षतान् समर्पयामि।'
पुष्प जैसे बनिए
मित्रो! हम भगवान जी को फूल इसलिए चढ़ाते हैं कि हमारा फूल जैसा जीवन, हँसता-हँसाता हुआ जीवन, खिलता-खिलाता हुआ कोमल जीवन बने। अगर आपको यह विश्वास हो जाए कि हम फूल जैसा जीवन जिएँगे, फूल जैसे बनेंगे तो आपका जीवन भगवान के चरणों पर, भगवान के गले पर, भगवान के मुकुट पर विराजमान होने का अधिकारी बन सकता है। नहीं साहब! हम तो भगवान जी को फूल खिलाएँगे। क्या करेंगे भगवान जी फूल खाकर के? वे तो चारों ओर घूमते रहते हैं। जहाँ कहीं बगीचा दिखाई पड़ेगा, वहीं जा बैठेंगे और फूल सूँघते रहेंगे। क्यों भगवान जी! क्या मामला है? अरे साहब! बहुत दिनों से फूल सूँघने को नहीं मिले थे, सो आ गए, यहाँ फूलों की महक आती रहती है। तो फिर यहीं रहिए न? हाँ, जहाँ खुशबू आएगी, वहीं रहेंगे। बेटे ! भगवान को खुशबू और बदबू से, फूल और पत्ती से कोई ताल्लुक नहीं है। फूल हम भगवान को नहीं चढ़ाते, बल्कि अपने ईमान को चढ़ाते हैं और भगवान के बहाने अपने आपको सिखाते हैं कि तुझे फूल जैसा बनना चाहिए। हमारा भगवान जो हमारे भीतर सो गया है, उसको हम नसीहत देते हैं, उसको सिखाते हैं, उसको बहलाते-फुसलाते हैं कि आप फूल बनिए। भगवान क्या करेंगे फूल का?
चंदन-सी सुगंधि एवं प्रकाशवान जीवन
मित्रो ! भगवान जी को चंदन हम इसलिए लगाते हैं कि हमारी जिंदगी चंदन जैसी सुगंधित बननी चाहिए। साँप और बिच्छू हमारे आस-पास रहें, लेकिन हम उनका जहर अपने ऊपर स्वीकार न करें। हम साँप-बिच्छुओं को भी तरावट और खुशबू देते चले जाएँ। हमारे समीप जो काँटे उगे हों, उनको भी हम खुशबू देते और अपने समान बनाते चले जाएँ। अगर हमारी यह वृत्ति और यह प्रयास रहे तो हमारा चंदन चढ़ाना सार्थक। मित्रो! हम जो दीपक जलाते हैं. प्यार से भरा लबालब जीवन। उसमें वर्तिका अर्थात लगन और उसके भीतर प्रकाश। जलता हुआ प्रकाश हमारे जीवन को प्रकाशित करे। हम प्रकाशवान जीवन जिएँ तो हमारा दीपक जलाना सही है। बेटे! भगवान जी को दीपक की कोई जरूरत नहीं है। भगवान जी का तो दिन में सूरज जलता रहता है और रात में चाँद। उनको तेरे दीपक का क्या करना है। दीपक तो हम अपने आपको दिखाते हैं। अपने मन को, बुद्धि को, चित्त को, अपने अंतर को दिखाते हैं कि हम दीपक होकर के जिएँ। दीपक हमारा लक्ष्य होना चाहिए। अगर यह वृत्ति हमारे पास हो तो मैं समझूँगा कि भगवान की तरफ आपका मन चलने लगा।
आत्मशोधन : मूल लक्ष्य
मित्रो ! ढेरों-की-ढेरों उपासनाएँ हमने आपको बता दी हैं। उन सब के पीछे एक ही उद्देश्य है, दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है। भगवान को बहकाना और भगवान को फुसलाना उनका उद्देश्य नहीं है, बल्कि अपने आपका परिशोधन और अपने आपका परिष्कार। बस, सारी उपासनाओं का इतना ही उद्देश्य है। भगवान के भजन से लेकर जप-तप और ध्यान करने तक का एक ही उद्देश्य है। भगवान पर इसका कोई असर नहीं हो सकता। असर होगा तो आपके ऊपर कि आप सही होते जाएँगे और सही होते ही भगवान खिंचते हुए चले आएँगे। एक दिन आपसे कह रहा था कि पेड़ों में वह ताकत होती है कि बादलों को खींच करके ले आते हैं। आप भी भगवान को खींच करके ले आ सकते हैं, अगर आपके पास वह चुंबक है—मैग्नेट है, जिसको मैं चरित्र कहता हूँ। जिसको मैं लोकसेवी बुद्धि और वृत्ति कहता हूँ। अगर यह चीज है तो आपके पास भगवान जी आ जाएँगे। आपको भगवान जी के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है। सारी-की-सारी प्रक्रियाएँ इसी के लिए बनाई गई हैं। आत्मशोधन की प्रक्रिया, देवपूजन की प्रक्रिया के बारे में थोड़ा-सा प्रकाश मैंने डाला।
जप क्या है? जप है बेटे! रगड़। जप किसे कहते हैं? जप बार-बार का रेपिटिशन है। रेपिटिशन क्या है? जैसे हम मिट्टी लेते हैं और हाथ धोते हैं। अरे साहब! यह क्या कर रहे हैं आप? बेटे! हम हाथ माँज रहे हैं, रगड़ रहे हैं। बरतन को बार-बार माँजते हैं। जप मानें रिपीट करना। फिर बार-बार क्यों करते हैं? जैसे पत्थर के ऊपर रस्सी की रगड़ पड़ती है तो निशान पड़ जाता है। यह हमारा पत्थर वाला दिल है, इस पर राम नाम की रस्सी की हम बार-बार रगड़ लगाते हैं। बार-बार गायत्री मंत्र का जप करते हैं, २४००० गायत्री मंत्र का जप करते हैं, ताकि इस पत्थर जैसे, चट्टान जैसे दिल पर निशान पड़ें। साबुन हम बार-बार लगाते हैं, क्या मतलब है? बेटे ! यह रेपिटिशन हो रहा है। हम बार-बार कपड़े धोते हैं। अरे ऐसे धोया कीजिए कि कपड़े पर पानी डाल दिया और निचोड़ दिया। नहीं, कपड़ा साफ करने के लिए रगड़ना जरूरी है। यह रेपिटिशन है।
अपनी धुलाई-धुनाई ही जप
मित्रो ! रेपिटिशन माने अपने आपकी धुलाई, अपने आपकी धुनाई। जप करने का मतलब जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, यही है और यही होना चाहिए। हम भगवान को बार-बार पुकारते हैं, जिसको हमने खो दिया है। उसको हम याद करते हैं कि हमारा हीरा चला गया, हमारा जीवन, हमारा प्राण चला गया। इसीलिए हम भगवान को, गायत्री माता को बार-बार पुकारते हैं। सीता जी को रावण चुरा ले गया था। रामचंद्र जी हर जगह पुकारते फिरे—सीता-सीता-सीता। हजारों बार उन्होंने पुकारा, पेड़ों से, पत्तों से पूछा, रिपीट करते रहे बार-बार सीता-सीता-सीता। दिन और रात सीता-सीता चिल्ला रहे थे कि हमारी सीता को कोई चुरा ले गया, हमारे ईमान को कोई चुरा ले गया। हमारी आस्थाएँ चली गईं, हमारा लक्ष्य, हमारा आदर्श चला गया। बेटे! हमारा भी सब कुछ चला गया। हम लाश के, छूँछ के तरीके से, सड़े हुए, मरे हुए इनसान के तरीके से आदर्श विहीन, सिद्धांतविहीन, पेट और औलाद के लिए जिंदा रहने वाले कृमि-कीटकों के तरीके से जी रहे हैं। हमारी इनसानियत चली गई, खो गई। जिसको हम गायत्री माता के रूप में पुकारते हैं और कभी २४००० जप, कभी १०८ बार जप करते हैं।
गज और ग्राह की लड़ाई में एक ग्राह था और एक था गज। ग्राह ने पकड़ लिया गज का पाँव और पानी में घसीट ले गया। गज चिल्लाया था। उसने १०८ बार भगवान का नाम लिया था। मित्रो! हमारी तो चारों-की-चारों टाँगें और एक हमारी सूँड़ और एक हमारी पूँछ, छहों को छह ग्राहों ने पकड़ लिया है और ये हमें भवसागर में डुबोने के लिए ले जा रहे हैं। एक ग्राह का नाम काम, एक ग्राह का क्रोध, एक का लोभ, एक का मोह, एक का मद और एक का मत्सर। ये छह के छहों पकड़कर हमको डुबोने ले जा रहे हैं। हम गज के तरीके से चिल्लाते हैं। हे भगवान! हम डूबे जा रहे हैं, आपकी भुजाएँ लंबी हों तो आप आइए और हमको इस पाप-पंक में से बचाइए। हम आपसे और कुछ नहीं माँगते।
क्या करें, प्रभु से प्रार्थना
रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता, जिसमें उन्होंने यह प्रार्थना की है कि हे भगवान! जब हम आपसे मुसीबत से छुटकारा प्राप्त करने की प्रार्थना करें तो आप इनकार कर देना! आप हमसे यह कहना कि अपनी गलतियों से मुसीबतें बुलाई हैं, गलती ठीक कीजिए। हे भगवान! जब हम आपसे संपत्ति माँगें तो आप देने से इनकार कर देना और यह कहना—हमने आपको ये कलाइयाँ और यह अक्ल इसलिए दी कि आप इनका ठीक तरीके से इस्तेमाल कर रहे होते तो आपने चैन की जिंदगी जी होती, संतोष की जिंदगी जी होती। आप हमारी कोई मदद मत करना, लेकिन अगर आप दया करते हों, भक्तवत्सल हों और आपके पास कोई वरदान हो तो एक ही वरदान देना कि हम जब पाप के पंक में गिर रहे हों, तो अपनी लंबी वाली भुजाएँ फैला करके हमको रोक लेना, ऊँचा उठा लेना, बस और हमको कोई चीज नहीं चाहिए।
मित्रो! हमको भगवान से एक ही प्रार्थना करनी चाहिए कि पाप के पंक में गज के तरीके से जो गिरते-डूबते चले जा रहे हैं, उनका उद्धार अगर कर सकते हों तो कर दीजिए। राम नाम की, गायत्री माता की पुकार अगर हम द्रौपदी के तरीके से करते हैं कि हम नंगे हुए जा रहे हैं, हे भगवान! आइए और हमारे जीवन को बचा लीजिए। यह मनुष्य का जीवन तो गया। बस, यही है राम नाम का जप, गायत्री मंत्र का जप, इसी का नाम है अनुष्ठान। नहीं महाराज जी! जप करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। बेटे ! मैं इस बात पर विश्वास नहीं करता। नाम लेने से कोई प्रसन्न क्यों हो जाएगा, क्या वजह है? नहीं साहब! राम नाम लेने से उद्धार हो जाता है। गलत, नाम लेने से किसी का उद्धार नहीं हुआ, न कभी हो सकता है। हाँ, अगर आप राम नाम लें और वाल्मीकि के तरीके से राम का काम भी करें तो मैं आपकी बात समझ सकता हूँ। अजामिल के तरीके से आप राम नाम लें और अजामिल ने जिस तरीके से बकरे काटना बंद कर दिया था, आप भी गलत काम करना बंद कर दें तो मैं समझूँगा कि आपने राम का नाम लिया है।
काम करें हम राम का
मित्रो ! जितने भी संत हुए हैं, जिनके राम नाम की महत्ता के बारे में हम बताते रहते हैं। उनमें से प्रत्येक संत ने अपने पापों को एक क्षण में काटकर फेंक दिया। आपका भी राम का नाम यदि सही रहा होगा तो आपने पापों को छोड़ दिया होगा। चाहे वह राम के नाम का असर हो तो मुबारक और आपकी भक्ति का असर हो तो मुबारक। मैं झगड़े में नहीं पड़ता, जो राम का काम कर रहा होगा और राम का नाम ले रहा होगा तो उसके सत्परिणाम जरूर निकलने चाहिए, जैसा कि गोस्वामी जी ने राम नाम का माहात्म्य बताया है। बेटे! बिजली के निगेटिव और पोजिटिव दो तार नहीं मिलेंगे तो बिजली का करैंट पैदा नहीं हो सकता। आदमी का चरित्र और आदमी का भजन, ये दोनों नहीं मिलेंगे तो कोई भी भजन सार्थक नहीं हो सकता। राम का नाम, आदमी का चरित्र, आदमी की समाजनिष्ठा, आदमी की उदारता, इनका हर हाल में समन्वय होना चाहिए। अगर यह समन्वय नहीं है तो कोई अच्छा परिणाम नहीं हो सकता। राम नाम के जप की महत्ता, ध्यान की महत्ता यही है।
मित्रो! हम बहिर्मुखी जीवन जीते हैं, इसलिए बाहर की समस्याएँ हम पर हावी रहती हैं। अभी हम आँख बंद कर ध्यान करते हैं तो हमें बाहर की चीजें दिखाई देती हैं। जो शक्तियाँ, विभूतियाँ, जो चमत्कार और संपदाएँ भीतर भरी पड़ी हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ती। पेड़ का बाहर वाला हिस्सा हमको दिखाई पड़ता है, जड़ें दिखाई नहीं पड़ती। जीवन की प्रगति, जीवन की शांति, जीवन की उन्नति की जड़ें हमारे भीतर हैं। जड़ों को खोजिए, जड़ों को कुरेदिए, जड़ों में खाद-पानी लगाइए, ताकि आपका पेड़ बढ़ने लगे, फलने-फूलने लगे। जड़ें हमारे भीतर हैं, पर वे दिखाई नहीं देतीं। कस्तूरी हमारे भीतर है, बाहर नहीं है। ध्यान से हम अपने बहिर्मुखी जीवन को अंतर्मुखी बनाते हैं और भीतर के भगवान को खोजते हैं। अपना चरित्र और अपना भविष्य देखने की कोशिश करते हैं। ध्यान का उद्देश्य है कि हम अपने भीतर देखें और हमने जो गँवा दिया है, जो भुला दिया है, उसको खोजें कि वह कहाँ है। हमारे सामने बड़ी भारी गुत्थी है कि जो हमारी शांति थी, सिद्धि थी, वह कहीं चली गई, खो गई। हम उसकी तलाश करते हैं कि उसे कौन ले गया? हम कहाँ भूल गए? कहाँ भटक गए? मेले में हम कैसे खो गए? अपना नाम कैसे भुला बैठे? अपना रास्ता कहाँ भूल गए? अभी न तो यह पता है कि हम कहाँ से आए हैं और कहाँ जा रहे हैं? अपना लक्ष्य भुला बैठे, दिशा भुला बैठे। मेले में इस कदर मशगूल हो गए कि तमाशा देखा तो तमाशे वाले के पास खड़े हो गए, नाच वाले को देखा तो वहाँ खड़े हो गए। बाजीगर को देखा तो वहाँ खड़े हो गए। मिठाई वाले को देखा तो वहाँ खड़े हो गए। मेले-ठेले में ही खो गए। अरे अभागे! तुझे जाना कहाँ है? ध्यान कर कहाँ से आया और कहाँ जाना है?
ध्यान का अर्थ—लक्ष्य का चिंतन
मित्रो! ध्यान की यह प्रक्रिया भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं है। भगवान जी ध्यान में आते हैं तो, नहीं आते हैं तो, इससे कोई मतलब नहीं है। आपका मतलब यह होना चाहिए कि हमारा ध्यान अपने जीवन की तरफ है कि नहीं, लक्ष्य की ओर है कि नहीं है। बेटे! ध्यान का मतलब इतना ही है—जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ कि ध्यान का मतलब है—एकाग्रता, तन्मयता। मन नहीं भागना चाहिए। महाराज जी! मेरा मन तो भागता है। तो भागने दे। बेटे! मन को एक जगह केंद्रित नहीं किया जा सकता। दिमाग की बनावट ही ऐसी है कि वह एक जगह ठहर नहीं सकता। एक जगह ठहरेगा तो, या तो समाधिस्थ हो जाएगा या आदमी पागल हो जाएगा। आदमी का दिमाग ठहरने के हिसाब से नहीं बनाया गया है। ध्यान में जो आपको गणेश जी की मूर्ति दिखाते हैं, वह सिर्फ इसलिए दिखाते हैं कि हमारा जो ध्यान है, वह गणेश जी की सूँड़, गणेश जी का चूहा, गणेश जी का अंकुश, गणेश जी की मिठाई, गणेश जी के दाँत, गणेश जी की तोंद, गणेश जी की आँखें—ये सारे के सारे मन को एक छोटे से दायरे में घुमाते रहें। बस, इसीलिए चित्र या मूर्तियाँ बना दी गई हैं।
मन ठहर सकता है? नहीं। मन रुकेगा नहीं। मन मीरा का भी रुका नहीं, मन रामकृष्ण परमहंस का भी रुका नहीं, चैतन्य महाप्रभु का रुका नहीं। हर समय कहते रहते थे—घायल की गति घायल जाने, जो कोई घायल होय। वैज्ञानिक का भी मन ठहरता नहीं है। एकाग्र तो होता है, लेकिन एक दिशा में सोचता रहता है कि यह केमिकल इसमें मिला देंगे तो यह बन जाएगा। मन एकाग्र है बेशक, लेकिन अपने विषय में तेजी से चल रहा है। आप ध्यान से मन को एकाग्र करें, लेकिन अपनी दिशा और धारा के बारे में विचार करें। हमारा जीवन कहाँ चलना है? हमें क्या बनना है? कहाँ जाना है? अपने लक्ष्य के संबंध में जिस समय आप एक ही विषय पर विचार कर रहे होंगे, आपका चिंतन-मनन तन्मय होकर चल रहा होगा, जीवन-लक्ष्य—महानता प्राप्ति के बारे में आप प्लानिंग कर रहे होंगे मैं समझ लूँगा कि आप ध्यान में, समाधि में बैठे हुए हैं। मैं जब लेख लिखने के लिए बैठता हूँ तो इतना तन्मय हो जाता हूँ कि आप मेरे पास से निकल जाइए तो मुझे यह पता नहीं चलता कि कौन आया और कौन चला गया। मैं ध्यान मग्न रहता हूँ, लेकिन उस वक्त मेरा दिमाग इतनी तेजी से काम करता रहता है कि एक सेकंड के भीतर हजारों विचार, हजारों रिफरेन्स आ जाते हैं। मेरा दिमाग उस समय इतना एक्टिव—सक्रिय होता है कि अगर आप देखेंगे तो कहेंगे कि इस वक्त तो इन्होंने हद कर दी। लट्टू जब घूमता है तो मालूम पड़ता है कि टिका हुआ है, परंतु वह इतनी तेजी से घूमता है कि उसकी चाल मालूम नहीं पड़ती।
गहरे डूबकर ध्यान करें
मित्रो! ध्यान का अर्थ यह है कि आप मनन और चिंतन इस तेजी के साथ करें कि आज की दुनिया से अपने आपको अलग कर लें और अपने जीवन के संबंध में, अपने लक्ष्य के संबंध में, अपने परिष्कार के संबंध में इतने ज्यादा गहरे डूब जाएँ कि उसके अलावा कोई और चीज समझ में ही न आए। मित्रो! यह ध्यान की प्रक्रिया है। नहीं साहब! ध्यान में हमारा मन भाग जाएगा तो? तो भागने दीजिए, इससे आपके ध्यान में कोई फरक नहीं पड़ने वाला है। कैसे? चलिए मैं विधि बता देता हूँ। आपका मन जहाँ कहीं भी जाए, आप यह मानकर चलिए कि यह भगवान का रूप है। यह जो संसार है, हर जगह यह विराट ब्रह्म है। इससे बाहर तो मन कहीं नहीं जाएगा। नहीं, महाराज जी ! रहेगा तो इसी में। तो बस, यह मान लीजिए कि सारा जगत विराट ब्रह्म है और मन ब्रह्म की परिक्रमा कर रहा है और ब्रह्म में घूम रहा है। फिर चाहे वह पेड़ हो, जल हो, पहाड़ हो या सिनेमाघर हो। सब जगह यह मानकर चलिए कि यह भगवान का स्वरूप है। सारी सृष्टि में ब्रह्मसत्ता समाई हुई है और हमारा मन जहाँ कहीं भी जा रहा है, सब जगह ब्रह्म के दर्शन कर रहा है। चलने दीजिए मन को, कहाँ जाएगा मन। मन एकाग्र नहीं होता और न ही आपको इसकी आवश्यकता है। आप तो अपने लक्ष्य और अपने उद्देश्य के ऊपर मनन और चिंतन में, स्वाध्याय और सत्संग में इतना तन्मय हो जाइए कि अपने जीवन की दिशाधारा के संबंध में विचार करने के अलावा कोई और विचार ही न आए। बस, समझ लीजिए कि आपके ध्यान का उद्देश्य पूरा हो गया।
नहीं साहब! आप ऐसा उपाय बताइए कि जिससे मन भागने न पाए। बेटे! मन भागेगा, यह रुकेगा नहीं। हमारा मन लिखते समय और पूजा करते समय बिलकुल भागता है। पूजा करते समय हमारा मन इतना सक्रिय होता है कि आप इसे जरा खोल करके देख लीजिए। भगवान के पास, भगवान की समीपता, भगवान का प्यार और हमारा समर्पण आदि के भाव हमारे भीतर इतने ज्यादा उठते हैं कि हम काँपने लगते हैं। विचारों को बंद कर दीजिए? नहीं, विचार बंद नहीं हो सकते। विचारों को दिशा दीजिए, धारा दीजिए। बस, यही ध्यान है।
सोऽहम्, एकोऽहम्
मित्रो! 'सोऽहम्' का अर्थ यह है कि भगवान हमारे जीवन में समाविष्ट हो गए और हमने अपने 'अहं' को बाहर निकाल दिया और 'सो' हमारे भीतर समाविष्ट हो गया। भगवान का स्वामित्व हमारे शरीर में, भगवान का स्वामित्व हमारी इंद्रियों में, भगवान का स्वामित्व हमारे रोम-रोम पर, भगवान का स्वामित्व हमारे पैसे पर हो गया। अगर ये विचार हमारे मन में आएँ तो 'सोऽहम्' की उपासना सही है, जिससे भगवान और हम एक हो जाते हैं। 'सो' माने वह और 'अहं' माने मैं। हम दोनों एक हो जाते हैं। दोनों की सत्ता एक है। जिस तरह दूध और पानी मिल जाते हैं। ऐसे ही हम—पानी और भगवान—दूध दोनों को आपस में मिला दिया। भगवान के विचार हमारे, हमारी इच्छाएँ भगवान की और भगवान की इच्छाएँ हमारी हो गईं। इस तरह की एकता आप स्थापित कर लें। ‘एकोऽहम्' स्थापित कर लें तो फिर द्वैत खत्म हो जाएगा और अद्वैत रह जाएगा। द्वैत को मिटा लेना और अद्वैत को स्थापित कर लेना, सबमें अपने आपको देखना और अपने में सबको देखना, अद्वैत की यह वृत्ति 'सोऽहम्' की उपासना है।
मित्रो! 'खेचरी मुद्रा' अपने भीतर से ही रसपान करने को कहते हैं। मस्तिष्क मध्य स्थित सहस्रार हमारा ब्रह्मलोक है। इस ब्रह्मलोक में क्षीरसागर भरा हुआ है, कैलाश भरा हुआ पड़ा है। इसी में क्षीरसागर है, मानसरोवर है। कैलाश पर्वत इसी में है। इसी में शेषशायी विष्णु सोए हुए हैं—हमारे श्रेष्ठ विचारों के रूप में। इसका हम ध्यान करते हैं—अपनी जिह्वा द्वारा आनंद और उल्लास के रूप में। यही खेचरी मुद्रा हो जाती है। यह उपासना का अंतिम चरण और अंतिम बिंदु है। प्रारंभिक चरण और प्रारंभिक बिंदु वहाँ से प्रारंभ होता है, जहाँ हमने आपको ४५ मिनट की उपासना के अंत में समर्पण योग सिखाया है। जल का पात्र लेकर के हम जाते हैं और सूर्य भगवान के सामने जल चढ़ा देते हैं। इसका क्या मतलब है? बेटे! सूर्यनारायण तो कितने लंबे-चौड़े हैं। उनके सामने यह जो जरा-सा पानी हम गिरा रहे हैं, इससे उनको क्या फायदा होगा? इतना पानी वहाँ तक जाएगा तो उन तक पहुँचने में कितना समय लगेगा। अगर चंद्रमा की तरह रॉकेट से सूरज तक पानी भेजेगा तो भी उन तक पहुँचने में सालों लग जाएँगे। तब तक क्या वे प्यासे रहेंगे? उनका तो दम निकल जाएगा। बेटे ! यह मतलब नहीं है, इसका। उनको पानी की जरा-सी भी जरूरत होगी तो जरा-सी आग निकालेंगे और समुद्र का सारा पानी भाप बनाकर पी जाएँगे। उनके पास इसका इंतजाम है। तेरे पानी के बिना उनका कोई हर्ज नहीं होगा।
सूर्यार्घ्य किसलिए?
साथियो! सूर्यनारायण तो एक ही बात चाहते हैं उस सूर्यरूपी प्रकाश को, सूर्यरूपी भगवान को हम अपने जीवन का जल समर्पित करें। लोटे में रखी हुई जलरूपी जो हमारी जीवन-संपदा है, देहरूपी छोटे से घटाकाश के भीतर जो कुछ भी जलरूपी संपदा कैद है, इसको हम खाली करते हैं और भगवान को चढ़ाते हैं। जब हम जल चढ़ाते हैं और अपने आपको भगवान को सौंप देते हैं तो मित्रो! इसका क्या परिणाम होगा? इसका परिणाम यह होगा कि हमारे मन में यह भाव आएगा कि हमारे जीवन का जल भाप बन जाए, फैल जाए, बिखर जाए और कहीं भी ओस की बूँद बनकर टपके और तरावट लेकर जाए, सड़ने न पाए। इस छोटे से घड़े में सड़ने न पाए। हमारी अक्ल, हमारा श्रम, हमारी संपदा इस छोटे से घड़े के दायरे में रहकर सड़ने न पाए। इसको हम फैला दें और इसको उदात्त बनाते हुए चले जाएँ तो समझना चाहिए कि सूर्य भगवान को अर्घ्य चढ़ाने का उद्देश्य पूरा हो गया।
समर्पण का शिक्षण
मित्रो ! सूर्य भगवान को अर्घ्य चढ़ाने के संबंध में रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता मुझे अक्सर याद आती रहती है और मैं उसे बड़े मजे और बड़े प्यार से सुनाया करता है। रवींद्रनाथ टैगोर ने गाया है—"मैं गया दरवाजे-दरवाजे पर भीख माँगने के लिए। अनाज से भर ली मैंने झोली। एक आया भिखारी, उसने पसारा हाथ, हमको भी दे कुछ, जो तेरे पास है। मैंने बड़ी कंजूसी से, बड़ी हिम्मत को इकट्ठा किया और एक दाना निकाल करके उस भिखारी की हथेली पर रखा। भिखारी उस दाने को लेकर हँसता-मुस्कराता चला गया। मैं आया अपने घर और घर आकर के मैंने देखा, एक बड़ा-सा सोने का दाना उस अनाज के बीच में रखा हुआ था। समझ गया मैं कि ये सोने का दाना कहाँ से आया।" रवींद्रनाथ टैगोर ने गाया—मैं सिर धुन-धुन के पछताया कि मैंने अपनी सारी झोली के दाने क्यों न भिखारी के हाथ में दिए, ताकि वो मेरी झोली के सारे समूचे दाने सोने के होकर के आ गए होते।
मित्रो! जिन्होंने अपने दाने भिखारी के हाथ पर रखे, भगवान के हाथ पर रखे, उनके दाने लाखों गुने होकर के आ गए और सोने के होकर के आ गए। गाँधी के दाने सोने के होकर के आ गए। बुद्ध के दाने सोने के होकर के आ गए। नानक के दाने सोने के होकर के आ गए। सुदामा के दाने सोने के होकर के आ गए और हमारे दाने सोने के होकर के आ गए। मित्रो! यही परंपरा रही है। यही है समर्पण योग। यही है भगवान की बैंक में जमा करना। यही है अपने आपको खाली करना। फिर से भर जाने के लिए इससे कम में कोई बात नहीं बनती और इससे छोटा कोई सिद्धांत नहीं होता। यही है वह शिक्षण, जो समर्पण योग के नाम पर, सूर्य भगवान को जल चढ़ाने के नाम पर हम आपको सिखाते हैं। चाहे जप हो, चाहे ध्यान हो, चाहे खेचरी मुद्रा हो, चाहे 'सोऽहम्' साधना हो। चाहे देवपूजन की प्रक्रिया हो, चाहे आत्मशोधन हो, चाहे जल चढ़ाना हो अथवा कोई अन्य प्रक्रिया क्यों न हो। सबका उद्देश्य केवल एक है कि व्यक्ति अपने आपको देखे, अपने आपको समझे, अपनी समीक्षा करे और अपने आपको सुधारे, अपने को ठीक करे।
यही है पूजा-पाठ की फिलॉसफी
मित्रो! अगर हम अपने आपको ठीक कर पाए तो हमारी जिंदगी की हर समस्या ठीक होती हुई दिखाई पड़ेगी। भगवान, जिसको हम गलत समझते हैं, वह भी सही रूप में सामने आए, अध्यात्म का यही शिक्षण है, यही साइंस है और यही पूजा-पाठ की फिलॉसफी है। मुझे उम्मीद है कि आप इसे समझने की कोशिश करेंगे। अगर आपने यह समझा, इसको स्वीकार किया तो मैं समझूँगा कि सत्य के आप नजदीक आ गए और वहाँ आ गए जहाँ कि ऋषियों ने अध्यात्म की शुरुआत की थी। अध्यात्म का विस्तार किया था। आज तो अध्यात्म भ्रमवादी जंजाल का, अज्ञान का एक आवरण मात्र रह गया है। अगर अज्ञान के आवरण में से निकलकर वास्तविकता के नजदीक जाएँ तो आप यही पाएँगे, जैसा कि मैंने निवेदन किया। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥