उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री महामंत्र हमारे साथ-साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मित्रो! यह प्रक्रिया अनादिकाल से चली आ रही है कि हम भगवान के लिए अपनी आत्मसंशोधन की प्रक्रिया को जारी रखें। हमने अपने आप को धोया, अपने आप को साफ किया, अपने आप को इस लायक बनाया कि भगवान का निवास वहाँ होना संभव हो सके। अवागढ़ महाराज ने एक बार पंडित मोतीलाल नेहरू को किसी सलाह के लिए अपने यहाँ बुलाया। उन दिनों वे एक हजार रुपया रोज अपनी फीस लिया करते थे। अवागढ महाराज के यहाँ जब पंडित जी आए तो उन्होंने क्या काम किया? सबसे पहले अपने नहाने-धोने और टट्टी-पेशाब वगैरह जाने के स्थान देखे। उन्होंने देखा कि यहाँ तो दुर्गंध आ रही है। उन्होंने कहा-अरे भाई! हमें बीमार करोगे क्या? यहाँ तो हम नहीं रह सकते। अवागढ़ महाराज ने तुरंत दूसरा इंतजाम किया। उनके लिए नए कमोड मँगवाए और नई जगह बनवाई, जहाँ गंदगी न पैदा होती हो और बदबू न आती हो। भगवान को आप बुलाना चाहते हैं तो बेटे! तुझे नहीं मालूम कि क्या करना पड़ता है? कल गवर्नर आ रहा है। सबकी अक्ल लग रही है कि देखिए कूड़ा हटाइए सड़क साफ कीजिए रास्ता बंद कीजिए। नाली को यहाँ से निकालिए यहाँ से अमुक सामान उठाइए। गवर्नर के आने पर कितनी आफत आ रही है और सफाई में कितना पैसा खरच करना पड़ रहा है।
मित्रो! अगर भगवान आपके पास आए तब क्या करना पड़ेगा? तब बेटे! रोम-रोम साफ करना पड़ेगा। अपनी नस-नस साफ करनी पड़ेगी। इससे कम में काम नहीं चल सकता। गंदगी में आकर भगवान क्या करेगा? जब गवर्नर आ रहे हैं तो ट्रैफिक पुलिस वाले, पुलिस वाले लग रहे हैं। हम लग रहे हैं, सारे कर्मचारी लग रहे हैं। आप लग रहे हैं, कार्यकर्ता लग रहे हैं। साफ करो; साफ करो....! क्यों साहब! साफ करने से क्या मिलेगा? साफ करने से यह मालूम पड़ेगा, समझ में आएगा कि ये इस लायक हैं कि इनके यहाँ जाया जा सकता है। अगर हम दरवाजे तक कुत्ते की टट्टी का ढेर लगा दें तब? तब मित्रो! गवर्नर साहब कहेंगे कि ये बड़े घटिया आदमी हैं। भगवान के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। बस, एक काम करना पड़ेगा अपने आप की सफाई। अपने आप की धुलाई को अगर समझ सकते हों तो मैं आपको यह कह सकता हूँ कि आपने अध्यात्मवाद का आदर्श स्वीकार कर लिया, आपने अध्यात्मवाद से फायदा उठाने का सही रास्ता जान लिया। इससे कम में कोई रास्ता नहीं है। नहीं साहब! हम तो देवता की खुशामद करेंगे। बेटे! अगर देवता की खुशामद से फायदे हुए होते तो ये लोग, जो मंदिरों में सवेरे से लेकर शाम तक सारे दिन आरती उतारते हैं, घंटी बजाते हैं, सवेरे चार बजे से उठकर रात के नौ बजे तक ये सारे दिन भगवान जी के गोरखधंधे में लगे रहते हैं। इतने पर भी इन बेचारों को न खाने के लिए रोटी का इंतजाम है, न बीमारियों से बचने के लिए दवा खरीदने का पैसा है, न बाल-बच्चे किसी काम के हैं, न औरत का ठिकाना है, न रहने के लिए मकान है।
मित्रो! आपको यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि जो पुजारी मंदिर में बारह घंटे और सोलह घंटे पूजा करने, काम करने के बाद खाली हाथ है, वहीं आप पंद्रह मिनट या आधा घंटा पूजा करके यह मानते हैं कि हमारी ये मनोकामनाएँ पूरी हो सकती हैं और हमको यह फायदा हो सकता है। आपको यह बात समझ में नहीं आती, इतनी भी अक्ल नहीं है, इतनी भी बुद्धि आपकी काम नहीं करती। नहीं साहब! बुद्धि से क्या फायदा? हम तो ऐसे ही ले लेंगे। यहाँ तो अँधेरगर्दी चल रही है, जो कोई खुशामद कर लेता है, उसका उल्लू सीधा हो जाता है। बेटे! ऐसा कोई कायदा नहीं है। भगवान बड़े कायदे से चल रहा है। यह दुनिया बड़े कायदे से चल रही है। सूरज कायदे से चल रहा है। धरती कायदे से चल रही है। हवा कायदे से चल रही है। समुद्र कायदे पर टिके हुए हैं और मनुष्य के जीवन की उन्नति भगवान के कृपा-कायदे पर टिकी हुई है। नहीं साहब! बिना कायदे के चल रही है और ऐसे ही जो कोई उनकी खुशामद कर लेता है, पा लेता है। नहीं बेटे! ऐसा नहीं है।
परब्रह्मरूपी भगवान
मित्रो! आप कहेंगे कि ये सारे का सारा पूजा-उपासना का विधान किसलिए बनाया गया है? चलिए मैं समझाता हूँ आपको कि पूजा-उपासना का विधान किस मकसद से चलाया गया है। आप उसके असली मकसद को नहीं समझते, केवल बाहरी क्रिया-कलाप को समझते हैं। बाहरी क्रिया-कलाप को आप यह मान लेते हैं कि यही सब कुछ है और जिस काम के लिए बनाया गया है, उस ओर ध्यान नहीं देना चाहते। यही आपकी गलती है। आपको यह समझना चाहिए कि पूजा उपासना का सारे का सारा स्वरूप किसलिए बनाया गया है? चलिए पहले तो मैं यह कहूँगा कि भगवान किसलिए बनाया गया है। भगवान बनाया गया? वो भगवान बनाया गया है। एक भगवान तो वो है, जो सारी दुनिया में छाया हुआ है और उस भगवान को हम नहीं समझ सकते, उस भगवान को हम नहीं जान सकते। वह इतना बड़ा भगवान है। भगवान की बात तो जाने दीजिए हम फिजिक्स को नहीं जान सकते, फिजिक्स जो साइंस है। यह साइंस हमारी जमीन पर किसी और तरीके से काम कर रही है। यहाँ एटम दूसरे तरीके से काम करता है। जमीन का जो दूसरा वाला हिस्सा है, हवा का, उस पर आप चले जाइए। वहाँ का जो एटम है, पक्का नहीं, कच्चा एटम है। वहाँ से आप दो हजार मील (लगभग ३००० किमी) ऊपर चले जाइए वहाँ पर आप एक ऐसी हवा पाएँगे कि पहाड़ के तरीके से आग के शोले जलते हुए कहीं से कहीं भागते चले जा रहे हैं। कहीं नीली रोशनी होती है, फुलझड़ियाँ जल रही हैं। कहीं पीली रोशनी दिखाई पड़ती है। कहीं हवा के ऐसे चक्र-भँवर जैसे दिखाई पड़ते हैं। उन्हें देख करके आप हैरान हो जाएँगे कि हम भूतों की दुनिया में कहाँ आ गए।
मित्रो! मैं जमीन की ग्रेविटी की बात कहता हूँ। यहाँ के एटमास्फियर का जो दूसरा वाला हवा का हिस्सा है, वहाँ की परिस्थितियाँ और यहाँ की परिस्थितियाँ अलग हैं। यहाँ की फिजिक्स, यहाँ की हवा का दबाव अलग है। यहाँ की अमुक गैस और अमुक गैस के पैदा होने की प्रतिक्रिया अलग है, जबकि दो हजार मील (लगभग ३००० किमी०) ऊपर के गैस का तरीका, उसकी फिजिक्स अलग है। राहु की फिजिक्स अलग है, केतु की फिजिक्स अलग है। जितने भी लोक-लोकोत्तर हैं, सबकी फिजिक्स अलग-अलग है। आप इस फिजिक्स को तो समझते नहीं हैं, फिर भगवान को क्या समझेंगे? भगवान बहुत बड़ा है, विशाल है। वह इतना विशाल है कि हम उसका वर्णन नहीं कर सकते कि वह कितना विशाल है? हमारी अक्ल ऐसी है, जैसे मक्खी-मच्छर के बराबर। हम इस ब्रह्माण्ड की कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि हमारी अक्ल बहुत कम है। जिस मंदाकिनी में, निहारिका में हम लोग रहते हैं, उसमें दस अरब तारे हैं। वे सब एक-एक सूरज के बराबर हैं। एक सूरज की कल्पना करना ही हमारे लिए मुश्किल हो रहा है कि वह कितना लंबा-चौड़ा है? कितना उसका विस्तार है? फिर उतने तारों की कल्पना हम कैसे करेंगे और फिर एक-एक निहारिका इतनी दूर है कि एक-एक निहारिका का प्रकाश, जो एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील के (लगभग तीन लाख किमी०) हिसाब से चलता है और यहाँ हजारों वर्षों बाद पहुँचता है। कितनी दूरी है? बेटे! दूरी की हम कल्पना नहीं कर सकते। यह हमारी कल्पना से बाहर है।
नेति-नेति
मित्रो! ब्रह्म को ''नेति-नेति'' कहा गया है। इस ब्रह्माण्ड के बारे में भी और भगवान के बारे में भी तथा इस पृथ्वी के बारे में भी यही बात है। उस भगवान की हम कल्पना नहीं कर सकते, जो सर्वव्यापी है। वह भगवान हमारे काबू से बाहर है। भगवान का स्वरूप समझने के लिए हमारे पास कोई शक्ति नहीं है। हमारे शरीर में जो छोटे-छोटे जीवाणु हैं, वे किस तरीके से पैदा होते रहते हैं और किस तरीके से मरते रहते हैं? इस छोटे से जीवाणु के भीतर जो एक न्यूक्लियस काम करता है, वह सूरज के बराबर शक्तिशाली है। बेटे! हम इसकी क्षमता की कल्पना नहीं कर सकते। इसी तरह हम भगवान की शक्ति का चिंतन नहीं कर सकते। भगवान का स्वरूप जानना हमारे काबू के बाहर है। भगवान की गतिविधियों के बारे में जो वेदों ने कहा है- ''नेति-नेति'' यह हमारे चिंतन से बाहर है। हमारी अक्ल मच्छर के बराबर और भगवान पहाड़ के बराबर है। फिर हम कैसे कल्पना कर सकते हैं, उस भगवान की, जो सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में लोक-लोकांतरों में, ब्रह्माण्डों में समाया हुआ है। उसके कायदे और कानूनों तक को हम जान नहीं पाते हैं, फिर हम कैसे कह सकते हैं, उस भगवान के बारे में जो विराट है और विशाल है?
हमारा बनाया भगवान
मित्रो! जो भगवान हमारे पास है, जिसकी हम खुशामद करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं। यह भगवान क्या है? यह तो हमारा बनाया हुआ है। आप विश्वास रखिए यह सभी भगवान हमारे गढ़े हुए हैं। अगर ये भगवान हमारे बनाए हुए न होते तो दुनिया में केवल एक ही भगवान की कल्पना रही होती। इस दुनिया का नियामक एक ही भगवान है। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात एक ही ब्रह्म है और उस एक ही ब्रह्म के असंख्य नाम दिए गए हैं, लेकिन हमारे पास ढेरों के ढेरों ब्रह्म हैं और ढेरों के ढेरों भगवान हैं। आपका भगवान कौन सा है? साहब! लंबी मूँछों का। आपका भगवान ! लंबी पूँछ वाला। आपका भगवान? दाढ़ी रखाए हुए। आपका भगवान? खप्पर लिए हुए। आपका भगवान? जीभ निकालता हुआ। ऐसे-ऐसे ढेरों भगवान हैं कि हम क्या कह सकते हैं? एक भगवान सख्त वेजिटेरियन है-पानी छानकर पीजिए जीव हिंसा मत होने दीजिए सड़क झाड़कर चलिए किसी पर पाँव न पड़ जाए। ये हैं भगवान नंबर एक। अच्छा साहब! ये तो बहुत अच्छे भगवान हैं। भगवान नंबर दो-बकरी के बिना काम नहीं चलेगा, मुरगे के बिना काम नहीं चलेगा, आमलेट या अंडे के बिना काम नहीं चलेगा। यह है-नॉन वेजिटेरियन। अरे साहब! आप नॉन वेजिटेरियन हैं या वेजिटेरियन? वेजिटेरियन लोगों ने भगवान जी को वेजिटेरियन बना लिया है और नॉन वेजिटेरियन ने भगवान जी को नॉन वेजिटेरियन बना लिया है। सारे के सारे भगवान, जो आपको देवी-देवताओं के नाम पर दिखाई पड़ते हैं, यह सब खालिश मनुष्यों के बनाए हुए हैं। यह इसलिए बनाए गए हैं, ताकि हमारे ध्यान का उद्देश्य पूरा हो सके, ध्यान को बिखरने से रोका जा सके, ताकि हम जो ध्यान करते हैं, किसी न किसी छवि पर उसे रोक सकें।
कल्पना ने रचा है भगवान को
मित्रो! एक दिन मैंने आपको बताया था कि हमारा जीवन कैसा होना चाहिए और हम क्या बनना चाहते हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? इसके लिए हमने अपने-अपने इष्टदेव मुकर्रर किए हुए हैं। एक दिन मैंने ताजमहल का हवाला दिया था, जहाँ मॉडल बना हुआ रखा है। एक दिन दयालबाग का हवाला दिया था, जहाँ मॉडल बना हुआ रखा है। हम जैसा बनना चाहते हैं, भगवान भी हमने वैसे ही बनाए हैं। ये हमारे बनाए हुए भगवान हैं। जिसकी जैसी मरजी होती है, वह वैसे बना लेते हैं। क्यों साहब! श्रीकृष्ण भगवान काले रंग के थे या गोरे रंगे के? बेटे! हमने तो देखे नहीं। तो साहब! छापेखाने से जो छपे हुए आते हैं, वे ऐसे ही भगवान थे? ये भगवान तो गोल-मटोल चेहरे वाले हैं। शायद असली श्रीकृष्ण भगवान जो रहे हों, आँखें गड्ढे में धँसी रही हों और हो सकता है श्रीकृष्ण भगवान की नाक हमारे जैसी लंबी रही हो। नहीं महाराज जी! श्रीकृष्ण भगवान ऐसे थे, कल देखे थे हमने। बेटे! ये हमने कल्पना से बना लिए हैं।
अगणित मान्यता, अगणित भगवान
मित्रो! जितने भी देवी-देवता बनाए हैं, हमने अपनी-अपनी कल्पना से बनाए हैं। किसी की देवी सिंह पर सवार है, किसी की देवी नंग-धड़ंग जीभ निकालती हुई और बारह भुजा वाली है। किसी की देवी चंडी दो भुजाओं वाली है। किसी की देवी उल्लू पर बैठी हुई है, किसी की किसी पर बैठी हुई है। कितनी देवियाँ हैं-कोई खप्पर लिए, कोई जीभ निकाले हुए, कोई सोने के जेवर पहने हुए, कोई मुण्डमाला पहने हुए है। बेटे! इतनी देवियाँ दुनिया में कहाँ से हो सकती हैं? कोई देवी नहीं है। दुनिया में एक ही देवी है, जिसका नाम है-भगवान। उसी को माता कहा गया है, उसी को पिता कहा गया है। उसी को त्वमेव माता च पिता त्वमेव कहा गया है। एक ही सर्वशक्तिमान के कल्पित नाम, कल्पित तरु हैं। ये सब हमारी कल्पनाएँ हैं, जो देवियों के नाम पर, देवताओं के नाम पर, गणेश जी के नाम पर, महादेव जी के नाम पर, हनुमान जी के नाम पर कितने सारे देवी-देवता बना करके रखे हैं। बेटे! अभी ये कम हैं। कितने होने चाहिए? पुराने जमाने में तैंतीस कोटि मनुष्य थे, यहाँ और हर आदमी का एक भगवान अलग था। अभी हम कितने हो गए हैं-एक अरब से ऊपर। अत: एक अरब से ऊपर देवता तो कम से कम होने ही चाहिए। ज्यादा हो जाएँ तो भी कोई हर्ज नहीं। हर आदमी की अपनी-अपनी कल्पना, अपनी अपनी मान्यता, अपने --अपने विचार और अपने-अपने सिद्धांत के हिसाब से चाहे जितने देवी-देवता बनाए जा सकते हैं और बन सकते हैं। बनते रहे हैं और बनेंगे।
रोज पैदा हो रहे हैं नए देवता मित्रो! जो पुराने देवी-देवता थे, वे सब रिटायर हो गए बरखास्त हो गए। कौन-कौन से बरखास्त हो गए। वेदों के देवता बिलकुल अलग थे, जो आज के देवताओं से कोई माने नहीं रखते। एक था पूषा, आपने सुना है कभी? पूषा तो साहब! बिहार में है, जहाँ गेहूँ की फसल तराशी जाती है। अरे नहीं बेटे! वो नहीं। पूषा एक देवता था। वह बड़ा जबरदस्त था। हमने तो नाम भी नहीं सुना। वेदों के काल में जो वैदिक देवता माने जाते थे, बेटे! आज उनका कोई नाम भी नहीं मालूम होता। पौराणिक देवता जो आए वे भी बेटे! अब धीरे-धीरे समाप्त होते चले जा रहे हैं, जैसे -विष्णु भगवान। विष्णु भगवान का तो उत्तर भारत से बॉयकाट हो गया। और ब्रह्माजी का? ब्रह्माजी तो बिलकुल रिटायर हो गए। उनका तो पता भी नहीं है, वे तो बहुत बुड्ढे हो गए और बाबा जी के तरीके से बैठे रहते हैं।
बेटे! अब नए-नए भगवान, नए-नए देवता पैदा होते चले जा रहे हैं, मसलन संतोषी माता। संतोषी माता अभी निकलकर आई हैं। मेरे देखते-देखते पैदा हुईं और देखते-देखते जवान हो गईं। ये बड़ी जबरदस्त हो गई हैं और सब जगह फैलती हुई चली जा रही हैं। ये संतोषी माता दस साल बाद मर जाएँगी, फिर कोई और पैदा होंगी। देवी-देवता इतने हो गए हैं कि मक्खी और मच्छर के तरीके से, मेंढक और बंदरों के तरीके से रोज मरते हैं और रोज पैदा होते हैं। जहाँ कहीं भी जाइए, ये हमारी कुलदेवी और कुलदेवता हैं। सारे हिंदुस्तान में जाइए और पता करके आइए कि कुलदेवियाँ कितनी हैं, कुलदेवता कितने हैं? मैं समझता हूँ कि लाखों की तादात में कुलदेवियाँ और कुलदेवता हैं। उनके नेचर को आप देखेंगे तो हैरान होना पड़ेगा।
देवी माता संबंधी भ्रांतियाँ
ये कहाँ रहती हैं देवी खोडयारी माता? ये जैसलमेर में रहती हैं। कलकत्ते (कोलकाता) का मारवाड़ी भागते-भागते वहाँ पहुँचता है। कहाँ? जैसलमेर। बीवी को, मोहल्ले वालों को, बुआ जी को, पंडित जी को लेकर पहुँचता है। हजारों रुपया खरच करता है। किसके लिए? देवी पर मुंडन होगा। फिर क्या करेगी देवी? बाल खाएगी? बाल तो बेटे! तू कलकत्ते (कोलकाता) से भी पेटी में बंद करके भेज सकता था। लो महाराज जी! देवी को बाल खिला देना। नहीं महाराज जी! देवी तब प्रसन्न होती है, जब उसके सामने ही फ्रेश माल, गरमागरम माल, नया माल आता है। पुराना माल नहीं खाती देवी। बाल खाती है या माल? अरे महाराज जी! माल तो यहाँ भी बहुत है। वे तो बाल खाती हैं। धत् तेरे का, बाल खाती है देवी! मारवाड़ी की देवी अलग, फलाने की देवी अलग। बेटे! मुझे इतना गुस्सा आता है कि कई बार आगबबूला हो जाता हूँ इन देवी-देवताओं के अज्ञान के नाम पर। सो भी ऐसे-ऐसे, जो बाल खाए बिना काम नहीं चला सकते, जिनको न रोटी की जरूरत है और न पूरी-कचौरी की। और बाल खाने को नहीं मिलें तब? फिर देखना देवी का हाल। इसको बुखार बुला देगी, उसको बीमार कर देगी, उसके पैसे का नुकसान कर देगी। अरे बाबा, देवी! तू तो देवी है, फिर नुकसान क्यों करती है? ऐसी देवी सारे हिंदुस्तान में फैल गई है। सारे देश में देवी देवताओं के, भक्ति के और भगवान के नाम पर अज्ञान फैल गया है। फिर असलियत क्या है? असलियत जो है, वह आपको जाननी ही चाहिए। आखिर देवता क्या हैं?
देवता क्या है, अंतत: मनुष्य गुण, मनुष्य देवता हैं मित्रो! मनुष्य के गुण, मनुष्य के कर्म और मनुष्य के स्वभाव। हनुमान जी प्रतीक हैं-बल के और व्रत में ब्रह्मचर्य के। चंडी प्रतीक हैं-संघशक्ति और संगठन की। सरस्वती प्रतीक हैं-कला एवं ज्ञान की। गायत्री प्रतीक हैं-भावनाओं से जुड़ी सद्बुद्धि की। जितने भी देवी देवता हैं, वे मानवीय गुणों के प्रतीक हैं। ये बात अगर आपकी समझ में आए तो ये समझ भी आएगी कि देवताओं का अनुग्रह पाने के लिए आपको अपने जीवन में गुणों का विकास, कर्मों का विकास, स्वभाव का विकास करना पड़ेगा। मानवीय श्रेष्ठता को निरंतर बढ़ाने के लिए कमर कसकर चलना पड़ेगा, ताकि हमारे अंदर जो महानता है, वह विकसित होती हुई चली जाए।
शंकर जी कहाँ होते हैं? बेटे! हमें नहीं मालूम कहाँ होते हैं और कहाँ नहीं होते। आपने देखे हैं? हमने तो नहीं देखे। और आपने देखे हैं? हाँ महाराज जी! सपने में देखे हैं। सपने की कोई कीमत नहीं होती, सपने तो ख्वाब होते हैं। मित्रो! शंकर भगवान क्या हो सकते हैं? शंकर भगवान श्रेष्ठ गुणों का समुच्चय और समन्वय हैं। शंकर जी का उदाहरण मैं आपको समझाना चाहूँगा। शंकर जी की शक्ल-सूरत आप देखिए उनके सिर से गंगाजी निकलती हैं। क्यों साहब! किसी के सिर में से गंगाजी निकलेंगी तो आदमी करवट कैसे लेगा, सोचिए। अगर मैं बैठा रहूँ और सिर में से पानी निकलता रहे तो पानी जमीन पर गिरेगा और बहता चला जाएगा, लेकिन मैं कभी सोऊँ तब, करवट लूँ तब? पानी मेरे सिर में से निकलता है तो नाक में, कान में और मुँह में घुसेगा कि नहीं, फिर मैं मरूँगा कि जिऊँगा? शंकर भगवान चौबीस घंटे बैठे रहते हों, तब तो मैं नहीं कहता, लेकिन उनको कभी भी सोने का मौका मिला होगा तो गंगाजी उनके नाक-कान में घुस गई होंगी और शंकर जी उसमें डूब गए होंगे।
आलंकारिक विवरण देवी-देवताओं के मूल में
मित्रो! यह एक अलंकार है। जिसमें यह बात बताई गई है कि जिस शक्ति या जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में से ज्ञान की गंगा निकलती है, शुद्ध-पवित्र विचार निकलते हैं। ऐसे विचार, जो मनुष्य को शुद्ध-पवित्र बनाने में समर्थ हों। उस आदमी का, उस देवता का, उस शक्ति का नाम शंकर, जिसके मन-मस्तिष्क में से हमेशा ज्ञान की गंगा प्रवाहित होती हो। शंकर जी के सिर पर चंद्रमा टँगा हुआ है। चंद्रमा कैसे टाँगा जा सकता है? वह तो बेटा! फुटबॉल के तरीके से गोल-मटोल है। चंद्रमा को सिर पर टाँगना हो तो उसके दो ही तरीके हो सकते हैं-एक तो सिर में सुराख करके उसमें से बोल्ट कस दिए जाएँ अथवा स्टैण्ड लगा दिया जाए। यहाँ हमारे सामने रखनी हो गेंद तो स्टैण्ड पर गेंद रखी रहा करेगी और हम अपना सिर उसके पास लगा दिया करेंगे। एक और तरीका है कि आप रस्से या तार लाइए उससे गेंद को चारों तरफ से हमारे सिर में बाँध दीजिए। नहीं साहब! शंकर जी के सिर पर तो चंद्रमा टँगा हुआ है। बेटे! चंद्रमा एक अलंकार है, जिसका अर्थ होता है-संतुलन। शांति का प्रतीक है, चंद्रमा। हमारा मस्तिष्क प्रत्येक परिस्थिति में संतुलित रहना चाहिए। मित्रो! घबराहट, हैरानी, परेशानी, जलन, इन सारी बातों में हमारा दिमाग अशांत रहता है और हमारे ढेरों के ढेरों नुकसान होते रहते हैं। हम जिस समस्या का समाधान करने के लिए चलते हैं, उसका समाधान तो नहीं होता, बल्कि समस्या और भी उलझती चली जाती है। प्रत्येक परिस्थिति में, मुसीबत में, शोक में भी अपने दिमाग के बैलेन्स को आप सही रखिए। जो मुसीबत आई है, उसका रास्ता निकालने के लिए अपने दिमाग के अलावा और है क्या आपके पास! दिमाग का बैलेन्स सही रख सके इसके लिए आप सिर के ऊपर चंद्रमा टाँगिए। यह क्या चीज है? यह बेटे! शिक्षा है, दिशा है, धारा है और एक फिलॉसफी है जिंदगी की।
शिक्षण एवं दिशाधारा
शंकर जी की आँखें होती हैं तीन। तीन कैसी आँखें होती हैं? बेटे! शंकर जी की एक आँख ऐसी है कि जब कभी उसे खोल देते हैं और उससे जिस किसी को देखते हैं, वह जल करके भस्म हो जाता है; जैसे कामदेव को एक दिन शंकर जी ने आँख खोलकर देखा तो वह तुरंत जल करके राख हो गया। तो महाराज जी! अगर मैं जाऊँ शंकर भगवान के सामने तो? बेटे! तू ऐसे वक्त जाना जब महादेव जी सोकर के नहीं उठे हों। सोकर के उठते ही शायद आँखों को मलते हों और आँख खुल गई तो समझ लेना। तू गया तो इसलिए कि मनोकामना पूरी करा करके लाऊँगा, पर शंकर जी ने खुली आँख से देख लिया तो, तेरा सफाया हो जाएगा। सो तू मत जाना। कौन से वक्त जाऊँ? नौ बजे के बाद, जब शंकर जी कुल्ला-उल्ला करके, आँख-मुँह धोकर चश्मा पहनकर ठीक हो जाते हैं, तब जाना। महाराज जी! ऐसी आँख होती है? बेटे! कोई आँख नहीं है। फिर यह क्या है? तीसरी आँख विवेक की आँख, दूरदर्शिता की आँख, टेलीस्कोप की आँख, जिससे हमको परलोक दिखाई पड़ता है, जिससे नरक दिखाई पड़ता है, जिससे पुनर्जन्म-अगला जीवन दिखाई पड़ता है, जिससे हमको बुढ़ापा दिखाई पड़ता है।
दूरदर्शिता एवं विवेक का प्रतीक
मित्रो! हमको तो केवल आज का फायदा दिखाई पड़ता है, कल क्या परिणाम होगा, यह दिखाई नहीं पड़ता। हम वह चीजें खाते हैं कि कल हमारा पेट खराब हो जाए तो क्या? दावत खाने जाते हैं तो खाते ही चले जाते हैं। अरे बाबा पेट में दर्द हो जाएगा। अरे साहब! कल दर्द होता तो लवण भास्कर चूर्ण खा लेंगे, आज तो खा ही लेने दीजिए। आज खाता है और घंटे भर की बात भी नहीं मालूम तुझे। नहीं महाराज जी! जो कुछ होगा, सो देखा जाएगा। मित्रो! हम और आप वो आदमी हैं, जिनको अभी इसी वक्त का फायदा याद है, दूर का नुकसान, दूर का फायदा ध्यान में नहीं आता। अगर यह हमको याद आया होता तो हमने अपनी जिंदगी का क्रम ऐसे बनाया होता कि हमारा वर्तमान जीवन, बुढ़ापे का जीवन, भावी जीवन, मरने के बाद का जीवन शानदार बना होता। आज के फायदे के लिए हमने सब कुछ गँवा दिया। हमारी वह तीसरी आँख, जिसको हम टेलीस्कोप कह सकते हैं, जिससे हमको अपना भविष्य दिखाई पड़ता है।
मित्रो! शंकर जी के पास थी यह आँख। जब कामदेव आया तो उन्होंने इस आँख को खोला। अच्छा आप पधारे हैं। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और अपने जबड़े में जख्म कर लेता है। जबड़े के जख्म से जो मुँह में खून टपकता है, उसे समझता है कि न जाने कैसा जायका आ रहा है। कहिए कामदेव साहब! आप सूखी हड्डी हैं न? हों साहब! और हम लोग कुत्ते हैं न, हो! देखिए हम अपनी जवानी, अपना शौर्य, अपना तेज, अपना ओजस, बारूद के तरीके से और फुलझड़ी के तरीके से सब जलाते हैं और यह समझते हैं कि न जाने हमने क्या कमा लिया और क्या फायदा उठा लिया? मित्रो! यह काम-वासना का स्वरूप शंकर जी की समझ में आया और उन्होंने काम-वासना को मारकर भगा दिया। कामदेव को जला दिया। विवेक अगर हमारे पास आए तो हम असंख्य बुराइयों, असंख्य दुर्बलताओं को, कमजोरियों को सहज ही मारकर भगा सकते हैं। यह है शंकर जी की तीसरी आँख। जिस सिद्धांत में यह तीसरी आँख जुड़ी हुई हो, जिस व्यक्ति के जीवन में यह तीसरी आँख जुड़ी हुई हो, वह शंकर अथवा शंकर का भक्त है।
मित्रो! शंकर भगवान गले में मुंडों की माला पहने हुए हैं। क्या मतलब? शंकर जी ने कंकालों से बनी मुंडों की माला गले में पहन रखी थी। आप भी अगर मुंडों की माला गले में पहन करके रखें और यह देखें कि हमारी बीबी मुंड, हमारा बच्चा मुंड, हमारा शरीर मुंड है। यह सब हड्डियों के जंजाल और हड्डियों के जखीरे मरे हुए पड़े हैं और हमारे गले में बँधे हुए हैं। खोपड़ी वाला कंकाल, जो हमको अपना दिखाई पड़ता है, उसके साथ मौत और जिंदगी को मिला करके समन्वय करके रखा होता तो मजा आ जाता। एक कंधे पर आपने मौत का हाथ पकड़ रखा होता और दूसरे कंधे पर जिंदगी का हाथ रखा होता तो मौत और जिंदगी के समन्वय से मित्रो! आपकी जिंदगी राजा परीक्षित जैसी हो गई होती। अगर आपने मौत को समझा होता तो सिकंदर के तरीके से आपको अफसोस न करना पड़ता।
प्रतीकों को समझें
शंकर भगवान के गले में साँप पड़े हुए हैं। वे जिन लोगों को अपना मित्र बना करके रखते थे, वो थे बेचारे-तन झीन कोऊ अति पीन, पावन कोऊ अपावन तन धरे। कमजोर आदमी, बीमार आदमी, गए-गुजरे आदमी। जापान के गाँधी कागावा का मैं एक दिन हवाला दे चुका हूँ। उन्होंने पिछड़े हुए लोगों के लिए दीन-दुखियों के लिए अपनी जिंदगी गँवा दी। मैं एक दिन बाबा साहब आप्टे का हवाला दे चुका हूँ। उन्होंने गरीबों, कोढ़ियों के लिए अपनी जिंदगी गँवा दी। हमारे समाज में चारों ओर कोढ़ी और अंधे फैले पड़े हैं। क्या आप उनकी सहायता नहीं कर सकते? कोढ़ी और अंधा कौन? आप और हम। हम और आप नैतिक दृष्टि से कोढ़ी और अंधे ऐसे, जिनको अपना भविष्य अपना व्यक्तित्व, अपना लोक-परलोक कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। इन अंधों को, कोढ़ियों को, शराबियों को, पिछड़ी को, पापियों को सहायता की जरूरत है, जो हमें करनी चाहिए।
नहीं साहब! हम शंकर जी की भक्ति करते हैं। बड़ी भक्ति करता है! तीन घड़ों में सूराख करके, पानी भरकर तिपाई पर रख देता है। सावन के महीने में शंकर जी के सिर पर सारे दिन टप-टप पानी टपकता रहता है। शंकर जी को जुकाम हो गया, मलेरिया बुखार आ गया, पानी में नहाते-नहाते। महाराज जी! शंकर भगवान मेरी मनोकामना पूरी नहीं करेंगे? बेटे! तूने, महीने भर हो गया, शंकर जी को न तो कुछ खाना खिलाया, न दवाई दी, फिर तुम्हारी मनोकामना कैसे पूरी करेंगे? अच्छा महाराज जी! मैं शंकर जी के लिए दवा लेकर आऊँ। ये लीजिए, आक के फूल खा लीजिए और ये धतूरे के फल खा लीजिए। तूने महादेव जी को धतूरे के फल खिला दिए और उन्हें ज्यादा बुखार आ गया। वे बीमार पड़ गए और चेले ने उनकी झोली में जो कुछ माल था, सब निकाल लिया। शंकर जी की झोली में बिहार गवर्नमेंट की लॉटरी के नंबर और गुजरात गवर्नमेंट की लॉटरी के टिकट के नंबर रखे थे, वे सब नंबर चुरा ले गया और शंकर भगवान ताकते रह गए। जालिम और जाहिल कहीं का, यही है तेरी शंकर जी की भक्ति।
सच्ची भक्ति-गुणों का परिष्कार
मित्रो! इन्हीं बेकार की बातों को, बेवकूफी की बातों को लोग समझते रहते हैं कि हम भगवान की भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं। कहाँ है यह भक्ति और पूजा? मित्रो! भक्ति वह हो सकती है, जिसमें कि हम मुहब्बत, अपने चरित्र और अपने व्यक्तित्व द्वारा समाज को श्रेष्ठ और उपयोगी बनाते हैं। इससे कम में कोई भक्ति नहीं हो सकती और ज्यादा भक्ति की कोई जरूरत नहीं।
शंकर जी की उपासना का स्वरूप मैंने बताया। अगर आप उनके भक्त हैं तो अपने गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार अपने जीवन में समन्वित कीजिए। मशक्कत कीजिए, अपने आप से लड़ाई कीजिए, अपने आप को तपाइए, भूखा मारिए, अपने आप को अनुशासन में रखिए। ऐसा करेंगे तो मैं आपको शंकर जी का भक्त कह सकता हूँ।
मित्रो! गायत्री माता की जो मूर्ति है, उसके सामने हम और आप रोज जप करते हैं। आप उसके कलेवर को तो समझते हैं, पर प्राणों को क्यों नहीं समझते। गायत्री माता का प्राण। वह मानवता की देवी, आदर्शों की, सिद्धांतों की, शालीनता, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता की, विवेकशीलता की देवी है। धियो यो न: प्रचोदयात् यह देवी है, आप इसकी उपासना कीजिए। नहीं महाराज जी! हम तो हंस पर बैठी देवी की उपासना करते हैं। चलिए मैं आपसे कहना चाहूँगा कि यह भी अलंकार है। हंस जैसी जिंदगी बनाइए नीर और क्षीर का विवेक करना सीखिए, उचित और अनुचित का फर्क करना सीखिए। मोती खाइए और कीड़े खाने से इनकार कर दीजिए। तालाबों में जो हंस पाया जाता है, वह तो कीड़े खाता है, मोती कहाँ मिलते हैं बेचारे को। नीर-क्षीर का विवेक करना कहाँ आता है। यह तो पानी पीता है। न बेचारे को दूध मिलता है, न नीर-क्षीर-विवेक करता है। गायत्री माता का हंस ऐसा होना चाहिए जैसा एक विवेकशील मनुष्य होता है। जो उचित और अनुचित का, यह करने लायक है, यह न करने लायक यह करूँगा, यह नहीं करूँगा, इधर चलूँगा, इधर नहीं चलूँगा, २४ घंटे यह फर्क करता है। उस आदमी का नाम है-हंस। अगर आप हंस का जीवन जिएँ तो मैं आपसे वायदा करता हूँ कि गायत्री माता की शक्ति अनायास ही आपके ऊपर आएगी और सवारी करेगी।
हंसवृत्ति विकसित करें
हंस को गायत्री माता कंधे पर रखकर चलती है या हंस गायत्री माता को कंधे पर रखकर चलता है, बताइए जरा? हंस गायत्री माता को कंधे पर रखकर चलता है। आप अगर हंस हैं तो गायत्री माता को कंधे पर बिठाकर चाहे जहाँ लेकर जा सकते हैं। कैसे? जैसे अभी युगांडा में हवाई जहाज पकड़ ले गए थे। कौन? छापामार। आप छापेमार के तरीके से गायत्री माता को कंधे पर बिठाइए चलिए हमारे घर। नहीं बेटे! हम तो स्वर्गलोक जाना चाहते हैं। नहीं, आप स्वर्गलोक नहीं जा सकतीं हमारे साथ चलिए। हंस जहाँ चलेगा, वहीं गायत्री माता को चलना पड़ेगा। अगर आप हंस हैं तो गायत्री माता को मजबूर कर सकते हैं।
ये लड़कियों गाती रहती हैं-कहाँ छिपा है सच्चा इनसान, खोजते जिसे स्वयं भगवान। वह इनसान कहाँ छिपा बैठा है, जिसको कि भगवान की तलाश है। भगवान इनसान को तलाशता है। इनसान को भगवान को तलाशने की कोई जरूरत नहीं है। भगवान तलाशता है, अगर इनसान के भीतर इनसानियत हो, तब। हमने इनसानियत तो गँवा दी और भगवान के लिए खुशामद करते हैं। सड़े हुए आदमी, गले हुए आदमी, निकम्मे आदमी, चोर-उचक्के आदमी क्या जाएँगे भगवान के यहाँ! मित्रो! सफाई की जरूरत है और यही है आध्यात्मिकता का उद्देश्य। आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्ति:।।