आपका विवाह हम भगवान् से कराना चाहते हैं
(जनवरी १९६९ में गायत्री तपोभूमि में दिया गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
भगवान् की हताशा
देवियो, भाइयो! आपने केवल अपने बेटे के लिए कमाया है, भले ही वह दो कौड़ी का हो। आपने केवल उसी के लिए जीना सीखा है। मित्रो, हमारा जीवन किस काम के लिए खर्च हो गया ? केवल मुट्ठी भर पत्थरों के लिए! हमने कभी भी सोचा नहीं कि हमें किस प्रकार जीना चाहिए। तो गुरुजी हमारी कमाई का क्या होगा? आपकी कमाई बेटे को मिलने वाली है, साले को मिलने वाली है, जमाई को मिलने वाली है। आपने अपनी बीबी को तबाह कर डाला। अरे आप चाहते, तो उसको ऊँचा उठा सकते थे। भगवान् ने आपको मनुष्य का शरीर दिया था। जिस दिन उसने आपको बनाया था, उसके लम्बे-लम्बे ख्वाब थे, उम्मीदें थीं। आपने सब पर पानी फेर दिया।
मित्रो! भगवान् बहुत ज्यादा थक गया है। उसकी इच्छा है कि हमारे प्रिय बेटे मनुष्य, यदि इस दुनिया को सुन्दर बनाते, तो मजा आ जाता। भगवान् को सहभागी और सहयोगी की आवश्यकता थी। इसलिए भगवान् ने आपको बनाया था। उसने आपको अपने नक्शे के अनुसार बड़ी मेहनत से बनाया था। भगवान् के पास गीली मिट्टी थी। उसने कुम्हार के तरीके से उस मिट्टी को इस प्रकार लम्बा कर दिया कि साँप बन गया। गोल-मटोल कर दिया तो कछुआ बन गया, मेढक बन गये। परन्तु जिस दिन भगवान् ने आपको बनाया, तो उन्हें पसीना आ गया। उनका बहुत सारा समय बीत गया। इसके पीछे इस दुनिया को सुन्दर बनाने का उनका उद्देश्य था। एक-एक कण शरीर का, जिसमें मस्तिष्क, हृदय, आँखें आदि सभी अंग बने। आज तक ऐसी बेमिसाल चीज दुनिया में नहीं बनी है, जैसा कि मनुष्य का शरीर है। जब हम हिमालय गये, तो नन्दन वन का फोटो खींचकर लाये। लम्बाई-चौड़ाई थी, परन्तु गहराई का पता नहीं लग सका तथा जो फोटो खींचा था, वह पीले रंग का आया था। उसे देखकर मैंने सोचा कि यह कैसे हो सकता है! फोटो का रंग, तो इस प्रकार का नहीं होना चाहिए। वह तो मखमली था। मैंने उसे उठाकर फेंक दिया। यह सब लेंस का कमाल था।
वरिष्ठ राजकुमार का यह व्यवहार
मित्रो, हमारी आँखें कितने सुंदर लेंस की बनी हैं, इसका जवाब इस दुनिया में नहीं है। यह वास्तविक फोटो खींच लेती है। इतना बेशकीमती शरीर तथा भगवान् का ऐसा अनुदान किसी प्राणी को नहीं मिला है। इतनी उदारता भगवान् ने क्यों बरती? यह प्रश्र आपके सामने है। आपको विचार करना चाहिए कि भगवान् ने ऐसा पक्षपात क्यों किया? अगर अन्य प्राणियों में सोचने का, विचार करने का माद्दा रहा होता, तो वे भगवान् के सामने उपस्थित हो जाते तथा अपनी फरियाद सुनाकर आपको जेल भिजवा देते। परन्तु उनमें यह माद्दा नहीं, अत: वे बेचारे क्या करें! परन्तु आपको तो विचार करना चाहिए। इस मामले में भगवान् को अगर कोर्ट में बुलाया जाता, तो वह काँपता हुआ आता। जब उससे इस बावत पूछा जाता, तो वह कहता कि मनुष्य को हमने विशेष चीजें इसलिए नहीं दीं कि वह फिजूलखर्ची करे तथा मौज-मस्ती उड़ाये। हमने तो इस दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए, उसे सजाने-सँवारने के लिए बनाया था। यह हमारा बड़ा बेटा है, राजकुमार है। हमने इस कारण से उसे राजगद्दी दे दी थी और सारी जिम्मेदारी सौंपी थी। यह इसलिए दिया था कि वह मेरा सहयोग करेगा। हमने बहुत बड़ा ख्वाब देखा था, इसके बारे में कि यह हमारा बड़ा बच्चा है, वरिष्ठï राजकुमार है, जो इस दुनिया को सुन्दर बनाता हुआ चला जाएगा।
परन्तु उस अभागे को, बेहूदे को मैं क्या कहूँ, जो धूम्रपान कर वहीं आ गया, जहाँ से चला था। वह कुत्ते की योनि से, बन्दर की योनि से, सुअर की योनि से आया था और निम्रकोटि के चिन्तन, विचार होने के कारण फिर से उसी योनि में चला गया। उसे निम्र कोटि के प्राणियों की तरह ही अब भी पेट तथा प्रजनन की बात याद है, बाकी चीजें, तो वह भूल-सा ही गया। उस अभागे को यह समझ में नहीं आया कि जब भगवान् ने बन्दर के लिए, अन्य प्राणियों के लिए पेट भरने की व्यवस्था की है, तो क्या उसके प्रिय पुत्र मनुष्य को वह रोटी का प्रबन्ध नहीं करेगा? परन्तु हाय रे! अभागे मनुष्य-वह इसकी कीमत नहीं जान सका। वह अपने उद्देश्य को भूल गया तथा यह कहने लगा कि मैं अपनी अकल से कमाऊँगा, बहुत अर्जन करूँगा, मौज से रहूँगा। इसी में वह खपता रहा।
अभागे मनुष्य की दुर्गति
मित्रो! उसका हीरे एवं मोती जैसा दिमाग इसी में घूमता रहा, आगे-पीछे होता रहा, उस अभागे ने बर्वाद कर लिया अपने आपको। साथियो, घोड़ा, हाथी, भैंस आदि जानवर मनुष्य से ज्यादा खाते हैं और उनका पेट भर जाता है। परन्तु इस अभागे मनुष्य का पेट भाई से, बाप से, बीबी से भी नहीं भरता है। हाय रे! अभागा यह मनुष्य, पेट की खातिर बर्वाद हो गया। भगवान् ने हमसे कहा कि क्या कहूँ आचार्य जी, हम तो बहुत चिन्तित हैं। हमने उन्हें पानी पिलाया और कहा कि आप जाइये एवं चिन्तित मत होइये। आपके पास तो चौरासी लाख योनि वाले प्राणियों की अनेकों शिकायतें आ चुकी हैं। आप जाइये, अब हम इन्हें ठीक करेंगे। मनुष्य के पास बुद्धिबल है, उसे हम ठीक करेंगे। इस दुनिया में खुशी, आनन्द, उल्लास का वातावरण पैदा करेंगे। अभी तो वह पेट-प्रजनन में लगा है। मैं पूछता हूँ कि तेरे पास धर्म, संस्कृ ति कहाँ है? तू कभी इसके बारे में सोचता है क्या? अरे तूने इतने सारे बच्चे पैदा कर लिए? इसे नासमझी के अतिरिक्त और क्या कहा जाय?
भगवान् ने कहा कि मैंने इसे बहुत प्यार से पैदा किया, पाला, बड़ा किया कि शायद यह मेरे काम आयेगा। मेरा सहयोगी बनेगा तथा इस संसार को सुन्दर बनायेगा, परन्तु इसने तो हमारी सारी-की-सारी इच्छाओं पर पानी फेर दिया है। यह वहीं जा पहुँचा है, जहाँ अन्य चौरासी लाख योनियों के प्राणी रहते हैं। इसने भगवान की नाक में दम कर रखा है। हमने भगवान् से कहा-हे प्रभु! इसे इस बार माफ कर दीजिये। अगर किसी को आगे इनसान बनाना, तो उसे ठोंक-बजाकर देख लेना। हमने भगवान् से प्रार्थना की कि भगवान्! पहले उससे पूछ लेना कि क्या वह कोई सेठ बनने जा रहा है या बच्चा पैदा करने जा रहा है? पहले यह पूछ लेना फिर उसे इनसान का जन्म देना। अगर मनुष्य का जन्म चाहिए, तो दो रुपये के कागज पर हस्ताक्षर करा लेना और बता देना कि अमुक-अमुक लक्ष्य हैं। अगर उसे मंजूर हो तो जीवन देना, वरन नहीं देना। अगर चाहिए तो जाओ, अन्यथा तुम बन्दर, कुत्ते की योनि में जाओ। तुम्हारे लिए मनुष्य का जीवन जीना तथा पाना संभव नहीं है। हमने भगवान् से कहा और उन्होंने स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा कि हमें जिनका दिमाग, विचार, कार्य जानवरों जैसा दिखलाई पड़ेगा, उन्हें हम मनुष्य का जन्म नहीं देंगे।
जीवनक्रम बदलिए
मित्रो, यह सच्चाई नहीं है। आप भगवान् के बड़े बेटे हैं। आप उनके बेटे हैं, जो बड़ा उदार, दयालु, कृपा का सागर तथा सर्वसम्पन्न है। भगवान् अपने लिए क्या चाहता है? क्या खाता है? वह केवल दूसरों के लिए जिन्दा रहता है, आपको यह सोचना चाहिए तथा अपना जीवनक्रम बदलने का प्रयास करना चाहिए। आप तो केवल लक्ष्मी का मंत्र सीखना चाहते हैं। आप कहते हैं कि गुरुजी यह क्या कह रहे हैं? मित्रो, आप चौरासी लाख योनियों का शरीर देखिये। आप अच्छे कर्म नहीं करेंगे, तो आपको गधे की योनि स्वीकार करनी पड़ेगी। आप पर ईंट लादी जाएँगी। वजन के मारे पीछे का पैर जख्मी हो जाएगा। पैर लडख़ड़ाने लगेंगे। आप कहेंगे क आचार्य जी हम तो मन्नूलाल सेठ हैं। हम इस योनि में कैसे जाएँगे? आपने अच्छा कर्म नहीं किया, तो आपको घुसना ही होगा।
मित्रो! आपको अपनी मूर्खता पर विचार करना चाहिए। आप बेकार की समस्याओं-बेसिर-पैर की समस्याओं में उलझे हैं। आपका दिमाग इस उलझन में पड़ा रहता है। आपका जीवन बर्बाद हो रहा है और आप चुप बैठे रहते हैं। हम आपको धन्यवाद देने वाले थे, परन्तु अब नहीं देना चाहते। आपको अभी १२५ रुपये मिल रहे थे, पर आप ३५० रुपये की नौकरी चाहते हैं। यह बेकार की बातें हैं। आपको जब १२५ रुपये खर्च करना नहीं आता, तो ३५० रुपये कैसे खर्च करेंगे। बेकार की बातें बन्द कीजिए। अगर आप आचार्य जी का आशीर्वाद ले जाते तथा अपने जीवन को महान बना लेते, तो हम और आप दोनों धन्य हो जाते।
भगवान् को जवाब क्या देंगे?
मित्रो! हमने शानदार जिन्दगी जी है तथा प्रसन्नता के साथ विदा होने को बैठे हैं कि हम भगवान् को सही उत्तर देंगे। परन्तु आप भगवान् को क्या जवाब देंगे। आप तो अपनी जिन्दगी भर रोते रहे एवं मरने के बाद भी रोते रहेंगे। हमारा जीवन तालाब की तरह हो गया है। हमारा आधार कमजोर है। अगर अभी हमें लकवा हो जाये, तो हम कहीं के नहीं रह जाएँगे। हमारा तालाब सूख जाएगा, तो फिर क्या होगा? हमारी उन्नति का आधार समाप्त हो गया है। हमारे पास ज्ञान है, परन्तु हमारे मस्तिष्क का चिन्तन खराब है, तो वह किसी तरह उपयोगी नहीं है। हमारे पास सम्पत्ति है, परन्तु कुछ उलटा हो जाये, अकाल पड़ जाये, तो हमारी सारी सम्पत्ति स्वाहा हो सकती है। जिसके प्रति हमारा अहंकार है, लोभ है, मोह है, वह बेकार हो जाएगा।
तालाब के ऊपर खेती का क्या भरोसा है। खेती कुंआ के पास के, बम्बे के ऊपर की ठीक होती है। जहाँ कुछ-न -कुछ अवश्य पैदा हो जाया करता है। वह हरा-भरा रहता है तथा पानी की चिन्ता उसे नहीं होती है। हमारा भी इस तरह का ही चिन्तन है कि हमें भी मजबूत सहारा पकडऩा चाहिए, जिससे कि हम भी हरे-भरे रह सकें। इस तरह का सहारा हमारे लिए भगवान् से बढ़कर और कोई नहीं है, जो हमें सदैव हरा-भरा रख सकता है। इसमें जिन्दगी की उन्नति का सारा-का-सारा मार्ग खुला हुआ है। यह एक अज्ञात शक्ति है, जिसके इशारे पर सारा संसार चल रहा है।
आप तो बेटे के नशे में हैं। हाय बेटा-हाय बेटा चिल्लाते रहते हैं। एक बार हमारे पास मध्यप्रदेश के एक सज्जन आये थे। उनके दूसरे नम्बर के बेटे की शादी तो हो गयी, पर नौकरी नहीं लगी थी। वह मक्कार था, श्रम करना नहीं चाहता था। उसने अपने बाप से कहा कि आपने पैदा किया है, तो खिलाइये, पैसा दीजिए, नहीं तो हम जान से मार देंगे। बेचारे डर के मारे भागकर हमारे पास आये एवं कहा कि हम दो-तीन माह तक नहीं जाएँगे। छुट्टी ले लेंगे एवं यहाँ छिपे रहेंगे। उन्होंने कहा कि गुरुजी अगर उसका कोई पत्र आ जाये, तो यह मत कहना कि हम यहाँ हैं। मित्रो,उनके मन में बेटे के प्रति जो ख्वाब था वह चूर-चूर हो गया था। आप भी बेटों के पीछे पागल रहते हैं। रात-दिन बेटा-बेटा करते रहते हैं। हमारा एक और दूसरा ख्वाब यह होता है कि हम यह बन जाएँगे, वह बन जाएँगे, परन्तु एक आँधी आती है और हमारे सब ख्वाब समाप्त हो जाते हैं। हमने इतना कमजोर आधार बना दिया है कि हमें दिन में हँसना पड़ेगा तथा रात में रोना पड़ेगा। इस प्रकार हम अपनी बहिरंग जिन्दगी इसी प्रकार रोते हुए खत्म कर देंगे।
भगवान् का सहारा लीजिए
लेकिन मित्रो! एक और सहारा है, अगर आप उसे पकड़ लेंगे, तो आपका जीवन कुछ बन सकता है। वह सहारा भगवान का है। आप कहेंगे कि हम तो रोज शंकरजी के मंदिर जाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, परन्तु शंकरजी हमारी कोई मदद नहीं करते हैं। सावन के महीने में हमने बेलपत्र चढ़ाया, पानी का मटका लगाया, परन्तु भगवान् शंकर ने कोई मदद नहीं की। मित्रो, शंकर भगवान् की कृपा प्राप्त करने के लिए आपको बड़ा कदम उठाना होगा।
मित्रो! बड़े कार्यों के लिए बड़ा कदम, जोखिम भरा कदम उठाना पड़ता है, तब लाभ प्राप्त होता है। शंकर जी ने वरदान दिया था-रावण को, भस्मासुर को तथा शंकरजी ने वरदान दिया था परशुराम को, परन्तु उनके व्यवहार एवं कर्म करने के ढंग के कारण रावण एवं भस्मासुर को मरना पड़ा। अगर आपकी विचारधारा ठीक होगी और आप भगवान् का अनुदान-वरदान प्राप्त करके इस संसार का कुछ अच्छा करना चाहते हैं, तो आपको भगवान् का हर प्रकार का सहयोग मिलेगा। बल एवं धन के आधार पर मनुष्य बलवान नहीं हो सकता है। हमको अपने विकास के लिए मजबूत आधार ढूँढऩा होगा। वह मजबूत आधार केवल भगवान है। भगवान् का सहारा लेने के बाद हमारे पास क्या कमी रहेगी? हमें उनका प्यार-अनुदान प्राप्त करके अपना आध्यात्मिक विकास करने का प्रयास करना चाहिए। भगवान् के पास अनन्त सुख के भंडार भरे पड़े हैं। उनके एक मित्र थे सुदामा, वे गरीबी का जीवन जी रहे थे। लोगों ने कहा कि आपकी भगवान् से मुलाकात है। आप इस प्रकार क्यों हैं? सुदामा जी भगवान् के पास गये, भगवान् ने अपने मित्र को निहाल कर दिया।
संबंध हो जाए तो!
गुरुनानक को उनके पिता ने नाराज होकर बीस रुपये व्यापार करने को दिये और कहा-जा व्यापार द्वारा अपना जीवन निर्वाह कर। गुरुनानक देव संत थे, उन्होंने बीस रुपये की हींग खरीदी और वहाँ आये, जहाँ पर संतो का एक भण्डारा चल रहा था। उस समय दाल बन रही थी। उसमें हींग का छोंक लगा दिया तथा सभी के आगे दाल परोस दी। सभी उपस्थित लोगों ने प्रेम से भोजन किया तथा प्रसन्न हुए। प्रात:काल जब नानक घर पहुँचे, तो उनके पिता काफी नाराज थे। उन्होंने पूछा कि पैसों का क्या किया? नानक जी ने सारी बात बता दी तथा यह कहा कि पिताजी! हमने ऐसा व्यापार किया है, जो भविष्य में हजार गुना होकर वापस होगा। आज वास्तव में गुरुनानक साहेब की याद में स्वर्णमन्दिर अमृतसर में विद्यमान है, जो करोड़ों-अरबों का है। मित्रो, यह भगवान् के साथ व्यापार करने का लाभ है। हमने विचार किया—वह कैसा मंदिर है। करोड़ों का कौन-सा मन्दिर है, जिसमें गुरुनानक सोये हुए हैं। मित्रो, यह महत्त्व है भगवान् के साथ जुडऩे का, उससे सम्बन्ध करने का।
मित्रो, काश्मीर में हजरत मोहम्मद साहब का पवित्र बाल एक शीशी में रखा है। जहाँ हजारों-करोड़ों रुपयों की मस्जिद बनी है, जहाँ मोहम्मद साहब का बाल रखा है। अगर आज गुरुनानक देव, मोहम्मद साहब आ जायें तथा इतना बड़ा मूल्यवान मकान देख लें, तो उनको आश्चर्य होगा। मित्रो, यह आध्यात्मिकता का मूल्य है। भगवान् से सम्बन्ध बनाने के बाद आदमी कितना मूल्यवान हो जाता है, यह विचार करने का विषय है। वह बहुत कीमती हो जाता है। नानक, विवेकानंद, मोहम्मद साहब महान हो गये। भगवान् से सम्बन्ध हो जाने पर आदमी का वजन और मूल्य दोनों बढ़ जाते हैं।
अगर एक औरत की शादी एक सेठजी के साथ होती है तथा दुर्भाग्य से उसके पति का देहान्त हो जाता है, तो दूसरे दिन से ही वह सेठानी, उसकी सारी जमीन-जायदाद की मालकिन बन जाती है। यही होता है—भक्त का भगवान् से सम्बन्ध जोडऩे पर। डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी, वकील की पत्नी वकीलनी, पंडित की पत्नी पंडितानी बन जाती है, चाहे वह पाँचवीं क्लास ही क्यों न पास हो। जिस प्रकार धर्मपत्नी बनकर आत्मा से सम्बन्ध जोडऩे पर वह पति की सारी सम्पत्ति की मालकिन बन जाती है, उसी प्रकार भगवान् से सम्बन्ध जोडऩे पर होता है। आपको यहाँ हमने इसलिए बुलाया है कि आपका ब्याह भगवान् से करा दें। इसके लिए आपको हमने अनुष्ठान प्रारम्भ कराया है। यह अनुष्ठान आपके विवाह के समय हल्दी लगाने तथा बाल सँवारने, वस्त्र आदि से सजाने के बराबर है। हम आत्मा का परमात्मा से मिलन कराना चाहते हैं। यह बाजीगरी है। हम आपका संबंध भगवान् से कराना चाहते हैं, ताकि आपका सम्बन्ध मालदार आदमी से हो जाये। मालदार आदमी के साथ सम्बन्ध बना लेने से आदमी को हर समय फायदा रहता है।
मित्रो, किसी का सम्बन्ध मालदार आदमी से होता है और वह उसके यहाँ काम करता है, तो उसे सेठजी कुछ लाने को भेजते हैं, तथा सौ रुपये देते हैं। वह अस्सी रुपये का सामान लाता है तथा बीस रुपये अपने पॉकेट में रख लेता है। सेठजी उससे पूछते भी नहीं हैं। इस प्रकार छोटे-छोटे कामों में वह पैसा इकट्ठा करता जाता है और मालदार के साथ मालदार हो जाता है। उसकी बीबी कहती है कि हमारे घर में बाबू की तनख्वाह से क्या होगा, अगर रोज न कमायें। यह है मालदार आदमी से जुडऩे पर भौतिक लाभ। भगवान् से जुडऩे पर हमें क्या-क्या लाभ मिलते हैं, यह आप जुड़कर स्वयं देखें।
भगवान् की गोद में
मित्रो! मालदार आदमी के पास नौकरी करने पर पैसों के लिए चालाकी, बेईमानी करनी पड़ती है, तो आप पैसा कमाते हैं, परन्तु हम ऐसे मालदार आदमी, जिसका नाम भगवान् है, उसके यहाँ आपकी नौकरी लगाना चाहते हैं, जिसके पास आपको सारी चीजें प्राप्त होती रहेंगी। उसके लिए आपको चालाकी या बेईमानी करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हम चाहते हैं कि आपको भगवान् की गोद में रख दें। गोद में रहने वाला व्यक्ति घाटे में नहीं रहता है। बाप कमाता रहता है। बेटा खाता रहता है।
बेटे, हम भी आपको बाँटते रहते हैं, आशीर्वाद देते रहते हैं कि आपका कष्ट दूर हो जाये। आपकी मनोकामना पूर्ण हो जाये। आज आप कमजोर हैं, हो सकता है कि कल आप मजबूत हो जायें तथा भगवान् का काम कर सकें। आप यह सोचते हैं कि दो साल के बाद गुरुजी चले जाएँगे तथा हमें तपोभूमि या फिर हरिद्वार जाने से क्या मिलेगा? आप इधर-उधर बगलें झाँकने लगते हैं तथा साँई बाबा के पास चले जाते हैं। वहाँ जाने के बाद हनुमान जी के पास, करौली वाली माँ के पास जाते हैं, इधर-उधर भटकते रहते हैं। जिन्दगी भर आप खाली हाथ रहते हैं। मित्रो, इधर-उधर आप भटकते न रहें, आप भगवान् का पल्ला पकड़ लीजिए तथा अपने जीवन को पार कर लीजिए।
मित्रो, हमारी मुलाकात किसी एम.पी., एम.एल.ए. या मिनिस्टर से होती है या उससे जान-पहचान, साँठ-गाँठ होती है, तो हमारी समस्या तथा हमारी मुसीबतें दूर हो जाती हैं। अगर हमारा सम्बन्ध भगवान् से हो तो फिर क्या कहना? मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री हमारे पास आये और यह कहा कि गुरुजी हमें एक दिन के लिए ही मुख्यमंत्री बना दीजिए। वे दो ढाई घण्टे तक हमारे पास बैठे रहे। भगवान् की कृपा से तुक्का लग गया और वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये। मित्रो, यह क्या बात है? हमारी जान-पहचान किससे है? हमारी जान-पहचान भगवान् से है।
जान पहचान का चमत्कार
आदमी की पहचान बड़े आदमी से होने पर काम बन जाता है। एक बार ऐसा ही हुआ कि एक पंडित जी थे। पंडित जी ने एक दुकानदार के पास पाँच सौ रुपये रख दिये। उन्होंने सोचा कि जब बच्ची की शादी होगी, तो पैसा ले लेंगे। थोड़े दिनों के बाद जब बच्ची सयानी हो गयी, तो पंडित जी उस दुकानदार के पास गये। उसने नकार दिया कि आपने कब हमें पैसा दिया था। उसने पंडित जी से कहा कि क्या हमने कुछ लिखकर दिया है। पंडित जी इस हरकत से परेशान हो गये और चिन्ता में डूब गये। थोड़े दिन के बाद उन्हें याद आया कि क्यों न राजा से इस बारे में शिकायत कर दें ताकि वे कुछ फैसला कर दें एवं मेरा पैसा कन्या के विवाह के लिए मिल जाये। वे राजा के पास पहुँचे तथा अपनी फरियाद सुनाई। राजा ने कहा-कल हमारी सवारी निकलेगी, तुम उस लालाजी की दुकान के पास खड़े रहना। राजा की सवारी निकली। सभी लोगों ने फूलमालाएँ पहनायीं, किसी ने आरती उतारी। पंडित जी लालाजी की दुकान के पास खड़े थे। राजा ने कहा-गुरुजी आप यहाँ कैसे, आप तो हमारे गुरु हैं? आइये इस बग्घी में बैठ जाइये। लालाजी यह सब देख रहे थे। उन्होंने आरती उतारी, सवारी आगे बढ़ गयी। थोड़ी दूर चलने के बाद राजा ने पंडित जी को उतार दिया और कहा कि पंडित जी हमने आपका काम कर दिया। अब आगे आपका भाग्य।
उधर लालाजी यह सब देखकर हैरान थे कि पंडित जी की तो राजा से अच्छी साँठ-गाँठ है। कहीं वे हमारा कबाड़ा न करा दें। लालाजी ने अपने मुनीम को पंडित जी को ढूँढ़कर लाने को कहा-पंडित जी एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ विचार कर रहे थे। मुनीम जी ने आदर के साथ उन्हें अपने साथ ले गये। लालाजी ने प्रणाम किया और बोले-पंडितजी हमने काफी श्रम किया तथा पुराने खाते को देखा, तो पाया कि हमारे खाते में आपका पाँच सौ रुपये जमा है। पंडित जी दस साल में मय ब्याज के बारह हजार रुपये हो गये। पंडित जी आपकी बेटी हमारी बेटी है। अत: एक हजार रुपये आप हमारी तरफ से ले जाइये तथा उसे लड़की की शादी में लगा देना। इस प्रकार लालाजी ने पंडित जी को तेरह हजार रुपये देकर प्रेम के साथ विदा किया।
मित्रो, यह हम क्या कह रहे थे? यह बतला रहे थे कि आप भी अगर इस दुनिया के राजा, जिसका नाम भगवान् है अगर अपना सम्बन्ध उससे जोड़ लें तो आपकी कोई समस्या, कठिनाई नहीं रहेगी। आपको कोई तंग भी नहीं करेगा। आपके साथ अन्याय भी कोई नहीं कर सकता। पाँच फुट वाला आदमी जब भगवान् से जुड़ गया, तो मित्रो, वही आदमी महात्मा बन गया। उस आदमी का नाम महात्मा गाँधी हो गया, जिसको देखकर अँग्रेज डरते थे और यह कहते थे कि यह जादूगर है। इससे बचकर रहो। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री उससे डरते थे और यह कहते थे कि यह 'बम' है। उनने अपने सभी मंत्रियों से गाँधीजी से नजर न मिलाने की हिदायत दे रखी थी। वह काला गाँधी नहीं, वरन् वह गाँधी था, जो भगवान् से जुड़ गया था और वह उसी का चमत्कार था। वह चालाकी या अक्ल वाला गाँधी नहीं था, बल्कि भगवान् का सहयोगी गाँधी था। इन शक्तियों को आप भी भगवान् के पास बैठकर पा सकते हैं। अपने को महान बना सकते हैं। अगर आप अपने आप को तैयार कर लें, तो सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं तथा संत, महामानव स्तर तक पहुँच सकते हैं।
अनुकम्पा की अनुभूति
मित्रो, सूर्य की रोशनी इस धरती पर पड़ती तो है, परन्तु है यह हमारी आँखों का चमत्कार। अगर आँखें न रहतीं, तो हम यह विभिन्न तरह के रंग कैसे देखते तथा आनन्द अनुभव कैसे करते? आँख का सूर्य अगर ठीक हो, तो यह आपको रामायण, भागवत पढ़ा सकता है। बगीचों का आनन्द आपको मिल सकता है। अगर आपको बुखार आ जाये तथा तबियत खराब हो जाए, तो आप ठीक से नहीं खा सकते हैं। यह बात आपको सोचनी चाहिए। एक महिला थी। उसके मरने का समय हो गया। उसे पकौड़ी, नीबू का अचार, रबड़ी दी गयी, परन्तु उसका मुँह कड़ुवा था। उसे सब चीजें मिट्टी के समान लगीं। अगर आपकी अक्ल खराब हो जाए, तो इस दुनिया की सारी सम्पत्ति आपको किसी काम की नहीं दिखायी पड़ेगी। यह क्या है? जिसके कारण आप दुनिया के सारे आनन्द ले रहे हैं? चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ राजकुमार की तरह रह रहे हैं। यह है भगवान् की अनुकम्पा, भगवान् की कृपा, जो निरन्तर आपके ऊपर बरस रही है। हमें यह महसूस करना चाहिए कि भगवान् हमारे सारे अंग-अंग में, सारे रोम-रोम में समाया हुआ है तथा उसकी शक्ति हमारे अन्दर समायी हुई है। वह हमें महान बना रहा है, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ा रहा है। हमारा कायाकल्प कर रहा है। अगर इतना आप कर सकें, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप धन्य हो जाएँगे।
साथियो! हमारी काया के भीतर ऐसे सेल्स भरे पड़े हैं, जिसमें हीरे-मोती, सोना-जवाहरात भरे पड़े हैं। अगर आप उसे जगा लें, तो मालामाल हो सकते हैं। आप पारस, कल्पवृक्ष हो सकते हैं। आपका सम्पर्क जिस किसी से होगा, उसको आप धन्य करते चले जायेंगे। आपका विकास होता चला जाएगा। हमें अपनी हर उँगुली प्यारी है। भगवान् को भी हर प्राणी प्यारा है। वह सबका बराबर ध्यान रखता है।भगवान् अपने हर अंग को सुन्दर और सुडौल देखना चाहता है। भगवान् के ऊपर पक्षपात का दोष नहीं लगाया जा सकता है। वह सबको बराबर देता है, परन्तु मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव, श्रम, आलस्य के कारण पिछड़ जाता है। अगर आपकी पात्रता हो, तो आप सारी चीजें प्राप्त कर सकते हैं। आप अपनी प्रगति के लिए न जाने कहाँ-कहाँ घूमते हैं, किस-किस को गुरु बनाते फिरते हैं। हम भी १३ ये १५ वर्ष की उम्र तक इसी चक्कर में पड़े रहे तथा तमाशा देखते रहे। हमने भी बहुत पैसा फेंका है, मात्र यह बाजीगरी देखने के लिए।
नकली व असली गुरु
मित्रो! इन दो सालों में हमने हिन्दुस्तान के किसी भी सिद्ध पुरुष, महात्मा, योगी को नहीं छोड़ा, जो आज बाजीगर की तरह नाम बतलाते हैं तथा सोना बनाते हैं। अगर आप चाहें, तो हम उनका नाम आपको बतला सकते हैं। एक बार हमने एक सिद्ध पुरुष की बात सुनी तथा उसके लिए हमने बहुत बड़ा जोखिम उठाया, प्राणों की बाजी लगा दी। वो सिद्ध पुरुष घने जंगल की एक गुफा में रहते थे। लोगों ने बतलाया कि वे सबका नाम-पता तथा भूत-भविष्य, वर्तमान सबकुछ बता देते हैं। हम पहुँच गये उनके पास। बाबा ने सब बतलाया। हमें दाल में कुछ काला नजर आया। हम वहीं रुक गये तथा पैर में मोच का बहाना बना दिया। यह बात उनके चेले को बता दी और एक कोने में पड़े रहे। एक दिन एक अध्यापक आया। हमने उसे बतला दिया कि यह बेकार आदमी है। इसके चेले धंधा करते हैं। हमने अध्यापक से कहा कि आप सब नाम-पते आदि गलत-सलत बताना। उसने चेलों से अपना नाम-पता सब गलत बतला दिया। दूसरे दिन महात्माजी मिले, तो उन्होंने भी वैसा ही बतलाया। अध्यापक तथा हम दोनों यह सब देखकर मुस्कुरा पड़े। यह उन चेलों ने देख लिया था। हमने किसी प्रकार धोती-कुरता समेटा और तोलिया लपेटकर दीर्घशंका का बहाना बनाकर वहाँ से भाग लिये। जाना था पूरब की ओर और पश्चिम की ओर निकल गये। किसी तरह प्राण बचाकर तीन दिन तक जंगल में भटकने के बाद अपने स्थान पर पहुँचे।
साथियो! हमने उस गुरु को भी देखा है, जो पंद्रह वर्ष की उम्र पूरी होने पर वसंत पंचमी के दिन हमारे पास आया था। उसने हमारे तीन जन्मों का दृश्य हमें दिखाया और हमें गायत्री उपासना में लगाया, जिसे हमने चौबीस साल तक विधि-विधान पूर्वक किया। हमने अपने गुरुदेव से एक प्रश्र पूछा कि पूज्यवर हमारी एक शंका है। आप बतलायें कि गुरुओं की खोज में लोग छुट्टी लेते हैं, मेडीकल लीव लेते हैं, घर-बार छोड़ते हैं, तब जाकर शायद किसी कोने में कोई सच्चा गुरु मिलता है, परन्तु आप तो स्वयं हमारे पास चले आये, यह क्या बात है? पूज्यवर ने बतलाया-बेटे! धरती क्या बादलों के पास जाती है या बादल स्वयं आते हैं धरती पर? हमने कहा बादल स्वयं आते हैं एवं धरती पर बरस जाते हैं। बादलों को चलना पड़ता है। बादल स्वयं बरसते रहते हैं। उन्होंने कहा कि आकाश में बादलों की तरह सिद्ध पुरुषों की भी कमी नहीं है, जो बादलों की तरह बरसने के लिए सुपात्र की खोज करते रहते हैं। दिव्य आत्माओं की वे तलाश करते रहते हैं।
मित्रो! आपने देखा होगा कि जब इस धरती पर मरी हुई लाश, कुत्ते आदि पड़े रहते हैं, तो गीध, कौवे, चील स्वयं आ जाते हैं तथा उसे नोच-नोच कर खा जाते हैं। उसी प्रकार भगवान्, दिव्य पुरुष, संत भी ऊपर से तलाश करते हैं कि इस धरती पर कौन दिव्य पुरुष है, जिसे भगवान् गुरु, संत की कृपा, वरदान, आशीर्वाद की आवश्यकता है और वह वहाँ पर पहुँचकर सारा काम करते हैं। वे देखते हैं कि कौन दया के पात्र हैं। हम बद्रीनाथ, रामेश्वर जाते हैं, किन्तु वे भी हमारे पास आते हैं एवं हमारी परख करके चले जाते हैं। केवट की भक्ति, श्रद्धा महान थी। उसे देखकर भगवान् राम स्वयं उसके पास आये और दर्शन दिया। केवट रामचंद्र जी के पास नहीं गया था। शबरी के पास रामचंद्र स्वयं आये थे। शबरी नहीं गई थी। श्रीकृष्ण गोपियों के पास गये थे तथा उन्हें प्यार दिया था, गोपियाँ नहीं गईं थी। मित्रो! उसी प्रकार पात्रता देखकर गुरु शिष्य के पास आता है तथा उसे धन्य कर जाता है। अगर वास्तव में पात्रता हो, तो ऋद्धि-सिद्धियाँ पाई जा सकती हैं तथा निहाल हुआ जा सकता है।
पात्रता ही है महान् तत्त्व
भगवान् के यहाँ अनंत वैभव, कृपा, अनुदान भरा पड़ा है। वह केवल ऐसे आदमी को मिलता है, जिनकी पात्रता है। एक बार हम पोरबंदर-गुजरात गये थे और वहाँ गाँधीजी का जन्म स्थान देखा था। वह बहुत छोटा था। तब वहाँ छोटा सा मकान था। परन्तु भगवान् तो मालदार हैं। उसने गाँधीजी को धन्य कर दिया। आज वहाँ करोड़ों का स्मारक बना हुआ है। भगवान् आते हैं, तो मनुष्य के सोचने का, विचार करने का, कार्य करने का ढंग बदल जाता है। उसकी अवाज बदल जाती है। उसे सारे लोगों के प्रति श्रद्धा-निष्ठा हो जाती है। वह दूसरों को प्यार देता है, दूसरों के दुखों को देखकर द्रवित होता है। गाँधी जी के अंदर भगवान् आये और जो भी आवाज उनने दी, उसे पूरा होते देखा गया। भगवान् की खुशामद करने से कोई काम नहीं चलेगा। पात्रता ही महान तत्व है। जिसमें पात्रता होती है, सरकार उसे फिर बुला लेती है। उसको काम देती है। प्रेम महाविद्यालय के प्रिंसीपल ९० वर्ष के होने को आये, परन्तु गवर्नमेन्ट ने उन्हें नहीं छोड़ा। हर साल उन्हें नया पद मिल जाता।
मित्रो! प्रतिभाओं की माँग, योग्यता की माँग, गुणों की माँग हर जगह होती है। हमारा भी यही उद्देश्य है कि आप आगे बढ़े। हम चाहते हैं कि आपके अंदर भी वे चीजें आ जाएँ, भगवान् आ जाएँ तथा आपका विकास हो जाये। इसीलिए हमने आपका ब्याह भगवान् से कराने का निश्चय किया है। परन्तु मित्रो, अगर कन्या अस्वस्थ हो, बीमार हो, कमजोर हो, तो उसका विवाह अच्छे लड़के के साथ कैसे हो सकता है। उसी तरह आपकी पात्रता कमजोर हो, तो भगवान कैसे आपको अपनायेगा? कैसे स्नेह, प्यार देगा? अगर राजकुमार से विवाह करना हो, तो लड़की भी ठीक होनी चाहिए। अगर आप कोढ़ी है, तो अच्छी लड़की आपको नहीं मिलेगी। आप अपाहिज हैं, तो भगवान् के साथ विवाह नहीं कर सकते हैं। स्वस्थ, निरोग शरीर, स्वच्छ-पवित्र मन की आवश्यकता है—भगवान् से विवाह करने के लिए।
भगवान् से विवाह
स्वच्छ मन, स्वस्थ-निरोग शरीर बनाने के लिए आपको यहाँ बुलाया गया है, ताकि आप भगवान से जुड़ सकें। आपको हम गायत्री महापुरश्चरण करा रहे हैं। हमें प्रसन्नता है कि आप बहुत प्रात:काल ही उठकर पूजा, ध्यान, जप, प्राणायाम में लग जाते हैं। यह सब देखकर हमें खुशी होती है। अगर आप इन करने वाले कर्मकाण्डों से कुछ प्रेरणा ले सकें तथा अपनी पात्रता का विकास कर सकें, अपने को जीवंत बना सकें, तो आप यकीन रखें कि आपका विवाह भगवान से हो जायेगा। तथा आपके पास सारी ऋद्धि-सिद्धियाँ, वैभव स्वत: आ जायेंगे, जिसके लिए आप रातोंदिन परेशान रहते हैं।
मित्रों! एक लड़की थी। उसका रिश्ता तय हो गया। उसकी गोद में एक नारियल भी लड़के वालों ने दे दिया था। बाद में लड़के वालों ने मना कर दिया। लड़की ने कमर कसी और लाठी लेकर उस गाँव में पहुँच गई। उसने कहा कि अरे विवाह कर, नहीं तो लाठी के सामने आ जा। मामला पंचायत तक पहुँचा। लड़की ने कहा कि इसने ही शादी पक्की की, नारियल भी दिया और अब ना कर रहा है। पंचायत ने फैसला किया कि विवाह इसी लड़की के साथ होगा।
मित्रो! हमने भी आपका विवाह भगवान् से कराने का निश्चय किया है। आप भी उस लड़की की तरह दृढ़ निश्चय करके अपनी पात्रता को विकसित करके भगवान को प्राप्त करें। आपकी परेशानी दूर हो जायेगी। हम भगवान के पास होकर आये हैं। उनके पास ढेरों हीरे की अंगूठी-जवाहरात, बाल-बच्चे हैं, जिसे चाहे उठाकर ले आओ। मित्रो! यह विवाह किसी प्रकार घाटे का सौदा नहीं है। आप इसे निभाना। इसमें हमें प्रसन्नता होगी।
आज की बात समाप्त।
ऊँ शान्ति:!
विवेक की साधना और सिद्धि
(४ जून, १९६९ गायत्री तपोभूमि, मथुरा)
सात्विकता से सिद्धि
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें-ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! महात्मा आनंद स्वामी ने एक बार एक व्यक्ति से कहा था कि तू जब तक अनीति द्वारा कमाया हुआ धन खाएगा, तेरी प्रगति और बुद्धि नष्टï होती चली जाएगी। अत: हमें सात्विक अन्न खाना चाहिए। अन्नमय कोश की साधना के लिए आपको विशेष रूप से यह विचार करना होगा कि आपका आहार सात्विक है या नहीं। यहाँ अन्न से मतलब आजीविका से है। आजीविका शुद्ध होनी चाहिए। आजीविका ठीक होगी, तो मन भी ठीक होगा। मनुष्य के जीवन में आजीविका का अपना महत्त्व है। अन्न का अपना महत्त्व है। यदि ये शुद्ध होंगे, तो साधना से सिद्धि मिलने में देर नहीं होगी। सात्विकता से सिद्धियाँ स्वत: आती हैं।
एक तपस्वी महात्मा जी थे। वह एक पेड़ के नीचे बैठे थे कि एक चिडिय़ा ने बीट कर दिया। उन्होंने उसकी ओर देखा और वह जलकर भस्म हो गयी। महात्मा जी को अपनी सिद्धि पर अहंकार हो गया था। एक दिन वे एक गाँव में गए और एक महिला से भीख माँगने लगे। महिला ने कहा कि आप थोड़ी देर रुकें। थोड़ी देर बाद भी जब वह नहीं आयी, तो महात्मा जी ने आवाज लगायी। महिला बोली कि इस समय हम योगाभ्यास कर रहे हैं। पति की सेवा करना, खाना खिलाना, बच्चों को स्कूल भेजना-यह मेरा योगाभ्यास है। जब यह खत्म हो जाएगा, तो हम आपकी सेवा करेंगे।
महात्मा जी नाराज हो गए और उसे शाप देना चाहा। महिला बोली कि महात्मन्! हम चिडिय़ा नहीं है, जो आप हमें जला देंगे। महिला के इस कथन से महात्मा जी को आत्मग्लानि हुई और वे सोच में पड़ गए। उन्होंने पूछा कि तुम कैसे जानती हो कि यह घटना घटित हो चुकी है। महिला बोली कि मैं पति को ही परमेश्वर मानकर उनकी सेवा करती हूँ, जो हमारे लिए भोजन-वस्त्र की व्यवस्था करते हैं, देखभाल करते हैं। यह उसी का परिणाम है। महात्मा जी को उसने एक और गुरु के पास भेजा। वे बनिया के पास गए। वह प्रात:काल से सायं तक पूरे परिश्रम और ईमानदारी से अपनी दुकानदारी करता था। यही उसका नित्य का योगाभ्यास था। इसके बाद महात्मा जी एक और व्यक्ति के पास गए। वह भी ईमानदारी के साथ अपने कत्र्तव्य-कर्म-सफाई के काम मे लगा रहता। शाम को माता-पिता की सेवा करता। उसने भी महात्मा जी को बतलाया कि देखा हमारा योगाभ्यास। हमारी यही है ईमानदारी का योगाभ्यास, परिश्रम का योगाभ्यास।
तप में बल आहार साधना से
वस्तुत: ये तीनों ही शुद्ध अंत:करण वाले व्यक्ति थे। पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना या पढ़ा होगा आपने। उनके जीवन में जो भी चमत्कार होता चला गया, वह उनके सात्विक आहार का था। तपस्या-उपासना में जो बल देता है, उसका नाम अन्न है। यह सात्विक होना चाहिए। इससे मन पवित्र, स्थिर और शांत रहता है। अगर आपका मन ठीक नहीं रहता है, तो साधना-उपासना का मूल आप समझ नहीं पाये हैं, तपस्या का मूल आप समझ नहीं पाये। फिर मैं आपको कैसे समझा सकता हूँ, जब आपके दिमाग में कूड़ा भरा पड़ा है। उस गंदगी को आपके दिमाग से हम कैसे साफ कर सकते हैं। इसकी सफाई आपको स्वयं ही करनी होगी।
मित्रो! हमारा मन साधना-उपासना में बहुत लगता है। इसमें हमें जो आनंद आता है, उसका वर्णन हम नहीं कर सकते हैं। आपका भी मन लगे, इसके लिए आपको अन्न की सात्विकता अपनानी होगी, तभी प्रगति हो सकती है। हमने चौबीस साल तक अपनी जीभ को साधा तथा सात्विक अन्न का सेवन किया। आप अपने को साधना नहीं चाहते हैं, तो उपासना के क्षेत्र में आगे कैसे बढ़ेंगे? एक दिन हमने आपको आहार-विहार के बारे में बताया था, साथ ही यह भी चर्चा की थी कि समय का विभाजन करें और समय का मूल्य समझें। अगर आप अपनी जीभ को साध लें, तो चमत्कार उत्पन्न हो जाएगा। आहार-विहार के असंयम के कारण ही बीमारियाँ आपको घेरे रहती हैं। इसी के कारण अभी तक आप छोटे आदमी बने रहे।
व्यवहार की सिद्धियाँ
मित्रों, चंद्रभान नामक एक व्यक्ति भारत-पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान से यहाँ आये थे। वे वहाँ पर एक टेलीफोन आपरेटर थे। यहाँ आने पर उन्होंने अपने कागज वगैरह दिखाया, तो उनको भारत में नौकरी मिल गयी। आज बीस वर्ष बाद वे इसी विभाग के डायरेक्टर बनकर उच्चतम पोस्ट पर पहुँच गये। मित्रो यही सिद्धि है। यह कैसे मिली? यह उनके व्यवहार, परिश्रम तथा सात्विक आचार-व्यवहार के कारण मिली और वे प्रगति-पथ पर आगे बढ़ सके। उन्होंने उपासना के साथ साधना भी की, जिसका लाभ उन्हें मिल गया। वे ऑपरेटर के साथ-साथ विभाग के अन्य पेंडिंग कार्य को भी पूरा करते रहे। उनके विभाग के लोग उनके कार्य एवं व्यवहार से प्रसन्न रहते थे।
मित्रो, जब हम आगरा में प्रेस में काम करते थे, वहाँ एक हमारे मित्र थे, जो कहते थे कि काम ऐसा करो कि मालिक के हाथ-पैर तोड़कर रख दो। हमने कहा कि आप हमें जेल भिजवाएँगे क्या? उन्होंने कहा कि इसका मतलब यह है कि मालिक का सारा कामकाज अपने जिम्मे ले लो, तो मालिक आप पर निर्भर हो जाएगा, साथ ही आपकी इज्जत भी करेगा। चंद्रभान जी, जिनके बारे में अभी मैंने बताया, वे इसी प्रकार अपने ऑफीसर के हाथ-पैर तोड़ते चले गए। आगे जब कभी मौका आता था, तब अपने अफसर से कहते कि हमारा प्रमोशन नहीं हो सकता? अफसर कहता था अवश्य होगा। वे परीक्षा में बैठते और ऑफीसर उनका सहयोग कर देता था। इस प्रकार उनकी प्रगति होती चली गयी। उनका पहनावा-ड्रेस भी बहुत सीधा-सादा था। लोगों को उनकी सादगी से प्रेम था।
मित्रो! मैं आपको अभी व्यवहार की सिद्धियाँ बता रहा था। आहार की सिद्धियाँ बता रहा था कि आप अपनी जबान पर काबू पाइए तथा सबके मित्र बनते चले जाइए। पिछले दिनों हमने आपको बतलाया भी था कि जब हम अज्ञातवास में गए थे तो एक साल तक केवल शाक-भाजी पर जिंदा रहे। आप तो आडंबर में आकर न जाने क्या-क्या खाते चले गए। आपने प्राकृतिक चिकित्सा की पुस्तकें भी पढ़ीं, परंतु आपने कभी भी उस पर चलने का प्रयास नहीं किया। आपने समय का संयम भी नहीं किया। इस कारण आप उन्नतिशील भी न बन सके। जापान एवं अमेरिका के लोग सारे दिन भजन नहीं करते, परंतु वे कितनी प्रगति पर हैं। वे अपने समय का एक मिनट भी बर्बाद नहीं करते हैं। हमारा बच्चा जब कमाने लगता है और हम बूढ़े हो जाते हैं, तो घर में बैठे रहते हैं, मक्खी मारते रहते हैं। जबकि बुड्ढïे को बहुत काम करना चाहिए। बुड्ढïे गाँधी ने बहुत काम किया। बूढ़े जवाहर ने लगभग पिचहत्तर वर्ष की उम्र में भी अठारह-अठारह घंटे काम किया। जवान आदमी की तरह ही बूढ़े व्यक्ति को भी काम करना चाहिए। कामचोर-हरामखोर हमें पसंद नहीं हैं।
मन की साधना कैसे?
साधना, जो मनुष्य को उत्कृष्टï बना देती है, इसी संदर्भ में, मैं बतला रहा था, जो आपको अपने दिमाग में बैठा लेना चाहिए। कल हमने आपको बतलाया था कि मन को काबू में कर लेने के बाद भगवान का ध्यान कैसे करना चाहिए। गायत्री माता का ध्यान कैसे करना चाहिए? उन्हें बार-बार घूम-घूमकर देखना होगा, ताकि आपका इधर-उधर भागने वाला मन काबू में रहे तथा आप उनसे संबंध रख सकें। इसके लिए आपको मन की साधना करनी पड़ेगी। मन की साधना के दो माध्यम हैं। पहला है-विवेक और दूसरा-साहस। इनके द्वारा ही हम ऋद्धि-सिद्धियों से भरते चले जाते हैं। अपने आहार-विहार को ठीक करने के बाद अपनी प्रगति होती चली जाती है। मनुष्य के अंत:करण में बैठा हुआ विवेक और साहस जब जाग्रत हो जाता है, तो इन दो आधारों पर ही मनुष्य जो चाहे प्राप्त करता हुआ चला जाता है।
मित्रो! राजस्थान में एक संस्कृत के अध्यापक थे-हीरालाल शास्त्री। शास्त्री जी की पत्नी की मृत्यु हो गयी। हमारे आपके साथ ऐसा हो जाने पर या तो आत्महत्या कर लेंगे या दूसरी शादी कर लेंगे, परंतु संस्कृत का वह अध्यापक गाँव चला गया। उसने कहा कि उस महान नारी ने हमें आनंद-उल्लास से भर दिया था, हमारे अंदर विवेक, साहस जाग्रत कर दिया था। उसके मरने के बाद उसकी याद में हम इस गाँव के अंतर्गत कुछ करना चाहते हैं। हम उसके प्रति अपना फर्ज अदा करना चाहते हैं। इस गाँव की कन्याओं को हम पढ़ाना चाहते हैं। वे नौकरी छोड़कर गाँव आ गए और एक पेड़ के नीचे बैठकर उस गाँव की कन्याओं को पढ़ाने लगे। तीस दिन की रोटी का प्रबंध तीस घरों से हो गया और वह अपने आदर्श-कत्र्तव्यों पर आरूढ़ हो गए तथा पूरी निष्ठïा के साथ उस कार्य को करने लगे। आदर्श-सिद्धांतों का धनी वह उस स्कूल को चलाता चला गया। लोग आए और मदद करते चले गए। विद्यालय का काम सुचारू रूप से चलने लगा।
मित्रो, शीरी-फरहाद की कहानी आप जानते हैं। शीरी को फरहाद चाहता था। राजा ने इस समस्या का हल करना चाहा तथा फरहाद को इस रास्ते से अलग करने का मन बना लिया। उसने एक योजना बनायी। फरहाद से कहा कि देख-इस पहाड़ के उस पार एक नदी है। उसको इसको काटकर उधर से नहर लानी है। फरहाद का प्रेम अमर था। उसने कहा कि ठीक है, हम वैसा ही करेंगे। उसने कुल्हाड़ी उठायी और पहाड़ को काटकर नहर ले आया। लोगो ने भी सहयोग दिया। इस साधना को देखकर राजा को शीरी का हाथ फरहाद के हाथ में देना पड़ा।
विवेक की सिद्धि का राजमार्ग
इसी प्रकार उस अध्यापक का भी विद्यालय चल पड़ा तथा कुछ ही दिनों में वह राजस्थान का एक महान विद्यालाय बन गया। वह व्यक्ति राजस्थान का मुख्यमंत्री भी बन गया। उस हीरालाल शास्त्री को सब लोगों ने पसंद किया तथा उसे सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री बनाया गया। मित्रो, इस तरह विवेक की सिद्धियाँ प्राप्त करने वाले लोग महान बनते चले गए, उनकी प्रगति के रास्ते खुलते चले गए।
साथियो! एक छोकरी थी। उसकी शादी एक दारोगा के लड़के के साथ हो गयी थी। दारोगा शराब पीता था तथा उसके लड़के को भी शराब की लत लग गयी थी। वह भी अठारह साल की उम्र से ही शराब पीने लगा। छोकरी ससुराल आयी, उस घर का सारा दृश्य देखा, परंतु घबराई नहीं। अपने पति की सेवा करती रही और अपनी कत्र्तव्य-परायणता पर अडिग रही। उसका पति रोज बारह बजे रात में आता था, तब तक वह जागती रहती थी। उसको भोजन कराके ही वह भोजन करती थी। चूँकि उसके परिवार वालों ने बताया था कि पत्नी को पति को भोजन कराके खाना चाहिए।
एक दिन रात को दो बज गए। वह आया ही नहीं। आटा गूँधकर रखा था, चूल्हा जल रहा था। थोड़ी देर के बाद वह आया, तो काफी शराब पी रखी थी। आते ही उल्टी करने लगा। सारे कपड़े खराब कर दिए। पत्नी ने सफाई की, नहलाया-धुलाया तथा सुला दिया। सुबह आँखें खुली, तो उसने देखा कि चूल्हा जल रहा है, आटा गुँधा रखा है। उसने पत्नी से पूछा कि क्या तुमने खाना नहीं खाया? पत्नी बोली-भला मैं कैसे खा लेती। मेरे माता-पिता ने कहा है कि पति के खाने के बाद खाना तथा उसकी सेवा करना। कल रात्रि में जब आप आए, तो काफी मात्रा में शराब पी रखी थी। हमने सफाई की, क्योंकि आपने उल्टी कर दी थी। आपने जब भोजन नहीं किया, तो फिर हम कैसे कर लेते?
मित्रो! करुणा की देवी, वात्सल्य की देवी की आवाज उसकी आत्मा में पहुँची, वह द्रवित हो गया। उसे आत्मग्लानि हुई तथा उसी दिन से उसने शराब न पीने का संकल्प ले लिया। साथियो! आगे चलकर वही व्यक्ति मुंशीराम, स्वामी श्रद्धानंद के नाम से विख्यात हुआ। उनके द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय कितना महान है। वह मालवीय जी द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय के समकक्ष एक दूसरा विश्वविद्यालय है
आदर्शवादिता की ओर
विवेक के आधार पर आत्मचिंतन करने वाला व्यक्ति स्वामी श्रद्धानंद बन गया। आदर्शवादिता की ओर अग्रसर कर देने वाला विवेक बड़ा महान है। विवेक मनुष्य को कहाँ-से-कहाँ उछालकर ले जाता है। सिद्धियाँ मनुष्य के भीतर भरी पड़ी हैं। अगर विवेक के आधार पर हम चलें, तो सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।
एक बार हम महाराष्टï्र गए और महर्षि कर्वे के आश्रम से यह सीखकर आए कि महिलाओं की सेवा किस तरह से हो सकती है? बच्चों की सेहत को कैसे सुधारा जा सकता है? महर्षि कर्वे के आश्रम में जाकर मैंने यह सब सीखा। उन्होंने कहा कि मैं बंधन का जीवन नहीं जीना चाहता और न ही नौकरी करना चाहता हूँ। मैं तो देश, समाज तथा संस्कृति की सेवा करना चाहता हूँ। इस दुनिया के अंतर्गत जो भी पीडि़त और पतित हैं, उनकी मैं सेवा करना चाहता हूँ। जो दुखी हैं, उनकी आँखों के आँसू को मैं पोछना चाहता हूँ। उनके आश्रम में जाकर हमने भी एक प्रेरणा प्राप्त की थी कि नौकरी नहीं करेंगे तथा दूसरों को भी नौकर बनने की शिक्षा नहीं देंगे। महर्षि कर्वे ने भी जीवन भर गुलामी नहीं की, नौकरी नहीं की।
मित्रो! उनके पिताजी ने सभी लड़कों को तीन-तीन हजार रुपये दिए थे। महर्षि कर्वे ने उन्हें जमा कर दिया और सेवा में लग गए। साथियो, बच्चों को फोकट का खिलाना ठीक नहीं है। इससे बच्चे बिगड़ जाते हैं। यह अनीति एवं अत्याचार है। बच्चों को कुसंस्कारी, भ्रष्टï एवं दुराचारी बनाना है, तो उनके हाथों में बेकार के, मुफ्त के पैसे थमा दीजिए।
कत्र्तव्य का पाठ पढ़ाएँ
अगर आप अपने बच्चों को कत्र्तव्य-परायणता का पाठ पढ़ाते चले जाएँ, तो आपके बच्चे हीरे एवं मोती के बनते चले जाएँगे, परंतु अगर आपने बेईमानी से कमाया तथा वह अन्न उन्हें खिलाया, तो उसका असर उन पर अवश्य होगा। अगर आप फोकट का धन छोड़ते हैं तथा यह सोचते हैं कि इसे बेटा खाएगा, तो यह आपकी भारी भूल है। मित्रो, इस धन को बेटा नहीं खाएगा, उसे बर्बाद करेगा। विवेक की सिद्धियाँ अगर आपको प्राप्त करनी हैं, तो आप सरदार पटेल बनने का प्रयास करें। लालबहादुर शास्त्री को नाना ने ढाई रुपये दिए थे, जो उनके जीवन में चमत्कार करता हुआ चला गया। उनने जवाहरलाल नेहरू के ऊपर अपनी छाप छोड़ी और भारत के प्रधानमंत्री बने। यह है विवेक की सिद्धि, जिसे आप तो समझते ही नहीं हैं। इस सपर सोचते भी नहीं हैं। विचार भी नहीं करते हैं। बच्चों को फिजूलखर्च बनाते चले जाते हैं।
सातवलेकर एवं राजा महेन्द्रप्रताप
मित्रो, सातवलेकर ने रिटायर्ड होने के बाद अपने विवेक का साथ लिया और संस्कृत पढऩा प्रारंभ किया, तो वह महानता को प्राप्त हो गये। उनने चारों वेदों का भाष्य किया और हिंदुस्तान में सम्मान प्राप्त किया। साथियो! यह है विवेक की उपासना, जो सातवलेकर ने की और उच्चतम स्थान पर पहुँच गए। मछली पानी को चीरती हुई आगे बढ़ती है, उसी प्रकार अध्यात्मवादी आदमी अपना रास्ता स्वयं बनाते हुए चले जाते हैं। उनका रास्ता कोई नहीं रोक सकता है।
मित्रो! मथुरा के राजा महेन्द्र प्रताप ने विवेक की उपासना की थी। लोगों ने कहा कि आपके बच्चे नहीं हैं, अत: आपको दूसरी शादी करनी चाहिए या फिर कोई बच्चा गोद ले लेना चाहिए, नहीं तो वंश कैसे चलेगा? उन्होंने कहा कि ऐसा संभव नहीं है। हमें देश, संस्कृति की सेवा करनी है। असंख्य ऐसे बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई नहीं होती है, जो गरीबी की मार से दबे रहते हैं, उनकी हमें सेवा करनी है। उन्होंने अपने मन में विचार किया और मालवीय जी को नामकरण संस्कार कराने के लिए बुलाया।
संस्कार के समय सब आश्चर्य में पड़ गए कि यहाँ तो कोई बच्चा नहीं है, किसका संस्कार होगा? लोगों ने सोचा दासी आती होगी और अपने साथ किसी बच्चे को लाएगी। थोड़ी देर बाद राजा साहब ने कहा कि रानी के बच्चे नहीं हुए हैं, हमारे बच्चे हुए हैं। लोग बड़े आश्चर्यचकित हुए कि कहीं राजा के भी बच्चे होते हैं? उन्होंने एक थाली में रखी चादर हटाई और लोगों को दिखा कि यही हमारा बच्चा है, जिसका नाम आदरणीय मालवीय जी ने 'प्रेम महाविद्यालयÓ रखा है। यहाँ बच्चों की पढ़ाई होगी। बच्चे विवेकवान होंगे तथा देश, समाज और संस्कृति की सेवा करेंगे। हमारा नाम जो रोशन होगा, वह ऐसे बच्चों से ही होगा। उसमें देश के विभूतिवान व्यक्ति अध्यापक रखे गए थे। उसमें पढ़ाई भी आश्चर्यजनक हुई। इस विद्यालय से विवेकवान, विभूतिवान, आदर्शवान विद्यार्थी निकले, जिन्होंने देश, समाज तथा राजा महेन्द्र प्रताप का नाम उज्ज्वल किया।
मित्रो! यह विवेक की सिद्धि महान थी, जिसने राजा महेन्द्र प्रताप को ऊँचा उठा दिया। आज अज्ञान में डूबे लोग, तृष्णा में डूबे लोग, अहंकार में डूबे लोग उपासना के सही अर्थ को समझ नहीं पाते हैं। वास्तव में विवेक की सिद्धि महान स्थान रखती है।
आज की बात समाप्त
धर्मतंत्र का परिष्कार अत्यंत अनिवार्य
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा १९६९ में गायत्री तपोभूमि,
मथुरा में दिया गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
दो ही मुख्य तंत्र
देवियो, भाइयो! व्यक्ति एवं समाज के ऊपर नियंत्रण करने वाली दो ही शक्तियाँ मुख्य हैं। एक शक्ति का नाम धर्ममंत्र और दूसरी का नाम है—राजतंत्र। राजतंत्र मनुष्य के ऊपर नियंत्रण करता है और धर्मतंत्र मनुष्य के भीतर श्रेष्ठïताओं और रचनात्मक प्रवृत्तियों को ऊपर उठाता है, उभारता है। एक का काम संसार में और व्यक्ति में महत्ता को, श्रेष्ठïता को ऊँचा उठाना है और दूसरे का काम मनुष्य की अवांछनीय गतिविधियों पर नियंत्रण करना है। भौतिक क्षेत्र राजनीति का है और आत्मिक क्षेत्र धर्म का है। दोनों ही एक गाड़ी के दो पहियों के तरीके से एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे का एक दूसरे से बहुत ही घनिष्ठï संबंध है। राजनीति यदि ठीक हो, राजसत्ता यदि ठीक हो, तो मनुष्यों की धार्मिकता, विचारणा, आध्यात्मिकता और श्रेष्ठïता अक्षुण्ण बनी रहेगी और यदि मनुष्यों की धर्मबुद्धि ठीक हो, तो उसका परिणाम राजनीति पर हुए बिना नहीं रहेगा।
दोनों एक दूसरे के पूरक
मित्रो! अच्छे व्यक्ति, धार्मिक व्यक्ति अच्छी सरकार बना सकने में समर्थ हैं और अच्छी सरकार में यदि अच्छे व्यक्ति जा पहुँचें, तो साधन स्वल्प होते हुए भी, सामग्री स्वल्प होते हुए भी समाज का हितसाधन कर सकते हैं। धर्म के मार्ग पर जो रुकावटें पैदा हों या जो कठिनाइयाँ हों, उनको दूर करना राजसत्ता का काम है और राजसत्ता में जो विकृतियाँ पैदा हों, उनको नियंत्रित करना धर्मसत्ता का काम है। वस्तुत: दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही समर्थ हैं। दोनों का ही क्षेत्र बड़ा व्यापक है और दोनों की सामथ्र्य लगभग एक समान है। हमारे देश में धर्मसत्ता राजनीति सत्ता से कहीं आगे थी। इस समय में गई-गुजरी अवस्था में भी जबकि विकृतियाँ चारों ओर से फैल पड़ी हैं। ऐसे समय में भी धर्मसत्ता का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है।
हम देखते हैं कि इतनी जनशक्ति, धनशक्ति, भावनाशक्ति, विवेकशक्ति इस धर्म-क्षेत्र में लगी हुई है। यदि ये शक्तियाँ ठीक दिशा में नियोजित की गई होतीं और उनका ठीक तरीके से उपयोग किया गया होता, तो जो काम राजसत्ता देश भर में कर सकती है, उसकी अपेक्षा सौ गुना ज्यादा काम धर्मसत्ता ने कर लिया होता, क्योंकि अपने देश में धर्मसत्ता का स्थान बहुत ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है। अपने यहाँ संसार के सभी क्षेत्रों से अधिक धार्मिक प्रक्रियाओं की ओर ध्यान दिया जाता है। अपने यहाँ संत-महात्माओं को ही लें, साधु-ब्राह्मïण को ही लें, तो इतना बड़ा वर्ग जिस देश में है, जो धर्म के आधार पर जीविका भी प्राप्त करता है, अपने मन में यह समझता भी है कि हम धर्म के लिए जीवित हैं। न केवल अपने आपको समझता है, अपितु समाज में यह घोषित भी करता है कि हम समाज के ही नहीं हैं, हम धर्म के लिए भी हैं। अगर इन लोगों की गतिविधियाँ सही रही होतीं और यदि इन लोगों के विचार करने की शैली सही रही होती, तो इनके द्वारा इतना बड़ा विशाल कार्य देश में ही नहीं, समस्त विश्व में कर सकना संभव हो गया होता कि दुनिया को उलट-पुलट कर लिया जाता।
भगवान् बुद्ध के केवल ढाई लाख शिष्य थे। उन ढाई लाख शिष्यों को भगवान् बुद्ध ने आज्ञा दी कि आप लोगों को सारे एशिया और सारे विश्व के ऊपर छाप डालनी चाहिए। इस समय जो अनैतिक और अवांछनीय वातावरण पैदा हो गया है, उसे ठीक करना चाहिए। भगवान् बुद्ध की इच्छा के अनुसार गृहत्यागी, धर्म पर निष्ठïा रखने वाले ढाई लाख व्यक्ति रवाना हो गए और सारे एशिया पर छा गए, सारे यूरोप पर छा गए, सारे विश्व पर छा गए। उन्होंने बौद्ध धर्म-संस्कृति एवं बौद्ध भावनाओं का प्रसार सारे विश्व में कर दिया।
विराट संख्या एवं बढ़े हुए साधन
मित्रो! आज हमारे साधन बहुत ज्यादा बढ़े-चढ़े हैं। अपने इस भारतवर्ष में सरकारी जनगणना के हिसाब से छप्पन लाख व्यक्ति इस तरह के हैं, जो कहते हैं कि हमारी जीविका केवल धर्म के आधार पर चलती है। धर्म ही हमारा व्यवसाय है, रोटी कमाने का स्रोत है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी जीविका धर्म नहीं है, जो केवल अपने मन और संतोष के लिए स्वांत: सुखाय और सामान्य कत्र्तव्य समझ करके पूजा-पाठ या धार्मिक कृत्य करते हैं। धर्म के माध्यम से जीविका कमाने वालों में साधु-बाबाजी, पंडे-पुजारी आते हैं। यह संख्या छप्पन लाख हो जाती है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि सरकार के एंपलाइज—कर्मचारियों की संख्या उससे कम है। सेमी गवर्नमेंट और पूरी गवर्नमेंट दोनों को मिला करके हिंदुस्तान में चालीस लाख के लगभग कर्मचारी हैं, लेकिन धर्मसत्ता के पास छप्पन लाख कर्मचारी हैं। यह जनशक्ति इतनी बड़ी है कि उसको यदि किसी रचनात्मक कार्य में लगा दिया जाए, तो सरकार के द्वारा जितने भी रचनात्मक और नियंत्रणात्मक कार्य होते हैं, उन सबकी अपेक्षा धर्म में काम करने वाले ज्यादा काम कर सकते हैं। क्योंकि सरकार की मशीनरी में केवल वेतनभोगी लोग होते हैं, समय पर काम करने वाले होते हैं। जरा भी समय ज्यादा खरच हो जाए, तो वे ओवर टाइम माँगते हैं। उन्हें पेंशन देने की जरूरत पड़ती है और भी बहुत से खरचे करने पड़ते हैं, इसलिए वे कर्मचारी बहुत महँगे भी होते हैं। उनके जीवन का उद्देश्य सेवा नहीं होता। अधिकांश लोगों की इच्छा-उद्देश्य नौकरी करना, पेट पालना होता है।
लेकिन मित्रो! धर्म के लिए जिन्होंने आजीविका स्वीकार की है, उनके सामने तो लक्ष्य भी होना चाहिए। उनके पास तो समय भी ज्यादा होना संभव है। आठ घंटे ही काम करेंगे, यह क्या बात हुई! संत-महात्मा छह घंटे सो लिए, भिक्षा से रोटी मिल गई, बनी-बनाई रोटी मिल गई, दो घंटे नित्यकर्म के लिए लगा दिए, आठ घंटे हो गए। आठ घंटे के बाद सोलह घंटे उनके पास बच जाते हैं। यदि वे इस सारे-के-सारे समय को धर्मकार्यों में लगाना चाहें, तो उनमें से एक व्यक्ति दो आदमियों के बराबर काम कर सकता है। उनमें भावनाएँ होती हैं, निष्ठïाएँ होती हैं, धर्म-विश्वास होता है, और भी बहुत-सी बातें होती हैं। तो ये छप्पन लाख व्यक्ति वस्तुत: इतनी बड़ी जनसंख्या है कि चाहें तो बुद्ध भगवान् के ढाई लाख शिष्यों की अपेक्षा दुनिया भर में तहलका मचा सकते हैं।
एक लाख व्यक्तियों ने फैलाया तीन-चौथाई दुनिया में धर्म
ईसाई मिशनरी के पास केवल एक लाख के करीब पादरी हैं और वे पादरी सारी दुनिया में छाए हुए हैं। उत्तरी ध्रुव से लेकर भारतवर्ष के नागालैंड और बस्तर तक में, जंगलों में और आदिवासियों के बीच काम करते हैं। उनका यह विश्वास है कि ईसामसीह का संदेश और ईसाईयत का संदेश घर-घर पहुँचाया जाना चाहिए। इस विश्वास के आधार पर अपनी सुविधाओं का ध्यान किए बिना पादरी लोग सारे विश्व भर में काम करते हैं। परिणाम क्या हुआ? केवल ईसाई धर्म को, भगवान् ईसा को जन्म लिए सिर्फ उन्नीस सौ सत्तर वर्ष के करीब हुए हैं। तीन सौ वर्ष तक, तो उनका सारा-का-सारा क्रियाकलाप अज्ञान ही बना रहा। सेंट-पॉल ने ईसा के लगभग तीन सौ वर्ष बाद ईसाई धर्म की खोज की और ईसा की खोज की, उनका जीवनचरित ढूँढ़ा, उनके उपदेशों को संकलित किया। तीन सौ वर्ष तो ऐसे ही निकल जाते हैं। केवल सोलह सौ वर्ष हुए हैं, लेकिन एक लाख व्यक्ति जो आज हैं, इससे पहले तो एक लाख भी नहीं थे। इन थोड़े से निष्ठïावान, धार्मिक व्यक्तियों ने ईसाइयत का कितना प्रचार कर डाला कि दुनिया में एक-तिहाई मनुष्य अर्थात् एक अरब मनुष्य आज ईसाई हैं। तीन अरब की आबादी सारी दुनिया में है। मुसलमानों की बात अलग थी। उन्होंने तो तलवार के जोर से भी अपना धर्म फैलाया, लेकिन ईसाइयों ने जुल्म भी नहीं किया। कम-से-कम प्रारंभ में तलवार के जोर से धर्म नहीं फैलाया। इतना होते हुए भी इस थोड़े से समय में सारे विश्व में इतनी बड़ी संख्या फैल गई। इसका क्या कारण है? कारण केवल उन एक लाख मनुष्यों का श्रम, उनकी भावनाएँ और प्रयत्न हैं, जिनकी वजह से उन्होंने ईसा को, बाइबिल के ज्ञान को दुनिया में फैलाया।
मित्रो! अगर अपने पास धर्म की शक्ति में लगे हुए व्यक्ति इस तरह की भावना को लेकर के चले होते कि हमको ऋषियों का, सभ्यता और संस्कृति का, भगवान् का संदेश जनमानस में स्थापित करना है। उससे लोक मानस को, जन-जन को प्रभावित करना है। हर व्यक्ति को धार्मिक बनाना है और एक ऐसा समाज बनाना है कि जिसमें धर्मप्रेमी लोग रहते हों। मर्यादाओं का पालन करने वाले, परस्पर स्नेह करने वाले और बुराइयों, अनीतियों से दूर रहने वाले व्यक्ति पैदा हों। बताइए तो उसका परिणाम कितना बड़ा हो गया होता! जरा विचार तो कीजिए। जिसके मन में भगवान् की, देश और धर्म की लगन लगी हुई हो, वह एक ही आदमी कितना बड़ा काम कर सकता है। हमने कल-परसों महात्मा गांधी को देखा था, अकेले ही थे और सारे भारतवर्ष को जगा दिया। हमने कल-परसों बुद्ध भगवान् को देखा, एक ही महात्मा थे और सारे विश्वभर को जगा दिया। कल-परसों स्वामी रामतीर्थ एवं एक ही विवेकानंद को हमने देखा, एक ही योगी थे। उनने वेदांत का संदेश भारतवर्ष से लेकर अन्य द्वीप-द्वीपांतरों तक पहुँचा दिया।
शिक्षा नहीं, भावना प्रधान
आप कहेंगे कि वे लोग तो पढ़े-लिखे और सुशिक्षित महात्मा थे और ये छप्पन लाख तो सुशिक्षित नहीं हैं। शिक्षा से और धर्म से कोई खास समझौता नहीं है। शिक्षित व्यक्ति भी उतना ही काम कर सकते हैं, जितना कि बिना शिक्षित और बिना शिक्षित धर्मप्रेमी भी उतना ही काम कर सकते हैं, जितना कि शिक्षित। संत रैदास बिना पढ़े थे और कबीर की शिक्षा भी नाम मात्र की थी। मीरा कौन ज्यादा पढ़ी-लिखी थी! नामदेव की शिक्षा क्या बढ़ी-चढ़ी थी! दादू से लेकर के अन्य महात्मा, जो भक्तिकाल में हुए हैं, उनको शिक्षा की दृष्टिï से यदि तलाश किया जाए, तो उनकी योग्यता, उनकी विद्या और शिक्षा बहुत ही कम थी, लेकिन उन लोगों ने अपने-अपने समय पर कितने महत्त्वपूर्ण कार्य किए, आप सभी जानते हैं। समाज का संरक्षण और शिक्षण करने के लिए भावनाओं की जरूरत है, प्रभाव की जरूरत है, लगन और परिश्रम की जरूरत है। शिक्षा की उतनी जरूरत नहीं है।
भारतवर्ष में सात लाख गाँव हैं। यदि छप्पन लाख संत-महात्मा इस देश में काम करने के लिए खड़े हो गए होते, तो वह काम कर दिखाया होता कि हमने राष्टï्र का नया निर्माण ही कर लिया होता। कल्पना कीजिए कि आठ महात्मा एक गाँव के पीछे हैं, उनमें से कुछ तो पढ़े-लिखे होंगे ही। यदि कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं हैं, तो भी अपने शारीरिक श्रम के द्वारा सारे गाँव की सफाई की व्यवस्था बना सकते हैं। अगर एक महात्मा झाड़ू लेकर चल पड़े, तो बाकी लोग उसका तमाशा देखते रहें, ऐसा तो नहीं हो सकता। गाँव के लोग भी श्रमदान के लिए चलेंगे, तो जहाँ गाँव की गलियों-कूचों में हर जगह गंदगी-ही-गंदगी दिखाई पड़ती है, वहाँ स्वच्छता दिखाई देने लगे। एक महात्मा पेशाबघर और चलते-फिरते शौचालय बनाने के लिए फावड़ा लेकर खड़ा हो जाए, तो गाँव वालों को शर्म नहीं आएगी क्या!
जरूर आएगी कि हम अपने गाँव में जहाँ-तहाँ गंदगी कर देते हैं। इसके लिए हमको एक कोने में छोटा-सा पेशाबघर और शौचालय बना लेना चाहिए। मैं छोटी-सी बात कह रहा था कि जापान ने अपने देश की खाद्य समस्या इसी प्रकार से हल कर ली है। वहाँ फर्टिलाइजर और दूसरे प्रकार के कारखाने नहीं हैं। मनुष्य के मल-मूत्र का ही उपयोग किया जाता है और उससे ही करोड़ों रुपए की खाद पैदा कर ली जाती है। अपने देहातों में मल-मूत्र का कोई उपयोग नहीं होता। गाँव के आस-पास ही लोग मल त्याग करके जगह खराब कर देते हैं। यदि हर गाँव में चलते-फिरते शौचालय, ड्रेनेज के शौचालय बना लिए गए होते, सारे गाँव के लोग उसी में शौच के लिए जाते, तो कितना खाद मिल सकता था। यदि महात्मा चाहते, तो इस छोटे से काम को अपने हाथ में ले करके राष्टï्र में करोड़ों मन अन्न पैदा करने और गाँव में स्वच्छता रखने का काम कर सकते थे।
आठ संत-महात्मा प्रति गाँव लग जाएँ तो....
मित्रो! शिक्षा को ही लें। आठ आदमियों में से एक भी पढ़ा-लिखा हो, तो गाँव में एक पाठशाला चला सकता है। प्रौढ़ पाठशाला, रात्रि पाठशाला चला सकता है। जिससे अपना आज का अद्र्ध निरक्षर देश थोड़े ही दिनों में साक्षर बन सकता है। कितनी सामाजिक कुरीतियाँ और व्यसन अपने देश भर में फैले हुए हैं। ब्याह-शादियों में होने वाला खरच हिंदुस्तान के सिर पर कलंक के तरीके से है। धन का कितना अपव्यय होता है। लोगों में गरीबी और बेईमानी पैदा करने के लिए मजबूर करता है। इससे सारे राष्टï्र की जड़ें खोखली हो गई हैं। यदि ब्याह-शादियों में इतना धन खरच न किया गया होता, तो किसी को अपने बच्चे और बच्चियाँ भारी नहीं पड़तीं। किसी पिता को अपने बच्चों के लिए चिंता करने की जरूरत न होती। इन बुराइयों को दूर करने के लिए आठ संत-महात्मा प्रार्थना के द्वारा, प्रचार के द्वारा भी जनमानस तैयार कर सकते थे। कोई ऐसे अवांछनीय जिद्दी व्यक्ति हों, जो दुराग्रह दिखाते हों, तो उनको सत्याग्रह करने से लेकर घिराव तक की और अनशन से लेकर दूसरे काम करने तक की धमकी दी जा सकती थी। उनको बलपूर्वक रोका जा सकता था। सरकार जिस काम को नहीं रोक सकती, उसको ये लोग रोक सकते थे।
नशाबाजी किस तेजी के साथ बढ़ती चली जाती है, आप देख रहे हैं न! बीड़ी-तंबाकू आज घर-घर का शौक बन गई है। इसमें दो करोड़ रुपया प्रतिदिन खरच होता है। इस हिसाब से सात सौ तीस करोड़ रुपया अपने भारत वर्ष के लोगों को प्रतिदिन खरच करना पड़ता है। यदि इस व्यसन को रोका जा सके, तो सात सौ तीस करोड़ रुपये की राष्टï्रीय बचत हो सकती है। यह बचत इतनी बड़ी है, जिसके सहारे सारे देश में उच्च श्रेणी की शिक्षा-व्यवस्था हम आसानी से बना सकते हैं। यदि हमने नशे को रोका होता और नशे के स्थान पर आवश्यक चीजों को उत्पन्न किया होता, वह पैसा उन कामों में खरच कराया होता, जो रचनात्मक हैं, तो मजा आ जाता और पैसे के अभाव में रुके हुए शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के सारे-के-सारे काम कैसे बढिय़ा बन गए होते। क्या कहा जाए! कुछ कह नहीं सकते, हमारी धर्मबुद्धि न जाने कैसी है! हम सब विचारशील लोगों को और बाहर के लोगों को भी हमारी धर्मबुद्धि पर हँसी आती है।
यह तो अध्यात्म नहीं है
मित्रो! भगवान् की प्रार्थना करें, पूजा करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन डंडा लेकर भगवान् के पीछे ही पड़ जाएँ और कहें कि तुमको तो न हम खाने देंगे, न खाएँगे; न कुछ करेंगे, न करने देंगे; तो भगवान् भी कहेगा कि अच्छे चेलों से पाला पड़ा—ये न खाते हैं, न खाने देते हैं; न उठते हैं, न उठने देते हैं; न चलते हैं न चलने देते हैं; न कुछ करते हैं, न करने देते हैं। भगवान् बहुत परेशान होगा कि बाबा इनसे पिंड कैसे छुड़ाया जाए! लोगों के मन में यह ख्याल है कि भगवान् का ज्यादा नाम लो, उनके ऊपर ज्यादा पानी चढ़ाओ, उनको ज्यादा उबटन करो, तो क्या हो जाएगा कि भगवान मजबूर होकर मनोकामना पूरी कर देगा। मित्रो! भगवान् का नाम लेना साबुन लगाने के बराबर है। थोड़ी देर साबुन लगाया भी जा सकता है, लेकिन इसके बाद यदि भगवान् का नाम लिया जाए, तो उसके बराबर भगवान् का काम भी किया जाए। तभी एक बात पूरी होती है, अन्यथा बात कहाँ पूरी होती है! यह बात अगर लोगों को समझ में आ गई होती, तो ये छप्पन लाख व्यक्ति राष्टï्र का निर्माण और देश की सामाजिक, नैतिक और दूसरी समस्याओं का समाधान करने के लिए जुट पड़े होते। यह संख्या कितनी बड़ी है! जितने आदमी सरकार की मशीनरी चलाते हैं, उतनी ही बड़ी मशीनरी धर्मतंत्र के द्वारा चलाई जा सकती थी।
मित्रो! धन को ही लें, तो गवर्नमेंट जितना रेवन्यू वसूल करती है, टैक्स वसूल करती है, उससे ज्यादा धन जनता हमारे धर्मकार्यों के लिए दिया करती है। मंदिरों में कितनी बड़ी संपदा लगी हुई है। सरकार के खजाने में जितनी कुल पूँजी है और रिजर्व बैंक के पास जितना धन है, लगभग उतना ही धन मंदिरों और मठों के पास इमारतों के रूप में, नकदी के रूप में, जायदादों के रूप में अभी भी विद्यमान है। धर्मतंत्र की संपदा एक तरह का रिजर्व बैंक है। अगर धर्मतंत्र की संपदा भोग-प्रसाद लगाने, मिठाई बाँटने, पंडे-पुजारियों का पेट पालने, शंख-घडिय़ाल बजाने और कर्मकांड करने की अपेक्षा जनमानस को ऊँचा उठाने के लिए लगा दी गई होती, तो मजा आ जाता! मैं जहाँ मथुरा में रहता हूँ, वहाँ के दो मंदिरों की बात बताता हूँ। सबका जिक्र तो मैं नहीं कर सकता। वहाँ दो भगवान् दो मंदिरों में दो लाख रुपये मासिक का भोग खा जाते हैं।
क्या भगवान् यह सब चाहता है
ऐसे लगभग पाँच हजार मंदिर हैं। इसमें न्यूनाधिक मात्रा को लगाया जाए, तो मैं समझता हूँ कि रोज भगवान् के खाने-पीने का खरचा मथुरा-वृंदावन दो नगरों में पंद्रह लाख रुपये प्रतिदिन जा बैठता हो, तो कोई अचंभे की बात नहीं है। पंद्रह लाख प्रतिदिन से कितने करोड़ महीने के और कितने अरब साल भर के होते हैं, जरा हिसाब लगाइए न! यह सारा-का-सारा धन यदि भगवान् को भोग लगाने की अपेक्षा उन कामों में खरच किया जाता, जो व्यक्ति के भीतर से कुछ चेतना उत्पन्न करने में, उनकी मन:स्थिति को ऊँचा उठाने में समर्थ हैं, जैसे लोगों को धर्म-धारणा के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था। जिस तरीके से पादरी काम करते हैं। ईसाई मिशन के लोग बाइबिल और दूसरी पुस्तकों को संसार की छह सौ भाषाओं में छापते हैं और घर-घर में एक-एक पैसे के मूल्य पर पहुँचाते हैं। जैसे—शिक्षा की व्यवस्था, ऐसे विश्वविद्यालय और विद्यालय स्थापित करने में पैसा खरच किया गया होता, जहाँ से समाज का नया निर्माण करने वाले व्यक्ति निकल सकें। उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध किया जा सके, तो कितना काम आता। मित्रो! पंद्रह लाख रुपया केवल अपने मथुरा की बात मैंने बताई है। सारे हिंदुस्तान का यदि ब्यौरा लिया जाए, तो ये करोड़ों और अरबों रुपया प्रतिदिन के बीच जा बैठेगा। यदि धर्मतंत्र को सही दिशा देना संभव रहा होता, तो न केवल हिंदुस्तान, बल्कि सारी दुनिया को ठीक कर लिया गया होता। धर्मतंत्र को सही दिशा नहीं दी जा सकी, धर्म का उद्देश्य लोक-मंगल नहीं समझा गया, अपितु कर्मकांड मात्र ही लोगों को बताया जा सका। जिसका परिणाम रचनात्मक न हो सका तथा व्यक्ति और समाज की कोई खास सेवा न हो सकी।
अत्यधिक अपव्यय धर्म के नाम पर
हिंदुस्तान में सोमवती अमावस्या के दिन गंगास्नान का बहुत महत्त्व है। कल्पना कीजिए कि हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक स्नान करने वालों की संख्या कम-से कम हर सोमवती अमावस्या के दिन पचास लाख हो जाती है। एक आदमी के जाने-आने का, श्रम का, खाने-पीने का, दान-दक्षिणा आदि का खरच बीस रुपया आता हो और उसे पचास लाख से गुणा कर दिया जाए तो दस करोड़ रुपया प्रति सोमवती अमावस्या का खरच आता है। आप कल्पना कीजिए कि कम-से-कम चार और ज्यादा से ज्यादा पाँच सोमवती अमावस्या हर वर्ष होती हैं। उनका खरचा लगा दिया जाए, तो पचास करोड़ रुपया खरच करने वालों से प्रार्थना की गई होती कि आप एक वर्ष स्नान करने की अपेक्षा गंगा का उपयोग, गंगा की महत्ता समाज में बनाए रखने के लिए विवेकपूर्वक विचार करें।
मित्रो! जिन शहरों की गंदी नालियाँ गंगा में डाली जाती हैं, वहाँ का पानी अपवित्र कर दिया जाता है। स्नान करने वाला उसी नाले के दूषित पानी मिले हुए गंगाजल को पीता है और उसी का आचमन करके चला जाता है। वह गंदा पानी यदि गंगा में डालने की अपेक्षा शहर की नालियों-ड्रेनेज के द्वारा शहर से बाहर निकाला गया होता और खेतों में, बगीचों में डाल दिया गया होता तो कितने एकड़ भूमि की सिंचाई हो जाती! गंगा में, यमुना में और दूसरी नदियों में जो गंदगी पैदा होती है, उनका पानी खराब होता है, जो कि स्नान करने और पीने के लायक भी नहीं रह जाता, बीमारियाँ और फैलाता है। वह पचास करोड़ रुपया यदि उस गंदे पानी का सदुपयोग करने और नदियों को साफ रखने में खरच किया गया होता, तो कैसा अच्छा होता, मजा आ जाता!
धर्मभावना नहीं, धर्मभीरुता
लेकिन क्या कहा जाए? इसे मैं धर्मभीरुता कहता हूँ, धर्मभावना नहीं कहता। अपने देश में सिर्फ धर्मभीरुता है, धर्मभावना नहीं है। धर्मभीरुता और धर्मभावना में जमीन-आसमान का फरक है। गाँव-गाँव में रामचंद्र जी की लीलाएँ और श्रीकृष्ण की लीलाएँ होती हैं। एक-एक लीला में बीस-बीस, तीस-तीस हजार रुपया खरच हो जाता है। केवल मनोरंजन, तमाशा होता है। लोग तालियाँ बजाते हैं, मेला-ठेला, तमाशा देखते हैं और चले जाते हैं। मित्रो! वह धन, जो अवांछनीय और अनावश्यक खेल-प्रसंगों में खरच किया जाता है, जिसको जनता पुण्य समझती है, उसके द्वारा हमने एक क्रमबद्ध रूप से अभिनय मंच बनाया होता, ऐसी थियेटरिकल कंपनियाँ बनाई होतीं, जो गाँव-गाँव में जाकर भगवान् राम और श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन के उद्देश्यों का शिक्षण देने में समर्थ रही होतीं। उनके नाटक, प्रहसनों ने जनता के मन-मस्तिष्क को और जनता की दिशाओं को बदल दिया होता। जिससे उनमें नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना उत्पन्न की जा सकती थी पर हम देखते हैं कि तमाशे के, उपहास के, मजाक के रूप में भगवान् को एक खिलौना बना देते हैं। भगवान् का सम्मान करने की बात न जाने कहाँ चली जाती है!
मित्रो! थोड़े दिन पहले पंजाब में गुरुनानक पर एक फिल्म बनाई जाने वाली थी, तो पंजाबियों ने घोर विरोध किया कि गुरुनानक को ड्रामे के रूप में नहीं दिखाया जा सकता। उनकी नकल बनाने के लिए कोई झूठा आदमी खड़ा नहीं किया जा सकता। नानक की महत्ता और श्रद्धा हमारे मन में है। उसे हम छोटे से कमजोर आदमी के लिए नष्टï नहीं कर सकते और कोई भी नानक का पार्ट अदा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। मित्रो! भगवान का पार्ट अदा करने के लिए ऐसे छोकरे खड़े हो जाएँ, जिनमें न कोई विवेक है, न विचार है, न कोई दिशा है, न लक्ष्य है, तो इससे मनुष्यों की श्रद्धा में क्या कमी नहीं आएगी! केवल लकीर पीटने के लिए कितने आदमी कितना पैसा अनावश्यक रूप से खरच कर डालते हैं। यह पैसा कितनी विकृतियाँ पैदा करता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जो भी आदमी हराम की कमाई खाएगा, उसका नाम चाहे 'अÓ हो, चाहे 'बÓ, उसके आचरण अच्छे नहीं रह सकते। वह समाज के लिए उपयोगी व्यक्ति नहीं रह सकता।
दुरुपयोग रुके
साथियो! अपने देश की सांस्कृतिक, सामाजिक सेवा और नैतिक उत्कर्ष के लिए धन की जरूरत है। धन के बिना कुछ संस्थाएँ और प्रवृत्तियाँ बेमौत भूख से मर जाती हैं। पैसा ऐसे लोगों को दिया जाता है, जिनकी समझ में नहीं आता कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाए? इस धर्मभीरु जनता को क्या कहा जाए? उनकी धर्मभीरुता को किस तरीके से धिक्कारा जाए? इतना समर्थ धर्मतंत्र जिसके पीछे छप्पन लाख व्यक्ति काम करते हैं। इतने मंदिरों, मठों, तीर्थों और कर्मकांड, श्राद्ध-तर्पण और न जाने क्या-क्या करने में छप्पन करोड़ रुपया खरच हो जाता हो, तो जरा भी अचंभे की बात नहीं है। इतनी बड़ी पूजी एक गवर्नमेंट का बजट बनाने के लिए काफी है। इतनी बड़ी धन की शक्ति, भावनाओं की शक्ति, इतनी बड़ी जनशक्ति, जो कि आज बिखरी पड़ी है और अवांछनीय दिशा में प्रवाहित हो रही है। आवश्यकता इस बात की है कि नई पीढ़ी के समझदार-विवेकशील लोग इस धर्म के अपव्यय को रोकें। जिसे मैं दुरुपयोग कहता हूँ।
मित्रो! धर्म की भावना का बुरी तरह से दुरुपयोग हो रहा है। इसे उस दिशा में लगाया जाए, जिससे कि व्यक्ति का श्रेष्ठï निर्माण हो। मनुष्यों की विचारणा-भावनाओं में परिष्कार हो और समाज को अच्छे रास्ते पर चलने के लिए प्रकाश मिले। इसके लिए समझदार-विवेकशील लोगों को आगे आना ही चाहिए। जिस तरीके से राजनीति में धक्का-मुक्की करके लोग आगे बढ़ते चले जाते हैं। उसमें उनका सत्ता और पद का लोभ रहा होगा, लेकिन सेवा का जो स्तर अपने धर्मक्षेत्र में है, वह अन्य किसी क्षेत्र में नहीं है। इसलिए मैं आह्वïान करना चाहता हूँ उन सब लोगों का, जिनके अंदर देशभक्ति और विश्वमानव की पीड़ा विद्यमान है, जो समाज का हित साधन करना चाहते हैं, जो लोकमंगल के लिए कदम बढ़ाना चाहते हैं; उनको धर्म के विकृत स्वरूप का समाधान करने, धार्मिक भावनाओं और जनशक्ति को ठीक दिशा देने के लिए कदम बढ़ाकर आगे आना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो राष्टï्र और विश्व की प्रगति के लिए एक भारी अभाव बना ही रहेगा। इतनी बड़ी पूँजी, जनशक्ति और भावनाशक्ति का दुरुपयोग होता ही रहेगा। इसको ठीक करना अब राष्टï्र की महती आवश्यकता है।
एक जगह भगवान् बैठें, यह गलत अवधारणा
भगवान् के मंदिर जगह-जगह बनाए जाएँ, यह विचार उस समय उत्पन्न हुआ, जब भगवान् की विचारणा को जनमानस में स्थापित करने, भगवान् की प्रेरणाओं को सर्वत्र प्रकाशित करने की आवश्यकता अनुभव की गई। भगवान् सब जगह विराजमान हैं। पेड़-पत्तों से लेकर फूल-पौधों तक और मनुष्य के हृदय से लेकर के इस आसमान तक, कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ वे विद्यमान न हों। फिर भगवान को एक स्थान पर बिठाने और खाना खिलाने की क्या जरूरत पड़ गई? यह विचारणीय प्रश्र है। भगवान तो बादलों को बरसाते हैं। जरूरत पड़े, तो जहाँ कहीं वर्षा हुआ करे, वहाँ जा बैठें और फुहारों का आनंद ले लें। नहाने की उनको क्या दिक्कत पड़ेगी? नदियाँ उनकी बहती हैं। जब कभी स्नान करना पड़े, घंटों नहा सकते हैं। उनको कोई रोकने वाला है क्या? फिर भगवान् को स्नान कराने की क्या जरूरत थी?
मित्रो,! भगवान् तो एक विचारणा है, भावना है, एक चेतना है। उनको एक जगह बिठाया जाए, ये कैसे मुमकिन हो सकता है? भगवान् की वृत्तियों और प्रवृत्तियों को हम लोग भूल गए हैं। उनको स्मरण दिलाने के लिए ही मंदिर, चेतना केन्द्र बनाए गए हैं, जिसके माध्यम से भगवान् की वृत्तियों को सर्वसाधारण के मनों तक पहुँचाना संभव हो सकेगा। गाँवों में देवालय इसीलिए बनाए गए हैं कि जो लोग भगवान् को भूल गए हैं, वे इस माध्यम से अपने जीवन लक्ष्य को पहचानें। लोग भगवान् का नाम तो जानते हैं कि भगवान् कृष्ण होते हैं, भगवान् राम होते हैं, हनुमान होते हैं। लेकिन सही बात यह है कि भगवान् के स्वरूप, उनके आदेश, उनकी शिक्षाओं और मानव जीवन से उनका संबंध इन सबको सौ फीसदी लोग भूल गए हैं। यदि वे भूले न होते, तो उनने अपने जीवन लक्ष्य को याद रखा होता और यह स्मरण रखा होता कि भगवान् ने इंसान को दुनिया में किसलिए भेजा है? उसके ऊपर क्या जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं? भगवान् ने मनुष्य से क्या उम्मीदें की हैं।
मित्रो! भगवान् तो हृदय में, घट-घट में समाया हुआ है और वह मनुष्य के द्वारा अच्छी वृत्तियों को पूरा किया जाना देखना चाहता है। अगर ये बातें मनुष्य को याद नहीं हैं, उसे केवल किसी मंदिर की मूर्ति की शक्ल भर याद रहती है, तो कैसे कहा जाए कि इस आदमी को भगवान् याद है और वह भगवान् को भूला नहीं है? साथियो! लोग भगवान् को भूलते जा रहे थे और भूल रहे हैं। इसीलिए उनको स्मरण दिलाए रखने के लिए मंदिरों की स्थापना की गई, ताकि जब कभी भी आदमी उधर से निकले, तो प्रणाम करे, दंडवत करे और सुबह-शाम उनका दर्शन करे, ताकि उसे याद आए कि कोई भगवान् नाम की सत्ता भी है और वह मनुष्य के जीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। मनुष्य जीवन के विकास के लिए, जीवन में सुख-शांतिकी स्थापना करने के लिए भगवान् की सहायता और भगवान् के सहयोग की नितांत आवश्यकता है। यह सिद्धांत और आवश्यकता मनुष्य को अनुभव होती रहे, इसलिए हर जगह मंदिर बनाए गए।
लोकशिक्षण जनजागृति हेतु बने थे मंदिर
मित्रों! उससे भी एक और बड़ा सामाजिक कारण यह था कि प्रत्येक गाँव और गली-मोहल्ले के लिए ऐसी आवश्यकता अनुभव की गई कि इन स्थानों पर सत्प्रवृत्तियाँ एवं सद्भावनाएँ फैलाने के लिए, रचनात्मक कार्यों को दिशा देने के लिए ऐसे स्थान होने ही चाहिए, जहाँ अनेकानेक प्रकार की प्रवृत्तियों का संचालन किया जा सके। उदाहरण के लिए कथा के द्वारा लोक-शिक्षण जितनी अच्छी तरह किया जा सकता है, उतना और किसी तरीके से नहीं। इसमें मनोरंजन भी है, इतिहास भी है और आनंद भी है। साथ-ही-साथ इसमें ऊँचे विचार एवं पूर्व शिक्षाएँ भी जुड़ी हुई हैं। इस तरह से कथाएँ कहकर के जनता को उत्साह और मनोरंजन के साथ सन्मार्गगामी बनाया जा सकता है।
प्राचीनकाल में मंदिरों में कथाएँ होती थीं, संगीत का शिक्षण होता था और वह कीर्तन के माध्यमों से लोकगायन और लोक-मंगल की शिक्षाओं के केन्द्र बने रहते थे। मंदिरों के साथ पाठशालाएँ जुड़ी रहती थीं, पुस्तकालय जुड़े रहते थे। मंदिरों में सत्संग की व्यवस्था होती थी। मंदिरों के आस-पास व्यायामशालाओं की भी व्यवस्था थी। कहने का अर्थ यह है कि असंख्य रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक ही केन्द्र उस जमाने में था, जिसको हम कहते हैं—मंदिर। उन दिनों मंदिरों में जो कार्यकत्र्ता काम करते थे, वे बड़े प्रभावी, लोकसेवी होते थे। लोकसेवियों को जीविका की भी आवश्यकता है। लोकसेवी काम करे और खाने का प्रबंध न हो सके, तो काम कैसे चलेगा? इसी तरह यदि खाने का प्रबंध और गुजारे की व्यवस्था किसी को वेतन के रूप में लोग दें, तो लेने वाले का भी असम्मान होता है और देने वाले को अहंकार पैदा होता है।
इसलिए मित्रो! विचार ये किया गया कि उस गाँव में काम करने वाले लोकसेवियों को गुजारा निर्वाह करने की व्यवस्था के लिए भगवान का भोग लगाया जाए। थाली भरकर सवेरे का भोग लगा दिया और थाली भरकर शाम को भोग लगा दिया। एक आदमी के गुजारे का प्रबंध हो गया। दोनों वक्त का भोजन मिल गया। लोगों ने यह समझा कि हमने भगवान् को खाना खिलाया और सेवा करने वाले व्यक्ति ने समझा कि हमारे गुजारे का प्रबंध हो गया। असम्मान भी नहीं हुआ और किसी के ऊपर प्रत्यक्ष रूप से दबाव भी नहीं पड़ा। इस तरीके से मंदिरों में भगवान् के जो खाने-पीने की व्यवस्था थी, वास्तव में वह वहाँ के कार्यकत्र्ता के लिए भोजन की व्यवस्था थी। लोग भगवान् के पास दक्षिणा चढ़ाया करते थे, पैसा चढ़ाया करते थे। वे चढ़ावे की चीजें सिर्फ एक ही काम आती थीं कि उस क्षेत्र में सेवाकार्य करने वाले लोगों के गुजारे तथा मंदिर की देखभाल का प्रबंध इस तरीके से हो जाता था।
लोकसेवियों की आवश्यकता पूर्ति था एक प्रयोजन
साथियो! लोकसेवी तो हर जगह होने ही चाहिए। लोकसेवियों के बिना सत्प्रवृत्ति का विकास कैसे हो सकता है? इसलिए पहले हर गाँव में कितने ही लोकसेवी रहते थे और एक-दूसरे के गाँव में परिभ्रमण करते रहते थे। परिभ्रमण करने वाले ऐसे लोकसेवियों को संत-महात्मा भी कहा जा सकता है, विद्वान भी कहा जा सकता है। वे जब कभी भी आते थे, तो उनके ठहरने के लिए डाक-बंगला चाहिए, धर्मशाला चाहिए। यह कहाँ से आए? इसलिए मंदिरों में इतनी गुंजाइश रखी जाती थी कि कभी दस-पाँच आदमी बाहर से आ जाएँ, तो उनके भी ठहराने और खाने-पीने का प्रबंध कर दिया जाए। इस तरीके से किसी जमाने में सत्प्रवृत्तियों के केन्द्र मंदिर थे। मंदिरों को इसीलिए बनाया गया था। भगवान् की पूजा-अर्चना भी हो जाती थी, साथ ही भगवान् को याद करने के बहाने से आस्तिकता का प्रचार भी होता था।
मित्रो,! ये सब बातें ठीक हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान् को उन सब चीजों की आवश्यकता थी, उनके बिना भगवान् का कोई काम रुका पड़ा था। आरती अगर न उतारी जाए, तो भगवान नाखुश हो जाएँ, या उनका काम हरज हो जाए, ये कैसे हो सकता है? सूर्यनारायण और चंद्रमा भगवान् की हर वक्त आरती उतारते रहते हैं। नवग्रहों से लेकर के तारामंडलों द्वारा हर क्षण उनकी आरती होती रहती है। फिर हमारे छोटे-से दीपक की क्या कीमत हो सकती है? फूल सारे विश्व में उन्हीं के उगाए हुए हैं, चंदन के पेड़ उन्हीं ने उगाए हैं। फूल और चंदन अगर भगवान् को नहीं मिलते, तो भगवान का क्या हरज था? मिठाई या खाना-भोग भगवान् को नहीं मिलता, तो क्या हरज था? राई के बराबर भी कुछ हरज नहीं था। भगवान् को खाने-पीने की और पहनने-ओढऩे की वास्तव में कतई जरूरत नहीं है।
ये सब चीजें भगवान् को मंदिरों के माध्यम से जो भगवान् के निमित्त चढ़ाई जाती हैं, उनके पीछे सिर्फ एक ही उद्देश्य छिपा था कि लोकसेवी को, जो एक तरीके से भगवान् के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की तिलांजलि दी और अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं को ताक पर रख दिया, जिन्होंने केवल लोकमंगल का ही ध्यान रखा, केवल भगवान् के संदेशों का ही ध्यान रखा, भगवान् का प्रतिनिधि न कहें तो क्या कहें? भगवान् के प्रतिनिधियों को जीवनयापन करने के लिए निवास से लेकर भोजन, वस्त्र तक और दूसरी चीजों के खरच की आवश्यकता के लिए मंदिरों को बनाया गया। यह एक मुनासिब क्रम था।
मंदिर वस्तुत: जन-जागरण के केन्द्र थे। इसकी पुनरावृत्ति एक बार फिर बढिय़ा ढंग से की गई। सिक्खों के गुरुद्वारों को आप देखते हैं। किसी जमाने में जब मुसलमानों का दबदबा बहुत ज्यादा था, अत्याचार भी बहुत होते थे, तब सिक्खों के गुरुद्वारे में जहाँ एक ओर भगवान् की भक्ति की बात होती थी, वहीं दूसरी ओर इस बात को भी स्थान दिया गया कि एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में भाला लेकर के सिख धर्म के अनुयायी खड़े हों और समाज में जो अनीति फैली हुई है। उसका मुकाबला करें। मंदिर थे, गुरुद्वारे थे, पर तब उनमें लोकसेवा की, लोकमानस के परिष्कार की कितनी तीव्र प्रक्रिया विद्यमान थी।
मित्रो! समर्थ गुरु रामदास ने भी यही किया था। जब अपना देश बहुत दिनों तक पराधीन हो गया, तो उन्होंने देखा कि जनता को संघबद्ध करने के लिए, जनता को दिशा देने के लिए और जन-सहयोग का केन्द्रीकरण करने के लिए कोई बड़ा काम किया जाना चाहिए। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्टï्र भर में घूम-घूमकर सात सौ महावीर मंदिर बनाए। वे मंदिर केवल हनुमान जी को मिठाई या चूरमा-लड्डïू खिलाने के लिए नहीं बनाए गए थे। हनुमान जी तो पेड़ पर चढ़कर भी अपना फल, लड्डïू-चूरमा खा सकते हैं। उन्हें क्या गरज पड़ी है कि वे किसी का चूरमा और लड्डïू खाएँ? वे तो अपने हाथ-पाँव से मेहनत करके खुद खा सकते हैं और सैकड़ों बंदरों को भी खिला सकते हैं। वे किसी का लड्डïू और चूरमा खाने के लिए भूखे कहाँ थे? लेकिन महावीर स्थान, जो जगह-जगह सारे महाराष्टï्र में समर्थ गुरु रामदास के द्वारा बनाए गए, उसका एक ही उद्देश्य था कि इनमें जो काम करने वाले व्यक्ति हैं, वे जनता से सीधा संपर्क बनाएँ। उन सात सौ महावीर मंदिरों में ऐसे तीखे और भावनाशील पुजारी रखे गए, जिन्होंने गाँव को ही नहीं, पूरे इलाके को जगा दिया। वह सात सौ इलाकों में बँटा हुआ महाराष्टï्र एक तरीके से संगठित होता हुआ चला गया।
समर्थ के मंदिर व्यायामशालाएँ
साथियो! समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के सिर पर हाथ रखा और कहा कि भारतीय स्वाधीनता के लिए, भारतीय धर्म की रक्षा करने के लिए तुम्हें बढ़-चढ़कर काम करना चाहिए। शिवाजी ने कहा कि मेरे पास वैसी साधन-सामग्री कहाँ है? मैं तो छोटे से गाँव का एक अकेला छोकरा, इतने बड़े काम को कैसे कर सकता हूँ। समर्थ गुरु रामदास ने कहा, ''मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था सात सौ गाँवों में महावीर मंदिर के रूप में बनाकर के रखी है। जहाँ जनता में काम करने वाले बड़े प्रकांड, समझदार एवं मनस्वी लोग काम करते हैं। पुजारी पद का अर्थ मरा हुआ आदमी, बीमार, बुड्ढïा, निकम्मा, बेकार आदमी नहीं है। पुजारी का अर्थ-जिसे भगवान् का नुमाइंदा या भगवान् का प्रतिनिधि कहा जा सके। जहाँ ऐसे समर्थ व्यक्ति हों, समझना चाहिए, वहाँ पुजारी की आवश्यकता पूरी हो गई।ÓÓ
मित्रो! किसी आदमी को खाना दिया जाए और वह भी आधा-अधूरा, सड़ा-बुसा हुआ दिया जाए, तो उससे खाने वाले को भी नफरत होगी और उसके स्वास्थ्य की रक्षा भी नहीं होगी। इसी तरीके से भगवान् की सेवा करने के लिए लंगड़ा-लूला, काना-कुबड़ा, मरा, अंधा, बिना पढ़ा, जाहिल-जलील, गंदा आदमी रख दिया जाए, तो वह क्या कोई पुजारी है? पुजारी तो भगवान् जैसा ही होना चाहिए। भगवान् राम के पुजारी कौन थे? हनुमान जी थे। अत: कुछ इस तरह का पुजारी हो, तो कुछ बात भी बने। इसी तरह के पुजारी समर्थ गुरु रामदास ने सारे-के-सारे महाराष्टï्र में रखे थे। इन सात सौ समर्थ पुजारियों ने उस इलाके में जो फिजा, वो परिस्थितियाँ पैदा कीं कि छत्रपति शिवाजी के लिए जब सेना की आवश्यकता पड़ी, तो उन्हीं सात सौ इलाके से बराबर उनकी सेना की आवश्यकता पूरी की जाती रही।
इसी प्रकार जब उनको पैसे की आवश्यकता पड़ी, तो उन छोटे-से देहातों से, जिनमें कि महावीर मंदिर स्थापित किए गए थे, वहाँ से पैसे की आवश्यकता को पूरा किया गया। अनाज भी वहाँ से आया। उसी इलाके में जो लोहार रहते थे, उन्होंने हथियार बनाए। इस तरह जगह-जगह से छिटपुट हथियार बनते रहे। अगर एक जगह पर हथियार बनाने की बड़ी फैक्ट्री होती, तो शायद विरोधियों को पता चल जाता और उन्होंने उस स्थान को रोका होता। वे सावधान हो गए होते। मिलिट्री एक ही जगह रखी गई होती, तो विरोधियों को पता चल जाता और उसे रोकने की कोशिश की गई होती। लेकिन सात सौ गाँवों में पुजारियों के रूप में एक अलग तरह की छावनियाँ पड़ी हुई थीं। हर जगह इन सैनिकों को ट्रेनिंग दी जाती थी। हर जगह इन छावनियों में १०-२० वालंटियर आते थे और वहीं से पैसा धन व अनाज आता था। इस तरीके से मंदिरों के माध्यम से समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी को आगे करके इतना बड़ा काम कर दिखाया।
मूल उद्देश्य हम भूल गए
मित्रो! मंदिर जन-जागरण के केन्द्र बनाए जा सकते हैं। मंदिरों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जा सकता है। क्योंकि उसके पास इमारत होती है। इमारत तो हर सेवा केन्द्र के पास होनी चाहिए, परंतु इसके अलावा वह व्यवस्था भी होनी चाहिए, जिससे कि उस क्षेत्र के कार्यकत्र्ताओं का, निवासियों का, गुजारे का प्रबंध किया जा सके। इस गुजारे का प्रबंध तभी हो सकता है, जब आजीविका के स्रोतों से जनता, इसके लिए त्यागवृत्ति पैदा की जा सके। मनुष्य में यह भावना पैदा की जा सके कि हमने भगवान् को दिया है, तुमको नहीं। इससे आदमी का मन हलका होता है। त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा होती है। वह धन का एक केन्द्र पर इक_ïा होने से समाज के लिए उससे उपयोगी काम किए जा सकते हैं।
प्राचीनकाल में मंदिर इसी उद्देश्य से बनाए गए थे। समाज में सत्प्रवृत्तियों का विकास वास्तव में भगवान् की सेवा का एक बहुत बड़ा काम है। लेकिन आज मैं क्या कहूँ! मंदिरों को देखकर रोना आता है। आज मंदिर पर मंदिर बनते चले जा रहे हैं। करोड़ों रुपया खरच होता है। क्या ऐसा संभव नहीं था कि करोड़ों रुपयों से बनने वाली इमारतों को इस ढंग से बनाया गया होता कि वहाँ लोकसेवा की प्रवृत्तियों के लिए गुंजाइश रहती और भगवान् के निवास की भी, एक छोटी-सी जगह बना दी गई होती। अब तो सारी-की-सारी इमारतें इस काम के लिए बनाई जाती हैं कि उसमें केवल भगवान् ही बैठें। भगवान् को इतनी जगह की क्या जरूरत है? भगवान् को चाहो, तो एक कोने में बिठा दो, तो भी वे मौज करेंगे। भगवान् को इतने बड़े भव्य निर्माण से क्या लेना-देना? उनके लिए तो इतना बड़ा आसमान विद्यमान है।
लोकसेवा की प्रवृत्तियों का केन्द्र हो मंदिर
मित्रो! मंदिरों की इमारतों को अगर इस ढंग से बनाया गया होता कि जिनमें मंदिर के साथ-साथ पाठशाला, प्रौढ़पाठशाला, संगीत विद्यालय, वाचनालय और कथा-कीर्तन का कक्ष भी बना होता; उसके आस-पास व्यायामशाला भी होती और थोड़ी-सी जगह में चिकित्सालय का भी प्रबंध होता; बच्चों के खेलने की भी जगह होती। इस तरीके से लोकमंगल की, लोकसेवा की अनेक प्रवृत्तियों का एक केन्द्र अगर वहाँ बना दिया गया होता और वहीं एक जगह भगवान की भी स्थापना होती, तो जो धन मंदिरों में चढ़ाया जाता है, उसका ठीक तरीके से उपयोग होता। ऐसी स्थिति में मंदिरों के द्वारा कितना बड़ा लाभ होता।
साथियो! आपने गिरजाघरों को देखा है। गिरजाघरों में भगवान् के लिए कोई गुंजाइश नहीं है क्या? वहाँ कहीं-कहीं मरियम की मूर्ति लगी रहती है, तो कहीं-कहीं ईसा की प्रतिमा लगी रहती हैं। एक छोटा-सा प्रार्थनाकक्ष होता है। कहीं इसमें अस्पताल या दवाखाने वाला हिस्सा होता है। कहीं पादरियों के रहने का हिस्सा होता है। कहीं एक छोटा-सा दफ्तर बना होता है। इस तरह भगवान् का एक छोटा-सा केन्द्र बनाने के बाद में बाकी सारी-की-सारी इमारत, सारा स्थान लोकमंगल के लिए होता है। पहले भारतवर्ष में भी ऐसा ही किया जाता था और किया भी जाना चाहिए, लेकिन आज तो मंदिरों की दशा देखकर हँसी आती है और क्रोध भी। आज मंदिरों का सारा-का-सारा धन कुछ चंद लोगों के निहित स्वार्थ के लिए खरच हो जाता है। जो कुछ भी चढ़ाया या दान आया, कुछ निहित स्वार्थ के लिए मठाधीशों और मंदिरों के स्वामी और दूसरे महंतों के पेट में चला गया।
अनाचार एवं अज्ञान के केन्द्र हैं ये
मित्रो! वह अनावश्यक धन, हराम का धन जब उन लोगों के पास आया तो उन्होंने क्या-क्या किया? आप नहीं जानते, मैं जानता हूँ। पंडा-पुजारियों, महंतों और मठाधीशों की हकीकत मुझे मालूम है, आपको नहीं मालूम है। आप तो केवल उनकी बाहर की शकल जानते हैं। मुझे उनके पास रहने का मौका मिला है। मैं जानता हूँ कि समाज में खराब-से-खराब किस्म के तबके अगर हैं, तो उनमें से एक तबका इन लोगों का भी है, जो धर्म का कलेवर या धर्म का दुपट्टïा ओढ़े हुए हैं। धर्म का झंडा गाड़े हुए हैं और धर्म का तिलक लगाए हुए हैं। धर्म की पोशाक और धर्म का बाना पहने हुए बैठे हैं। ये क्या-क्या अनाचार फैलाते हैं और क्या-क्या दुनिया में खुराफातें पैदा करते हैं, इनके निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए आज का धर्मतंत्र है—मंदिर।
तो क्या मंदिर सिर्फ इसी काम के लिए हैं? क्या इन परिस्थितियों को बदला नहीं जाना चाहिए? हाँ, अगर हमको समाज में ढोंग, अनाचार और अज्ञान फैलाना हो, तो मंदिरों का यही रूप बना रहने देना चाहिए। हाँ, अगर हमको समाज में ढोंग, अनाचार और अज्ञान फैलाना हो, तो मंदिरों का यही रूप बना रहने देना चाहिए। अगर हमको यह ख्याल है कि जनता का इतना धन, जनता की इतनी श्रद्धा, जनता का इतना पैसा—इन सब चीजों का ठीक तरीके से उपयोग किया जाए, तो आज के जो मंदिर हैं, उनकी व्यवस्था पर नए ढंग से विचार करना पड़ेगा। जिन लोगों के हाथ में उनका नियंत्रण है, उनको समझना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि लोगों की उपयोगिता के लिए आप इनका इस्तेमाल क्यों नहीं करते? ट्रस्टियों को समझाया जाना चाहिए। अगर उनकी समझ में यह बात आ जाए कि मंदिर में जितना धन लगा हुआ है, इसमें से थोड़े पैसे से भगवान् की पूजा आसानी से की जा सकती है। एक पुजारी ने आधा घंटे सुबह और आधा घंटे शाम को पूजा कर ली। एक घंटे के बाद तेईस घंटे बच जाते हैं। नहीं साहब! तेईस घंटे पुजारी पंखा लिए खड़े रहेंगे। जब भगवान् सो जाएँगे, तो वे वहाँ से हटेंगे और जब भगवान् उठ जाएँगे, तो फिर पंखा डुलाते रहेंगे। यह कोई तरीका है?
जनश्रद्धा का दुरुपयोग न हो
मित्रो! हम अपने ढंग से भगवान् को बेकार आदमी जैसा बनाते हैं। अगर भगवान् सोया करेंगे, तो सूरज, चाँद कैसे उगेगा? हवाएँ कैसे चलेंगी? जीव-जंतु, पेड़-पौधे कैसे पैदा हो जाएँगे? भगवान् सो नहीं सकता, हवा सो नहीं सकती, गरमी सो नहीं सकती। जो इस तरह की विश्वव्यापी चेतनाएँ हैं, उनको सोने से क्या मतलब! इसलिए सोने-जागने वाला जो कृत्य है, वह बच्चों का मनबहलाव जैसा है। मनबहलाव का थोड़ा-सा काम रखा जाए, तो क्या हर्ज है! लेकिन उस कार्य के लिए जो धन, पैसा, श्रम लगा हुआ है, जो व्यक्ति लगे हुए हैं, उन सभी को लोकमंगल के लिए खरच किया जाना चाहिए। मंदिरों के जो कमेटी वाले हैं, महंत हैं, उनको विवेकशील लोगों की एक कमेटी बनाकर समझाया जाना चाहिए। अगर वे समझते नहीं हैं, तो उन्हें मजबूर किया जाना चाहिए कि मंदिर में धन तो आपने लगाया है, पर अब वह जनता का है। मंदिर का ट्रस्ट बनाने का मतलब है कि उसका स्वामित्व जनता के हाथ में चला जाता है। मंदिरों के ये न्यासी प्रबंधक होते हैं, स्वामी नहीं होते। वह संपत्ति जनता की मानी जाती है। जो देवालय बन गया, उसकी स्वामी जनता हो जाती है और उसका हक है कि उन लोगों को मजबूर करे और कहे कि आप इस तरीके से इस धन का अपव्यय नहीं कर सकते। जनता की श्रद्धा का गलत उपयोग नहीं किया जा सकता।
मित्रो! अपने देश में अरबों रुपया मंदिरों के नाम पर लगा हुआ है। मैं इसको अपव्यय ही नहीं, दुरुपयोग कहता हूँ और यह कहता हूँ कि उन पुजारियों को, महंतों को यह कहा जाना चाहिए कि आप अगर अपनी श्रद्धा को कायम रखना चाहते हैं, जनता के मन पर अपनी छाप को कायम रखना चाहते हैं, तो आप लोकसेवी के तरीके से जिएँ और इस मंदिर को लोकसेवा का केन्द्र बनाएँ। न तो आप भगवान के वकील हैं, न एजेंट हैं और न ही नुमांइदे हैं। आप हमारे जैसे पुजारी और एक सामान्य व्यक्ति हैं।
प्रतिशील मंदिरों की आवश्यकता
मित्रो! अब समय आ गया है, जबकि मंदिरों का स्वरूप बदल दिया जाए। नमूने के लिए अब ऐसे मंदिर बनाए जा सकते हैं, जिनमें प्रयोगशाला के तरीके से लोग देख पाएँ कि मंदिरों का सही इस्तेमाल क्या हो सकता है और क्या होना चाहिए? हमने गायत्री तपोभूमि का मंदिर लोगों के सामने एक नमूना पेश करने की खातिर बनाया है। यों तो अपने देश में इतने सारे मंदिर हैं। भगवान् तो एक ही है। उनको ही शंकर कह दीजिए, गणेश कह दीजिए, हनुमान जी कह दीजिए। अनेक भगवान् नहीं हो सकते, हाँ उनके नाम अनेक हो सकते हैं। मंदिर में मूर्ति रख देना ही काफी नहीं है, वरन् मूर्ति के साथ-साथ उन भगवान् से संबंधित वृत्तियों को आगे बढ़ाया जाना और फैलाया जाना भी आवश्यक है। अपने यहाँ यही तो होता है। कितने कार्य होते हैं—विद्यालय वहाँ चलता है, प्रकाशन वहाँ होता है, देश भर के लिए कार्यकत्र्ता वहाँ से भेजे जाते हैं और न जाने क्या-क्या किया जाता है। लेकिन उस मंदिर तक ही हम सीमाबद्ध नहीं हैं। यदि सीमाबद्ध हो जाते, तो उसको प्रगतिशील मंदिर नहीं कहा जा सकता था। अब हमको प्रगतिशील मंदिरों की स्थापना की आवश्यकता है। समाज का नया निर्माण करने के लिए नए-नए रचनात्मक केन्द्र खोले जाने चाहिए।
अध्यात्म-चेतना के विस्तार में नियोजन हो
साथियो! मंदिरों के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये की संपत्ति को ऐसे ही पड़ा रहने दें, यह कैसे हो सकता है! इस संपत्ति को ठीक तरीके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उसके लिए समझदार लोगों को, धार्मिक लोगों को आगे आना चाहिए और इस आवश्यकता को महसूस करना चाहिए कि यदि धर्म को जिंदा रहना है, तो वह ढोंग के रूप में नहीं जिएगा। वह केवल कर्मकांड के रूप में जिंदा नहीं रहेगा। बेशक धर्म के साथ में कर्मकांडरूपी कलेवर जिंदा रहे, लेकिन कर्मकांडों के साथ-साथ उन सत्प्रवृत्तियों को भी जीवित रखा जाना चाहिए, जिनसे लोक-मंगल की और समाज की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। धर्म केवल कर्मकांड नहीं है। धर्म केवल आडंबर नहीं है। धर्म केवल पूजा-पाठ की प्रक्रिया नहीं है, वरन् इस पूजा-पाठ की प्रक्रिया और धार्मिक क्रिया-कृत्यों के पीछे और साथ-साथ में एक महती आवश्यकता जुड़ी हुई है कि हम व्यक्ति के अंतरंग को, उसकी भावनाओं को कैसे ऊँचा उठाएँ। समाज के अंदर फैली हुई धार्मिक वृत्तियों को कैसे बढ़ाएँ। यह सारे-के-सारे क्रियाकलाप जिस माध्यम से और जिस आधार पर पूरे किए जा सकते हैं, उसके लिए कोई केन्द्र या एक स्थान होना ही चाहिए। वह जगह हमारे मंदिर ही हो सकते हैं।
इन मंदिरों में पुजारी के रूप में सिर्फ लोकसेवियों की नियुक्ति हो, जिनके मन में समाज के लिए दरद है और जो समाज को ऊँचा उठाना चाहते हैं। जो मनुष्य के भीतर धर्मवृत्तियाँ पैदा करना चाहते हैं, उसी तरह के पुजारी वहाँ रहें। वे अपने पूजा-पाठ का एक-दो घंटा पूरा करने के बाद, अपने गुजारे की व्यवस्था करने के बाद जो समय उनके पास बच जाता है, उसका इस्तेमाल इस तरह से करें, जिससे कि हमारी सामाजिक और राष्टï्रीय एवं व्यक्तिगत चरित्र की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। मंदिरों में जहाँ दूसरी तरह के खरच होते हैं—कभी बँगले बनते हैं, कभी उत्सव होते हैं, कभी झाँकी बनती है, कभी क्या बनता है और उसी में लाखों रुपये खरच हो जाता है। उन सारे-के-सारे क्रियाकलापों में आंशिक किफायत की जा सकती है और इससे जो पैसा बचता है, उसको लोकमंगल की अनेक प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है और करना भी चाहिए। इस तरीके से धन की आवश्यकता, इमारतों की आवश्यकता, जनसहयोग की आवश्यकता मंदिरों के आधार पर ठीक तरीके से पूरी की जा सकती है।
यह सोच भी बदलें
मित्रो! जो व्यक्ति ऐसा ख्याल करते हैं कि भगवान् निराकार हैं, उसकी मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं है, उन लोगों से भी मेरी यह प्रार्थना है कि वे उस शक्तिशाली माध्यम की उपेक्षा नहीं करें। ये मंदिर हिंदू धर्म की श्रद्धा के केन्द्र हैं। उनको अब दिशा दी जानी चाहिए, नया मोड़ दिया जाना चाहिए। अब उनका विरोध करने की जरूरत नहीं रही। अब उनका खंडन करने की जरूरत नहीं रही। किसी जमाने में ऐसा रहा होगा कि लोगों के मनों में मूर्तिपूजा की बात, जो गहराई तक जम गई थी, उसको कमजोर करने के लिए संभव है, किसी ने मंदिर का विरोध किया हो और यह कहा हो कि इसमें मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं है। उस आधार पर धन खरच करने की जरूरत नहीं है। हो सकता है, किसी जमाने में धर्मसुधारकों ने अपनी बात समय के अनुरूप कही हो, लेकिन मैं अब यह कहता हूँ कि हिंदुस्तान में गाँव-गाँव में छोटे-बड़े मंदिर बने हुए हैं। उनको आप उखाडि़एगा क्या? भगवान् राम और भगवान् श्रीकृष्ण, जिनको हमारी असंख्य जनता श्रद्धापूर्वक प्रणाम करती है, क्या उनका आप विरोध करेंगे? निंदा करेंगे क्या? नहीं, अब यह गलती नहीं करनी चाहिए।
साथियो! ठीक है, जैसा भी अब तक चला आ रहा है, उसे अब हमें सुधार की दिशा में मोड़ देना चाहिए। यह एक बहुत बड़ा काम है। विरोध करके नई चीज को खड़ा करना कितना मुश्किल है। एक चीज को गिराया जाए और फिर एक नई इमारत बनाई जाए, इसकी अपेक्षा यह क्या बुरा है कि जो बनी-बनाई इमारत है, उसको हम ठीक तरीके से इस्तेमाल करना सीख लें और उसी को काम में लाएँ। मंदिरों को अगर ठीक तरीके से काम में लाया जा सकता हो और उनमें लगी पूँजी को ठीक तरीके से इस्तेमाल किया जाता रहा हो और इन दोनों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जाता रहा हो। उनमें ऐसे पुजारियों की, कार्यकत्र्ताओं की नियुक्ति की जा सकती हो, जो अपना एक-दो घंटे का समय पूजा-पाठ में लगाने के बाद बचा हुआ सारा समय समाज को ऊँचा उठाने में लगाएँ, तो मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि सरकार और दूसरी संस्थाओं के द्वारा जो लंबे-लंबे प्लान, योजनाएँ बनती हैं, धन लगाती हैं, कार्यकत्र्ता नियुक्त करती हैं, फिर भी सारी योजनाएँ असफल हो जाती हैं, उसकी तुलना में यह योजना इतनी बड़ी, इतनी महत्त्वपूर्ण, इतनी मार्मिक और सार्थक है कि हम राष्टï्र को पुन: उसके शिखर पर पहुँचा सकते हैं।
राष्टï्र का कायाकल्प कर सकते हैं ये देवालय
इसके लिए हमें केवल मंदिरों की दिशाएँ मोडऩे की जरूरत है। लोगों को समझाने की जरूरत है, प्रचार करने की जरूरत है, धमकाने की जरूरत है। अगर ये काबू में न आते हों, तो घिराव करने से लेकर बहिष्कार करने तक की जरूरत है और यह समझाने की जरूरत है कि इस धन का और इमारतों का हम अपव्यय नहीं होने देंगे। मंदिरों को हम अंधश्रद्धा का केन्द्र नहीं बनने देंगे। हम धर्मभीरुता का पोषण करने वाले केन्द्र के रूप में नहीं, वरन् इन्हें धर्म की स्थापना का केन्द्र बनाएँगे। यदि इन मंदिरों को धर्म की स्थापना का केन्द्र बनाया जा सका, तो राष्टï्र की महती आवश्यकता पूरी की जा सकती है। तब नया युग लाने में, नया समाज बनाने में समाज की विकृतियों को दूर करने में और एक समर्थ राष्टï्र—समर्थ समाज बनाने के लिए इतने बड़े साधन हमारे हाथ सहज ही लग सकते हैं। इन बने-बनाए साधनों को विवेकशीलों को अपने अधिकार में, कब्जे में लेना ही चाहिए और उनको वह दिशा देनी चाहिए, जिससे कि भगवान् वास्तव में प्रसन्न हों।
भगवान् की जो सद्वृत्तियाँ इस विश्व में फैली हुई हैं, जिनसे कि शांति आती है और धार्मिक-भावना की वृद्धि होती है और समाज समृद्ध होता है, उन भावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए मंदिरों को केन्द्र बनाया ही जाना चाहिए। ताकि वास्तविक भगवान् अपनी वास्तविक पूजा को देखकर प्रसन्न हो जाए और भक्ति करने, पूजा-पाठ करने का उद्देश्य लोगों को प्राप्त हो सके और लोग उसका समुचित फायदा उठा सकें। यह करने की बहुत अधिक आवश्यकता है और हमको करना चाहिए। मंदिरों को जन-जागरण का केन्द्र बनाया जाना चाहिए, उनका कायाकल्प किया जाना चाहिए। इतना करना यदि संभव हो गया, तो समझना चाहिए कि हमने लोक-मंगल के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी मंजिल पूरी कर ली और बहुत बड़े साधनों को हमने अपने आप में इक_ïा कर लिया। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति
अध्यात्म के सही मर्म को समझें
(१९७१ के जून माह में विदाई की पूर्व वेला में
गायत्री तपोभूमि, मथुरा में दिया गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो!
अध्यात्मवादी जीवन
सुविधाओं से भरा जीवन कमजोर आदमी जीते रहते हैं। उन्हें समाज, देश की चिन्ता नहीं होती। मनुष्यों की अकल एवं विचार करने की दिशा ठीक की जा सकी, तो कल्याण हो सकता है, ऐसा हमने आपको बतलाया था। हमने आपसे कहा था कि समाज की सेवा करने का, लोकमंगल का कार्य करने का एक ही माध्यम है कि अध्यात्मवादी जीवन जिया जाए। आज चोरी, अपराध को कैसे रोका जा सकता है? आज हर आदमी का ईमान खराब हो गया है। हर आदमी के पीछे अगर एक-एक सिपाही भी लगा दिया जाए, तो भी उसे रोका नहीं जा सकता है। वास्तव में कानून बनाकर तथा पुलिस की संख्या बढ़ाकर अपराध को क्या घटाया जा सकता हैï? मित्रो, यह कदापि कम नहीं किया जा सकता है, चाहे हम कितनी भी पुलिस या मिलिट्री लगा लें। वकील, पुलिस वाले बढ़ते चले जाएँगे तथा अपराधों की संख्या भी निरन्तर बढ़ती चली जाएगी।
मित्रो! इसमें जब भी बदलाव आयेगा, चाहे वह एक हजार वर्ष के बाद ही आये, वह तभी सम्भव होगा, जब मनुष्यों को बतलाया जाएगा कि अपने कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को फल मिलता है। सर्वव्यापी एक भगवान् है, जो हर मनुष्य के कर्मों को देखता है तथा न्याय करता है। यह अध्यात्म था, जो हमने आपको इस शिविर में बतलाया था कि व्यक्ति निर्माण के साथ समाज का भी निर्माण करना चाहिए तथा उसके विकास के लिए भी प्रयास करना चाहिए, तभी मनुष्य के जीवन में सुख-शान्ति आ सकती है।
व्यक्तित्त्व परिष्कार के चमत्कार
अध्यात्म का नाम चमत्कार नहीं है। चमत्कार तो बाजीगरी है, चालाकी है। इस खेल-तमाशे का नाम अध्यात्म नहीं है। छोटे बच्चों को बहकाने का नाम अध्यात्म नहीं है। आप चमत्कार के बारे में सोचना बंद कर दीजिए तथा सही रूप से अध्यात्म को समझने का प्रयास कीजिए। अध्यात्म का मतलब है-हमारे गुण, कर्म, स्वभाव में बदलाव। ऐसा अगर आप कर सकते हैं, तो अपने आप में आप चमत्कारी व्यक्ति बन सकते हैं। हम तो यहाँ तक कह सकते हैं कि आप पूजापाठ बन्द कर दीजिए, परन्तु अपने व्यक्तित्व का परिष्कार कर लीजिए। आप देखेंगे कि जिस चमत्कार के पीछे आप भाग रहे हैं, वह आपके पीछे आता हुआ दिखायी पड़ेगा।
मित्रो! गाँधीजी ने नित्य आधा घण्टा पूजा, जप किया था, परन्तु वे जीवन में चमत्कार दिखलाते चले गये। उनके आशीर्वाद से लोग बादशाहों के बादशाह बन गये। हमारे आशीर्वाद से भी वैसा ही हुआ है। गाँधीजी के आशीर्वाद से दो-दो कौड़ी के लोग नेता बन गये। पं० जवाहरलाल और सरदार पटेल धन्य बन गये। गाँधीजी ने अँग्रेजों से कहा कि 'क्विट इण्डियाÓ। वे अपना बिस्तर लेकर चले गये। उनकी बंदूके रखी रह गयीं। गाँधीजी कौन थे? आधा घण्टा भजन-पूजन करने वाले व्यक्ति। उन्हें समाधि आती थी? बिलकुल समाधि नहीं जानते थे। ध्यान, प्राणायाम भी नहीं किया उन्होंने। एक भी चक्रवेधन नहीं किया था, न ही अपनी कुण्डलिनी जगायी थी, परन्तु उनके जीवन में चमत्कार होते चले गये थे। यह था उनके जीवन में व्यक्तित्व का परिष्कार, जो उन्होंने किया था। अपने गुण-कर्म-स्वभाव के परिष्कार और आधा घण्टे नित्य के भजन से वे मालामाल हो गये। इस पूरे शिविर में हमने विभिन्न माध्यमों से आपको यह बतलाने का प्रयास किया कि अध्यात्म क्या है तथा उसको आपके अन्दर उतारने का प्रयास किया। काश! आप अगर सही अध्यात्म को समझकर अध्यात्मवादी हो जाएँ, तो मजा आ जाएगा।
अगला समय शानदार
मित्रो! अगला समय बहुत शानदार आने वाला है, दुनिया में से अनीति मिटने जा रही है, कुरीतियाँ मिटने जा रही हैं। डिप्लोमेटिक मेण्टेलिटी मिटने जा रही है। आप विश्वास करें या न करें, परन्तु हमें अपनी आँखों से दिखायी पड़ रहा है कि एक नयी हवा आ रही है। नयी दुनिया बनती आ रही है। नये विश्व का निर्माण होने जा रहा है। बहुत शानदार समय आ रहा है। उस नये युग में आध्यात्मिकता की नयी परिभाषा होगी तथा पुरानी परिभाषा मिट जाएगी! यह संतोषी माता की हवा उड़ती जा रही है तथा पता नहीं कहाँ जा रही है। मित्रो! अब वह संतोषी माता आ रही है, जिसमें मनुष्य को संतोष करना सिखाया जाएगा। भौतिक चीजों में जिसको संतोष आ जाए, तो मजा आ जाएगा। ऐसा व्यक्ति अपनी प्रतिभा और धन को लोकमंगल में खर्च कर देगा तथा वह अध्यात्मवादी बन जाएगा। छाया की तरह से सुख उस अध्यात्मवादी के पीछे भागते फिरेंगे। वह अपने लिए नहीं खर्च करेगा। ऐसे ही व्यक्ति का जीवन धन्य होता चला जाता है। उसकी प्रगति होती चली जाती है।
अध्यात्मवादी भीख माँगने वालों का नाम नहीं है। वह देने वालों का नाम है। वह भगवान् का अनुग्रह व एहसान माँगने वाला व्यक्ति नहीं है, बल्कि परमात्मा उसके पीछे-पीछे चलने लगता है तथा उसका जीवन धन्य कर देता है। परमात्मा उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करने को तैयार है। अपने अन्दर महत्त्वपूर्ण तथ्य जो छिपे पड़े हैं, उन्हें जाग्रत करने का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म आत्मशक्ति विकसित करने का नाम है। इनको मैं आपको इस शिविर में बतलाता रहा हूँ। आप से निवेदन करता रहा हूँ कि आप हमारी बातों को इस कान से सुनकर उस कान से मत निकाल दीजिए। हम बैखरी वाणी का भी उपयोग करते रहे हैं। भगवान् यानि कि ब्रह्मïाजी भी चार मुख से बोलते रहे हैं। इनसान भी चार मुख से बोलते हैं। ये है 'वैखरी वाणी,Ó जिसे मैं एक घण्टे से बोल रहा हूँ। यह मनुष्यों के कानों में जाती है तथा मस्तिष्क से टकराती है। इस वाणी से हमने आपको अध्यात्म के सिद्धान्त को बतलाया तथा समझाया।
चार प्रकार की वाणी
दूसरी 'मध्यमा वाणीÓ है। यह भाव को उभारने का काम करती है। यह अन्त:करण को प्रभावित करती है। इसके प्रभाव से शेर एवं गाय एक घाट पर पानी पीते हैं। तीसरी है-'परावाणीÓ। विचारों की वाणी को परावाणी कहते हैं। चौथी है-'पश्यन्ती वाणी।Ó पश्यन्ती वाणी आत्मा की वाणी होती है। यह आत्मा में घुस जाती है। नारद ने वाल्मीकि के हृदय में एक बात कही थी और वह प्रभावित हो गये। बुद्ध ने अपने हजारों शिष्यों को इसी प्रकार प्रभावित किया था। आप भी जब सोते रहते हैं, तो हम आपके पास जाते हैं। किसी के पैर के पास बैठ जाता हूँ, तो किसी के सिर के पास बैठकर उसका सिर सहलाता रहता हूँ। आपको पता चलता है कि नहीं, यह मैं नहीं पूछ सकता हूँ। आपकी श्रद्धा जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, आप अनुभव करते चले जाएँगे। हमारे गुरुदेव जब हमारे कमरे में आए और पश्यन्ती वाणी से क्या कहा, यह तो हमें पता नहीं, परन्तु वे हमें धन्य कर गये। अनुदान क्या-क्या दिए, यह तो मैं नहीं कह सकता, परन्तु इस दुनिया से जाने के बाद हमारे जीवन का लिफाफा, जो बन्द है, वह जब खोला जाएगा, तो पता चलेगा कि हम कौन थे तथा हमने इस दुनिया के लिए, संसार के लिए, संस्कृति के लिए क्या-क्या किया? हमें विश्वास है कि आप यहाँ से जाएँगे तथा हमारा प्रसाद लेकर जाएँगे, तो वह आपके अपने जीवन में काम आएगा तथा आप धन्य होते हुए चले जाएँगे।
कैसा हो व्यवहार?
आप अध्यात्म के सिद्धान्त को अपनाएँ या न अपनाएँ, परन्तु इस दुनिया में जो लोग रहते हैं, उनके साथ मीठा व्यवहार करना, उनके साथ प्रेम का व्यवहार करना, जिनको अपना दुश्मन बना लिया है, उनको भी मित्र, दोस्त बना लेना। इमर्सन कहते रहते थे कि हमें नरक में भेज दो, हम वहाँ भी स्वर्ग बना लेंगे। व्यक्ति दुश्मन हमारे व्यवहार के कारण बन जाता है। आप अपने व्यवहार को ठीक करने का प्रयास करना, तो धरती को स्वर्ग बनाया जा सकता है। अगर आपने अपनी भावना को परिष्कृत कर लिया, तो मजा आ जाएगा। अगर आपकी वाणी में मिठास आ जाती है, तो आपके लिए हर आदमी मित्र बन जाएगा।
एक बात हमने आपको और कही है कि आपको मेहनत करनी है, मशक्कत करनी है। धरती में जिस तरह लोहा, ताँबा-सोना भरा पड़ा है, ऐसे ही हमारे भीतर भी बहुत-सी चीजें भरी पड़ी हैं। जमीन में हल जोते बिना, बीज बोये बिना फसल कैसे प्राप्त हो सकती है? बिना मेहनत के कोई चीज कैसे पायी जा सकती है? मेहनत-मशक्कत करने के बाद ही सारी चीजों को प्राप्त किया जा सकता है। आपको अपने प्रति कठोर तथा दूसरों के लिए मुलायम बनना होगा। यह सिद्धान्त संयम का सिद्धान्त है।
आवश्यकता है ऊँचे विचारों की
चौथी बात हमने आपसे कही थी कि यह जलता हुआ जमाना है। हर व्यक्ति जल रहा है। आपको इस जलते हुए समाज के ऊपर पानी डालने की आवश्यकता है। यह है ऊँचे विचार की आवश्यकता। मित्रो! हम यह पूछते हैं कि बकरा खाने के बाद कोई बकरे की औलाद कहलाएगा या नहीं? यह तो हमें बतलाना। हम पूछते हैं कि उसमें जो अवगुण हैं, वह खाने वाले में आएँगे कि नहीं? आज सामाजिक मान्यता के बारे में, खान-पान के बारे में, पड़ोसी के बारे में हर व्यक्ति की उलटी अकल हो गयी है। इससे आपका क्या बनने वाला है-आपको यह ठीक करना होगा। समाज के लोगों के विचारों को ठीक करना होगा, उनकी भावनाओं में परिवर्तन लाना होगा।
मित्रो, इतना ही नहीं पैसा खर्च करने में, जीवन को महान बनाने के बारे में भी लोगों की उलटी अकल है। यदि सारे-के-सारे लोग इस तरह से होंगे, तो काम कैसे चलेगा? इन उलटी अकल वाले लोगों का नवनिर्माण करना होगा। उन्हें दिशा देनी होगी। उनके विचार ठीक करने होंगे। इस उलटे जमाने को सीधा करने के लिए, आपको जो हमारा अनुदान मिल रहा है, इस कार्य हेतु आप हमें सहयोग करिए। हमारे कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने का प्रयास करेंगे, तो हमारा यह शिविर धन्य हो जाएगा। हम धन्य हो जाएँगे और आपका जीवन धन्य हो जाएगा। आने वाली पीढिय़ाँ आपको सदा याद रखेंगी।
हमारे कदम से कदम मिलाकर चलें
मित्रो! हम लम्बे कदम बढ़ाते हुए लम्बी मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे हैं। आप भी अपना कदम उस ओर अवश्य बढ़ाना तथा हमारा सहयोग करना। गाँव में यह नियम होता है कि जब कोई मर जाता है या कोई भी काम होता है, तो जो व्यक्ति वहाँ जाता है, वह उसके साथ पाँच कदम चलता है तथा पाँच कदम के बाद ही वह वापस होता है। मित्रो! कम से कम आप लोग भी हमारे साथ पाँच कदम तो चलने का प्रयास करना। जमाना बदल रहा है हमारे साथ, जमाना उठ रहा है हमारे साथ, इसी तरह आप भी हमारे साथ चलना। कहीं ऐसा न हो कि आप चल तो रहे हैं इधर, पर देख रहे हैं उधर! ऐसा कभी मत करना। हमारे कदम से कदम मिलाकर चलना। ताल से ताल मिलाकर चलना, चाहे पाँच ही कदम क्यों न चलना, भले ही एक घण्टा हमारे साथ चलना।
हमने एक बात और कही थी आपसे कि आप अपनी कमाई का दस पैसा ही खर्च करना-एक नये समाज के नवनिर्माण के लिए, परन्तु उसमें सक्रियता लाना तथा उसे निभाना। आज पच्चीस पैसे की चाय आती है। हमने समाज, संस्कृति और देश के लिए आपसे केवल आधा प्याला चाय की माँग की है। वह तो आप अवश्य देना, अगर समाज के लिए इतना कर सकें, तो हम समझेंगे कि आपने हमारे साथ एक कदम चलने का साहस किया, प्रयास किया।
बिछोह के आँसू
मित्रो! जब आप सोये रहते हैं, तो हम आपके पास बैठकर आपके कानों में चार बातें कहते हैं, उसका शिक्षण दिया करते हैं, ताकि आप आध्यात्मिकता के रास्ते पर आगे बढ़ सकें। आज आपको घर के लिए विदा कर रहे हैं। आप अपने घर चले जाएँगे तथा हम भी यहाँ घर में बैठे रहेंगे। हमें और आपको एक-दूसरे की याद अपने-अपने घरों में आती रहेगी। दो बैलों की जोड़ी होती है, अगर एक बैल बीमार हो जाता है या कहीं चला जाता है, तो दूसरा बैल काम नहीं करता है। वह सारा दिन कोहराम मचाता रहता है, न चारा खाता है, न पानी पीता है, उसकी आँखों में बिछोह के आँसू होते हैं। मित्रो, हम बैलों से ज्यादा हैं, कम नहीं, यह ध्यान रखना।
मित्रो, हम आपके सगे-सम्बन्धी हैं। सगे-सम्बन्धी वे नहीं हैं, जो एक खून से पैदा होते हैं, वरन वे होते हैं, जो एक रास्ते पर चलते हैं, जिनके विचार एक होते हैं, जिनके गुण मिलते हैं। आप हम सब एक गुण वाले लोग हैं, एक भावना वाले लोग हैं, एक दिशा वाले लोग हैं, मोहब्बत वाले लोग हैं। हमारे आपके बीच एक ऐसा प्यार, ऐसी मोहब्बत है, जो कभी भी खत्म होने वाली नहीं है। आप जब जा रहे हैं, तो हमारा दिल टूट रहा है। हम आपके जन्मदाता माता-पिता से भी ज्यादा मोहब्बत करते हैं, ऐसा तो हम दावा नहीं कर सकते, परन्तु आपके किसी भी मित्र से कम मोहब्बत नहीं करते। दोस्त के पास दोस्त आता है, तो उसको खुशी होती है, परन्तु जब वह विदा होता है, तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। यह हमारी एवं आपकी कमजोरी है। आप जब विदा होते हैं, तो मेरा भी दिल दुखी हो जाता है। विदाई के क्षणों में बड़े-बड़े संतों की भी यही हालत हो जाती है। कबीरदास जब मरने लगे तो उन्होंने एक मर्मभरी बात कही थी-
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख-प्रेमी संग में, सो बैकुण्ठ न होय।
वास्तव में प्रेम ही इस संसार की सर्वोपरि उपलब्धि है।
हम आपको बिछुडऩे न देंगे
मित्रो! जो व्यक्ति अपना होता है या जिसे जो अपना मानता है, उसकी विदाई बहुत ही कष्टïकारक होती है। इसे मनुष्य की कमजोरी कहें या प्रकृति का विधान कहें। इसमें आप भी हैं तथा हम भी हैं। हमारा दिल टूट रहा है-ऐसा हम महसूस कर रहे हैं, परन्तु क्या हम आपको छोड़ देंगे? यह कभी नहीं हो सकता। भूत जो होता है, वह जिसे चाहता है, उसके पीछे लगा रहता है। हम भी आपके पीछे-पीछे लगे रहेंगे। आपको छोड़ नहीं सकते। आप भी अनुभव करते रहेंगे कि आचार्य जी के भाषण बन्द हो गये, परन्तु उनकी प्रतिध्वनि आपके कानों में हमेशा गूँजती रहेगी। हम नारियल की तरह ऊपर से कठोर हैं, परन्तु भीतर से मुलायम हैं, जिसमें दूध भरा हुआ है। भगवान् ने न जाने क्यों हमें मनुष्य बना दिया और हमारे मूँछ लगा दी, अगर मूँछ निकाल दी जाएँ, तो हमारा हृदय माता की तरह है। माता का हृदय कितना कोमल होता है, यह आप सभी जानते हैं। हमारा हृदय भी कोमल है। आप चले जाएँगे, परन्तु हम आपको बिछुडऩे नहीं देंगे। हम आपको छोड़ नहीं सकते। हम आपको सुखी, सम्पन्न बनाना चाहते हैं, महान बनाना चाहते हैं। महान बनाते-बनाते वहाँ तक पहुँचाना चाहते हैं, जहाँ हमारे गुरु ने हमें पहुँचाया है।
नि:स्वार्थ प्रेम ही एक मात्र निधि
मथुरा के विदाई समारोह के साथ ही हमारे प्रेम की प्रौढ़ता का शुभारम्भ हो रहा है। आज से हमारी मित्रता की शुरुआत है। यह जिन्दगी भर इसी प्रकार बनी रहेगी। हमारे ऊपर आप जैसे हजारों लोगों का स्नेह है। आपका प्यार जो हमें मिलता है, उसी में हम डूबे रहते हैं। हम चाहते हैं कि इस स्नेह के आदान-प्रदान का यह क्रम हमेशा बना रहे। हम बहुत सुखी हैं-आप लोगों का स्नेह पाकर। कभी-कभी हम यह सोचते हैं कि आप के इस प्रेम का हम किस तरह से बदला चुकाएँगे। आप अपने घर से आये थे-चिलचिलाती धूप में। ठहरने की अच्छी व्यवस्था यहाँ कहाँ थी? पानी की व्यवस्था यहाँ कहाँ थी? भोजन की व्यवस्था भी हम ढंग से नहीं कर सके, परन्तु एक चीज हमारे पास है और वही हमने आपको देने का प्रयास किया है, वह चीज है 'निस्वार्थ प्रेमÓ—यही निधि हमारे पास है, जो हम आपको देते रहे हैं और हमेशा देते रहेंगे। हमारे प्रेम में आप यह कभी भी नहीं पाएँगे कि यह व्यक्ति किसी स्वार्थ के लिए आपसे प्रेम करता है। यह आदमी पैसा लेना चाहता है या और न जाने क्या चाहता है? मित्रो! हमें अपने प्यार पर विश्वास है, यही नहीं हम एवं आप पर विश्वास है, यही नहीं हम एवं आप न जाने कितने जन्मों से साथ-साथ चलते आ रहे हैं। हम और आप जब तक नये जमाने को नहीं ला देते, तब तक बिछुडऩे वाले नहीं हैं। अभी हमें सीता रूपी भारतीय संस्कृति को वापस लाना है,रावण को समाप्त करना है, समुद्र में पुल बाँधना है। आप लोग उस समय तक हमारे साथ रहेंगे। अभी हम आपको नहीं छोड़ेंगे तथा आप भी हमें नहीं छोड़ सकेंगे। आप जाएँ, सुखी रहें, समुन्नत बनें तथा प्रगति करें।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दु:खमाप्रुयात्।
ॐ शान्ति:
त्याग-बलिदान की संस्कृति-देवसंस्कृति
(जून १९७३ में शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
सभ्यता बनाम संस्कृति
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! दैवीय सभ्यता पर जब कभी मुसीबतें आई हैं, लोगों ने जीवन में कठिनाइयाँ उठाकर भी उसकी रक्षा की है। उच्च आदर्शों के लिए त्याग की, बलिदान की संस्कृति रही है—यह देवसंस्कृति। उन दिनों जब लंका की आसुरी सभ्यता का आतंक सब ओर छाया हुआ था, सब जगह त्राहि-त्राहि मची हुई थी। मालूम पड़ता था कि अब न जाने क्या होने वाला है और न जाने क्या होकर रहेगा? अनीति जब बढ़ती है, अवांछनीयताएँ जब बढ़ती हैं, दुष्टïताएँ जब बढ़ती हैं, स्वार्थपरताएँ जब बढ़ती हैं, तो मित्रो! सारे विश्व का सत्यानाश हो जाता है। आदमी स्वार्थी होकर के यह सोचता है कि हम अपने लिए फायदा करते हैं, लेकिन वास्तव में वह अपने लिए भी सर्वनाश करता है और सारे समाज का भी सर्वनाश करता है। ये है-आसुरी सभ्यता। इसमें पहले आदमी स्वार्थी हो जाता है और स्वार्थांध होने के बाद में दुष्टï हो जाता है, पिशाच हो जाता है। स्वार्थी जब तक सीमित रहता है, तो वहाँ तक ठीक है, वहाँ तक फायदे में रहता है। लेकिन जहाँ एक कदम आगे बढ़ाया, फिर आदमी नीति छोड़ देता है, मर्यादा छोड़ देता है, सब शालीनताएँ छोड़ देता है और सत्यानाश पर उतारू हो जाता है। यह है आसुरी सभ्यता का क्रम।
लंका की आसुरी सभ्यता उस जमाने में सब जगह आतंक फैला रही थी और सारा विश्व, सारे देश त्राहि-त्राहि कर रहे थे कि अब क्या होने वाला है? हर आदमी अनीति के मार्ग पर चलने का शिक्षण प्राप्त कर रहा था और अनाचार के लिए कदम बढ़ाता हुआ चला जा रहा था-रावण के राज्य में। रावण की इस सभ्यता और संस्कृति में देवसंस्कृति के पक्षधरों को यह विचार करना पड़ा कि इसका प्रतिरोध कैसे किया जाएगा? इसकी रोकथाम कैसे की जाएगी? संतुलन कैसे बिठाया जाएगा? भगवान् ने भी यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि हम धर्म की स्थापना के लिए और अधर्म के विनाश के लिए वचनबद्ध हैं। इसके लिए वे विचार करने लगें कि क्या करना चाहिए? अंत में फैसला हुआ कि अयोध्या से लंका की तुलना में एक ऐसा मोरचा खड़ा करना चाहिए, जो अनीति से लोहा ले सके।
लंका विजय
मित्रो! अयोध्या में लंका के विरुद्ध मोरचा खड़ा किया गया। एक तो मोटी-सी बात यह थी कि रावण बड़ा खराब आदमी था। एक बंदूक लेकर जाइए और उसे मार डालिए, खत्म कर दीजिए। यह क्या है? यह बहुत छोटा-सा तरीका है। इससे कोई संस्कृति नष्टï नहीं हो सकती, परंपराएँ नष्टï नहीं हो सकतीं। व्यक्ति मरते हैं और फिर नए व्यक्ति पैदा हो जाते हैं। रावण के बारे में तो कहावत भी थी कि रामचंद्र जी जब उसके तीर मारते थे, तो नया रावण बनकर खड़ा हो जाता था। बेटे! संस्कृतियाँ मारने से नहीं मरती हैं। वे दूसरे तरीकों से मरती हैं। आसुरी संस्कृति को हम किसी एक व्यक्ति को मारकर नहीं मार सकते।
रावण को मारना तो था जरूर। विचार किया गया। भगवान् ने विचार किया, देवताओं ने विचार किया कि मारने से काम नहीं चलेगा। लंका को नष्टï कर देंगे, रावण को मार देंगे, अमुक को मार देंगे, पर इससे काम नहीं बनेगा, क्योंकि परशुराम जी बहुत दिनों पहले ऐसा एक प्रयोग कर चुके थे। ऐसे लोगों को उन्होंने एक बार मारा, दो बार मारा, तीन बार मारा, पर मारने से काम नहीं चला। दैत्यों को इक्कीस बार मारकर ये यह कोशिश करने लगे कि पृथ्वी से असुरों को हम मिटा देंगे, तो काम चल जाएगा, परंतु काम चला नहीं। आखिर में परशुराम जी ने कुल्हाड़ा नदी में फेंक दिया और उसके स्थान पर फावड़ा उठा लिया। फावड़ा उठाया और नए-नए उद्यान लगाने लगे, बगीचे लगाने लगे। उनकी हार और पराजय ने स्वीकार किया कि कुल्हाड़ी के द्वारा हम यह कार्य नहीं कर सकते कि राक्षसों और असुरों को मारकर दुनिया खाली कर दें। इसके लिए एक और काम करना पड़ेगा, हमको हरियाली लगानी पड़ेगी। यही फैसला अयोध्या के संबंध में हुआ।
देवसंस्कृति का उदय
अयोध्या में देवसंस्कृति का उदय आरंभ हो गया। आसुरी संस्कृति से मुकाबला करने वाली देवसंस्कृति। देवसंस्कृति का उदय कैसे हुआ? वास्तव में अयोध्या में लंका के विरुद्ध मोरचाबंदी शुरू हो गई थी। कैसे हुई थी? बेटे! वे परंपराएँ आरंभ की गईं, जिनको देख करके दूसरों की हिम्मत बढ़ती है, हौसले बढ़ते हैं। हौसले बढ़ाने के लिए बेटे, व्याख्यान एक तरीका तो है और हम काम में भी लाते हैं, लेकिन वह प्रारंभिक तरीका है। उपदेश करना और शिक्षण करना ये भी ठीक है। प्रारंभिक जानकारी के लिए यह भी अच्छा है, लेकिन उपदेश करने से, व्याख्यान देने से प्रेरणाएँ नहीं मिलतीं, दिशाएँ नहीं मिलतीं, आवेश नहीं आते, उत्साह नहीं बढ़ते, जीवन नहीं आते, जोश नहीं आते। तो सत्संग से गुरुजी? नहीं, बेटे! सत्संग से भी नहीं, और कलम से? कलम से तो आप बहुत अच्छा लिखते हैं। बेटे, हम अभी और अच्छा लिखेंगे, पर अगर आपका ये ख्याल है कि कलम से लिख करके आप अपना काम चला सकते हैं, तो अगर ऐसी बात रही होती, तो अब तक संपन्न लोगों ने ये काम, जो दुनिया चाहती है, बना सकते थे। अखबार प्रतिदिन लाखों की संख्या में छपते हैं। जापान, शिकागो में एक-एक अखबार करीब-करीब पचास लाख रोज छपता है। अपने हिन्दुस्तान में सबको मिलाकर पचास लाख तादाद होगी। एक ही अखबार जब इतना छपता है; तो इतने आदमियों तक विचार एक ही दिन में पहुँच जाते होंगे? हाँ, बेटे पचास लाख आदमियों तक अखबार के विचार एक ही दिन में पहुँच जाते हैं, लेकिन अगर कलम की दृष्टिï से और छापेखाने की दृष्टिï से लोगों का विचार-परिवर्तन संभव रहा होता, तो वह हमने कब का कर लिया होता।
और गुरुजी! वाणी के द्वारा? वाणी के द्वारा संभव रहा होता, तो बेटे रेडियो स्टेशन जिनके पास हैं, उनको वाणी के द्वारा व्याख्यान करने की जरूरत नहीं थी। दिल्ली से लेकर और कितने रेडियो स्टेशन हैं, वहीं पर एक-एक आदमी आराम से बैठा दिया होता और एक-एक 'स्पीचÓ झाडऩी शुरू कर दी होती, तो सारे-के-सारे देश के लोगों तक आवाज पहुँच सकती थी और उससे आसुरी सभ्यता का, अनाचार का, अनावश्यक परिस्थितियों का निवारण कर सकना संभव रहा होता। क्या ऐसा संभव हो सकता है? नहीं, ऐसा संभव नहीं हो सकता।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्
इसीलिए मित्रो! देवताओं को क्या करना पड़ा कि अयोध्या से दैवी सभ्यता की शुरुआत करनी पड़ी। कैसे शुरुआत करनी पड़ी? वहाँ जो आदमी छोटे से खानदान में थे, उन्होंने कहा कि हम अपने नमूने पेश करेंगे लोगों के सामने कि दैवी सभ्यता कैसी हो सकती है और हम इस सभ्यता का विकास क्यों करना चाहते हैं? दैवी सभ्यता के पीछे क्या परिणाम निकल सकते हैं? ये साबित करने के लिए दशरथ के कुटुंब ने, परिवार ने उसी तरह के नमूने पेश करने शुरु कर दिए, जैसे कि लंका वालों ने किए थे। उन्होंने क्या पेश किए? बेटे, सबके सब एक दिन इक_ïा हो गए और फैसला करने लगे कि हम बड़े काम करके दिखाएँगे, ताकि दुनिया समझे कि दैवी सभ्यता क्या हो सकती है और दैवी सभ्यता का अनुकरण करने के लिए जोश और जीवट कैसे उत्पन्न किया जा सकता है?
विश्वामित्र जी ने वहाँ से शुरुआत की और राजा दशरथ से कहा कि आप अपने बच्चे हमारे हवाले कीजिए। उन्होंने कहा कि बच्चे तो हमको जान से भी प्यारे हैं। उन्हें हम आई.ए.एस. बनाएँगे, पी.सी.एस. बनाएँगे। आप इन्हें कहाँ ले जा सकते हैं? विश्वामित्र ने कहा, आई.ए.एस., पी.सी.एस. तो पीछे बनते रहेंगे, पहले इन्हें मनुष्य बनना चाहिए और देवता बनना चाहिए। विश्वामित्र और दशरथ जी के बीच जद्दोजेहद तो बहुत हुई, लेकिन दैवी सभ्यता की, संस्कृति की शुरुआत तो कहीं से करनी ही थी। विश्वामित्र ने रजामंद कर लिया और कहा, बच्चे हमारे हवाले कीजिए। क्या करेंगे इनका? दैवी सभ्यता का शिक्षण करेंगे और ये दोनों अनीति के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। अरे गुरुजी, ये तो छोटे बच्चे हैं। नहीं, वे छोटे बच्चे नहीं हो सकते। जो व्यक्ति सत्य का हिमायती हुआ, वह कभी छोटा नहीं हुआ। सत्य का हिमायती हमेशा बलवान् रहा है और जोरदार रहा है। उसके सामने चाहे वह मारीचि ही क्यों न हो, सुबाहु ही क्यों न हो, चाहे वह खर-दूषण ही क्यों न हो, कोई भी क्यों न हो, वह कमजोर ही रहेगा और उसको हारना पड़ेगा, झख मारनी पड़ेगी। विश्वामित्र जी ने राजा दशरथ को समझा दिया और वह शिक्षण देने के लिए, जो योगियों और तपस्वियों के आश्रम में रह करके पाया जाना संभव है, दोनों बच्चों को ले गए।
शुरुआत व्यावहारिक जीवन से
ये क्या होता है? बेटे! ये दैवी सभ्यता की शुरुआत होती है। यह न तो व्याख्यान से हुई, न कथा से हुई और न सत्संग से हुई। कैसे हुई? व्यावहारिक जीवन से हुई। इससे कम में नहीं हो सकती। कोई श्रेष्ठï परंपरा स्थापित करने के लिए व्यक्तिगत जीवन का आदर्श उपस्थित किए बिना दुनिया इधर-उधर नहीं हो पाएगी। कथा, व्याख्यान, सत्संग आदि सब खेल-खिलौने हैं। इनसे हम उसी तरह रास्ता बनाते हैं, जिस तरह रेलगाड़ी के लिए पटरी बनाते हैं। लेखनी के द्वारा, वाणी के द्वारा, प्रचार माध्यमों के द्वारा, जनसाधारण की शिक्षा के द्वारा, सत्संगों के द्वारा, कथाओं के द्वारा हम रेलगाड़ी की पटरी बनाते हैं, बस। फिर रेलगाड़ी कहाँ से चलेगी? रेलगाड़ी तो बेटे, अपने व्यक्तिगत आदर्श उपस्थित करने से पैदा होती है। इससे कम में हो ही नहीं सकती। इस तरह उन्होंने पटरी बनाई और वहीं से शुरुआत हुई। पीछे सबने फैसला लिया कि हम दैवी संस्कृति, दैवी सभ्यता का स्वरूप क्या हो सकता है, उसको बताने के लिए एक-से-एक बढिय़ा त्याग करेंगे और बलिदान करेंगे। सारी-की-सारी उस कंपनी ने, कमेटी ने फैसला कर लिया कि हम दुनिया को बताते हैं कि रामराज्य कैसे हो सकता है।
रामराज्य कैसे आया?
मित्रो! रामराज्य का बीज अयोध्या में बोया गया और वह भी एक छोटे-से खानदान में। कैसे बो दिया गया? बेटे! ऐसे बो दिया गया कि थोड़े-से आदमी थे, लेकिन वे एक-से-एक बढिय़ा त्याग करने पर उतारू हो गए। रामचंद्र जी ने कहा कि राजगद्दी क्या होती है? इससे तो वनवास बेहतरीन है। इनसान को क्या चाहिए? पैसा चाहिए, विलासिता चाहिए, नौकरी में तरक्की चाहिए, प्रमोशन चाहिए, लेकिन उन लोगों ने कहा कि हमें त्याग चाहिए, बलिदान चाहिए। त्याग और बलिदान से आदमी महामानव बनता है, महापुरुष बनता है, तपस्वी बनता है, ऐतिहासिक पुरुष बनता है और पैसे से? पैसे बढऩे से आदमी बनता है धूर्त और ढोंगी। और क्या बनता है? न जाने क्या-क्या बनता है।
मित्रो! क्या हुआ? उन्होंने त्याग और बलिदान के लिए, आदर्श उपस्थित करने के लिए ये फैसले किए कि हमको अब बड़े कदम उठाने चाहिए, ताकि रावण की लंका को नीचा दिखा सकें। रामचंद्र जी ने कहा कि हम ऋषियों के आश्रम में जा करके वनवासी जीवन जीने के लिए, तपस्वी जीवन जीने के लिए रजामंद हैं और राजपाट छोडऩे के लिए रजामंद हैं। परिस्थितियाँ ऐसी बन गई थीं और रामचंद्र जी जटा-जूट बाँधकर नंगे पैर जंगलों में चलने और वनवास में रहने के लिए उतारू और आमादा हो गए। लक्ष्मण जी ने कहा कि भाई-भाई के बीच में कैसी मोहब्बत होनी चाहिए, इसका आदर्श उपस्थित करने के लिए मुझे भी रामचंद्रजी का अनुकरण करना चाहिए। वह औरंगजेब वाला अनुकरण नहीं, जिसने बाप को कैद कर लिया था और भाइयों को मार डाला था। वह नहीं बेटे, दूसरा वाला आदर्श। उसके लिए क्या करना पड़ेगा? उसके लिए दैवी संस्कृति की सभ्यता की स्थापना करनी पड़ेगी, ताकि लोगों के भीतर से उमंगें, जोश, जीवट, एक-दूसरे के नमूने देख करके पैदा हो सकें।
साथ अपनों ने दिया
लक्ष्मण जी ने कहा, सिद्धांतों के लिए भाई को भाई के लिए क्या करना चाहिए और सुखों की अपेक्षा दु:खों का वरण कैसे करना चाहिए, इसके लिए हमने फैसला किया है कि हम आपके साथ-साथ रहेंगे और आपकी निगरानी करेंगे। सीता जी ने भी कहा कि तप और त्याग के मामले में हम पीछे नहीं रह सकते। आपको वनवास हुआ है, लेकिन देवर जी को नहीं हुआ है, फिर भी वे राज-पाट के विलासी जीवन की अपेक्षा वनवासी जीवन को श्रेष्ठï समझते हैं, इसलिए हमको भी विलासी जीवन स्वीकार नहीं है। हम भी वनवासी जीवन स्वीकार करेंगे। सीता जी रजामंद हो गई और वे भी चलने लगीं। बेटे, मैं देखता हूँ कि अयोध्या में ऐसे बीज बोये गए, जो कल्पवृक्ष की तरह उगे। कौशल्या जी ने अपने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और यह कहा कि जब तुम्हारी माता ने आज्ञा दी है, तो तुम बनवास जा सकते हो। उन्होंने भी छाती पर पत्थर रख करके उन्हें आज्ञा दे दी। किसके लिए? दैवीय संस्कृति के, दैवीय सभ्यता के विकास के लिए, त्याग और बलिदान करने के लिए।
मित्रो! दैवीय संस्कृति वह है, जो त्याग के लिए, बलिदान के लिए प्रोत्साहन देती है और आगे बढ़ाती है और दैत्यों की सभ्यता, राक्षसों की सभ्यता वह है, जो न स्वयं श्रेष्ठï काम करते हैं और न किसी को करने देते हैं। न चलते हैं और न चलने देते हैं और पत्थरों के तरीके से, जंजीरों के तरीके से जकड़ करके बैठ जाते हैं। ये राक्षस हैं, दुष्टï हैं और पिशाच हैं, जो सिद्धांतों के लिए, त्याग के लिए, बलिदान के लिए मार्ग में अड़ंगे लगाते हैं और ये कहते हैं कि अय्याशी अच्छी चीज है, मालदार होना बहुत अच्छी बात है, जमाखोरी बहुत अच्छी बात है। आप भी विलासी होइए और हमको भी विलासी होने दीजिए। मित्रो! ये हमारे खानदान वाले नहीं हैं। ये हमारे दुश्मन हैं।
सब एक दूसरे से बढ़कर
मित्रो! कौशल्या जी ने कहा कि आप वनवास जा सकते हैं। हम आपको आज्ञा देते हैं, आप खुशी-खुशी जाएँ। इस मामले में कोई भी पीछे नहीं रहा। सुमित्रा ने अपने बेटे लक्ष्मण से कहा कि बेटे, अगर तुम्हारे बड़े भाई वनवास जा रहे हैं, तो मैं त्याग के रास्ते पर, बलिदान के रास्ते पर चलने से तुम्हें नहीं रोक सकती। सुमित्रा ने कहा, ''जो पै सीय रामु वन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।ÓÓ अयोध्या में तुम्हारा काम नहीं है। यहाँ के विलासी जीवन में, अय्याशी के जीवन में तुम्हारा कोई काम नहीं है। माँ ने छाती पर पत्थर रखकर के सिर पर हाथ फिराया, आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम जाओ वनवास। न केवल माँ ने वरन् उनकी पत्नी उर्मिला ने भी कहा कि ठीक है, आप श्रेष्ठï काम के लिए जा रहे हैं, तो मैं ऐसी घटिया नहीं हूँ, जो आपके भावी जीवन को रोक सकूँ। आप चौदह वर्ष के लिए वनवास जाइए। आप चौदह वर्ष ब्रह्मïचर्य से रह सकते हैं, मैं भी ब्रह्मïचर्य से रह सकती हूँ। आप एक आदर्श स्थापित करने के लिए चल पडि़ए।
बेटे! ये क्या हो गया? सभ्यता की शुरुआत हो गई। ये कौन-सी सभ्यता थी? ये दैवीय सभ्यता थी, जिसने राक्षसों को परास्त किया। तो क्या रामचंद्र जी ने रावण को मार डाला था? बेटे, रावण को मारने भर से कोई परास्त नहीं हो सकता था। नये आदमी फिर से पैदा हो सकते थे। युद्धों के नतीजे हमने देख लिए हैं। पहला वल्र्ड वार जब पैदा हुआ था, तो उसके पेट में उसी दिन दूसरे युद्ध का बीजारोपण हो गया था। उसमें से दूसरा वाला जो राक्षस निकला, वह पहले वाले से भी ज्यादा भयंकर था और जब 'सैकंड वल्र्ड वारÓ हुआ तो उसने भी बहुत बड़ा विनाश किया और लोगों से कहा कि जो भी बुरे आदमी हैं, दुश्मन हैं, उन सबको हम मार डालेंगे और सबकी हत्या कर देंगे। हम तोप चलाएँगे, बम चलाएँगे और सफाया कर देंगे।
भविष्य की अशुभ संभावनाएँ
मित्रो! हम देखते हैं कि 'सैकंड वल्र्ड वारÓ अभी खत्म नहीं हुआ है। 'थर्ड वल्र्ड वारÓ के लिए ऐसा सर्वनाशी वातावरण अभी से तैयार हो रहा है। बेटे, बच्चा पेट में बैठा हुआ है और जगमगा रहा है। वह बार-बार मुँह चलाता रहता है और फिर पेट में घुस जाता है, उसी तरीके से जैसे कंगारू। कंगारू एक जानवर होता है। उसके पेट में एक थैली होती है, जिसमें बच्चे बैठे रहते हैं, उसी में मुँह चलाते रहते हैं और फिर पेट में घुस जाते हैं। 'थर्ड वल्र्ड वारÓ अभी अपनी माँ के पेट में बैठा हुआ है, लेकिन जब वह माँ के पेट से निकलेगा, तो सफाया करेगा। किसका सफाया करेगा? सरस्वती फिर दुनिया में रहेगी नहीं और मनुष्य जाति का अस्तित्व दुनिया में रहेगा नहीं। अक्ल दुनिया में रहेगी नहीं, जिसके बल पर अभी मनुष्य मरने-मारने और लडऩे पर उतारू हुआ है। ये सभ्यता फिर जिंदा रह नहीं सकती, क्योंकि तीसरा वाला बच्चा जो पेट में बैठा हुआ है, वह सबको मार डालेगा।
मित्रो! बट्रेड रसेल ने ठीक कहा था कि 'थर्ड वल्र्ड वारÓ के पश्चात् फिर एक और 'वारÓ होगा अर्थात् चौथी लड़ाई भी होगी, लेकिन इस लड़ाई में क्या होगा? चौथी लड़ाई में आदमी ईंट और पत्थरों का उपयोग करेगा, फिर टैंकों का उपयोग न हो सकेगा। ईंट और पत्थरों का उपयोग क्यों होगा? क्योकि तब मनुष्य बुद्धिहीन हो जाएँगे। तब जो कुछ प्राणी बचेंगे, वे इतने बेअकल, इतने साधनहीन और इतने असहाय हो जाएँगे कि ढेला फेंकने के अलावा लाठी चलाने लायक भी नहीं रह जाएँगे। उनके पास तब न इतनी अकल रहेगी, न साधन रहेंगे, न संपदा रहेगी। सबका सफाया हो जाएगा।
बेटे, मैं जानता हूँ कि संसार में जो मारक प्रकियाएँ हैं, वे आदमी को समाप्त नहीं कर सकतीं। इनसे कोई समाधान नहीं हो सकता। नहीं साहब हम तो मारेंगे। अच्छा है मारिए। मैं तो हिमायती हूँ मारने का, क्योंकि ऑपरेशन में मारक तत्त्व ही काम करता है। आँख में मोतियाबिंद है, मुश्किल से पाँच सैकंड में ऑपरेशन करके झिल्ली को उतारकर फेंक दिया और खट् से बंद कर दिया। आँख कितने दिन में अच्छी हुई? आँख तो बेटे पंद्रह दिन में अच्छी हुई। पंद्रह दिन क्या होता रहा? मरहम लगाया जाता रहा, पट्टïी लगाई जाती रही, ड्रेसिंग होती रही। जख्म को अच्छा करने का प्रयत्न किया जाता रहा। मारक तत्त्वों की कभी जरूरत भी पड़ सकती है, मैं तो यह नहीं कह सकता कि जरूरत नहीं है, और कभी होगी नहीं। कभी जरूरत हो भी सकती है, लेकिन ज्यादा जरूरत नहीं है। दानवी सभ्यता, जिसने कि हमारे सारे-के-सारे मानव समाज को बुरे तरीके से जकड़ रखा है, इसको मारने के लिए वो तत्त्व काफी नहीं है, जिनको राजनीति वाले हथियारों के रूप में प्रयोग करना चाहते हैं और हम किस तरीके से प्रयोग करना चाहते हैं? हम संघर्ष के द्वारा करना चाहते हैं, घेराव के द्वारा करना चाहते हैं, सत्याग्रह के द्वारा लडऩा चाहते हैं। क्या इससे वे दूर हो जाएँगे? नहीं, इससे वे दूर नहीं हो सकते।
देवताओं का आना जरूरी
फिर कैसे दूर हो सकते हैं? मित्रो! दैत्यों को मारने के लिए देवता का पैदा होना आवश्यक है। दैत्य को दैत्य भी मार सकता है। दो राक्षस थे। दोनों आपस में लड़े। मरे तो सही दोनों, लेकिन दोनों के मरने के बाद में फिर नए राक्षस पैदा हो गए। नई पौध तैयार हो गई। दैत्यों को मारने के लिए देवताओं की जरूरत हुई। अयोध्या में देवता पैदा किया गया। देवता कैसे पैदा किया? बेटे, देव परंपराएँ पैदा कीं। देव परंपराओं का नाम है, देवता। छोटे-से कुटुंब ने लोगों के सामने नमूने प्रस्तुत किए, सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए, लोकहित के लिए। दूसरे लोग कहते रहे, इसमें हमारा कोई लाभ नहीं है। राक्षसों ने हमारे ऊपर हमला नहीं किया है, रावण ने हमको कोई नुकसान नहीं पहुँचाया है, लेकिन अयोध्यावासियों ने कहा कि हम दैवी सभ्यता की स्थापना करने के लिए अपने क्रियाकलाप करते हैं और अपनी लीलाएँ करते हैं। इसका परिणाम क्या हुआ? बेटे, परिणाम यह हुआ कि दैवीय संस्कृति-दैवीय सभ्यता पनपने लगी, बढऩे लगी।
कैसे बढ़ी? आपने देखा नहीं? वानरों ने, रीछों ने ये कहा, अगर मनुष्य दैवीय सभ्यता को जीवन में ढाल सकते हैं, तो हमको भी ऐसा जीवन ढालने में क्या आपत्ति हो सकती है और हम भी ऐसा जीवन ढालने में क्यों पीछे रहेंगे? रीछ-वानर अपनी जान हथेली पर रखकर तैयार हो गए।
देवता कौन?
दैवीय सभ्यता क्या होती है? क्या वह मिठाई खाती है, महल बनाती है? नहीं बेटे, ऐसी नहीं होती है—दैवीय सभ्यता। दैवीय सभ्यता ऐसी होती है, जिसमें एक ही वृत्ति रहती है, ''हम देंगे।ÓÓ देने के लिए वह अपना समय खरच करती है, श्रम खरच करती है, साधन खरच करती है और अपनी अक्ल खरच करती है और बदले में मुसीबतें उठाने के लिए तैयार रहती है। यही है दैवीय सभ्यता। दैवीय सभ्यता का एक ही स्वरूप है कि हम व्यक्तिगत जीवन में कठिनाइयाँ उठाएँ। किसके लिए? सारे समाज के लिए, धर्म के लिए और संस्कृति के लिए। हम इनके संवद्र्धन के लिए कष्टï उठाएँ और इन्हें आगे बढ़ाएँ। दैवीय सभ्यता इसी का नाम है। बस न इससे कम और न ज्यादा। देवताओं का स्वरूप यही है। देवता वह नही है, जो अय्याशी करते रहते हैं, मौज उड़ाते रहते हैं, कल्पवृक्ष के नीचे बैठे रहते हैं। देवता उन लोगों के नाम हैं, जो जीवन भर लोगों के लिए कठिनाइयाँ उठाते हैं। इंद्र देवता होता है। देवता कौन-सा होता है? बेटे, बादल समुद्र में से पानी ढो-ढो करके बड़ी मुश्किल से लाते हैं। वे कितनी मुश्किल और कितना कष्टï उठाते हैं और हमें बिना जानकारी दिए, हमारे धन्यवाद की अपेक्षा किए बिना चुपचाप हमारे खेतों में पानी बरसा जाते हैं। ये देवता हैं। इससे न ज्यादा होने की जरूरत है और न इससे कम। जो भी देवता हुआ है, वह न इससे कम हुआ और न ज्यादा, ठीक उसी तरीके से जैसे मैंने आपको अभी बादलों का नमूना बताया।
देवसंस्कृति का नमूना खड़ा करना होगा
मित्रो! वानर और रीछ किससे प्रेरित हुए? अयोध्या वालों से प्रेरित हुए। उनसे प्रेरित होकर उन्होंने कहा कि देव सेना में हम भी भरती होते हैं और देवत्व के संरक्षण के लिए हम भी कदम बढ़ाते हैं; वे चल पड़े। क्या नतीजा हुआ? ज्यादा विस्तार से नहीं बताना चाहता हूँ, किंतु इसका छोटा-सा स्वरूप झाँकी बनाकर आपको बता सकता हूँ। जब मनुष्य-जाति के लिए मुसीबतें आई हों, भविष्य के लिए आशंका आई हो कि हमारा भविष्य अंधकारमय होने वाला है, जैसा कि आज हमको दिखाई पड़ता है, तो क्या करना पड़ेगा? उपाय एक ही है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। अब हमको दैवीय सभ्यता का ढाँचा खड़ा करना पड़ेगा, नमूना खड़ा करना पड़ेगा। नहीं साहब! हम राक्षस को मारेंगे। अरे बेटा वह मरेगा नहीं। हम उसको गालियाँ देंगे, विरोध करेंगे। बेटे, इससे भी कुछ बनने-बिगडऩे वाला नहीं है। असली विरोध इस बात का है कि हम उसके मुकाबले में ऐसी जबरदस्त तैयारी करें, जिससे प्रेरणा लेकर के, प्रभावित हो करके लोग उस रास्ते पर चलें। उस पर चलने के लिए यह आवश्यक है कि आदमी दैवीय सभ्यता के अनुरूप त्याग और बलिदान करने के लिए तैयार हो जाएँ।
मित्रो! यही था रावण मारने का उपाय। सारे-के-सारे लंकाकांड का जो परिणाम मैंने देखा, वह यह कि त्याग करने के लिए, बलिदान करने के लिए हर आदमी तैयार हो गया। छोटे-छोटे जानवर भी तैयार हो गए। रीछ-वानर तो तैयार हो ही गये थे, कुछ और पक्षी श्रेणी के भी तैयार हो गए। उनमें से एक गिलहरी आई और बोली, आपकी सहायता के लिए हम त्याग करेंगे और सहयोग करेंगे। क्या करेगी? हम कष्टï उठाएँगे और मशक्कत करेंगे। फिर फायदा क्या होगा? हम उस पुल के लिए रास्ता खोलेंगे, जिस पुल पर से होकर ये रीछ-वानर पार हो सकें और रावण को मार सकें। इसलिए हम समुद्र को पाटने के लिए अपने बालों में मिट्टïी भरकर ले जाएँगे और उसमें डालेंगे।
भावना महत्त्वपूर्ण
ये क्या था? ये दैवीय सभ्यता है बेटे और कुछ नहीं है। गिलहरी कौन थी? मुझे गिलहरी का जिक्र करने की जरूरत नहीं है। मैं गिलहरी के पीछे नहीं पडऩा चाहता। मैं तो दैवीय सभ्यता की बात कहता हूँ। दैवीय सभ्यता जहाँ कहीं भी हुई है, वहाँ रावण मरे हैं, कुंभकरण मरे हैं, आततायी मरे हैं और वहाँ रामराज्य आया है, सतयुग आया है, धर्मयुग आया है, अगर लोगों ने गिलहरी के तरीके से अपने नमूने पेश करने की कोशिश की है। नि:स्वार्थ भाव से जनहित के लिए, श्रेष्ठï परंपराओं के संरक्षण के लिए त्याग और बलिदान का जहाँ सवाल आया, वहाँ गिलहरी ने नमूना पेश किया। बेटे, गिलहरी की कथा कहते-कहते हमारा मन नहीं भरता। गिलहरी ने क्या किया। परंपरा कायम की? गिलहरी की जरा-सी मिट्टïी से क्या हो गया? बालू की नहीं, भावना की बात चल रही है। भावना जरा-सी हो, चाहे छोटी हो या बड़ी हो, बड़ी जबरदस्त होती है और दुनिया में बहुत काम करती है।
मित्रो! रामराज्य स्थापित हुआ था। रामराज्य किसने स्थापित किया था? छप्पर फाड़ करके रामराज्य गिरा था या पोटली में बाँध करके देवता रख गए थे। गुरुजी रामराज्य कौन-सी तारीख को आएगा? युग निर्माण कब हो जाएगा? क्यों तू क्या करना चाहता है? मुझे क्या पता कब तक हो जाएगा? मित्रो! क्या करना पड़ेगा कि जब परंपराएँ इस तरह की दिखाई पड़ती हों, तब आप विश्वास करना कि अब रामराज्य आने ही वाला है। किस तरीके की परंपराएँ दिखेंगी तब? जैसे कि छोटे-छोटे पखेरुओं ने करके दिखाईं। गीधराज एक कोंतर में बैठा हुआ था और मजे से दिन काट रहा था। लेकिन उसको मौज के दिन काटना सहन नहीं हुआ। अनीति देखकर एक दिन वह तिलमिला गया और कहने लगा, यहाँ ये अनीति फैल रही है। किसी की बेटी का अपहरण ऐसे हो रहा है, तो हम जिंदा इन आँखों से नहीं देखेंगे। अपनी बेटी हो तो क्या और किसी की बेटी हो तो क्या? अब हम इन जिंदा आँखों से ऐसा अधर्म नहीं देखेंगे। ये ठीक है कि हम रावण को नहीं मार सकते, पर हम स्वयं तो मर सकते हैं। उसे मारना संभव नहीं हो सकता, मैं जानता हूँ। हरेक व्यक्ति पाप और अनीति को मार नहीं सकता, पर मर तो सकता है। मरना भी बहुत बड़ी बात है। बेटे मरने की ताकत मारने की ताकत से भी बहुत बड़ी है, तू जानता नहीं है। पर वह गिद्ध रावण को मार नहीं सका, मैं जानता हूँ, लेकिन उसने स्वयं मरकर वह काम करके दिखाया, जो हजार अँग्रेजों को मारकर के भगतसिंह नहीं कर सकते थे। देश में तहलका नहीं मचा सकते थे।
नेक मकसद के लिए
अरे गुरुजी! मरने में तो हार होती है, पराजय होती है। मरने में नुकसान होता है, घाटा होता है। नहीं बेटे, किसी नेक मकसद के लिए मरना, मारने से भी ज्यादा बहादुरी का काम है। नुकसान करना भी एक बहादुरी का काम हो सकता है। मित्रो! पखेरू ने तो नुकसान उठाया और रावण से लडऩे गया। उसने कहा, हमारे जिंदा रहते आप सीता जी पर हमला नहीं कर सकते, सीता जी को नहीं ले जा सकते। रावण ने कहा, आपके पास ताकत कहाँ है? तलवार कहाँ है? गीध ने कहा, नहीं सही, पर हमारे पास जान तो है और न्याय के लिए, आदर्श के लिए, धर्म के लिए हम मर तो सकते हैं। पखेरू युद्ध के लिए तैयार हो गया। रावण ने उसके पंख काटकर फेंक दिए। तो क्या पखेरू हार गया और रावण जीत गया? नहीं बेटे, पखेरू जीत गया। रामचंद्र जी जब आए, तो उन्होंने पखेरू को छाती से लगा लिया, अपने हाथों से उसके पंखों को साफ किया और अपनी आँखों के आँसुओं से उसके जख्मों को धोया। उसने कहा, भगवान्! मैंने तीनों लोकों का राज्य पा लिया और सब कुछ पा लिया। मैंने यश पा लिया और आज अमर हो गया। हजारों मनुष्यों को युगों-युगों तक प्रेरणा देने के लिए वह एक स्मारक बन गया, प्रकाशस्तंभ बन गया।
सतयुगी परम्परा
मित्रो! आदमी हो या कोई पक्षी हो, बुड्ढïा हो, बिना पढ़ा हो या साधनहीन हो, तो भी कम-से-कम उसके भीतर इतनी हिम्मत अवश्य होनी चाहिए कि अनीति का विनाश करने के लिए, लड़ाई लडऩे के लिए सीना तानकर खड़ा हो जाए। बेटे! बड़े-बड़े बादशाहों को तो हम भुला सकते हैं, लेकिन उस पखेरू को हम सदैव याद रखेंगे। उसे हम भुला नहीं सकते। उस पखेरू को न भूलाने का मतलब है, देवपूजन अर्थात् देवत्व का पूजन। बेटे! भारतीय संस्कृति में देवत्व का पूजन करने की परंपरा है। यही परंपरा सतयुग को लाती है, धर्मयुग को लाती है। मानवजाति के उज्ज्वल भविष्य को लाती है। कौन-सी परंपराएँ? जिनको हम दैवीय परंपराएँ कहते हैं। दैवीय परंपराएँ क्या होती हैं? तिलक लगाना, माला जपना, गंगाजी नहाना, सत्यनारायण की कथा कहना आदि, क्या यही दैवी परंपराएँ हैं? नहीं, बेटे! ये तो खेल-खिलौने मात्र हैं। जो इसी खेल-खिलौनों में उलझे रहते हैं, उन्हें हम 'अफीमचीÓ कहते हैं, सनकी कहते हैं। काम होता नहीं है, त्याग की बात बनती नहीं,बैठे-बैठे कोने में छपकियाँ लेता रहता है, सनकता रहता है और कहता है कि प्रकाश दिखा दीजिए। घंटी बजा दीजिए, कान में नादब्रह्मï सुना दीजिए। पेट में से पिल्ला निकाल दीजिए। उसमें से निकाल दें तेरा सिर।
देवताओं के बेटे कौन?
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? दैवीय सभ्यता यह नहीं है। दैवीय सभ्यता वह है, जिसमें त्याग और बलिदान की बात करनी पड़ती है। बेटे! हजारों वर्षों का इतिहास जब हम पढ़ते हैं, तो हमको दैवीय सभ्यता का यही स्वरूप दिखाई पड़ता है। रामचंद्रजी के बाद श्रीकृष्ण जी का नंबर आता है। श्रीकृष्ण जी का जीवन चरित्र जैसा कुछ भी आता है, उन्होंने जिन लोगों को साथ लेकर के काम शुरू किया था, उन लोगों के नाम थे, पांडव। पांडवों में क्या था? दैवीय सभ्यता थी। पांडव देवताओं से पैदा हुए थे। मैंने सुना है कि कुंती ने देवताओं का जप-पूजन किया था और जप-पूजन करने के बाद में बच्चे पैदा किए थे। कैसे थे पाँच बच्चे? तो क्या उनमें एक था आई.ए.एस. एक था इन्कम टैक्स आफीसर, एक था सी.बी.आई. आफीसर आदि। इस तरह क्या उन्होंने लाखों रुपयों की आमदनी की थी? करोड़ों की जायदाद खरीदकर रख गए थे? तो फिर कुंती का बेटा, देवता का बेटा कौन होता है? क्या वह जिसके पास मोटरें हों, जिसके पास दौलत हो, जिसके पास मकान हो। नहीं, यह आपकी परिभाषा है। देवताओं की परिभाषा अलग थी।
मित्रो! देवताओं के बेटों को कैसा होना चाहिए? अगर कोई देवता का बेटा है, तो उसके व्यवहार में और जीवन में क्या गुण आना चाहिए? इसे हम पाँचों पांडवों के जीवन में देख लेते हैं। हमको सबसे अच्छी घटना पांडवों की याद आती है। हमको अज्ञातवास के समय कुंती अपने बच्चों के साथ एक ब्राह्मïणी के यहाँ छिपी हुई थी। उस इलाके में कोई एक राक्षस रहता था। जो वहाँ के हर घर से एक-एक आदमी प्रतिदिन मारने के लिए बुलाया करता था और उन्हें खा जाता था। नंबर के हिसाब से उस दिन ब्राह्मïणी के बच्चे का नंबर आ गया। ब्राह्मïणी रोने लगी। जब वह बैठी हुई रो रही थी, तो कुंती ने पूछा, बहिन क्या बात है? ब्राह्मïणी बोली कि हमारे पास एक ही बच्चा है और उसको आज राक्षस के पास जाना पड़ेगा। उसे मरना ही होगा। अब हम क्या कर सकते हैं?
कुंती ने कहा कि आपने अपनी जान जोखिम में डालकर हमको छिपा रखा है, तो हमारा भी तो कुछ कत्र्तव्य हो जाता है। हम भी तो कुछ करेंगे आपके लिए। उन्होंने कहा, बच्चो! तुम पाँच हो। एक काम करो, यह जो ब्राह्मïणी है, इसके एक ही बालक है। इसने अपनी जान जोखिम में डालकर हमको छिपाकर रखा है। इसलिए क्या करना चाहिए बच्चो? तुममें से एक बच्चे को अपना बलिदान कर देना चाहिए और ब्राह्मïणी के बच्चे को बचा लेना चाहिए। बच्चों ने कहा, माता जी! इससे बड़ा सौभाग्य हमारा क्या हो सकता है? भीम चले गए और उसे बचा लिया।
सच्चा अध्यात्म
मित्रो! यह क्या है? यह है देवता का मन। देवता का मन वह होता है कि जब उसके जीवन में कोई त्याग करने, बलिदान करने का मौका आता है, तो बल्लियों उछलने लगता है। यह होता है, देवताओं का दिल। और राक्षसों का दिल कैसा होता है? राक्षसों का, चोरों का, घटिया आदमी का दिल यह है कि जब त्याग का वक्त आता है, तो वह थर-थर कॉपने लगता है। हर समय जिसकी यही नीयत रहती है कि यह मंत्र जपूँगा, यह तंत्र जपूँगा, यह पूजा करूँगा और इससे यह पैसा कमाऊँगा, यह औलाद पाऊँगा, धन कमाऊँगा। कामना-ही-कामना, कामना-ही-कामना जिसके अंदर भरी हुई है, बेटे यह कोई अध्यात्म नहीं है।
ठीक है मित्रो! यह बच्चों का अध्यात्म रहा होगा। मैं यह तो नहीं कहता कि बच्चों को इसकी जरूरत नहीं है। हम मिठाई बाँट करके और कोई लोभ देकर के बच्चों को अपने पास बुला लेते हैं। यह भी अध्यात्म का कोई हिस्सा होगा, पर मैं इसको छूँछ कहता हूँ, भूसी कहता हूँ। किसकी? अध्यात्म की। भूसी कौन-सी? जिसमें यह पाया जाता है कि अध्यात्म क्या है। बेटे, यह अध्यात्म का खिलवाड़ है, छिलका है, जूठन का पत्ता है। पत्ते पर मिठाई खाकर के लोग उसे फेंक देते हैं और कुत्ते उसे चाटने के लिए टूट पड़ते हैं, चट कर जाते हैं। यह भी हो सकता है-प्राप्त करने की दृष्टिï से। अध्यात्म को हम भौतिक चीजों को पाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, इसलिए बेटे, मैं इसको जूठन का पत्ता कहता हूँ। किसी आदमी का खाया हुआ पत्ता फेंक दिया गया, दूसरा कहता है कि हमको भी दे दीजिए। हाँ बेटे, तुझे भी दे देंगे।
आपने क्या किया?
बेटे, हमने तप किया है और तप करके पाया है और तू हिस्सा माँगता है। चल तुझे भी दे देंगे। यह क्या है? छोटी चीज है, रत्तीभर चीज है। न इसमें किसी को घमंड करने की जरूरत है और न सफलता प्राप्त करने की जरूरत है। हमने अध्यात्म से यह पा लिया, वह पा लिया। बेटे, पाने से अध्यात्म का कोई संबंध नहीं है। अध्यात्म का संबंध है देने से। आपने क्या दिया बताइए? बस यही एक सवाल है। अगर आप यह कहते हैं कि हम भगवान् की भक्ति से कोई ताल्लुक रखते हैं, तो आप यह जवाब दीजिए कि दैवीय सभ्यता के लिए, श्रेष्ठï आचरणों के लिए, लोगों के सामने अच्छी परंपरा स्थापित करने के लिए आपने क्या किया? यही एक जवाब दीजिए और दूसरा हम कुछ नहीं सुनना चाहते। हमने इतना भजन किया, तो ठीक है-अपने भजन को डिब्बी में रखिए। भजन का या किसी और का हवाला देना हम नहीं सुनना चाहते। गायत्री मंत्र की ग्यारह कापी हमने लिखीं। तो आप अपनी ग्यारह कापी ताले में बंद कर दीजिए। हमें मत बताइए। हमको तो यह बताइए कि आपने दैवीय सभ्यता के लिए कितना त्याग किया है? कितना बलिदान किया है? कितनी सेवा की है? नहीं साहब! हमने तो ग्यारह कापियाँ लिखी हैं। अच्छा, ग्यारह कापियाँ मुबारक हों, उसे अपने घर रखिए। हम नहीं सुनना चाहते।
मित्रो! अध्यात्म की प्राचीन परंपराएँ, शालीन परंपराएँ, महान् परंपराएँ भगवान् को अपनी ओर खींचती हैं और खींचने के अलावा दूसरों की सहायता करने में समर्थ होती हैं। ऐसा कोई अध्यात्म नहीं है, जो मनोकामना को प्राप्त कराता है। अध्यात्म वह है, जिससे आदमी अपना कल्याण करते हैं और दूसरों का कल्याण करने में समर्थ होते हैं। ऐसी शक्ति, जो दूसरों का कल्याण करती है, वह केवल असली अध्यात्म में रहती है। वह त्याग किए बिना, बलिदान किए बिना, सेवा धर्म किए बिना, दैवीय सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप जीवन ढाले बिना किसी में नहीं आ सकती। न आई है और न आएगी। कौन सी? जिसमें त्याग जुड़ा हुआ न हो, सेवा जुड़ी हुई न हो, लोकहित जुड़ा हुआ न हो, कष्टï सहने की बात जुड़ी हुई न हो, उसमें अध्यात्म कैसे हो सकता है? नहीं बेटे! इससे कम में अध्यात्म न था और न कभी होगा।
पाण्डवों का उदाहरण
मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने उस जमाने में, दुर्योधन के जमाने में जब चारों ओर असभ्यता और अनीति फैली पड़ी थी, तब यही नमूना पेश किया था। उनके पाँच हितैषी और हिमायती थे। पाँचों हिमायतियों का मैं एक नमूना बता रहा था। पाँचों पांडवों से कुंती ने कहा, बच्चो! तुममें से एक को वहाँ जाना चाहिए। बच्चे उछलने लगे और कहने लगे कि यह सौभाग्य तो हमको मिलना चाहिए। प्रतिस्पद्र्धा-कॉम्पिटीशन शुरू हो गई कि बलिदान में हम आगे जाएँगे। पाँचों बच्चों में प्रतिस्पद्र्धा शुरू हो गई। कुंती के लिए जद्दोजहद खड़ी हो गई। युधिष्ठिïर कहते कि हम सबसे बड़े हैं। हम दुनिया में सबसे पहले आए थे, इसलिए हमारा नंबर पहला है। सबसे छोटे वाले नकुल कहने लगे कि हम सबसे छोटे हैं, इसलिए हमको जाना चाहिए। अर्जुन कहने लगे कि इसके लिए हमको जाना चाहिए। सबमें झगड़ा होने लगा। कुंती ने कहा, अच्छा तुममें से कौन सबसे भाग्यवान् है, इसके लिए मैं गोली बनाकर निकालती हूँ। पाँचों पांडवों के नाम से गोली बनाकर डाल दी गई और कहा गया कि अच्छा, एक गोली उठा लो। जिसका नाम आ जाएगा, उसी को जाना चाहिए।
गोली उठाई गई। भीम का नाम आ गया। भीम उछलने लगे, ओ हो! यह मेरा सौभाग्य है। मित्रो! सौभाग्य किसे कहते हैं? नौकरी में तरक्की हो जाने को? लॉटरी में रुपया निकल आने को? तीन बेटियों के बाद दो बेटा हो जाने को? आपकी दृष्टिï में इसके अतिरिक्त और कोई सौभाग्य होता है क्या? नहीं होता। बेटे! यह सौभाग्य नहीं होता। सौभाग्य वह होता है, जिसमें आदमी अजर-अमर हो जाता है। बेटे! सौभाग्य वह होता है, जिसमें हजारों-लाखों आदमी श्रद्धा के सुमन चढ़ाते रहते हैं और उसके चरणों पर आँसू बहाते रहते हैं और जिसके मरने के बाद भी आदमी उससे प्रकाश-प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं, रोशनी ग्रहण करते रहते हैं। देवता उन्हें ही कहते हैं, सौभाग्य उसे कहते हैं। सौभाग्यशाली वे हैं, वंदनीय वे हैं, जिन्होंने अपना आचरण इस तरीके से पेश किया कि जिससे प्रेरित होकर हजारों आदमी नमूने पेश करते रहें और दिशा प्राप्त करते रहें।
मित्रो! ऐसी ही हुआ। भीम का नंबर आ गया। भीम बच्चा था और राक्षस नौजवान। राक्षस कितना बड़ा था? समझ लीजिए छत के बराबर रहा होगा। और भीम? छोटा सा ही था। भीम लडऩे के लिए चला गया। महाभारत की कथा के अनुसार मैंने सुना है कि भीम ने कहा, अच्छा, आप हमको खाएँगे तो है ही, तो क्यों न पहले दो-दो हाथ कर देख लें। राक्षस ने कहा, चल, इसमें कोई ऐतराज नहीं है हमको। आ, हो जाए, दो-दो हाथ। भीम लडऩे के लिए खड़ा हो गया और उसने राक्षस को पटककर मार दिया।
सत्य में है बल
क्यों साहब! ऐसा हो सकता है? हाँ बेटे ऐसा हो सकता है। सत्य हजार हाथी के बराबर बलवान् होता है। बच्चों ने भी सत्य का आश्रय लेकर बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाई हैं। कौन-कौन ने पाई हैं? चंद बच्चों के नाम बता सकता हूँ। प्रह्लïाद बच्चा था, लेकिन उसका बाप हिरण्यकशिपु कितना समर्थ था। वह इतने बड़े दैत्य से लडऩे के लिए खड़ा हो गया और उसका कचूमर निकाल दिया। यह बच्चों की बात कह रहा हूँ। कंस से लडऩे के लिए श्रीकृष्ण भगवान् गए थे। तब वे कितने छोटे थे। बच्चा जब लडऩे के लिए गया तो कंस को, चाणूर को और बकासुर को मार डाला और किस-किस को मारा? हाथियों को, कालिया को मार डाला, कैसे मार डाला बच्चे ने? बेटे, बच्चे ने नहीं, सत्य ने मार डाला। सत्य के पास हजार हाथियों के बराबर बल होता है। इसीलिए मुष्टिïकासुर कौन था? एक हाथी था। भगवान् श्रीकृष्ण चाहते, तो और भी निन्यानवे हाथियों को मार सकते थे, क्योंकि उनके पास सत्य था। बच्चा हो तो क्या, बड़ा हो तो क्या, जिसके पास सत्य है, विजय उसकी ही होती है।
मित्रो! महाभारत की कथाएँ भी इसी तरह की मालूम पड़ती हैं, जिसमें लोगों ने देवत्व पैदा किया। देवत्व का छोटा सा फार्म बनाया, सीढ़ी बनाई, आदर्श उपस्थित किया, जिससे लोगों के सामने देवत्व घिसटता हुआ चला गया, और वे दिन भी आए, जबकि दुर्योधन की आसुरी सभ्यता का निवारण हो गया, समाधान हो गया। कभी और भी ऐसे ही हुआ था। सारे इतिहास में तो यही पढ़ता रहता हूँ। अठारह पुराणों का अनुवाद मैंने किया है और इतिहास भी पढ़ा है। दो वर्ष पहले मैंने इतिहास को ज्यादा गहराई और ध्यान से पढ़ा है। 'भारतीय संस्कृति का समस्त विश्व को अजस्र अनुदानÓ नामक बड़ा ग्रंथ मैंने लिखा है। आपने पढ़ा होगा, उसमें मैंने हिन्दुस्तान की सारी-की-सारी हिस्ट्री लिखी है। सारी दुनिया को निहाल कर देने की हिस्ट्री। किससे निहाल कर दिया था? बेटे, सारी दुनिया को धन दिया था, विद्या दी थी, ज्ञान दिया था। सारी दुनिया में भारतीयों का वर्चस्व छा गया था और उनको जगद्गुरु माना गया था, देवता माना गया था।
महाराज जी! सब कैसे हुआ था? बता दीजिए, हम भी करना चाहते हैं। ऐसी विधि हमको भी बता दीजिए। हाँ बेटे, ला तुझे भी बता देते हैं कि क्या विधि है? बस एक तो तू माला ले ले और एक मंत्र। मंत्र लेकर क्या करूँ? जप किया कर ॐ नम: शिवाय, ॐ नम: शिवाय। नम: शिवाय से क्या हो जाएगा? सारे विश्व में तेरा यश हो जाएगा और तू अजर-अमर हो जाएगा। सारी दुनिया का कल्याण हो जाएगा। ऐसा हो जायगा? नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता।
त्याग-बलिदान की कथागाथाएँ
मित्रो! मैंने जो पुस्तक लिखी है 'भारतीय संस्कृति का समस्त विश्व को अजस्र अनुदानÓ। उसमें मैंने यह लिखा है कि भारतीय लोगों ने किस कदर त्याग और बलिदान किए हैं और एक से बढ़कर एक कैसे-कैसे नमूने खड़े किए हैं। बलिदानों का जखीरा लगा दिया है। भारतीय सभ्यता को अपने अनुदान देने वाले लोगों का जब मैं इतिहास पढ़ता हूँ, तो आँखों में से आँसू टपक पड़ते हैं। उनमें से एक थे, कुमारजीव, जो हिंदुस्तान से रवाना हुए और चीन पहुँच गए। जहाँ की न वे भाषा जानते थे और न कुछ जानते थे। ''चीन नाम का देश है, जिसमें जाकर बौद्ध धर्म का प्रसार करेंगे।ÓÓ यह सोचकर वे अकेले ही रेगिस्तानों को पार करते हुए चले गए। उन भयंकर रेगिस्तानों को जहाँ तीस-तीस दिनों तक पानी की एक बूँद भी नहीं मिलती थी। पेड़ की एक छाया तक नहीं है, केवल रेगिस्तान-ही-रेगिस्तान भरा पड़ा है। अपनी थैली में थोड़ा-सा पानी लेकर वे रवाना हो गए। कौन? कुमारजीव। वे चाइना में रह गए। चाइना में कौन था उनका? न कोई बेटा था, न मित्र था, न कोई शिष्य था उनका। वहाँ जाकर के उन्होंने चायनीज भाषा सीखी और सीखने के बाद में बौद्ध धर्मग्रंथों का अनुवाद करके वहाँ रखा। सारे-के-सारे चाइना को बौद्ध बनाने का श्रेय कुमारजीव जैसे बुद्ध के अनुयायियों को था।
गुरुजी! यह कैसे हो गया? बेटे, जादू से। जादू से कैसे हो गया? हमको भी सिखा दीजिए। बेटे, जिस जादू से दुनिया में बड़े-बड़े काम हुए हैं और अध्यात्म का प्रचलन हुआ है, उसका नाम है, त्याग और बलिदान। नहीं महाराज जी। त्याग-बलिदान का नहीं, हमको तो बता दीजिए—मंत्र। मंत्र कैसा होता है? अहा! इसी मंत्र के चक्कर में फिर रहा है धूर्त। अच्छा महाराज जी! बता दीजिए जादू। जादू बता दें तेरा सिर। मित्रो! क्या हुआ? सारी-की-सारी पुस्तकों में मैंने लिखा है कि भारत के गौरव को ऊँचा उठाने के लिए, सारे विश्व का कायाकल्प कर डालने के लिए, जो आधारभूत मंत्र था, वह था त्याग और बलिदान। त्याग और बलिदान की आवश्यकता महात्मा बुद्ध को पड़ी कि जिससे न केवल हिंदुस्तान, वरन् सारे के सारे विश्व को सुसंस्कृत बनाया जाए, फिर से सुसंस्कृत बनाया जाए। इसके लिए उन्हें अपील करनी पड़ी कि जो हमारे सबसे प्यारे हों, जो हमारे हितैषी हों, जो हमारी आज्ञा का पालन करने वाले हों, जो हमसे यह कहते हों कि बुद्ध हमारा है, तो वह त्याग करके दिखाएँ। यही सीधा-सरल मार्ग है।
महाराज जी! हम तो आपके चरणों में फूल चढ़ा देंगे। आपके ऊपर फूल चढ़ाएँगे और तीन बार नमस्कार करेंगे। ओ हो! बड़ा भारी शिष्य है हमारा। और क्या करेगा? महाराज जी! पच्चीस पैसे का आपका एक रंगीन फोटो खिंचवाऊँगा। फिर क्या करेगा उसका? टाँगूँगा। कैसे टाँगेगा, उलटा या सीधा? महाराज जी! टाँगूँगा तो सीधा। बेटे, हमारा कहना मान, तो उलटा टाँग दे फोटो को। उलटा टाँग देगा, तो ज्यादा फायदा हो जाएगा। क्यों? क्योंकि तब गुरु जी की नाक में दम आएगी, तो जल्दी आशीर्वाद देंगे। तो यह मामला है? हाँ बेटे, घटिया लोगों का, छोटे लोगों का, हलके लोगों का यही मामला है। इनके लिए जितनी गाली दी जाए कम है। यह हमारे आपके सबके ऊपर लागू होती है। इसमें आदमी सिवाय चालाकी के, सिवाय माँगने के, सिवाय बड़ा आदमी बनने के, सिवाय ऐय्याशी के, सिवाय विलासिता के कुछ बाकी नहीं है।
बुद्ध ने दिखाया पथ
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जिंदा रखने के लिए बुद्ध ने जो कदम उठाए, उसने अपने-अपने मित्रों और शिष्यों से कहा कि आप आएँ और हमारे पीछे-पीछे चलें। किस तरह चलें? आप हमारी बात मानते हैं, तो हमारे रास्ते पर चलें और हमारा अनुकरण करें। क्या रास्ता है आपका? हमारा रास्ता है, त्याग और बलिदान का। किसने त्याग और बलिदान के रास्ते पर कदम बढ़ाए? एक लाख शिष्य और सवा लाख शिष्याओं ने। उन सारे-के-सारे लोगों ने कहा कि हम आपके रास्ते पर चलेंगे। आपने जिस काम के लिए अवतार लिया है, उस काम में हम आपका सहयोग करेंगे और सहायता करेंगे। दो लाख आदमियों को लेकर बुद्ध ने न केवल हिंदुस्तान, वरन् समूचे एशिया, न केवल एशिया, वरन् सारे-के-सारे महाद्वीपों में दैवीय सभ्यता का प्रसार किया। उस जमाने में सात महाद्वीप माने जाते थे। अब तो हमने पाँच कर लिए हैं। सारे महाद्वीपों में उन लोगों ने न जाने क्या-से-क्या काम करने शुरू कर दिए, जिससे वे जगद्गुरु कहलाने के अधिकारी हुए।
यह क्या किया बुद्ध ने? बेटे, बुद्ध ने यही किया। दैवीय सभ्यता का प्रसार इसी से हुआ है। तो क्या बुद्ध ने बड़े व्याख्यान दिए थे? हाँ बेटे, बुद्ध ने बड़े व्याख्यान दिए थे, लेकिन व्याख्यान देने के साथ-साथ में उसके नमूने भी पेश किए गए थे। क्या नमूना पेश किया? उनका बेटा राहुल आया और बोला, पिताजी! हम आपके अंश-वंश से पैदा हुए हैं। हाँ बेटे, तुम हमारे अंश-वंश से पैदा हुए हो, तो तुम्हें हमारी वंश-परंपरा की रक्षा करनी चाहिए। वंश-परंपरा की रक्षा कैसे होती है? पंडित जी से पूछा, तो वे बोले, बस जौ का पिंड बना लो और उस पर धूप-दीप, फूल लगा दो और 'तर्पयामिÓ करके पिंड को गंगा जी में चढ़ा दो। बस, वंश का उद्धार हो जाएगा। तो क्या पिताजी। ऐसे उद्धार होगा? नहीं बेटे, ऐसे उद्धार नहीं होगा। कैसे होगा? जिस रास्ते पर हम चले हैं, उस रास्ते पर तू भी चल।
बेटा वह, जो पिता के रास्ते पर चले
राहुल ने कहा, अच्छा पिता जी! कोई और रास्ता बताइए? बुद्ध ने कहा, नहीं बेटे, हम जिस रास्ते पर चले हैं, उससे अच्छा कोई रास्ता नहीं हो सकता है। अगर रहा होता, तो हम भी उस पर चल दिए होते। यही सबसे अच्छा रास्ता है। तुझे यही करना पड़ेगा। अगर तू हमारा बेटा है और यह कहता है कि हम आपका वंश चलाएँगे, तो हमारे रास्ते पर चल। राहुल तैयार हो गया। वह सारी जिंदगी भर अपने पिता के कदमों पर चलता रहा और न जाने कहाँ-से-कहाँ चला गया। वह वर्मा गया। सारे-के-सारे विश्व में एक सिरे से दूसरे सिरे तक भटकता फिरा और अपने पिता के कामों का और उत्तरादायित्वों का निर्वाह करने के लिए त्याग-बलिदान की झड़ी लगाता रहा।
मित्रो! बेटा कैसा होना चाहिए? राहुल की तरह से होना चाहिए। बेटा ऐसा नहीं होना चाहिए कि बाप मरेगा, तो उसकी जायदाद हमको मिलनी चाहिए और जो खेत है, वह हमको मिलना चाहिए। बाप का पैसा हमको मिलना चाहिए। बाप जिंदा है, तो हिस्सा मिलना चाहिए। नहीं, ऐसे बेटे नहीं हो सकते। नहीं, महाराज जी! बेटे ऐसे ही होते हैं। बाप के पास इक्कीस बीघे जमीन है। बाप को मरने में अभी देर है। बेटा कहता है कि हमारा हिस्सा अभी दे दो। हम मरेंगे तब देंगे। नहीं, मरने का इंतजार हम नहीं करेंगे, अभी दे दो। यह कौन है? क्या बेटे ऐसे ही होते हैं? नहीं, ऐसे नहीं होते बेटे। श्रवणकुमार के तरीके से बेेटे होते हैं और राहुल के तरीके से बेटे होते हैं और बेटियाँ कैसी होती हैं? बेटियाँ संघमित्रा के तरीके से होती हैं। संघमित्रा सम्राटï् अशोक की बेटी थी। उसने कहा, पिताजी आपने संन्यास ले लिया? हाँ। तो फिर हमारे लिए हुक्म दीजिए कि हमको क्या करना चाहिए।
मित्रो! संघमित्रा जो थी, उसने कहा, पिताजी क्या करना पड़ेगा? बेटी, हमारे रास्ते पर चलना पड़ेगा। सम्राट् अशोक की बेटी संघमित्रा निकल पड़ी और उसने जितने बुद्ध ने विहार बनाए थे, उससे ज्यादा विहार बनाकर दिखा दिए। महिलाओं के क्रियाकलाप, महिलाओं के संगठन, महिलाओं के विहार संघमित्रा ने ढेर सारे बना दिए। यह सब हमारी किताब में वर्णन किया गया है; उसका मैं हवाला दे रहा था। कितने ज्यादा बुद्ध के विहार थे और कितने महिलाओं के लिए? यह कैसे हो गया? बेटे, इस तरीके की परंपराओं से हो गया। कहाँ-से-कहाँ तक हुआ? बेटे, जहाँ कहीं भी अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने की जरूरत पड़ी होगी अथवा धर्म की स्थापना करने की जरूरत पड़ी होगी और जब ठोस कदम उठाने की जरूरत पड़ी होगी, तब जैसे कि आज है। पोला कदम जब तक उठाना है, तब तक तो मीटिंग करेंगे, वार्षिकोत्सव करेंगे, रामायण सम्मेलन करेंगे। ठीक है बेटे, ये पोला कदम हो सकता है, पर यह ठोस कदम नहीं हो सकता। ठोस कदम यह हो सकता है कि हमें लोगों के, जनसाधारण के सामने त्याग और बलिदान की परंपराएँ प्रस्तुत करनी चाहिए, ताकि लोगों का मुँह यह कहने के लिए बंद हो जाए कि ये कहने-सुनने की बातें हैं। ये दूसरों को उपदेश देने की बातें हैं। ये बातें काम नहीं आ सकतीं और कोई आदमी इन्हें जीवन में करके नहीं दिखा सकता। दूसरों को कह सकता है कि आपको त्यागी होना चाहिए, ब्रह्मïचारी रहना चाहिए, परोपकारी होना चाहिए। आप और हम कह सकते हैं, लेकिन जब स्वयं करने का मौका आएगा, तब हम नहीं कर सकते। यही कारण है कि वक्ताओं का, उपदेशकों का कहीं कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता।
आप नमूना बनिए
मित्रो! चिंता करने की कोई बात नहीं है। आप अपने से ही शुरुआत कीजिए, नमूना बनिए, साँचा बनिए। हमारी परंपरा स्वयं से शुरुआत करने की रही है। जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, अपने से ही शुरुआत देखते हैं। विश्वामित्र और हरिश्चंद्र दोनों आपस में घनिष्ठï थे। इतने घनिष्ठï थे कि गुरु-शिष्य का प्रेम, जो राजा विश्वामित्र में था और किसी में नहीं देखा गया। विश्वामित्र एक बड़ा काम करने वाले थे नई दुनिया बनाने वाले थे। जब हम पढ़ते हैं, तो उसमें नई सृष्टिï लिखा हुआ है। वे नई सृष्टिï बना रहे थे। मैं समझता हूँ—नई सृष्टिï तो क्या बना रहे होंगे, लेकिन नया जमाना ला रहे होंगे। विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से कहा, तू हमारा मित्र है, दोस्त है? उनने कहा, हाँ। तो फिर हमारे साथ-साथ चल, हमारे काम आ। राजा हरिश्चंद्र ने कहा, हम आपके साथ-साथ चलेंगे और आपके काम आएँगे, तो फिर काम आ, चल हमारे साथ।
मित्रो! विश्वामित्र को पैसे की जरूरत पड़ी होगी, तो उन्होंने हरिश्चंद्र का राज्य माँगा होगा, दूसरी चीजें माँगी होंगी और आखिर में जहाँ मौका आ गया होगा, तो भौतिक साधनों के लिए राजा हरिश्चंद्र ने अपने आपको नीलाम कर दिया होगा। अपनी बीबी-बच्चों को नीलाम कर दिया होगा। यह क्या चीज है? त्याग और बलिदान है। इसको हम भूल नहीं सकते। क्यों विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को ही दोस्त बनाया? इससे कम में काम नहीं चल सकता था? अभी भी हजारों गाँधियों को पैदा करने की ताकत हरिश्चंद्र में है। गाँधी जी ने बचपन में हरिश्चंद्र का ड्रामा देखा और ड्रामा देखकर उन्होंने कहा, मैं हरिश्चंद्र होकर जिऊँगा। वे वास्तव में हरिश्चंद्र होकर के जिए। हरिश्चंद्र ने एक हरिश्चंद्र तो अभी-अभी पैदा किया है—हमारे सामने और असंख्य हरिश्चंद्र जाने कितने पैदा कर गए। कैसे हो गए? बेटे और कोई तरीका नहीं है अपने आपको त्याग की बलिवेदी पर समर्पित करने के अलावा। अगर हमारे व्यक्तिगत जीवन में लोकहित के लिए, परमार्थ के लिए कहीं त्याग की परंपरा नहीं है, तो फिर कहने भर की बातें हैं, बरगलाने भर की बातें हैं और आपको छलने एवं जनता को बरगलाने की बातें हैं। नया युग लाने के लिए, तो हमें फिर वहीं से आरंभ करना होगा, जहाँ हमारे ऊपर यह बात लागू होती है कि त्याग और बलिदान का प्रश्र आए, तो हम कहाँ होते हैं? बगलें झाँकते हैं या आगे बढ़ चढ़कर लग जाते हैं।
सबसे पहले स्वयं
मित्रो! हमारी संस्कृति में त्याग-बलिदान की परंपराएँ आदि काल से रही हैं, चाहे बुद्ध हो या हरिश्चंद्र, कोई भी रहा हो। त्याग-बलिदान की परंपराएँ गाँधी जी के आश्रम में जब 'नमक सत्याग्रहÓ शुरु हुआ, तो लोगों ने कहा कि आप चुपचाप बैठे रहिए और लोगों को हुक्म दीजिए। सब लोग जेल जा सकते हैं, नमक बना सकते हैं। आप शांति से बैठे रहिए, बाकी लोग ये सब काम करेंगे। गाँधी जी ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता। जो लोग साबरमती आश्रम में रहते हैं, उन आश्रमवासियों का सबसे पहला नंबर है, बाकी लोगों का पीछे नंबर है। उन्होंने सबसे पहले अपना नाम लिखाया। गाँधी जी के आश्रम में जो उन्नीस आदमी थे, उनको लेकर और आश्रम में ताला डालकर गाँधीजी अपने साथियों को लेकर नमक बनाने के लिए रवाना हो गए और वहाँ से जेल चले गए। उनके जेल जाने के बाद जो आग फैली, तो गाँधी जी के बच्चे, जनसेवक सभी ने कहा कि हमें भी जेल जाना चाहिए। यह प्रभाव व्याख्यानों का था? नहीं, त्याग के लिए गाँधी जी का स्वयं को प्रस्तुत करने का था। बिना कोई व्याख्यान दिए, बिना कोई कथा कहे, बिना कोई प्रवचन दिए, बिना कोई सम्मेलन बुलाए कितने सारे आदमी जेल चले गए। गाँधी जी के उस साहस को, त्याग को देखकर लोगों ने समझ लिया कि इस आदमी की कथनी और करनी के बारे में दो राय नहीं हैं। इसकी कथनी और करनी एक है।
सिख धर्म भी इसी का साक्षी
मित्रो! यही परंपरा बनी रही है और बनी रहेगी। सारे का सारा इतिहास, पुराणों का इतिहास, धर्म-शास्त्रों का इतिहास, अमुक का इतिहास जब हम देखते हैं, तो दूसरा कोई तरीका दिखाई नहीं पड़ता। यवनों के विरुद्ध जब सिख धर्म बनाया गया और इस बात की जरूरत पड़ी कि लोगों को हिंदू धर्म की रक्षा के लिए सिपाहियों के तरीके से, सैनिकों के तरीके से तनकर खड़ा हो जाना चाहिए और अपनी जान को जोखिम में डालना चाहिए। यह बहादुरी जब गुरुगोविंद सिंह पैदा करने वाले थे, तब उन्होंने लोगों से पूछा कि इसका कौन-सा तरीका हो सकता है? लोगों में बहादुरी कैसे भरी जा सकती है? अगर यह उपदेश से हो जाए कि उससे सब लोग सूली पर चढ़ जाएँ, सब मारे जाएँ और हम सुरक्षित बैठे रहेंगे, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुगोविंद सिंह ने कहा, ''पहला नंबर हमारा है।ÓÓ उन्होंने जान-बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कीं, ताकि लोगों में जोश और जीवन पैदा हो सके।
मित्रो! गुरुगोविंद सिंह के दो बच्चे दीवार में चिनवा दिए गए। दो बच्चे युद्ध में थे। एक बच्चा लड़ाई के मैदान में जब मारा गया, तो दूसरा बच्चा, जो उसके साथ-साथ लड़ रहा था, भागकर आया और अपने पिताजी को खबर सुनाई कि हमारे भाईसाहब तो लड़ाई में मारे गए। गुरुगोविंद सिंह ने कहा, मारे गए, तो बेटा फिर तू कैसे आ गया? उस वक्त बच्चे से जवाब नहीं बन पड़ा। वह बेचारा समझ नहीं सका कि पिताजी का क्या इशारा है? पिताजी का यह इशारा था कि एक भाई लड़ाई के मैदान में मारा गया, तुझे भी वही करना चाहिए था। वह इशारा समझ गया, लेकिन उनके आगे जवाब क्या दे सकता था। उसने कहा, पिताजी! मुझे प्यास लगी थी। पानी पीने के लिए और आपको खबर सुनाने एवं सुस्ताने के लिए मैं आया था। ठीक है बेटा! जितनी देर सुस्ताना था सुस्ता लिया। हाँ और देख प्यासा है, तो बेटे बैरी के खून से अपनी प्यास बुझाना। चल यहाँ से और उसे भगा दिया।
मित्रो! वह चलता हुआ चला गया। मैं यह क्या कह रहा हूँ। ये अध्यात्म की बातें कह रहा हूँ, देव-परंपराओं की बातें कह रहा हूँ और ये बात कह रहा हूँ कि अगर दुनिया में कोई बड़े काम हुए हैं या बड़े काम हो सकते हैं, तो इससे कम में नहीं हो सकते और न इससे अधिक में हो सकते हैं। आज की बात समाप्त
ॐ शांति: शांति: शांति:
हमारा कुटुम्ब, तब और अब
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
तमाशों से उबरें, सच्चा अध्यात्म जानें
भाइयो! अपना ये कुटुंब हमने बहुत दिनों पहले बनाया था। उस समय हमारे पास बच्चे-ही-बच्चे थे। बच्चों के बारे में जो नीति अख्तियार करनी चाहिए, वो ही नीति हमारी थी। बच्चों के लिए, उन्हें देने के लिए क्या हो सकता है? पिताजी गुब्बारा देना, टॉफी देना, लेमनचूस देना। पिताजी चाबी की रेलगाड़ी लाना। हम बरफ की कुल्फी खाएँगे, आदि सारी-की-सारी माँगें, फरमाइशें-डिमांड बच्चे करते रहते हैं। ये कौन हैं? बच्चे। अध्यात्म क्षेत्र में फरमाइश करने वाले ये कौन हैं? बिलकुल बच्चे हैं, बालक हैं। इनको इसी बात की फिक्र पड़ी रहती है कि हमको दीजिए, हमको दीजिए। इसलिए ये बालक हैं। बेटे, आज से तीस साल पहले हमने बिलकुल बालकों का समूह जमा किया था और लोगों से कहा था कि हमारे पास जो कुछ है, आप ले जाइए। तब लोगों ने कहा था, पिताजी! आपके पास क्या है? गुब्बारे हैं। तो हमको दे दीजिए। बस एक गुब्बारा पेटी से निकाला, फूँक मारकर हवा भर दी और कहा ये रहा तुम्हारा गुब्बारा। एक ने कहा, पिताजी! आप तो सबको वेटा देते हैं? हाँ वेटे, हमारी पेटी में बहुत-सी चीजें हैं। ये देख टॉफी है, ये लेमनचूस हैं। ये नौकरी में तरक्की है। ये दमे की बीमारी का इलाज है।
ये क्या है? ये बेटे सब तमाशे हैं, खेल-खिलौने हैं। ये सब बहुत दिनों पहले थे। हमारी दुकान बड़ी हो गई है और अब मैं आपसे दूसरे तरीके से उम्मीद करता हूँ। अब आप गुब्बारे माँगते हैं, तो मैं नाराज होता हूँ और आप से कहता हूँ कि अब आप तीस साल के हो गए हैं। आपको शर्म नहीं आती, जो गुब्बारे माँगने आए हैं। तो पिताजी! मुझे क्या करना चाहिए? बेटे अब हम बुड्ढïे हो गए हैं और तू कमाने लगा है। तुझे साढ़े छह सौ रुपये मिलते हैं। देख, हम ये फटा हुआ पाजामा पहनते हैं, हमारे लिए नया पाजामा ला दे और देख हम बुड्ढïे हो गए हैं और हमको कम दिखाई पड़ता है। डॉक्टर ने कहा है कि आँखों को टेस्ट कराना और चश्मा खरीद देना। डॉक्टर ने बताया था कि अ_ïाईस रुपये का चश्मा आएगा। बेटे, निकाल अ_ïाईस रुपये का चश्मा। बेटे, निकाल अ_ïाईस और हमारी आँखों का टेस्ट कराकर ला। चश्मा खरीदकर ला। अरे! पिताजी, आपने तो 'टर्नÓ ही बदल दिया। हाँ बेटे, बदल दिया। पहले हम गुब्बारे दिया करते थे, अब हम चश्मे के लिए पैसे माँगते हैं। ये क्या बात हो गई? ये तो बिलकुल उलटा हो गया। हाँ बेटे हमारा ही क्या उलटा हो गया, तेरा भी उलटा हो गया। जब तू गोदी में था, तब नंगा फिरता था और अब तो तू कच्छा भी पहनता है, पैंट भी पहनता है। तूने बदल दिया कि नहीं? हाँ महाराज जी! मैंने तो बदल दिया। बेटे बदल गया, तो हम भी बदल गए।
मित्रो! अब हमारा कुटुंब जवान हो गया है। हम जवान आदमियों से अपेक्षा करते हैं देने की। अब हम माँगने की अपेक्षा करते हैं और हमारा हक है कि हम आपसे माँगें। अब आपसे माँगा गया है और माँगना चाहिए। जहाँ कहीं भी वास्तविकता का उदय हुआ है, जहाँ कहीं भी जवानी आई है, जहाँ कहीं भी प्रौढ़ता आई है, जहाँ कहीं भी विवेकशीलता आई है, वहीं परंपरा पलट जाती है। अब हम आपसे लेने की परंपरा आरंभ करते हैं, क्योंकि आप अब जवान हो गए हैं। खासतौर से इस जमाने में, जिसमें हम और आप जिंदा हैं। यह जीवनभर का सवाल है। आज मनुष्य जाति जहाँ चली जा रही है, आदमी का चिंतन जिस गहराई के गड्ढïे में धँसता हुआ चला जा रहा है, ये ठीक वही परंपराएँ हैं, जो कि रावण के जमाने में आई थीं। इसमें वह मनुष्यों को मारकर हड्डिïयों का ढेर लगा देता था। आज हड्डिïयों के ढेर, तो नहीं लगाए जाते, पर हम हड्डिïयों के ढेर को चलते-फिरते आदमियों के रूप में देख सकते हैं। हड्डिïयाँ जो जिंदा तो हैं, पर जिनको चूस लिया गया है। मैं समझता हूँ कि प्राचीनकाल में ज्यादा भले आदमी थे और शरीफ आदमी थे। कौन से आदमी? वे जो मारकर डाल देते थे, उनको मैं ज्यादा पसंद करता हूँ, क्योंकि तब आदमी को मारकर खत्म कर देते थे, लेकिन आज का तरीका बहुत गंदा है। आज तो आप रुला-रुलाकर मारते हैं, टोंच-टोंचकर मारते हैं, तरसा-तरसाकर मारते हैं। ये गंदा तरीका है। रावण के जमाने में तब भी अच्छा तरीका था, सीधे खत्म कर देने का।
आज की विडंबना
मित्रो! आज हम क्या करते हैं? आज हम अपनी स्वार्थपरता के कारण हर एक को चूसते हैं। किसको चूसते हैं? जो कोई भी हमारे पास आता है, हम उसको चूस जाते हैं, उसे जिंदा नहीं छोडऩा चाहते, केवल उसकी हड्डिïयाँ रह जाती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे हमारी बीबी। हमने अपनी बीबी को चूस लिया है। अब वह हड्डïी का ढाँचा मात्र है। कैसे हुआ? बेटे, जब वह अपने बाप के घर से यहाँ आई थी, तो यह उम्मीद लेकर आई थी कि हमारा स्वास्थ्य अच्छा बनाया जाएगा। हमको पढ़ाया जाएगा। शिक्षित किया जाएगा और यह उम्मीद लेकर आई थी कि बाप हमको जितना स्नेह देता है, जितनी सुविधा हमें देता है, हमारा पति और भी अधिक प्यार और सुविधा देगा। लेकिन हमने उसको चूस लिया। हर साल बच्चे पैदा किए। कामवासना-पूर्ति की वजह से हमने उसके पेट में से पाँच बच्चे निकाल दिए। पाँच बेटियाँ हो गईं, अभी एक बेटा और होना चाहिए। अब वह बेचारी लाश रह गई है। बार-बार हमारे पास आती रहती है और कहती रहती है कि हमारे पेट में दरद होता है, कमर में दरद होता है और हमारे सिर में दरद होता है। मैं कहता हूँ कि बेटी तू जिंदा है, भगवान् को बहुत धन्यवाद दे कि ये पिशाच तुझे अभी तक जिंदा छोड़े हुए हैं। इसका बस चले, तो तुझे खाकर तेरी जिंदगी खत्म कर दे,चांडाल कहीं का। इसे तो अभी और बच्चे चाहिए।
मित्रो! उस बेचारी के पास न मांस है, न रक्त है शरीर में और न उसके पास जान है। उसके पास कुछ भी नहीं है। न जाने किस तरीके से साँस ले रही है और कैसे दिन बिता रही है। नहीं साहब! मेरा तो वंश चलना चाहिए। इस राक्षस का, दुष्टï का वंश चलना चाहिए? ये क्या है? ये बेटे, कसाईपन है। आज हर आदमी कसाई होता हुआ चला जा रहा है। आज हम देखते हैं कि न हमको अपनी बीबी के प्रति दया है, न अपने माँ-बाप के प्रति दया है, न अपने बच्चों के प्रति दया है। रोज बच्चे पैदा कर लेते हैं। इस बात की लिहाज-शर्म नहीं है कि आखिर इनको पढ़ाएगा कौन? शिक्षा के लिए पैसा कहाँ से आएगा? इनको खेलने के लिए रेल कहाँ से आएगी? हमको तो बस काम-वासना से प्यार है। हम तो चौरासी बच्चे पैदा करेंगे। आज आदमी चांडाल होता हुआ चला जा रहा है।
मित्रो! आज हमें किसी के ऊपर दया नहीं है। हमारे पास कहीं भी धर्म नहीं है। हमारे पास कहीं भी ईमान नहीं है। आज आदमी इतना खुदगर्ज होता हुआ चला जा रहा है कि मुझको ये मालूम पड़ता है कि हमारी खुदगर्जी का पेट इतना बढ़ता हुआ चला जा रहा है कि इंसानों से हमारा गुजारा नहीं हो सकता। अब जो कोई भी सामने आएगा, हम उसको अपनी खुदगर्जी का शिकार बनाएँगे। किसको बनाएँगे? देवी-देवताओं में से जो भी हमारे चक्कर में फँसेगा, हम उसको खत्म करके रहेंगे। संतोषी माता हमारे चक्कर में आ जाएँगी, तो उनको बदनाम करके रहेंगे। हम उन्हें दो बकरे खिलाएँगे और ये कहेंगे कि हमको डकैती में फायदा करा दो। हम उसको बदनाम कराकर रहेंगे। हर एक को हम बदनाम कराएँगे। जो कोई भी हमारा गुरु होगा, हम उसको बदनाम कराकर रहेंगे। हम कहेंगे कि हमारा गुरु ऐसा है, जिसको न इंसाफ की जरूरत है, न उचित-अनुचित की जरूरत है। जो कोई भी हाथ जोड़ता है, जो कोई भी सवा रुपये देता है, उसी की मनोकामना पूरी कर देता है।
दुर्मतिजन्य दुर्गति से हुआ आदमी का अवमूल्यन
बेटे, हम कहाँ जा रहे हैं और न जाने क्या हो रहा है? हम जिस जमाने में रह रहे हैं, उसमें आदमी न जाने क्या होने जा रहा है? अगर आदमी इसी तरीके से बना रहा, तो उसका परिणाम क्या होगा? अभी जितनी ज्यादा मुसीबतें आई हैं, आगे उससे भी ज्यादा आएँगी। इससे तो अच्छा होता अगर युद्ध हो जाता और दुनिया खत्म हो जाती, लेकिन हमारी स्वार्थपरता जिंदा रही और आज हम पर हावी होती चली जा रही है। आदमी, जैसा निष्ठïुर, जैसा नीच, जैसा स्वार्थी होता हुआ चला जा रहा है, अगर यही क्रम जारी रहा, तो मैं आपसे कहे देता हूँ कि आदमी-आदमी को मार करके खाएगा। पकाकर खाएगा कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन आदमी-आदमी से डरने लगेगा। अभी तक हमको भूत का डार लगता था, साँप का डर लगता था, चोरों का डर लगता था, लेकिन अब हमको मनुष्यों का डर लगेगा। इतना तो अभी ही हो गया है कि आदमी की कीमत उसके बिस्तर से कम हो गई है। आज आप बिस्तर लेकर धर्मशाला में जाते हैं, तो धर्मशाला वाला कहता है, आइए साहब! कमरा खाली है, लेकिन अगर आपके पास बिस्तर नहीं है, अटैची नहीं है और आप एक थैला लेकर जाते हैं और कहते हैं कि साहब! धर्मशाला में ठहरने की जगह है कि नहीं? धर्मशाला वाला कहता है कि आपके साथ और कौन-कौन हैं? आपका सामान कहाँ है?
अरे भाई! गरमी के दिन हैं, सामान की क्या जरूरत है? अरे साहब! आजकल बड़ी भीड़ है। सारी जगह भरी हुई है। कहीं जगह नहीं है। आप ऐसा कीजिए, चौथे नंबर की धर्मशाला है, वहाँ चले जाइए। वहाँ जाते हैं, तो वह कहता है कि अरे साहब! आप अब आए हैं? आपसे पहले पच्चीस आदमियों को मना कर दिया है कि यहाँ जगह नहीं है। ऐसा क्यों होता है? क्यों मना करते हैं? यह आदमी का मूल्य, आदमी की प्रामाणिकता, आदमी की इज्जत को बताता है कि आदमी की कीमत से धर्मशाला के बिस्तर की कीमत ज्यादा है। आज आदमी का मूल्य इतना गिर गया है। कल आदमी और भी भयंकर होने वाला है।
मित्रो! आदमी जब कल और भयंकर हो जाएगा, तब वह भूत बन जाएगा, पिशाच बन जाएगा। तब आदमी को देखकर आदमी भागेगा और कहेगा, ''आदमी आ गया चलो भागो यहाँ से। वह देखो आदमी खड़ा है।ÓÓ कल यही परिस्थितियाँ पैदा होने वाली हैं। यह हमारे मन का घिनौनापन है। अभी हमारे ऊपर स्वार्थ छाया हुआ है। हम समाज के किसी काम में भाग लेना नहीं चाहते। हम समाज के लिए कोई सेवा करना चाहते हैं, तो पहले यह देखते हैं कि सेवा के बहाने हमारा उल्लू सीधा होगा कि नहीं होगा। हमारा उल्लू सीधा होता है, तो बेटे हम संस्था में जाते हैं, कमेटी में जाते हैं, प्रेसीडेंट बनते हैं, मीटिंग में जाते हैं, अगर उल्लू सीधा नहीं होता है, तो कहते हैं कि समाज के जीवन से हमारा कोई लगाव नहीं है, कोई संबंध नहीं है।
मित्रो! लोकहित के लिए हमारे मन खाली होते चले गए। उदारता हमारे मन में से निकलती चली जा रही है और निष्ठïुरता हमारे रोम-रोम में घुसती चली जा रही है। परिणाम क्या होगा? आप देख लेना, इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा। कलियुग के बारे में पुस्तकों में जो बताया गया है, उसको मैं सही मानता हूँ। आदमी का चिंतन जैसा और जितना घटिया होगा, मुसीबतें उसी हिसाब से आएँगी। आज भगवान् की दी हुई मुसीबतें हमारे पास आती हुई चली जा रही हैं। बीमारियाँ हमारे पास बराबर बढ़ रही हैं। डॉक्टर बढ़ रहे हैं, अस्पताल बढ़ रहे हैं, लेकिन बीमारियों का दौर अभी और बढ़ेगा। डॉक्टर कितने बढ़ गए हैं, भगवान् करे डॉक्टर दोगुने-चौगुने हो जाएँ। लेकिन बीमारियों का क्या हो जाएगा? बीमारियाँ अच्छी नहीं हो सकतीं। बीमारियाँ सौ गुनी ज्यादा होंगी, हजार गुना ज्यादा होंगी। वे तब तक अच्छी नहीं हो सकतीं, जब तक आदमी आध्यात्मिकता के रास्ते पर लौटकर नहीं आएगा, तब तक आदमी का पिंड बीमारियों से नहीं छूटेगा। और घर का नरक? बेटे घर का नरक भी दूर नहीं हो सकता।
अगले दिन और खराब होंगे
गुरुजी! हमारे घर का नरक तो दूर हो जाएगा। कैसे हो जाएगा? गुरुजी! हमने तो अपने चारों बच्चों को चार-चार सौ रुपया महीना देकर देहरादून के पब्लिक स्कूल में भेज दिया है। उससे क्या हो जाएगा? उससे गुरुजी! हमारे बच्चे ऐटीकेट सीखकर के आएँगे। ऐटीकेट क्या होता है? एटीकेट उसे कहते हैं, जब कोई आदमी आए और घर में पानी पीने को माँगे, तो उसको कहना चाहिए, ''थैंक यू वैरी मच।ÓÓ तो क्या इसी को एटीकेट कहते हैं? हाँ इसी को कहते हैं। हमने चार सौ रुपये महीने पर बोर्डिंग स्कूल में अपने बच्चे को दाखिल करा दिया है। वह क्रीज किया हुआ पैंट पहनेगा। हमारा लड़का अच्छा बनेगा। नहीं बेटे, तेरा लड़का अच्छा नहीं बन सकता, क्योंकि उसके भीतर, उसकी जीवात्मा में भाइयों के लिए, बहनों के लिए, माता-पिता के लिए जो प्रेम और सेवा की वृत्ति होनी चाहिए, वह कहाँ से आएगी? बेटे, हमको ये मालूम पड़ता है कि अगले दिन बहुत बुरे आने वाले हैं। अगले दिनों युद्ध के दौर भी आ सकते हैं। बीमारियों के दौर भी आ सकते हैं। टेंशन बढ़ता हुआ चला जा रहा है। क्यों महाराज जी! सबको टेंशन हो जाएगा? शायद सबको हो जाए। अमेरिका में तो छाप भी दिया गया है कि सिगरेट पीजिए, टेंशन बुलाइए। सिगरेट पीजिए, कैंसर बुलाइए। तो क्या सबको टेंशन हो जाएगा? हाँ। अगर टेंशन न हुआ, तो और बीमारी हो जाएगी। डायबिटीज हो जाएगी। नींद न आने की शिकायत हो जाएगी। पेप्टिक अल्सर हो जाएगा और बहुत-सी बीमारियाँ हैं, जो आदमी को धर दबोचेंगी।
ये कैसे हो जाएँगी? मित्रो! आदमी की जो घटियाँ वृत्तियाँ हैं, वे न केवल आदमी के शरीर को, वरन् उसके ईमान को और अंत:करण को गलाती और जलाती चली जाएँगी। घर नरक बनते चलते जाएँगे। नहीं साहब! हमारे बेटे की बहू तो एम.ए. पास है। तो बेटे, तेरे घर में जल्दी नरक आएगा। हमारे बेटे की बहू तो इंटर पास है। तो तेरे घर में थोड़ी देर भी हो सकती है। अरे साहब! हमारी औरत तो बिना पढ़ी-लिखी है। तो तेरे घर और भी कुछ ज्यादा दिन तक शांति रह सकती है। लेकिन अगर मेरी बहू एम.ए. पास है, तो बेटे, तेरे घर में नरक जल्दी आएगा, तू देख लेना।
मित्रो! ऐसा क्यों होता चला जा रहा है? शिक्षा की दृष्टिï से, धन की दृष्टिï से, अमुक की दृष्टिï से, सब तरह से आदमी संपन्न होता चला जा रहा है, लेकिन ईमान की दृष्टिï से, अंतरंग की दृष्टिï से इतना खोखला होता चला जा रहा है कि उसके ऊपर मुसीबतें आएँगी। नेचर हमारे ऊपर मुसीबतें पटक देगी। वह हमें क्षमा करने वाली नहीं है। हमारे शरीर का स्वास्थ्य सुरक्षित रहने वाला नहीं है। हमको किसी से प्यार-मोहब्बत रहने वाली नहीं है। हम मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके से अब जिंदा रहने वाले हैं। मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके में एक ही बात होती है कि न तो कोई उसका होता है और न वह किसी का होता है। प्रेत-पिशाचों में क्या फर्क होता है? बेटे, एक ही होता है, हर भूत के मन की ये बनावट होती है कि न वह किसी का और न कोई उसका। तो महाराज जी! आपने देखे हैं कि भूत कैसे होते हैं? हाँ, हमने देखे हैं और आपको भी दिखा सकते हैं।
चलते-फिरते प्रेत-पिशाच
ये भूत आपको कहाँ मिलेंगे? मित्रो! आप पाश्चात्य देशों में चले जाइए। वहाँ आपको प्रेत मिलेंगे, पिशाच मिलेंगे। कैसे? जो अशांत-ही-अशांत हैं। पैसा जिनके पास अंधाधुंध है, लक्जरी जिनके पास बहुत सारी है, टेलीविजन है, पीने को फलों का जूस है, लेकिन वे इतने अधिक अशांत हैं, टेंशन में हैं कि प्रेत-पिशाचों से कम नहीं हैं। न कोई उनका और न वे किसी का। न बीबी उसकी, न भैया उसका। दोनों-के-दोनों वेश्या और भडुवे हैं। जब तक दोनों आते हैं, तब तक तमाशा दिखाते हैं और जब मन भर जाता है, तो एक-दूसरे को लात मारकर भगा देते हैं। हम ये किसकी बात कह रहे हैं? बेटे, इसी को पिशाच कहते हैं। पाश्चात्य देशों में यही होता है।
मित्रो! इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणाम यह होगा कि हमारा अंतरंग खोखला होता चला जाएगा। पैसा बढ़ेगा, तो हम क्या कर सकते हैं? शिक्षा बढ़ेगी, सभ्यता बढ़ेगी, तो हम क्या कर सकते हैं? दौलत बढ़ेगी, तो हम क्या कर सकते हैं। मित्रो! इससे आदमी के ऊपर मुसीबतें ही आएँगी। हम और आप जिस जमाने में रहते हैं, बेटे, हमारे प्राण निकलते हैं—उसे देखकर। जब हम भविष्य की ओर देखते हैं, विज्ञान की ओर देखते हैं, तब हमें खुशी होती है कि हमारे बाप-दादे कच्चे मकानों में रहते थे और हम पक्के में रहते हैं। हमारे बाप-दादों में से कोई पढ़ा-लिखा नहीं था और हम सब पढ़े-लिखे हैं। सुविधाओं को देखते हैं, तो हमारे पास टेलीफोन है और बहुत सारी चीजें हैं, लेकिन जब उनके साफ-सुथरे जीवन को, उज्ज्वल चरित्र को देखते हैं, तो उस दृष्टिï से हम किस कदर दिनों दिन घटते हुए चले जा रहे हैं, यह स्पष्टï दिखाई देता है।
विवेकानंद के पास रामकृष्ण परमहंस जाया करते थे और कहते थे कि बेटा! हमारा कितना काम हर्ज होता है? तू समझता नहीं है क्या? महाराज जी मैं बी.ए. करूँगा, एम.ए. करूँगा, नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्ज हो जाएगा और हम जिस काम के लिए आए हैं और तू जिस काम के लिए आया है, सो उसका क्या होगा? नहीं महाराज जी! देखा जाएगा, पहले तो मैं नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। एक दिन रामकृष्ण परमहंस रोने लगे। उन्होंने कहा, बेटे तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्ज होगा। मित्रो! विवेकानंद चले गए और रामकृष्ण ने उन्हें क्या-से-क्या बना दिया। कई आदमी कहते रहते हैं कि गुरुजी! हमको आशीर्वाद देकर आप विवेकानंद बना सकते हैं? बेटे, हम आपको बना सकते हैं। इसके लिए हम व्याकुल भी हैं और लालायित भी, लेकिन पहले तू कीमत तो चुका। नहीं, महाराज जी! कीमत तो नहीं चुकाऊँगा। आप तो आशीर्वाद दीजिए। बेटे, जो तू आशीर्वाद-ही-आशीर्वाद माँगता है, वह जीभ की नोंक से कह देने भर से आशीर्वाद नहीं हो जाता। उसे आशीर्वाद नहीं कहते। आशीर्वाद के लिए आदमी को अपना पुण्य देना पड़ता है, मनोयोग देना पड़ता है, तप देना पड़ता है, श्रम देना पड़ता है। नहीं, महाराज जी! जीभ हिला देते हैं, सो वही आशीर्वाद हो जाता है।
आशीर्वाद इतना सस्ता नहीं
बेटे, तू जीभ हिलाकर के आशीर्वाद माँगता है। मैं समझता हूँ—तू जीभ हिलाकर के ही राम के नाम को भी हजम करना चाहता है, मंत्र को हजम करना चाहता है। जीभ को हिलाकर और न जाने क्या-क्या काम कराना चाहता है। मंत्र जपने से देवता मिल सकते हैं, स्वर्ग मिल सकता है, तो फिर गुरुजी का आशीर्वाद क्यों नहीं मिल सकता? जीभ से सब चीजें मिल सकती हैं। हाँ, महाराज जी! जीभ की नोंक हिलाइए फिर देखिए, क्या करामात आती है। हाँ बेटे, जीभ की नोंक हिलाकर वहाँ चला जाना बैंक में और जीभ हिला देना-दीजिए दो हजार रुपये। देखें कहाँ से लाएगा जीभ हिलाकर। बेटे, तुझे सब जीभ-ही-जीभ दिखाई पड़ती है और कोई दूसरी चीज नहीं दिखाई पड़ती। गुरुजी का आशीर्वाद भी जीभ और हमारा भजन भी जीभ, सब जीभ-ही-जीभ। क्रिया की जरूरत ही नहीं पड़ेगी? हाँ गुरुजी! क्रिया की क्या जरूरत है। आप तो जीभ हिला दीजिए, बस हो जाएगा, आशीर्वाद। बेटे, ऐसा कोई आशीर्वाद नहीं है, न था और न कभी होगा।
युग की पुकार सुनिए
मित्रो! फिर क्या करना पड़ेगा? अब मैंने आपको इसलिए बुलाया है क हमको आपकी आवश्यकता आ पड़ी है। हम तीस साल से कुटुंब बनाकर रह रहे थे और तीस साल से आपको बुला रहे थे। अब हम आपसे पूछते हैं कि क्या आपके लिए ऐसा संभव है कि आप अपने जीवन में दैवी संपदा का खरच और सबूत दे पाएँ। क्या आपके लिए यह संभव है कि आप अपने जीवन में त्याग का, बलिदान का, परोपकार का और परमार्थ का कोई प्रमाण दे सकते हैं कि नहीं? मित्रो! अभी ये लड़कियाँ गा रही थीं और मेरे मन में भी लहर आ रही थी। वे गा रही थीं, जरूरत आ पड़ी है, ''काल की भी चाल मोड़ो तुम।ÓÓ ये समय ने पुकार की है, युग ने पुकार की है, धर्म ने पुकार की है, मानवी सभ्यता ने पुकार की है कि आपके पास कुछ है, तो आप दीजिए। गुरुजी हमारे पास नहीं है। ठीक है, जहाँ तक पैसे का सवाल है, मैं जानता हूँ कि आपके पास पैसा होता तो शायद आप मेरे पास न आते। मैं जानता हूँ आपकी गरीबी को और परेशानी को, पर इस गरीबी के बीच में भी मेरी ये आँखें चमकती हैं और एक चीज के बारे में दृष्टिï डालती हैं, तो पाती हैं कि अभी भी आपके पास मन है, आपके पास कलेजा है। आपके पास दिल है। अगर आप अपने मन, अपने हृदय और अपने श्रम की बूँदें लगा सकते हों, तो इस परीक्षा की घड़ी में आपका आना जीवन धन्य बनाने के लिए पर्याप्त है।
मित्रो! अब परीक्षा की घड़ी सामने आ गई है। इसको हमने पुर्नगठन योजना कहा है। इसके कितने पहलू हैं, पहले भी हमने इसके बारे में बताया था और फिर आज बताएँगे कि इसके क्या परिणाम आ सकते हैं। हम अपने जवान कुटुम्ब से क्या कराना चाहते थे और क्या करा सकते हैं? क्या संभावना है? हाँ, सौ फीसदी संभावना है। महाराज जी! आप तो ऐसे ही सपने देखते हैं। हाँ बेटे, हमने सपने ही देखे हैं और हमारे सपने पूरे होकर रहे हैं। हमने सपने देखे, जब गायत्री तपोभूमि नहीं बनी थी। जब हमारे पास मात्र छह हजार रुपये थे, तब हमने 'गायत्री तपोभूमिÓ का एक नक्शा छापा था—अखण्ड ज्योति पत्रिका में, तो लोगों ने कहा, क्यों साहब! आपने तो बड़ा लंबा-चौड़ा सपना छाप दिया। हाँ भाई ये सपना है। गायत्री तपोभूमि हम ऐसे ही बनाएँगे। महाराज जी! ये तो कितनों रुपयों की हो जाएगी? आपके पास इतने रुपये कहाँ हैं। देख बेटे, मेरे पास छह हजार रुपये हैं। इतने से नहीं बनेगी, तो छह लाख से बन जाएगी।
मित्रो! हमारा ख्वाब और हमारा सपना पूरा होकर के रहा। गायत्री तपोभूमि जो बनी है, वह उससे तीन-चार साल पहले छपे हुए गायत्री तपोभूमि के चित्र से हू-बहू मिलती हुई बनाई गई है हमारे सपने युग को बदलेंगे, नया जमाना लाएँगे। दैवीय सभ्यता और दैवीय संपदा की फिर से स्थापना करेंगे। हम असुरता को चैलेंज करेंगे। क्यों? क्योंकि हम मनुष्यता से प्यार करते हैं, क्योंकि हम मानवी भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, क्योंकि हमको अपनी नई पीढिय़ों के बारे में बड़ी उमंग है। हम अपनी नई पीढिय़ों को बहुत प्यार करते हैं। जिन मुसीबतों से हम गुजर रहे हैं, अपनी नई पीढिय़ों को गुजरवाना नहीं चाहते, क्योंकि हम बच्चों को बहुत प्यार करते हैं।
इसलिए मित्रो! हम नई सभ्यता लाने के लिए और नया युग लाने के लिए प्रयत्न करते हैं और उस प्रयत्न के लिए आपसे सहयोग माँगते हैं। पुर्नगठन योजना हमारे और आपके समय की परीक्षा की एक कसौटी है। इसमें हम आपका पी.एम.टी. के लिए इम्तिहान लेते हैं, क्योंकि अगले चरण में, जिनमें हमको ब्रह्मïवर्चस की स्थापना भी करानी है, अपने अनुदान भी देने हैं, आपके यश भी अजर-अमर बनाने हैं, आपकी जीवात्मा में शक्ति का संचार भी करना है। इसके लिए यह देखना है कि आप लोगों में से कुछ में जान है, जिसको 'दैवीय सभ्यताÓ कहते हैं, 'दैवीय संपदाÓ कहते हैं। उसमें त्याग-बलिदान की बात होती है। क्या उसके लिए आप कुछ कर पाएँगे?
दैवीय संपदा का विस्तार करें
साथियो! दैवीय सभ्यता जिसका अर्थ भजन करना नहीं होता, वरन् जीवन को दैवीय सभ्यता के अनुरूप ढाल लेना होता है। छोटे-से अनुदान के रूप में हर एक का हमने समय माँगा है। हमने जो कार्यक्रम बनाए हैं, सब एक उद्देश्य से बनाए हैं। वह सब इसलिए बनाए हैं कि हममें से कोई भी आदमी निष्क्रिय न रहने पाए। हर एक से कहा है कि अगर आपके अंदर निष्क्रियता है, तो उसे दूर कीजिए और अपने अंदर सक्रियता का विकास कीजिए। अपने युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को हम सक्रिय देखना चाहते हैं। किसके लिए? जो हमारा मिशन है, उसके लिए। गुरुजी! आपने किसको क्या-क्या सक्रियता सौंपी है? बेटे, हमने उन आदमियों के लिए भी, जो घोर व्यस्त हैं, कार्य सौंपा है। जिसके पास योग्यता है, उनको भी कार्य सौंपा है और कहा है कि आप इस विचारधारा को फैलाने में योगदान दीजिए, मदद कीजिए।
महाराज जी! हम आपकी मदद कैसे करें? बेटे, आपके पास जो हमारी रिसर्च है, जिसको आपने माना है, जो आप हमारी पत्रिकाएँ पढ़ते हैं, उनको आप पाँच आदमियों को पढ़ाइए। अगर आप पुस्तकालय नहीं चला सकते हैं, तो कोई बात नहीं, लेकिन आप एक पत्रिका को पाँच आदमियों को पढ़ा सकते हैं। इससे हमारा मिशन पाँच गुना अधिक दो महीने के भीतर हो जाएगा। इस तरह जितना हमने तीस साल में किया है, उतना आप एक साल में कर सकते हैं।
गुरुजी! और हम क्या कर सकते हैं? बेटे, कब से हमारे झोला पुस्तकालय चल रहे हैं, चल पुस्तकालय चल रहे हैं। इन्हें आप दो घंटे भी चला दिया करें, तो मजा आ जाए। दो घंटे का उदाहरण मैं अक्सर देता रहता हूँ। हमारे यहाँ सुलतानपुर के कई बच्चे आए हुए हैं। वहीं के एक वकील हैं—लखपत राय। वे अभी भी हैं, यद्यपि अब बुड्डïे हो गए, शरीर उतना काम नहीं करता। लेकिन अब से दस साल पहले उनका नियम था कि वे चल पुस्तकालाय की धकेलगाड़ी लेकर चल पड़े बाजार में, लीजिए साहब पुस्तक पढि़ए। लीजिए हमारे गुरुजी का साहित्य पढि़ए, युग निर्माण का साहित्य पढि़ए। जितने भी मुवक्किल थे, दुकानदार थे, सबको साहित्य देते हुए चले जाते थे। सारे-के-सारे सुलतानपुर में उन्होंने इस तरह रौब गाँठ दिया।
एक अकेले का पुरुषार्थ
एक बार मैं सुलतानपुर गया। पहले भी कई बार जा चुका था। लोग पाँच कुंडीय यज्ञ कराते थे, तब सौ-पचास आदमी इक_ïा हो जाते थे। मुझे याद है, एक-दो बार मेरे प्रवचन भी हुए थे। वकील साहब ने जब मुझसे कहा, गुरुजी! एक बार आप आ जाएँ, तो मजा आ जाए। मैंने कहा, क्या आएँगे आपके यहाँ, पाँच कुंडीय यज्ञ ही तो करते हैं? नहीं, गुरुजी! अबकी बार बड़ी जोर से करेंगे। कैसे करेंगे? सौ कुंड का यज्ञ करेंगे। मित्रो! यज्ञ करने का निर्धारण होने के बाद चलते समय मैंने उनसे कहा कि जाने से पहले गायत्री तपोभूमि के लिए कुछ पैसे छोड़ जाने का हमारा मन है। क्या आप कुछ पैसे इक_ïा करा सकते हैं? हाँ गुरुजी! हम करा देंगे। कितना? पच्चीस हजार का तो हमारा वायदा है, फिर आगे आपका भाग्य है।
मित्रो, उन्होंने क्या काम किया कि सारे शहर को हमारा साहित्य पढ़ा दिया और हर एक व्यक्ति से ये कहा, हमारे गुरुजी जिनका कि आपने साहित्य पढ़ा है, क्या आपको पसंद है? सबने एक स्वर से कहा कि अरे भाई! पढ़ा ही क्या, हम तो पगला गए हैं, उनके विचारों को पढ़कर। हम गुरुजी को बुलाकर लाएँ, तो आप उनके लिए कुछ खरच करेंगे क्या? उनको बुलाएँ, तो आप अपना कुछ समय हर्ज करेंगे क्या? हाँ साहब! खरच करेंगे। मित्रो! उन्होंने तीन-चार दिन का कार्यक्रम रखा था। जब मैं वहाँ गया, तो मैंने अचंभा देखा। देखा कि सुलतानपुर, जो कि छोटी-सी बस्ती है, छोटा-सा जिला है, वहाँ उन्होंने लगभग पचास हजार आदमियों के बैठने के लिए पांडाल बनाया था। मैं सोचता हूँ, उसमें एक लाख से कम आदमी नहीं थे। इतना बड़ा विशाल आयोजन देखकर मैं अचंभे में पड़ गया कि ये सुलतानपुर है या और कोई शहर है। इसकी तो आबादी ही इतनी है। दूर-दूर के देहातों से लोग आए थे।
मित्रो! मैं यह एक व्यक्ति की बात कह रहा हूँ कि एक अकेले आदमी ने क्या-क्या कर डाला। एक आदमी की सक्रियता का परिणाम ये हुआ कि उसने सारे सुलतानपुर को जगा दिया था। तीन-चार दिन यह चमत्कार मैंने देखा और जब विदा हुए, तो मैं समझता हूँ कि उन्होंने हमको यज्ञ में से बचाकर पैतीस-चालीस हजार रुपये दिए थे। यह मैं एक आदमी की करामात कहता हूँ, जिसमें उसके सहयोगी भी शामिल थे। उन्होंने भी सहयोग किया, पर मैं बात एक की कहता हूँ। आपसे पूछता हूँ कि आप क्या ये काम नहीं कर सकते? आप एक घंटा समय नहीं दे सकते? दो घंटे समय नहीं दे सकते? कलेजा है आप में? हृदय है आप में? हिम्मत है आप में? जीवन है आप में? निष्ठïा है आप में? श्रद्धा है आप में? अगर ये नहीं हैं, तो ये बहाने मत बनाइए कि शाखा बंद हो गई है। कोई आता नहीं है। सबमें लड़ाई हो गई है। सबमें फूट फैल गई है। गुरुजी! कोई सुनता नहीं है। कमेटी में कोई आता नहीं है। धूर्त, बेकार की बातें बकता है, वह नहीं करता, जो मैं कहता हूँ। कितनी बार एक ही बात को कहता है। मैं पूछता हूँ तू क्या करता है?
मिशन—नया युग-नया मानव का भविष्य
मित्रो! जब एक आदमी लडऩे के लिए खड़ा हो जाए, तो क्या कर सकता है, यह बात मैंने एक उदाहरण देकर बताई। ऐसे मैं ढेरों उदाहरण बता सकता हूँ आपको। एक आदमी सक्रिय हो गया, तो उसने सारे इलाके को सक्रिय कर दिया। आपसे मैं पूछता हूँ कि आपके अंदर अगर निष्ठïा है, तो क्या आप समय नहीं दे सकते मिशन के लिए? मिशन से मतलब 'नया युगÓ से है। मिशन से मतलब मानवी सभ्यता, मानवी भविष्य। इस पर आपकी आस्था है या कुछ भी नहीं है?नहीं, महाराज जी! हमारी तो बेटे पर आस्था है और पैसे पर आस्था है। तो बेटे, मैं तुझे बालक मानूँगा और ये कहूँगा कि अध्यात्म की किरणें तेरे पास नहीं आई। अध्यात्म की किरणें जब भी आई हैं, तो देवत्व को आसुरी सभ्यता खिलाफ खड़ा होना पड़ा है। हमारे अंदर जब गायत्री मंत्र आया, तो साथ में देवत्व भी आया। देवत्व और गायत्री मंत्र दोनों ने मिलकर के चमत्कार दिखाया। बेटे, तू तो गायत्री मंत्र लिए ही फिरता है, देवत्व कहाँ है तेरा? देवत्व तो है ही नहीं। केवल मंत्र-ही-मंत्र रटने चला है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? मैं चाहता हूँ कि हमारी परीक्षा की घड़ी में आप लोग साथ दें। पुनर्गठन योजना आपकी एक परीक्षा है, ब्रह्मïवर्चस के आधार पर और दूसरे आधारों पर यह आपकी परीक्षा है। हम अपने कुटुंब को कुछ और मजबूत बनाना चाहते हैं, सक्षम बनाना चाहते हैं, लेकिन हम क्या कर सकते हैं? आप चाहें, तो झोला पुस्तकालय के माध्यम से, चल पुस्तकालय के माध्यम से इसे अकेले ही चला सकते हैं। तीर्थ यात्राओं के माध्यम से, स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से अकेले ही चला सकते हैं। यह मैं एक व्यक्ति की बात कहता हूँ। अब हम नए किस्म के स्लाइड प्रोजेक्टर बनाने वाले हैं। अब कुछ ऐसी योजना बना रहे हैं, जिससे ये सब चीजें तीन सौ-साढ़े तीन सौ के भीतर ही तैयार हो जाएँ। आप तीन सौ रुपये खरच कीजिए और हर घर में हमारा सिनेमा दिखाइए।
मित्रो! यह मैं अकेले की बात कहता हूँ, 'एकला चलो रेÓ—'एकला चलो रेÓ की बात कहता हूँ। अकले चलकर भी आप जाने क्या-से-क्या कर सकते हैं। तीर्थयात्रा के लिए, साइकिल यात्रा के लिए, पदयात्रा के लिए आप निकल सकते हैं और एक-दो आदमी साथ ले सकते हैं। दीवारों पर सद्वाक्य लिखने का काम आप अकेले कर सकते हैं। अकेले के इस तरह ये इतने काम हैं, झोला पुस्तकालय, तीर्थयात्रा, दीवारों पर वाक्य-लेखन आदि। ये सब एक आदमी का काम है। इसे एक व्यक्ति अकेले ही कर सकता है। इसलिए अगर आप चाहें, अगर आपके अंदर जीवन हो, देवत्व की भावना उदय होती हो, तो आप इन सब चीजों को कर सकते हैं।
संगठित हों, इंजन बनें
यह तो हुई नंबर एक बात। नंबर दो—अगर आप अकेले नहीं कर सकते और आप में कोई संगठन की वृत्ति है, तो संगठन की वृत्ति के लिए आप हमारा हाथ बँटाइए और अपना थोड़ा समय दीजिए। टोली नायकों का काम स्थानीय है। आप उसमें सम्मिलित होकर के एक घंटा-दो घंटा समय लगा सकते हैं और आपको लगाना चाहिए। दस-दस आदमी की आप टोली बना लें और पचास पाठकों को इक_ïा कर लें, तो बेटे, ये साठ की मंडली होती है। साठ व्यक्तियों की मंडली बहुत बड़ी होती है। साठ डाकुओं ने सारे चंबल को हिलाकर रख दिया था। साठ आदमियों का संगठन अगर आपके पास है, तो आप गजब कर सकते हैं। अगर आपके पास जीवट है, तो साठ आदमी बहुत होते हैं। इंजन अगर जीवित हो, तो साठ डिब्बों की रेलगाड़ी जाने कहाँ-से-कहाँ जा सकती है। इंजन जिंदा हो तो, लेकिन अगर इंजन मरा हुआ हो तो बेटे हम नहीं जानते।
इसलिए मित्रो! टोली नायकों की दृष्टिï से आपको काम करना चाहिए। आप चाहें, तो समय दिए बिना अपने स्थानीय क्षेत्र में घर में रहकर एक काम यह भी कर सकते हैं कि आप जन्मदिन मनाने की परंपरा को जीवंत करने के लिए समय लगा सकते हैं। घर-घर में गोष्ठिïयाँ, घर-घर में सभा, घर-घर में सम्मेलन हर जन्मदिन के माध्यम से फिर से शुरू कर सकते हैं। शुरू के दिनों में दिक्कत मालूम पड़ेगी, फिर बाद में आप देखेंगे कि कितना ज्यादा लोग सहयोग देते हैं। आपको साथ-साथ सत्संग में सहयोग नहीं मिलता था, लेकिन अगर आप देखें, तो पाएँगे जन्मदिन के आधार पर जन्मदिन मनाते समय लोग कितना खुश होते हैं। उसमें व्यक्ति को अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने का मौका मिलता है, खुशी का मौका मिलता है। सब आदमी आशीर्वाद देते हैं, कोई फूल चढ़ाता है और कोई प्रणाम करता है। आज हमारा जन्मदिन है। हम अपना मुँह शीशे में देखते हैं, तो कितनी खुशी होती है। आप ये भी नहीं जानते? इसमें जनता के सहयोग का कितना लाभ भरा पड़ा है, क्या आप इसे नहीं जानते? अगर आप हकीकत में आएँ, तो आप इसे देख सकते हैं। हकीकत में नहीं आएँ, तब मैं नहीं कह सकता। अगर आप जन्मदिन मनाने की परंपरा को फिर से फैला सकें, तो आप देखेंगे कि ये मिशन, जिसमें देवत्व के पुनरुज्जीवन का संकल्प छिपा हुआ है, उसको जिंदा करने के लिए आप क्या कर सकते हैं।
वार्षिकोत्सव अनिवार्य
बेटे, एक और काम के लिए हमने आपसे कहा था कि अगले वर्ष हम और भी सामूहिक जोश उत्पन्न करेंगे, वार्षिकोत्सव के रूप में। अब यह नियम बना दिया गया है कि कोई भी शाखा ऐसी नहीं रहनी चाहिए, जिसका कि वार्षिकोत्सव न मनाया जाता हो। जो शाखा वार्षिकोत्सव नहीं मनाएगी, उसका हमारे रजिस्टर में से शाखा के नाम से नाम कट जाएगा। क्यों साहब! नाम कट जाएगा कि नाक कट जाएगी? चाहे जो समझ ले बेटा। तू अपने संबंध में समझ ले कि नाक कट गई और हम समझ लेंगे कि तेरा नाम कट गया। बात एक ही है।
मित्रो! हमने हर एक जीवंत शाखा के ऊपर यह वजन डाला है कि उसको वार्षिकोत्सव करना ही पड़ेगा और करना ही चाहिए। कम-से-कम कितने में यह कार्यक्रम हो सकता है? हमने छाप दिया है कि ढाई सौ से चार सौ रुपये तक में बहुत बढिय़ा यज्ञ हो सकता है, आयोजन हो सकता है। इसमें हजार आदमी भी आएँ, तो यज्ञ भी हो जाए और जुलूस भी निकल जाए, सब हो जाए। यह सब चार-पाँच सौ रुपये में हो सकता है। इतना पैसा गुरुजी! हम इक_ïा कर लेंगे। हाँ, बेटे! इतना इक_ïा करने में क्या लगता है। एक दिन की तनख्वाह निकालता हुआ चला जाए, तो एक साल में अकेले ही इतना खरच कर सकता है। बेटे, एक माह में तुझे कितने रुपये मिलते हैं। सात सौ रुपये मिलते हैं। तो एक दिन की तनख्वाह कितनी होगी? गुरुजी! इक्कीस-बाईस रुपये होती है। तो बाईस रुपया महीने के हिसाब से कितना हो गया? महाराज जी! ये तो कोई दो सौ साठ रुपये हो गए। बस बेटे, तू अकेला हो जा और हर महीने में एक दिन की तनख्वाह निकालता चल। अब साथ में दस व्यक्ति और ले ले। इसी से एक वार्षिकोत्सव पूरा हो जाएगा। नहीं, गुरुजी! इससे चंदा माँगूंगा, उससे माँगूंगा। अपने पास से कुछ देगा? अपने में से तो कुछ नहीं दूँगा। कंजूस कहीं का, पहले अपने पास से निकाल, तब चंदा माँगना।
मित्रो! क्या करना चाहिए? वार्षिकोत्सव में कहीं कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अगर आपके पास रोटी खाने के लिए आर्थिक तंगी नहीं है, सिगरेट पीने के लिए आर्थिक तंगी नहीं है, सिनेमा देखने के लिए आर्थिक तंगी नहीं है। हाँ, महाराज जी! इसके लिए तो तंगी नहीं है। बड़ा आया आर्थिक तंगी वाला। न उद्देश्य को समझता है, न धर्म को समझता है, न संस्कृति को समझता है और न देवत्व को समझता है। आर्थिक तंगी की रट लगाता है। मित्रो! चाहे तो यह सब एक आदमी अकेले ही कर सकता है।
हमारा एक ही लक्ष्य
मित्रो! हम चाहते हैं कि वार्षिकोत्सव हर जगह हो। उसके लिए हमको एक और दिक्कत पड़ेगी। हमने छाप दिया है कि हमारा प्रतिनिधि आएगा, रिप्रजेन्टेटिव आएगा। अब हमको वक्ता नहीं चाहिए। वक्ताओं से हमको घृणा होती चली जा रही है, क्योंकि वक्ता जीभ तो चलाते हैं, परंतु जीभ चलाकर जितना काम करना चाहिए, उससे चौगुना सफाया कर जाते हैं। अपना आचरण, अपना व्यवहार, अपना खान-पान, अपने रहन-सहन से ऐसी छाप डालकर आते हैं कि उसे देखकर लोग कहते हैं कि ऐसे वक्ता को गोली मारो। जो बक्-बक् करता है, उसका नाम वक्ता है। हमें ऐसा वक्ता अब नहीं चाहिए, जो बकता तो बहुत है, पर आचरण और व्यवहार में बिलकुल विपरीत है। अब हम वक्ता नहीं, अपना प्रतिनिधि भेजेंगे। यह प्रतिनिधि कैसा होगा? हमारा नमूना होगा और हमारे आचार्य कैसे होने चाहिए? उनका रहन-सहन, उनकी बोल-चाल, उनका व्यवहार, उनका आचरण, उनका उठना-बैठना, उनका खान-पान बिलकुल ऐसा होना चाहिए, जैसा कि हमारा है। उसे देखकर लोग ये कहें कि यह आचार्य जी का प्रतिनिधि है, आचार्य जी का बेटा है। बेटे, हमको ऐसे व्यक्तियों की बहुत तलाश है। क्योंकि हम ये घोषणा कर चुके हैं कि हम छह हजार शाखाओं का वार्षिकोत्सव करेंगे। इसे हम थोड़े ही समय में पूरा करने के इच्छुक हैं। अक्टूबर से लेकर मार्च तक पूरा कर लेना चाहते हैं, क्योंकि फिर गरमी आ जाती है, इम्तिहान आ जाता है। स्कूलों में स्पीकर लगाना बंद हो जाता है। गरमी में लू चलती है, आँधी-तूफान चलते हैं। इसलिए इस अभियान को हम जल्दी पूरा करना चाहते हैं।
मित्रो! इस कार्यक्रम के लिए हमें प्रतिनिधियों की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ेगी। हमको आप लोगों में से जो अपने आपको इस लायक समझते हों कि हम गुरुजी के विचारों को, युग निर्माण के विचारों को, पुनर्गठन के विचारों को जन-साधारण के सामने व्यक्त कर सकते हैं, तो अपने नाम हमें नोट करा दें और जो ये प्रतिज्ञा कर सकते हों कि हम जाएँगे तो आपकी फजीहत कराकर नहीं आएँगे, आपकी बदनामी कराकर नहीं आएँगे, वहाँ आपकी बेइज्जती कराकर नहीं आएँगे। बेटे, वह आपकी बेइज्जती नहीं, हमारी बेइज्जती है। आप यहाँ से हमारे वक्ता हो करके जाएँगे और होटलों में चाय पिएँगे, तो वह आप नहीं हम पी रहे होंगे, क्योंकि आप हमारे प्रतिनिधि हैं, रिप्रजेंटेटिव हैं। रिप्रजेंटेटिव को न केवल वक्ता होना चाहिए, न केवल व्याख्यानदाता होना चाहिए, बल्कि उसके अंदर वे सारी विशेषताएँ होनी चाहिए, जो हमारे रहन-सहन में, उठने-बैठने में हैं।
वाणी से नहीं, आचरण से शिक्षण
मित्रो! ये आपको अभ्यास का मौका है। इस बहाने, इस लोक-लाज के बहाने आपको हम बंधन में इतना बाँधकर भेजेंगे कि अगर आप छह महीने अभ्यास कर लें, तो आप समझना कि आपने छह महीने का योगाभ्यास कर लिया। छह महीने की तप-साधना कर लेंगे आप। आपकी जीभ के ऊपर अंकुश, खान-पान के ऊपर अंकुश, उठने-बैठन के ऊपर अंकुश, हजार अंकुश लगाने पड़ेंगे। नहीं गुरुजी! हम तो व्याख्यान देंगे। बेटे, हमें नहीं कराना व्याख्यान। अगर हमारी शर्ते पूरी कर सकता है, तो तेरे व्याख्यान का स्वागत है। नहीं साहब! हम कोई शर्त पूरी नहीं करेंगे, हम तो बक्-बक् करेंगे और चाहे जैसे रहेंगे। बेटे, हम तुझे चाहे जैसे नहीं रहने देंगे।
इसलिए मित्रो! ऐसे लोगों की खासतौर से हमको आवश्यकता है, जो बक्-बक् से नहीं, अपने आचरण और व्यवहार से हमारा प्रतिनिधित्व करें। ये शिविर, जो हमने बुलाया है, इस हिसाब से भी बुलाया है कि हमको छह हजार शाखाओं में वार्षिकोत्सव कराने के लिए अपने छह हजार प्रतिनिधियों को जरूरत पड़ेगी। क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपने दो लाख मित्रों में से, जिनमें अधिकांश व्यक्ति पढ़े हों, सुशिक्षित हों, इस लायक हों कि आत्मशोधन और आत्मनिर्माण के अलावा लोक निर्माण की जिम्मेदारी निभा सकते हों, उनको हम छह महीने का योगाभ्यास कराना चाहते हैं। यह विशुद्ध प्रशिक्षण है, जिसमें लोक-लाज की वजह से और हमारी शरम की वजह से, दोनों दबावों की वजह से व्यक्ति अपने चरित्र को ठीक ढालता हुआ चला जाएगा और लोकहित के लिए, जिसमें मानव-जाति का हित जुड़ा हुआ है, दोनों काम करता हुआ चला जाएगा। आप हमारे प्रतिनिधि के रूप में जाना और जो शाखाएँ, जो शक्तिपीठें निष्क्रिय पड़ी हुई हैं, उनमें उमंग पैदा करना, टोलियाँ बनानी पड़ेंगी, जन्मदिन मनाना पड़ेगा और अपने आचरण एवं व्यवहार से लोगों को शिक्षण देना पड़ेगा। यदि इतना काम आप कर सकें, तो हमारा यह शिविर सार्थक हो जाएगा, हम और आप दोनों धन्य हो जाएँगे। आज की बात समाप्त।
ॐ शांति॥
स्वयं को ऊँचा उठायें-व्यक्तित्ववान बनें
(८-४-७४ को कुंभ के अवसर पर वानप्रस्थ सत्र में दिया गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए-
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मजबूत ठप्पे बनिए
देवियो, भाइयो! जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौपा गया है, वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएँ। बुझे हुए दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो, तो पहले हमको जलना पड़ेगा, इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सकें, तो हमारी वह सारी-की-सारी आकांक्षा और मनोकामना और महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी हो जाएँगी, जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है और हमने आपको यह कष्टï दिया है और बुलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इक_ïा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गए? गीली मिट्टïी को आप लाना। ठप्पे पर ठोंकना, तख्ते पर लगाना-वह वैसे ही बनता हुआ चला जाएगा, जैसे हमारे ये खिलौने बनते हुए चले जाते हैं। हमें खिलौने बनाने हैं। खिलौने बनाने के लिए हमने साँचे और ठप्पे मँगाए हुए हैं। साँचे में मिट्टïी लगा देते हैं और एक नया खिलौना बन जाता है। एक नए शंकर जी बन जाते हैं। एक नए गणेश जी बन जाते हैं। ढेरों के ढेरों श्रीकृष्ण और शंकर जी बनते जा रहे हैं। कब? जब हमारे पास छापने के लिए ठप्पे हों और साँचा हों। साँचा अगर आपके पास सही न होता, तो न कोई खिलौना बन सकता था, न कोई और चीज बन सकती थी।
मित्रो! हमको जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम मानकर चलना है, वह यह कि हमारा व्यक्तित्व किस प्रकार का हो? न केवल हमारे विचारों का वरन, हमारे क्रिया-कलापों का भी। आपके मन में कोई चीज है, आप मन से बहुत अच्छे आदमी हैं, मन से आप शरीफ आदमी हैं, मन से आप सज्जन आदमी हैं, मन से आप ईमानदार आदमी है, लेकिन आपका क्रिया-कलाप और आपका लोक-व्यवहार उस तरह का नहीं है, जिस तरह का शरीफों का और सज्जनों का होता है। तो बाहर वाले लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप जिस मिशन को लेकर चले हैं, उस मिशन को पूरा करने में आप समर्थ होंगे कि नहीं? मिशन को आप समर्थ बना सकते हैं कि नहीं? आपके विचारों की झाँकी आपके व्यवहार से भी होनी चाहिए। व्यवहार आपका इस तरह का न होगा, तो मित्र लोगों को यह पता लगाने में, अंदाज लगाने में मुश्किल हो जाएगा कि आपके विचार क्या हैं और सिद्धान्त क्या हैं? जो विचार और सिद्धान्त आपको दिए गए थे, वो आपने अपने जीवन में धारण कर लिए हैं कि नहीं किए हैं। आपको ये बातें मालूम होनी चाहिए। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, आपको अपने नमूने का आदमी बनकर के जाना है।
नमूना बनिए
नमूने का उपदेशक कैसा होना चाहिए? नमूने का गुरु कैसा होना चाहिए? नमूने का साधु कैसा होना चाहिए? नमूने का ब्राह्मïण कैसा होना चाहिए और गुरुजी का शिष्य कैसा होना चाहिए? ये सारी की सारी जिम्मेदारियाँ हमने अनायास ही नहीं लाद दी हैं—आप पर। आपको बोलना न आता हो, तो कोई शिकायत नहीं हमें आपसे। आपको बोलना न आए, लेक्चर देना न आए, जो प्वाइंट्स और जो नोट्स आपने यहाँ लिए हैं, उन्हीं को जरा 'फेयरÓ कर लेना और अपनी कापी को लेकर के चले जाना। कहना गुरुजी ने आपके लिए हमको पोस्टमैन के तरीके से भेजा है। जो उन्होंने कहलवाया है, हम उस बात को कह रहे हैं। चि_ïी को पढ़कर के हम आपको सुनाए देते हैं। आप अपनी डायरी के पन्ने खोलकर के सुना देना। मजे में काम चल जाएगा।
हम जब अज्ञातवास चले गए थे, तो उससे पूर्व यहाँ लोगों ने आधा-आधा घंटे के लिए हमारे संदेश टेप कर लिए थे और जहाँ कहीं भी सम्मेलन हुआ करते थे, जहाँ कहीं भी सभाएँ होती थीं, लोग उन टेपों को सुना देते थे। कह देते थे कि गुरुजी तो नहीं हैं, पर गुरुजी जो कुछ भी कह गए हैं, संदेश दे गए हैं, शिक्षा दे गए हैं आपके लिए, उसको आप लोग ध्यान से सुन लीजिए और ध्यान से पढ़ लीजिए। लोगों ने सारे व्याख्यान सुने और उसी तरह मिशन का कार्य आगे बढ़ता चला गया।
व्यक्तित्व और चरित्र
देवियो और भाइयो, जो काम हम करने के लिए चले हैं, उसका सबसे बड़ा और पहला हथियार हमारे पास जो कुछ भी है, वह है-हमारा व्यक्तित्व और हमारा चरित्र। हमको जो कोई भी कार्य करना है, जो कोई भी सहायता प्राप्त करनी है, वह रामायण के माध्यम से नहीं, गीता के माध्यम से नहीं, व्याख्यानों के माध्यम से नहीं, प्रवचनों के माध्यम से नहीं, यज्ञों के माध्यम से नहीं पूरा होने वाला है। अगर किसी तरह से हमारे मिशन को सफलता मिलनी है और वह उद्देश्य पूरा होना है तो आपका चरित्र-आपका व्यक्तित्व ही एक मार्ग है, एक हथियार है हमारा। व्याख्यान के बारे में आपको ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए और बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। व्याख्यान अगर आपको न आए, तो आपने यहाँ इस शिविर में जो कुछ भी सुना हो, समझा हो उसे ही लोगों को सुना देना। हमने प्राय: यह प्रयत्न किया है कि अपने कार्यकत्र्ताओं के शिविर जहाँ कहीं भी आपको चलाने पड़ें, वहाँ सबेरे प्रात:काल जाकर के प्रवचन किया करना, जो हमने कार्यकत्र्ताओं के लिए और आपके क्रिया-कलापों के लिए कहे हैं। यहाँ आपको दूसरे लोग समझा देंगे कि कार्यकत्र्ताओं में कहे जाने के लिए प्रवचन कौन-से हैं और जनता में कहे जाने वाले प्रवचन कौन से हैं। हमको जनता के विचारों का संशोधन और विचारों का संवद्र्धन करने के लिए व्याख्यान करने पड़ेंगे और लोकशिक्षण करना पड़ेगा, क्योंकि आज मनुष्य के विचार करने की शैली में सबसे ज्यादा गलती है। सबसे ज्यादा गलती कहाँ है? एक जगह है और वह यह कि आदमी के सोचने का तरीका बड़ा गलत और बड़ा भ्रष्टï हो गया है। बाकी जो मुसीबतें हैं, परेशानियाँ हैं, वे तो बर्दाश्त की जा सकती हैं, लेकिन आदमी के सोचने का तरीका अगर गलत बना रहा तो एक भी गुत्थी हल नहीं हो सकती और सारी गुत्थियाँ उलझती चली जाएँगी। इसलिए हमें करना क्या पड़ेगा? हमको जनसाधारण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा जो है, वह यह करनी पड़ेगी कि उनके विचार करने की शैली, सोचने की शैली को बदल देना पड़ेगा। अगर हम सोचने के तरीके को बदल देंगे, तो उनकी कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो सके।
समाधान संभव है
सारी समस्याओं का निदान, समाधान जरूर हो जाएगा, यदि आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि आहार और विहार, खान और पान, संयम और नियम, ब्रह्मïचर्य, इनका पालन कर लेना आवश्यक है तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अस्पताल को खोले बिना, डाक्टरों को बुलाए बिना, इन्जेक्शन लगवाए बिना और अच्छी कीमती खुराक का इन्तजाम किए बिना हम सारे समाज को निरोग बना सकते हैं। आदमी की स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान हम जरूर कर सकते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ी-लिखी न हों, गाना-बजाना न आता हो और हमारी स्त्रियाँ सुशिक्षित न हों, उन्होंने एम.ए. पास न किया हो, लेकिन हमने एक-दूसरे के प्रति प्रेम, निष्ठïा और वफादारी की शिक्षा दे दी, तो फिर जंगली हों तो क्या, गँवार हों तो क्या, आदिवासी हों तो क्या, भील हों तो क्या, कमजोर हों तो क्या, गरीब हों तो क्या? उनके झोपड़ों में स्वर्ग स्थापित हो जाएगा। उनके बीच में मोहब्बत और प्रेम, निष्ठïा और सदाचार हमने पैदा कर दी तब? तब हमारे घर स्वर्ग बन जाएँगे।
अगर ये सिद्धान्त हम पैदा करने में समर्थ न हो सके, तब फिर चाहे हम सबके घर में एक रेडियो लगवा दें, टेलीविजन लगवा दें। हर एक के घर में हम एक सोफासैट डलवा दें और बढिय़ा से बढिय़ा बेहतरीन खाने-पीने की चीज का इन्तजाम करवा दें, फिर हमारे घरों की और परिवारों की समस्या का कोई समाधान न हो सकेगा। परिवारों की समस्याओं का समाधान जब कभी भी होगा, तो प्यार से होगा, मोहब्बत से होगा, ईमानदारी से होगा, वफादारी से होगा। इसके बिना हमारे कुटुम्ब दो कौड़ी के हो जाएँगे और उनका सत्यानाश हो जाएगा। फिर आप हर एक को एम.ए. करा देना और हर एक के लिए बीस-बीस हजार रुपये छोड़कर मरना। इससे क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं होगा। सब चौपट हो जाएगा।
विचार परिवत्र्तन अनिवार्य
मित्रो! सामाजिक समस्याओं की गुत्थियों के हल, विचारों के परिवर्तन से होंगे। कौन मजबूर कर रहा है आपको कि नहीं साहब दहेज लेना ही पड़ेगा और दहेज देना ही पड़ेगा। अगर इन विचारों को और इन रीतियों को बदल डालें, ख्यालातों को बदल डालें, तो न जाने हम क्या से क्या कर सकते हैं और कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। हमारे पास सबसे बड़ा काम मित्रो, जनता की सेवा करने का है। इसके लिए हम धर्मशाला नहीं बनवाते, हम चिकित्सालय नहीं खुलवाते, अस्पताल नहीं खुलवाते और हम प्रसूतिगृह नहीं खुलवाते। हम ये कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमशील होना चाहिए ताकि उसे किसी प्रसूतिगृह में जाने की और किसी नर्सिंग होम में जाने की आवश्यकता न पड़े। लुहार होते हैं, आपने देखे हैं कि नहीं, गाड़ी वाले लुहार, एक गाँव से दूसरे गाँव में रहा करते हैं उनकी औरते घन चलाती रहती हैं। घन चलाने के बाद उन्हें यह नहीं पता रहता कि बच्चा कोख में से पैदा होता है या पेट में से पैदा होता है। आज बच्चा पैदा हो जाता है, कल-परसों फिर काम करने लगती हैं। पन्द्रह घंटे घन चलाती हैं। उनकी सेहत और कलाई कितनी मजबूत बनी रहती है। उनको नर्सिंग होम खुलवाने की और डिलिवरी होम खुलवाने की जरूरत नहीं है। हमको प्रत्येक स्त्री और पुरुष को यही सिखाने की जरूरत है कि हमको मेहनती और परिश्रमशील होना चाहिए। परिश्रमशील होने का माद्दा अगर लोगों के दिमागों में हम स्थापित कर सकें, तो मित्रो हमारे घरों की समस्याएँ, परिवारों की समस्याएँ, समाज की समस्याएँ और सारी समस्याएँ जैसे बेईमानी की समस्याएँ आदि कोई समस्या ऐसी नहीं है, जिसका हम समाधान न कर सकते हों।
इसलिए महत्त्वपूर्ण कदम हमको यह बढ़ाना पड़ेगा कि जनता का लोकशिक्षण करने के लिए आप जाएँ और जनता में लोकशिक्षण करें। लोकशिक्षण करने के लिए हमने जो विचारधारा आपको यहाँ दी है, उसे एक छोटी-सी पुस्तक के रूप में भी छपवा दिया है। ये व्याख्यान जो आपको यहाँ सुनने को मिले हैं, वे सारे के सारे प्वाइंट्स छपे हुए मिल जाएँगे। इनका आप अभ्यास कर लेना और इन्हीं प्वाइंट्स को आप कंठस्थ कर लेंगे और डेवलप कर लेंगे, तो क्या हो जाएगा कि सायंकाल के प्रवचनों में जो आपको जनता के समक्ष कहने पड़ेंगे, बड़ी आसानी से कहने में पूरे हो जाएँगे। कार्यकत्र्ताओं के समक्ष भी आप यही कहना। जहाँ कहीं भी आपको समझाने की, प्रवचन करने की जरूरत पड़े, आप यह कहना कि गुरुजी ने हमें डाकिये की तरह से भेजा है और एक चि_ïी देकर आपके लिए एक संदेश लिखकर के भेजा है। लीजिए चि_ïी को पढ़कर के सुना देते हैं। सबेरे वाले प्रवचन जो हमने दिए हुए हैं, अगर आप सुना देंगे, समझा देंगे, तो वे आपकी बात को मान जाएँगे। आपको व्याख्यान देना न आता हो और समझाने की बात न आती होगी, तो भी बात बन जाएगी। व्याख्यान देना और प्रवचन देना, चाहे आपको न आता हो, कोई हर्ज आपका होने वाला नहीं है। ये जो प्वाइंट्स हमने आपको दिए हैं, किसी भी स्थानीय वक्ता को, किसी भी स्थानीय व्याख्यानदाता को आप समझा देना और कहना कि जो प्रवचन गुरुजी ने दिए हैं, इन्हें आप अपने ढंग से, अपनी समझ से, अपनी शैली से, अपने तरीके से, आप इन्हीं प्वाइंटों को समझा दीजिये। कोई भी अच्छा वक्ता जिसे बोलना आता होगा, बोलने की तमीज होगी या बोलने का ज्ञान होगा, इन बातों को समझा देगा, जो सायंकाल को हैं। ये काम और कोई नहीं कर सकेगा, जो आपको करना है।
जो आपको करना है
वे कौन-से काम हैं, जो आपको करने पड़ेंगे? आपको यह करना पड़ेगा कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, जिस शाखा में भी आप जाएँ, एक छाप इस तरह की छोड़कर आएँ कि गुरुजी के संदेश वाहक और गुरुजी के शिष्य जो होते हैं, वे किस तरह से और क्या कर सकते हैं और क्या करना चाहिए। आप यहाँ से जाना और वहाँ इस तरीके से अपना गुजारा करना, इस तरीके से निर्वाह करना जैसा कि संतों का गुजारा होता है और संतों का निर्वाह होता है। आप जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने खानपान संबंधी व्यवस्था को कंट्रोल रखना। खानपान संबंधी व्यवस्था के लिए हुकूमत मत चलाना किसी के ऊपर। वहाँ जैसा भी कुछ हो, जैसा भी कुछ लोगों ने दिया हो उसी से काम चला लेना। आपको तरह-तरह की फरमाइशें पेश नहीं करनी चाहिए। जैसे कि बाराती लोग किया करते हैं। बारातियों का काम क्या है? बाराती लोग सारे दिन फरमाइशें पेश करते रहते हैं और नेताओं का क्या काम होता है? बजाजियों का क्या होता है? जहाँ कहीं भी वे जाते हैं, तो ऑर्डर करते रहते हैं और तरह-तरह की चीजों के लिए, अपने खाने-पीने की चीजें, अपनी सुविधा की चीजें, बीसों तरह की अपनी फरमाइशें करते रहते हैं। आपको किसी चीज की जरूरत पड़ती हो, चाहे आपको दिन भर भोजन न मिला हो, तो आप अपने झोले में सत्तू लेकर के जाना, थोड़ा नमक ले करके जाना। छुपकर के अपने कमरे में अपना सत्तू और अपना नमक घोल करके पी जाना, लेकिन जिन लोगों ने आपको बुलाया है, उन पर ये छाप छोड़ करके मत आना कि आप चटोरे आदमी हैं और आप इस तरह के आदमी हैं कि आप खाने के लिए और पीने के लिए और अमुक चीजों के लिए आप फरमाइश ले करके आते हैं। इसलिए हमने एक महीने तक आपको पूरा अभ्यास यहाँ कराया। हमने ये अभ्यास कराया कि जो कुछ भी हमारे पास है, साग, सत्तू आप घोलकर खाइए। साग-सत्तू आप खा करके रहिए और जबान को कंट्रोल करके रहिए। उन चीजों की लिस्ट को फाड़कर फेंक दीजिए कि अमुक चीज खाएँगे तो आप ताकतवार हो जाएँगे और अमुक चीज खाएँगे, तो आप पहलवान हो जाएँगे। अमुक चीज आप खाएँगे, तो आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। मित्रो हम यकीन दिलाते हैं कि खाने की चीजों से स्वास्थ्य का कोई ताल्लुक नहीं है और अगर आपको घी नहीं मिलता, तो कोई हर्ज नहीं, कुछ आपका बिगाड़ नहीं होने वाला है।
ताकत का केन्द्र कहाँ?
हम आपको कई बार कथा सुनाते रहे हैं। एक बार अपनी अफ्रीका यात्रा की मसाईयों का हमने किस्सा सुनाया था, जिन बेचारों को मक्का मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए सफेद बीज की दाल मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए केवल जंगली केला मुहैया होता है। चार चीज उनको मिलती हैं। न कभी उनको घी मिलता है, न कभी और कोई पौष्टिïक चीजें मिलती हैं, लेकिन उनकी कलाइयाँ, उनके हाथ कितने मजबूत होते हैं। ओलंपिक खेलों में सोने के मैडल जीतकर लाते और शेरों का शिकार करते रहते हैं। ताकत अनाज में नहीं है, ताकत शक्कर में नहीं है, ताकत घी में नहीं है और ताकत मिठाई में नहीं है। मित्रो, ताकत का केन्द्र दूसरा है। ताकत की जगह वह है, जो गाँधी जी ने अपने भीतर पैदा की थी। घी खाकर के पैदा नहीं की थी उन्होंने। वह अलग चीज है, जिनसे ताकत आती है। इसलिए जहाँ कहीं भी आप जाएँ, हमारे संदेशवाहक के रूप में, वहाँ पर आपका खान-पान का व्यवहार ऐसा हो, जिससे कोई आदमी यह कहने न पाए कि ये लोग कोई बड़े आदमी आए हैं और कोई वी.आई.पी. आए हैं। यहाँ से जब आप जाएँ, तो प्यार और मोहब्बत को ले करके जाना। अगर आपके अन्दर कडुवावन रहा हो तो उसको यहीं पर छोड़कर जाना। कडुवापन मत ले करके जाना, अपना अहंकार ले करके मत जाना।
कडुवापन क्या है? कडुवापन आदमी का घमण्ड है, कडुवापन आदमी का अहंकार है। अपने अहंकार के अलावा कडुवापन कुछ है ही नहीं। आप जब ये कहते हैं कि हम तो सच बोलते हैं, इसलिए कडुवी बात कहते हैं। ये गलत कहते हैं। सच में बड़ा मिठास होता है। उसमें बड़ी मोहब्बत होती है। गाँधी जी सत्य बोलते थे, लेकिन उनके बोलने में बड़ी मिठास भरी होती थी। अँग्रेजों के खिलाफ उन्होंने लड़ाई खड़ी कर दी और ये कहा कि आपको हिन्दुस्तान से निकालकर पीछा छोड़ेंगे। आपके कदम हिन्दुस्तान में नहीं रहने देंगे। मारकर भगा देंगे और आपका सारा जो सामान है, वो यहीं पर जब्त कर लेंगे और नहीं देंगे। गाँधी जी की बात कितनी कडुवी थी और कितनी तीखी थी और कितनी कलेजे को चीरने वाली थी। लेकिन उन्होंने शब्दों की मिठास, व्यवहार की मिठास को कायम रखा, हमको और आपको व्यवहार की मिठास को कायम रखना चाहिए। अगर अपके भीतर मोहब्बत है और प्यार है, मित्रो! तो आपकी जबान में से कडुवापन नहीं निकलेगा। इसमें मिठास भरी हुई होनी चाहिए। प्यार भरा हुआ रहना चाहिए। प्यार अगर आपकी जबान में से निकलता नहीं और मिठास आपकी जबान में से निकलती नहीं है, आप निष्ठïुर की तरह जबान की नोंक में से बिच्छु के डंक के तरीके से मरते रहते हैं, दूसरों को चोट पहुँचाते रहते हैं और दूसरों का अपमान करते रहते हैं और विचलित करते रहते हैं, तब आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि आप सच बोलते हैं।
वाणी में प्यार-शील
सच क्या है? जैसा आपने देखा है, सुना है, उसको ही कह देने का नाम सच नहीं है। सच उस चीज का भी नाम है, जिसके साथ में प्यार भरा हुआ रहता है और मोहब्बत जुड़ी हुई रहती है। प्यार और मोहब्बत का व्यवहार आपको यहीं से बोलना-सीखना चाहिए और जहाँ कहीं भी शाखा में आपको जाना है, और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत करने का ढंग, बातचीत करने का तरीका ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार भरा हुआ हो, मोहब्बत जुड़ी हुई हो। उसमें आत्मीयता मिली हुई हो, दूसरों का दिल जीतने के लिए और दूसरों पर अपनी छाप छोडऩे के लिए। यह अत्यधिक आवश्यक है कि आपके जवान में मिठास और दिल में मोहब्बत होनी चाहिए। आप जब यहाँ से जाएँ, तो इस प्रकार का आचरण ले करके जाएँ, ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदे यही हैं। अब आपकी इज्जत-आपकी इज्जत नहीं है, हमारी इज्जत है। जैसे हमारी इज्जत हमारी इज्जत नहीं है, हमारे मिशन की इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है। अपने वानप्रस्थ आश्रम की रखवाली करना आपका काम है।
हमने ये तीन-चार तरीके की जिम्मेदारी आपके कंधे पर डाली है। इन जिम्मेदारियों को लेकर के आप जाना। फूँक-फूँक करके पाँव रखना। आप वहाँ चले जाना, जहाँ कि आवोहवा का ज्ञान नहीं है। कहीं गर्म जगह हम भेज सकते हैं, कहीं ठंडी जगह हम भेज सकते हैं। कहीं का पानी अच्छा हो सकता है और कहीं का पानी खराब हो सकता है। आप वहाँ जाकर के क्या कर सकते हैं? आप बीमार नहीं पड़ सकते। बीमारी के लिए मैं दवा बता दूँगा, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, आप बीमार नहीं पड़ेंगे और बीमारी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं ऐसी दवा दे दूँगा कि आप चाहे जहाँ कहीं भी जाना और जो चाहे कुछ खिला दे, वही खाते रहना। बेजिटेबिल की पूडिय़ाँ खिलाता हो, तो पूरे महीने पूडिय़ाँ खाना और बीमार होकर आये, तो आप मुझसे कहना। मैं ऐसी गोली देना चाहता हूँ, कि कोई भी चीज खिलाता हो, आप खाते रहना और आपके पेट में कब्ज की शिकायत हो जाए, तो आप मुझसे कहना, मेरी जिम्मेदारी है। आप मुझसे शिकायत करना कि गुरुजी आपकी गोली ने काम नहीं किया, हमको कब्ज की शिकायत हो गई।
खुराक से कम खायें
इसके लिए आप एक काम करना, अपनी खुराक से कम खाना। यहाँ चार रोटी की खुराक है, तो यहाँ से निकलते ही एक रोटी कम खाना। एक रोटी कम, तीन रोटी खाना शुरू कर दीजिए। आप जायके के माध्यम से जाएँगे, तो हर आदमी के मेहमान होंगे और मेहमान का तरीका हिन्दुस्तान में यह होता है कि जो कोई भी आता है किसी के घर, तो उस आदमी के लिए अगर हम मक्का की रोटी खाते हैं, तो उसे गेहूँ खिलाएँगे और हम गेहूँ की खाते हैं, तो आपको चावल खिलाएँगे। चावल खाते हैं, तो मिठाई खिलाएँगे। हम अगर छाछ पीते हैं, तो आपको दूध पिलाएँगे। हर हिन्दू यह जानता है कि सन्त-महात्मा का वेश पहन कर के आप जा रहे हैं, तो स्वभावत: आपको अपने घर की अपेक्षा अच्छा भोजन कराए, अच्छी-अच्छी चीजें खिलाएँ। यदि आपने अपनी जबान पर कंट्रोल रखा नहीं, तो आप जरूर बीमार पड़ जाएँगे। आप ध्यान रखिए आबोहवा तो बदलती ही है। यहाँ का पानी आज, वहाँ का कल, वहाँ का पानी परसों। समय का ज्ञान नहीं, कुसमय का ज्ञान नहीं। यहाँ पर आप ग्यारह बजे खाना खा लेते हैं, सम्भव है कि कोई आपको दो बजे खिलाए, आपका पेट खराब हो सकता है। आप बीमार हो सकते हैं, लेकिन ये खुराक जो मैंने आपको बताई है, अगर उसको कायम रखेंगे, तो आप कभी भी बीमार नहीं होंगे।
मित्रो! हमने लम्बे-लम्बे सफर किये हैं और तरह-तरह की चीजें और तरह तरह की खुराकें खाने का मौका मिला है। एक बार मैं मध्यप्रदेश गया, तो लाल मिर्च साबुत खाने की आदत उन लोगों की थी। रामपुरा में यज्ञ हुआ। यज्ञ हुआ तो वहाँ वो बड़ी-बड़ी पूड़ी परोस रहे थे और ऐसी सब्जी परोस रहे थे, जो मुझे टमाटर की सी मालूम पड़ी। लाल रंग का सारे का सारा टमाटर का साग परोस रहे थे। टमाटर मुझे अच्छा भी लगता है, माताजी मेरे लिए अक्सर बना लिया करती हैं। मँगा लेती हैं। मैंने भी मँगा लिया और रख लिया थाली में। जैसे ही मैंने पूड़ी का टुकड़ा मुँह में दिया कि मेरी आँखें लाल-लाल हो गईं। अरे यह क्या? गुरुजी यह टमाटर का साग नहीं है, यह तो लाल मिर्च है। जब हरी मिर्च पक जाती है और लाल हो जाती है, तो उनको ही पीस करके उसमें नमक और खटाई मिलाकर के ऐसा बना देते हैं- लुगदी जैसी, उसको आप चटनी कह लीजिए। ऐसी भी जगह मुझे जाना पड़ा है कि मैं क्या कहूँ आपसे।
एक बार मैं आगरा गया और वहाँ भोजन करना पड़ा। दाल-रोटी जो घर में खाते हैं, जहाँ कहीं भी जाता हूँ, वही खाता हूँ और कहता हूँ कि तुम्हारे घर में जो कुछ भी हो, वही खिलाना। नहीं हो, तो मेरे लिए बनाना मत, अलग चीज बनाओगे, तो मैं खाऊँगा नहीं। अगर तुम पूड़ी रोज खाते हो, तो पूड़ी बना दो मेरे लिए। मुझे एतराज नहीं, लेकिन तुम हमेशा कच्ची रोटी खाते हो तो मेरे लिए कच्ची रोटी ही बनाना, मक्का की रोटी खाते हो अपने घर में तो, वही खिलाना, क्योंकि मैं तुम्हारा मेहमान नहीं हूँ, तुम्हारा कुटुम्बी हूँ। आगरा में उन लोगों ने दाल बना दी और रोटियाँ धर दीं। दाल में जैसे ही मैंने कौर डुबोया, इतनी ज्यादा मिर्च कि मेरे तो बस आँखों में से पानी आ गया। मैं क्या कह सकता था। अगर मैं यह कहता कि साहब दाल बड़ी खराब है उठा ले जाइए। यह आपने क्या दे दिया और मेरे लिए तो दही लाइए और वह लाइए। मेरी आँख में से पानी तो आ गया और मैंने एक घूँट पानी पिया, पीने के बाद रोटी के टुकड़े खाता तो गया। रोटी के टुकड़े दाल तक ले तो गया, पर दाल में डुबोया नहीं। हाथ मैंने चालाकी से चलाया, जिससे मालुम पड़े कि मैं दाल खा रहा हूँ। दाल खाई नहीं और वैसे ही रूखी रोटी खाता और पानी पीता रहा। पानी पीने के बाद उतर कर आ गया। उसे पता भी नहीं चला, मुझे भी पता नहीं चला। न उसको शिकायत हुई कि आपने ये कैसे खाया।
हमारे यहाँ एक स्वामी परमानन्द जी और नत्थासिंह भी थे पहले। दोनों साथ थे। हम नत्थासिंह और परमानन्द जी को अक्सर बाहर भेज देते थे। दोनों का जोड़ा था। जब भोजन होता था, तब स्वामी परमान्द उससे कहते थे-नत्थासिंह, हाँ! देख, मैं मर जाऊँ कभी और तुझे ये खबर मिले कि स्वामी परमानन्द मर गया, तो ये मत पूछना कि कौन-सी बीमारी से मर गया। पहले से लोगों से यह कह देना कि परमानन्द ज्यादा खा करके मर गया। सारा घी स्वामी जी खा जाएँ, तो भी पता न चले। जहाँ कहीं भी जाते, खाने की उनकी ऐसी ललक कि एक बार खिला दीजिये, खाने से पिण्ड छोडऩे वाले नहीं। टट्टिïयाँ हो जाएँ तो क्या? उल्टियाँ हो जाएँ तो क्या? पर खाने से बाज न आने वाले थे वे।
जबान के दो विषय
मित्रो हमारी जबान के दो विषय हैं, जबान हमारी बड़ी फूहड़ है। एक विषय इसका यह है कि यह स्वाद माँगती है और जायके माँगती है। आप स्वादों को नियंत्रण करना- जायके को नियंत्रित करना। सन्त जायके पर नियंत्रण किया करते हैं और स्वाद पर नियंत्रण किया करते हैं। जिस आदमी का जायके पर नियंत्रण नहीं है और स्वाद पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी सन्त नहीं कहला सकता। आपने-हमने ऐसे संत देखे हैं, जो भिक्षा माँग करके लाए और एक ही कटोरे में-एक ही जगह में दाल को मिला दिया और उसको मिला दिया और इसको मिला दिया और साग को मिला दिया और खीर को मिला दिया और सबको मिला दिया। एक ही जगह मिलाकर खाया। वे ऐसा किसलिए खाते हैं? इसलिए कि वे जबान के जायके पर काबू करके खाते हैं। जबान के जायके का अभ्यास आपको यहाँ नहीं हो सका, तो आप जहाँ कहीं भी कार्यकत्र्ताओं के बीच में जाएँ, आपको एक छाप छोडऩे की बात मन में लेकर के जानी चाहिए कि हम जबान के जायके को कंट्रोल में करके आए हैं। अब देखना आपके ऊपर छाप पड़ती है कि नहीं पड़ती है।
खान-पान का भी हमारे हिन्दुस्तान में ध्यान रखा जाता है। एक महात्मा ऐसे थे, जो हथेली के ऊपर रखकर के रोटी खाया करते थे। उनका नाम महागुरु श्रीराम था। अभी भी वे हथेली पर रोटी रखकर खाने वाले महात्मा के नाम से मशहूर हैं। मैं नाम तो नहीं लेना चाहूँगा, पर आप अन्दाज लगा सकते हैं कि मैं किसकी ओर इशारा कर रहा हूँ। इस समय तो वे नहीं करते, इस समय तो वे मोटरों में सफर करते हैं और अच्छे चाँदी और सोने के बर्तनों में भोजन करते हैं। पर कोई एक जमाना था, जब हथेली पर रख करके भोजन करते थे। एक ही विशेषता ऐसी हो गई कि सारे हिन्दुस्तान में विख्यात हो गए। इस बात के लिए प्रख्यात हो गए कि वे हथेली पर रखकर के रोटी खाया करते हैं। भला आप संत नहीं हैं तो क्या, महात्मा नहीं हैं तो क्या? आपकी खुराक सम्बन्धी आदत ऐसी बढिय़ा होनी चाहिए कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहाँ हर आदमी आपको बर्दाश्त कर सकता हो, 'अफोर्डÓ कर सकता हो। गरीब आदमी भी ये हिम्मत कर सकता हो कि हमारे यहाँ पंडित जी का भोजन हो। गरीब आदमी को भी ये कहने की शिकायत न हो कि हमारे यहाँ ये नहीं होता, हमारे घर में दूध नहीं होता, हमारे घर में दही नहीं होता, हम तो गरीब आदमी हैं, फिर हम किस तरीके से उनको बुलाएँगे, किस तरीके से भोजन कराएँगे। आपकी हैसियत संत की होनी चाहिए और संत का व्यवहार जो होता है, हमेशा गरीबों में ज्यादा होता है। गरीबों जैसा होता है, अमीरों जैसा संत नहीं होता, संत अमीर नहीं हो सकता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे संत हो सकता है? संत को तो पैदल चलना पड़ता है। संत को तो मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। संत चाँदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए।
संतो जैसा जीवन व व्यवहार हो
बस, आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए और जगह-जगह से नहीं कहना चाहिए कि हम तो रिटायर्ड पोस्टमास्टर थे या रिटायर्ड पुलिस इन्सपेक्टर थे या हमारे गाँव में जमीदारी होती थी। आप यह मानकर जाना कि हम नाचीज हो करके जा रहे हैं। संत नाचीज होता है। संत तिनका होता है और अपने अहंकार को त्याग देने वाला होता है। यदि आपने अपने अहंकार को त्यागा नहीं, तो फिर आप संत कहलाने के अधिकारी नहीं हुए। हमारी पुरानी परम्परा थी कि जो कोई भी संत वेष में आता था, उसको भिक्षायापन करना पड़ता था। क्यों? भिक्षायापन कौन करता है? भीख माँगने वाला गरीब होता है ना? कमजोर होता है ना? संत वेष धारण करने के पश्चात हर आदमी को भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था, ताकि उसका अहंकार चूर-चूर हो जाए। हम अपने ब्रह्मïचारियों को जनेऊ पहनाते थे। जनेऊ पहनाने के समय ऋषि अपने बच्चों को भिक्षा माँगने भेजते थे कि जाओ बच्चो भिक्षा माँगो, ताकि किसी बच्चे को यह कहने का मौका न मिले कि हम तो जमींदार साहब के बेटे हैं, ताल्लुकेदार के बेटे हैं और धनवान के बेटे हैं, गरीब के बेटे नहीं हैं, हर आदमी का आध्यात्मिकता का आत्मसम्मान अलग होता है और अपने धन का, अपनी विद्या का, अपनी बुद्धि का, अपने पुरानेपन का और अपनी जमींदारी का और अपने अमुक होने का गर्व होता है, वह अलग होता है। आप यहाँ से जाना, तो अहंकार छोड़ करके जाना।
मैं-मैं मत करिए
मित्रो, कई आदमियों को-चेलों को बार-बार यह कहने की आदत होती है कि जब तक वे अपनी महत्ता और अपना बड़प्पन, अपने अहंकार की बात को सौ बार जिकर नहीं कर लेते, तब तक उनको चैन नहीं मिलेगा। निरर्थक की बात-चीत करेंगे। निरर्थक की बातचीत करने का क्या उद्देश्य होगा? यह उद्देश्य होगा कि मैं ये था और मैंने ये किया था और मैं वहाँ गया था और मेरा ये हुआ था। मैं पहले ये था, मैं पहले ये कर रहा था-आधा घंटे तक भूमिका बनाएँगे। आधे घंटे भूमिका बनाने के बाद फिर किस्सा शुरू होगा-मैं, मैं...मैं...मैं...मैं...मैं... को अनेक बार कहते हुए चले जाएँगे। लेकिन मित्रो, ये समझदारी की बात नहीं हैं, नासमझी की बात है। जो आदमी अपने मुँह से, अपनी जबान से, अपने बड़प्पन की जितनी बात बताता है, वह उतना ही कमजोर होता चला जाता है और उतनी ही उसकी महत्ता कम होती जाती है। हम आपको जिन लोगों के पास में भेजने वाले है, वे फूहड़ लोग नहीं हैं, बेअकल लोग नहीं हैं, बेवकूफ लोग नहीं हैं। हमने अखण्ड ज्योति पैंतीस वर्ष से निकाली है और पैंतीस वर्ष से जो आदमी अखण्ड ज्योति पत्रिका को पढ़ते हुए चले जा रहे हैं, वे काफी समझदार लोग हैं। हमारा हर आदमी समझदार आदमी है। इस बात की तमीज उसको है और हर बात की अकल उसको है कि क्या आपके स्तर का है और क्या आपके स्तर का नहीं है। अपने अहंकार के बारे में और अपने बड़प्पन के बारे में जितनी शेखी आप बघारेंगे, उतनी ही आपकी इज्जत कम होती जाएगी और लोग यह समझेंगे कि ये कितना घमण्डी आदमी है और लोलुप आदमी है। यह बहुत बड़ाई करना चाहता है और हमको अपने बड़प्पन की बात बताना चाहता है। यह मैं आपको विदा करते समय में उसी तरह की शिक्षा दे रहा हूँ जैसे कि माँ अपनी बेटी को विदा करने के समय जब ससुराल भेजती है, तो तरह-तरह की नसीहतें देती है और तरह-तरह की शिक्षाएँ देती है कि बेटी सास से व्यवहार ऐसे करना। बेटी ससुर से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपने पति से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपनी ननद से ऐसे व्यवहार करना। मैं आपको बेटियों की तरीके से नसीहत दे रहा हूँ, क्योंकि मैं आपको ससुराल भेज रहा हूँ।
ससुराल भेज रहे हैं
ससुराल कहाँ? ससुराल का मतलब जनता के समक्ष भेजने से है, जहाँ पर आपका इम्तिहान लिया जाने वाला है। आपके व्याख्यान का नहीं, मैं आपसे फिर कहता हूँ कि आपको व्याख्यान देना न आता हो, तो कोई डरना मत और कन्फ्यूज मत होना। व्याख्यान के बिना भी काम चल जाएगा। आप चुप बैठे रहना-महर्षि रमण के तरीके से, तो भी काम चल जाएगा। पांडिचेरी के अरविन्द घोष ने अपनी जबान पर काबू कर लिया था। कन्ट्रोल कर लिया था। उन्होंने लोगों से मिलने से इन्कार कर दिया था और कह दिया था कि हम आप लोगों से बातचीत नहीं करना चाहते हैं। बातचीत न करने के बाद भी महर्षि रमण और पांडिचेरी के अरविन्द घोष इतने ज्यादा काम करने में समर्थ हो गए, आपको मालूम नहीं है क्या? बहुत काम करने में समर्थ हो सके। जहाँ कहीं भी आप जाएँ जरूरी नहीं है कि आपको स्वयं ही बोलना चाहिए। आप जो प्वाइंट ले करके गए हैं और जो प्वाइन्ट इस डायरी में भी लिखे हुए हैं और डायरी के अलावा हमने अलग किताब भी छपवा दी है, उससे आपका काम चल जाएगा। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, वहाँ भी आपको ढेरों के ढेरों व्याख्यान देने वाले वक्ता जरूर मिल जाएँगे। उनको आप बोलना और कहना कि देखो भाई, ये हमारे डायरी के पन्ने हैं और देखो ये पुस्तक के पन्ने हैं। आपको इन प्वाइंटों के ऊपर ऐसी-ऐसी बातें कहनी हैं। यहाँ हमको बोलकर सुना दो एक बार। आप इम्तिहान लेना और जब आपको लग जाएगा कि वह ठीक बोल रहा है, तो कहना बेटा कल तुम्हें यह संदेश गुरुजी का वहाँ पढऩा है। हम तो सिखाने के लिए आए हैं, स्वयं बोलने के लिए थोड़े ही आए हैं। हमें थोड़े ही बोलना है। आपको बोलना पड़ेगा, आपको सम्मेलन करना पड़ेगा। हमको तो अपना काम करना है। हमको तो सिखाना है और तुमको बोलना है। तुमको बोलना चाहिए—हमारे सामने, तुम नहीं बोलोगे तो हम कैसे पहचानेंगे कि तुमने गुरुजी के संदेश को समझ लिया और अपना लिया, इसलिए रोज सबेरे के वक्त में ये बोलना है। बोलकर सिखा दो और बता दो कि पहले क्या कहोगे? ऐसा मत कहना कि हम कुछ और कहने आए हैं और तुम अपना नमक-मिर्च लगाकर कहने लगो। हम जो बात कहना चाहते हैं, वही बात कहना।
कोई भी आदमी जिसको बोलने की जानकारी हो और लेक्चर देने की कला आती हो, वह बोल देगा। यों तो व्याख्यान देने की कला तमाम स्कूलों में पढ़ाई जाती है। लैक्चरार एक पेशा बन गया है, धन्धा बन गया है। लेक्चरार तो ढेरों आदमी पैदा हो गया। लेक्चर देना और व्याख्यान देना कोई मुश्किल बात नहीं। आप उससे घबड़ाना मत। आपको न आता हो, तो दूसरे लोगों से कहलवा देना और सायंकाल के स्टेज के लिए भी आप तैयार होकर जाना। कोई न मिलता हो तो वकील को बुला लेना। वकील साहब, हाँ तुम्हारी-हमारी बहस है। बहस है तो अच्छा, शाम को आ जाना, हमार केस लड़ देना। क्या केस है? अरे गुरुजी का मुकदमा है। गुरुजी ने ये-ये प्वाइंट्स बताए हैं, जरा बैठकर जरा-सी बात कह दीजिए। इसके लिए आपको एक घंटा बोलना पड़ेगा। अरे साहब एक घंटे का तो हम दस रुपये ले लेते हैं, तो आप दस रुपये ले लीजिए या फिर आज फोकट में ही बोल दीजिए। हाँ फोकट में ही बोल देंगे, बताइये क्या बोलना है। बस वह आपके प्वाइंटों को लेकर के खड़ा हो जाएगा और ऐसे धड़ल्ले से बोलेगा कि आपको मजा आ जाएगा। किसी अध्यापक को बुला लेना, किसी को भी बुला लेना, कोई भी आदमी आ जाएगा। आपकी बात को कह देगा। इसलिए आप मत देना व्याख्यान।
व्याख्यान से ज्यादा जरूरी है शिक्षण
तो आपको क्या करना है? आपको तो लोगों को सिखाने के लिए जाना है। आपको तो तभी बोलना है, जब बहुत मुसीबत आ जाए, बहुत जरूरी हो जाए, आप वहाँ के लोगों को सिखाना-बोलने का काम तो उन्हीं को करना है, शाखा तो उन्हीं को चलानी है। आपके सामने बोल लेंगे, तो अच्छी बात है। आप भी कभी-कभी कह दिया करिए। गुरु तो पीछे बैठा रहता है और तीर-कमान तो लड़के चलाते रहते हैं। गुरु जो होता है, झट से बता देता है। आपने अखाड़े के उस्ताद को नहीं देखा। अखाड़े का उस्ताद कहीं लड़ता है क्या? पर यह बताता रहता है कि ये पकड़, यह क्या करता है, मालूम है क्या करता है? हाथ पकड़ता है-टाँग नहीं पकड़ता है गिराना है तो। पहलवानी करने चला है और टाँग पकडऩा नहीं आता, पहले टाँग पकड़ उसकी। अच्छा हाँ, उस्ताद अभी पकड़ता हूँ और कान पकड़ता है। टाँग पकड़ गिरा इसको। अभी गिराता हूँ। ऐसे करके आपको तो उस्ताद बनाकर भेजेंगे, कोई अखाड़े के पहलवान बनाकर थोड़े ही भेजेंगे। पहलवान तो ढेरों के ढेरों मिल जाएँगे। पहलवानी को रहने दीजिए। गुरुजी हमें तो यहाँ एक महीने रहते हुए होने को आया। अब आप परसों भेज देंगे, हमको लेक्चर झाडऩे पड़ेंगे, तो लेक्चर कैसे देंगे? अरे बाबा, लेक्चर की हम नहीं कह रहे हैं। लेक्चरार बनाकर नहीं भेज रहे हैं। हम तो आपको वह चीज दे करके भेज रहे हैं कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहाँ आपके क्रिया-कलाप ऐसे होने चाहिए जैसा कि हमारे कार्यकत्र्ता का होना चाहिए, जिसे देखकर अन्य कार्यकत्र्ताओं का उत्साह बढ़ता हुआ चला जाए। आपको हमने वहाँ मुआयना करने के लिए और कोई इन्सपेक्टर बना करके नहीं भेजा है और न ही हम आपको नेता बनाकर भेज रहे हैं। नेता पर लानत। नेता, हम नहीं बनाएँगे आपको। नेता से हमें कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी स्टेज पर बैठ करके, मटक मटक करता है और फूलमाला पहन करके माइक पकड़ करके बैठ जाता है और किसी का नम्बर ही नहीं आने देता। प्रेसीडेंट कहता है-अरे बाबा बन्द कर! उसने तो माइक पकड़ लिया है, दूसरों को देता ही नहीं। ऐसा ही होता है। जब तक सारे लोग उसके नीचे नहीं होंगे, तब तक नहीं छोड़ेगा, ऐसा नेता मुबारक, माइक मुबारक, दोनों चीजें मुबारक।
नेता नहीं कार्यकत्र्ता बनें
मित्रो, हम आपको नेता बनाकर नहीं भेज रहे हैं। हम तो आपको कार्यकत्र्ता और ज्ञानी बनाकर भेज रहे हैं वालन्टियर की तरह। जहाँ कहीं भी जाएँ और जो कोई भी कार्य करें, वालन्टियर के रूप में करें। आप उस तरीके से करना, जिस तरीके से हाथ से काम करना सिखाया जाता है। सर्जन अपने मैटरनटरी कॉलेज के स्टूडेन्टों को अपने आप करके स्वयं दिखाता है और यह कहता है कि तुमको पेट का ऑपरेशन करना हो तो देख लो एक बार फिर, भूलना मत। तुम्हारा मुँह इधर होगा, तो ऑपरेशन करना नहीं आएगा। देखो हम पेट को चीरकर देखते हैं- ये देखो-ये निकाल दिया और ये सिल दिया और ये बाँध दिया। देखो फिर ध्यान रखना और ऐसे मत करना कि पेट का ऑपरेशन किसी का करना पड़े और कहीं का वाला कहीं कर दो और कहीं का वाला कहीं कर दो। आपको हर काम स्वयं करने के लिए स्वयंसेवी कार्यकत्र्ता के रूप में जाना है। आपको किसी का मार्गदर्शक होकर के या किसी का गुरु हो करके या किसी का नेता हो करके नहीं जाना है। दीवारों पर जब वाक्य लिखने की जरूरत पड़े, तो आप स्वयं डिब्बा लेना और कहना—चल भाई मोहन, अरे तूने इस बात के लिए मना किया, अब मैं लिखकर दिखाता हूँ कि किस तरह से अच्छे तरीके से वाक्य लिखा जाता है, चल तो सही मेरे साथ। अपने साथ आप ले करके चले जाएँगे। अरे वानप्रस्थी जी साहब! आप वहाँ से आए हैं, आप तो गुरुजी वहाँ बैठो, हम बच्चे लिख लेंगे—वाक्य। बेटा, बच्चे लिख लेंगे, तो हम किसलिए आए हैं। चल जरा! हमारे साथ-साथ चल देख हम साफ-साफ लिखकर दिखाते हैं। जब आप आगे-आगे चलेंगे, तो ढेरों आदमी आपके साथ चलेंगे, आपकी लिखने वाली बात, अमुक बात और अमुक बात, आसानी से होती हुई चली जाएगी।
वालण्टियर बनाकर भेजा है
परन्तु जब आप पीछे जा बैठेंगे तब, तब लोग हमसे शिकायत करेंगे और कहेंगे कि गुरुजी ने ऐसे लोगों को हमारे पास भेज दिया। चलते तो हैं ही नहीं, सुनते तो हैं ही नहीं, कुछ करते तो हैं ही नहीं। हुकुम चलाना भर आता है। बेटे हमने उनके ऊपर हुकुम चलाने के लिए आपको नहीं भेजा है। हमने तो आपको मार्गदर्शन करने के लिए भेजा है। वालन्टियर के रूप में भेजा और सक्रिय कार्यकत्र्ता के रूप में भेजा है। जो बात आपको नहीं आती है, वह काम आपको करने चाहिए। उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलना, आगे-आगे बढऩा चाहिए। जहाँ ये समस्या है लोगों के लिए कि जनता कहीं भी नहीं आती है, यह आप ध्यान रखना। जनता बहुत खीझी हुई है और बहुत झल्लाई हुई है। उसने ढेरों-के-ढेरों व्याख्यान सुने हैं और व्याख्यान सुनने के बाद में यह भी देखा है कि जो आदमी व्याख्यान दिया करते हैं, रामायण पढ़ा करते हैं, गीता पढ़ा करते हैं, कैसे-कैसे वाहियात आदमी हैं और कैसे बेअकल आदमी हैं।
व्याख्यान देने वालों की जिन्दगी, उनके स्वरूप और उनके क्रियाकलाप का फर्क, आवाज का फर्क लोगों ने जाना है। लोगों ने जाना है कि जब सन्त का बाना ओढ़ लेता है, तो क्या कहता है और जब रामायण पढ़ता है तो कैसे-कैसे उपदेश दिया करता है और जब मकान पर आ जाता है, घर पर आ जाता है, तो उसके क्रियाकलाप क्या होते हैं? लोगों ने जान लिया है और समझ लिया है कि लेक्चर झाडऩा एक धंधा बन गया है। उसमें कोई दम नहीं और कोई अकल नहीं।
जनता झल्लाई हुई है
मित्रो, क्या करना पड़ेगा? आपको वहाँ जाने के बाद में सक्रिय कार्यकत्र्ता के रूप में, एक मार्गदर्शक के रूप में आपको रहना पड़ेेगा। जनता अभी आपके पास नहीं आने वाली है। वह सहज रूप से नहीं आयेगी। जनता को निमंत्रण देने के लिए आपको स्वयं ही खड़ा होना पड़ेगा। जनता अब नहीं आयेगी, आप ध्यान रखना। जनता बहुत झल्लाई हुई है। जनता पर बहुत रोष छाया हुआ है। सन्तों के प्रति अविश्वास, नेताओं के प्रति अविश्वास, वक्ताओं के प्रति अविश्वास, सभा-संस्था वालों के प्रति अविश्वास, हरेक के प्रति अविश्वास हर आदमी को है। इस जमाने में जब हरेक के प्रति अविश्वास छाया हुआ है। बड़े-बड़े मिनिस्टर आते हैं, तो दो सौ आदमी भी नहीं आते। कान में जाकर के बी.डी.ओ. को कहना पड़ता है और बोर्ड का अध्यक्ष मास्टरों को बुला करके कहता है कि अच्छा भाई कल की छुट्टïी है, कल के लिए लीजिए 'रेनी-डेÓ लिख देते हैं-वर्षा का दिन और कल सब स्कूलों की छुट्टïी है। सब बच्चों को और सब मास्टर लोगों को लेकर के वहाँ पर विक्टोरिया पार्क में सब जने ४ बजे तक इक_ïा हो जाना, ताकि उनको ये मालूम पड़े कि जनता बहुत आई है।
उसमें से कौन होता है? किसमें? व्याख्यान करने वालों में। व्याख्यान करने वालों में तलाश करना कि जब कोई नेता आता है, तो सुनने वाले कौन होते हैं? आप एक-एक की पहचान करना कि जो व्याख्यान सुनने आये हैं, इसमें जनता वाले कितने थे और स्कूल वाले कितने थे। आपको ये मालूम पड़ेगा कि सफेद कुत्र्ता पहने हुए आगे वाले तो सिपाही बैठे हैं। जो वर्दी को तो उतार आए हैं और मामूली कपड़ा, मामूली पैण्टकमीज पहने हुए हैं। आगे तो ये लोग बैठे हुए हैं। ताली बजाने वालों में कौन बैठे हुए हैं। मास्टर लोग बैठे हुए हैं, पुलिस के सिपाही बैठे हुए हैं। ताली बजाने वालों में और कौन बैठे हुए हैं? ये बैठे हैं और वो बैठे हैं। जनता को आप तलाश करेंगे, तो मुश्किल से पचास आदमी आपको नहीं मिलेंगे। क्यों नहीं मिलते हैं? गाँधी जी की सभा में लोग आते थे और नेहरू की सभा में जाते थे; लेकिन अब सभा में लोग क्यों नहीं आते, क्योंकि नफरत छा गई है? नफरत इसलिए छा गई है कि सिखाने वाले और कहने वाले में अब जमीन-आसमान का फर्क है। इसलिए इनकी बात नहीं सुनेंगे, जरूरी हुआ, तो अखबार में क्यों नहीं पढ़ लेंगे। इन्हें सुनने में हम अपना टाइम क्यों खराब करेंगे? धक्के क्यों खाएँगे? इसलिए यह भी एक प्रश्र आपको हल करना पड़ेगा कि जिन बेचारों ने अपना आयोजन करके रखा है-पन्द्रह दिन का और दस दिन का, वहाँ किस तरह से जनता को बुलाया जाए, ताकि हमारे विचार और हमारी प्रेरणा, हमारे प्रकाश को फैलाने के लिए वे इतना महत्त्व दें, जिसके लिए मेहनत करने भेज रहे हैं आपको। जनता को बुलाने के लिए आपको ही आगे-आगे बढऩा होगा।
पीले चावल से निमंत्रण
मित्रो, शुरू के ही दिन में मैंने आपको यह सब बता दिया था। जनता को अब हम व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण दे सकते हैं। पीले चावल ले करके जाना। घर-घर में जाना निमंत्रण देने के लिए और कहना कि मथुरा वाले गुरुजी को आप जानते हैं क्या? गुरुजी को, हाँ जानते हैं, तो उन्होंने एक बात कह करके भेजी है, आपके लिए कुछ खास संदेश भेजा है, आपके लिए कुछ अलग शिक्षाएँ भेजी हैं; कुछ अलग से संदेश भेजा है; जिसे आपको सुनने के लिए जरूर आना पड़ेगा शाम को। इस तरह से एक घर में, दो घर में, तीन घर में आप स्वयं जाना और वहाँ के कार्यकत्र्ताओं को ले करके जाना। टोलियाँ बनाना और निमंत्रण देने के लिए जाना-निमंत्रण देने के लिए व्यक्तिगत सम्पर्क बनाने वाली बात करनी चाहिए।
एक बात और भी है कि इश्तहारों से आप किसी को नहीं बुला सकते और लाउडस्पीकर पर तो सिनेमा वाले और बीड़ी वाले चिल्लाते हैं। लाउडस्पीकर आप भी लेकर चले जाइए और कहिए-प्यारे भाइयो, शाम को साढ़े छह बजे आना, वानप्रस्थी लोग शान्तिकुंज से आये हैं, प्रवचन करेंगे। तब आप में और बीड़ी वालों में कोई फर्क नहीं होगा। सभी बीड़ी वाले चिल्लाते हैं कि सत्ताईस नम्बर की बीड़ी भाइयो, पिया करो, सत्ताईस नम्बर पिया करो। फिल्मस्तानी भाई, बीड़ी वाले भाई और गुरुजी के वानप्रस्थियों में फिर क्या फर्क रह गया है? माइक, इसकी कोई कीमत नहीं, कहाँ कोई इसे सुनने को आते हैं, कान बन्द कर लेता है। बोल-बोलकर माँगकर चला जाएगा। इस माइक की बात कोई नहीं सुनता। इशारों की बात, इश्तहारों की भी बात नहीं सुनी लोगों ने, पर जब हमको जनता को बुलाना है, तो उसको बुलाने के लिए स्वयं ही आपको निकलना पड़ेगा, कार्यकत्र्ताओं को लेकर के अपने साथ-साथ। कार्यकत्र्ता को साथ लेकर आपको चलना पड़ेगा।
शंख ध्वनि से आमंत्रण
हमारी जनता को निमंत्रित करने की शैली अलग है। कार्यकत्र्ता के रूप में जब आप जाएँगे, तो आपमें से हर आदमी के हाथ में एक शंख थमा दिया जाएगा। मान लीजिए, आप साठ आदमी हैं और उनमें से चालीस व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें कहाँ जाना है? शाखाओं में जाना है, तो चालीसों के हाथ में शंख थमा दिया जाएगा और शंख बजाते हुए जब आप शहर के बाजार में निकलेंगे, तो देखना ताँगे वाले खड़े हो जाएँगे, रिक्शे वाले भी खड़े हो जाएँगे और कहेंगे कि अरे देखो तो सही, ये कौन आ गया? चालीस शंख बजाते हुए और पीले कपड़े पहने हुए, झंडा लिए हुए और एक नए बाबाजी के रूप में, एक नये क्रान्तिकारी के रूप में, एक नये व्याख्यानदाता के रूप में जब आप जाएँगे, तो क्रान्ति मच जाएगी। बैंडबाजे बजते हुए सबने देखे हैं, पर चालीस शंख एक साथ बजते हुए किसी ने नहीं देखे आज तक। चालीस शंख कैसे बजते हैं? आपको मालूम नहीं। चालीस शंखों की आवाज जब एक साथ बजती है, तो कान कैसे काँपते हैं, नवीनता कैसे मालूम पड़ती है? यह शैली आपको गायत्री तपोभूमि सिखाएगा। जब आप जहाँ कहीं भी जाएँ, तो स्थानीय कार्यकत्र्ता को ले करके चलना। छोटे-से गाँव में भी आपको सम्मेलन करना है, सभा करनी है, ये शैली तो आपको अख्तियार करनी ही पड़ेगी। यूँ मत कहना कि मैं बैठा हूँ और तू चला जा। सारी जनता को तो बुलाया नहीं, हमें क्यों बुला लिया। हमारे लिए क्यों सभा की। हम तो बेकार आ गए। अरे बेकार क्यों आ गए बाबा, तुम्हें तो काम सिखाने के लिए भेजा है, चलो हमारे साथ। आगे-आगे शंख ले करके चलना। आप गाँव के मंदिरों से, सब पंडितों के यहाँ से, सत्यनारायण कथा कहने वालों के यहाँ से, सभी संतों को जमा कर लेना और जितने भी कार्यकत्र्ता हैं, सबको लेकर के ही शंख बजाते हुए चलना। घंटियाँ बजाते हुए चलना।
शिविरों का क्रम
मित्रो, आपको ही चलना पड़ेगा, जनता को आमंत्रित करना पड़ेगा, यह सब आपको ही करना पड़ेगा। आप ही नाचे, आप ही गावे, मनवा ताल बजावे। तीन-चार लोग गा रहे थे, जब मैंने सुना, तो बहुत अच्छा लगा। आपको क्या करना पड़ेगा? स्टेज पर व्याख्यान भी आपको देना पड़ेगा और दीवारों पर वाक्य भी आपको लिखने पड़ेंगे। जनता को निमंत्रित करने से लेकर आपको आगे-आगे भी चलना पड़ेगा। निमंत्रण देने जाएँगे, तो भी आपको आगे-आगे चलना पड़ेगा। हमारे प्रात:कालीन शिविर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें हमारे कार्यकत्र्ता, जिनकी कि लाखों की संख्या है, बना करके तैयार किये गये हैं। अब उनमें प्रेरणा भरना बाकी है, हवा भरना बाकी है। गुब्बारे बने हुए रखे हैं। हवा भरनी है, ये साइकिल के ट्यूब भी तो बने रखे हैं। ये अमुक के ट्यूब हैं। ये बढिय़ा वाले ट्यूब हैं। खराबी कहीं भी नहीं आयेगी। हवा भरने वाला नहीं आया, जिसकी वजह से इनका उत्साह ठंडा पड़ गया और इनका जोश ठंडा पड़ गया। आपको इन लोगों में हवा भरनी पड़ेगी और जोश भरना पड़ेगा। शाम को तो वैसे भी तमाशवीन लोग रहते हैं, प्रात:कालीन शिविर वाले जो आपके हैं, उसमें संभव है कि प्राणवान लोग न आएँ। उसके लिए आपको स्वयं उनके पास तक जाना पड़ेगा।
जहाँ कहीं भी, जिस भी शाखा में आप जाएँगे, वहाँ पर आपको सौ-पचास आदमी जरूर ऐसे मिलेंगे, जिनके पास अखण्ड-ज्योति पत्रिका जाती होगी और युग-निर्माण पत्रिका जाती होगी। ध्यान रखना है कि ये शिविर और शाखा वहाँ हों, जहाँ पर कम-से-कम सौ पाठक ऐसे हों, जो हमारी अखण्ड-ज्योति जरूर मँगाते हों। सौ पाठक वहाँ होंगे, जहाँ हमारी पत्रिका १०० की तादाद में भेजी जाती होगी। आप उन सौ आदमियों की लिस्ट माँगना कार्यकत्र्ताओं से या फिर आप गायत्री तपोभूमि चले जाना और पता करना कि कौन-कौन आदमी हैं, जो हमारी अखण्ड-ज्योति मँगाते हैं, युग निर्माण मँगाते हैं। आप उन सबके पास बजाय इसके कि तू जाना-तू जाना आप स्वयं ही जाना, वहाँ के आदमियों को लेकर के और लिस्ट पर निशान लगाते चले जाना।
जिस दिन से आपका आयोजन होगा, उससे तीन दिन पहले हम आपको भेजते हैं। पन्द्रह दिन के आयोजन रखते हैं। दस दिन के आयोजन हैं, पाँच दिन आपको फालतू के मिलते हैं। हमने आपको तैयारी के लिए भेजा है, जिससे आप दो दिन की व्यवस्था बनाकर तब आगे बढ़ें। पन्द्रह दिन का शिविर आपके लिए है। दस दिन का शिविर शाखा के लिए है। शाखा वालों को जो क्रिया-कलाप करना पड़ेगा, वह केवल १० दिन है। पन्द्रह दिन तो आपकी निभ जाए। जब भी पहुँचे, जिस दिन भी पहुँचें, वहाँ के स्थानीय कार्यकत्र्ताओं की लिस्ट ले करके आप निकल जाइए, पूछिए आपके पास आती है अखण्ड-ज्योति? हाँ हमारे यहाँ तो आती है। आपको लेख पसन्द आते हैं? हाँ आते हैं। आप गुरुजी से सहमत हैं? हाँ साहब सहमत हैं। हम तो खुद पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं। अच्छा तो यह हम गुरुजी का संदेश लेकर के आये हैं और उनसे प्रेरणा ले करके और शिक्षा लेकर आये हैं, खासतौर से आपके लिए ले करके आये हैं। इस तरह से आप इनसे कहना कि आपको हमारे प्रात:कालीन शिविरों में जरूर सम्मिलित होना चाहिए। गुरुजी ने हमें अपने सभी कार्यकत्र्ताओं को यह संदेश आपसे कहने भेजा है। आपको जरूर आना है। हाँ साहब, हम जरूर आयेंगे। कल हमको भी जरूर आना है। सबेरे याद रख लीजिए और देख लीजिए—इसमें से कौन-कौन आये और कौन-कौन नहीं आये। सायंकाल को आपको यदि फिर समय मिल जाए, तो जो लोग नहीं आये थे, उनके पास शाम को जा पहुँचे और कहें साहब, हम तो आपका इंतजार ही करते रहे। गुरुजी ने देखिए कहा था और हमने लाल रंग का टिकमार्क पहले ही लगा दिया था कि इनको जरूर बुलाना और देखिए आपके नाम पर टिकमार्क लगा हुआ है और आप ही नहीं आये, ये क्या हुआ? अच्छा तो कुछ काम लग गया होगा? हाँ साहब, आज तो बहुत काम लग गया था, संध्या से जुकाम हो गया था। कल तक तो जुकाम आपका अच्छा हो जाएगा, तो देखो कल जरूर आना। ये टिकमार्क-लाल स्याही का निशान हमें गुरुजी को दिखाना पड़ेगा। आप नहीं आये, तो खराब बात होगी। साहब, हम तो जरूर आयेंगे। गुरुजी से कहना कि उनके विचारों को सब सुनने को आयेंगे। कल सुबह फिर बुलाना। एक-एक आदमी आपको जरूर जमा करना पड़ेगा। यह जिम्मेदारी उठाने के लिए आप स्वयं तैयार होकर जाइये।
सभी कार्य करने हैं आपको
गुरुजी, यह कार्य तो वहाँ के कार्यकत्र्ता या अन्य लोग मिलकर सारी व्यवस्था कर लेंगे। यदि वे लोग कर लेते, तो मित्रो हम नहीं भेजते आपको। ये काम वो नहीं कर सकते। यह टैकनिक उनको नहीं मालूम है। यह आपको मालूम है, इसीलिए वहाँ जाकर के सबसे आगे वाली लाइन में आप खड़े हुए दिखाई पड़ेंगे। खाना बनाने से ले करके सफाई करने तक और शिविर की यज्ञशाला में पत्तियाँ लगाने से लेकर यज्ञशाला का स्वरूप बनाने तक, आपको आगे-आगे बढऩा चाहिए। आपने यह कह दिया। अरे यार, यह कैसा कुंड बना, दिया ऐसे बनते हैं कहीं। तुम तो कैसे कह रहे थे-हम शाखा चलाते हैं। ये तुमने कुंड बना दिया और वेदी बना दी, ये भी कोई तरीका है। ऐसे भी कहीं कुंड बनते हैं क्या? कुंड ऐसे बनने चाहिए थे। तो आप कहाँ चले गये थे? हम तो साहब वहाँ बैठे थे, अखबार पढ़ रहे थे। अखबार पढऩे के लिए आये थे या सामाजिक सहायता करने के लिए आए थे। आपको हम विशुद्ध रूप से कार्यकत्र्ता बना करके भेजते हैं, नेता बनाकर नहीं। नेता हम आपको नहीं बना सकते। किसी को भी हम नेता बनाकर नहीं भेजेंगे। हर आदमी को कार्यकत्र्ता 'सिन्सियर वालन्टियरÓ बना करके भेजेंगे। उस आदमी को भेजेंगे, जो काम करने के लिए स्वयं आगे-आगे बढ़े और दूसरों को साथ लेकर चले। आपका व्यक्तित्व अलग नहीं होना चाहिए।
नियत दिनचर्या हो
आपकी सबेरे से लेकर सायंकाल तक की दिनचर्या जो होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि दूसरा आदमी अपनी दिनचर्या को सही कहे। आपके सोने का समय, उठने का समय और जगने का समय क्रमबद्ध होना चाहिए। प्रात:काल आपको देर से नहीं उठना चाहिए। संध्या आप करते हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन नहीं करते, तो भी आपको करना चाहिए। यहाँ आपने कितना भजन किया या नहीं किया, आप जानें, आपका काम जाने, पर वहाँ जहाँ कही भी हम भेजते हैं, हम इसलिए भेजते हैं कि हर आदमी को हम उपासक बनाएँगे और गायत्री की उपासना सिखाएँगे और निष्ठïा करना सिखाएँगे। अगर आपकी देखा-देखी यही ढीलम-पोल कार्यकत्र्ताओं में भी चालू हो गई हो, तो फिर सब काम बिगड़ जाएगा। अत: आप उपासना निष्ठïापूर्वक करना, चाहे आप आधा घंटा ही करना, पर नियमपूर्वक जरूर करना। भूलना मत कभी। अगर कभी आपने ऐसा करना शुरू कर दिया कि आप साढ़े आठ बजे उठे और बहाना बना दिया कि साहब आज तो रात को देर हो गयी थी और साहब आपके यहाँ तो जगह भी नहीं है। आपके यहाँ हवा अच्छी नहीं है, यहाँ तो कोई बैठने को स्थान मिला नहीं, हम तो एकान्त में भजन करते हैं, गुफा में करते हैं। आपके यहाँ तो गुफा भी नहीं, एकान्त भी नहीं, तो हम यहाँ कहाँ भजन करेंगे। यह गलती मत करना। गुफा मिलती है, तो मुबारक, एकान्त मिलता है, तो मुबारक और चौराहा मिलता है, तो मुबारक और छत मिलता है, तो मुबारक। जहाँ कहीं भी आपको ठहरा दिया गया-धर्मशाला में ठहरा दिया गया है, तो आपको निष्ठïावान व्यक्ति की तरह रहना और उपासना करनी चाहिए।
स्वच्छता का रखें ध्यान
मित्रो, आपको इस बात का ध्यान रखकर चलना चाहिए कि आपको थैलों के थैलों और बक्सों के बक्सों कपड़े लेकर नहीं जाना चाहिए। आप ढेरों के ढेरों धोती-कुर्ता लेकर नहीं जा रहे हैं। आप जहाँ कहीं भी जाने वाले हैं, वहाँ आपको वही एक दो धोती लेकर जाना होगा और एक-दो कपड़े लेकर जाना होगा। अगर आप कहीं अपना तरीका-वह तरीका जो घर में बरतते थे, मैला कपड़ा है, तो मैला ही पहने हैं, फटा है, तो फटा ही पहने हैं। इसको आप भूलना मत, शरीर को भी स्नान कराना और कपड़े को भी स्नान कराना। कपड़ा कौन है? चुगलखोर। ये हर आदमी की हैसियत को, हर आदमी के स्वभाव को और आदमी के रहन-सहन को बता देता है। ये आदमी कौन है? आप गरीब हैं, सस्ता कपड़ा पहने हैं कोई हर्ज नहीं। आपका कपड़ा फट गया हो, तो भी कोई बात नहीं। साबुन आप साथ रखना और सुई-धागा अपने साथ रखना। बटन टूट गया हो तो, आप लगाकर रखना ठीक तरह से। करीने से कपड़े पहनना, आपका कपड़ा मैला नहीं होना चाहिए। मैला कपड़ा पहनकर आप अपने व्यक्तित्व को गँवा बैठेंगे। फिर आप रेशम का कपड़ा ही क्यों न पहने हों और टेरेलीन का कपड़ा क्यों न पहने हों, आपकी बेइज्जती हो जाएगी और आप बेकार के आदमी हो जायेंगे। आपका शरीर सफाई से रहे, आपके सब कपड़े सफाई से रहें। आप वहाँ-जहाँ कहीं भी जाएँ, आप भले ही अमीर आदमी न हों, बड़े आदमी न हों, लेकिन आपको मैले-कुचैले नहीं रहना चाहिये। मैला कुचैला वह आदमी नहीं रह सकता, जो शरीर को स्नान कराता है। कपड़ों को भी रोज स्नान कराइए और कपड़ों को रोज धोइए।
पीला कपड़ा शान से पहनें
आपको ये मैं छोटी बातें बता रहा हूँ, लेकिन हैं ये बड़ी कीमती और बड़ी वजनदार। सायंकाल को जब आप सोया करें, तो अपने कुर्ते को तह करके अपने तकिए के नीचे लगा लिया करिए और तब सोया कीजिए। सबेरे आपका कुर्ता प्रेस किया हुआ और आयरन किया हुआ ऐसा भकाभक मिलेगा कि आप कहेंगे वाह भाई वाह, कैसा बढिय़ा वाला प्रेस हुआ। वानप्रस्थ की पोशाक हमने पहनाई है। इसको आप ऐसे मत करना, अपनी शर्म की बात मत बनाना। शर्म की बात नहीं, आप वानप्रस्थ के कपड़े को अपनी बेइज्जती मत समझना, हम पीला वाला कपड़ा पहनकर जाएँगे, तो लोग हमें भिखारी समझेंगे और हम बाबाजी समझे जाएँगे, जबकि हम तो नम्बरदार हैं, हम तो जमींदार हैं और देखों हम बाबाजी कहाँ हैं? ठीक है हम इस पीले कपड़े की इज्जत बनायेंगे। जैसे कि लोगों ने बिगाड़ी, हम बनाएँगे इज्जत। किसकी बनायेंगे? पीले कपड़े की बनायेँगे। इसलिए पीले कपड़े को आप छोडऩा मत। रेलगाड़ी में जाएँ, तो भी आप पीला कपड़ा पहनकर जाना। लोग-बाग आपसे कहना शुरू करेंगे कि ये बाबाजी लोगों ने सत्यानाश कर दिया। ये छप्पन लाख बाबाजी हराम की रोटी खा-खाकर कैसे मोटे हो गये हैं? ये फोकट का माँगते हैं रोज और नम्बर दो वाला पैसा, ब्लैक वाला पैसा खा-खाकर कैसे मुस्टन्डे हो गये हैं। याद रखिए, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, जो देखेगा यही कहेगा कि ये देखो ये बाबाजी बैठे हैं। इन लोगों को शरम नहीं आती है। तब आप क्या करना? डरना मत उससे। उसकी गलती नहीं है? आप उसको समझाना कि हम बाबाजी कैसे हैं और हमारे बाबाजी का सम्प्रदाय कौन-सा है? और हमारा गुरु कैसा है? और हमको जो काम करना है- वह क्या है? और हम किस तरीके से हैं?
इस बार का कुम्भ
मित्रो! लोगों की निष्ठïाएँ ब्राह्मïण के प्रति कम हो गई हैं और जो रही बची हैं, वह और खत्म हो जाएँगी। लोगों की निष्ठïाए साधु पर से भी खत्म हो गई हैं और जो रही-सही बची हैं, तो और खत्म हो जाएँगी। अबकी बार मुझे कुंभ के मेले में इतनी खुशी हुई कि मेरे बराबर कोई भी नहीं। कुंभ के मेले को देखकर मैं भाव विभोर हो गया। एक बार मैं इलाहाबाद गया था, तो मैंने क्या देखा था? उसी साल ऐसा हुआ था कि रेलों के नीचे-पाँव के नीचे छह-सात सौ आदमी कुचलकर मर गये थे। उस साल मैं कुंभ में था। उसके बाद मैं गया नहीं। अबकी बार मैं यहाँ हूँ। अबकी बार तो मुझे बड़ी भारी प्रसन्नता है कि लोगों ने आने से इनकार कर दिया और यह सही काम किया। इस तरीके से जहाँ लोग इक_ïे होते थे, सन्त और महात्मा इक_ïे होते थे, सन्त और महात्मा इक_ïे होने के बाद सम्मेलन करते थे और सम्मेलन के पश्चात् वाजपेय यज्ञ करते थे, इन मौकों के द्वारा यह किया करते थे कि किस तरह से हमको देश का निर्माण करना चाहिए। समाज की गुत्थियों को हल कैसे करना है और व्यक्ति की नैतिक कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? वे सारी-की-सारी शिक्षाओं को देने के लिए कुंभ में चले आते थे।
परंतु अब देखा ना आपने, क्या-क्या हो रहा है? कहीं रास हो रहा है, कहीं क्या हो रहा है? जनता को आकर्षित करने के लिए, जैसे कठपुतली वाले तमाशा करने के लिए जो ढोंग किया करते हैं, वे इस तरीके से किया करते हैं। न कोई सम्मेलन की बात है, इनके पास न कोई ज्ञान है, न कोई दिशा है, न विचार है। लोगों को घृणा होगी और होनी चाहिए। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि लोगों में नफरत होती चली जा रही है और घृणा उत्पन्न होती चली जा रही है और बाबाजी के दर्शन करने से इनकार करता हुआ आदमी चला जाता है। वे लोग अपने घर में कम्बल पहनकर सोते हैं और लिहाफ ओढ़कर सोते हैं और जब बाजार में होकर स्नान करने के लिए निकलते हैं, तो लंगोटी खोलकर निकलते हैं। मुझे बहुत शरम आती है। मुझे बहुत दु:ख होता है। ठीक है, आप कपड़ों को उतारने वाले महात्मा हैं, तो आप जंगल में जाइये और वहाँ रहिए। वहाँ आप झोपड़ी डालिए और गंगाजी में स्नान कीजिए। गाँव से आप बाहर रहिये। जहाँ हमारी लड़कियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बेटियाँ घूमती हैं, जहाँ हमारी बहुएँ घूमती हैं, जहाँ हमारे बच्चे घूमते हैं, वहाँ आप मत जाइए। यदि आप नागा बाबाजी हैं, तो आप दुनिया को क्या संदेश देने चले हैं?
हरिद्वार में गंगा विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई है, परंतु नहीं साहब, हम तो हर की पौड़ी में ही स्नान करेंगे। अरे बाबा, हरिद्वार की हर की पौड़ी भी तो किसी काम की नहीं है। यह तो हमारे लिए किसी ने खोदकर नहर निकाल दी है। यह तो एक नहर है। आप मालूम कर लीजिए हर की पौड़ी एक नहर है। यह क्या? हर की पौड़ी तो गंगाजी है। गंगाजी तो है, पर खोदकर लाई गई है। गंगाजी में आपको नहाना है, तो आप वहाँ जाइये-नीलधारा पर नहाइये। यह गंगाजी नहीं है। यह मनुष्यों की बनाई हुई नहर है। नहीं साहब, हम तो ब्रह्मïकुण्ड में नहाएँगे, हम तो यहीं नहाएँगे। हम तो ये करेंगे और हम तो नंगे होकर नहाएँगे। इस तरह के लोगों के दर्शन करने को अब आदमी नहीं जाता है। मुझे बहुत खुशी है कि लोगों ने इस साल कुंभ में आने से इनकार कर दिया और मैं भगवान् से प्रार्थना करूँगा कि अगले वर्ष भी वे यहाँ न आयें। इसमें सफाई कर्मचारियों के अलावा, पुलिस वालों के अलावा और बाबाजियों के अलावा, तीसरा कोई जनता न आवे। तीन आदमी आ जाएँ। बस, काम बन जाएगा। लोग क्यों आने चाहिए? और क्यों पैसा खराब करना चाहिए? इनको किस काम के लिए पैसा खराब करना चाहिए? छह तारीख को आप नहाएँगे, तो बैकुंठ को जाएँगे। हर की पौड़ी के ब्रह्मïकुंड में नहाकर के आप बैकुंठ को जाएँगे? यह बहम जिनके दिल के ऊपर सवार है, उनकी तादाद खत्म होनी चाहिए। जिनको यह बहम हो गया है कि छह तारीख को न नहाने से बैकुंठ नहीं जाएँगे और हर की पौड़ी के कुंड पर नहा लेंगे, तो सीधे बैकुंठ को जाएँगे और वहाँ सड़कों पर नहा लेंगे तो नरक को जाएँगे। इस तरह की मनोवृत्ति जितनी लोगों में कम होती चली जाएगी, धर्म की उतनी ही सेवा होती जाएगी।
गाली खाने के लिए तैयार रहें
इसलिए मित्रो क्या हो गया? लोगों में पंडितों के प्रति, संतों के प्रति, साधुओं के प्रति, हरेक के प्रति अवज्ञा का भाव उत्पन्न हो गया है और वे भाव हमने पैदा किये हैं। हम पुन: आस्था की स्थापना करेंगे। साधु के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे, ब्राह्मïण के गौरव को हम फिर जिन्दा करेंगे कि साधु और ब्राह्मïण अपनी जिन्दगी किस तरीके से खपा देते थे। समाज के लिए, समाज को ऊँचा उठाने के लिए और धर्म की ऊँचा उठाने के लिए। ऋषियों की निष्ठïा को ऊँचा उठाने के लिए किस तरह से वे अपने आपके लिए तबाही मोल लेते थे और किस तरीके से गरीबी मोल लेते थे? कि तरीके से कष्टï उठाते थे? इसे हमको जिन्दा करना है। इसलिए आप पीला कपड़ा जरूर पहनना, जिससे कि लोगों को बहस करने का मौका मिले और आपको गालियाँ खाने का मौका मिले। गालियाँ आपको खानी चाहिए, मैं तो कहता हूँ कि जिस आदमी को गालियाँ नहीं मिलीं, वह हमारा चेला नहीं हो सकता। गाँधीजी के शिष्य जितने भी थे उनको गालियाँ खानी पड़ी और आचार्य जी के चेलों को गालियाँ खानी चाहिए। गोलियाँ खाने को तैयार हो जाइये। नहीं साहब, गोली तो हम नहीं खाएँगे। ठीक है, आप गोली मत खाइये। तो क्या गाली खाएँ। गाली खाने से क्या एतराज है आपको? गाली तो खाइए ही।
आप पीले कपड़े पहन लेना और रेलगाड़ी के थर्डक्लास के डिब्बे में बैठ जाना। हर आदमी गाली देगा आपको और कहेगा कि देखो बाबाजी बैठा हुआ है। यह देखो फोकट का माल खाने वाला बाबाजी बैठा हुआ है। यह हरामखोर बाबाजी बैठा हुआ है। चालाक बाबाजी बैठा हुआ है, यह ढोंगी बाबाजी बैठा हुआ है। उन सबकी गाली आपको नहीं पडऩी चाहिए क्या? गाली आपको पडऩी चाहिए; क्योंकि लोगों ने इस तरीके से हमारे धर्म को, अध्यात्म को और भगवान को, ईश्वर को और सन्तवाद को बदनाम किया है। उसका प्रायश्चित हमें तो करना पड़ेगा ही। आखिर उनके वंश के तो हमीं लोग हैं ना? उनकी परम्परा के अनुयायी हमीं लोग तो हैं ना? उनकी औलाद तो हमीं लोग हैं ना? उनकी जिम्मेदारी हमीं लोग तो उठाने वाले हैं। ऋषियों के गौरव, ऋषियों के यश का लाभ हमीं लोग तो उठा सकते हैं। तो फिर हमारे जो मध्यकाल में ऋषि हुए हैं, उनके बदले की गाली कौन उठाएगा? गाली हमको खानी चाहिए। इसलिए पीला कपड़ा, आप उतारना मत। जहाँ कहीं भी जाएँ, वहाँ रंग का डिब्बा साथ लेकर जाएँ। यह मत कहना यहाँ तो रंग मिलता नहीं। यह हमारी शान है, यह हमारी इज्जत है। यह हमारी हर तरह की साधु और ब्राह्मïण की परम्परा-का उस समय की निशानी है, कुल की निशानी है। पीले कपड़े पहन करके जहाँ कहीं भी जाएँगे लोगों को मालूम पड़ेगा कि ये कौन हैं? ये उस मिशन के आदमी हैं, युग निर्माण योजना के आदमी हैं, गायत्री परिवार के आदमी हैं। युग निर्माण के आदमी कौन? जो संतों की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर बाँधकर खड़े हो गये, जो ब्राह्मïण की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए कमर कसकर खड़े हो गये हैं। जिन्होंने जीवन का यह व्रत लिया है कि हम श्रेष्ठï व्यक्तियों के तरीके से भले मनुष्यों के तरीके से-शरीफ आदमियों के तरीके से और अध्यात्मवादियों के तरीके से जिन्दगी यापन करेंगे। आपके बोलने की शैली, चलने की शैली और काम करने की शैली जब लोग देखेंगे, तो समझेंगे कि साधु घृणा करने का पात्र नहीं है। साधु नफरत करने की निशानी नहीं है। साधु हरामखोर का नाम नहीं है। साधु फोकट में मुक्ति माँगने वाले का नाम नहीं है, बल्कि परिश्रम करके और कीमत चुकाकर जीवनयापन करने वाले का नाम है। स्वयं मुक्ति पाने के लिए नहीं, बल्कि बंधनों से सारे समाज को मुक्ति दिलाने वाले का नाम ही साधु है। ये बातें जब लोगों को मालूम पड़ेंगी, तो परिभाषाएँ बदल जाएँगी, सोचने का तरीका बदल जाएगा। लोगों की आँखों में जो खून खौल रहा है, लोगों की आँखों में जो गुस्सा छाया हुआ है, वह खून खोलने वाली बात, गुस्सा छाने वाली बात से राहत मिलेगी।
मित्रो, अब ये जड़ें खत्म होने जा रही हैं और अध्यात्म बढ़ता हुआ चला जा रहा है। उसकी नींव मजबूत होने का फायदा फिर आपको मिल सकता है। आपको अपने इन्स्टीट्यूशन को मजबूत करने के लिए और मिशन की जानकारी अधिक से अधिक लोगों को कराने के लिए इन पीले वस्त्रों को प्यार करना होगा। जब तक आपको मिशन में जाना है, क्षेत्रों में जाना है, तब तक इन पीले कपड़ों को उतारना मत।
अच्छे काम में शरम कैसी
अच्छे काम के लिए, अच्छा काम करने के लिए शरम की जरूरत नहीं है। आपको खराब काम, बुरे काम करने की जरूरत हो, तो बात अलग है। अच्छा काम गाँधीजी ने शुरु किया था। तब चरखा को बुरा समझा जाता था। चरखा विधवाओं की निशानी समझा जाता था, लेकिन गाँधीजी ने जब से चरखा चलाना शुरू कर दिया, देशभक्तों की निशानी बन गई और वह काँग्रेस वालों की निशानी बन गई। हमें इस पीले कपड़े को चरखे की तरह समझना चाहिए। हम इसका गौरव बढ़ाएँगे और हम संत और महात्माओं की निष्ठïा-आस्था को फिर मजबूत करेंगे, जो घटती चली जा रही है और हवा में गायब होती चली जा रही है। हमारे क्रिया-कलाप और हमारे वस्त्र-दोनों का तालमेल मिला करके जब हम कार्यक्षेत्र में चलने के लिए तैयार होंगे, तो फिर क्यों हम उन परम्पराओं को जाग्रत करने में-जीवित करने में समर्थ न होंगे? जिसको ऋषियों ने हजारों और लाखों के खून से सींचकर के बनाया था, उसको जिन्दा रखा था।
पैसे की पारदर्शिता
आपको वहाँ जहाँ-कहीं भी जाना है, एक आदर्श व्यक्ति की तरह से जाना है। आपको कन्याओं में भी काम करना पड़ेगा, आपको लड़कियों में भी काम करना पड़ेगा। और महिलाओं में काम करना पड़ेगा। आप जहाँ कहीं भी जाएँ— दो बातों का ख्याल रखना। एक बात तो पैसे के बारे में है। उससे अपने हाथ बिल्कुल साफ रखना। जहाँ कहीं भी आपको पैसे चढ़ाने का मौका आए, आरती का मौका आए, पूजा का मौका आए, कोई भी पैसा आता हो, वहाँ आप लेना मत। आप चाहें कि इक_ïा दस हजार जेब में भरते जाएँ और कहें कि अरे साहब! ये पूजा की आरती में पैसे आये थे। ऐसा मत करना आप। यद्यपि यह सब करने का मौका मिलेगा। आप वहीं के लोगों को बुलाना और देखना कोई पैसे आते हैं, चढ़ावे में आते हैं, सामने रखे जाते हैं। कोई चवन्नी चढ़ा जाती है लड़की, कोई अठन्नी चढ़ा जाती है। इस तरह पैसे का हिसाब बढ़ता चला जाएगा। इनको आप उसमें रखना, जमा करना। आप पैसे के बारे में हाथ साफ रखना। आपको शाखा जो कुछ भी दे वह किराये-भाड़े के रूप में कहीं भी जमा रखना। किराया आपको जो कुछ भी लेना हो, अपना खर्च वहीं से लेना। बाहर के लोगों से आप ये शिकायत न करना कि हमें साबुन की जरूरत है, कपड़े की जरूरत है और हमको वो वाली चीज चाहिए, हमको फलानी चीज चाहिए। कोई लाकर दे दे साबुन तो बात अलग है, लेकिन अगर आपको न दे तो आप अपने पैसे से ले लेना। नहीं तो वहाँ के आदमी से माँग लेना, लेकिन वहाँ के लोगों का कोई दान-दक्षिणा का पैसा आप मंजूर मत करना।
दान व्यक्तिगत नहीं है
आपको हमने संत बनाया है, लेकिन दान-दक्षिणा का पैसा वसूल करने का अधिकारी नहीं बनाया है। व्यक्तिगत रूप से दान-दक्षिणा लेने का अधिकार बहुत थोड़े आदमियों को होता है। उन्हीं को होता है, जिनके पास अपनी कोई सम्पत्ति, अपना कोई धन नहीं होता। उस आदमी को भी दान-दक्षिणा लेने का अधिकार है, जिसने सारा जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया है और अपने घर की सम्पदा को पहले खत्म कर दिया है और अपने घर की सम्पदा के नाम पर उसके पास कोई पैसा जमा नहीं है। तब उस आदमी को हक हो जाता है कि लोगों से अपने शरीर निर्वाह करने के लिए पैसा ले। शरीर के निर्वाह करने के लिए रोटी ले। आपको मालूम होगा-अखण्ड ज्योति कार्यालय से गायत्री तपोभूमि प्रतिदिन दो बार आना-जाना होता था। भोजन अखण्ड ज्योति जाकर ही करते थे। यदि कभी तपोभूमि में देर तक रुकना पड़ता था, तो भोजन अखण्ड ज्योति संस्थान से मँगा लेते थे और वहाँ बैठकर खाते थे। आपको मालूम है कि नहीं, हमें ज्ञान नहीं। हमारे पास जमीन थी उस वक्त तक। इसीलिए जमीन जब तक हमारी थी, हमें क्या हक था कि हम अस्सी बीघे जमीन से अपना गुजारा न करें और गायत्री तपोभूमि के पैसे से हम कपड़े पहनें और रोटी लें। लोगों ने हमको धोतियाँ दीं, कपड़े हमको दिए और कहा कि गुरुजी के लिए लाए हैं। गुरु-दक्षिणा में लाए हैं। आपके लाने के लिए बहुत धन्यवाद, बहुत एहसान। सारे के सारे बक्से में बन्द करते चले गये। सारे कपड़ों को तपोभूमि में भिजवा दिया। जहाँ कार्यकत्र्ता रहते थे, दूसरे लोग रहते थे, हरेक को हमने दे दिया। अच्छा भाई लो, किसकी धोती फट गई। हमारी फट गई धोती, इनको देना। इसके पास नहीं है। उनके पास नहीं है। अच्छा खोल दो बक्सा मेरा; क्योंकि वे अपना घर छोड़ करके आ गये थे। उनके पास जीविका नहीं थी। इसलिए उन्हें खाने का अधिकार था। हमको नहीं था अधिकार, हमने नहीं खाया। जब तक हम गायत्री तपोभूमि में रहे हमने रोटी नहीं खाई, लेकिन जब हम अपनी अस्सी बीघे जमीन दे करके और भी हमारे पास जो कुछ था, दे करके खाली हाथ हो करके आ गये, हम अपना केवल शरीर और वजन ले करके आ गये, तो हमने यह मंजूर कर लिया है और हम यहाँ शांतिकुंज के चौके में रोटी खाते हैं और कपड़े पहनते हैं।
मित्रो! दान-दक्षिणा की, रोटी खाने का और कपड़े पहनने का अधिकार सिर्फ उस आदमी को है, जिसने अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त कर दिया है। जब तक आदमी अपनी व्यक्तिगत सम्पदा को समाप्त नहीं कर देता। कहीं गया है ठीक है, मेहनत की तरह से रोटी खा ले बस। आपके पास पैसा आता है, तो आप संस्था में जमा करना। पैसे के मामले में कहीं आप यह करके मत आना कि लोग आपके बारे में ये कहने लगें कि गुरुजी के चेले पैसे के बारे में चोरी का भाव लेकर के आते हैं, भिक्षा माँगने का भाव लेकर आते हैं। यह ख्याल ले करके मत आना। यह बदनामी है आपकी, हमारी और हमारे मिशन की।
जनसम्पर्क संबंधी अनुशासन
एक और बात आप करना मत। क्या मत करना? आपको हमने महिलाओं में, लड़कियों में मिला दिया है। हमने हवन-कुण्डों पर हवन करने के लिए लड़कियों को, स्त्रियों को शामिल करने की जिम्मेदारी उठा ली है। हमने एक बड़ा काम कर डाला। बड़ा दुस्साहस का काम कर डाला। आप समझते नहीं कितनी बड़ी जिम्मेदारी हमने उठा ली है। उस जिम्मेदारी की शरम रखना आपके जिम्मे है। लड़कियाँ आई हैं। सम्मान के साथ काम करेंगी। अमुक काम करेंगी। लड़कियाँ आई हैं-अपने-अपने कंधों पर सिर पर कलश के घड़े ले करके चलेंगी। आपके पास आएँगी और परिक्रमा लगाएँगी और जय बोलेंगी। कोई आपके लिए क्या कहेंगी और कोई हवन करने के लिए कहेंगी। आप हमेशा दो बातों का ध्यान रखना कि अकेले किसी लड़की से बात मत करना। जब कभी कोई अकेली लड़की, अकेली महिला आती हो, तो चुप हो जाना और आवाज देकर दूसरों को बुला लेना। किसी मर्द को बुला लेना या किसी महिला को बुला लेना। अकेले बात मत करना कभी। कभी कोई अकेली स्त्री आये और आपसे कोई बात करना चाहती हो या अकेली बात करती हो, तो आप कहना बहिन जी आप अपने बाप को, बहिन को लिवा लाइये और अपने भाई को लिवा लाइये। वह यहाँ आ करके बैठ जाएँ या फिर हम अपने बाबाजी को बुला लेते हैं। अकेली स्त्री से कभी भी बात मत करना। आप पर मैं यह प्रतिबन्ध लगाता हूँ। अकेले मत बात करना। किसी मर्द के बिना बात मत करना। यह प्रतिबन्ध नम्बर एक हुआ।
बन्धन नम्बर दो। कन्याओं से और लड़कियों से बात करते हुए आपको ईसाई मिशन वाली बात याद रखनी चाहिए। 'ननÓ जो होती हैं, ईसाई मिशन का काम करती हैं। उनको ऐसी शिक्षा दे दी जाती है कि वे महिला में, महिला समाज में काम करती हैं। उनको आपने देखा होगा। नर्सों के रूप में जो काम करती हैं, महिलाओं में काम करती हैं, उनको नर्स कहते हैं। जो पादरी होती हैं, उनको नन कहते हैं। ननें टोपा-सा पहने रहती हैं। शायद कभी आपने देखा हो। ननों को एक खास शिक्षा दी जाती है कि कभी भी मर्दों से आँख-से-आँख मिलाकर बात नहीं करनी चाहिए। मर्दों के सामने बात करें, तो काम की बात करें। समझाइए ये बात कीजिए, वो बात कीजिए, पर आँख से आँख मत मिलाइये। आँखें नीची रख करके महिलाओं से आप भी बातें करें। आपको भी यही शिक्षा दी जाती है। आपको भी ये शिक्षा दी जाती है कि महिला समाज में जहाँ कहीं भी आपको रहना पड़े, आँख से आँख मिलाइए मत, आँखें नीची करके बात कीजिए। नीचे आँख करके बात करेंगे, तो आपका गौरव, आपका सम्मान, आपकी इज्जत बराबर बनी रहेगी। गंभीर हो करके आप कीजिए बात। जोरों से कीजिए बात। दोस्तों से विशिष्टï बात मत कीजिए। जो भी कह रहे हैं, उसे जोर से कहिए। ऐसे कहिए मानो दूसरों को कम सुनाई पड़ता है। कम सुनने वाला आदमी कैसे बोलता है? सोचता है इन सबको कम सुनाई पड़ता है। धोती मँगा दीजिए। अरे हमारे तो कान अच्छे हैं। आप ये समझ रहे हैं, महिला समाज में जब आपको काम करना पड़े, तो आप क्या कहेंगे। आप यह समझना कि हमारे कान बहरे हो गये हैं। जोर से कह लड़की, क्या कहती है। जो कहना हो वह भी जोर-जोर से कहना। आप इन बातों को ध्यान रखना। ये बातें काम की हैं। हैं तो राई की नोक की बराबर, लेकिन आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, शालीन आदमी हो करके जाएँगे, श्रेष्ठï आदमी हो करके जाएँगे। आप अपनी संस्था के गौरव को अक्षुण्ण रखने में समर्थ हो सकेंगे।
परीक्षा की घड़ी
जब मैं आपको यहाँ से भेजता हूँ। कहाँ भेजता हूँ? आपने अपनी कन्या के हाथ पीले कर दिए। मैंने किसके पीले हाथ कर दिए? आप लोगों के पीले हाथ किये हैं। कपड़े मैंने पहना दिये हैं, पीले हाथ कर दिये हैं, अब आपकी जिम्मेदारी है। अब आपका इम्तिहान लिया जाने वाला है और आपकी यह परख होने वाली है कि ये जो बहू आई है, कैसी है और बहू को क्या-क्या बनाना आता है। रोटी बनानी आती है बहू को, नहीं। बहू को पकौड़ी बनानी आती है कि नहीं। उसके सास, ससुर बैठे हैं। अरे ये बहू आई है, बहू के हाथ से पूड़ी तो बनवाकर खिलवाओं, बहू के हाथ से कचौड़ी, तो बनवाकर खिलवाओ। सब बैठे हुए हैं, सारा घर बैठा हुआ है और देखिए बहू आती है और कैसे पकौड़ी बनाती है, कैसे पकौड़ी बनाकर खिलाती है? आप पीले कपड़े पहन करके और अपने पीले हाथ करा करके अपनी ससुराल चले जाना। वहाँ इस तरह से काम करके आना, इस तरह का व्यवहार करके आना कि आपका समधी कहे, आपकी जिठानी कहे, देवरानी भी कहे, सारा गाँव ये कहे कि ये लड़की क्या है! बड़े खानदान की इज्जत को रखना और बहू को असली इज्जत को रखना आप अपनी ससुराल में।
याद रखिए आप वह नाम कमा करके आना कि लोग हमसे बार-बार यही कहें कि पिछली बार जिन मोहनलाल जी को आपने भेजा था, इस बार भी आप उन्हीं को भेजना गुरुजी। अबकी बार फिर हमने सम्मेलन किया है और हमारे लिए तो मोहनलाल जी को ही भेज दीजिए। बेटा, मोहनलाल जी को नहीं अबकी बार तो मक्खनलाल जी को भेजेंगे, पिछली बार मोहनलाल जी को भेजा था। मोहनलाल जी से इक्कीस ही भेज रहे हैं उन्नीस नहीं हैं। अरे गुरुजी, उन्हीं को भेज देते तो अच्छा रहता। लोग याद करें आपको, ऐसी आप निशानियाँ छोड़ करके आना—अपने स्वभाव की, अपने कर्म की, अपने गौरव की और अपनी विशेषताओं की। गौरव की बात छोड़ करके आये, तो मित्रो, धन्य हो जाएगा आपका वानप्रस्थ, धन्य हो जाएगा हमारा यह शिविर। धन्य हो जाएँगे आपके वे क्रियाकलाप, जिनके लिए सारे भारतवर्ष में भ्रमण करने के लिए, लोगों में जागृति लाने के लिए, लोगों में भावना पैदा करने के लिए, लोगों में भगवान् के प्रति निष्ठïा जगाने के लिए, अध्यात्मवाद की स्थापना करने के लिए, आत्मा का विकास करने के लिए और धार्मिकता की स्थापना करने के लिए आपको भेजते हैं। आपको इन्हीं तीन उद्देश्यों के लिए भेजते हैं। आप साधना करके आना और हमारी लाज रखके आना। आज की बात समाप्त हुई।
॥ॐ शान्ति॥
जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ
(१७ अप्रैल १९७४ को शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन )
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! भगवान् ने गीता में 'विभूति योगÓ वाले दसवें अध्याय में एक बात बताई है कि जो कुछ भी यहाँ श्रेष्ठï दिखाई पड़ता है, ज्यादा चमकदार दिखाई पड़ता है, वह मेरा ही विशेष अंश है। जहाँ कहीं भी चमक ज्यादा दिखाई पड़ती है, वह मेरा विशेष अंश है। उन्होंने कहा, वृक्षों में मैं पीपल हूँ। छलों में मैं जुआ हूँ। वेदों में मैं सामवेद हूँ। साँपों में वासुकी मैं हूँ। अमुक में अमुक मैं हूँ-आदि मुझ में ये सारी विशेषताएँ हैं। मित्रो! आपको जहाँ-कहीं भी चमक दिखाई पड़ती है, वो सब भगवान् की विशेष दिव्य विभूतियाँ हैं और जहाँ कहीं भी जितना अधिक विभूतियों का अंश है, यह मानकर के हमको चलना पड़ेगा कि यहाँ इस जन्म में अथवा पहले जन्मों में इन्होंने किसी प्रकार से इस संपत्ति का उपार्जन किया है। अगर यह उपार्जन इन्होंने नहीं किया है, तो सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा उनमें ये विशेषता क्यों दिखाई पड़ती हैं? जिनके अंदर कुछ विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं, मित्रो! उनके कुछ विशेष कत्र्तव्य और विशेष जिम्मेदारियाँ हैं। इसलिए उनको उद्बोधन करना चाहिए। उन लोगों को, जिनके अंदर कुछ विशेष प्रभाव और विशेष चमक दिखाई पड़ती है।
संपदा बनाम विभूति
मित्रो! विशेष प्रभाव और विशेष चमक क्या है? वह है जिनको हम विभूतियाँ कहते हैं। कुछ संपदाएँ होती हैं, कुछ विभूतियाँ होती हैं। संपदाएँ क्या होती हैं और विभूतियाँ क्या होती हैं? संपदा उसे कहते हैं जो कि बाप-दादों की हैं। वे उसे छोड़कर चले जाते हैं और हम उस कमाई को बैठकर खाया करते हैं, ये संपदाएँ हैं। ये स्त्रियों को भी मिल जाती हैं, बच्चों को भी मिल जाती हैं। ये कोढिय़ों को भी मिल जाती हैं, अंधों को मिल जाती हैं और पंगु को भी मिल जाती हैं,गूँगें-बहरे को भी मिल जाती हैं। गूँगे-बहरे भी कई बार जुआ खेलते हैं और लाटरी लगाते हैं। लाटरी लगाने के बाद में उनको रुपया भी मिल जाता है। न मालूम किसको क्या मिल जाता है बाप-दादों की कमाई से? बाप-दादों की कमाई से मिनिस्टरों के लड़के-लड़कियों को ऐसे-ऐसे काम मिल जाते हैं, ऐसे-ऐसे धंधे मिल जाते हैं, जिससे उनको घर बैठे लाखों रुपए की आमदनी होती रहती है। इसे क्या कहते हैं? इसे हम संपदा कहते हैं।
किसी के पास जमीन है। भगवान् की कृपा से उस साल अच्छी वर्षा हो गई, तो दो सौ क्विंटल अनाज पैदा हो गया। दो सौ क्विंटल अनाज बिक गया, तो ढेरों पैसा आ गया और उसे बैंक में जमा करा दिया। मकान बन गया, ये बन गया-वो बन गया। पैसे का खेल बन गया। क्या कहता हूँ मैं इनको? इनको मैं संपत्तियाँ कहता हूँ। संपत्ति जमीन में गड़ी हुई मिल सकती है, बाप-दादों की उत्तराधिकार में भी मिल सकती है और किसी बड़े आदमी की कृपा एवं आशीर्वाद से भी मिल सकती है। संपत्ति किसी भी तरीके से मिल सकती है, किंतु संपत्तियों का कोई मूल्य नहीं है, विभूतियों का मूल्य है। विभूतियाँ जहाँ कहीं भी दिखाई पड़ें, उनको आप यह मानकर चलना कि वे भगवान् का विशेष अंश हैं। विशेष अंश जो उनके भीतर है, वह जहाँ कहीं भी हो, उस अंश को जाग्रत् करना, उसको उद्बोधन करना और सोए हुओं को जगाना हमारा-आपका विशेष काम है।
साथियो! रावण के घर में ढेरों-के-ढेरों आदमी थे। सुना है एक लाख बच्चे थे और सवा लाख नाती-पोते थे, लेकिन जब रामचंद्र जी से लड़ाई हो गई और दोनों और की सेनाएँ खड़ी हो गईं, तो उसने देखा कि हमारे पास एक ही सहायक, एक ही मजबूत और जबरदस्त आदमी है, उसको जगाया जाना चाहिए और उसकी खुशामद की जानी चाहिए। उसकी खुशामद की जाने लगी, उसे जगाया जाने लगा। कौन आदमी था वह? उसका नाम था कुंभकरण। वह छह महीने जागा करता था। रावण को यह विचार आया कि कुंभकरण यदि जाग करके खड़ा हो जाए, तो सारे रीछ-बंदरों को एक ही दिन में मारकर खा जाएगा। एक ही दिन में सफाया कर देगा और लडऩा भी नहीं पड़ेगा और रामचंद्र जी की सेना का सफाया हो जाएगा। सुना है, इसीलिए उसके ऊपर बैल, घोड़े और हाथियों को चलाना पड़ा था, ताकि कुंभकरण की नींद छह महीने पहले ही खुल जाए और वह उठकर खड़ा हो जाए। अगर वह तुरंत उठकर खड़ा हो गया होता, अगर जाग गया होता, तो रामचंद्र जी की सेना के लिए मुसीबत खड़ी कर दी होती, लेकिन भगवान् की कृपा ऐसी हुई, भगवान् का जोश और प्रताप ऐसा हुआ कि वह काफी देर से जागा। तब तक रावण युद्ध हार चुका था। इसीलिए रावण मारा गया, मेघनाद मारा गया और सारी लंका तहस-नहस हो गई।
विभूतिवान जागें
मित्रो! हमको समाज में सोए हुए, गड़े हुए कुंभकरणों को जगाना चाहिए। कुंभकरणों की कमी है क्या? नहीं, इनकी कमी नहीं है, पर वे सो गए हैं। हमारा एक काम यह भी होना चाहिए कि जहाँ कहीं भी आपको विभूतिवान् मनुष्य दिखाई पड़ें, तो आपको उनके पास बार-बार चक्कर काटना चाहिए और बार-बार उनकी खुशामद करनी चाहिए।
विभूतिवान् लोगों में एक तबके के वे लोग आते हैं, जिनको हम विचारवान् कहते हैं, समझदार कहते हैं। समझदार मनुष्य इस ओर चल पड़ें, तो भी गजब ढा देते हैं और उस ओर चल पड़ें, तो भी गजब ढा देते हैं। मोहम्मद अली जिन्ना बड़े समझदार आदमी थे और बड़े अक्लमंद आदमी थे। मालवार हिल के ऊपर मुंबई में उनकी कोठी बनी हुई है। उनके यहाँ चालीस जूनियर वकील काम करते थे और केस तैयार करते थे। मोहम्मद अली जिन्ना केवल बहस करने के लिए हाईकोर्ट में जाते थे और एक-एक केस का हजारों रुपया वसूल करते थे—उस जमाने में। मोतीलाल नेहरू के मुकाबले के आदमी थे। उनमें बड़ी अक्ल थी, बड़े दिमाग वाले थे। बड़ा दिमाग वाला, अक्ल वाला मनुष्य इधर को चले, तो भी गजब और उधर को चले, तो भी गजब। सही भी कर सकता था वह तथा गलत भी। यही हुआ।
मोहम्मद अली जिन्ना एक दिन खड़े हो गए और पाकिस्तान की वकालत करने लगे, पाकिस्तान की हिमायत करने लगे। परिणाम क्या हुआ? परिणाम यह हुआ कि सारे पाकपरस्तों के अंदर उन्होंने एक ऐसी बगावत का माद्दा पैदा कर दिया, ऐसी लड़ाई पैदा कर दी, जेहाद पैदा कर दी और न जाने क्या-क्या पैदा कर दिया कि एक ही देश के लोग एक दूसरे के खूनी हो गए, बागी हो गए। खूनी और बागी होकर के जहाँ-तहाँ दंगे करने लगे। आखिर में गाँधीजी को यह बात मंजूर करनी पड़ी कि पाकिस्तान बनकर ही रहेगा। निर्णय सही था कि गलत, यह चर्चा का विषय नहीं है। वास्तविकता यह जाननी चाहिए कि यह जहर किसने बोया? यह जहर उस आदमी ने बोया, जिसको हम समझदार कहते हैं और अक्लमंद कहते हैं, मोहम्मद अली जिन्ना कहते हैं। यह तो मैं उदाहरण दे रहा हूँ। मनुष्यों का क्या उदाहरण दूँ, मैं तो समझदारी का उदाहरण दे रहा हूँ।
कीमत सही अक्ल की
समझदारी जहाँ कहीं भी होगी, न जाने क्या-से-क्या करती चली जाएगी? समझदार आदमी आर्थिक क्षेत्र में चला जाएगा, तो वो मोनार्क पैदा हो जाएगा और हेनरी फोर्ड पैदा हो जाएगा। पहले ये छोटे-छोटे आदमी थे। नवसारी गुजरात का एक नन्हा-सा आदमी, जरा-सा आदमी और समझदार आदमी अगर व्यापार क्षेत्र में चला जाएगा, तो उसका नाम जमशेद जी टाटा होता चला जाएगा। राजस्थान का एक अदना-सा आदमी जुगल किशोर बिड़ला होता चला जाएगा। अगर आदमी के अंदर गहरी समझदारी हो तब? तब एक नन्हा-सा आदमी, जरा सा आदमी, दो कौड़ी का आदमी जिधर चलेगा, अपनी समझदारी के साथ, वह गजब ढाता हुआ चला जाएगा।
मित्रो! गहरी समझदारी की बड़ी कीमत है। गहरी समझदारी वाले सुभाषचंद्र बोस गजब ढाते हुए चले गए। सरदार पटेल एक मामूली से वकील। यों तो दुनिया में एक ही नहीं, बहुत सारे वकील हुए हैं, लेकिन पटेल ने अपनी क्षमता और प्रतिभा यदि वकालत में खरच की होती, तो शायद अपनी समझदार अक्ल की कीमत एक हजार रुपया महीना वसूल कर ली होती और उन रुपयों को वसूल करने के बाद में मालदार हो गए होते और उनका बेटा शायद विलायत में पढ़कर आ जाता और वह भी वकील हो सकता था। उनकी हवेली भी हो सकती थी और घर पर मोटरें भी हो सकती थीं, लेकिन वही सरदार पटेल अपनी समझदारी को और अपनी बुद्धिमानी को लेकर खड़े हो गए। कहाँ खड़े हो गए? वकालत करने के लिए। किसकी वकालत करने के लिए? काँग्रेस की वकालत करने के लिए और आजादी की वकालत करने के लिए। जब वे वकालत करने के लिए खड़े हो गए, तो कितनी जबरदस्त बैरिस्टरी की और किस तरीके से वकालत की और किस तरीके से तर्क पेश किए और किस तरीके से उनने फिजाँ पैदा की कि हिंदुस्तान की दिशा ही मोड़ दी और न जाने क्या-से-क्या हो गया?
मित्रो! अक्ल बड़ी जबरदस्त है और आदमी का प्रभाव, जिसको मैं प्रतिभा कहता हूँ, विभूति कहता हूँ, यह विभूति बड़ी समझदारी से भरी है। अगर यह विभूति आदमी के अंदर हो, जिसको मैं आदमी का तेज कहता हूँ, चमक कहता हूँ, तो वह आदमी जहाँ कहीं भी जाएगा, वो टॉप करेगा। वह टॉप से कम कर ही नहीं सकता। सूरदास जब वेश्यागामी थे, बिल्वमंगल थे, तो उन्होंने अति कर डाली और सीमा से बाहर चले गए। वहाँ तक चले गए जहाँ तक कि अपनी धर्मपत्नी के कंधे पर बैठकर वहाँ गए, जहाँ उनके पिताजी का श्राद्ध हो रहा था। वहाँ भी पिताजी के श्राद्ध के समय भी वे वेश्यागमन के लिए चले गए। श्राद्ध करने के लिए भी नहीं आए। अति हो गई।
प्रतिभाएँ सदैव शीर्ष पर पहुँचीं
और तुलसीदास? तुलसीदास जी भी जिजीविषा के मोह में पड़े हुए थे। सारी क्षमता और सारी प्रतिभा इसी में लग रही थी। एक बार उनको अपनी पत्नी की याद आई। वह अपने मायके गई हुई थी। नदी बह रही थी। वे नदी में कूद पड़े।
नदी में कूदने पर देखा कि अब हम डूबने वाले हैं और कोई नाव भी नहीं मिल रही है। तभी कोई मुरदा बहता हुआ चला आ रहा था, बस वे उस मुरदे के ऊपर सवार हो गए और तैरकर नदी पार कर ली। उनकी बीबी छत पर सो रही थी। वहाँ जाने के लिए उन्हें सीढ़ी नहीं दिखाई पड़ी, रास्ता दिखाई नहीं पड़ा। वहाँ पतनाले के ऊपर एक साँप टँगा हुआ था। उन्होंने साँप को पकड़ा और साँप के द्वारा उछलकर छत पर जा पहुँचे। कौन जा पहुँचे? तुलसीदास। यही तुलसीदास जब हिम्मत वाले, साहस वाले तुलसीदास बन गए, प्रतिभा वाले तुलसीदास बन गए, तब वे संत हो गए।
इसी तरह सूरदास, प्रतिभा वाले और हिम्मत वाले सूरदास जब खड़े हो गए और जो भी दिशा उन्होंने पकड़ ली, उसमें उन्होंने टॉप किया। सूरदास ने जब अपने आपको सँभाल लिया और अपने आपको बदल लिया, तब उन्होंने टॉप किया। टॉप से कम में तो वे रह ही नहीं सकते। वही बिल्वमंगल जब वेश्यागामी था तो पहले नंबर का और जब संत बना तब भी पहले नंबर का। पहले नंबर का क्यों? इसलिए कि वह भगवान् का भक्त हो गया। जब वह भगवान् का भक्त हो गया, तो फिर वह ऐसा मजेदार भक्त हुआ कि उसने वह काम कर दिखाए, जिस पर हमको अचंभा होता है। हिम्मत वाला और दिलेर आदमी जो काम कर सकता है, मामूली आदमी उसे नहीं कर सकता। उसने अपनी आँखें गरम सलाखें डालकर फोड़ डालीं। हम और आप कर सकते हैं क्या? नहीं कर सकते। ऐसा कोई दिलेर आदमी ही कर सकता है। उसने दिलेरी के साथ और तन्मयता के साथ ऐसी मजबूत भक्ति की कि श्रीकृष्ण भगवान् को भागकर आना पड़ा और बच्चे के रूप में, जिनको कि वे अपना इष्टïदेव मानते थे, उसी रूप में उनकी सहायता करनी पड़ी। आँखों के अंधे सूरदास की लाठी पकड़ करके टट्टïी-पेशाब कराने के लिए, स्नान कराने के लिए भगवान् ले जाया करते थे और सारा इंतजाम किया करते थे। भगवान् उनकी नौकरी बजाया करते थे।
कौन से सूरदास की? उस सूरदास की, जो प्रतिभावान् था। मैं किसकी प्रशंसा कर रहा हूँ? भक्ति की? भक्ति की बाद में, सबसे पहले प्रतिभा की, समझदारी की। प्रतिभा की बात मैं कह रहा हूँ। प्रतिभा अपने आप में एक जबरदस्त वस्तु है। वह जहाँ कहीं भी चली जाएगी, जिस दिशा में भी चली जाएगी, चाहे वह जहाँ कहीं भी जाएगी, पहले नंबर का काम करेगी। तुलसीदास ने क्या काम किया? तुलसीदास ने जब अपनी दिशाएँ बदल दीं, जब उनकी बीबी ने कहा, नहीं, तुम्हारे लिए ये मुनासिब नहीं है। क्या तुम इसी तरीके से वासना में अपनी जिंदगी खत्म कर दोगे? तुमको भगवान् की भक्ति में लगा जाना चाहिए और जितना हमको प्यार करते हो, उतना ही भगवान् से करो, तो मजा आ जाए और तुम्हारी जिंदगी बदल जाए। उनको यह बात चुभ गई। हमको और आपको चुभती है क्या? नहीं चुभती। हमारी औरतें सौ गालियाँ देती रहती हैं। और फिर हम ऐसे ही हाथ-मुँह धोकर के आ बैठते हैं। वह फिर गाली सुनाती है और गुस्सा होकर के चले जाते हैं और कहते हैं कि फिर तेरे घर नहीं आएँगे और बस वह जाता है और दुकान पर बैठा बीड़ी पीता रहता है। शाम को घूम-फिरकर फिर आ जाता है। क्यों फिर आ गए? आ गए, क्योंकि उसके अंदर वह चीज नहीं है, जिसे जिंदगी कहते हैं।
जिंदगी वाले इंसान—महामानव
मित्रो! जिंदगी की बड़ी कीमत है। जिंदगी लाखों रुपये की कीमत की है, करोड़ों रुपये की है, अरबों-खरबों रुपये की कीमत की है। तुलसीदास भी जिंदगी वाला इंसान था। वासना के लिए जब व्याकुल हुआ, तो ऐसा हुआ कि बस हैरान-ही-हैरान, परेशान-ही-परेशान और जब भगवान् की भक्ति में लगा, तो हमारी और आपकी जैसी भक्ति नहीं थी उसकी कि माला फिर रही है इधर और मन फिर रहा है उधर। मन के फिर रहे हैं इधर और सिर खुजा रहे हैं उधर। भजन कर रहे हैं इधर और पीठ खुजा रहे हैं उधर। भला ऐसी कोई भक्ति होती है? तुलसीदास ने भक्ति की, तो कैसी मजेदार भक्ति की कि बस पीपल के पेड़ पर से, बेल के पेड़ पर से कौन आ गया? भूत आ गया। उन्होंने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा दो। उस भूत ने कहा कि भगवान् के तो नहीं करा सकते, हनुमान् जी के करा सकते हैं। अच्छा! चलो हनुमान् जी के ही करा दो।
हनुमान् जी वहाँ रामायण सुनने जाते थे। उसने उनके दर्शन करा दिए। तुलसीदास ने हनुमान् जी को पकड़ लिया और कहा कि हमको रामचंद्र जी के दर्शन करा दीजिए। आपने पढ़ा है न तुलसीदास जी का जीवन! उन्होंने क्या किया कि रामचंद्र जी का , जिनका कि वे नाम लिया करते थे, उन रामचंद्र जी को पकड़कर ही छोड़ा। उन्होंने कहा कि रामचंद्र जी का भी ठिकाना नहीं है और मेरा भी ठिकाना नहीं है। दोनों को एक होना होगा या तो मैं रहूँगा या रामचंद्र जी रहेंगे? या तो हनुमान् जी रहेंगे या रामचंद्र जी रहेंगे? मैं तो लेकर के हटूँगा। भला ऐसे कैसे हो सकता है कि मैं हनुमान् चालीसा पढ़ूँगा और हनुमान् जी भाग जाएँ और पकड़ में नहीं आएँ? पकड़ में कैसे नहंी आएँगे? हनुमान् को पकड़ में जरूर आना पड़ेगा। हनुमान् जी पकड़ में जरूरत आ गए। हनुमान् जी पकड़ में नहीं आए, हनुमान् जी के ताऊ रामचंद्र जी भी पकड़ में आ गए। दोनों को पकड़ लिया उसने। किसने पकड़ लिया? तुलसीदास ने। हम और आप पकड़ सकते हैं क्या? हम और आप नहीं पकड़ सकते। भूत तो पकड़ सकते हैं? नहीं पकड़ सकते। हनुमान् जी को पकड़ लेंगे? नहीं, हनुमान् जी भी पकड़ में नहीं आएँगे और रामचंद्र जी तो, भला कैसे पकड़ में आ सकते हैं? वे भी नहीं आएँगे।
दिशा जो बदली, तो गजब हो गया
मित्रो! क्या वजह है इसकी? हम में और तुलसीदास जी में क्या अंतर है? एक अंतर है। नाक, आँख, कान, दाँत और हाथ-पाँव सब बराबर हैं, पर एक चीज जो उनके अंदर थी, वह हमारे अंदर नहीं है। वह चीज है, जिसे मैं जिंदगी कहता हूँ, जिसको मैं प्रतिभा कहता हूँ, जिसको मैं विभूति कहता हूँ, जिसको मैं लगन कहता हूँ, तन्मयता कहता हूँ, जीवट कहता हूँ। वह जीवट मित्रो! जहाँ कहीं भी होगा, तो वह बड़ा शानदार काम कर रहा होगा और गलत दिशा पकडऩे पर गलत काम भी कर रहा होगा।
अंगुलिमाल पहले नंबर का डाकू था। उसने ये कसम खाई थी कि फोकट में किसी का पैसा नहीं लूँगा। उँगलियाँ काट-काटकर उसकी माला बनाकर वह देवी को रोज चढ़ाया करता था। अगर कोई कहता कि अरे भाई! पैसे ले ले, पर उँगली क्यों काटता है हमारी? वह कहता, वाह! फोकट में, दान में नहीं लेता हूँ। पहले तेरी उँगली काटूँगा, तो मेरी मेहनत हो जाएगी। फिर उस मेहनत का पैसा ले लूँगा। ऐसे मुफ्त में कैसे ले लूंगा किसी का पैसा? इस तरह वह रोज एक साथ उँगलियाँ कट-काटकर उसकी माला देवी को पहनाया करता था? कौन? खूंख्वार अंगुलिमाल डाकू, लेकिन जब उसने पलटा खाया, तो कैसा जबरदस्त पलटा खाया, आपको मालूम है न? अंगुलिमाल जब तक डाकू था, तो पहले नंबर का और जब संत हो गया, तो उसने हिंदुस्तान से आगे जाकर के सारे-के-सारे विदेशों में, मिडिल ईस्ट में वो काम किए कि बस, तहलका मचा दिया। वह जहाँ कहीं भी गया, अपने प्रभाव से दुनिया को बदलता हुआ चला गया।
मित्रो! क्षमताएँ जिनके अंदर हैं, प्रतिभाएँ जिनके अंदर हैं, वह कहीं-से-कहीं जा पहुँचता है। आम्रपाली जब तक वेश्या रही, तो पहले नंबर की रही। राजकुमार, राजाओं से लेकर सेठ-साहूकार तक उसकी एक निगाह के लिए, उसकी एक चितवन और एक इशारे के लिए ढेरों रुपया खरच कर डालते थे और उसके गुलाम हो जाया करते थे, लेकिन जब आम्रपाली अपनी करोड़ों की संपत्ति को लेकर भगवान् बुद्ध की ओर चली गई, तो न जाने क्या-से-क्या हो गई और सम्राट् अशोक जो था, ऐसा खूनी था कि उसने खानदान-के-खानदान समाप्त कर दिए थे। सभी शाही खानदानों को एक ओर से उसने मरवा डाला था। मुसलमानों ने एक-आध को मारा था, लेकिन उसने तो किसी को जिंदा ही नहीं छोड़ा। ऐसी खूनी था अशोक। उसने चंगेज खाँ, नादिरशाह और औरंगजेब, सबको एक किनारे रख दिया था। जहाँ कहीं भी हमले किए, वहाँ खून की नदियाँ ही बहाता चला गया।
लेकिन मित्रो! जब उसने पलटा खाया और जब अपने आप में परिवर्तन कर डाला, तो फिर वह कौन हो गया? सम्राट् अशोक हो गया, जिसने बौद्ध संघ और बौद्ध धर्म का सारे-का-सारा संचालन किया। आज जो हमारे झंडे के ऊपर और हमारे सिक्कों-नोटों के ऊपर तीन शेर वाला निशान बना हुआ है, वह सम्राट् अशोक की निशानी है। और जो हमारे राष्टï्रीय ध्वज पर चौबीस धुरी वाला और चौबीस पंखुड़ी वाला चक्र लगा हुआ है, यह क्या है? यह सम्राट् अशोक के द्वारा पारित किया और प्रतिपादित किया हुआ धर्मचक्र प्रवर्तन है, जिसको हमने राष्टï्रीय झंडे के ऊपर स्थान दिया हुआ है। ये किसकी हिम्मत, किसकी दिलेरी थी किसकी बहादुरी थी? उसकी थी, जो डाकू था और खूंखार था।
जीवंत बनाम मुरदे
मित्रो! भगवानï् जहाँ कहीं भी अपना अंश देता है, विभूति देता है, उसके अंदर चमक होती है, लगन होती है, उसके अंदर तड़प होती है और मुरदे? मुरदे हमारे और आपके जैसे होते हैं। साँस लिया करते हैं। भगवान् की जब पूजा करते हैं, तो भी ऐसे-ऐसे सिर हिलाते रहते हैं और साँस लेते रहते हैं। सेवा करने जाते हैं, तो वहाँ भी निठल्ले की तरह पड़े रहते हैं। सत्संग करने, शिविर करने आते हैं, तो यहाँ भी मौसी जी-मौसा जी की याद सताती है।
मित्रो! ये क्या होता है? ये मैं किसकी कहानियाँ सुना रहा हूँ? मुरदे की। जिंदा आदमियों की भी कह रहा हूँ। आपके जिम्मे मैं एक काम सुपुर्द कर रहा हूँ कि जहाँ भी आपको जिंदा आदमी मालूम पड़ें, जिंदादिल आदमी मालूम पड़े, आप उनके पास जाना। आप उनको मेरा संदेश लेकर के जाना और खुशामद करने के लिए जाना और यह कहना कि भगवान् ने जो विशेषताएँ आपके अंदर दी हैं, आपके अंदर जो प्रतिभा है, जो क्षमता है और जो आपके अंदर विशेषता है, उसके लिए भगवान् ने निमंत्रण दिया है, समय ने निमंत्रण दिया है। युग ने निमंत्रण दिया है, मनुष्य जाति के गिरते हुए भविष्य ने और यह कहा है कि पेट भरने के लिए आपको जिंदा रहना काफी नहीं है। पेट तो मक्खी-मच्छर भी भर लेते हैं, कीड़े-मकोड़े और कुत्ते भी भर लेते हैं। किसी ने जलेबी खा ली तो क्या और मक्का की रोटी खा ली तो क्या? खाने के लिए आदमी को पैदा नहीं किया गया है। औलाद पैदा करने के लिए आदमी को पैदा नहीं किया गया है। खाने के लिए और औलाद पैदा करने के लिए सुअर को पैदा किया गया है, जो एक-एक साल में बारह-बारह बच्चे पैदा कर देता है। गंदी-संदी चीजें खाकर के भी हट्टïा-कट्टïा होकर मोटा पड़ा रहता है। पेट भर गया, बस खर्राटे भरता रहता है। पेट भरने के लिए इंसान को पैदा नहीं किया गया है।
हमारे संदेशवाहक बनें
मित्रो! इंसान बड़े कामों के लिए पैदा किया है। इंसान की जिंदगी कई लाख योनियों में घूमने के बाद आती है। एकाएक कहाँ आ पाती हैïï? इसलिए मित्रो! वहाँ हमारा संदेश लेकर के जाना, युग की पुकार लेकर के जाना। वक्त की पुकार लेकर के जाना और यह कहना कि आपको समय ने पुकारा है, युग ने पुकारा है, राष्टï्र ने पुकारा है, गुरुजी ने पुकारा है। अगर आप उनकी पुकार सुन सकते हों, अगर आपके कान हैं, अगर आपके अंदर दिल है; अगर आपके पास कान नहीं है, दिल नहीं है, तो हम क्या कह सकते हैं। फिर कौन आदमी सुनेगाï? रामायण की कथा हम सुन लेते हैं और जैसे ही आते हैं, पल्ला झाड़ करके आ जाते हैं। भाागवत की कथा हम सुनकर के आते हैं, व्याख्यान हम सुन करके आते हैं और जैसे ही आते हैं, पल्ला झाड़ करके आते हैं। चिकने घड़े के तरीके से हमारे आपके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
मित्रो! आप वहाँ जाना और लोगों से यह कहना कि अगर कहीं आपके अंदर जिंदादिली हो, तो आपको समय की पुकार सुननी चाहिए और युग की पुकार सुननी चाहिए। समय की माँग को पूरा करना चाहिए और युग की माँग को पूरा करना चाहिए और महाकाल ने, भगवान् ने जहाँ आपको बुलाया है, वहाँ आपको चलना चाहिए। हनुमान् जी भगवान् की पुकार सुनकर चले गए थे, रीछ और बंदर चले गए थे, गिलहरी चली गई थी। आपके लिए क्या यह संभव नहीं है? क्या आप इस लोभ और मोह से, अपने वासना और तृष्णा के बंधनों को काटते हुए अंगद के तरीके से चलने के लिए तैयार हैं?
मित्रो! मैं आपको अंगद के तरीके से संदेशवाहक बनाकर के भेजता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे संदेशवाहक बनाकर भेजा। हिंदुस्तान से बाहर कई बार अंगद की तरह से मैं केवल संदेशवाहक के रूप में गया हूँ। मैंने कोई व्याख्यान नहीं दिए और न संगठन किए। सारे-के-सारे देशों में, विदेशों में और न जाने कहाँ-से-कहाँ गया, लेकिन अपने गुरु का संदेश लेकर के गया। मैंने लोगों से कहा, देखो अपने को बदल दो। समय बदल रहा है। परिस्थितियाँ बदल रही हैं। धन किसी के पास रहने वाला नहीं है। अगले दिनों में, थोड़े दिनों में आप देखना कि धन किस तरीके से गायब हो जाता है। राजाओं के राज किस तरीके से चले गए, यह हमने और आपने देख लिया। आपने देखा कि थोड़े दिनों पहले जो लोग राजा कहलाते थे, सोने-चाँदी की तलवारें लेकर हाथी पर चला करते थे, आज वे किस तरीके से अपनी दोनों वक्त की रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं।
साथियो! जहाँ कहीं भी जाएँगे, वहाँ आप लोगों से कहना कि समय बहुत जबरदस्त है। समय सबसे बड़ा है। धन बड़ा नहीं है। जहाँ कहीं भी विभूतियाँ आपको दिखाई पड़ती हों, वहाँ आप हमारे संदेशवाहक के रूप में जाना, जैसे कि हमारे गुरुजी ने सारी दुनिया के जबरदस्त आदमियों के पास और भावनाशील आदमियों के पास हमको संदेश दे करके भेजा।
मित्रो! आपको समय से पहले बदल जाना चाहिए, नहीं तो आपको पश्चाताप ज्यादा करना पड़ेगा। जब कोई डाकू चीजें छीन ले जाता है, तो आदमी को ज्यादा अफसोस होता है, लेकिन अगर अपने हाथों से किसी भिखारी को दे देता है, स्कूल की इमारत बनाने के लिए दे देता है, तो उसको संतोष होता है। पैसा तो चला गया न, चाहे वह डाकू ले गया हो तो भी और चाहे स्कूल बनाने के लिए दे दिया तो भी। लेकिन अपने हाथ से देने पर संतोष रहता है। अत: आपको लोगों से यह कहने के लिए जाना है क अब युग बदल रहा है, समय बदला रहा है, युग की धाराएँ बदल रही हैं। धन के बारे में मूल्यांकन बदल रहा है। धन लोगों के पास रहने वाला नहीं है। धन बहुत तेजी से चला जाने वाला है। आप देख नहीं रहे हैं क्या? गवर्नमेंट क्या-क्या कर रही है? मृत्यु टैक्स लगा रही है। संपत्ति टैक्स लगा रही है और दूसरे टैक्स लगा रही है। सब अगले दिनों जो गवर्नमेंट आने वाली है, अगले दिनों जो समय आने वाला है, उसमें रशिया वाला कानून लागू हो जाएगा, चाइना वाला कानून लागू हो जाएगा। हमको और आपको बस हाथ-पाँव से मेहनत करनी पड़ेगी, परिश्रम करना पड़ेगा और उस मेहनत के बदले में जो खुराक हमको मिलनी चाहिए, जो रोटी मिलनी चाहिए, वह मिल जाएगी। खुराक की सारी-की-सारी चीजें मिल जाएँगी।
वक्त रहते बदलें
साथियो! लोगों से कहना कि आपको भगवान् ने जो विभूतियाँ दी हैं, क्षमताएँ दी हैं, उसका सवाब आप उठा सकते हैं, लाभ उठा सकते हैं, जीवात्मा को शांति दे सकते हैं। जीवात्मा की शांति के लिए, पुण्य के लिए अपने आपको तैयार कर लेना चाहिए, ताकि आपका अंत:करण शांति में रहे और समाज को भी आपके बदले का अनुदान मिले और हमारा सिर भी गर्व से ऊँचा उठ जाए। समय से पहले हम अंगद के तरीके से इसीलिए आपके पास आए हैं, ताकि यह बता सकें कि आपको वक्त रहते बदल जाना चाहिए और लाभ उठा लेना चाहिए।
इसलिए मित्रो! जहाँ कहीं भी क्षमताएँ दिखाई पड़े, प्रतिभाएँ दिखाई पड़ें, वहाँ आप हमारे संदेश वाहक के रूप में जाना और खासतौर से उनसे प्रार्थना करना, अनुरोध करना। पूर्व में मैंने विभूतिवानों को संबोधित किया था और उनका आह्वïान किया था कि आपकी जरूरत है। भगवान् ने आपको विशेषताएँ दी हैं, उसकी उसे जरूरत है, लड़ाई, युद्ध का जब वक्त आता है, तो नौजवानों की भरती कंपलसरी कर दी जाती है और जो लोग बुड्डïे होते हैं, उनको छोड़ दिया जाता है। कंपलसरी लड़ाई में सभी नौजवानों को, चौड़े सीने वालों को पकड़ लिया जाता है और फौज में भरती कर लिया जाता है। कब? जब देश पर दुश्मन का हमला होता है। मित्रो! उनसे जो नौजवान हैं, प्रतिभावान् हैं, विभूतिवान् हैं, उनसे मेरा संदेश कहना। लेकिन जो व्यक्ति मानसिक दृष्टिï से बुड्डïे हो गए हैं, वे जवान हों तो क्या, सफेद बाल वाले बुड्ढïे हों तो क्या, हमको उनकी जरूरत नहीं है। क्यों? क्योंकि वे मौत के शिकार हैं। वे इसी के लिए हैं कि जब मौत को चारे की जरूरत पड़े, तो वे उसकी खुराक का काम करें।
बूढ़ा कौन? कौन जवान?
मित्रो! बुड्ढïा आदमी कौन? क्या वह जिसके बाल सफेद हो गए हैं? सफेद बालों वाला बुड्ढïा होता है कहीं, वह जवान होता है। इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री जिसका नाम चर्चिल था, अस्सी वर्ष का हो गया था और उसकी कमर में दरद रहता था। इंग्लैंड के लोगों ने कहा कि हम अपनी हुकूमत और अपने राष्टï्र की जिम्मेदारी इस आदमी के हाथ में सुपुर्द करेंगे, और वो चर्चिल जो था, जब दिन-रात जर्मनी वाले इंग्लैण्ड के ऊपर बम बरसा रहे थे, तब सारी-की-सारी सत्ता का केन्द्र वही एक आदमी था। बड़ा जबरदस्त आदमी, नौजवान आदमी था। कितने वर्ष का था, अस्सी वर्ष का, जो सारे-के-सारे लोगों से कह रहा था, इंग्लैण्ड के लोगों! घबराने की जरूरत नहीं। भगवान् हमारा सहायक है और हम ऊँचा उठेंगे, आगे बढ़ेंगे और हम फतह करके रहेंगे। हर आदमी के अंदर उसने जिंदगी पैदा की और जोश पैदा किया। वो कौन आदमी था? जवान आदमी था।
और विनोबा कौन हैं मित्रो! जवान आदमी। और गाँधी जी अस्सी वर्ष के करीब पहुँच गए थे। वो कौन थे? जवान आदमी। जवाहरलाल नेहरू चौहत्तर-पिचहत्तर वर्ष के थे, जब उनकी मृत्यु हुई। तब वे कौन थे? जवान आदमी और राजगोपालाचार्य? राजगोपालाचार्य की जब मृत्यु हुई थी, तो वे अस्सी वर्ष को भी पार कर गए थे। वे कौन थे? जवान आदमी, और हम और आप? हम और आप बुड्ढïे आदमी हैं, जर्जर आदमी हैं, टूटे हुए और लकवा के मारे हुए आदमी हैं। कंगाली के मारे हुए, दरद के मारे हुए, दुर्भाग्य के मारे हुए और हम सब देवताओं के मारे हुए आदमी हैं। हमारी नसें और हड्डिïयाँ गल गई हैं। हमार मन सड़ गया है और हमारी भवनाएँ सो गई हैं। हमारा जीवन समाप्त हो गया है। हम लुहार की धौंकनी के तरीके से साँस जरूर लिया करते हैं। हमारी साँस चलती तो है, पर बहुत धीरे-धीरे चलती है। हम कौन हैं? हम मुरदा आदमी हैं। हम मर गए हैं। हमारे अंदर कोई जीवट नहीं है, कोई जिंदगी नहीं है। हमारे अंदर कोई लक्ष्य नहीं है, कोई दिशा नहीं है। हमारे अंदर कोई तड़प नहीं है, कोई कसक नहीं है और हमारे अंदर कोई जोश नहीं है। हमारा खून ठंडा हो गया है।
साथियो! जिनका खून ठंढा हो गया है, उनको मैं क्या कहूँगा? उनको मैं बूढ़ा आदमी कहूँगा। पच्चीस वर्ष का हो तो क्या, अ_ïाइस वर्ष का हो तो क्या, बत्तीस वर्ष का हो तो क्या? वह बूढ़ा आदमी है और मौत का शिकार है। उसके सामने जिंदगी का कोई लक्ष्य नहीं है, उसके सामने कोई चमक नहीं है। जिसके सामने कोई चमक नहीं है, जिसके सामने कोई उम्मीद नहीं है, जिसकी हिम्मत समाप्त हो गई, जो आदमी निराश हो गया, जिसकी आँखों में निराशा और मायूसी छाई हुई है, वह बूढ़ा आदमी है। मित्रो! इन बूढ़े आदमियों का हम क्या करेंगे? इनसे हम क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वे स्वयं के लिए क्या काम कर सकते हैं और भगवान् के लिए क्या कर सकते हैं। और समाज के लिए क्या कर सकते हैं? यह देखकर हम उनसे ना उम्मीद हो जाते हैं। हम उनसे ज्यादा-से-ज्यादा यही उम्मीद रखेंगे कि हमारा जब हवन होगा, तो उन्हें उम्मीद दिलाएँगे कि आपके बेटा-बेटी हो जाएँगे। उनके लिए बस सब से बड़ा एक ही काम है कि बेटा-बेटी हो जाएँ। पैसा हो जाए।
मृतकों से क्या अपेक्षा?
मित्रो! सारे-के-सारेे ये वो लोग हैं, जो मर गए हैं, जो सड़ गए हैं। लोभ के अलावा, लालच के अलावा, ख्वाहिशों के अलावा, तमन्नाओं के अलावा इनके पास कुछ नहीं है। जो आदमी खाली हो गए हैं और जो ढोल तरीके से पोले हैं, उनका हम क्या करेंगे? इनके लिए हम कुछ नहीं करेंगे और न इनसे समाज के लिए, भगवान् के लिए ही कुछ उम्मीद रखेंगे। किसी के लिए भी इनसे उम्मीद नहीं रखेंगे। इनको हम छोड़ देंगे।
मित्रो! हमारा मिशन जो इंसान में भगवान् का अवतरण करने के लिए और जमीन पर स्वर्ग की धाराओं को बहाने के लिए बोया और खड़ा किया गया है, उसके लिए हमें जिंदा आदमियों की जरूरत है। जिंदा आदमी ही इस मिशन को आगे लेकर चलेंगे। मुरदा आदमी ज्यादा से ज्यादा माला घुमा देंगे। एक हनुमान जी की घुमा देंगे, एक लक्ष्मी जी की घुमा देंगे, एक युग-निर्माण की घुमा देंगे और एक अपने बेटे की घुमा देंगे और एक अपने मोहल्ले वाले की घुमा देंगे और कहेंगे कि गुरुजी मैं रोज नौ माला जपता हूँ। उसमें एक आपके लिए जपता हूँ और एक लक्ष्मी जी के लिए। वाह, बेटे! लक्ष्मी जी भूखी बैठी थी और भगवान् जी को तीन दिन से नाश्ता नहीं मिला था। तूने एक माला जपी थी, बस उससे भगवान् जी का कलेऊ हो जाएगा और उनको रोटी मिल जाएगी। अहा! ये हैं असली भगत और असली जादूगर। सारे जादू के पिटारे ये अपने माला में भरे हुए बैठे हैं।
मित्रो! इनसे हमारा काम चलेगा? इनसे हमारा काम नहीं चलेगा। जो व्यक्ति हर काम के लिए माला को ही काफी समझते हैं, उनसे हमारा काम नहीं चलेगा। जब कभी इनको जुंग आती है, छटपटाहट आती है, तो खट माला पकड़ लेते हैं और कहते हैं कि इस पर माला को चलाऊँगा, उस पर माला को चलाऊँगा। इस तरह वे तरह-तरह की चर्खियाँ चला देते हैं। जिस तरह बंदूक में तरह-तरह के कारतूस चढ़ा देते हैं? मंत्र का। इस माला पर महामृत्युंजय मंत्र का कारतूस दनादन चढ़ा दिया, जो खट्-खट् सब बीमारियों को मार डालता है और जब इसको लक्ष्मी जी की जरूरत पड़ती है तब? अहा! ''ॐ ह्रïीं श्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चेÓÓ मंत्र का दे दनादन-दे दनादन जप, और वो आई देवी और ये आई चंडी और ये आया पैसा। बस इसके पास तो एक ही मशीनगन है। मरने दो इन अभागे को, इसके पास न कोई जिंदगी है, न कोई दिशा है, न कोई प्रेरणा है, न कोई लक्ष्य है और न इसके पास दिल है। ये अभागा तो केवल माला को लेकर ही दफन होने वाला है और माला को लेकर ही मरेगा।
जीवट वालों को तलाशिए
इसलिए मित्रो! इन लोगों से हमारा क्या बनने वाला है? क्या करेंगे हम इन मुरदा आदमियों का? इनसे हमारा कुछ काम नहीं बनेगा। हमको जीवट वाले आदमियों को तलाश करना पड़ेगा। अत: आपको जहाँ कहीं भी जीवट वाले आदमी मिलें, आप वहाँ जाना। हमारा संदेश लेकर के जाना और कहना कि हम आपकी तलाश करते रहे हैं। हम इसलिए तलाश करते रहे हैं कि हमारा ये ख्याल था, भगवान् जाने सही था या गलत था कि आपके अंदर जीवट नाम की कोई चीज है। इस जन्म की नहीं, तो पहले जन्म की है। कभी भी हमारी इन आँखों ने चमक में धोखा नहीं खाया है। आपके बारे में हमने अपने मन में यह ख्याल बना करके रखा था कि आप जिंदा इंसानों में से हैं और आपके अंदर दरद नाम की कोई चीज है। आपके अंदर विवेक नाम की कोई चीज है और आपके अंदर तड़प नाम की कोई चीज है। अगर हमको ये चीजें न मालूम पड़ें, तो फिर मुरदे आदमियों को ढोने में क्या आनंद आता है? लाशों को ढो-ढोकर हम कहाँ डालेंगे? सड़े हुए बदबूदार आदमियों को हम कहाँ कंधे पर लिए फिरेंगे? मित्रो! इनको हम बैकुंठ का रास्ता कैसे दिखा देंगे? इनको हम स्वर्ग की कहानी कैसे कह देंगे? भगवान् से मिलने की बात हम कैसे कह देंगे?
मित्रो! हम सड़े हुए मनुष्यों और मरे हुए मनुष्यों की मनोकामना पूर्ण करने की जिम्मेदारी कैसे उठा लेंगे? हमारे लिए यह बिलकुल असंभव था, नामुमकिन था। हमारा एक ही ख्याल था कि आप लोग जिंदा आदमी हैं। अगर आप वास्तव में जिंदा आदमी हैं, तो यहाँ से जाने के बाद जिंदा आदमियों के तरीके से अपनी जिंदगी जीना। विवेकशील लोगों के तरीके से जीना, विचारशील और भावनाशील लोगों के तरीके से जीना, दिलवाले आदमियों के तरीके से जीना। अगर आप इस तरह से जिएँ, तो फिर तलाश करना और यदि कहीं कोई जिंदा आदमी दिखाई पड़े, तो आप उसके आस-पास चक्कर काटना। आप इस तरीके से चक्कर काटना, जिस तरीके से भौरा खिले हुए फूल के पास चक्कर काटता है। खिले हुए फूल के आस-पास तितलियाँ और मधुमक्खियाँ चक्कर काटती हैं, जैसे हम बराबर आपके पास चक्कर काटते रहते हैं।
साथियो! हमको मालूम पड़ा कि शायद आप खिले हुए फूल हैं, तो हम भी रामकृष्ण परमहंस के तरीके से आपके पास आए हैं, जिस तरीके से वे विवेकानंद के पीछे लगे थे और शिवाजी के पीछे जिस तरीके से रामदास लगे थे। हम भी आपके पीछे उसी तरीके से लगे रहे हैं, जिस तरीके से चाणक्य चंद्रगुप्त के पीछे लगे रहे थे। अगर गलती हो गई हो, तो माफ करना, क्योंकि हमने समझा यही है। आप यह मत सोचना कि गुरुजी जो अपना पुण्य हिमालय पर से लेकर के आए हैं, वह हमको मालदार बनाने के लिए और संपत्ति देने के लिए हमारे पीछे लगे हुए हैं। हमको औलाद वाला बनाने के लिए, बेटा-बेटी देने के लिए पीछे लगे हुए हैं। हम इसके लिए नहीं लगे हुए हैं।
संपत्ति नहीं विभूति माँगें
मित्रो! हमारे गुरु ने और हमारे पिता ने हमको लक्ष्मी नहीं दी है, औलाद नहीं दी है, लेकिन जो चीजें हमको दी हैं, वे लक्ष्मी जी से लाख गुनी और करोड़ गुनी ज्यादा हैं। हमारी निगाह में भी और हमारी उम्मीदों में भी यही चीज जमी हुई है कि आपको कोई चीज हम दें, तो कम-से-कम ऐसी चीज दें, जिससे कि आप भी जन्म-जन्मांतरों तक याद करते रहें कि हमको कोई चीज मिली थी और कोई चीज हमको दी गई थी। अगर आपके पास जिंदादिली हो और आपके पास रखने की चीजें हों, तब। रखने की चीजें न होंगी, तब फिर बड़ा मुश्किल है। फिर स्वाति की बूँदें बरसती चली जाएँगी और वो अभागी सीप है जिसने अपना मुँह नहीं खोला। मुँह बंद करके पड़ी रही। फिर उसके लिए ये संभव नहीं है, मुमकिन नहीं है कि स्वाति की बूँदें बरसती चली जाएँ और उसके अंदर मोती पैदा हो जाए। ऐसी स्थिति में मोती पैदा नहीं हो सकते।
एक बार अमृत की वर्षा हुई। सारे मरे हुए आदमी जिंदा हो गए। केवल एक आदमी जिंदा नहीं हुआ। लोगों ने पूछा, क्या वजह है? वह आदमी क्यों नहीं जिंदा हुआ? जानने पर यह मालूम हुआ कि वह आदमी अपना मुँह जमीन में गाड़े हुए था और पीठ ऊपर किए हुआ था। लोगों ने कहा, अच्छा, तो यह वजह है कि जो मुरदे मुँह खोले हुए थे, नाक ऊपर किए हुए पड़े थे। उनमें से अमृत की बूँदें किसी की नाक में पड़ गईं, किसी के मुँह में पड़ गईं और वे सब जिंदा हो गए। लेकिन जिसने अपना मुँह पलट कर के रखा था, जमीन में गाड़कर रखा था, उसकी नाक में भी अमृत की बूँदें नहीं जा सकीं और मुँह में भी नहीं जा सकीं। इसलिए वह जिंदा नहीं हो सका। बेशक वो आदमी जिंदा नहीं हो सकते, चाहे उनका गुरु कोई भी क्यों न हो। गुरुजी! आप अपने गुरुजी के दर्शन करा दीजिए। हम दर्शन क्यों करा दें? हमारे गुरुजी का दर्शन करके तेरा कोई फायदा नहीं हो सकता। कैसे नहीं होगा? बेटे! वो जिंदगी कहाँ है़ वो सीप कहाँ है, जहाँ कि अमृत की बूँदें पड़ा करती हैं और जिंदगी पैदा हो जाती है।
मित्रो! हमारे पास अपनी विशेषताएँ होनी चाहिए। अपनी विशेषताएँ नहीं होंगी तो बाहर के आदमी, दूसरे आदमी कोई सहायता नहीं कर सकते। आज तक बाहर वाले आदमियों ने किसी की सहायता नहीं की है। केवल अपना हृदय और अपना मन आगे बढ़ा है, तब दूसरों ने सहायता की है। आदिकाल से यही सिद्धांत था और आगे भी यही रहेगा। इसलिए हम आपको विदा करते वक्त उन लोगों के पास भेजना चाहेंगे, जिनके अंदर विशेषता मालूम पड़ती है और चमक मालूम पड़ती है। आप उन सब नौजवनों को निमंत्रण देने जाना, आमंत्रण देने जाना, जिनके घर में बंदूकें हैं, भाले हैं। उनसे कहना कि गाँव जल रहे हैं, गाँव में डकैतियाँ हो रही हैं और चूँकि आपके पास बंदूकें हैं, भाला है, इसलिए आप चलिए। चूँकि आपके पास जवानी है, इसलिए आप चलिए। चूँकि आपके पास जवानी है, इसलिए आप चलिए। चूँकि आपके पास अमुक चीजें हैं, इसलिए आप चलिए। जिन लोगों को आप साधन-संपन्न देखें, उन लोगों को आप निमंत्रण देना। जिनके पास बाल्टी है, उनको आप निमंत्रण देना। जिनके पास रस्सी है, उनको आप निमंत्रण देना। उनसे कहना कि बाल्टी खींचिए। गाँव जल रहा है, उसकी आग को बुझाइए। उनको निमंत्रण देने के लिए हम आपको भेजते हैं।
साथियो! ये दावत खाने का निमंत्रण नहीं है। गुरुजी से आशीर्वाद लेने का निमंत्रण नहीं है। मालदार होने का और बीमारियों को अच्छा करने का नहीं है। औलाद प्राप्त करने का नहीं है। आप ये निमंत्रण मत देना किसी को। ये तो बिना आपके निमंत्रण दिए खुद ही चले आते हैं और उन पर मुझको झल्लाना पड़ता है और ये रोज कहना पड़ता है कि बाबा! यहाँ ठहरने की जगह नहीं है, चला जा। ये तो पहले भी आते रहे हैं और आते ही रहेंगे। उनको निमंत्रण देने की आपको जरूरत नहीं है। वे तो अपने आप बिना बुलाए आ जाएँगे और सब तरीके से आ जाएँगे।
प्रतिभाओं से है अपेक्षा
मित्रो! आप उन लोगों के पास जाना जिनके पास क्षमताएँ हैं, जिनके पास प्रतिभाएँ हैं, जिनके पास जीवन है, जिनके पास कसक है, जिनके पास विचार हैं। जिनके पास इस तरह की चीजें दिखाई पड़ें, वहाँ आप जाना और जा करके हमारा संदेश दे करके आना। जहाँ कहीं भी आपको विद्या दिखाई पड़े, जिस किसी के पास भी विद्या दिखाई पड़े कि उसके पास विद्या है, तो आप उन विद्यावानों के पास जाना और यह कहना कि आपकी विद्या की समाज को आवश्यकता है और युग को आवश्यकता है। विद्या पेट पालने के लिए नहीं होती है, पेट भरने के लिए नहीं होती है। विद्या का उद्देश्य भिन्न है। विद्या का उद्देश्य है, जो ज्ञान हमको मिला हुआ है, उससे हमको वकालत भी करनी पड़े, तो उस विद्या के द्वारा लोगों के अज्ञान के निवारण के लिए खरच करना चाहिए। आपकी सारी-की-सारी विद्या धन के लिए, पैसे के लिए खरच नहीं होनी चाहिए। अगर आप पढ़े-लिखे आदमी हैं, जीवट वाले आदमी हैं, तो आपकी विद्या का लाभ उन लोगों को मिलना चाहिए, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, जो निरक्षर हैं।
मित्रो! आप पढ़े-लिखे हुए लोगों से कहना कि यदि आपका गुजारा हो जाता है, तो आपको 'नाइट स्कूलÓ रात्रि पाठशाला खोलनी चाहिए। बाहर विदेशों में लोग नाइट स्कूल चलाते हैं। सारे-के-सारे लोग पढ़ाई उसी में करते हैं। वहाँ दिन भर आठ घंटे मेहतन-मजदूरी हर आदमी को करनी पड़ती है। छोटे बच्चों की बात जाने दीजिए, वे तो स्कूलों में चले जाते हैं। वे साढ़े नौ बजे चले जाते हैं और शाम को चार बजे आ जाते हैं, पर जिसको पेट पालना पड़ेगा, वो किस तरीके से स्कूल जा सकता है। और जो बड़ा आदमी हो गया, जवान आदमी हो गया, वह कैसे जा सकता है? अत: हमको समाज में विद्या का विस्तार करना है। विद्या का ऋण-कर्ज हमारे ऊपर है। इसे चुकाने के लिए हमको दूसरों को विद्यावान् बनाना चाहिए। शिक्षित बनाना चाहिए, ज्ञानवान् बनाना चाहिए, इसके लिए हममें से और आप में से हर आदमी को समाज का ऋण चुकाने के लिए वो काम करना चाहिए, जो कल मैंने आपको बताए थे और आपको बताता रहा हूँ। योरोप के तरीके से हमारे यहाँ भी रात्रि के विद्यालय चलने चाहिए, जहाँ मजदूर, धोबी आदि शाम के वक्त अपने काम से छुट्टïी पाने के बाद चले जाते हैं और पढ़ाई करते हैं और जिंदगी के आखिरी वक्त तक एम.ए. हो जाते हैं, पी.एच.डी. हो जाते हैं और डी. लिट् हो जाते हैं। जिंदगी के आखिरी-से-आखिरी वक्त तक जो समय उनको पढऩे को मिल जाता है, वे उसे पढ़ाई में लगा देते हैं।
मित्रो! हमारे देश में सिनेमाघरों में भीड़ बहुत है। हमारे समाज में गप्पें हाँकने के लिए भीड़ बहुत है, जुआघर में भीड़ बहुत, शराबखानों में भीड़ बहुत होती है, लेकिन आपको उस तरह की भीड़ कहीं भी नहीं दिखाई पड़ेगी कि अपने जातीय संगठन के नाम पर, अपने शिक्षित समुदाय के नाम पर इक_ïे होकर के हमने सायंकाल के वक्त 'रात्रि पाठशालाओंÓ को चलाया हो। इन रात्रि पाठशालाओं में असंख्य महत्त्वपूर्ण बातें पढ़ाई जा सकती हैं। मैं यह तो नहीं कहता कि हरेक आदमी को बी.ई. पढ़ाना चाहिए, लेकिन जीवन जीने की कितनी समस्याएँ हैं, उनको हल करने के लिए विद्यावानों को आगे आना चाहिए।
स्वास्थ्य की शिक्षा अभी प्रारंभ नहीं हुई है। हम और आप वकील हों, तो मुबारक, लेकिन आपको नहीं मालूम कि पेट खराब क्यों हो गया? और पेट को खराब होने से बचाने के लिए क्या तरीका होना चाहिए। क्या आपके पास इसके लिए कोई स्कूल है? दवाखाने वाले तो वो चीज हैं कि जहाँ कहीं भी जाइए, हर चीज का इंजेक्शन लगा देंगे। उन्हें ये मालूम नहीं है कि वजह क्या है और किसकी वजह से सेहत खराब कर रहा है। उन सेहत खराब करने वाली खुराक और आदतों को जब तक ये हेर-फेर नहीं करेगा, तब तक उसकी सेहत कभी भी अच्छी नहीं हो सकेगी, चाहे वह रोज एक-एक दिन में बीस इंजेक्शन लगवाता चला जाए। व्यक्ति इंजेक्शन से कदापि अच्छा नहीं हो सकता। सेहत को अच्छा करने के लिए शिक्षण की आवश्यकता है।
शिक्षण प्रक्रिया नई जन्म ले
मित्रो! हमको शिक्षण की प्रक्रिया राष्टï्र में पैदा करनी पड़ेगी। विद्या हमारे देश में नहीं है। साक्षरता हमारे देश में नहीं है। उसको बढ़ाने के लिए हमको नाइट स्कूलों की जरूरत पड़ेगी। विद्या के लिए घनघोर आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा और इस आंदोलन के लिए हम नौकर नहीं रख सकते, कर्मचारी नहीं रख सकते और वेतन-भोगी नहीं रख सकते। गवर्नमेंट ने इस तरह के वेतन-भोगी रख लिए हैं और आप देखिए क्या हाल हो रहा है? हर डिपार्टमेंट को बढ़ा-बढ़ाकर इतना लंबा चौड़ा कर लिया है कि अगर इतना पैसा इन डिपार्टमेंट में नहीं लगाया गया होता, तो उस बचत से शिक्षण-प्रशिक्षण की समस्या सुलझ गई होती।
मित्रो! हमको जो काम करना पड़ेगा, उन क्षमता वालों के आधार पर और प्रतिभा वालों के आधार पर करना पड़ेगा। अपना यह मिशन कितना जबरदस्त मिशन है। इसको आगे बढ़ाने के लिए हमको उन आदमियों के पास जाना पड़ेगा, जिनके पास विचारशीलता भी विद्यमान है और क्षमता भी विद्यमान है। विचारशीलता नहीं है और क्षमता है, तो हमको यह कोशिश करनी पड़ेगी कि अपने मिशन की विचारधारा को, मिशन की पुस्तिकाओं को, मिशन के ट्रैक्टों को उनको बार-बार सुनाएँ और किसी प्रकार से इस तरीके से लाएँ कि वे हमारी विचारधारा के संपर्क में आएँ। अगर कोई आदमी हमारी विचारधारा के संपर्क में आ गया, तो यह बड़ी जलती हुई विचारधारा है, यह बड़ी तीखी और प्रखर विचारधारा है। सौ फीसदी मरा हुआ आदमी हो, तब तो हम नहीं कह सकते, लेकिन कोई अगर जिंदा आदमी होगा, तो उसको एक बार तडफ़ड़ाए बिना, उसको एक बार हिलाए बिना नहीं रह सकती। माला वालों को तो यह शायद जगाएगी नहीं। माला वाले तो अखण्ड ज्योति का चंदा इसलिए भेज देते हैं कि गुरुजी नाराज हो जाएँगे और अगली बार मुकदमे में सहायता नहीं करेंगे। वे पत्रिका को पढ़ते थोड़े ही हैं, कोई नहीं पढ़ते, लेकिन जिन लोगों ने इन विचारों को पढ़ा है, वे आदमी काँपते हैँ, हिलते हैं। उन आदमियों के अंदर एक स्पंदन पैदा होता है, फुरेरी पैदा होती है।
आप इन विचारों को लेकर सामान्य जनता तक जरूर जाना। लेकिन सामान्य जनता के अलावा कोई विशेष आदमी दिखाई पड़ते हों, जिनके अंदर आपको जीवट दिखाई पड़ती हो, प्रतिभा दिखाई पड़ती हो, उनके पास आप जरूर जाना विद्यावानों के पास, प्रतिभावानों के पास, कलाकारों के पास जाना। जहाँ कहीं भी कलाकार दिखाई पड़ते हों, उनके पास आप जरूर जाना। उनसे कहना कि भगवान् ने आपको मीठा वाला गला दिया है, आपको गाने की कला आती है। आप इस गाने की कला के द्वारा जिस तरीके से कामुकता के गीत, अंध विश्वासों का समर्थन करने वाले गीत और भक्ति के नाम पर शृंगार रस के गीत गाया करते हैं। इनके स्थान पर कहीं आप चंदवरदायी के तरीके से समय को कँपाने वाले, भूषण के तरीके से समय को कँपाने वाले, युगों में जीवन भरने वाले गीत आप इसी गले के द्वारा गाने लगें, चौराहे-चौराहे पर खड़े होकर अलख जगाने लगें-गाँव-गाँव जाकर लोगों को इक_ïा करके गीत की कला का उपयोग करने लगें, तो आपके यही गीत आपका यही गला और गले की मिठास सैकड़ों-हजारों मनुष्यों के जीवन में हेर-फेर करने में समर्थ हो सकती है। मीरा का गला, मीरा की मिठास और मीरा का संगीत कितने आदमियों के जीवन में हेर-फेर करने में समर्थ हो गया। अत: हमको उस हर मीठे गले वाले व्यक्ति से कहना चाहिए, जिसको ये विशेषताएँ और विभूतियाँ भगवान् ने अमानत के रूप में विशेष रूप से दी हैं।
मित्रो! हमको उनके पास विशेष रूप से जाना चाहिए, जिन लोगों के पास कला है। जिन लोगों के पास लेखन की शक्ति है, जिन लोगों के पास विद्या की शक्ति है, जिन लोगों के पास बुद्धि की शक्ति है, उन लोगों के पास आप जरूर जाना। बीमारी के समय डॉक्टर के पास हमको जरूर जाना चाहिए, क्योंकि वह जानता है और उस काम को आसानी से पूरा कर सकता है। एक डॉक्टर हैजे का मुकाबला आसानी से कर सकता है, जबकि सौ गँवार मिलकर भी हैजे का मुकाबला नहीं कर सकते। इसलिए आप उनके पास चक्कर जरूर लगाना। उनकी खुशामद करने में अपमान महसूस मत करना। आप उनकी खुशामद करना, उनकी मिन्नतें करना, जिनके अंदर आपको जीवन मालूम पड़ता है और जीवट मालूम पड़ता है। अगर आपने खुशामद की है, मिन्नतें की हैं, तो आपने भीख माँगने के लिए नहीं की है, अपना पेट भरने के लिए नहीं की है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए नहीं की है, वरन् समाज के लिए की है, देश के लिए की है, मानवता के लिए की है और मिशन के लिए की है।
मित्रो! आपको उन लोगों की खुशामद करनी चाहिए, जिनके पास बुद्धि है, क्षमता है, जिनके पास प्रभाव है, जिनके पास अक्ल है, जिनके पास कला है, जिनके पास जान है। जो आदमी कलम को पकड़ सकते हैं, जो आदमी अपनी विद्या से दूसरों को प्रभावित कर सकते हैं। जिनके पास भगवान् ने वाणी दी है, जो बोल सकते हैं, जो व्याख्यान दे सकते हैं, उनको आप यह कहना कि आपको जो विशेषताएँ मिली हुई हैं, वह भगवान् की अमानत हैं। आपको इसको इस विशेष समय पर इस्तेमाल करना चाहिए। गवर्नमेंट के पास रिजर्व फोर्स, रिजर्व पुलिस होती है और वह विशेष समय के लिए रखी जाती है, ताकि जिस समय इसकी बेहद आवश्यकता हो, उस समय विशेष रूप से काम आए। आप उनसे यही कहना कि आप भगवान् के रिजर्व फोर्स के तरीके से हैं, तभी तो दूसरे सामान्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा बुद्धि दी गई है, ज्यादा प्रभाव दिया गया है, ज्यादा प्रतिभा दी गई है और ज्यादा समझदारी दी गई है। यदि आप प्रतिभाओं को, विभूतियों को जगाकर राष्टï्र-निर्माण के लिए लगा सकें, तो इससे बड़ा पुण्य कोई नहीं। आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शांति॥
धर्मग्रंथ हमें क्या शिक्षण देते हैं, यह जानें
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! पिछले दिनों जन्माष्टïमी के अवसर पर हमने आपको यह बतलाया था कि भगवान् अपनी लीला के माध्यम से किस तरह से व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण के अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। हमारा लक्ष्य भी ध्रुव की तरह साफ है। हम व्यक्ति निर्माण की बात करना चाहते हैं, परिवार का स्तर, जो नष्टï हो गया है, उसका हम विकास करना चाहते हैं। हम व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी की स्थापना करना चाहते हैं, जिसका नाम परिवार है। इसी में से हीरे, मोती, जवाहरात निकलते हैं। वह आज चरमरा गया है। उसे हम ठीक करना चाहते हैं। परिवार को हमें शिक्षित करना है, संस्कारित करना है। लोग विलायत पढऩे जाते हैं, परन्तु संस्कार कहीं से लेकर नहीं आते हैं।
बच्चा जब माँ के गर्भ में होता है, तब से लेकर तीन साल तक, जब तक वह कुछ बड़ा होता है, उसकी अस्सी प्रतिशत शिक्षा समाप्त हो जाती है। भावना, संवेदना के संदर्भ में वह सब सीख जाता है। अगर आप पाँच साल के बच्चे बन जाएँ, तो मेरी समझ से आपके संस्कार को जाग्रत करने का समय लगभग एक वर्ष नौ महीने पहले ही समाप्त हो गया था। बचपन ही संस्कार का महत्त्वपूर्ण समय है। आप पब्लिक स्कूलों में हजारों रुपये महीने का शिक्षण दिला सकते हैं, जहाँ बच्चा क्रीज किया हुआ कपड़ा पहनना, जूतें पर पॉलिश करना, थैंक यू वेरी मच कहना सीख जाएगा, परन्तु जो संस्कार हम परिवार के अन्तर्गत दे पाते हैं, वह कदापि इन स्कूलों में संभव नहीं हैं। संस्कार कहाँ से आता है? वह माँ-बाप से आता है?
हम खुशबूदार परिवार बसाना चाहते हैं
मित्रो, आज परिवार संस्था का नाश हो गया है। आज कहीं भी हमें परिवार दिखलाई नहीं पड़ते। वे काम-वासना के क्रियाकलाप वाले मात्र केन्द्र रह गए हैं। उनके अन्दर यह ख्याल तथा प्रयास कहाँ है कि परिवार के अन्तर्गत वे सोचें कि हमें परिवार, समाज, देश एवं संस्कृति के लिए एक महान रत्न देना चाहिए, जो प्रगति कर सके। दो आदमी मिलकर एक तीसरी महान आत्मा बनाएँ-ऐसा साहस किसी में नहीं है। आज परिवार वासना प्रधान बन गया है। ऐसी स्थिति में हम एक नया परिवार बसाना चाहते हैं, जिसमें से बेहतरीन चीजें निकल सकें। हम खुशबूदार परिवार बसाना चाहते हैं। मित्रो, चन्दन के जंगल के पास जो भी पेड़ उगते हैं, वे भी खुशबूदार होते हैं। हम चाहते हैं कि एक ऐसा ही परिवार बने। जर्मनी में जब हिटलर ने एक नया जोश-खरोश पैदा किया, तब बाकी कमजोर लोग सलवार एवं स्मार्ट ड्रेस पहनने लगे तथा अन्दर-बाहर से मजबूत बनने लगे। हम परिवार एवं समाज का वातावरण अच्छा बनाना चाहते हैं। शालीनता का, व्यावहारिकता का वातावरण पैदा करना चाहते हैं, ताकि इनसान को देखकर लोग परिवार एवं समाज की स्थिति को समझ-बूझ सकें। आज हमारे अन्दर हैवान काम कर रहा है। वह केवल इनसान का चोला पहन आया है। अभी हमारे अन्दर का महामानव, ऋषि, भगवान्, संत कहाँ जागा है? वैसा जीवन कहाँ आया है? हम चाहते हैं कि हम इनसान का जीवन जिएँ, ऋषि एवं संतों का जीवन जिएँ, मानवता का जीवन जिएँ तथा देश एवं समाज का उत्थान करें।
महामानवों के जीवन चरित्र हमारे इष्टï बनें
मित्रो, हम अपने आपको तथा दूसरों को नसीहत देने के लिए चले हैं। हम मिशन की एक रूपरेखा बनाकर चल पड़े हैं। आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमें मंजिल तक चलना है। महापुरुषों का, महामानवों का जीवन चरित्र हमारी मंजिल है, जहाँ तक हमें चलना है। यह हमें ध्यान रखना चाहिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनकी शिक्षा, उनकी वाणी हमारे लिए उपयोगी है, परन्तु इससे भी महत्त्वपूर्ण है उनकी जीवन जीने की कला, जो कि हमें सीखनी चाहिए और उससे प्रेरणा लेनी चाहिए तथा अपना आत्म-विकास करना चाहिए। महापुरुषों ने जिन्दगी को कैसे जिया, असल में प्रेरणा हमें वहाँ से मिलती है। उन्होंने क्या कहा, यह हमें मालूम नहीं है। अगर हम जिन्दगी भर बकवास करते हुए उसे समाप्त कर दें, तो भी उसका कोई प्रभाव समाज पर नहीं होगा। क्योंकि उस सिद्धान्त को, जो हम कहना चाहते हैं, उसका समावेश हमने अपने जीवन में नहीं किया है। इस कारण से उसका कोई प्रभाव नहीं होने वाला है। हमारे महापुरुषों, अवतारों की कथाएँ इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि उनकी वाणी तथा कर्म में कोई फर्क नहीं था।
मन, वाणी और कर्म जब एक जगह मिल जाते हैं, तो त्रिवेणी संगम बन जाता है। उस समय आदमी शक्तिपुंज बन जाता है। साहसी, ताकतवर बन जाता है। उस समय उसकी आँखों में से बिजली निकलती है। उस समय उसका व्यक्तित्त्व मनुष्यों के ऊपर छाता हुआ नजर आता है तथा वह व्यक्ति सूर्य की तरह चमकता हुआ नजर आता है। मन, वाणी, कर्म में एकरूपता का समावेश जिसमें हो जाता है, उसे हम भगवान्, महामानव, अवतार, ऋषि, संत व देवता कहते हैं। उनके चरणों की हम वन्दना करते हैं। उनसे हम प्रेरणा ग्रहण करते हैं। समुद्र में लाइट हाऊस होता है, जो आने वाले जहाजों को दिशा का ज्ञान कराता है। उसी प्रकार ये लोग करते हैं तथा समाज के उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। आप भी भगवान् हैं तथा अवतारी चेतना हैं। रामायण में कहा गया है-''ईश्वर अंश जीव अविनाशी।ÓÓ अत: आप सभी भगवान् के अंश हैं अर्थात् एक हार्सपावर के भगवान् हैं। कलाओं के हिसाब से भगवान् का मूल्यांकन किया जाता है। परशुराम जी तीन कला के तथा भगवान् राम बारह कला के तथा भगवान् श्रीकृष्ण सोलह कला के थे। ये सब कलाँ हार्सपॉवर हैं। एक बार परशुराम जी में एवं रामचंद्र जी में लड़ाई-झगड़ा होने लगा। प्रश्र यह था कि एक समय में क्या दो भगवान् हो सकते हैं? हाँ हो सकते हैं। दोनों में लड़ाई-झगड़ा होने लगा कि असली भगवान् कौन है तथा नकली भगवान कौन है? आप और हम भी लड़ाई लड़ सकते हैं, क्योंकि आप लोग भी एक अंश भगवान् का धारण किये हुए हैं। हम नहीं जानते हैं कि असली भगवान् कौन है तथा नकली भगवान् कौन है?
लोकोपयोगी प्रेरणा देते हैं—धार्मिक दृष्टïान्त
मित्रो, पिछले दिनों हमने जन्माष्टïमी के अवसर पर आपको बतलाया था कि हमें उक्त बात को समझना चाहिए तथा इन अवतारों के कथानकों को लेकर समाज के बीच में जाकर लोगों को प्रेरणा देनी चाहिए। क्योंकि हमारा देश गाँवों से भरा है। अधिकांश व्यक्ति कम पढ़े-लिखे हैं, उन्हें हम केवल सरल शब्दों में समझा सकते हैं। इस कार्य में कथानक बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। इस प्रकार धार्मिक विचारधारा के द्वारा ही हम लोगों को समझा सकते हैं। महात्मा गाँधी ने भी धार्मिक विचारधारा को साथ लिया तथा प्रार्थना को स्थान दिया। ''रघुपति राघव राजा राम। पतित पावन सीता राम।ÓÓ इस प्रकार उन्होंने रामराज्य की दुहाई दी। उन्होंने धर्म की जय बोली। धार्मिक विचारधारा के अलावा इस देश की जनता को हम किसी कार्य के बारे में समझा नहीं सकते हैं। उन्होंने हिंसा का रास्ता न अपनाकर 'अहिंसा परमोधर्म:Ó की बात बतलायी। उन्होंने यह कहा कि भारत में पैसे व अस्त्र-शस्त्र की कमी है। हम अँग्रेजों से इस मामले में विजय नहीं पा सकते। अत: हमें अहिंसा का रास्ता ही अपनाना होगा। उन्होंने इसी रास्ते पर चलते हुए अँग्रेजों को झुका दिया। गाँधीजी को वे जादूगर कहते थे।
धर्म ही एक मात्र धुरी—नवनिर्माण की
हम यहाँ के लोगों को फिजिक्स, सिविक्स, सोसियोलॉजी नहीं समझा सकते। यह समझाना बहुत ही कठिन है। हम केवल धर्म के आधार पर ही समझा सकते हैं। धर्म हमारी जीवात्मा की भूख है। यह दोनों ही परिस्थितियाँ हिन्दुस्तान की फिलोसफी-दर्शन के अनुसार तथा यहाँ की गई-गुजरी परिस्थिति के हिसाब से आवश्यक है। परिवार के लोगों को संस्कारवान बनाने तथा समाज के लोगों को नसीहत देने, दोनों के लिए धर्म से बढ़कर कोई दूसरा साधन नहीं है। इसमें अपने क्रियाकलाप तथा व्याख्यान दोनों की संगति बिठाना परम आवश्यक है, तभी हम इसका प्रभाव दूसरों पर डाल सकते हैं। महापुरुषों, संतों ने इसी प्रकार अपने जीवन में धारण किया, जिसका प्रभाव समाज, देश व संस्कृति पर पड़ा। श्रीकृष्ण भगवान् के गीता में व्याख्यान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह जानना आवश्यक है कि उनका व्यवहार और कर्म कैसा था। आचार्यजी को देखने के साथ, सुनने के साथ, आचार्यजी के जीवन के ६५ पन्नों को भी देखना होगा, पढऩा होगा, तभी आप आचार्यजी को समझ सकते हैं।
जनमानस का परिष्कार होगा, जीवन-चरित्र की प्रेरणाओं से
साथियो, हम आपसे यह निवेदन कर रहे थे कि हमें लोकमंगल के कार्य के लिए, जनमानस के परिष्कार करने के लिए महामानवों के चरित्र को लेना पड़ेगा। उसके माध्यम से ही जनचेतना जगाने का कार्य करना पड़ेगा, तभी वह प्रभावकारी व हितकारी सिद्ध हो सकती है। परन्तु एक बात आपको बतलाना चाहता हूँ कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है। जो भी इस मनुष्य शरीर में आया है, वह कहीं-न-कहीं अवश्य गलती कर रहा है। इसलिए हमें अच्छे चेहरों का फोटो खींचने व दिखाने के स्थान पर उनके चरित्र का जो अच्छा पक्ष है, श्रेष्ठï गुण है, उसको लेना चाहिए। उनकी बुराइयों पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिए। अगर आप गुरुजी की टट्टïी-पेशाब करते समय फोटो खींचेंगे, तो आपको यह देखकर उल्टी हो जाएगी तथा हम आपको बहुत घिनौने मालूम पड़ेंगे। अत: आपको हमारी फोटो उस समय नहीं खींचनी चाहिए, जब हम टट्टïी-पेशाब कर रहे हों। आपको केवल हमारे चेहरे का फोटो ही नहीं लेना चाहिए, हमारा जीवन भी औरों को बताना चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण के शादी-विवाह के मामले को हमने कभी भी नहीं लिया है। हमने अपने पिताजी तथा माताजी के उस दृश्य को कभी भी नहीं देखा है, जब वे आपस में हँस-बोल रहे थे। श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ क्या रास किया, क्या मनोरंजन किया, हमें नहीं देखना है, क्योंकि वे हमारे पिता हैं। पिता के वे रूप देखना हमें पसन्द नहीं हैं। जैसे दृश्य को देखकर हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं, झुक जाती हैं-वैसे दृश्य को हम देखना नहीं चाहते हैं। हमें उनके शिक्षण वाला पहलू चाहिए, हमें उनका चक्रसुदर्शन वाला पहलू चाहिए। हमें उनका गीता का उपदेश सुनाता हुआ पहलू चाहिए, जिससे हम प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें।
मित्रो, दूसरा वाला पहलू जो हम आपको बतलाना-सिखाना चाहते हैं, वह रामायण वाला पहलू है। वह भगवान् राम के द्वारा दिया गया शिक्षण है, वो हम आपको बतलाना चाहते हैं। रामायण में राम का जो शिक्षण है, प्रेरणा है, उस ओर हम लोगों को घसीटकर ले जाना चाहते हैं। हाथी एवं घोड़े को रस्सी से बाँधकर, घसीटकर ले जाते हैं। हम जनसामान्य को, मनुष्य समुदाय को भी इसी प्रकार से घसीटना चाहते हैं। इनकी रस्सी क्या होगी? महामानवों के जीवन-चरित्र, श्रीराम, श्रीकृष्ण का जीवन-चरित्र, जिसको हम आपको पढ़ाते हैं। बाल्मीकि रामायण के उस पहलू को, जो हमारे उद्देश्य के काम आ सकते हैं, उसे भी हम आपको पढ़ाना चाहते हैं। अत: आप सभी से हमारी प्रार्थना है कि आप जब कभी भी जनता के बीच जाएँ या आप स्वयं पढ़ें, उस समय आप केवल ये बातें लोगों को बतलाने का प्रयास करें, जो प्रेरणादायक हों तथा हमारे उद्देश्यों को पूरा कर सकती हों।
आप उन कथानकों का खण्डन-मण्डन न करें, उस समय आप चुपचाप हो जाएँ। जैसे रामायण में एक कथा आती है कि एक धोबी आता है और रामचन्द्र जी उसके कहने पर सीताजी को त्याग देते हैं। यह आपको नहीं मानना चाहिए। जब वे शासनसत्ता सँभाल रहे थे, तब वे जज भी थे, मजिस्ट्रेट भी थे, उनको विचार करना चाहिए था, सीता जी की बात सुननी चाहिए थी कि वह क्या कह रही हैं। वह यह कह रही थीं कि हम निर्दोष हैं। उनकी बातों को न सुनना उनकी गलती थी तथा जो डिसीजन लिया, वह भी गलत था। आपको इस प्रकार के कथानकों को काट देना चाहिए। जिसमें कहा गया है कि गलती धोबी की थी तथा सजा सीताजी को मिली। हम रामचंद्रजी के अनुयायी हैं, परन्तु हम अन्धे अनुयायी नहीं हैं। उनकी गलत बातों को हम समर्थन नहीं करेंगे। हमारा मिशन बहुत दिनों से सत्यनारायण कथा सुनाता रहा है। हम केवल सत्य बातों को मानेंगे, उसे सुनायेंगे। आप मजहब की हर बातें न मानें, जो सत्य हैं उसे मानें, क्योंकि भगवान् उसे कहते हैं, जो सत्य हैं। अत: आप सत्य को, विवेक को, इनसाफ को नारायण मानिये तथा उसी कार्य के लिए गतिशील रहिए, तो आपको लाभ होगा।
अब हम आपसे यह कहते हैं कि आप रामायण के माध्यम से परिवार, समाज तथा देश को नयी प्रेरणा तथा प्रकाश दीजिए। उसके नये पन्ने पलटकर सबको बतलाइये। भगवान् राम के बहुत-से पन्ने बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं तथा बहुत से पन्ने ऐसे हैं जिस पर बहस करना हमें मंजूर नही है, जो अनुपयोगी है। हमारा उस अंश से ज्यादा संबंध है, जो उपयोगी हो सकता है, दिशा दे सकता है। एक बात और आती है कि रामचन्द्र जी ने दशरथ जी को पिण्डदान देने के लिए मांस का पिण्ड बनाया। यह बात भी हम नहीं मानते हैं। रामचन्द्र जी ने रावण मारा था, श्रीकृष्ण जी ने गोवर्धन उठाया था, इस प्रकार की बातें तो हम मानने के लिए तैयार हैं, पर भगवान् की अनर्गल बातों को हम नहीं मानेंगे। अत: आप यह समझ लीजिए कि आप इस तरह की बातें अपने व्याख्यानों में कभी नहीं करेंगे। हम वास्तव में किसी देवी, देवता या किताब के गुलाम नहीं हैं। हम तो सत्य के गुलाम हैं। हम अकल, सत्य और इन्साफ के गुलाम हैं। आप गलत बातों का समर्थन न करें। श्रीकृष्ण भगवान् ने सोलह सौ रानियाँ की थीं, तो हम तीन कर लें तो क्या गलत है? बेकार की बातें मत करें, अपने विचारों को ठीक रखें।
हमारी नयी रामायण में है, प्रेरणा-मार्गदर्शन
हमने इसी उद्देश्य से एक नयी रामायण का सृजन किया है, जिसमें केवल काम की बातों की गुंजायश है। इसमें प्रेरणा है, मार्गदर्शन है। हम चाहते हैं कि आप इन बातों को मानें, शिक्षा ग्रहण करें तथा समाज को रामायण के माध्यम से इन बातों को बतलावें। अगर आप इन बातों को समाज में बतलाने का प्रयास करेंगे, तो प्रबुद्ध वर्गों के बीच रामायण अंधविश्वास, मूढ़-मान्यताएँ फैलाने वाला ग्रंथ बन जाएगा और दुनिया का सत्यानाश कर देगा। श्रीकृष्ण की यह बात कि रुक्मिणी का भाई उनकी शादी नहीं करना चाहता था, परन्तु श्रीकृष्ण उसे भगाकर ले गये तथा शादी कर ली, यह बात हमें नामंजूर है। किसी लड़की को इस तरह भगाना न्यायसंगत नहीं है। यह गलत बात हमें नामंजूर है। अत: आपको आगाह किया है कि रामायण की कथा बतलाते समय इस तरह की बातें न करें, जो नैतिकता को आघात पहुँचाएँ और लोगों के विचारों को गलत कर दें। अत: आपको सावधान रहना चाहिए।
मित्रो, गलती हर आदमी से हो सकती है, रामचन्द्र जी से भी हो सकती है। श्रीकृष्ण भगवान् से भी हो सकती है। साथियों हम नहीं जानते हैं कि कौन विश्वामित्र हैं और कौन विश्वामित्र नहीं हैं। कितना अंश उनका पूजने योग्य है, कितना नहीं, यह हम नहीं जानते हैं। हमें तो अच्छे अंश की आवश्यकता है, उसका ही पूजन करते हैं। विश्वामित्र ने मेनका से शादी की थी कि नहीं की थी, यह हम नहीं जानते हैं। हम यह जानते हैं कि हर आदमी में कच्चाई होती है। गाँधीजी में कच्चाई हो सकती है, तो हर आदमी में कच्चाई हो सकती है। हमें तो इसके अच्छे पहलुओं की आवश्यकता है। उनकी शराफत एवं दिशाओं से मतलब है। अगर ये दृष्टिïकोण आपका होगा तो आप गीता, रामायण, भागवत सुना सकते हैं और प्रेरणा दे सकते हैं। अगर ये दृष्टिïकोण नहीं रखेंगे तो आप अपना भी सत्यानाश करेंगे तथा रामचन्द्र जी एवं श्रीकृष्ण जी का भी सत्यानाश करेंगे। हम चाहते हैं कि आपकी अपनी दृष्टिï हो। आप को किसी को भी अपनी अकल नहीं बेचनी चाहिए। आपको हमने श्रीकृष्ण जी की कथा के बारे में बतलाया था। आज मैं आपको रामचन्द्र जी की कथा के बारे में बतलाना चाहता हूँ कि आपको किस तरह से कथा सुनाना चाहिए।
सुसंतति कैसे
रामचन्द्र जी की कथा श्रीकृष्ण की तरह ही है। कथा आती है कि मनु शतरूपा ने तप किया था, तो दशरथ रूप में पैदा हुए। मित्रो, तप करने से ही अच्छे एवं सुसंस्कारी बच्चे पैदा हो सकता हैं। आप लोग तो कहते हैं कि गुरुजी हमें आशीर्वाद दीजिए कि हमारा बेटा ठीक हो जाए। बेटे, तेरे घर में अच्छे बेटे नहीं हो सकते। तेरे घर तो रावण पैदा होंगे, मेघनाद पैदा होंगे। अगर अच्छे बच्चे पैदा करना है, तो आपको तप करना होगा। तप करने का अर्थ है-शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को ठीक करना होगा। आप जब स्वयं संस्कारवान बनेंगे, तभी आप संस्कारवान बच्चे पैदा कर सकते हैं। अगर साँचा-ठप्पा ठीक नहीं है, तो खिलौना कैसे ठीक बनेगा। इसके लिए अपने आपको गलाइये।
मित्रो, यज्ञीय वातावरण में संस्कारवान बच्चे पैदा होते हैं। एक कथा आती है कि दशरथ जी द्वारा यज्ञ किया गया था, तो उससे चार भगवान्-राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्र पैदा हुए थे। गुरुजी आप हवन करा सकते हैं तथा हमारी बीबी को दो बच्चा दे सकते हैं? बेटे हम नहीं करा सकते हैं। आप पहले अपने परिवार में इस तरह का त्यागमय वातावरण बनाइये, जैसे कि दशरथ के यहाँ था और जैसा कि राम-सीता, लक्ष्मण-उर्मिला आदि का त्यागमय जीवन था। वैसा वातावरण आपके घर-परिवार का होगा, तभी यह हो सकता है। उर्मिला का त्याग सीता से भी ज्यादा है। उर्मिला ने कहा कि मेरा पति मेरा आदर्श-सिद्धान्त है, जो सदैव हमारे साथ है, अत: हमारा वन जाना उचित नहीं है। लक्ष्मण का जाना आवश्यक है। बड़े भाई की सेवा करना उनका परम कत्र्तव्य है। जिस घर में ऐसा वातावरण होगा, वहाँ संस्कारवान बच्चे पैदा होंगे। रामचन्द्र जी और भरत जी गेंद खेल रहे थे। भरत जी खेलने में कमजोर थे, परन्तु रामचन्द्र जी उन्हें बार-बार जिता देते थे। अपने से छोटों की हिम्मत और इज्जत बढ़ा देने में ही महानता है-हारा आदमी जीत जाता है। रामचन्द्र जी ने भरत को गुलाम बना लिया। सारी जिन्दगी वे राम के गुलाम रहे। यह है भगवान् का स्वभाव, जो कि हमारे लिए प्रेरणा लेने एवं देने लायक है। ऐसे ही भगवान् को लोग मानते हैं। आज घटिया भगवान् को कोई नहीं मानता है।
भगवत्तत्त्व के मर्म को समझें
एक बार कौशल्या जी रामचन्द्र जी को पालने में झुला रही थीं, उस समय भगवान् ने वही गीता वाला ज्ञान दिया कि भगवान् इनसान के रूप में ही हो सकता है। विराट्ब्रह्मï को, निराकार को कौन देख-समझ सकता है। निराकार भगवान् तो ऊँचे विचारों में है, आदर्शवादिता में है, उत्कृष्टï चिन्तन में है, भलाई में है। साकार मानना है, तो सारा समाज ही, सारे समाज के लोग ही भगवान् हैं।
आज लोग अपने-अपने भगवान् के लिए लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि हमारा भगवान् चूहे पर सवारी करता है, तो कोई कहता है कि हमारा भगवान् हाथी पर सवारी करता है। तो कोई कहता है कि हमारा भगवान् हंस पर सवारी करता है। अरे भगवान् तो एक है और मनुष्य है कि सवारी के लिए लड़ता है। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के भगवान् एक हैं। भगवान हिन्दू, मुस्लिम सबके लिए होगा, तो सफेद रंग का ही होगा। इसमें फर्क हमने और आपने पैदा कर दिया है। सूर्य, चन्द्र जब एक ही हो सकते हैं, तो भगवान् दो कैसे हो सकते हैं? मन्दिर में रखे हुए भगवान् जड़ हैं, हम इसके द्वारा अपनी भावना को जाग्रत करते हैं। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। चमत्कार है, तो मनुष्य की भावना में है। यह कूड़े में, गोबर, लकड़ी, पत्थर सबमें हो सकता है। आप भगवान् की पूजा करते हैं, तो भगवान् के बारे में जानने का भी प्रयास करें, तभी आपको सही बातें मालूम पड़ेंगी। रामचन्द्र जी ने विराट् ब्रह्मï के बारे में कागभुसुण्डि एवं कौशल्या को दिखाया और कहा कि इसकी सेवा करना ही भगवान् की पूजा है। इसे हर व्यक्ति को समझना चाहिए।
तपस्वी जीवन की प्रेरणा
भगवान् के भक्त के लिए हीरा तराशना आवश्यक है अर्थात् अपनी अन्तश्चेतना को परिष्कृत करना आवश्यक है। इसके लिए तप करना आवश्यक है। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को इसके लिए जंगल में ले गए और कहा कि तप करना परम आवश्यक है। वहाँ कन्द-मूल आपको मिलेगा और वही खाकर रहना पड़ेगा। आपको वहाँ मक्खन और डबल रोटी नहीं मिलेगी। चलिए वहाँ रहिए और वे तप करने चले गये। उन्होंने कहा कि अनीति से विरोध करना पड़ेगा, आदर्श पद्धति का अवलम्बन लेना पड़ेगा। समाज को ऊँचा उठाने के लिए तप करना यानी तपस्वी का जीवन जीना होगा। वे सहर्ष तैयार हो गए एवं चले गए। इसके बाद ही भगवान् कहलाए। महापुरुषों के लिए इसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है।
आदर्श विवाह किस प्रकार
राजा जनक के चार लड़कियाँ थीं। राजा दशरथ के यहाँ एक यज्ञ हुआ था जिसके फलस्वरूप चार लड़के पैदा हुए। इन चारों का जनक की पुत्रियों से विवाह हो गया। हम इसी प्रकार का वातावरण बनाना चाहते हैं। हम दहेज के विरोधी हैं, लेकिन अगर कोई स्वेच्छा से कन्या को कुछ देता है, तो हमें ऐतराज नहीं है, परन्तु पैसा दिखाकर नहीं देना चाहिए। आप पेटी में रखकर इच्छा से दीजिए अथवा बेटी के नाम जमा कर दीजिए। दहेज हर दृष्टिï से अनैतिक है। इम्मोरेल है। इसे तत्काल बन्द करना चाहिए। यह प्रेरणा हमें रामायण से लेनी चाहिए।
इसी प्रकार रामायण से हमें अन्यान्य प्रेरणादायक दृष्टïान्त लेकर लोगों को समझना चाहिए। एक बार दशरथ जी को अपना सफेद बाल दिखलाई दिया। उन्होंने सोचा कि हमें क्या करना चाहिए। यह सम्मन है मौत का। हमारे सिर पर ६५० बाल सफेद हैं, जो यह बताते हैं कि ६५० बार मौत की सूचना का सम्मन आ चुका है, आपको होश आया कि नहीं। आपको भगवान् के पास जाना है। आपको वहाँ अपनी सारी रिपोर्ट देनी है कि आपने यहाँ क्या-क्या किया है। दशरथ जी ने सफेद बाल देखकर अपने बड़े लड़के रामचन्द्र जी को बुलाया और कहा कि आप इस राजकाज को देखें और अब हमें वानप्रस्थ लेना है। आप छोटों को देखें तथा परिवार के उत्तरदायित्व को सँभालें। यह प्राचीन परम्परा थी कि लोगों को जीवन के उत्तराद्र्ध में वानप्रस्थ लेना पड़ता था तथा समाज का उत्तरदायित्व उठाना पड़ता था। समाज में अलख जगाना पड़ता था।
इससे रामचन्द्र जी के जीवन में धर्म-संकट आ गया। वस्तुत: इसके बिना हम यह नहीं जान सकते हैं कि रामचन्द्र जी, भरत जी, लक्ष्मण जी आदि कितने महान थे। जब रामचन्द्र जी के सामने यह प्रश्र आया कि आप राज्यपाट देखेंगे अथवा जंगल में वनवास के लिए जाएँगे, तो उन्होंने देखा कि सिद्धान्तों के लिए कष्टï उठाना, मुसीबत सहना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, बजाय इसके कि हम राज्यपाट देखें। उन्होंने समाज के उत्कर्ष के लिए, सिद्धान्तों के लिए चौदह वर्ष के लिए वनवास को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने राज्यपाट जो ऐय्याशी का काम था, उसे ठुकरा दिया। उन्होंने ऋषियों के साथ घुलने-मिलने, राक्षसों से लोहा लेने तथा जंगलों में रहकर तपस्वी जीवन जीने को ज्यादा महत्त्व दिया और वनवास को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने सोचा कि हमें उसी काम को करना चाहिए जिसकी ऋषियों को आवश्यकता है, देश को, संस्कृति को आवश्यकता है। खेती का काम कोई भी कर सकता है। खेती का काम आपका नौकर कर सकता है। आप समाज में जाइये और समाज की सेवा कीजिए।
राम का वनवास इसलिए
भगवान् रामचन्द्रजी ने भी समाज की सेवा के लिए वनवास जाना स्वीकार किया। इस वनवास के समय उनके सामने ऐसी-ऐसी बेहतरीन घटनाएँ हुईं, जिसके द्वारा उन्हें प्यार, मोहब्बत मिला। उन्होंने न जाने कितने लेागों को दिशाएँ दीं-प्रेरणाएँ दीं। शबरी की घटना हमें याद आती है। वे उसके पास पहुँचे और उससे कहा कि हम बहुत भूखे हैं। शबरी ने बेर चखकर देखा तथा मीठे बेर को उन्हें खिलाती चली गयी। शबरी ने राम से पूछा कि क्या आप वही राम हैं, जिसका मैं जप करती हूँ। हाँ, मैं वही राम हूँ। उसने पूछा कि आप अयोध्या से यहाँ क्यों आये? रामचन्द्र जी बोले-शबरी, हमेशा भगवान् भक्त के पास आते हैं। हम सूरदास के पास गये थे। हम राजा बलि के पास गये थे। सुदामा के भी हमने पैर धोये थे। महर्षि भृगु ने हमारे कलेजे में लात मारी थी। मीरा के पास मैं गया हूँ। मैं भक्त का गुलाम हूँ। भक्त भगवान् से बड़ा है। शबरी तू तो रोज रास्ते को बुहारती है, वह महान भक्ति है। यह तुम्हारी असली भक्ति है।
मित्रो, एक और भक्त की याद आ गयी। सीताजी को रावण चुराकर ले जा रहा था। जटायु इस काण्ड को देखकर द्रवित हो गया। उसने रावण से कहा कि दूसरे की पत्नी को इस तरह से चुराकर ले जाना पाप है। रावण बोला कि तू चुपचाप बैठ और बेकार की बातें मत कर। जटायु को आक्रोश आ गया और वह अनीति से लडऩे के लिए तैयार हो गया। यद्यपि वह मर गया, परन्तु अमर हो गया। आज इस प्रकार के लोग हो जाएँ, तो फिर समाज में गुण्डे कहाँ रह सकते हैं? समाज के लोगों को संगठित होकर अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। हार जाने से कोई असफल नहीं होता। हमारे समाज में ईसामसीह असफल नहीं हुए। लोगों ने उनके हाथ-पैरों में कील ठोंक दी थी, परन्तु लोग सफल नहीं हुए। जो आदमी सिद्धान्तों के लिए जिये हैं, वे अमर हैं। सुकरात ने जहर पिया, फिर भी वे मरे नहीं, अमर हैं। रामचन्द्र जी मरे नहीं, वे अमर हैं। जटायु जीत गया था। रामचन्द्र जी आये और उसके जख्मों को अपने आँसुओं से धोया, अपने हाथों से साफ किया तथा प्यार दिया। उन्होंने कहा कि कहो तो हम तुम्हें स्वर्ग भेज दें, कहो तो मोक्ष प्रदान कर दें। उसने कहा कि यह सब हमें नहीं चाहिए। मित्रो, भगवान् के प्यार, मोहब्बत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। उसने कहा कि हमें यह प्राप्त हो गया, हम धन्य हो गये, आप चिन्ता न करें।
भगवान् का प्यार कैसा होता है?
भगवान् के प्यार के तीन तरीके हैं-पहला भगवान् जिसे प्यार करते हैं, उसे 'संतÓ बना देते हैं। संत यानी श्रेष्ठï आदमी। श्रेष्ठï विचार वाले, शरीफ, सज्जन आदमी को श्रेष्ठï कहते हैं। वह अन्त:करण को संत बना देता है। दूसरा-भगवान् जिसे प्यार करते हैं उसे 'सुधारकÓ बना देते हैं। वह अपने आपको घिसता हुआ चला जाता है तथा समाज को ऊँचा उठाता हुआ चला जाता है। तीसरा-भगवान् जिसे प्यार करते हैं उसे 'शहीदÓ बना देते हैं। शहीद जिसने अपने बारे में विचार ही नहीं किया। समाज की खुशहाली के लिए जिसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, वह शहीद होता है। जो दीपक की तरह जला, बीज की तरह गला, वह शहीद कहलाता है। चाहे वह गोली से मरा हो या नहीं, वह मैं नहीं कहता, परन्तु जिसने अपनी अकाल, धन, श्रम पूरे समाज के लिए अर्पित कर दिया, वह शहीद होता है। जटायु ने कहा कि आपने हमें धन्य कर दिया। आपने हमें शहीद का श्रेय दे दिया, हम धन्य हैं। जटायु, शबरी की एक नसीहत है। यह भगवान् की भक्ति है। यही सही भक्ति है।
मित्रो, हनुमान जी भी भगवान् राम के भक्त थे। भक्त माँगने के मूड में नहीं रहता है। भक्त भगवान् के सहायक होते हैं। वह अपने लिए मकान, रोटी, कपड़ा या अन्य किसी चीज की चाह नहीं करता है, उसका तो हर परिस्थिति में भगवान् का सहयोग करना ही लक्ष्य होता है। वह अपनी सारी जिन्दगी भगवान् के लिए अर्पित कर देता है। हनुमान जी इसी प्रकार के भक्त थे। आज तो भक्त की पहचान है-''राम नाम जपना, पराया माल अपना।ÓÓ मित्रो, यह भक्ति नहीं है। आज बगुला भक्तों की भरमार है, जो माला को ही सब कुछ मानते हैं। भक्त वही है, जिसका चरित्र एवं व्यक्तित्व महान हो।
साथियो, हिरण्यकशिपु वह है, जिसे केवल पैसा दिखलाई पड़ता है, सोना दिखलाई पड़ता है, ज्ञान दिखलाई नहीं देता है। हिरण्याक्ष-जिसकी आँखों को केवल सोना ही दिखलाई पड़ता है। यह दोनों भाई थे। हिरण्यकशिपु को नरसिंह भगवान् ने मारा था और हिरण्याक्ष को वाराह अवतार ने मारा था। आज मनुष्य इसी स्तर का बन गया है। आप लोगों का आज यही स्तर है। आपकी भक्ति नगण्य है। रावण मोह में मारा गया और सीता लोभ में फँस गयी और मुसीबत मोल ले बैठी। जो भी व्यक्ति लोभ एवं मोह में फँस जाता है, वह भी इसी तरह मारा जाता है। लक्ष्मण जी ने एक रेखा खींची थी। मित्रो जो भी व्यक्ति अपनी मर्यादा को कायम नहीं रखता है, वह इसी प्रकार दुखी रहता है। आप कायदे एवं नियम का पालन कीजिए, यह हमें रामायण बतलाती है।
भक्ति भी, संघर्ष भी
रामायण में भक्ति भी भरी पड़ी है तथा संघर्ष भी भरा पड़ा है। उसके कण-कण में दिव्य प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं। उसमें तप, संघर्ष दोनों चीजें विद्यमान हैं। इसमें गुरु गोविन्द सिंह की तरह एक हाथ में माला तथा दूसरे हाथ में भाला की बात बतलायी गयी है। बेटे, तुम्हें माला की रक्षा के लि एक हाथ में भाला भी पकडऩा होगा।
रामचन्द्र जी गुरु विश्वामित्र जी के साथ यज्ञ-रक्षा के लिए जंगल से होकर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि यहाँ तो हड्डिïयों का ढेर लगा है। उन्होंने पूछा कि यह किनका है? ऋषियों ने बतलाया कि यह उन ऋषियों की हड्डिïयाँ हैं, जिन्हें राक्षसों ने भक्षण करके डाल दिया है। यह देख-सुनकर अन्दर आक्रोश भर आया और उन्होंने संकल्प लिया-
निशिचर हीन करौं महि, भुज उठाइ प्रण कीन्ह।
जब इस तरह मन में क्रोध आता है, तो वे संघर्ष के लिए तैयार हो जाते हैं। रामचन्द्र जी कहते हैं कि यद्यपि यह हमारे पूर्वज नहीं हैं, परन्तु वे महान व्यक्ति थे, जो समाज के लिए जीते थे। हम इनके लिए संकल्प लेते हैं कि इसके दुश्मन ऐसे दुष्टï राक्षसों को समाप्त करेंगे तथा धरती पर स्वर्ग का वातावरण बनाएँगे।
संघ शक्ति का महत्त्व
रामचंद्र जी आगे चलते गये। उन्होंने अपने साथ बन्दर-भालुओं को लिया। मित्रो, अच्छे काम के लिए जनसहयोग की आवश्यकता होती है। अकेला व्यक्ति कोई बड़ा काम नहीं कर सकता है। कृष्ण भगवान् को भी ग्वालवालों का सहयोग लेना पड़ा। रामचन्द्र जी ने कहा कि हम भगवान् हैं, शक्ति हैं और हम अकेले ही रावण को मार सकते हैं, लेकिन यह कायदा नहीं है। हमें जनसहयोग लेकर काम करना चाहिए। आप जनता की शक्ति को लेकर सत्य के लिए आगे बढ़ें। कहा भी गया है-सत्यमेव जयते। सत्य में हजार हाथी का बल होता है। छोटे-छोटे बन्दर-भालुओं के सहयोग से समुद्र में पुल बनता चला गया। मित्रो, जहाँ मन:स्थिति अच्छी होती है। वहाँ परिस्थिति भी अच्छी होती है। एक गिलहरी आयी और अपने बालों में भरकर मिट्टïी डालने लगी। इसके श्रम को देखकर बन्दर-भालू सहित रामचन्द्र जी बहुत प्रसन्न हुए। गिलहरी ने कहा कि हम छोटे हैं तो क्या हुआ, हम भी भगवान् के काम में सहयोग करेंगे तथा अपनी सामथ्र्य के अनुसार कार्य करेंगे। उसकी दिलेरी को देखकर भगवान् राम बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे हथेली पर रखा और अपनी अँगुलियों से उसे सहलाने लगे। सुना है कि रामचन्द्र जी काले रंग के थे। उनकी अँगुलियाँ काले रंग की थीं। अत: उसके ऊपर काले रंग की लकीरें पड़ गयीं। हमने सुना है कि वही लकीर आज तक गिलहरी के खानदान पर पड़ी हुई है।
मित्रो, यह बात सही है कि भगवान् के प्यार-मोहब्बत का निशान उसी आदमी के ऊपर होता है, जो अपने को त्यागी, बलिदानी के रूप में आगे कर एक आदर्श प्रस्तुत करता है। उसके बिना कोई आदमी भगवान् का प्यारा नहीं हो सकता है। अगर आप दिन-रात भजन-कीर्तन करते हैं, परन्तु आपने नेक जीवन, आदर्श का जीवन, लोगों को ऊँचा उठाने का जीवन नहीं जिया है, अपने व्यक्तित्व को ऊँचा नहीं उठाया है, दूसरों की सेवा नहीं की है, तो आप भगवान् का प्यार नहीं पा सकते हैं।
रामायण के हर पन्ने महत्त्वपूर्ण प्रेरणाओं से भरे पड़े हैं। रावण मरा हुआ था। लक्ष्मण ने यह पूछा कि रामचन्द्र जी आपने कहा था कि हमने एक तीर मारा है, तो इसके शरीर में हजारों छेत कैसे हो गये? रामचन्द्र जी ने कहा-हे लक्ष्मण! हमने तो उसे केवल एक ही तीर मारा है, परन्तु वे छिद्र उसके अपने कर्मों के फल हैं।। पाप अपने आप में फूटता है। अगर आप पारा खा लें, तो वह अपने आप फोड़कर निकल जाता है। उसी प्रकार पाप अपने आप निकलता है। पाप अपने आप खून बहाता है, अपने आप तबाही लाता है।
पाप की परिणति अंतत: ऐसी
एक और प्रसंग रामायण में आता है कि रामचन्द्र जी की पत्नी सीताजी को जब रावण चुराने गया था, तो भिखारी का वेष बनाकर गया था। चोर के तरीके से वह वहाँ गया था। इस प्रकार की नीयत या मन:स्थिति जब व्यक्ति की हो जाती है, तो सारी दैवी सम्पदाएँ ऋद्धि-सिद्धियाँ समाप्त हो जाती हैं। रावण सब चीजों से परिपूर्ण था, परन्तु उसकी एक कमी के कारण गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-''जिमि कुपंथ पग धरइ खगेशा, रहइ न तेज बुद्धि लव लेशा।ÓÓ उसके तेज, बल, धन सब समाप्त हो गये। रावण का सत्यानाश हो गया। सोने की लंका न जाने कहाँ चली गयी। सारे कुटुम्ब का सत्यानाश हो गया। इतने बड़े ज्ञानी, तपस्वी, सामथ्र्यवान व्यक्ति की एक कमी उसका सत्यानाश कर सकती है और वह है चाल-चलन की कमी, चिन्तन की कमी।
यही आप लोग समाज को शिक्षण देना कि आप लोग शराफत सीखिए, इन्सानियत को सीखिये, भलमनसाहत को सीखिये-अपनाइये। सच्चाई, श्रेष्ठïता आदर्शवादिता को सीखिए। इसके द्वारा ही व्यक्ति, परिवार, समाज निर्माण का उद्देश्य पूरा होगा। हमें विश्वास है कि आप यहाँ से इस प्रकार की बातें सीखकर जाएँगे, तो हमारा उद्देश्य पूरा हो सकेगा। हमने अपने मिशन के द्वारा रामायण का प्रशिक्षण राम की दुहाई देने के लिए नहीं, वरन् समाज को राम का चरित्र, कार्यपद्धति से अवगत कराने के लिए प्रारम्भ किया है, ताकि इसके माध्यम से लोगों को प्रेरणा दी जा सके और समाज को ऊँचा उठाया जा सके। इसके द्वारा हमारे मिशन का व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण, समाज-निर्माण का उद्देश्य पूरा हो सके। यही हमारा रामायण प्रशिक्षण का उद्देश्य है। आशा है, आप इसे समझ गये होंगे तथा उसी प्रकार लोगों को समझाने का प्रयास करेंगे।
आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्ति:॥
फिजाँ बदल देती है-अवतार की आँधी
(३० अगस्त १९७५ जन्माष्टïमी पर उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! आज जन्माष्टïमी का पुनीत पर्व है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन पृथ्वी पर भगवान् की वह शक्ति अवतरित हुई, जिसने प्रतिज्ञा की थी कि हम सृष्टिï का संतुलन कामय रखेंगे। भगवान् की उस प्रतिज्ञा के भगवान् कृष्ण प्रतिनिधि थे, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जिंदगी लगा दी। उसी प्रतिज्ञा के आधार पर उन्होंने जनसाधारण को विश्वास दिलाया है कि हम पृथ्वी को असंतुलित नहीं रहने देंगे और सृष्टिï में अनाचार को नहीं बढऩे देंगे। भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की हुई है-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
संतुलन हेतु आता है अवतार
मित्रो! मनुष्य के भीतर दैवी और आसुरी-दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। दैत्य अपने आपको नीचे गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी 'परपजÓ के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता है। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपने आप पतन की ओर, अनाचार और दुराचार की ओर बढ़ती हुई चली जाती हैं, तब सृष्टिï का संतुलन बिगड़ जाता है। व्यक्ति के भीतर भी और समाज के भीतर भी संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में सफाई की प्रक्रिया यदि न चलाई जाए, कमरे में झाड़ू न लगाई जाए, तो कूड़ा भरता चला जाएगा। दाँत पर मंजन न किया जाए, शरीर को स्नान न कराया जाए, तो उस पर मैल जमता चला जाएगा। इसी तरह अगर कपड़े को न धोया जाए, तो कपड़ा मैला होता चला जाएगा।
मलीनता को साफ करने की प्रक्रिया जब बंद हो जाती है या ढीली पड़ जाती है, तो सृष्टिï में अनाचार बढ़ जाता है, यह सृष्टिï के बहिरंग रूप में भी और अंतरंग रूप में भी फैल जाता है। अंतरंग रूप हमारा व्यक्तिगत रूप है। यह भी एक सृष्टिï है। व्यक्ति अपने आप में सृष्टिï है, व्यक्ति अपने आप में संसार है, विश्व है। अगर संघर्ष की गुंजाइश न हो, सफाई की गुंजाइश न हो, धुलाई की गुंजाइश न हो, तब इसके भीतर भी अनाचार बढ़ता हुआ चला जाता है। इसी तरह बहिरंग संसार में भी अगर सुधार की प्रक्रिया, संघर्ष की प्रक्रिया, सही करने की प्रक्रिया को जारी न रखा जाए, तब संसार में अनाचार बढ़ता चला जाता है।
कभी-कभी देव भी हार जाते हैं, जब समाज को ऊँचा उठाने वाले उनके सलाहकार धीमे पड़ जाते हैं, हारने लगते हैं। जब हम अपना संघर्ष बंद कर देते हैं और दुष्टï प्रवृत्तियों को खुली छूट दे देते हैं, तब हमारा भीतर वाला देव हारने लगता है और दुष्टï प्रवृत्तियाँ खुलकर खेलने लगती हैं। दुष्टï प्रवृत्तियाँ हमारे मस्तिष्क में छाई रहती हैं। दुष्टï प्रवृत्तियाँ हमारे स्वभाव और अभ्यास में बनी रहती हैं। चूंकि हम अपने भीतर से संघर्ष बंद कर देते हैं, दुष्प्रवृत्तियों को रोकते नहीं, काटते नहीं, तोड़ते-मरोड़ते नहीं, उनसे लोहा लेते नहीं और न ही उन्हें छोड़ते हैं, इसलिए वे हम से चिपक कर बैठी रहती हैं और उनको हमारे अंतरंग जीवन में खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है।
और बहिरंग जीवन में? बहिरंग जीवन में भी यही बात है। बहिरंग जीवन में आप अनाचार को छूट दे दीजिए, उसे रोकिए मत, सुधारिए मत, प्रतिबंध लगाइए मत, तब वह चारों ओर से बढ़ता हुआ चला जाएगा। अनाचार आता बहिरंग से है, लेकिन उतरेगा अंतरंग जीवन में। इस कारण कभी-कभी आप में ऐसा असंतुलन पैदा होगा, जो विनाश की ओर ले जाएगा। जब कभी असंतुलन पैदा हो जाता है, तो यह मालूम पड़ता है कि दुनिया का विनाश होने वाला है। हमारी भीतर की दुनिया का भी और बाहरी दुनिया का भी विनाश होने वाला है। यह विनाश नहीं, वरन् विनाश के आधार हैं।
मित्रो! विनाश का आधार एक ही है- अनाचार। अनाचार की वृद्धि अर्थात् विनाश। अनाचार और विनाश दोनों एक ही चीज हैं। इनमें जरा भी फरक नहीं है। एक दूध है, तो एक दही। दूध अगर जमा दिया जाएगा, तो दही बन जाएगा और जीवन में अनाचार को बढ़ावा दिया गया होगा, तो विनाश उत्पन्न हो जाएगा। यह प्रक्रिया न जाने कब से बार-बार बनती और चलती आ रही है। भगवान् को सृष्टिï निर्माण से पूर्व ही यह ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो जाए और सृष्टिï का संतुलन बिगड़ जाए। इसलिए सृष्टिï का संतुलन जब कभी बिगडऩे लग जाता है, तो उसका बैलेंस ठीक करने के लिए भगवान् अपनी शक्तियों को लेकर अवतार लेते रहे हैं।
अवतारा: असंख्या:
अब तक भगवान् ने जाने कितने अवतार लिए हैं, हम कही नहीं सकते। उनमें से एक अवतार यह भी है जिसका कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिए, जन्मदिन मनाने के लिए, जन्माष्टïमी मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं। भगवान् के अवतार हमारे यहाँ हिंदू सिद्धांत के अनुसार दस और एक दूसरे सिद्धांत के आधार पर चौबीस हुए हैं। कोई कहता है कि दस अवतार हुए हैं, तो कोई कहता है कि भगवान् के चौबीस अवतार हुए हैं। यह तो मैं हिंदू समाज की बात कह रहा हूँ। लेकिन हिंदू समाज ही दुनिया में अकेला नहीं है। मुसलमान समाज अलग है। मूसा से लेकर मोहम्मद साहब तक ढेरों अवतार हुए हैं। ईसाइयों में भी न जाने कितने अवतार हो चुके हैं। बौद्धधर्म में न जाने कितने अवतार हुए हैं। पारसियों में कितने अवतार हो चुके हैं। हर मजहब में कितने अवतार हो चुके हैं, यह हम नहीं बता सकते। अवतार होने से हमें कोई शिकायत भी नहीं है।
मित्रो! चलिए इन अवतारों में हम एक और कड़ी जोडऩे को तैयार हैं। जितने भी महामानव, महर्षि, लोकसेवक एवं संसार को रास्ता बताने वाले हुए हैं, चलिए उन सबको हम अवतार मान लेते हैं। इस संबंध में हम यह नहीं कहेंगे कि यह अवतार नहीं था या वह अवतार नहीं था। हमारे ये सब अवतार हैं। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि अवतार आपके भीतर में कई तरीके से प्रकट होता रहता है। कभी अनाचार को दबाने के लिए खड़ा हो जाता है, तो कभी पीड़ा-पतन निवारण के लिए खड़ा हो जाता है। तो कभी विकृतियों से जूझने के लिए खड़ा हो जाता है। जिस तरीके से कसाई बकरे को बाँधकर ले जाता है, उसी तरीके से हमारा आंतरिक अवतार न जाने कहाँ से कहाँ ले जाने के लिए हमें विवश कर देता है। दुनिया में ऐसी कौन सी शक्ति है, कौन है वह, जो हमें बताता है कि इस रास्ते पर चलना नहीं है। वह शक्ति हमें ऐसे रास्ते पर चलने से रोक देती है। जब कभी शौर्य का-साहस का उदय हमारे भीतर होता है, तो मित्रो हम कह सकते हैं कि अवतार का उदय हुआ।
यह भी एक अवतार
अवतार का उदय कितने मनुष्यों के भीतर हुआ और उन्होंने कितनों का कायाकल्प कर दिया? एक उदाहरण बताता हूँ आपको—समर्थ गुरु रामदास का। समर्थ गुरु रामदास शादी के लिए तैयार खड़े थे। पंडित पंचांग लेकर पति-पत्नी को एक-दूसरे के गले में वरमाला पहनाने को कह रहे थे। तभी समर्थ के सामने दो सपने आकर खड़े हो गए। सपना नंबर एक कि बीबी आएगी, हाथ-पाँव दबाया करेगी, सिर में तेल लगाया करेगी, खाना पकाया करेगी और बच्चा पैदा किया करेगी। दूसरा सपना इतना जबरदस्त आया कि चूहे के तरीके से रोटी के टुकड़े को देखकर मौत के पिंजड़े में जाने को तैयार है? यह पता नहीं कि जिंदगी कितनी कीमती है और इसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान् आया और उसने समर्थ को आवाज दी-बुलाया। भगवान् हमारे और आपके पास भी रोज आता है। रोज संदेश देता है, आदेश देता है, निर्देश करता है। लेकिन भगवान् की पुकार हम और आप कब सुनते हैं? भगवान् आदर्श की, सिद्धांतों की, नैतिकता की, मर्यादा की बातें बताकर चला जाता है, लेकिन हम और आप यह सब सुनते हैं क्या? हमारे लिए तो भगवान् की पूजा करने के लिए ये खेल-खिलौने ही काफी हैं, जो हमने और आपने पकड़ रखे हैं। हमारी और आपकी समझ में तो भगवान् की आरती उतारनी चाहिए, जप कर लेना चाहिए, भगवान् को धूपबत्ती चढ़ा देना चाहिए, भगवान् को चावल चढ़ा देना चाहिए, और प्रसाद बाँट देना चाहिए। इतना काफी है। और कुछ? नहीं और ज्यादा न हमारी हिम्मत है, न हमारा मन है, न हमारी तबियत है, न हमारे अंदर जीवट है और न हमारे अंदर चिंतन है। बस, इन्हीं बाल-बच्चों जैसे खिलौनों से खेलते रहते हैं। भगवान् की पूजा के लिए इन खेल-खिलौनों के अतिरिक्त हम और हिम्मत नहीं कर सकते।
लेकिन भगवान् तो अपनी पूजा के लिए कुछ और ही चाहता है। वह धर्म स्थाना के लिए, समय की माँग को पूरा करने के लिए आपको रोज पुकारता है। धर्म की स्थापना के लिए भगवान् ने किसको-किसको पुकारा? समर्थ गुरु रामदास को पुकारा। उनसे कहा कि अरे! कहाँ चलता है नरक में, चल तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला पड़ा है। उन्होंने कहा- भगवान् मैं आया। भगवान् मैं डूब रहा हूँ, इस भवसागर से आप मेरा त्राण कीजिए अर्थात् रक्षा कीजिए। भगवान् का तो संकल्प ही है- ''परित्राणाय साधूनांÓÓ अर्थात् साधुओं का त्राण होता है, असाधुओं का नहीं। असाधुओं के त्राण के लिए भगवान् के पास कोई फरसत नहीं है। कोई टाइम नहीं है और कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी साधु-संत नहीं है अथवा साधु होकर भी पाप के गर्त में गिरते हुए चले जाते हैं, तो भगवान् क्यों करेंगे मोहब्बत उनसे और क्यों प्यार करेंगे उनसे? एक सिद्धांत वाले-उच्च आदर्शों वाले की ओर उन्होंने अपना हाथ बढ़ा दिया और समर्थ गुरु उठकर खड़े हो गए। शादी के मंडप से वे भाग खड़े हुए। लोगों ने कहा कि पकडऩा इन्हें, पर समर्थ गुरु उनकी पकड़ से दूर भाग खड़े हुए। उनकी होने वाली बीबी का ब्याह दूसरे व्यक्ति से कर दिया गया। समर्थ गुरु रामदास जाने कहाँ चले गए।
मित्रो! समर्थ गुरु रामदास वहाँ चले गए, जहाँ से हिंदुस्तान के अध्याय का नया इतिहास आरंभ हुआ। उन्होंने न जाने कितने शिवाजी तैयार कर दिए। महाराष्टï्र में उन्होंने न जाने कितने ज्ञान केन्द्रों, हनुमान मंदिरों को स्थापित किया। एक-एक मु_ïी अनाज घर-घर से एकत्र करके कितना अपार धन अर्जित किया और उसे राष्टï्रीय सुरक्षा के लिए शिवाजी की सेना में लगा दिया। शिवाजी के नाम से जो संग्राम चला, उसके असली संचालक कौन थे? समर्थ गुरु रामदास। समर्थ गुरु रामदास का इतिहास-भगवान् का इतिहास है। आपका इतिहास? औरों का इतिहास-बंदरों का इतिहास है, शेरों का इतिहास है, चूहों का इतिहास है, जो केवल पेट के लिए जीते हैं, औलाद के लिए जीते हैं। हम और आप भी कोई भगवान् के भक्त हैं? नहीं, साहब हम तो भगवान् की शरण चाहते हैं। खाक चाहता है अभागा कहीं का। बस भक्ति के नाम पर चंदन चढ़ाता हुआ चला जाता है, माला घुमाता हुआ जाता है। नहीं साहब! हम तो बद्रीनाथ जाते हैं, चंदन चढ़ाते हैं, माला घुमाते हैं, धूपबत्ती जलाते हैं। ये कुछ नहीं, मात्र तू खेल-खिलौना करता, मजाक करता और भगवान् को अँगूठा दिखाता है। आपके ये पूजा करने के ढंग भगवान् से दिल्लगीबाजी करने के समान हैं। पूजा करने के सही ढंग वे हैं, जो समर्थ गुरु रामदास के पास आए थे।
श्रेय व प्रेय मार्ग
मित्रो! पूजा करने के सही तरीके वे हैं, जो भगवान् की पुकार सुनने वालों ने अपनाए हैं। भगवान् की पुकार सुनने वालों में से एक नाम जगद्गुरु शंकराचार्य का भी है। एक ओर शंकराचार्य की माँ चाहती थीं और ये कहती थीं कि मेरा फूल-सा छोकरा ब्याह करके गोरी बहू लाएगा और नाती-पोते पैदा करेगा। कमाकर लाएगा, महल बनाएगा, कोठी बनाएगा, गाड़ी लाएगा और घर में पैसे इक_ïे करेगा। एक ओर इस तरह शैतान वाला ख्वाब, पाप वाला ख्वाब, लोभ वाला ख्वाब, आकर्षण वाला ख्वाब था, दैत्य वाला ख्वाब था, तो दूसरी ओर शंकराचार्य के मन में देवत्व वाला ख्वाब था। भगवान् ने शंकराचार्य के कान में इशारे से कहा-अरे अभागे जिस काम के लिए कुत्ते और बिल्ली, मेढक और चूहे अपनी सारी जिंदगी खर्च कर देते हैं, वह तेरे लिए काफी नहीं है। तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला हुआ है, उस ओर चल।
शंकराचार्य ने अपनी माँ को समझाया, परंतु माँ की समझ में कहाँ और क्यों आने वाला था? उसकी समझ में तो यही आता था कि मुझे पोता चाहिए, पोती चाहिए, कोठी चाहिए। मित्रो! इन सब ख्वाबों को लात मार उठ खड़ा हुआ-शंकराचार्य। कौन खड़ा हो गया? चारों धाम की स्थापना करने वाला शंकराचार्य, बौद्ध नास्तिकवाद की जड़ें उखाड़कर हिंदुस्तान से बाहर करने वाला शंकराचार्य। उन दिनों बौद्धों का नास्तिकवाद हिंदुस्तान में लोगों के मन-मस्तिष्क में घुसता हुआ चला जा रहा था, तब शंकराचार्य ने कहा था कि हिंदुस्तान में आस्तिकता जिंदा रहेगी, नास्तिकता को हम जिंदा नहीं रहने देंगे। हिंदुस्तान से नास्तिकता को उन्होंने निकाल बाहर किया। फिर वह कहाँ चली गई? चाइना चली गई, कोरिया चली गई, मलेशिया चली गई, जापान और वर्मा चली गई, श्रीलंका चली गई, कहीं भी चली गई, पर हिंदुस्तान से भाग गई। ये शंकराचार्य की हिम्मत थी। चारों धामों की स्थापना करके सारे हिंदुस्तान को एकता के सूत्र में पिरोने वाला वह शंकराचार्य, दिग्विजय करने वाला शंकराचार्य, अनूठे विचारों वाला शंकराचार्य अलग था। उसने भगवान् की पुकार सुन ली थी।
मित्रो! अगर शंकराचार्य ने भगवान् की पुकार न सुनी होती तब? तब बेटे यही होता, जो हमारा-आपका हुआ है। क्या हो जाता? नौ बेटे और ग्यारह बेटियाँ होतीं। एक बच्चा गोद में बैठा होता, तो एक सिर पर बैठा होता और एक माँ के पेट में। एक गालियाँ दे रहा होता, एक मूँछें काट रहा होता और एक मारपीट कर रहा होता। आपके जैसे उसकी भी मिट्टïी पलीद हो गई होती। लेकिन भगवान् की पुकार को सुनने वाला शंकराचार्य उनकी कृपा से जीवन की दिशाओं को लेकर न जाने कहाँ से कहाँ चला गया। भजन इसी का नाम है, जिसमें कि आदमी के जीवन की दिशाधारा बनाई जाती है, विचार बनाए जाते हैं और काम करने के तरीके बदले जाते हैं। इसी का नाम है भजन। भजन माला घुमाना नहीं है, भगवान् की पुकार सुनने का नाम भजन है।
भगवान् की पुकार
मित्रो! भगवान् की पुकार सुनने का प्रतिफल यही होता रहा है। कितने मनुष्यों के भीतर भगवान् की पुकार पैदा हुई और किन-किन सामाजिक परिस्थितियों में पैदा हुई? भगवान् समय-समय पर साकार रूप में भी और निराकार रूप में भी आते हैं। निराकार रूप में भगवान् किस-किसके पास आए और साकार रूप में किस-किसके पास आए, जैसा कि अभी मैंने आपको सुनाया। गुरुदेव अभी आप और उदाहरण सुनाएँगे। नहीं बेटे, मैं और नहीं सुनाऊँगा। अगर और हवाला देना पड़ा, तो सारे विश्व का इतिहास आपके सामने पेश करना पड़ेगा, जिन्होंने नियमों के लिए, सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिए, कष्टï उठाए और दूसरों की नजरों में बेवकूफ कहलाए, बेकार कहलाए। लेकिन अपने आदर्शों के लिए, सिद्धांतों के लिए, दुनिया में शांति कायम रखने के लिए, दुनिया में शालीनता कायम रखने के लिए जिन्होंने अपने आपको, अपनी अक्ल को, अपनी ताकत को और अपनी संपत्ति को सर्वस्व न्योछावर कर दिया, ऐसे लोगों की संख्या सारी-की-सारी तादाद लाखों भी हो सकती है और करोड़ों भी। भगवान् की गाथाएँ सुनाने के लिए मुझे उन सबके इतिहास सुनाने पड़ेेंगे। आप इन सबकी कथागाथा को भगवान् की कथागाथा मान सकते हैं।
इसी तरह गाँधीजी की कथागाथा को यह कहने में कोई एतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथागाथा है। बुद्ध की, शंकराचार्य की कहानी कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथागाथा है। दूसरे अन्य लोगों ने, जिन्होंने भी नेक जीवन, श्रेष्ठï जीवन जिया, आदर्श जीवन जिया, लोगों को प्रकाश देने वाला जीवन जिया, मित्रो! वे सारे-के-सारे भगवान् थे, क्योंकि उनके भीतर भगवान् अवतरित हुआ होगा और भगवान् ने भगवान् की बाँह पकड़ ली होगी। भगवान् से उन्होंने कहा होगा कि हम आपके पीछे चलेंगे और आपकी छाया होकर रहेंगे।
सभी देवता सभी अवतार
साथियो! भगवान् का हुक्म जिन लोगों ने माना, वे सब आदमी भगवान् के अवतार कहे जा सकते हैं, देवता कहे जा सकते हैं और जिन लोगों ने भगवान् को ठोकर मारी, माला भले ही घुमाते रहे, उन्हें मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप भगवान् के भक्त हो सकते हैं। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को मानने को तैयार नहीं हूँ कि वह व्यक्ति भगवान् की इज्जत करने वाला हो सकता है, भगवान् पर विश्वास करने वाला हो सकता है, जो सारा दिन माला घुमाता है, सारा दिन भजन करता है, लेकिन उसकी जिंदगी ऐसी घिनौनी है, जिसे देखकर घृणा आती है और नफरत होती है। ऐसे व्यक्ति भगवान् के भक्त नहीं हो सकते और न ही उनके अंदर भगवान् अवतरित हो सकता है।
भगवान् के अवतार मन में अवतरित हुए हैं, हृदय में अवतरित हुए हैं, आदर्शवादी सिद्धांतों और श्रेष्ठïकर्मों के रूप में अवतरित हुए हैं। सृष्टिï में हवा के रूप में, आँधी के रूप में निराकार भगवान् व्याप्त है। हवाएँ दिखाई नहीं देतीं, फिर भी अपना काम कर जाती हैं। इसी प्रकार निराकार भगवान् है। गाँधी जी के जमाने में एक हवा आई थी। गाँधी जी आगे-आगे चलते थे, तो उनके पीछे-पीछे सब चल पड़ते थे। गाँधी जी अकेले थे? नहीं, मित्रो! वे अकेले नहीं थे, हजारों-लाखों आदमी उनके साथ काम करते थे। हजारों-लाखों लोगों की कुरबानियों-बलिदानों, लाखों लोगों की तबाही, लाखों लोगों का गोली खाना आदि तरह-तरह की मुसीबतों को झेलकर, सबसे मिलकर उनका संग्राम हुआ। तब देश को आजादी मिली।
मित्रो! इस देश में हर जमाने में एक-एक ऐसी हवा चली है, जिसने दुनिया की दिशाधारा ही बदल दी अन्यथा इस देश मे नास्तिकवाद, अनाचारवाद फैल जाता। इन हवा को लेकर कौन आया? हवा के संदेश को लेकर कौन आया? संदेश लेकर के यहाँ भगवान् बुद्ध आए थे। तो क्या भगवान् बुद्ध ने हिंदुस्तान का-सारे एशिया का बेड़ा गर्क नहीं कर दिया था? नहीं मित्रो! ऐसा नहीं हो सकता। यह काम पीछे वालों का अनुयायियों का तो हो सकता है, पर भगवान् बुद्ध का नहीं। बुद्ध भगवान् अकेले क्या कर सकते थे? एक अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता। एक आँधी आती है, एक तूफान आता है, एक हवा आती है। जब आँधी आती है, तो हमें आगे का काम दिखाई पड़ता है। सेना जब चढ़ाई करने जाती है, तब एक विशेष रंग का झंडा आगे-आगे फहराता हुआ चलता है और सैनिक बढ़ते हुए चले जाते हैं। ठीक है जब चढ़ाई होती है, तो झंडे के निशान आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं, परंतु वह झंडा तो लड़ाई नहीं लड़ता, लडऩे वाली फौज होती है। हवाएँ कभी-कभी आती हैं। ये हवाएँ क्या काम करती हैं? ये हवाएँ यह काम करती हैं कि असंख्य मनुष्य उपकार में लगे दिखाई पड़ते हैं। गाँधी एक हवा थी, बुद्ध एक हवा थी, कृष्ण एक हवा थी, राम एक हवा थी। मित्रो! राम अकेले अगर रावण को मार सकते, तो उन्होंने वहीं से क्यों नहीं मार दिया? नहीं साहब, अकेले राम नहीं मार सकते थे। हाँ, बेटे, अकेले नहीं मार सकते थे। उन्हें रीछों की सेना लेनी पड़ी, वानरों की सेना लेनी पड़ी, जमीन पर सोना पड़ा। मनुष्य होकर रहना पड़ा। विभीषण को साथ लेना पड़ा। ढेरों-के-ढेरों मनुष्यों को संग लेना पड़ा और तब एकत्रित सेना को लेकर रावण से युद्ध लड़ा। इस तरह से रावण का खात्मा हुआ। यह हवा थी एक जमाने में।
फिजाँ बदल देता है—अवतार
इसी तरह क्या कृष्ण भगवान् महाभारत युद्ध अकले नहीं लड़ सकते थे? अगर अकेले लड़ सकते, तो पांडवों की खुशामत क्यों करते? पांडव बार-बार यही कहते रहे कि हमें यह लड़ाई नहीं लडऩी है। वे हमारे रिश्तेदार लगते हैं। हम तो भीख माँगकर खा लेंगे, अपनी दुकान चलाकर खा लेंगे। हमेें राजपाट नहीं चाहिए। हमें लड़ाई से छुट्टïी दीजिए। हमने अपने स्वजनों का खून-खराबा नहीं होगा। फिर भी कृष्ण भगवान् खुशामद करते रहे, नाराज होते रहे, गालियाँ सुनाते रहे और कहते रहे कि तुम्हें लडऩा चाहिए। कृष्ण अगर अकेले महाभारत का युद्ध लड़ सकते, कंस को मार सकते, असुरों को मार सकते, सभी आततायियों को मार सकते, तो फिर मैं सोचता हूँ कि सारे विश्वभर में निमंत्रण भेजकर सेनाओं को बुलाने की क्या जरूरत थी? अगर अकेले ही गोवद्र्धन उठा सकते थे, तो ग्वालवालों को लाठी लगाने की क्या जरूरत थी।
मित्रो! अकेला आदमी कितना कर सकता है। मैं किसी तरह से यह विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ कि एक व्यक्ति विशेष सारे-के-सारे समाज को रोक सकता है, बदल सकता है। ऐसा नहीं हो सकता। ये हवा है, जिस पैदा करने की कोई मशीन काम करती होगी, इस बात का समर्थन करने को मैं तैयार हूँ। इस हवा में बहुत से ढेरों आदमी घिरे होते हैं। इनके दिमाग और दिल एक दिशा में चल पड़ते हैं, जैसे कि अपने आंदोलन में। आपके अपने इस आंदोलन में क्या एक आदमी संचालन करता है? नहीं, एक आदमी संचालन नहीं कर सकता। क्या एक आदमी नियम बनाने के लिए आश्वासन दे सकता है? नहीं, एक आदमी के बस की बात नहीं है। एक आदमी फिजाँ बदल सकता है? एक आदमी नया जमाना ला सकता है? एक आदमी लोक-समाज में हलचल पैदा कर सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
मित्रो! फिर यह हलचल कौन पैदा करता है? नया जमाना कौन लाता है? एक हवा आती है। ठीक है गुरुजी कहते हैं कि एक हवा आती है। नहीं बेटे, अकेले गुरुजी के कहने से कोई फायदा नहीं है। वास्तव में जब इस एक ही बात को असंख्य व्यक्ति कहते हैं, उसका समर्थन करते हैं कि हाँ ऐसा होना चाहिए, तब इस बात को-आवाजें हल$क को 'नक्कारे खुदा समझो।Ó जब हल$क से आवाज निकलती है, तो वह नक्कारे खुदा है। जब हम कहते हैं कि 'हम नया जमाना लाएँगे।Ó 'हम मनुष्य के भीतर देवत्व की स्थापना करेंगे।Ó 'हम संसार में पुन: स्वर्ग की स्थापना करेंगे।Ó तो यह कौन कहता है-मैं? नहीं, हम कहते हैं। हम और आप सब मिल करके—जमाने को मिला करके एक हवा है, एक दिशा है। ये कौन हैं? ये भगवान् हैं। जब कभी एक ठिकाने पर ये हवा पैदा होती है, जिन आदर्शो को पैदा करने के लिए यह आँधी-तूफान पैदा होता है, हलचलें पैदा होती हैं, तो आप समझ सकते हैं कि इसके पीछे भगवान् की हवा है। भगवान् की प्रेरणा काम कर रही है। भगवान् का अवतार काम कर रहा है। इसी को मैं अवतार मानता हूँ।
अवतार लोकशिक्षण के लिए
क्या व्यक्ति के रूप में भी भगवान् का अवतार होता है? चलिए अब मैं आपकी बात का भी समर्थन करने को तैयार हूँ कि व्यक्ति के रूप में अवतार होता है। साकार रूप में भगवान् होता है। आप निराकार की बात पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। अत: मैं आपको साकार की बात बताऊँगा कि कैसे भगवान् लीलाएँ करने आते हैं। व्यक्ति आता है। आप भगवान् की कथाएँ तो सुनते हैं, पर गहरे में क्यों नहीं जाते? भगवान् की सारी की सारी लीलाएँ, कथा-गाथाएँ इस बात पर टिकी हुई हैं कि भगवान् एक है। यह बात अलग है कि उसने लोकशिक्षण का तरीका क्या अख्तियार किया। जब कभी भगवान् के अवतार होते हैं, तो प्रत्येक बार वह अपने आचरण से जन-जन को शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। लोकशिक्षण का यही सबसे जानदार और सबसे सफल तरीका है।
मित्रो! लोगों के सामने बकवास करने की अपेक्षा, लोगों को उपदेश सुनाने या कथा सुनाने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि आपने लोगों के सामने जो उपदेश दिए हैं, उसे स्वयं के जीवन में उतारकर बताएँ कि हमने इस तरीके से जीवन जिया है। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रभावशाली तरीका यही है। इससे बढिय़ा और बेहतरीन तरीका और कोई है ही नहीं। आप इस तरीके से चलिए, जिसे देखकर के लोग सोच सकें, समझ सकें कि जो सिद्धांत आप कहना चाहते हैं, समझना चाहते हैं, वे आपके रोम-रोम में इस कदर समाए हैं कि आप इस तरह का रास्ता अख्त्यिार किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। अगर आप इतना ज्यादा विश्वास लिए हुए बैठे हैं, तो आपके विचार आपकी वाणी से और आपके आचरण से टपकने चाहिए।
चलिए मैं तो यह भी कहता हूँ कि बिना वाणी के भी लोकशिक्षण किया जा सकता है। बहुत से लोगों ने अपनी जबान को बंद कर दिया था, लेकिन उनकी आस्थाएँ, उनकी निष्ठïाएँ और जिंदगी का स्वरूप इतना शानदार और जबरदस्त था कि उन्होंने नई हवाएँ बना दीं, नई फिजाएँ पैदा कर दीं और न जाने दुनिया में कितनी हलचलें पैदा कर दीं। आदमी के समझने का तरीका, सुझाने का तरीका, गुरु होने का तरीका वो है कि जबान से जो हमने लंबे-चौड़े व्याख्यान सुनाए हैं, कथाएँ सुनाई हैं, उनकी अपेक्षा अपनी जिंदगी का एक नमूना पेश करें।
भगवान् कृष्ण हों या भगवान् राम अथवा और कोई अवतार, उन्होंने लोकशिक्षण का जो तरीका अख्तियार किया है, वह उनकी जिंदगी जीने का एक ढंग था। वह उनके काम करने की एक शैली थी। इस शैली के द्वारा उन्होंने लोगों से कहा कि आप स्वयं निश्चय कीजिए और उन सिद्धांतों को ढूँढि़ए, जिसके लिए हमें जन्म लेना पड़ा और जिसके लिए निरंतर कष्टï सहने पड़े। भगवान् कृष्ण की लीलाएँ, जो हमारे लिए और आपके लिए बिलकुल सामयिक हैं, आधुनिक हैं, अति उत्तम और अति प्राचीनतम भी हैं, वे हमको बताती हैं कि सिद्धांतों को जीवन में कैसे उतारें। उन सिद्धांतों को अपनाए बिना कोई महापुरुष रहा नहीं। उन सिद्धांतों को आपके मन में प्रवेश कराने के लिए भगवान् ने लीलाएँ दिखाईं-क्रीड़ाएँ कीं।
श्रीकृष्ण की लीलाएँ
भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ क्या हैं? कृष्ण भगवान् जेलखाने में पैदा हुए, जो चारों तरफ से बंद था, जिसमें उनके माता-पिता बंद थे। जंजीरों से जकड़े हुए थे। उस स्थिति में एक बालक पैदा हुआ। सब ओर से घिरा हुआ जब बालक पैदा हुआ, तो उसके अंदर संकल्प की शक्ति थी। बालक यह संकल्प लेकर आया कि मुझे इन बंधनों से मुक्त होना है, और लोगों को बंधनों से मुक्त करना है। परिस्थितियाँ कितनी विपरीत और विषम थीं, लेकिन वे किस तरह से टूटती चली गईं—कच्चे धागे की तरह से।
भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में हम किताबों में पढ़ते हैं कि उनके जन्मकाल में जेलखाने से बाहर निकलने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। फिर भी भगवान् के संकल्प से सारे पहरेदार सो गए। सभी दरवाजे खुल गए, जंजीरें टूट गईं और पिता उस बच्चे को लेकर सुरक्षित रखने के लिए चल पड़े। भादों की घनघोर अँधेरी रात थी। जिस तरह आज की रात बादल छाए हुए हैं,पानी बरस रहा है, गंगा में बाढ़ आई हुई है, कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय रहा होगा। जमुना में बाढ़ आई हुई थी। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। प्रकाश कहीं था नहीं। लेकिन प्रकाश देने वाली एक ज्योति, जो इनसान के भीतर जला करती है और सहारा देती रहती है, जो मझदार में से पार निकालती रहती है। हमें मझधार में से दूसरे लोग पार नहीं निकालते हैं। हमारी अंतज्र्योति ही हमको पार निकालती है। उन विषम परिस्थितियों में भी वसुदेव श्रीकृष्ण को टोकरी में लिए हुए आगे बढ़ते चले गए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ नंद-यशोदा का घर था। वहाँ उस बच्चे के रहने का इंतजाम कर दिया।
मित्रो! यह घटना हमें क्या सिखाती है? यह हमें सिखाती है कि इनसान संकल्प तो करके देखे, निश्चय तो करके देखे, विश्वास तो करके देखे फिर हमसे कहे। आप यह तजुर्बा करके लाइए, फिर आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। आप आगे बढ़ते हुए चले जाएँगे और आपको सफलता मिलती हुई चली जाएगी। आदमी की हिम्मत के अलावा दुनिया में और कोई शक्ति नहीं है, जो उसे पार लगा सके। आदमी की हिम्मत सबसे बड़ी ताकत है। ज्वाराभाटे की अपनी ताकत हो सकती है, लहरों की अपनी ताकत हो सकती है, समुद्र की अपनी ताकत हो सकती है, लेकिन इनसान के संकल्प के आगे कोई और ताकत नहीं है।
यही सब आदमी को सिखाने के लिए भगवान् ने अवतार लिया था। बेटे! अपने भीतर वाले को कमजोर मत होने दीजिए। भीतर वाले को मजबूत बनाइए। भीतर वाले को कमजोर बना देंगे, तो आप गिर जाएँगे। भीतर वाले को साहस के सहारे उठाएँगे, तो आप आगे बढ़ेंगे और दूसरा आदमी सहायता करने के लिए आएगा। अगर आप अपने को पीछे हटाएँगे, तो लोग आपसे पहले ही दूर हट जाएँगे। यह नसीहत कृष्ण भगवान् ने अपने जन्म के पहले दिन से ही आरंभ कर दी थी। उनके पिताजी ने भी यही बात बताई थी कि यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं, तो ठीक है, अन्यथा साहस और संकल्प के सहारे उन पर विजय पाई जा सकती है। अगर आपका उद्देश्य ऊँचा है और आपके अंदर साहस का अभाव नहीं है, तो परिस्थितियाँ आपके प्रतिकूल हो ही नहीं सकतीं। अगर आपका उद्देश्य नीचा है और आपके अंदर साहस का अभाव है, तो फिर आप गिरे या मरे ही समझना चाहिए। बेटे! यदि आपका उद्देश्य ऊँचा है, साहस आपका ऊँचा है, तो आपको सहायता देने के लिए सारी देवशक्तियाँ आगे आएँगी, चाहे कितना ही आपके मार्ग में अवरोध क्यों न हो। सारी सहायता आपको मिलती चली जाएगी।
जन्माष्टïमी का शिक्षण
आज जन्माष्टïमी के दिन यह है शिक्षण नंबर एक, जो भगवान् श्रीकृष्ण ने, उनके पिता ने अपनी घटना के द्वारा, अपने क्रियाकलाप के द्वारा हमको दिया। हम और आप तो बकवास करना जानते हैं और व्याख्यान करना जानते हैं। लेकिन भगवान् ने जो उदाहरण प्रस्तुत किया, वह कितना शानदार है। देवकी इतना नहीं कर सकती थी, वसुदेव भी इतना नहीं कर सकते थे कि कंस का मुकाबला करें और उसे मार डालें। वे सामथ्र्यवान् नहीं थे, शक्तिवान् नहीं थे, विद्वान नहीं थे, नेता नहीं थे, लेकिन साहसी थे। किन्हीं अच्छे कामों के लिए आप भी साहसी बन सकते हैं। रीछ-वानरों के तरीके से अच्छे कामों में सहायता कर सकते हैं।
रीछ और बंदर रावण को नहीं मार सकते थे, पर लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल तो बना सकते थे। गिलहरी ज्यादा काम नहीं कर सकती थी, लेकिन समुद्र में मिट्टïी तो डाल सकती थी। ठीक है, जो आदमी जिस हैसियत में रहता है, उससे आगे बढ़कर दूसरा काम नहीं कर सकता, वह अगली पंक्ति में नहीं खड़ा हो सकता, लेकिन अच्छे कामों में सहायता तो कर ही सकता है। गाय चराने वाले ग्वाले मामूली आदमी थे। उन्होंने कहा-ठीक है हम ज्यादा तो नहीं कर सकते, लेकिन भगवान् का उद्देश्य पूरा करने में अपनी लाठी का सहारा तो दे ही सकते हैं। अगर आप प्रेरणा लेना चाहें, तो आप इनसे प्रेरणा व श्रद्धा ले सकते हैं।
भागवत की कहानी कही जा रही है और लोगों द्वारा सुनी जा रही है। कहते हैं-इसको सुनने से बड़ा भारी पुण्य मिलता है। बेटे! कहानी कहने और सुनने भर से कोई पुण्य नहीं हो सकता। पुण्य केवल उस स्थिति में होगा, जब आप उससे प्रेरणा ग्रहण करेंगे, जीवन में उतारेंगे, प्रवेश करने देंगे और उसे बाहर अपने क्रियाकृत्यों में, व्यवहार में प्रकट होने देंगे। इससे कम में कोई पुण्य नहीं हो सकता। इसलिए मित्रो! भगवान्, भगवान् की क्रीड़ाएँ, लीलाएँ हमको दिशाएँ देती हैं, शिक्षण देती हैं। संघर्षों से लोहा लेना सिखाती हैं।
मित्रो! संघर्षों से आदमी समर्थ होता है। संघर्षों से आदमी की श्रद्धा निखरती है। गुरुजी! संघर्ष आते हैं तो हमारे ऊपर बड़ी मुसीबत आती है। तो बेटा, मुसीबत के बिना कोई भी आदमी दुनिया में बड़ा नहीं हुआ, तीखा नहीं हुआ, कामयाब नहीं हुआ। नहीं साहब, मुसीबत दूर कीजिए। मुसीबत हम जरूर कम कर देंगे, लेकिन साथ-साथ यह शाप भी देंगे कि तू मंदबुद्धि हो जा, फालतू हो जा, निकम्मा हो जा, कीड़ा-मकोड़ा हो जा। महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? बेटे, ये तो साथा-साथ होगा, क्योंकि जो आदमी आराम की जिंदगी, चैन की जिंदगी, मानसिक चिंता रहित जिंदगी जिएगा, वह निकम्मा हो जाएगा, बेकार हो जाएगा। उसकी योग्यताएँ, प्रतिभाएँ, इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी और वह किसी काम का नहीं रहेगा, मुरदा बन जाएगा।
संघर्ष ही जीवन मंत्र बने
मित्रो! मनुष्य हमेशा से संघर्षों से घिरा पड़ा है। जो आदमी अपनी जिंदगी में संघर्षों से मुकाबला नहीं करते, वे जिंदगी का आनंद नहीं ले सकते। जो आदमी जरा भी श्रम नहीं करता, वह नींद का आनंद नहीं ले सकता। गहरी नींद का आनंद सिर्फ उस आदमी के हिस्से में आया है, जिसने कड़ी मशक्कत की है। हल जोतने वाला किसान दोपहर में आराम से बगीचे में जाकर हाथ का तकिया बनाकर खर्राटे भरता है और अपनी नींद पूरी कर लेता है। उसे आरामतलबों की तरह नींद के इंजेक्शन की कोई जरूरत नहीं पड़ती। रोज की गहरी नींद उनके हिस्से में आई है, दाला-रोटी उनके हिस्से में आई है, जिन्होंने कड़ी मशक्कत की है, जिन्होंने मेहनत की है। जिन्हें यही पता नहीं है कि जीवन संघर्ष क्या होता है, कठिनाइयाँ क्या होती हैं, उनका भी कोई जीवन है!
साथियो, कठिनाइयाँ आदमी को निखारने के लिए, उभारने के लिए बेहद आवश्यक हैं। चाकू पर तब तक धार नहीं रखी जा सकती, जब तक कि उसे पत्थर पर घिसा नहीं जाएगा। इसके बिना पैनापन, तीखापन नहीं आ सकता। चाकू की धार नहीं निकल सकती। मित्रो! मुसीबतें हमारी सबसे बड़ी मित्र हैं और सबसे बड़ी सुधारक-अध्यापक हैं, जो हमारी सारी-की-सारी कमजोरियों को चूर-चूर कर डालती है और हमारे भीतर हिम्मत का, बहादुरी का माद्दा पैदा करती हैं। कठिनाइयाँ हमें संघर्ष करना सिखाती हैं और न जाने क्या-क्या सिखाती हैं। यह इतनी बड़ी पाठशाला है कि इसमें से होकर आदमी प्रतिभावान् निकलता है, नया जीवन लेकर निकलता है और जिन्होंने आराम की जिंदगी जी, हराम की जिंदगी जी, वे मिट्टïी के होकर के रहे हैं, कीड़े होकर के रहे हैं। अमीरों के बच्चों को आप देख सकते हैं। अमीरी में पले हुए बच्चों का सत्यानाश हो गया। जो बच्चे गरीबी में पैदा हुए, कठिनाइयों में पैदा हुए, वे हीरे के तरीके से चमकते हुए निकले, तलवार के तरीके से दरदनाते हुए निकले।
सीखें श्रीकृष्ण के जीवन से
मित्रो! भगवान् ने इसीलिए कहा कि मुसीबतों से घबड़ाना मत। कठिनाइयों से भागो मत, उनसे कुछ सीखने की कोशिश करो। कठिनाइयों से जूझने के लिए भीतर से हलचल होनी चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण का प्रारंभिक जीवन यही सिखाता है कि आदमी को यदि भगवान् बनना है, महान् बनना है, तो उसे कठिनाइयों का आलिंगन करना चाहिए। कठिनाइयों को जानबूझकर चैलेंज करना चाहिए। तपश्चर्या का मतलब ही होता है-कठिनाइयों को जानबूझकर अपनाना और यह अभ्यास करना कि हम मुसीबत में हैं। मुसीबत हमें सबसे पहले बहादुरी के साथ संयम करना सिखाती है। तप आदमी को न जाने क्या से क्या बना देता है।
संपत्ति, अमीरी आदमी को दुव्र्यसनी बनाती है, अनाचारी और दुराचारी बनाती है तथा असंख्य बुराइयाँ लेकर आती है। ऐय्याशी आदमी को गलाती है और उसे हजम कर जाती है। आदमी को गलत रास्ते पर ले जाती है। यह दौलत की लाभ-हानियाँ हैं और कठिनाइयाँ? कठिनाइयों में जहाँ मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, असंख्य दिक्कतें आती हैं, वहीं मनुष्य को अपनी भट्टïी में गलाकर कुंदन भी बनाती है। तो मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी जिंदगी से यही सिखाया है कि कठिनाइयों से भागो मत। कठिनाइयों का मुकाबला करो। कठिनाई आदमी की क्षमता को निखारती है। ये इम्तिहान है, मनुष्य के लिए कि उसने सिद्धांतों के लिए कितना कष्टï सहा। इसी के आधार पर हम फेल और पास होते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। कसौटी एक ही है कि सिद्धांतों के लिए उसने क्या किया, कौन-सी मुसीबतें उठाईं। जिसने ऐसा नहीं किया, जिसके जीवन में कोई प्यार नहीं, कोई सेवा नहीं, कोई बलिदान नहीं, कोई परिश्रम नहीं है, उसे हम महापुरुष नहीं कह सकते। धिक्कार है ऐसे जीवन को।
मित्रो! महापुरुषों को अपने जीवन में अनेकों कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हैं, इम्तिहान देना पड़ा है। भगवान् कृष्ण को सारी जिंदगी लडऩा पड़ा है। उन्हें मारने के लिए कौन-कौन आए? कालिया नाग आया, पूतना आई, कंस आया और न जाने कितने असुर आए। उनकी जिंदगी में कितने ही असुर जबरदस्ती मारने आए, जबकि वे अपनी गली में, घर में ग्वालवालों के साथ खेलते-विचरते रहते थे। वस्तुत: जो आदमी मौत के साथ में जद्दोजहद कर सकते हैं, कठिनाइयों के साथ लड़ सकते हैं, उनका यश चारों ओर फैलता है। जो मुसीबतों के लिए-कठिनाइयों के लिए तैयार रहते हैं, उनकी हिम्मत निखरती जाती है। हिम्मत के बिना सफलता के पहाड़ पर चढऩा किसी के लिए भी संभव नहीं है।
भगवान् के जीवन की और कितनी ही सरस लीलाएँ मालूम पड़ती हैं। शुष्कजीवन, रूखा जीवन, नीरस जीवन कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता। हँसने-हँसाने वाले जीवन में, हलकी-फुलकी जिंदगी में सरसता भरी रहती है और वह आप ही खिलती हुई चली जाती है। हँसी-खुशी की जिंदगी अगर आपकी है, तो आप हँसोगे, खिलखिलाएँगे, गाना गाएँगे और नहीं तो मुँह फुलाए बैठ रहेेंगे और जिंदगी भर ये शिकायत-वो शिकायत करते रहेंगे। ये कमी है, वो कमी है—का रोना रोते रहेंगे।
मित्रो! जो आदमी हँसता हुआ, खिलखिलाता हुआ रहता है, उसके चारों ओर खुशियाँ छाईं रहती हैं। हँसने-हँसाने वाले खुद भी खिलखिलाते रहते हैं और दूसरों को भी हँसाते रहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण को देखिए-हँसने वाले भगवान्, हँसाने वाले भगवान्, रास करने वाले भगवान्, नाचने वाले भगवान्, बाँसुरी बजाने वाले भगवान्, साहित्यकार और कलाकार भगवान्, संगीत से प्रेम करने वाले भगवान् अरे आप इनसे कुछ तो सीखें और अपनी सारी जिंदगी को हलका बनाकर जिएँ। सारी जिंदगी हर समय मुँह फुलाकर रहने से जिंदगी जी नहीं जा सकती। इस तरह से आप खुद भी नाखुश रहेंगे और रोकर जिएँगे। शिकायतों पर जिएँगे, तो आप मर जाएँगे। जिंदगी इतनी भारी हो जाएगी कि उसे फिर ठीक नहीं कर पाएँगे। उसके नीचे आप दब जाएँगे, कुचल जाएँगे। अगर आप लंबी उम्र तक जिंदा और स्वस्थ रहना चाहते हैं, तब आप हँसने-हँसाने की कला सीखें। अगर आपको हँसना आता है, तो समझिए कि जिंदगी के राज को आप समझते हैं।
साथियो! हँसी के लिए—हँसने-हँसाने के लिए ढेरों चीज हमारे पास हैं। आपके पास हर चीज नहीं है, तो क्या आप चिड़चिड़ाते हुए, शिकायत करते हुए बहुमूल्य जीवन को यों ही बरबाद कर देंगे? क्या आपको निखिल आकाश हँसता हुआ दिखाई नहीं देता। अगर आप कविहृदय हैं, सरस हृदय हैं, तो आपको सब कुछ हँसता हुआ दिखाई पड़ सकता है। आकाश में बादल आते हैं, घुमड़ते हुए-बरसते हुए दिखाई पड़ते हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? नदियाँ कलकल करती हुई बहती हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? आपको इनका आनंद लेना चाहिए और आप को कलाकार होना चाहिए। जिंदगी जीने की कला को आपको समझना चाहिए। जिंदगी में आनंद के अनुभव होने चाहिए। जीवन में हँसने का समय होना चाहिए, हँसाने का समय होना चाहिए।
जिन्दगी की कला के शिक्षक
भगवान् को हम कलाकार कहते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् ने रासलीला के माध्यम से हलकी-फुलकी जिंदगी, हँसने-हँसाने वाली जिंदगी की कला सिखाई। रासलीला गाने की विद्या है, नृत्य की विद्या है। नहीं साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ने तो हँसने-हँसाने की विद्या बहुत छोटेपन में सीखी थी, हम तो उम्र में बड़े हो गए हैं। नहीं बेटे, बड़ी उम्र के हों तो क्या, योगी हों तो क्या, तपस्वी हों तो क्या, ज्ञानी हों तो क्या, महात्मा हों तो क्या? हँसना आपको भी आना चाहिए, हँसाना आपको भी आना चाहिए। गाँधी जी के नजदीकी मुझे बहुत दिन रहने का मौका मिला। शुरू में वे जिस कोठी में रहते थे, उससे मैं दूर रहता था, तो मुझे बार-बार उनके हँसने की आवाज आती थी। उन दासता के दिनों वे इतने गंभीर विषयों पर बातें करते थे, जैसे कि वेश्याओं की समस्या, अन्यान्य सामाजिक समस्या, करोड़ों लोगों के भाग्य के निर्माण की समस्या—इतनी समस्याओं के बीच भी मैंने उनको हँसते हुए देखा है। हमारे-आपके पास तो यह भी समस्या नहीं है। आपके पास क्या समस्या है? बस एक ही समस्या है—बेटे की और पैसे की। देश, समाज और संस्कृति को तो आप जानते भी नहीं हैं कि उनके प्रति भी आपका कुछ उत्तरदायित्व है। लेकिन मैंने गाँधी जी को इन तमाम समस्याओं के बाद भी हँसते हुए देखा है। एक बार उनसे पूछा कि बापू एक बात तो बताइए कि आप इतने गंभीर रहते हैं, इतनी चिंताओं से घिरे रहते हैं, इतने गंभीर विषय आपके पास हैं। इतनी असफलताएँ आपके पास आती हैं, इतनी समस्याओं का समाधान सुझाते हैं, पर इस कदर आप हँसते कैसे हैं?
गाँधी जी ने कहा-''मैं इसीलिए एक सही जिंदगी जी पा रहा हूँ। मेरे जिंदा रहने का और कोई तरीका नहीं। अगर मैं खुश नहीं, तो मेरी मौत, मेरी हँसी नहीं, तो मेरी मौत समझो।ÓÓ मित्रो! जिसके चेहरे पर हँसी नहीं आती है, उसे बस मरा ही समझो। श्रीकृष्ण भगवान् ने वह कला सिखाई, जिसको हम जिंदगी का प्राण कह सकते हैं, जीवन कह सकते हैं। 'रामÓ इसी का नाम है। नहीं साहब, इसमें तो बहुत रंगदारी है? नहीं बेटे, इसमें स्वाभाविकता है, शालीनता है। आप महाभारत पढ़ लीजिए, भागवत पढ़ लीजिए, जिस समय तक उन्होंने रासलीला की है, तब उनकी उम्र दस साल की थी। दसवें साल तक सब रासलीला बंद हो गई थी। सात साल की उम्र से प्रारंभ हुई थी और दस साल की उम्र में सब रासलीला खत्म हो गई थी। दस साल से ज्यादा में कोई रासलीला नहीं खेली गई। उसमें कामुकता नहीं थी, ब्याह-शादी की कोई बात नहीं थी।ÓÓ
हर्षमय जीवन
तब उसमें क्या बात थी? उसमें था हर्षमय-आनंदमय जीवन, उसमें कन्हैया ने चाहा कि छोटे-छोटे बच्चे हों, साथ-साथ घुलमिल कर हँसे-खेलें। स्त्री-पुरुष के बीच शालीनता का क्या फर्क होना चाहिए, शील और आचरण का क्या फर्क होना चाहिए, यह जानें। अगर एक दूसरे को अलग कर देंगे,काट देंगे, तो फिर आप किस तरह से जिएँगे। माँ-बेटे साथ-साथ नहीं रहेंगे, तो किसके साथ रहेंगे? बाप-बेटी, भाई-बहिन साथ-साथ नहीं रहेंगी। बेटी बाप की गोदी में नहीं जाएगी, क्योंकि वह स्त्री है और ये पुरुष है। दोनों को अलग कीजिए, छूने मत दीजिए। औरत को इस कोने में बैठाइए और मरद को उस कोने में बैठाइए। अरे भाई, ये कहाँ का न्याय है? स्त्री और पुरुष कंधे-से कंधा मिलाकर काम करें, गाड़ी के दो पहियों के तरीके से काम करें, तो ही जीवन में आनंद है, प्रगति है। आज भी हमारे यहाँ रिवाज है कि मरद औरत को नहीं देखने पाए और औरत मरद को। वह घूँघट मारकर घर में रहे और पुरुष बाहर रहें। साथ-साथ नहीं चल पाएँ। ये भी कोई बात है।
मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् ने उस जमाने में लड़के-लड़कियों की एक सेना पैदा की और उसे एक दिशा दी। उन्होंने कहा कि लड़के और लड़कियों में अंतर करने से क्या होगा। हम और आप सब बच्चे हैं। स्त्री और पुरुष में क्या फर्क होता है? स्त्रियों को मूँछें नहीं आतीं और मरद को मूँछें आती हैं। मूँछ आने से क्या फर्क हो गया? स्त्रियाँ मूँछें लगा लें तब? तब फिर वे मरद हो जाएँगी और पुरुष मूँछ हटा लें, तो वे औरत हो जाएँगे। अरे महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? हाँ बेटा, यही फर्क है। उस जमाने का पुरुषवादी समाज, परस्त्रीगामी समाज, जिसमें पाप और अनाचार का बंधन नहीं लगाया गया था, केवल स्त्री-पुरुष को अलग रखने की व्यवस्था की गई थी। जहाँ शील आँखों में रहता है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया था, केवल शारीरिक बंधनों से शील की रक्षा करने की कोशिश की गई थी, श्रीकृष्ण भगवान् ने उसे तोडऩे की कोशिश की।
भगवान् श्रीकृष्ण का जीवन सिद्धांतों का जीवन था, आदर्शों का जीवन था। उनकी सारी लीलाएँ सिद्धांतों और आदर्शों को प्रख्यात करने वाले जीवन से ओतप्रोत थीं। भगवान् राम की लीलाएँ इससे आगे चली जाती हैं। उनके जीवन में एक कमी रह गई थी। क्या कमी रह गई थी? लोगों के साथ शराफत करने का वास्ता, जो उन्होंने पढ़ा था। उनके पिताजी बड़े शरीफ थे। उन्होंने आज्ञा दी कि आपको वनवास चले जाना चाहिए। रामचंद्र जी ने कहा—ठीक है, ऐसे धर्मपरायण शालीन पिता यदि आज्ञा देते हैं और हमको वनवास जाने का मौका मिलता है, तो हमें चले जाना चाहिए। भरत जैसा भाई यदि राजपाट सँभाल लेता है, तो वह और अच्छी तरह से चलेगा। उसमें कोई कमी नहीं आने वाली है। प्रेमभाव भी बना रहेगा, मुझे भी शांति मिलेगी। अत: मैं वनवास चला जाता हूँ, तो हर्ज की क्या बात है। इस सिद्धांत को लेकर उन्होंने राजगद्दी भरत के हवाले कर दी और बाप का कहना मान लिया।
अपूर्णता को पूरा किया
मित्रो! बात चल रही थी—श्रीकृष्ण भगवान् की। कृष्ण भगवान् का रास्ता दूसरा था। रामावतार में जो अभाव रह गया था, जो कमी रह गई थी, जो अपूर्णता रह गई थी, वह उन्होंने पूरी की। इस बात से फायदा यह हुआ कि यदि शरीफों से वास्ता न पड़े, तब क्या करना चाहिए? खराब लोगों से वास्ता पड़े तब, खराब भाई हो तब, खराब मामा हो तब, खराब रिश्तेदार हो तब, क्या करना चाहिए? तब के लिए श्रीकृष्ण भगवान् ने नया रास्ता खोला। इसमें विकल्प हैं। इसमें शरीफों के साथ शराफत से पेश आइए। जहाँ पर न्याय की बात कही जा रही है, उचित बात कही जा रही है, इनसाफ की बात कही जा रही है, वहाँ पर आप समता रखिए और उसको मानिए और आप नुकसान उठाइए। लेकिन अगर आपको गलत बात कही जा रही है, सिद्धांतों की विरोधी बात कही जा रही है, तो आप इनकार कीजिए और उससे लडि़ए और यदि जरूरत पड़े, तो मुकाबला कीजिए और मारिए।
कंस श्रीकृष्ण भगवान् के रिश्ते में मामा लगता था। लेकिन वह अत्याचारी और आततायी था, अत: उन्होंने यह नहीं देखा कि रिश्ते में कंस हमारा कौन होता है। उन्होंने न केवल स्वयं ऐसा किया, वरन् अर्जुन से भी कहा कि रिश्तेदार वो हैं, जो सही रास्ते पर चलते हैं। सही रास्ते पर चलने वालों का सम्मान करना चाहिए, उनकी आज्ञा माननी चाहिए, उनका कहना मानना चाहिए। उनके साथ-साथ चलना चाहिए। लेकिन अगर हमको कोई गलत बात सिखाई जाती है, तो उसे मानने से इनकार कर देना चाहिए। यह परंपरा कितने युगों से चली आ रही है कि पिता का कहना मानना चाहिए। लेकिन अगर कोई गलत बात मानने के लिए कही जाती है तब? तब पिता का कहना प्रधान नहीं है। तब कहना चाहिए कि मैं गलत बात नहीं मानूँगा। गलत बात कहता है और पिता बनता है। गलत बात कहने वाला व्यक्ति पिता नहीं हो सकता। नहीं बेटे, हम तो तेरे पिताजी हैं और तेरे दहेज में पच्चीस हजार रुपया लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। पच्चीस हजार रुपये लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। देख श्रवणकुमार ने अपने पिता की आज्ञा मानी थी और भीष्म पितामह ने आज्ञा मानी थी। श्रवण कुमार ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो ऋषि थे। भीष्म पितामह ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वे शांतनु थे और राम ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो दशरथ थे। तू तो काम करता है चांडाल के, बात करता है कसाई की और हुक्म देता है। हमसे बात मनवाएगा। हम नहीं मानेंगे, चला है बाप बनने।
मात्र एक ही रिश्तेदार : धर्म
मित्रो कृष्ण भगवान् की दिशाएँ और शिक्षाएँ यही थीं कि कोई हमारा रिश्तेदार नहीं है। हमार रिश्तेदार सिर्फ एक है और उसका नाम है-धर्म। हमारा रिश्तेदार एक है और उसका नाम है-कत्र्तव्य। आप ठीक रास्ते पर चलते हैं, तो हम आपके साथ हैं और आपके हिमायती हैं। बाप के साथ हैं, रिश्तेदार के साथ हैं। अगर आप गलत रास्ते पर चलते हैं, तो आप रिश्ते में हमारे कोई नहीं होते। हम आपकी बात को नहीं मानेंगे और आपको उजाड़कर रख देंगे।
मित्रो! ये हैं श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन की गाथाएँ, जो राम के जीवन की विरोधी नहीं हैं, वरन् पूरक हैं। राम के अवतार में जो कमी रह गई थी, उसे कृष्ण अवतार में पूरा किया। राम का वास्ता अच्छे आदमियों से ही पड़ता रहा। अच्छे संबंधी मिलते रहे। उन्हें सुमंत मिले तो अच्छे, कौशल्या मिली तो अच्छी, लक्ष्मण मिले तो अच्छे। उन्हें सब शरीफ ही मिलते गए। अगर शरीफ आदमी न मिलते तो क्या करते? तब श्रीकृष्ण भगवान् ने जो लीला करके दिखाई, वही वे भी करते। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि तू लड़, चाहे तेरे गुरु हों या कोई भी क्यों न हों। गुरु हैं, तो क्या हुआ? भाई हैं, तो क्या हुआ? मामा हैं तो क्या हुआ? कोई भी क्यों न हों, जब गलत काम करते हैं, तो हमारे कोई नहीं, सब विरोधी हैं। भगवान् ने यह शिक्षण अपने विरोधी मामा से लोहा लेकर के दिया।
जिंदगी बादलों की तरह जी
भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी सारी जिंदगी बादलों के तरीके से जी। उन्होंने कहा—हमारा कोई गाँव नहीं है। सारा गाँव हमारा है। जहाँ कहीं भी हमारी जरूरत होगी, हम वहाँ पर जाएँगे। वे कहाँ पैदा हुए? वे मथुरा में पैदा हुए, फिर गोकुल में बसे, वहाँ गाय चराई। उज्जैन में पढ़ाई-लिखाई की। दिल्ली में-कुरुक्षेत्र में लड़ाई-झगड़े में भाग लिया और फिर न जाने कहाँ-कहाँ मारे-मारे फिरते रहे। आखिर में कहाँ चले गए? आखिर में द्वारिका चले गए। आपके ऊपर तो होम सिकनेस हावी हो गई है, जो घर से आपको निकलने ही नहीं देती। अरे साहब! घर से बाहर कैसे निकलें, हमें तो घरवालों की याद आती है, हमारा पोता याद करता होगा, पोती याद करती होगी। हम अपने घर से बाहर नहीं जाएँगे, गाँव में ही हवन कर लेंगे। सौ कुंडीय यज्ञ, तो हमारे गाँव में ही होगा। मंदिर बनेगा, तो हमारे गाँव में ही बनेगा। अस्पताल बनेगा, तो हमारे गाँव में ही बनेगा। गाँव-गाँव रट लगाता रहता है। श्रीकृष्ण भगवान् ने इस मान्यता को समाप्त किया और कहा कि सारे गाँव हमारे हैं। हर जगह हमारी जन्मभूमि है। वे दो बार मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश गए, दिल्ली गए। वे सब प्रदेशों में गए बादलों के तरीके से।
मित्रो! सिस्टर निवेदिता, एनीबेसेंट कहाँ पैदा हुई? योरोप में पैदा हुईं। उन्होंने देखा कि हिंदुस्तान में महिलाओं की स्थिति गिरी हुई है। महिलाओं की जो ऊँची स्थिति योरोप में है, वही हमको यहाँ करना है। यहाँ क्या करेंगे? जहाँ हमारी जरूरत होगी, वहाँ चले जाएँगे। सिस्टर निवेदिता हिन्दुस्तान आ गईं, एनीबेसेंट हिंदुस्तान में आ गईं। सी.एफ. एण्ड्र्यूज हिंदुस्तान में आ गए। वे कितने जबरदस्त थे, उनके यहाँ कुछ कमी नहीं थी, लेकिन हिंदुस्तान में उन्होंने अपनी-अपनी जिंदगियाँ खत्म कर दीं। हिंदुस्तान की मिट्टïी में उनकी हस्ती तबाह हो गई। इसी तरह गाँधी जी पोरबंदर में पैदा हुए और कहाँ चले गए? साबरमती चले गए। जब तक स्वराज नहीं मिला, आजादी नहीं मिली, वे दर-दर भटकते फिरे, गाँव-गाँव घूमते फिरे। महापुरुषों की कोई जन्मभूमि नहीं होती, कोई गाँव नहीं होता, वरन् सारा संसार ही उनका अपना घर होता है।
मित्रो! लोग अपनी-अपनी जन्मभूमि की रट लगाते रहते हैं कि यह मेरी जन्मभूमि है, वह मेरी जन्मभूमि है। अरे, जन्मभूमि किसकी होती है? जो केवल शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं, उन्हीं की जन्मभूमि होती है, श्रेष्ठï मनुष्यों की कोई जन्मभूमि नहीं होती। हमारी तो हर जगह जन्मभूमि है। जहाँ कहीं भी हमारी आवश्यकता पड़ेगी, हम वहीं बस जाएँगे। नहीं साहब, हमारी तो अमुक जगह जन्मभूमि है और हम वहीं जाएँगे। नहीं, कोई जन्मभूमि नहीं। शंकराचार्य कहाँ पैदा हुए थे? केरल में पैदा हुए थे। परंतु वे सारे हिंदुस्तान में घूमते फिरे। उनकी प्रेरणा से दक्षिणभारत के लोग उत्तर में आ गए और उत्तरभारत के लोग दक्षिणभारत में चले गए। कुमारजीव कश्मीर में पैदा हुए थे और सूडान होते हुए मंगोलिया चले गए और चीन में मर-खपकर खत्म हो गए। ईसा कहाँ पैदा हुए थे? कहाँ जन्म लिया और कहाँ-से-कहाँ चले गए। मोहम्मद साहब मक्का में पैदा हुए और मदीने चले गए। वहाँ रहे और बाद में उस गाँव को छोड़कर और कहीं चले गए।
नहीं साहब! हम तो अपने गाँव में रहेंगे और गाँव को ही सब कुछ बनाएँगे और वहीं मरेंगे। नहीं, मित्रो इसकी कोई जरूरत नहीं है। जहाँ कहीं भी जगह है; जहाँ कहीं भी भूमि है; जहाँ कहीं भी मौका है, जहाँ कहीं भी आपकी आवश्यकता है, आप वहाँ जाइए। नहीं साहब, हम तो गाँव में ही रहेंगे। गाँव में ही हमारे बच्चे रहेंगे। हमारे ही गाँव में पुस्तकालय बनेगा। नहीं कोई जरूरत नहीं, जब आपके गाँव में बिना पढ़े-लिखे लोग हैं, तो आप क्यों बनाते हैं—अपने गाँव में पुस्तकालय। गाँव-गाँव चिल्लाते हैं। यह 'होम सिकनेसÓ की, औरों से अपने को अलग करने की प्रवृत्ति है। नहीं साहब, इसके कारण तो सब छोड़कर चले गए। चले गए, तो चले गए, उनसे क्या मोहब्बत? मोहब्बत करनी है तो सिद्धांतों से कीजिए, आदर्शों से कीजिए। गाँव से क्या मोहब्बत, क्या रिश्ता? इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन में देखने को मिलता है। भगवान् की ये कथाएँ और प्रेरणाएँ हमें यही सिखाती हैं कि जहाँ हमारी आवश्यकता है, हमें वहीं बादलों के तरीके से जाना चाहिए।
अध्यात्म का यही है सही रूप
मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण की कथाएँ और प्रेरणाएँ हमको जाने क्या-क्या सिखाती हैं। श्रीकृष्ण का जीवन हमें अध्यात्म का सही स्वरूप जानने की प्रेरणा देता है। आपने तो अध्यात्म का जाने क्या-क्या अर्थ निकाल रखा है। आपके हिसाब से अध्यात्म हो सकता है—भजन, ध्यान, कुंडलिनी जगाना और आज्ञाचक्र जगाना। दंड-कमंडल लेकर ठाले-निठल्ले बैठे रहते हैं और बेकार की बातें करते हैं। जब मुसीबत आती है, तो यहाँ-वहाँ मारे-मारे भागते-फिरते हैं। सनक में जीते हैं। बैठे-बैठे योगीराज बनने का ढोंग करते और चित्र-विचित्र स्वाँग रचते रहते हैं। ऐसे लोग अफीमची की तरह सनकते रहते हैं और फालतू बकवास करते रहते हैं। इसे हम अध्यात्म नहीं कह सकते।
मित्रो! अध्यात्म क्या हो सकता हैं? अध्यात्म केवल वह है, जो हमारे क्रियाकलाप में शामिल हो। यह बात हमने शुरू में ही बताई है। अध्यात्म को हम आपके क्रियाकलाप में देखना चाहते हैं। आज्ञाचक्र जगने का मतलब आपका जीवन-चक्र घूमा कि नहीं घूमा? नहीं महाराज जी, यह तो केवल सिर में घूमेगा। बेटे, सिर में कोई चक्र नहीं घूमता। घूमता है, तो सारे क्रियाकलापों में घूमता है। केवल घर में ही नहीं, सारे संसार में चक्र घूमता है। भगवान् ने अपनी लीला के माध्यम से धर्मचक्र को घुमाया। वह धर्मचक्र जो रुक गया था, जिसका पहिया जाम हो गया था। उस पहिए को उन्होंने घुमाया, न केवल हिंदुस्तान में, वरन् सारे विश्व में घुमाया। धर्म का चक्र इसी को कहते हैं। नहीं महाराज जी, चक्र तो सिर में घूमता है, आज्ञाचक्र में घूमता है। पागल कहीं का, सनकता रहता है और बेसिरपैर की बातें करता है। चक्र को जाने क्या समझ लिया है।
गीता का कर्मयोग
इसलिए मित्रो, श्रीकृष्ण भगवान् ने गीता में अध्यात्म का सूत्र समझाया। गीता का कर्मयोग बतलाया। गीता के कर्मयोग में उन्होंने कहा कि कर्म करने का अधिकार मनुष्य को है, किंतु फल प्राप्त करने के लिए हैरान होने की, उतावली करने की आवश्यकता नहीं है। काम करो, ईमानदारी से काम करो, शराफत से काम करो। बस, वही काफी है—आपके आत्मसंतोष के लिए। फल मिला या नहीं? हम नहीं जानते कि फल क्या मिलेगा या क्या नहीं मिलेगा? बहुत से आदमी दुनिया में ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बेहद अच्छे-अच्छे काम किए हैं, लेकिन ईसामसीह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को जहर का प्याला पिला दिया गया। न जाने कितने अच्छे-अच्छे आदमियों को क्या-क्या किया गया। अत: हम सफलता की कोई गारंटी नहीं ले सकते, लेकिन हम आपको शांति की गारंटी दे सकते हैं।
मित्रो! अगर आप शराफत के मार्ग पर चलेंगे और यह समझते रहेंगे कि हम नेक काम कर रहे हैं, शराफत का काम कर रहे हैं, तो फिर जटायु के तरीके से आपको सफलता मिल जाए, तो क्या और न मिले, तो क्या—कोई अंतर नहीं पड़ेगा। आततायी रावण से सीता को छुड़ाते हुए जटायु मारा गया, उसे नेक काम के लिए अपनी जिंदगी देनी पड़ी, लेकिन जटायु को आप हारा हुआ नहीं कह सकते। भगतसिंह को फाँसी लग गई—तख्त पर टाँगा गया। ईसा को कीलें गाड़ दी गईं, लेकिन हम ईसा को हारा हुआ नहीं कहेंगे, भगतसिंह को मरा हुआ नहीं मानेंगे, जटायु को हारा हुआ नहीं मानेंगे। सफलता-असफलता से क्या बनता-बिगड़ता है? सफलता-असफलता की कोई कीमत नहीं। आप ने सही काम किया; नहीं किया, आपके लिए इतना ही काफी है।
यह न देखें कि मिला क्या?
साथियो! कर्मयोग में भगवान् ने यह बताया है कि आप यह मत देखिए कि उसमें फायदा हुआ कि नहीं? हमने जो चाहा था, वह मिला कि नहीं मिला? मिलना, न मिलना आपके हाथ की बात नहीं है। यह परिस्थितियों और प्रारब्ध की बात है। यह आपके प्रारब्ध की बात है कि दूसरे लोगों की सहायता या बिना सहायता के आप क्या कर सकते हैं? किसी कार्य का क्या फल मिलता है, आपके हाथ में यह कुछ नहीं है। लेकिन एक बात पूरी तरह से आपके हाथ में है कि आप अपनी जिम्मेदारियाँ निभाएँ और कत्र्तव्य को पूरा करें। आप कत्र्तव्यों को पूरा करेंगे, जिम्मेदारियों को निभाएँगे, तो यकीन रखिए, आपको वह लाभ मिल जाएगा, जो कि योगी को मिलना चाहिए, संत को मिलना चाहिए और ज्ञानी को मिलना चाहिए। यही गीता का कर्मयोग है। गीता में अर्जुन को भगवान् ने कर्मयोग की शिक्षा दी और उसे कर्म में लगाया। उन्होंने अर्जुन से कहा कि कर्म कर, सारी-की-सारी जिंदगी की प्रतिक्रिया को अपना योग मान। गृहस्थ को योग मान। समाज के प्रति अपनी जिम्मदारी को योग मानकर अपने कत्र्तव्य को पूरा करता जा। मित्रो, यह उनका कर्मयोग था।
एक बार अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा कि भगवान् मैं तो आपके विराट् स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि भगवान् के दर्शन इन आँखों से नहीं हो सकते। इन आँखों से मिट्टïी देखी जा सकती है, पत्थर देखे जा सकते हैं। इससे हाड़-मांस देखा जा सकता है। पंचतत्त्वों से बनी आँखें सिर्फ पंचतत्त्व देख सकती हैं। भगवान् पंचतत्त्वों से बड़ा है, इसलिए कभी किसी ने भगवान् को नहीं देखा और इन आँखों से कोई देख भी नहीं सकता। भगवान् को देखने के लिए आँखें ही काफी नहंी हैं और आँख से भगवान् को देखने की किसी के लिए भी गुंजाइश नहीं है।
दिव्य विराट् रूप
तो फिर भगवान् को कैसे देखा जा सकता है? इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—''दिव्यं ददामि ते चक्षु:ÓÓ अर्थात् मैं तुझे दिव्य आँखें दूँगा, विवेक की आँखें दूँगा, ज्ञान की आँखें दूँगा। मात्र ज्ञान की आँख से ही भगवान् को देखा जा सकता है और किसी तरीके से नहीं। चमड़े की आँख से आप भगवान् को नहीं देख सकते। इससे आप पत्थर देख आइए। नहीं साहब, हम तो इसी से भगवान् को देखेंगे। नहीं, आप इससे भगवान् को नहीं देख सकते। जब यह चमड़े का विषय ही नहीं, तो आप देख कहाँ से लेंगे? आपने क्या ठंढक देखी है, नहीं साहब, हमने तो केवल बरफ देखी है, ठंड तक नहीं देखी। तो क्या आपने गरमी देखी है? नहीं गरमी भी नहीं देखी है, आग देखी है। आग की बात हम पूछते हैं, गरमी की बात पूछते हैं। नहीं साहब, गरमी तो नहीं देखी है। अच्छा, तो हमारा प्यार देखा है? महाराज जी! प्यार तो आपका नहीं देखा। हाँ, आपके चेहरे की स्मिति, मुस्कान देखी है। मित्रो! हम प्यार की बात पूछते हैं, मुस्कान की नहीं।
मित्रो! अच्छा बताइए, आपने मेरा ज्ञान देखा है? नहीं महाराज जी, ज्ञान भी नहीं देखा। ज्ञान आपने देखा नहीं, प्यार देखा नहीं, गरमी देखी नहीं, ठंड देखी नहीं, तो फिर आप भगवान् को कैसे देखेंगे? नहीं महाराज जी! भगवान् दिखा दीजिए। पागल कहीं का—भगवान् देखेगा। भगवान् भी कोई देखने की चीज है! भगवान् किसी ने नहीं देखा है। अर्जुन भी कह रहा था कि भगवान् को दिखा ही दीजिए। श्रीकृष्ण ने कहा—चल तुझे दिखाते हैं। उन्होंने अपना विराट् रूप दिखाया और कहा—देख यही है भगवान्। यही स्वरूप उन्होंने अपनी माता यशोदा को भी दिखाया था। राम ने भी अपनी माता कौशल्या को अपना विराट् रूप दिखाया था। उन्होंने काकभुशुंडि को दिखाया था और कहा था कि देख यही मेरा विराट् रूप है।
मर्म समझिए
साथियो! अगर आप आँखों से भगवान् को देखना चाहते हों, तो संसार में जितनी दिव्यशक्तियाँ हैं, जितनी दिव्य विचारधाराएँ हैं और जितने दिव्यकर्म दिखाई पड़ते हैं, उनमें आप भगवान् की क्रीड़ा को देख सकते हैं। यही उनके क्रीड़ा करने योग्य स्थल हैं। उनको ही आप अक्षत चढ़ाइए, जल चढ़ाइए, अगरबत्ती जलाइए। उसमें ही अपनी अक्ल लगाइए अर्थात् ध्यान कीजिए। ध्यान करने का मतलब है—भगवान् के लिए अपनी अक्ल खरच करना। 'अक्षतांन् समर्पयामिÓ का अर्थ है—अपनी कमाई का एक हिस्सा लोकमंगल में लगा देना। 'आचमनं समर्पयामिÓ एवं 'स्नानं समर्पयामिÓ अर्थात् पानी चढ़ा देने का भी यही मतलब होता है—समाज को श्रेष्ठï बनाने के लिए, लोगों को अच्छा बनाने के लिए, दुनिया में भलाई लाने के लिए अपना पसीना बहाइए, अपनी अक्ल लगाइए, अपना पैसा खरच कीजिए। नहीं महाराज जी, मैं तो तीन चम्मच पानी चढ़ाऊँगा, तो पुण्य हो जाएगा। हाँ बेटे, चाहे तीन चम्मच चढ़ा, चाहे चार, इनसे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। अरे चढ़ाना है, तो वह चढ़ा, जो इसके पीछे कुछ शिक्षा है, प्रेरणा है, नहीं महाराज जी! भगवान् तो पानी चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो फिर ठीकहै, चम्मच से ही क्यों चढ़ाता है? सावन के महीने में तीन घड़े पानी भर ले और उनकी पेंदी में सुराख करके भगवान् के ऊपर टाँग दे। चौबीस घंटे पानी टपकता रहेगा। सारे दिन 'आचमनं समर्पयामिÓ का पाठ चलता रहेगा और चौबीस घंटे का स्नान भी। न बार-बार नहलाना पड़ेगा, न धुलाना पड़ेगा, न बार-बार चम्मच डालना पड़ेगा, अपने आप बैठे-बैठे भगवान् जी नहाते रहेंगे। अरे मूर्ख, पानी चढ़ाने का अर्थ है—पसीना बहाना, श्रम करना। अच्छाई के लिए मेहनत करना। पूजा-अर्चना के पीछे, कर्मकांडों के पीछे छिपे हुए भाव, शिक्षा एवं प्रेरणाओं को समझना बहुत जरूरी है।
संघ शक्ति का जागरण
भगवान् ने गीता में हमें यही उपदेश सिखाया और यह कहा कि कोई भी श्रेष्ठï कार्य बिना श्रम और सहयोग के संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, जब उन्होंने पहाड़ उठाया, तो ग्वालबालों से कहा कि आप जरा हिम्मत कीजिए, हमारे साथ आइए और हमारी मदद कीजिए, अपनी लाठी का सहारा लगाइए। मित्रो! जनता को साथ लिए वगैर आप कुछ भी नहीं कर सकते। अकेले आप समाज को सुधारेंगे? नहीं, आप अकेले कुछ भी नहीं कर सकते। आप लोगों को साथ बुलाइए, साथ लेकर चलिए। नहीं साहब, हम बड़े ज्ञानी हैं, बड़े विद्वान हैं। ठीक है, आप विद्वान हैं, तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन आपके साथ में लोकशक्ति है कि नहीं? आप जनता के पास जाइए, और लोकशक्ति बढ़ाइए। लोकशक्ति को जगाए बिना राम का उद्धार नहीं हो सका, कृष्ण का उद्धार नहीं हो सका, बुद्ध का उद्धार नहीं हो सका और गाँधी का उद्धार नहीं हो सका, किसी का भी उद्धार नहीं हो सका, और न कभी हो सकता है। जनशक्ति को जगाइए, जनता के पास जाइए, जनता को साथ लीजिए। जनसहयोग लीजिए। श्रीकृष्ण भगवान् का गोवद्र्धन उठाना, महाभारत में सेना को खड़ा कर देना, इस बात का सबूत है कि उन्होंने जो काम किए, मेहनत से किए और लोगों की सहायता से किए हैं— जनशक्ति को साथ लेकर किए हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के ब्याह-शादी के बारे में कितनी ही किंवदंतियाँ मालूम पड़ती हैं। अभी जो आपको हम भगवान् की कथा बताने वाले थे, उसमें पहला विषय श्रीकृष्ण भगवान् के शादी-ब्याह वाला किस्सा ही था। लोगों ने उनके विवाह और रास को इतना घिनौना बना दिया है, जिसे हम नहीं चाहते कि हमारे पिता के ऊपर-हमारे बुजुर्गों के ऊपर ऐसे गंदे और वाहियात आक्षेप लगाए जाएँ। हम इस बकवास को सुनना नहीं चाहते और न इस तरह की रासलीला को देखने का हमारा जरा-सा भी मन है और न फुरसत है। नहीं, गुरुजी, रास देख लीजिए। नहीं बेटे, हम रास नहीं देखना चाहते। हम शिक्षा वाला नाटक देखना चाहते हैं, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने यह करके दिखाया था कि अपना राज्य सुदामा की सुपुर्द कर दिया था और तप करने चले गए। यह हमें पसंद है और इसे हम हजार बार देखेंगे। क्यों महाराज जी, आपने तो गोपियों वाली रासलीला और वह कपड़े चुराने वाली लीला देखी है? नहीं बेटे, यह रासलीला हमको नापसंद है, क्योंकि यह समाज में अनाचार फैलाती है, समाज में भ्रष्टïाचार फैलाती है, समाज में अनीति फैलाती है, समाज में भ्रष्टïाचार फैलाती है, समाज में अनीति फैलाती है। हमारे आराध्य की हँसी उड़ाती है और हमारी संस्कृति के ऊपर कलंक लगाती है। यह हमें नापसंद है। इसे न हम देखना चाहते हैं और न सुनना चाहते हैं।
आराध्य का सच
मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण के दांपत्य जीवन के बारे में जो वाहियात बातें सुनने को मिलती रही हैं, इसके संबंध में जब मैं गहराई में गया, तो पता चला कि ये तमाम वाहियात बातें पीछे पंडितों ने मिलाई हैं। असल में उनका एक ही ब्याह हुआ था और रुक्मिणी को भी वे छीनकर नहीं लाए थे। रुक्मिणी के भाई रुक्म की रजामंदी से यह ब्याह हुआ था। जब महाभारत में यह कथा मैंने पढ़ी, तो मुझे बहुत पसंद आई और तब से मैंने श्रीकृष्ण भगवान् की शादी-ब्याह के बारे में भी जिक्र करना शुरू कर दिया। पहले मैंने यह फैसला किया था कि श्रीकृष्ण के ब्याह के बारे में मैं कुछ लिखूँगा ही नहीं कि उनका ब्याह हुआ या वे कुँवारे रहे अथवा उन्होंने बहुत-सी-औरतों से ब्याह किया था। यह सब मैं लिखना नहीं चाहता था। वस्तुत: श्रीकृष्ण भगवान् का ब्याह रुक्मिणी के साथ हुआ था, जिन्हें साथ लेकर के वे बारह वर्ष तक बद्रीनाथ तप करने चले गए।
बद्रीनाथ किसे कहते हैं? बद्री माने बेर, बेर माने बद्री। बेरों का जंगल था वहां, जहाँ आज बद्रीनाथ है। वे वहीं चले गए थे और अपनी धर्मपत्नी के साथ बारह वर्ष तक तप किया था। इसके पीछे सिद्धान्त छिपा हुआ था—आदर्श छिपा हुआ था कि हमें एक ऐसी संतान चाहिए, जो कामुकता के संस्कारों से दूर हो। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि श्रेष्ठï नागरिक होने के लिए संयम के साथ में, तप के साथ में, ज्ञान के साथ में एक सुसंस्कारी संतान देनी है; बारह वर्ष तक इसलिए तप करके आए थे। उनके केवल एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसका नाम प्रद्युम्र था। नहीं साहब! उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं। नहीं बेटे, यह सब बातें गलत हैं और पीछे पंडितों के द्वारा जोड़ी गई हैं। बेकार की इन बातों से कोई फायदा नहीं है।
मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् का दांपत्य जीवन श्रेष्ठï वाला दांपत्य जीवन रहा है। उसमें इस तरह के बकवास की कोई गुंजाइश नहीं है कि उनकी हजारों रानियाँ थीं। उनकी जिंदगी की आखीर वाली दो घटनाएँ इतनी शानदार रही हैं। पहली घटना वह है जब उन्होंने संपत्ति इक_ïी की और कहा कि इसका हिसाब होना चाहिए कि कितना धन किस राज्य में कहाँ-कहाँ स्थापित हो? एक बार जब सुदामा जी द्वारका राज्य में आए और कृष्ण भगवान् को बताया कि सुदामा नगरी का हमारा गुरुकुल टूटा-फूटा हुआ पड़ा है। हमारे यहाँ धन की कमी आ गई है। छात्रों के निवास के लिए स्थान की कमी पड़ गई है। पढऩे के लिए पुस्तकें नहीं हैं। यह सुनकर उन्होंने सोचा कि पैसे का इससे अच्छा उपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है। आपके पास धन-संपदा हो, तो आप सोचेंगे कि इसे मेरा बेटा खाएगा, पोता खाएगा, लेकिन अगर कोई और खाएगा, तो मैं उसकी जान ले लूँगा। अपनी सारी कमाई किसको देगा? बेटे-पोते को देगा, अगर और किसी को देगा, तो तेरी जान निकल जाएगी।
निस्पृह जीवन
मित्रो! क्या हुआ? कृष्ण भगवान् ने देखा कि राज्य इक_ïा किया, पैसा इक_ïा किया, लेकिन इसे खरच करना चाहिए था। आखिर इसे खरच कहाँ किया जाए? यह विचार कर ही रहे थे कि सुदामा जी आ पहुँचे। उन्होंने सोचा, बस हो गया मेरा काम। यही तो मैं तलाश कर रहा था कि कोई ऐसा ठीक स्थान मिले, जहाँ हमारे धन का अच्छे-से-अच्छा उपयोग हो सके। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किसको दूँ, किसको न दूँ? माँगने वाले तो हजारों आते हैं, लेकिन जहाँ आवश्यकता है, ऐसा कोई स्थान या व्यक्ति नहीं मिला। सुदामा जी, आप ठीक समय पर आ गए। चलिए, जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब मैं आपको देता हूँ—सब आपके सुपुर्द करता हूँ। उनका जो सारे-का-सारा धन था, उसे सुदामापुरी भेज दिया और वहाँ का विद्यालय विश्वविद्यालय में बदल दिया गया।
मित्रो! यह उनके जीवन की निस्पृहता थी, उनका कर्मयोग था। कर्मयोग में आदमी की आसक्तियाँ और मोह कटते जाते हैं और उसे यह दिखाई देने लगता है कि हमें क्या चाहिए? हमारे में कमाने का माद्दा है, लेकिन कमाने के माद्दे की सार्थकता तब है, जब इसे किसी अच्छे काम में लगा सकें। लेकिन आप तो कमाते जाते हैं और बेटों को, पोतों को चालाक बनाने के लिए, चोर बनाने के लिए, हैवान बनाने के लिए, व्यसनी बनाने के लिए और अनाचारी बनाने के लिए पाप की कमाई उनके ऊपर जमा करते जा रहे हैं। आप भी क्या यही करते हैं? नहीं, महाराज जी! हम ऐसा नहीं करते हैं। यदि आप भी ऐसा ही करते हैं, तो अपना विचार बदल दें। मित्रो! प्राचीनकाल में ऐसा ही होता रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अपना सारा धन सुदामा को सुपुर्द कर दिया और वे निस्पृह हो गए। ये सारी बातें उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सार्थक कर दिखाई।
उनके जीवन की अंतिम कथा यह है कि उन्हें याद आया कि पहले जन्म में हमने बाली को छिपकर मारा था। छिपकर मारना हमारी गलती थी। उसे छिपकर नहीं मारना चाहिए था। यह कोई कायदा नहीं है कि आप छिप करके किसी को मारे। छिप करके मारने वाले को हत्यारा कहते हैं, कसाई कहते हैं और जल्लाद कहते हैं। लड़ाई का कायदा यह है कि आप सामने वाले को भी हथियार दीजिए और खुद भी हथियार लीजिए, फिर चैलेंज कीजिए कि आइए, आपको भी अपनी रक्षा करने का अधिकार है। इस लड़ाई में जान हमारी भी जा सकती है और आपकी भी जा सकती है। आप हमारे ऊपर हमला कीजिए और हम आपके ऊपर हमला करेंगे। दोनों बहादुर ये बातें एक-दूसरे से कहते हैं। लेकिन जो आदमी बैठा हुआ है, सोया हुआ है और आपने ताड़ के पीछे से छिप करके उसे मार दिया। सोए हुए को मार दिया, यह क्या घोटाला किया। रामचंद्र जी थे तो क्या हुआ, उन्होंने ऐसा करके गलती की थी।
मित्रो! श्री भगवान् ने दिखाया कि गलती करने वाला कोई भी क्यों न हो, चाहे भगवान् ही क्यों न हो, गलती की सजा से माफी नहीं माँग सकता। वही बाली इस जन्म में बहेलिया हो गया और आकर के जब श्रीकृष्ण भगवान् पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, तब उनको तीर मारा। तीर उनके पाँव में लगा, जिससे सुराख बन गया और सेप्टिक हो गया, टिटेनस हो गया। डाक्टरों ने इंजेक्शन लगाए, बहुतेरा चिकित्सा उपचार किया, लेकिन कोई फरक नहीं पड़ा। कृष्ण भगवान् वहीं ढेर हो गए। उनकी लाश वहीं पड़ी रही। बलराम ने भी देखा कि मेरा भाई मारा गया। अर्जुन भी वहाँ आ गए और जाकर उनका अंतिम संस्कार किया। इस सारी कथा का महाभारत में विशद वर्णन है।
मित्रो! इसी के साथ सारी कथा पूरी हो जाती है। रही बात अलौकिकता और चमत्कार की, तो महान् व्यक्तियों के साथ इसका कोई लेना-देना नहीं है। चमत्कार तो आप जैसे लोगों के लिए है, जो इसे ही सब कुछ मानकर किसी की महानता का आकलन करते हैं और कहते हैं कि यदि चमत्कारी होगा, तो महात्मा होगा, चमत्कारी होगा, तो भगवान् होगा, चमत्कारी होगा, तो गुरु होगा और अगर चमत्कारी नहीं हुआ, तो कुछ नहीं, मात्र सामान्य व्यक्ति है। नहीं साहब, गुरु गोविन्द सिंह ने तो एक से एक बड़े चमत्कार दिखाए थे, आप भी दिखाइए। नहीं भाई साहब, गुरुगोविन्द सिंह से जब एक व्यक्ति जिद करने लगा और कहने लगा था कि मेरा खुदा बड़ा चमत्कारी है। वह एक बीज से हजारों फल निकालता है। बादलों को पिघलाकर पानी की बूँदें बना देता है। आप भी बालों में से बालू निकाल दीजिए, कानों में से मेढक निकाल दीजिए, तो हम आपको चमत्कारी मानेंगे। उन्होंने कहा—तू बाजीगरी को चमत्कार मानता है। वास्तविक चमत्कार तो यह है कि आदमी के हृदय में भगवान् पैदा किया जा सकता है या नहीं? जो आदमी पापी और पतित की जिंदगी जी रहा है, भीरु और परावलंबी जिंदगी जी रहा है, यदि वह अब स्वावलंबी और शानदार जिंदगी जीता है, श्रेष्ठï जिंदगी जीता है, लोगों को तारने वाली, विकास वाली जिंदगी जीता है, तो यही सबसे बड़ा चमत्कार है। इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं हो सकता।
अलौकिक बनाम लौकिक
श्रीकृष्ण भगवान् चमत्कारी थे, लेकिन लौकिक दृष्टिï से वे घोर असफल। गोपियों से प्यार करते थे, राधा से प्यार करते थे, लेकिन उन्हें छोड़कर वे कहाँ चले गए? गोपियाँ चिल्लाती रह गईं। ब्याह किया, राजपाट बसाया, अर्जुन को राजा बनाया। आखिर में भागकर स्वयं द्वारिका चले गए। अपना कुटुंब बसाया, जो अंत में आपस में लड़-मरकर खत्म हो गया। ये कैसे भगवान् थे, जिनके खानदान वाले सब खत्म हो गए। सारा खानदान चौपट हो गया। अर्जुन गोपियों को लेकर जा रहे थे। उनको रास्ते में भील मिल गए और गोपियों को ले गए। राधिका जी जाने कहाँ चली गईं। सब कुछ बिखर गया। आखिर में जो कुछ बचा खुचा था, उसे भी लोग समेट ले गए और श्रीकृष्ण भगवान् खाली हाथ रह गये। आखिरी वक्त में यह भी नहीं हो सका कि कोई मुँह में गंगाजल ही डाल दे या गौदान करा दे। गौदान कराने वाले तो नहीं हुए, उलटे उनकी लाश जंगल में पड़ी रही और वह भी अर्जुन को जलानी पड़ी।
मित्रो! इस तरह संसार की दृष्टिï से भगवान् श्रीकृष्ण घोर असफल सिद्ध हुए, लेकिन आदर्शों की दृष्टिï से-सिद्धांतों की दृष्टिï से घोर सफल सिद्ध हुए। वे भगवान् जो आज के दिन पैदा हुए, जिन्होंने न केवल अपने क्रियाकलापों से कितना शिक्षण दिया, वरन् असंख्य नर-नारियों को संसार सागर से पार लगाया। उनका शिक्षण इतना शानदार है कि अगर हम आज की जन्माष्टïमी के दिन इन चरित्रों को, इन प्रेरणाओं को, इन दिशाओं को अपने जीवन में धारण करने में समर्थ हो जाएँ, तो मजा आ जाए और आज का जन्माष्टïमी का पर्व सार्थक हो जाए। हमारा समझाना भी सार्थक हो जाए, अगर ये प्रेरणाएँ जो भगवान् ने अपनी स्थूल जीवन की लीलाओं द्वारा दी थीं, इनको हम धारण कर पाएँ तब, गीता में हमको जो बताया गया है, उसे हम धारण कर सकें तब। अगर हममें से प्रत्येक के भीतर जीवंत भगवान् का वह सिद्धांत आदर्शवादिता के रूप में उतर सके, हर क्षण उसकी आवाज और वाणी को हम सुन सकें, तो हमारा जीवन धन्य हो जाए और धन्य हो जाए आज का दिन और आज का हमारा लेक्चर। बस, आज की बात यहीं समाप्त।
ॐ शान्ति:
नया व्यक्ति बनेगा, नया युग आएगा
(पुर्नगठन वर्ष में ८ जुलाई १९७९ को शांतिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मध्यकालीन अंधकार युग समाप्त हुआ। हजार वर्ष तक हमने बार-बार ठोकरें खाईं। हजार वर्ष की गुलामी की ओर अगर हम दृष्टिïपात करते हैं, तो आँखों में आँसू भर आते हैं। राजनैतिक, धार्मिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक-प्रत्येक क्षेत्र में हम इस अवधि में भटकते रहे। इन हजार वर्षों में हम इतना कुछ गँवा बैठे कि इसे पूरा करने में हमें काफी समय लगेगा। यह अवसर पिछले समय की बातें करने का नहीं है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हम भविष्य का निर्धारण करें और अपनी शक्ति उसी दिशा में नियोजित करें।
भगवान् की इच्छा से अंधकार पूरा समाप्त हुआ। सूर्योदय का समय आया। अब से तीस साल पहले भारत की राजनीतिक स्वाधीनता मिली। अपने भाग्य का निर्माण अपने हाथों करने का समय आया। राजनीति को दो काम सौंपे गये। अर्थव्यवस्था को सुधारना राजनीति का पहला काम है। जन-साधारण को उद्दंडता एवं गलत कामों से रोकना, उसे दंड देना राजनीति का दूसरा काम है। आर्थिक एवं सामाजिक सुव्यवस्था-यही दो काम राजनीति के जिम्मे सौंपे गए। यह मनुष्य के भौतिक जीवन का पक्ष है, जिसकी जिम्मेदारी राजनीति को सौंपी गई।
दूसरा पक्ष मनुष्य का आंतरिक एवं आध्यात्मिक है। इसे प्रभावित करने की सामथ्र्य राजतंत्र में नहीं है। इसे पूर्ण करने की सामथ्र्य केवल धर्मतंत्र में है। आस्थाओं, विचारणाओं एवं गतिविधियों को नियंत्रित करें एवं उसे ऊँचा उठाकर उत्कृष्टïता के साथ जोड़ें, यह उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को सौंपा गया, ताकि देश को एक हजार वर्ष की गुलामी के कारण जो बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक अस्तव्यस्तता हुई है, उसे पूरा किया जाए तथा हम प्रगति की ओर बढ़ सकें।
धर्मतंत्र को अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, ताकि मनुष्य की खोई हुई गरिमा की पुन: स्थापना की जा सके। भारत के लोगों के आंतरिक खोखलेपन अर्थात् अपनी पात्रता एवं व्यक्तित्व की कमी के कारण मध्य एशिया से थोड़े-से डाकू आए और उन्होंने हमला करके भारत वर्ष को डेढ़ हजार वर्ष तक गुलाम बनाए रखा। अँग्रेज बाद में आए। उन घावों को पूरा करना हमारा काम है। हमारे से मतलब परिष्कृत धर्मतंत्र से है। यह धर्मतंत्र का काम है कि वह देखे कि किन कमजोरियों के कारण व्यक्ति भीतर से खोखले एवं बाहर से कमजोर होता है। उसकी छानबीन करे। यह उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को निभाना था। धर्मतंत्र के विनम्र प्रतिनिधि के रूप में यह दत्तरदायित्व युगनिर्माण योजना ने अपने कंधों पर उठाया और यह वचन दिया कि हम जनता में धर्मबुद्धि, विवेकबुद्धि उत्पन्न करेंगे तथा उच्चस्तरीय मान्यताओं को, आदर्शों को जनमानस में प्रतिस्थापित करेंगे, जिसके द्वारा व्यक्ति, परिवार और समाज मजबूत बनते हैं तथा उनका चिरस्थायी वर्चस बना रहता है।
मित्रो! तीस वर्ष पूरे होने को आए, अपने युग निर्माण योजना का कार्य करते हुए। इन तीस वर्षों में हमने क्या किया, इसके बारे में चर्चा करने का अभी समय नहीं है। इसके बारे में जिक्र करने का अभी समय नहीं है। यह तो आने वाला समय बतलाएगा कि इस छोटे-से मिशन ने कितना काम कर लिया तथा कितनी लंबी मंजिल पूरी कर ली है। अब हमें जो मंजिल पार करनी है, उसके लिए हमें और भी साहस एवं सामथ्र्य इक_ïी करनी है। इस तीस साल में मिशन की किशोरावस्था समाप्त हुई। अब उसकी प्रौढ़ता का समय आया है। इस समय हम एवं हमारे परिजन अब भारी उत्तरदायित्व लेने की स्थिति में हैं। बच्चे का जब हम विद्यारंभ कराते हैं, तो सामान्य पूजन भर हो जाता है। उसके बैठने का स्थान भी सामान्य ही होता है, परंतु जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, उसका सारा क्रम, ढाँचा बदलता जाता है।
अपने मिशन का भी क्रम इसी प्रकार बढ़ता जा रहा है। प्रारंभ में इसका नाम 'गायत्री परिवारÓ रखा गया था। वह प्रारंभ था। उस समय लोगों को यह बतलाया गया था कि गायत्री मंत्र भारतीय धर्म का मूल है। उसे लोगों को अपनाना चाहिए, जपना चाहिए, ताकि लोगों का भविष्य उज्ज्वल हो सके। इस प्रकार की बातें हमने तथा हमारे मिशन ने प्रारंभ में बतलाई थीं। इस बीज को लोगों को बतलाया गया था और यह कहा गया था कि जो व्यक्ति एक माला का नित्य जप करेंगे, उन्हें हम गायत्री परिवार का सदस्य मानेंगे। बचपन में यही था।
समय ने आगे के लिए कदम बढ़ाया। अपने परिवार एवं संगठन को एक और आयाम दिया गया। अब उसके साथ युग निर्माण योजना को भी जोड़ दिया गया है। उसका अर्थ यह था जो कि हमने लोगों को बतलाया कि हर व्यक्ति को एक माला गायत्री जप के साथ में नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांति हेतु भी बढ़चढ़कर कुछ काम करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्होंने उस समय व्यक्ति-निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज-निर्माण के कार्यक्रम भी चलाए।
यह युग निर्माण योजना के साथ जुड़कर मिशन के हुए विकास का क्रम था। हमने प्राइमरी कक्षा पूरी कर ली। हाईस्कूल की कक्षा भी हमारे मिशन ने पूरी कर ली है। अब हमने कॉलेज के स्तर की पढ़ाई प्रारंभ कर दी है, अर्थातï् अब हमारी प्रौढ़ावस्था आ गई है। अत: अब हमें कॉलेज स्तर का होना चाहिए। उसी स्तर के क्रियाकलाप एवं योजना होनी चाहिए। वही अब बन रही है, बनाई जा रही है, परंतु इस बारे में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम जिस युग परिवर्तन की बात कर रहे हैं, जिस समाज को बदलने की प्रतिज्ञा लेकर चले हैं, हम जिस नए समाज के निर्माण की बात करते हैं, उस संदर्भ में हमें विचार करना होगा कि युग निर्माण क्या है?
मित्रो! युग निर्माण का अर्थ होता है-नए समाज का निर्माण करना। समाज क्या है? समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। लोगों का समुदाय इक_ïा होकर ही समाज बनता है। उसके प्रत्येक घटक को समुन्नत बनाना, समृद्धिशाली बनाना हमारा काम है। यही है समाज निर्माण का उद्देश्य। फूल इक_ïे होकर ही माला बनते हैं। सींके इक_ïा होकर बुहारी बनती है। धागे इक_ïा होकर रस्सा बनते हैं। इसी तरह समाज व्यक्तियों से बनता है। समाज के लोगों को देखकर ही युग की स्थिति देखी जा सकती है। अत: समाज निर्माण के कार्य को आरंभ करने से पहले हमें आत्मनिर्माण का कार्य करना पड़ेगा। यह आज नहीं, वरन् आज से तीस साल पहले बतला दिया था कि हमारे क्रियाकलाप क्या हैं तथा हमारी भावी योजना क्या है?
समाज निर्माण कैसे होगा? इस संदर्भ में उन दिनों, एक युगनिर्माण सत्संकल्प के रूप में घोषणापत्र बनाया गया था, जिसमें यह बात स्पष्टï रूप से बतला दी गई थी कि व्यक्ति निर्माण के संबंध में चार चीजें परम आवश्यक हैं। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा, यह चार बातें आत्म निर्माण के लिए परमावश्यक हैं। यह चार बातें ऐसी हैं, जो एक-दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। इन चारों को पूरा कर लेने पर आत्मनिर्माण का उद्देश्य पूरा होता है। इसमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़कर केवल अन्यों में पूरा कर लेने पर आत्मनिर्माण का उद्देश्य पूरा हो सके। यह चारों चीजें एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। इन चारों को मिलाकर ही बात बनती है।
यह बात वैसी ही है जैसे जीवन निर्माण के लिए चार चीजें आवश्यक हैं। वे हैं-आहार, श्रम, संयम और सफाई। इन चारों में से अगर हम एक को भी कम करेंगे, तो हमारा जीवन निर्माण संभव न हो सकेगा। हमें फसल लेने के लिए भी चार चीजों की आवश्यकता पड़ती है। वे हैं- जमीन, बीज, खाद-पानी एवं सुरक्षा। इनके अभाव में किसान फसल प्राप्त नहीं कर सकता है। व्यापार करने के लिए हमें चार चीजों की आवश्यकता पड़ती है-पूँजी, अनुभव, वस्तुओं की माँग एवं ग्राहक। इसमें से अगर एक भी चीज की कमी होगी, तो कोई भी व्यापर नहीं कर सकता है। मकान बनाना हो तो ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से एक भी चीज की कमी हो जाएगी, तो इमारत नहीं बन सकती है। उसी प्रकार व्यक्ति निर्माण के लिए चार चरणों की आवश्यकता है। ये चारों चरण जब भी एक साथ मिल सकेंगे, तो व्यक्ति के उत्कर्ष का आधार बनकर खड़ा हो जाएगा। मात्र एक से ही यह कार्य नहीं हो सकता है।
मित्रो! हमें युग निर्माण के लिए-नवनिर्माण के लिए दो कार्य करने हैं- पहला-जो आदमी इस उत्तरदायित्व को सँभाल रहे हैं, काम कर रहे हैं, उनका स्तर बढऩा चाहिए। दूसरा-उसका विस्तार भी होना चाहिए। हम यह चाहते हैं कि व्यक्ति स्वयं विकसित होते हुए चले जाएँ तथा दूसरों को भी विकास कार्य में सहयोग दें तथा उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयास करें, ताकि अपना विस्तार होता हुआ चला जाए। इस विस्तार के लिए शिक्षण के साथ-साथ टोलियों का कार्य बड़ा ही उत्तम रहता है। उसके माध्यम से विस्तार प्रक्रिया में तेजी आती है। टोलियों में जो काम करते हैं, वे सीखते भी हैं और सिखाते भी हैं। स्काउटिंग में जो लोग होते हैं वे सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं। टीचर-ट्रेनिंग जो होती है, उसमे वे सीखते भी जाते हैं तथा सिखाते भी जाते हैं। बुद्ध विहार में जो लोग साधना करते थे, वे साधना भी करते रहते थे तथा बाहर जाकर लोगों को सिखाते भी रहते थे। तीर्थयात्रा भी ऐसी ही प्रक्रिया थी, जो अपने आप का परिष्कार भी करते थे तथा लोकशिक्षण का काम भी करते थे। स्वयं तपते थे तथा लोगों को भी प्रेरणा देकर तप का महत्त्व समझाते थे।
साथियो! हम विचारक्रांति आंदोलन को तीव्र करना चाहते हैं ताकि लोगों के विचार करने की प्रवृत्ति बदले।इस कार्य हेतु हमें अध्यात्म के सिद्धांतों को बतलाने की आवश्यकता है, ताकि जनमानस उसे अपने जीवन में उतार सके। अत: हमें नैतिक एवं सामाजिक क्रांति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। जनसाधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि मन:स्थिति को सुधारा जाना परम आवश्यक है। अगर हम केवल भौतिकस्थिति को सुधारने का प्रयास करेंगे, तो उससे काम नहीं बनने वाला। अगर मनुष्य को भौतिक लाभ मिल भी जाए, संपत्ति आ भी जाए तो उसे उतना लाभ नहीं मिल सकेगा, जब तक कि उसका आध्यात्मिक विकास न हो जाए। अत: हमारे लिए यह आवश्यक हो गया है कि हमारे चिंतन और चरित्र में जहाँ कहीं भी विकृतियाँ आ गईं हैं, उन्हें खोज-खोजकर निकाला जाए एवं उन्हें ठीक किया जाए। इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए।
मूढ़मान्यताएँ, अवांछनीयताएँ, अंधविश्वास आदि न जाने कितनी चीजें हमारे बौद्धिक क्षेत्र में हावी हो गई हैं। हमें उसे निकालने का प्रयास करना चाहिए। उसके स्थान पर हमें विवेकशीलता तथा दूरदर्शिता की स्थापना करने का प्रयास करना चाहिए जो उचित है, उसे ही ग्रहण करें। जो उचित नहीं है, उसे झाड़कर बुहारी से हमें फेंक देना चाहिए। जनमानस को उसी प्रकार की हमें शिक्षा देनी है, ताकि अनावश्यक चीजें, जो हमारे बौद्धिक क्षेत्र में घुस पड़ी हैं, उन्हें हम हटा सकें।
दूसरी बात है-नैतिक क्रान्ति। धर्मतंत्र का दूसरा काम है-नैतिक स्तर को बनाए रखना। इसके लिए जनमानस को चरित्रनिष्ठïा की शिक्षा देनी चाहिए। इस काम को हमें अपने से प्रारंभ करना चाहिए। व्यक्तित्व की गरिमा का शिक्षण किया जाए तथा मनुष्य की आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाया जाए। नैतिकता मनुष्य की आकांक्षाओं पर टिकी हुई है। आज हर आदमी की इच्छाएँ बड़प्पन को, विलासिता को, अहंता को पूरा करने में लगी हुई हैं। अत: नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए हर आदमी को सिद्धांतों का जीवन में महत्त्व एवं सिद्धांतों के मूल्य को समझाया जाना चाहिए। आदमी को यह समझाया जाए कि बड़प्पन की अपेक्षा महानता का मूल्य ज्यादा है। महानता मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। यह भौतिक संपदाओं के साथ कदापि नहीं जुड़ी है। हमें हर आदमी को यह समझाना होगा कि आप अपने जीवन की नीति 'सादा जीवन-उच्च विचारÓ की बनाएँ। मनुष्य अगर अपने अंदर सादा जीवन अपना ले, तो उसे छल-कपट करने की,बेईमानी करने की आवश्यकता नहंी रह जाएगी।
वास्तव में बड़प्पन एवं ठाट-बाट के कारण मनुष्य की कामनाएँ बढ़ती जाती हैं और वह अपना नैतिक स्तर खो बैठता है। अगर हर मनुष्य को 'सादा जीवन-उच्च विचारÓ की बात समझायी जा सके, तो हमारा विश्वास है कि हम वैसा बन सकते हैं तथा हमारा स्तर वैसा हो सकता है, जैसा कि हम प्राचीनकाल में थे। संयम, नम्रता, सज्जनता, ईमानदारी, जिम्मेदारी, कत्र्तव्यनिष्ठïा जैसे सद्गुण हमारे स्वभाव में आ जाएँ, तो हमारे नैतिक स्तर में विस्तार हो सकता है। इस बात की जानकारी हमें जनमानस को देनी ही चाहिए, साथ ही इस मिशन के सभी कार्यकत्र्ता आंशिक, पूर्ण समयदानी-जीवनदानी को भी इसे अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए। आदर्शों एवं सिद्धांतों को वे जीवन में जिएँगे, तो हमें पक्का विश्वास है कि हमारा नैतिक स्तर बढ़े और हमारी खोई हुई गरिमा वापस मिल सकेगी।
हमारे बौद्धिक स्तर का इतना विकास होना चाहिए कि हमारे अंदर अवांछनीयता एवं अनुचित मान्यताओं के लिए कोई स्थान न हो। इस प्रकार की बातें अवश्य होनी चाहिए, ताकि किसी को भी हमारे ऊपर अँगुली उठाने का मौका न मिले और यह कहने का मौका न मिले क हम चरित्र की दृष्टिï से घटिया स्तर के बने हुए हैं। अगर हमारा स्तर बढिय़ा होगा, तो उसका प्रभाव जनमानस पर पड़ेगा तथा लोग हमारी बातों को मानने के लिए बाध्य होंगे।
तीसरा काम जो धर्मतंत्र का है, उसे सामाजिक क्रांति कहा जाता है। इसके द्वारा मनुष्य की अंत:चेतना का विकास होता है। सामाजिक क्रांति के लिए समाज के बीच में जो सामाजिक बुराइयाँ हमें दिखलाई पड़ती हैं, उन्हें हटाने के लिए विरोध एवं सामूहिक जनांदोलन करने की आवश्यकता तो है ही, श्रेष्ठï समाज बनाने के लिए जिन रचनात्मक बातों को जीवन में धारण करने की खास जरूरत है, वह वे उच्चस्तरीय सिद्धांत हैं, जो व्यक्ति को समाजपरायण बनाते हैं। 'आत्मवत् सर्वभूतेषुÓ की मान्यता जन-जन के अंत:करण में जमाई जानी चाहिए। हमारे अंदर यह मान्यता होनी चाहिए कि हम दूसरों के साथ वही व्यवहार करेंगे जिनकी हमें दूसरों से अपेक्षा रहती है। सामाजिक क्रांति के लिए यह परम आवश्यक है। हर आदमी के मन में यह गहराई से प्रवेश कर जाना चाहिए। हमें हर आदमी के भीतर 'वसुधैव कुटुम्बकम्Ó की भावना जाग्रत करनी होगी। उनकी मान्यता यह होनी चाहिए कि हमारे कुटुंब में मात्र दो-पाँच आदमी ही नहीं हैं, वरन् अनेक लोग हैं। सारी वसुंधरा के लोग हमारे हैं। जिस प्रकार हम अपने छोटे से परिवार का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार हमें पूरे समाज के लोगों का ध्यान रखना चाहिए। हमें इस तरह का ध्यान रखना तथा प्रयत्न करना आवश्यक है, ताकि लोग-सुखी संपन्न रह सकें।
इस सामाजिक क्रांति के लिए आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करना आवश्यक है, जो हमारे ऋषियों ने बनाया था। इसे हमें व्यक्तिवाद परक न होकर समाज परक बनाने की चेष्टïा करनी चाहिए। 'आत्मवत् सर्वभूतेषुÓ की मान्यता आ जाना आवश्यक है, तभी हम मिल-बाँटकर खा सकते हैं और सुखी एवं संपन्न रह सकते हैं। हम समाज में सुख बाँटने का प्रयास करें, हम उपार्जन तो करें, यह अच्छी बात है, परंतु सही उपयोग करना भी सीखें, तभी समाज में सुख-शांति आ सकती है।
समता हमारे जीवन का अंग होनी चाहिए। नर-नारी में भिन्नता भी नहीं होनी चाहिए। श्रेष्ठï समाज के लिए समता का होना परम आवश्यक है। जाति, लिंग की समानता के साथ ही आर्थिक समता भी होनी चाहिए। हममें से प्रत्येक नागरिक को श्रेष्ठï बनाने का प्रयास करना चाहिए। हममें से प्रत्येक नागरिक को सहकारिता के सिद्धांत को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। सामाजिक जीवन में हर काम की व्यवस्था बनानी चाहिए। समाज में जहाँ कहीं भी अनीति, अन्याय, अत्याचार दिखाई पड़े, उससे लडऩे के लिए हमें एवं आपको जटायु जैसा साहस दिखाना चाहिए।
आप जानते हैं कि हमारी भारत भूमि में भगवान् के जितने भी अवतार हुए हैं, उन्होंने धर्म की स्थापना एवं अधर्म के विनाश के लिए प्रयास किया है। हमारे भीतर जब कभी भी भगवान् की प्रेरणा आएगी, तो हमें दोनों ही क्रियाकलाप समान रूप से अपनाने पड़ेंगे। अपने आचरण को सुधारना तथा दूसरों के आचरण को ठीक करना परम आवश्यक है। आसपास के वातावरण में जहाँ कहीं भी आपको लगता हो कि अनैतिकता, अन्याय का बोलबाला है, तो आपको उसका डटकर विरोध करना चाहिए। इतना ही नहीं, संघर्ष के लिए भी तैयार रहना चाहिए। जहाँ कहीं भी अनाचार दिखलाई पड़ता हो, तो उससे लोहा लेने के लिए अपनी परिस्थिति के अनुसार असहयोग, संघर्ष जो भी संभव हो, अवश्य करना चाहिए। इसके लिए आप अपने अंदर साहस इक_ïा करें।
मित्रो! समाज की सुव्यवस्था इसी आधार पर संभव है। डरपोक आदमी, कायर आदमी, पाप से भयभीत होने वाले आदमी, गुंडागर्दी के भय से मुँह छिपाने वाले आदमी कभी भी इन बुराइयों को दूर नहीं कर पाएँगे और इस तरह समाज में जहाँ सुव्यवस्था की आवश्यकता है, जहाँ अनीति के निवारण की इस प्रकार की आवश्यकता है, वह पूरी न हो पाएगी।
सामाजिक क्रांति के लिए साहस एवं हिम्मत को जगाने की आवश्यकता है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए हमें इन प्रयासों को करना ही होगा। आज संपूर्ण मानव जाति जहाँ सामूहिक आत्महत्या के लिए अग्रसर हो रही है, वहीं हमें उनके उत्थान के लिए प्रयास करने होंगे। इस कार्य के लिए हमें धर्मतंत्र को पुन: जाग्रत करना होगा। बड़ा काम हमेशा बड़े साधनों से होता है। यह बड़े ही आदमी इक_ïा कर सकते हैं। यही है—हमारा लक्ष्य। हम चाहते हैं कि हर आदमी में यह जागरूकता पैदा हो। हमारा निवेदन है कि हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा को त्यागकर कुछ आगे बढ़-चढ़कर सामाजिक जीवन के लिए कदम बढ़ावें।
मित्रो, मिशन के पुनर्गठन में हमारी यही मतलब हैं कि हम नया व्यक्ति बनाएँ, नया समाज बनाएँ, नया युग लाएँ। इसके लिए हमारा एवं आपका कत्र्तव्य है कि हम व्यक्ति-निर्माण के कार्य में जुट जाएँ, ताकि श्रेष्ठï व्यक्तित्व आगे आकर मोर्चे का काम सँभाल सकें। इसके बिना समाज के नवनिर्माण का कार्य होना संभव नहीं है। हमें इसके लिए भरपूर प्रयास करना है, तभी हमारे मिशन का कार्य आगे बढ़ सकता है।
ॐ शान्ति
उपासना, साधना व आराधना
(मार्च १९८० में शांतिकुञ्ज परिसर में
दिया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! गायत्री मंत्र तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। आध्यात्मिक साधना का सारा-का-सारा माहौल तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। ये हैं- उपासना, साधना और आराधना। उपासना के नाम पर आपने अगरबत्ती जलाकर और नमस्कार करके उसे समाप्त कर दिया होगा, परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। हमने अगरबत्ती जलाकर प्रारंभ तो अवश्य किया है, पर समाप्त नहीं किया। हमने अपने जीवन में अध्यात्म के जो भी सिद्धांत हैं, उन्हें अवश्य धारण करने का प्रयास किया है। त्रिवेणी में स्नान करने की बात आपने सुनी होगी कि उसके बाद कौआ कोयल बन जाता है। हमने भी उस त्रिवेणी संगम में स्नान किया है, जिसे उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। वास्तव में यही अध्यात्म की असली शिक्षा है।
उपासना माने भगवान् के नजदीक बैठना। नजदीक बैठने का भी एक असर होता है। चन्दन के समीप जो पेड़-पौधे होते हैं, वह भी सुगंधित हो जाते हैं। हमारी भी स्थिति वैसी ही हुई। चन्दन का एक बड़ा-सा पेड़, जो हिमालय में उगा हुआ है, उससे हमने सम्बन्ध जोड़ लिया और खुशबूदार हो गये। आपने लकड़ी को देखा होगा, जब वह आग के संपर्क में आ जाती है, तो वह भी आग जैसी लाल हो जाती है। उसे आप नहीं छू सकते, कारण वह भी आग जैसी ही बन जाती है। यह क्या बात हुई? उपासना हुई, नजदीक बैठना हुआ। नजदीक बैठना, यानी चिपक जाना अर्थात् समर्पण कर देना। चिपकने की यह विद्या हमारे गुरु ने हमें सिखा दी और हम चिपकते हुए चले गये। गाँव की गँवार महिला की शादी किसी सेठ के साथ होने पर वह सेठानी, पंडित के साथ होने पर पंडितानी बन जाती है। यह सब समर्पण का चमत्कार है।
मित्रो, उपासना का मतलब समर्पण है। आपको भी अगर शक्तिशाली या महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनना है, बड़ा काम करना है, तो आपको भी बड़े आदमी के साथ, महान गुरु के साथ चिपकना होगा। आप अगर शेर के बच्चे हैं, तो आपको भी शेर होना चाहिए। आप अगर घोड़े के बच्चे हैं, तो आपको घोड़ा होना चाहिए। आप अगर संत के बच्चे हैं, तो आपको संत होना चाहिए। हमने इस बात का बराबर ख्याल रखा है कि हम भगवान् के बच्चे हैं, तो हमें भगवान् की तरह बनना चाहिए। बूँद जब अपनी हस्ती समुद्र में गिराती है, तो वह समुद्र बन जाती है। यह समर्पण है। अपनी हस्ती को समाप्त करना ही समर्पण है। अगर बूँद अपनी हस्ती न समाप्त करे, तो वह बूंद ही बनी रहेगी। वह समुद्र नहीं हो सकती है। अध्यात्म में यही भगवान् को समर्पण करना उपासना कहलाती है। भगवान् माने उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों का समुच्चय। उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों को अपने साथ मिला लेना ही उपासना कहलाती है। हमने अपने जीवन में इसी प्रकार की उपासना की है, आपको भी इसी प्रकार की उपासना करनी चाहिए।
आप लोगों को मालूम है कि ग्वाल-बाल इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने अपनी लाठी के सहारे गोवर्धन को उठा लिया था। इसी तरह रीछ-बन्दर इतने शक्तिशाली थे कि वे बड़े-बड़े पत्थर उठाकर लाये और समुद्र में सेतु बनाकर उसे लाँघ गये थे। क्या यह उनकी शक्ति थी? नहीं बेटे, यह भगवान् श्रीकृष्ण एवं राम के प्रति उनके समर्पण की शक्ति थी, जिसके बल पर वे इतने शक्तिशाली हो गये थे। भगवान् के साथ, गुरु के साथ मिल जाने से, जुड़ जाने से आदमी न जाने क्या से क्या हो जाता है। हम अपने गुरु से- भगवान् से जुड़ गये, तो आप देख रहे हैं कि हमारे अन्दर क्या-क्या चीजें हैं। आप कृपा करके मछली पकडऩे वालों, चिडिय़ा पकडऩे वालों के तरीके से मत बनना और न इस तरह की उपासना करना, जो आटे की गोली और चावल के दाने फेंककर उन्हें फँसा लेते और पकड़ लेते हैं तथा कबाब बना लेते हैं। आप ऐसे उपासक मत बनना, जो भगवान् को फँसाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन फेंकता है। बिजली का तार लगा हो, परन्तु उसका सम्बन्ध जनरेटर से न हो तो करेण्ट कहाँ से आयेगा? उसी तरह हमारे अंदर अहंकार, लोभ, मोह भरा हो, तो वे चीजें हम नहीं पा सकते हैं। जो भगवान् के पास हैं। अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी आप तभी हो सकते हैं, जब आप उनका ध्यान रखते हों, उनके आदर्शों पर चलते हों। आप केवल यह कहें कि हम तो उन्हें पिताजी-पिताजी कहते थे तथा अपना सारा वेतन अपनी पॉकेट में रखते थे और उनकी हारी-बीमारी से हमारा कोई लेना-देना नहीं था, तो फिर आपको उनकी सम्पत्ति का कोई अधिकार नहीं मिलने वाला है।
साथियो, हमने भगवान् को देखा तो नहीं है, परन्तु अपने गुरु को हमने भगवान् के रूप में पा लिया है। उनको हमने समर्पण कर दिया है। उनके हर आदेश का पालन किया है। इसलिए आज उनकी सारी सम्पत्ति के हम हकदार हैं। आपको मालूम नहीं है कि विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस को देखा था, स्वामी दयानन्द ने विरजानन्द को देखा था। चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त का नाम सुना है न आपने। उनके गुरु ने जो उनको आदेश दिये, उनका उन्होंने पालन किया। गुरुओं ने शिष्यों को, भगवान ने भक्तों को जो आदेश दिये, वे उनका पालन करते रहे। आपने सुना नहीं है, एक जमाने में समर्थ गुरु रामदास के आदेश पर शिवाजी लडऩे के लिए तैयार हो गये थे। उनके एक आदेश पर वे आजादी की लड़ाई के लिए तैयार हो गये। यही सपर्मण का मतलब है। आपको मालूम नहीं है कि इसी समर्पण की वजह से समर्थ गुरु रामदास की शक्ति शिवाजी में चली गयी और वे उसे लेकर चले गये।
आपने नदी को देखा होगा कि वह कितनी गहरी होती है। चौड़ी एवं गहरी नदी को कोई आसानी से पार नहीं कर सकता है, किन्तु जब वह एक नाव पर बैठ जाता है, तो नाव वाले की सह जिम्मेदारी होती है कि वह नाव को भी न डूबने दे और वह व्यक्ति जो उसमें बैठा है, उसे भी न डुबाये। इस तरह नाविक उस व्यक्ति को पार उतार देता है। ठीक उसी प्रकार जब हम एक गुरु को, भगवान् को, नाविक के रूप में समर्पण कर देते हैं, तो वह हमें इस भवसागर से पार कर देता है। हमारे जीवन में इसी प्रकार घटित हुआ है। हमने अपने गुरु को भगवान् बना लिया है। हमने उन्हें एकलव्य की तरह से अपना सर्वस्व मान लिया है। हमने उन्हें एक बाबाजी, स्वामी जी गुरु नहीं माना है, बल्कि भगवान् माना है। हमारे पास इस प्रकार भगवान् की शक्ति बराबर आती रहती है। हमने पहले छोटा बल्व लगा रखा था, तो थोड़ी शक्ति आती थी। अब हमने बड़ा बल्व लगा रखा है, तो हमारे पास ज्यादा शक्ति आती रहती है। हमें जब जितना चाहिए, मिल जाता है। हमें आगे बडी़-बड़ी फैक्टरियाँ लगानी हैं, बड़ा काम करना है। अत: हमने उन्हें बता दिया है कि अब हमें ज्यादा 'पावरÓ ज्यादा शक्ति की आवश्यकता है। आप हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बना दीजिए। अब वे हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बनाने जा रहे हैं। आपको भी अगर लाभ प्राप्त करना है, तो हमने जैसे अपने गुरु को माना और समर्पण किया है, आप भी उसी तरह मानिये तथा समर्पण कीजिए। उसी तरह कदम बढ़ाइये। हमने उपासना करना सीखा है और अब हम हंस बन गये हैं। आपको भी यही चीज अपनानी होगी। इससे कम में उपासना नहीं हो सकती है। आप पूरे मन से, पूरी शक्ति से उपासना में मन लगाइये और वह लाभ प्राप्त कीजिए जो हमने प्राप्त किये हैं। यही है उपासना।
साधना किसकी की जाए? भगवान् की? अरे भगवान् को न तो किसी साधना की बात सुनने का समय है और न ही उसे साधा जा सकता है। वस्तुत: जो साधना हम करते हैं, वह केवल अपने लिए होती है और स्वयं की होती है। साधना का अर्थ होता है-साध लेना। अपने आपको सँभाल लेना, तपा लेना, गरम कर लेना, परिष्कृत कर लेना, शक्तिवान बना लेना, यह सभी अर्थ साधना के हैं। साधना के संदर्भ में हम आपको सर्कस के जानवरों का उदाहरण देते रहते हैं कि हाथी, घोड़े, शेर, चीजे जब अपने को साध लेते हैं, तो कैसे-कैसे चमत्कार दिखाते हैं। साधे गये ये जानवर अपने मालिक का पेट पालने तथा सैकड़ों लोगों का मनोरंजन करने, खेल दिखाने में समर्थ होते हैं। इन जानवरों को साध लिया गया होता है, जो सैकड़ों लोगों को प्राविडेण्ट फण्ड देते हैं, पेमेण्ट देते हैं, उनका पालन करते हैं। ये कैसे साधे जाते हैं। बेटे, यह रिंगमास्टर के हण्टरों से साधे जाते हैं। वह उन्हें हण्टर मार-मारकर साधता है। अगर उन्हें ऐसे ही कहा जाए कि भाईसाहब आप इस तरह का करतब दिखाइये, तो इसके लिए वे तैयार नहीं होंगे, वरन उल्टे आपके ऊपर, मास्टर के ऊपर हमला कर देंगे।
साधना में भी यही होता है। मनुष्य के, साधक के मन के ऊपर चाबुक मारने से, हण्टर मारने से, गरम करने से, तपाने से वह काबू में आ जाता है। इसीलिए तपस्वी तपस्या करते हैं। हिन्दी में इसे 'साधनाÓ कहते हैं और संस्कृत में 'तपस्याÓ कहते हैं। यह दोनों एक ही हैं। अत: साधना का मतलब है—अपने आपको तपाना। खेत की जोताई अगर ठीक ढंग से नहीं होगी, तो उसमें बोवाई भी ठीक ढंग से नहीं की जा सकेगी। अत: अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए पहले खेत की जोताई करना आवश्यक है, ताकि उसमें से कंकड़-पत्थर आदि निकाल दिए जाएँ। उसके बाद बोवाई की जाती है। कपड़ों की धुलाई पहले करनी पड़ती है, तब उसकी रँगाई होती है। बिना धुलाये कपड़ों की रँगाई नहीं हो सकती है। काले, मैले-कुचैले कपड़े नहीं रँगे जा सकते हैं।
मित्रो, उसी प्रकार से राम का नाम लेना एक तरह से रँगाई है। राम की भक्ति के लिए साफ-सुथरे कपड़ों की आवश्यकता है। माँ अपने बच्चों को गोद में लेती है, परन्तु जब बच्चा टट्टïी कर देता है, तो वह उसे गोद में नहीं उठाती है। पहले उसकी सफाई करती है, उसके बाद उसके कपड़े बदलती है, तब गोद में लेती है। भगवान् भी ठीक उसी तरह के हैं। वे मैले-कुचैले प्रवृत्ति के लोगों को पसन्द नहीं करते हैं। यहाँ साफ-सुथरा से मतलब कपड़े से नहीं है, बल्कि भीतर से है-अंतरंग से है। इसी को स्वच्छ रखना, परिष्कृत करना पड़ता है। तपस्या एवं साधना इसी का नाम है। अपने अन्दर जो बुराइयाँ हैं, भूले हैं, कमियाँ हैं, दोष-दुर्गुण हैं, कषाय-कल्मष हैं, उसे दूर करना व उनके लिए कठिनाइयाँ उठाना ही साधना या तपस्या कहलाती है। इसी का दूसरा नाम पात्रता का विकास है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा के समय आप बाहर जो भी पात्र रखेंगे-कटोरी, गिलास जो कुछ भी रखेंगे, उसी के अनुरूप उसमें जल भर जाएगा। इसी तरह आपकी पात्रता जितनी होगी, उतना ही भगवान् का प्यार, अनुकम्पा आप पर बरसती चली जाएगी।
घोड़ा जितना तेजी से दौड़ सकता है, उसी के अनुसार उसका मूल्य मिलता है। गाय जितना दूध देती है, उसी के अनुसार उसका मूल्यांकन होता है। अगर आपके कमण्डलु में सुराख है, तो उसमें डाला गया पदार्थ बह जाएगा। नाव में अगर सुराख है, तो नाव पार नहीं हो सकती है। वह डूब जाएगी। अत: आप अपने बर्तन को बिना सुराख के बनाने का प्रयत्न करें। हमने सारी जिन्दगी भर इसी सुराख को बन्द करने में अपना श्रम लगाया है। वासना, तृष्णा और अहंता-यही तीन सुराख हैं, जो मनुष्य को आगे नहीं बढऩे देते हैं। इन्हें ही भवबन्धन कहा गया है। अगर आपका मन संसार की ओर अधिक लगा हुआ है, तो आप आध्यात्मिकता की ओर कैसे बढ़ पाएँगे? फिर आपका मन पूजा-उपासना में कैसे लगेगा? आप इस दिशा में आगे कैसे बढ़ेंगे? गोली चलाने वाला अगर निशाना न साधे, तो उसका काम कैसे चलेगा? वह कभी इधर को भटके, कभी उधर को भटके, तो उससे निशाना कैसे साधा जाएगा? बीस जगह ध्यान रहा, तो आप विजेता नहीं बन सकते हैं। भगवान् आपको अपनाने के लिए हाथ बढ़ा रहा है, परन्तु ये तीन हथकडिय़ाँ वासना, तृष्णा एवं अहंता आपको भगवान् तक पहुँचने में रुकावट पैदा कर रही हैं। आपको इनसे लोहा लेना होगा। आप अगर अपने हाथों को नहीं खोलेंगे, तो भगवान् की गोद में आप कैसे जाएँगे?
मित्रो, साधना में आपको अपने मन को समझाना होगा। अगर मन नहीं मानता है, तो आपको उसकी पिटाई करनी होगी। बैल जब खेतों में हल नहीं खींचता है तथा घोड़ा जब रास्ते पर चलने अथवा दौडऩे को तैयार नहीं होता है, तो उसकी पिटाई करनी पड़ती है। हमने अपने आपको इतना पीटा है कि उसका कहना नहीं। हमने अपने आपको इतना धुलने का प्रयास किया है कि उसे हम कह नहीं सकते। इस प्रकार धुलाने के कारण हम फकाफक कपड़े के तरीके से आज धुले हुए उज्ज्वल हो गये। हमने अपने आपको रूई की तरह से धुनने का प्रयास किया है, जो धुनने के पश्चात फूलकर इतनी स्वच्छ औरमोटी हो जाती है कि उससे नयी चीज का निर्माण होता है।
भगवान् का भजन करने एवं नाम लेने के लिए अपना सुधार करना परम आवश्यक है। वाल्मीकि ने जब यह काम किया, तो भगवान् के परमप्रिय भक्त हो गये। उनकी वाणी में एक ताकत आ गयी। उसने डकैती छोड़ दी, उसके बाद भगवान् का नाम लिया, तो काम बन गया। कहने का मतलब यह है कि आप अपने आपको धोकर इतना निर्मल बना लें कि भगवान् आपको मजबूर होकर प्यार करने लग जाए। राम नाम के महत्त्व से ज्यादा आपकी जीभ का महत्त्व है। आप जीभ पर कंट्रोल रखिए, तब ही काम बनेगा। जीभ पर काबू रखें, आप ईमानदारी की कमाई खाएँ, बेईमानी की कमाई न खाएँ।
हमने अपनी जीभ को साफ किया है। उसे इस लायक बनाया है कि गुरु का नाम लेकर जो भी वरदान देते हैं, वह सफल हो जाता है। आप भी जीभ को ठीक कीजिए न! आप अपने आपको सही करें। अपने जीवन में सादा जीवन उच्च विचार लाएँ। इस सिद्धान्त को जीवन का अंग बनाने से ही काम बनेगा। आपको खाने के लिए दो मु_ïी अनाज और तन ढँकने के लिए थोड़ा-सा कपड़ा चाहिए, जो इस शरीर के द्वारा आप सहज ही पूरा कर सकते हैं। फिर आप अपने जीवन को शुद्ध एवं पवित्र क्यों नहीं बनाते। अगर यह काम करेंगे, तो आप भगवान् की गोदी के हकदार हो जाएँगे। ऐसा बनकर आदमी बहुत कुछ काम कर सकता है।
सादा जीवन के माने है-कसा हुआ जीवन। आपको अपना जीवन सादा बनाना होगा। माल-मजा उड़ाते हुए, लालची और लोभी रहते हुए आप चाहें कि राम नाम सार्थक हो जाएगा? नहीं कभी सार्थक नहीं होगा। हमारे गुरु ने, हमारे महापुरुषों ने हमें यही सिखाया है कि जो आदमी महान बने, ऊँचे उठे हैं, उन सभी ने अपने आपको तपाया है। आप किसी भी महापुरुष का इतिहास उठाकर पढ़कर देखें, तो पायेंगे कि अपने को तपाने के बाद ही उन्होंने वर्चस्व प्राप्त किया और फिर जहाँ भी वे गये चमत्कार करते चले गये। तलवार से सिर काटने के लिए उसे तेज करना पड़ता है, पत्थर पर घिसना पड़ता है। आपको भी प्रगति करने के लिए अपने आपको तपाना होगा, घिसना होगा । हमने एक ही चीज सीखी है कि अपने आपको अधिक से अधिक तपाएँ, अधिक से अधिक घिसें, ताकि हम ज्यादा-से-ज्यादा समाज के काम आ सकें। समाज की सेवा करना ही हमारा लक्ष्य है। अगर आप भी ऐसा कर सकें, तो बहुत फायदा होगा, जैसा कि हमें हुआ है।
साधना के पश्चात आराधना की बात बताता हूँ आपको कि आराधना क्या है और किसकी की जानी चाहिए? आराधना कहते हैं-समाजसेवा को, जन कल्याण को। सेवाधर्म वह नकद धर्म है, जो हाथोंहाथ फल देता है। इसमें पहले बोना पड़ता है। आज से साठ वर्ष पूर्व हमारे पूज्य गुरुदेव ने हमारे घर पर आकर दीक्षा दी और यह कहा कि तुम बोने और काटने की बात मत भूलना। कहीं से भी कोई चीज फोकट में नहीं मिलती है, चाहे वे गुरु हों या भगवान् हों। हाँ, यह हो सकता है कि बोया जाए और काटा जाए। हम मक्के का एक बीज बोते हैं, तो न जाने कितने हजार हो जाते हैं। वही बाजरे के साथ भी होता है। उन्होंने हमसे कहा कि बेटे, फोकट में खाने की विद्या एवं माँगने की विद्या छोड़कर बोने और काटने की विद्या सीख, इससे ही तुम्हें फायदा होगा। उन्होंने इसके लिए विधान भी बतलाया कि तुम्हें चौबीस साल तक गायत्री के महापुरश्चरण करने होंगे। इस समय जौ की रोटी एवं छाछ पर रहना होगा। उन्होंने जो भी विधि हमें बतायी, उसे हमने नोट कर लिया था। इसमें उन्होंने हमें एक नयी विधि बतलायी। वह विधि बोने और काटने की थी। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी तेरे पास है, उसे भगवान् के खेत में बो दो। उन्होंने यह भी कहा कि तीन चीजें भगवान् की दी हुई हैं और एक चीज तुम्हारी कमाई हुई है।
शरीर, बुद्धि और भावना-ये तीन चीजें जो भगवान् ने दी हैं। यह तीन शरीर-स्थूल, सूक्ष्म और कारण के प्रतीक हैं। इसमें तीन चीजें भरी रहती हैं- स्थूल में श्रम, समय। सूक्ष्म में मन, बुद्धि। कारण में भावना। इसके अलावा जो चौथी चीज है, वह है धन—सम्पदा, जो मनुष्य कमाता है। इसे भगवान् नहीं देता है। भगवान् न किसी को गरीब बनाता है, न अमीर। भगवान् न किसी को धनवान बनाता है, न कंगाल बनाता है। यह तेरा बनाया हुआ है, इसे तू बोना शुरू कर। हमने कहा कि कहाँ बोया जाए? उन्होंने कहा कि भगवान् के खेत में। हमने पूछा कि भगवान् कहाँ है और उनका खेत कहाँ है? उन्होंने हमें इशारा करके बतलाया कि यह सारा विश्व ही भगवान् का खेत है। यह भगवान् विराट् है। इसे ही विराट् ब्रह्मï कहते हैं। अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण ने इसी विराट् ब्रह्मï का दर्शन कराया था। उन्होंने दिव्यचक्षु से उनका दर्शन कराया था। यही उन्होंने कौशल्या जी को दिखाया था। हमारे गुरु ने कहा कि जो कुछ भी करना हो, इसी समग्र सृष्टिï के लिए करना चाहिए। यही भगवान् की वास्तविक पूजा कहलाती है। इसे ही आराधना कहते हैं।
उन्होंने हमें आदेश दिया कि तू इसी विराट् ब्रह्मï के खेत में बो। अर्थात् जनसमाज की सेवा कर। जनसमाज का कल्याण करने, उसे ऊँचा उठाने, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में अपनी समस्त शक्तियाँ एवं सम्पदा लगा, फिर आगे देखना कि यह सौ गुनी हो जाएँगी। जो भी तीन-चार चीजें तेरे पास हैं, उसे लगा दे, तुझे ऋद्धि-सिद्धियाँ मिल जाएँगी। यह सब तेरे पीछे घूमेंगी। तू मालदार हो जाएगा। अब हम तैयार हो गये। हमने विचार दृढ़ बना लिया। उन्होंने पूछा कि क्या चीजें हैं तेरे पास? हमने कहा कि हमारा शरीर है। हमने सूर्योदय से पहले भगवान् का नाम लिया है अर्थात् भजन किया है, बाकी समय हमने भगवान् का काम किया है। सूर्य निकलने से लेकर सूर्य डूबने तक सारा समय भगवान् के लिए लगाया, समाज के लिए लगाया है।
दूसरी, बुद्धि है हमारे पास। आज लोगों की बुद्धि न जाने किस-किस गलत काम में लग रही है। आज लोग अपनी बुद्धि को मिलावट करने, तस्करी करने, गलत काम करने में खर्च कर रहे हैं। हमने निश्चय किया कि हम अपनी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाएँगे तथा इससे समाज, देश को ऊँचा उठाने का प्रयास करेंगे। हमने अपनी अक्ल एवं बुद्धि को यानी अपने सारे-के-सारे मन को भगवान् के कार्य में लगाया।
और क्या था हमारे पास? हमारे पास थी भावना-संवदेना। यह भी हमने अपने कुटुम्बियों के लिए, बेटे-बेटी के लिए नहीं लगाई। हमने अपनी भावना एवं संवदेना के माध्यम से इस संसार में रहने वाले व्यक्तियों के दु:खों के निवारण के लिए हमेशा उपयोग किया। हमने हमेशा यह सोचा कि हमारे पास कुछ है, तो उसे किस तरह से बाँट सकते हैं? अगर किसी के पास दुख है, तो उसे किस तरह से दूर कर सकते हैं। यही हमने अपने पूरे जीवनकाल में किया है। इसके अलावा जो भी धन था, उसे भी भगवान् के कार्य में खर्च कर दिया। इससे हमें बहुत मिला, इतना अधिक मिला कि हम आपको बतला नहीं सकते। हमें लोग कितना प्यार करते हैं, यह आपको नहीं मालूम। लोग यहाँ आते हैं, तो यह कहते हैं कि हमें गुरुजी का दर्शन मिल जाता, तो कितना अच्छा होता। यह क्या है? यह है हमारा प्यार, मोहब्बत, जो हमने उन्हें दी है तथा उनसे हमने पायी है। गाँधी जी ने भी दिया था एवं उन्होंने भी पाया है। हमने तो कहीं अधिक पाया है। मरने के बाद तो कितने ही व्यक्तियों की लोग पूजा करते हैं। भगवान् बुद्ध की पूजा करते हैं। मरने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण की जय बोलते हैं, जबकि उस समय लोगों ने उन्हें गालियाँ दी थीं। हमारे मरने के बाद कोई आरती उतारेगा कि नहीं, मैं यह नहीं कह सकता, परन्तु आज कितने लोगों ने आरती उतारी है, प्यार किया है, इसे हम बतला नहीं सकते। यह क्या हो गया? यह है हमारा 'बोया एवं काटाÓ का सिद्धान्त। यह है हमारी आराधना-समाज के लिए, भगवान् के लिए।
मित्रो, हमने पत्थर की मूर्ति के लिए नहीं, वरन् समाज के लिए काम किया है। पत्थर की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते हैं। समाज को ही भगवान् कहते हैं। हमने ऐसा ही किया है। हमें दो मालियों की कहानी हमेशा याद रहती है। एक राजा ने एक बगीचा एक माली को दिया तथा दूसरा बगीचा दूसरे माली को। एक ने तो बगीचे में राजा का चित्र लगा दिया और नित्य चन्दन लगाता, आरती उतारता तथा एक सौ आठ परिक्रमा करता रहा। इसके कारण बगीचे का कार्य उपेक्षित पड़ा रहा। बगीचा सूखने लगा।
दूसरा माली तो राजा का नाम भी भूल गया, परन्तु वह निरन्तर बगीचे में खाद-पानी डालने, निराई करने का काम करता रहा। इससे उसका बगीचा हरियाली से भरा-पूरा होता चला गया। राजा एक वर्ष बाद बगीचा देखने आया, तो पहले वाले माली को उसने हटा दिया, जो एक सौ आठ परिक्रमा करता और आरती उतारता था। दूसरे उस माली का अभिनन्दन किया, उसे ऊँचा उठा दिया, जिसने वास्तव में बगीचे को सुन्दर बनाने का प्रयास किया था।
हमारा भगवान् भी उसी तरह का है। उन्होंने कहा था कि जो कुछ भी करना भगवान् के लिए करना, समाज के लिए करना। हमने सारी जिन्दगी इसी तरह का काम किया है और जितना किया है, उतना पा लिया है। आगे जो हम करेंगे, उसके एवज में भी हम पाते रहेंगे। आपका तो हमेशा दिल धड़कता रहता है। आपको तो भगवान् का नाम लेना सहज मालूम पड़ता है, पर भगवान् का काम करना मुश्किल पड़ता है तथा उसके लिए पैसा लगाना तो और भी मुश्किल मालूम पड़ता है। यह आपके लिए मुश्किल हो सकता है, परन्तु हमारे लिए तो यह एकदम सरल है। हमारे दिमाग, शरीर, साहित्य, हमारी प्लानिंग को देख लीजिए, यह हमारी सिद्धियाँ हैं। ज्ञान की थाह आप ले लीजिए, हमारे धन की जानकारी ले लीजिए, हमारी भावना को देख लीजिए, कितने लोग हमारे दर्शन को लालायित रहते हैं। यह सारी हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ हैं। ऋद्धियाँ तो हमारी दिखलाई नहीं पड़ती। हमें खूब आराम से नींद आ जाती है, पास में नगाड़ा भी बजता रहे, तो भी कोई परवाह नहीं। चिन्ता हमारे पास नहीं है। हम निर्भीक हैं। आत्मसंतोष हमारी ऋद्धि है। हमारा लोकसम्मान बहुत है। लोकसम्मान उसे कहते हैं- जिसमें जनता का सहयोग मिलता है। भगवान् का अनुग्रह भी हमें मिला है। अनुग्रह कैसा होता है, कहते हैं कि देवता ऊपर से फूल बरसाते हैं। हमारे ऊपर हमेशा फूल बरसते रहते हैं, जिसे हम प्रोत्साहन, साहस, हिम्मत, प्रेरणा, उत्साह, उम्मीद कह सकते हैं। देवता इसे हमारे ऊपर बरसाते रहते हैं।
मित्रो, हम अपने पिता के वफादार बेटे हैं। हमने उनके धन को पाया है, क्योंकि हमने उनके नाम को बदनाम नहीं किया है। हमने अपने पिता की लाज रखी है। हमने अपने पिता के व्यवसाय को जिंदा रखा है हमने उनके बगीचे को हमेशा हरा-भरा तथा अच्छा बनाने का प्रयास किया है। मनुष्यों को सुसंस्कारी तथा समुन्नत बनाने के लिए जो भी संभव था, उसे हमने पूरा किया है। हमारे पिता हमसे हमेशा प्रसन्न रहते हैं। युवराज वह होता है, जो अपने पिता के समान हो जाता है। हम अपने पिता के युवराज हैं। हम अपने पिता के समकक्ष हो गये हैं। हमने पिता को गुम्बज की आवाज-प्रतिध्वनि के रूप में देखा है। जो शब्द हमने कहा-वैसा ही सुनने को मिला। हमने कहा कि जो कुछ भी हमारे पास है, वह आपका है। उसने भी ऐसा ही कहा कि जो कुछ हमारे पास है, वह तुम्हारा है। हमने कहा कि हमें नहीं चाहिए आपका, उसने भी वैसा ही कहा।
भगवान् हमेशा हमारे बॉडीगार्ड के रूप में फिरता रहता है। वह कहता है कि कभी भी हिम्मत मत हारना, साहस मत खोना, किसी से डरना मत। जो तुम्हें तंग करेगा, उसे हम ठीक कर देंगे। उसकी नाक में दम कर देंगे। वह परेशान एवं हैरान हो जाएगा। उसे हम धूल में मिला देंगे। हमारा बॉडीगार्ड आगे-आगे चलता है। हम उसके पीछे चलते हैं। हमारा पायलट आगे चलता है, बॉडीगार्ड पीछे चलता है। हम सुरक्षित होकर मिनिस्टर के तरीके से शानदार ढंग से चलते हैं। यह हमारा प्रत्यक्ष चमत्कार है, जो आप देख रहे हैं।
आध्यात्मिक क्षेत्र में सिद्धि पाने के लिए अनेक लोग प्रयास करते हैं, पर उन्हें सिद्धि क्यों नहीं मिलती है? साधना से सिद्धि पाने का क्या रहस्य हैï? इस रहस्य को न जानने के कारण ही प्राय: लोग खाली हाथ रह जाते हैं। मित्रो, साधना की सिद्धि होना निश्चित है। साधना सामान्य चीज नहीं है। यह असामान्य चीज है। परन्तु साधना को साधना की तरह किया जाना परम आवश्यक है। साधना कैसी होनी चाहिए इस सम्बन्ध में हम आपको पुस्तकों का हवाला देने की अपेक्षा एक बात बताना चाहते हैं, जिसकी आप जाँच-पड़ताल कभी भी कर सकते हैं।
हम पचहत्तर साल के हो गये हैं। कहने का मतलब यह है कि हमारे पूरे ७५ साल साधना में व्यतीत हुए हैं। यह हमारा जीवन एक खुली पुस्तक के रूप में है। हमने साधना की है। उसका परिणाम मिला है और जो कोई भी साधना करेगा, उसे भी परिणाम अवश्य मिलेगा। हमें कैसे मिला, इसके संदर्भ में हम दो घटनाएँ सुनाना चाहते हैं।
पहली बार हमारे पिताजी हमें महामना मदनमोहन मालवीय जी के पास यज्ञोपवीत एवं दीक्षा दिलाने के लिए बनारस ले गये थे। मालवीय जी ने काशी में हमें यज्ञोपवीत भी पहनाया और दीक्षा भी दी। उस समय उन्होंने हमें बहुत-सी बातें बतलायीं। उस समय हमारी उम्र बहुत कम यानी ९ वर्ष की थी, परन्तु दो बातें हमें अभी भी ज्ञात हैं। पहली बात उन्होंने कहा कि हमने जो गायत्रीमंत्र की दीक्षा दी है, वह ब्राह्मïणों की कामधेनु है। हमने पूछा कि क्या यह अन्य लोगों की नहीं है? उन्होंने कहा कि नहीं, ब्राह्मïण जन्म से नहीं, कर्म से होता है। जो ईमानदार, नेक, शरीफ है तथा जो समाज के लिए, देश के लिए, लोकहित के लिए जीता है, उसे ब्राह्मïण कहते हैं। एक औसत भारतीय की तरह जो जिए तथा अधिक से अधिक समाज के लिए लगा दे, उसे ब्राह्मïण कहते हैं। गाँधीजी ने भी राजा हरिश्चन्द्र का नाटक देखकर यह वचन दिया था कि हम हरिश्चन्द्र होकर जियेंगे। वे इस तरह का जीवन जिए भी। हमने भी मालवीय जी के सामने यह संकल्प लिया था कि हम ब्राह्मïण का जीवन जियेंगे। हमने वैसा ही जीवन प्रारम्भ से जिया है।
हमारे दूसरे आध्यात्मिक गुरु, जो हिमालयवासी हैं और जो सूक्ष्म-शरीरधारी हैं, उन्होंने हमारे घर में प्रकाश के रूप में आकर दीक्षा दी। उन्होंने हमें पूर्व जन्म की बातें दिखलाईं। उसके बाद उन्होंने हमें गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। हमने कहा कि गायत्री मंत्र की दीक्षा तो हम पहले से लिए हुए हैं, फिर दोबारा देने का क्या अर्थ है? उन्होंने कहा कि आपके पहले गुरु ने यह कहा था कि यह ब्राह्मïणों की गायत्री है। अब हम यह बतलाते हैं कि बोओ और काटो। इस मंत्र के अनुसार हमने अपने पिता की सम्पत्ति को भी लोकमंगल में लगा दिया। हमने बोया और पाया है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि इसके अलावा अन्य चार चीजों को भगवान् के खेत में लगाना चाहिए। समय, श्रम, बुद्धि-जो भगवान् से मिली है। धन वह है, जो संसार में कमाया जाता है। ये चारों चीजें हमने समाज में लगा दीं। इसके द्वारा हमारी पूजा, उपासना एवं साधना हो गयी। हमारे ब्राह्मïण-जीवन का यही चमत्कार है। यही मेरी पूजा है।
समय के बारे में आप देखना चाहें, तो इन पचहत्तर वर्षों में हमने क्या किया है, कितना किया है, वह आप देख सकते हैं। हमने भगवान् यानी जो अच्छाइयों का समुच्चय है, उसे समर्पण करके यह सब किया है। हमारी उपासना और साधना ऐसी है कि हमने सारी जिन्दगी भर धोबी के तरीके से अपने जीवन को धोया है और अपनी कमियों को चुन-चुनकर निकालने का प्रयत्न किया है। आराधना हमने समाज को ऊँचा उठाने के लिए की है। आप यहाँ आइये और देखिये, अपने मुख से अपने बारे में कहना ठीक बात नहीं है। आप यहाँ आइये और दूसरों के मुख से सुनिये। हम सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, असामान्य व्यक्ति हैं। यह हमें उपासना, साधना और आराधना के द्वारा मिला है। आप अगर इन तीनों चीजों का समन्वय अपने जीवन में करेंगे, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपको साधना से सिद्धि अवश्य मिलेगी।
हमारे जो भी सहयोगी, सखा, सहचर एवं मित्र हैं, उनसे हम यही कहना चाहते हैं कि आप केवल अपने तथा अपने परिवार के लिए ही खर्च मत कीजिए, वरन् कुछ हिस्सा भगवान् के लिए भी खर्च कीजिए। साथ ही हम यह भी कहते हैं कि बोइये और काटिये। फिर देखिये कि जीवन में क्या-क्या चमत्कार होते हैं। आप जनहित में, लोकमंगल में, पिछड़ों को ऊँचा उठाने में अपना श्रम, समय, साधन लगाएँ। अगर आप इतना करेंगे, तो विश्वास रखिये आपको साधना से सिद्धि मिल सकती है। हमने इसी आधार पर पाया है और आप भी पा सकेंगे, परन्तु आपको सही रूप से इन तीनों को पूरा करना होगा। आपकी साधना तब तक सफल नहीं होगी, जब तक आप हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलेंगे। यदि आप हमारे कंधे से कंधा मिलाकर और कदम से कदम मिलाकर चल सकें, तो हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आपका जीवन धन्य हो जाएगा, पीढिय़ाँ आपको श्रद्धापूर्वक याद रखेंगी। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति:
महाकाल का सहभागी बनें
(गुरुपूर्णिमा पर्व १९८० पर दिया गया
पावन संदेश)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो!
आज गुरुपूर्णिमा पर्व के महत्त्वपूर्ण पर्व पर महाकाल ने कुछ विशेष संदेश भेजा है। इनमें से पहला संदेश यह है कि युगसंधि के ये बीस साल इतने महत्त्वपूर्ण हैं, जो पीढिय़ों तक याद रहेंगे। इस समय महाकाल कुछ गलाई करने जा रहे हैं एवं कुछ ढलाई करने जा रहे हैं। बेकार की चीजों-बेकाम की चीजों की गलाई होने जा रही है। बेकार के आदमी एवं बेकार की परिस्थितियाँ सब गलने जा रही हैं। गल करके उनकी ढलाई होगी, नये पुर्जे बनने वाले हैं। नयी चीजें बनने वाली हैं। इन बीस वर्षों में बहुत ही जोरों के साथ गलाई एवं ढलाई का काम चलेगा। इतिहास इस बात को याद करेगा कि बीस वर्षों में सड़ी-गली व्यवस्थाएँ एवं व्यक्ति कैसे समाप्त हो गये और किस प्रकार नया प्रभात हुआ। अब नये व्यक्ति, नयी परम्पराएँ, नये चिन्तन उभर कर आयेंगे। अगले दिनों लोग यह सोचकर अचम्भा करेंगे कि इतने कम समय में इतना परिवर्तन कैसे हो गया। अगर इस समय को आप जान पायें, पहचान पायें तो हमारा ख्याल है कि आप सच्चे अर्थोे में पुण्यवान बन सकते हैं।
हमें महाकाल ने संदेश भेजा है कि आप लोग इन बीस वर्षों में कीड़े-मकोड़ों के जीवन से ऊँचा उठकर जीवन जियें और कुछ काम करें। आपको औलाद की चिन्ता करते-करते करोड़ों वर्ष हो गये। धन की चिन्ता करते-करते करोड़ों वर्ष हो गये। अगर आप चाहें, तो और करोड़ोंं वर्ष, करोड़ों जन्म इसी प्रकार के कार्यों में खर्च कर सकते हैं। इसमें आपको कुछ मिलने वाला नहीं है। आप अगर हमारी बात मानें, तो अपने कुछ व्यवहार एवं चिन्तन इस समय बदल दें। इससे आपको लाभ ही लाभ मिलेगा। आपकी परेशानी दूर हो जाएँगी, अगर आप जमाखोरी करना बन्द कर दें। महाकाल ने दो कार्य बन्द करने को कहा है, सो आप अपनी औलाद एवं धन की बात करना अभी बन्द कर दें। हम आपको बतलाना चाहते हैं कि जार्ज वाशिंगटन ने अपने पुरुषार्थ के बल पर इज्जत एवं धन प्राप्त किया था। भगवान् ने उन्हें जन्म से ही नहीं दिया था। आप भी ये चीजें प्राप्त कर सकते हैं। आप क्यों बंधनों में जकड़ कर मर रहे हैं। आप अपनी हथकडिय़ों को ढीला कर दीजिए। महाकाल चाहते हैं कि आपका इन दिनों भौतिक चीजों से मन खट्टïा हो जाए। जब इस प्रकार का मन आपका इस युगसंधि के समय बन जाएगा, तो हम विश्वास दिलाना चाहते हैं कि आपके पास समय की कमी नहीं रहेगी। आपके पास धन-दौलत की कमी नहीं रहेगी। आप जो भी काम चाहेंगे, उसे पूरा कर सकते हैं। पुरुषार्थ की कमी नहीं होगी।
अत: इस समय हमारा एक ही निवेदन है कि आप महाकाल के, प्रज्ञावतार के सहयोगी का रोल अदा करें। यह संदेश महाकाल ने, प्रज्ञावतार ने, हमारे गुरुदेव ने भेजा है। आप इस काम को कर पायेंगे, तो सारा संसार आपकी सराहना करेगा तथा आप अपने आप भी अपनी सराहना करेंगे। अगर आप इस प्रकार की हिम्मत कर सकेंगे, तो आपको ही लाभ होगा।
अत: इस समय हमारा एक ही निवेदन है कि आप महाकाल के, प्रज्ञावतार के सहयोगी का रोल अदा करें। यह संदेश महाकाल ने, प्रज्ञावतार ने, हमारे गुरुदेव ने भेजा है। आप इस काम को कर पायेंगे, तो सारा संसार आपकी सराहना करेगा तथा आप अपने आप भी अपनी सराहना करेंगे। अगर आप इस प्रकार की हिम्मत कर सकेंगे, तो आपको ही लाभ होगा।
महाकाल का दूसरा संदेश यह है कि इस समय आपको भगवान् का काम करना चाहिए। आप ऋषियों का महात्माओं का इतिहास पढ़ लीजिए कि कोई भी व्यक्ति भगवान् का केवल नाम लेकर ऊँचा नहीं उठा है। उसे भगवान् का काम भी करना पड़ा है। आपको भी कुछ काम करना होगा, अगर आप भगवान् का नाम लेकर अपने आपको बहकाना चाहते हैं, तो हम कुछ नहीं कर सकते हैं। अगर आप अपने आपको बहकाते रहे, भगवान् को बहकाते रहे, तो आप इसी प्रकार खाली हाथ रहेंगे, जैसे आज आप रह रहे हैं। यह आपके लिए खुली छूट है। निर्णय आपको करना है, कदम आपको ही बढ़ाना है। भगवान् काम नहीं कर सकता है, क्योंकि वह अपने आप में निराकार है। आप भगवान् का साकार रूप बनकर उनका काम करने का प्रयास करें। आदमी का सिर काटने के लिए तलवार की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु अकेली तलवार से काम नहीं चल सकता है। पुरुषार्थ निराकार है तथा तलवार साकार है। इन दोनों के मिलने से ही काम बनता है। आप भी इसी प्रकार भगवान् का काम करने के लिए आयें तथा प्रयत्न करें। इस युगसंधि की वेला में भगवान् जो कि निराकार हैं, उन्हें साकार सहयोगी लोगों की आवश्यकता है।
प्राचीनकाल में भी भगवान् का काम जाग्रत आत्माओं ने किया था। आगे जल्दी अवतार नहीं होने वाला है। इस समय सारे विश्व की व्यवस्था नये सिरे से बनने वाली है। उस समय आप कितने महान बनेंगे, इसका जवाब समय देगा। हनुमान ने कितनी उपासना की थी, कितनी कुण्डलिनियाँ जगायी थीं? यह हम नहीं कह सकते हैं, परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। नल-नील ने, जामवन्त ने, अर्जुन ने कितनी पूजा एवं तीर्थयत्रा की थी? पर उन्होंने भगवान् के कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया था। इस कारण से भगवान् ने भी उनके कार्यों में कंधे-से-कंधा मिलाया था। विभीषण एवं केवट ने भगवान् का काम किया था, ये लोग घाटे में नहीं रहे। भगवान् का काम करने वाले ही भगवान् के वास्तविक भक्त होते हैं। भगवान् का नाम लेने वाले भी भगवान् के भक्त हो सकते हैं, परन्तु उन्हें भगवान् का काम भी करना पड़ेगा। इससे कम में बात बनने वाली नहीं है।
इस समय जो भगवान् के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम यह विशेष संदेश भेजा गया है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कामों में कटौती करें एवं भगवान का काम करने के लिए आगे आयें। भगवान् के काम के लिए, सहायता के लिए आगे आयें। यही है हमारा गुरुपूर्णिमा का संदेश, यही है महाकाल का संदेश। अगर आप सुन सकेंगे, तो आपके लिए बहुत ही लाभदायक होगा। आप सुनेंगे, तो आपको भी लाभ मिलेगा, लेकिन अगर आप इस समय चादर ओढ़कर सोये रहेंगे, तो आपको घाटा-ही-घाटा होगा। अगर इस समय भी आप अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे, तो पीछे आपको बहुत पछताना पड़ेगा तथा आप हाथ मलते रह जाएँगे। गाँधी जी के स्वतन्त्रता आन्दोलन में जो आदमी शामिल हो गये थे, वे आज स्वतन्त्रता सेनानी हैं और पेंशन पा रहे हैं, मिनिस्टर हैं, राज्यपाल हैं। पर जो लोग भाग नहीं ले सके, आज वे लोग पछता रहे हैं कि काश! हम भी कुछ काम कर लेते, तो आज नफे में होते। आपकी इन दिनों की चालाकी आपको हजारों वर्षों तक दु:ख देती रहेगी तथा आप परेशान रहेंगे। अत: आप अभी से अपने बीस वर्षों की कार्यपद्धति बना लें तथा भावी योजना का निर्धारण कर लें।
इस समय आपको तीन काम करने हैं। यह युगसंधि का बीजारोपण वर्ष है। इसमें बीज बोने हैं, ताकि फसल हम प्राप्त कर सकें। बीज बोने के लिए हमें तीन काम करने होंगे। पहला काम वातावरण के परिष्कार तथा आपका आत्मबल बढ़ाने के लिए है। इन दोनों उद्देश्यों के लिए आपको युगसंधि महापुरश्चरण करना चाहिए। यह सामूहिक तप है। आपके अकेले का तप इस काम के लिए सार्थक नहीं हो सकता है। अत: महाकाल ने इस समय विशेष शक्ति देने का निश्चय किया है। यह प्राणसंचार की प्रक्रिया है एवं दिव्य-दृष्टिï जागरण की प्रक्रिया है। आप नैष्ठिïक तपस्या कीजिये, देवता आपको अनुदान देंगे। यह ऐसा कार्य है, जो हर किसी को करना चाहिए। हम में से हर किसी को जो उपासना में विश्वास करते हैं, उन्हें यह तपस्या अवश्य करनी चाहिए। आपकी उपासना इसलिए असफल रही है कि उसमें निष्ठïा का समावेश नहीं हुआ है, श्रद्धा का समावेश नहीं हुआ है। आपने कामनापूर्ति के लिए उपासना की, इसलिए वह सारा-का-सारा प्रयास निष्फल चला गया। आप तपस्यायुक्त उपासना कीजिए, फिर देखिये उसमें चमत्कार होता है या नहीं।
मित्रो, आप युगसंधि महापुरश्चरण अवश्य करें। इसमें तपस्या भी शामिल है, निष्ठïा भी शामिल है। यह लाभ उठाने का मौका न कभी मिला है और न बीस साल बाद कभी मिलने वाला है। ऐसा आश्वासन किसी ने नहीं दिया होगा कि आपका अनुष्ठïान खण्डित हो जाएगा अर्थात् अधूरा रह जाएगा, तो हम उसे पूरा करेंगे। आपकी मृत्यु हो जाने पर भी हम उसे पूरा करेंगे। आप अगर बीच में भी हार जाएँ या थक जाएँ, तो हम आपके बदले का भार उठा लेंगे। यह कितना बड़ा आश्वासन है। आप इतने बड़े आश्वासनयुक्त उपासना को अवश्य प्रारम्भ कर दें। हमारा यह कहना है कि कोई भी प्रज्ञापरिजन ऐसा न हो, जो इस नियमबद्ध उपासना को प्रारम्भ न करे। यह वातावरण के संशोधन तथा साधकों के आत्मबल के अभिवद्र्धन हेतु प्रारम्भ किया गया है। इससे आप सुनिश्चित रूप से जुडें एवं लाभ प्राप्त करें।
दूसरा वाला भगवान् का कार्य है-गायत्री चरणपीठों की स्थापना। तब भगवान् का कार्य करने के लिए कुछ व्यक्ति आ गये थे-मसलन् हनुमान। हनुमान के अन्दर पुरुषार्थ भी था, साहस और साधन भी था तथा उसके अन्दर भावना भी थी। अब ऐसे आदमियों का मिलना भी मुश्किल है। आपको ऐसी परिस्थिति में क्या करना होगा? आपको एक समानान्तर हनुमान अपने क्षेत्र में खड़ा करना होगा, जिसका कलेवर भी हो तथा जिसमें प्राण भी हो। यह हनुमान क्या है? यह है गायत्री चरण-पीठों की स्थापना। ये चरणपीठें बन रही हैं और आपको बनानी चाहिए। आपकी जहाँ भी गायत्री परिवार की शाखाएँ हैं, वहाँ गायत्री चरणपीठें बना देनी चाहिए। गायत्री चरणपीठों के नये नक्शे बना दिये गये हैं।
आपको ऐसी चरणपीठें बनानी चाहिए, जो कम लागत की होते हुए भी चार बातों को पूरा करने में समर्थ हो सकें। वहाँ एक गायत्री परिवार के कार्यकत्र्ता का निवास अवश्य होना चाहिए। वे मन्दिर हो सकते हैं, परन्तु मात्र उसी से जन-जागरण का काम नहीं हो सकता है। अत: वहाँ पर भगवान् के काम को करने वाला भी उपस्थित होना चाहिए, जो गतिविधियाँ चला सकें। अगर कार्यकत्र्ता निवास नहीं होगा, तो वह सुबह घंटी बजाकर घर चला जाएगा। ऐसे वातावरण में काम कहाँ हो सकता है। हम ऐसे घण्टी बजाने वाले मन्दिर बनाकर क्या करेंगे इसके बाद उसमें एक हॉल होना चाहिए। इस हॉल के माध्यम से कई गतिविधियाँ चलेंगी। उसमें सत्संग होगा। दिन में पाठशाला भी चल सकेगी। रात्रि में उसमें कथा का आयोजन भी चल सकता है। प्रौढ़ शिक्षा का काम भी वहाँ चल सकता है। अत: इस चरणपीठ में हमने १६&२४ का एक हॉल भी जोड़ दिया है। अगर हॉल न हो, तो काम पूरा कहाँ होगा, भले यह खपरैल का ही क्यों न हो, क्योंकि नये युग का संदेश देने के लिए, साहित्य घर-घर देने के लिए, वापस लेने के लिए एक स्थान होना चाहिए। हम अगले दिनों अपने मिशन के द्वारा इस प्रकार एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाने वाले हैं, जिसके द्वारा काम हो सके। इसके बिना काम पूरा हो ही नहीं सकेगा। अत: उसमें देवालय भी होना चाहिए तथा पुस्तकालय भी होना चाहिए। यह प्रज्ञावतार का केन्द्र है। अत: इसमें चार चीजें अवश्य होनी चाहिए, इसके बिना कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। वे हैं-(१) मन्दिर, (२) पुस्तकालय, (३) हॉल,(४) कार्यकत्र्ता निवास।
आप में से हर शाखा के परिजनों का यह प्रयास होना चाहिए कि वे अपने ग्राम में एक चरणपीठ की स्थापना कर लें। अगर कोई चंदा नहीं देता है, तो कोई बात नहीं। आप यह बात नहीं कहें, वरन् यह सोचें कि आपके कितने बच्चे हैं? हर एक की शादी में आपने दस हजार रुपये खर्च किये हैं, तो इस बच्चे अर्थात् चरणपीठ के लिए भी छह हजार खर्च करें। इसके बिना कृपणता के इस युग में युग निर्माण नहीं हो सकता है। आप अपनी घड़ी बेचकर इस काम में लगाइये। आप अपनी कृपणता को छोड़ें एवं भगवान् के सहयोगी बनें। आप भगवान् के निमित्त अपना समय देना शुरू कीजिए, फिर देखिये आपको सहयोग देने के लिए दूसरे आदमी आपके पास आते हैं कि नहीं। आप पहले अपना लगाइये तो सही, फिर देखिये दूसरा आदमी किस प्रकार देता है। आप अपना लगाना नहीं चाहते हैं और दूसरों से माँगते हैं। इससे काम नहीं बनेगा। आगे आपको आना पड़ेगा। त्याग की कसौटी पर आपको स्वयं को खरा सिद्ध करना पड़ेगा। अगर आप इस प्रकार कर सकेंगे, तो ही काम बनेगा। छह हजार रुपये कुछ भी नहीं हैं। अगर यह मान लें कि हमें अपनी बेटी, बहिन की शादी करनी है, तो हर व्यक्ति अपनी जेब से निकाल कर दे देता है। आप अगर हिम्मत करेंगे और देंगे, तो आपको देखकर दूसरा आदमी भी अनायास ही देगा। आप अगर देने में आगे आयेंगे, तो न जाने कितने लोग आपको सहयोग करने के लिए आमादा हो जाएँगे। हर गाँव में चरणपीठ बनना चाहिए, यह हमारा अनुरोध है आप से।
तीसरे काम के बारे में हम बात बतलाकर अपनी बात समाप्त करेंगे। हमें युगपरिवर्तन की बातों को बतलाने के लिए, युग संदेश को घर-घर पहुँचाने के लिए, प्रज्ञावतार के अलख को घर-घर पहुँचाने के लिए, दो प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता है। हमें इस काम के लिए नम्बर एक-संत तथा नम्बर दो-ब्राह्मïणों की आवश्यकता है। ऐसे अनेक आदमी अन्य कार्यों के लिए मिल सकते हैं, परन्तु हमें तो संत चाहिए, हमें तो ब्राह्मïण चाहिए।
संत से क्या मतलब है? संत का मतलब है, पुरुषार्थी, त्यागी और तपस्वी। आपके भीतर तो दो ही चीजें जगी हुई हैं। कौन-कौन-सी चीजें जगी हुई हैं? आपके भीतर एक चाण्डाल जगा हुआ है। वह कामवासना की बातें करता है, बेकार की बातें करता है। यह चाण्डाल बिल्कुल बेकार है। यही माद्दा आपका जगा है, जो हमेशा आपको परेशान करता रहता है। एक इंच भी आपको आगे बढऩे नहीं देता है। दूसरी चीज एक और जगी हुई है, जिसका नाम बनिया है। इसका मतलब यह है कि वह व्यक्ति किसी भी बिरादरी में पैदा हुआ हो, उसे हर समय पैसा, हर समय दौलत ही दिखायी पड़ती है। हर समय लालच और हर समय लोभ ही घेरे रहता है। यह बनियापन आपका जगा हुआ है। शूद्र आपका जगा हुआ है, परन्तु आपके अन्दर दो चीजें बिल्कुल सोयी हुई हैं, पहला ब्राह्मïण और दूसरा-संत। इनको पुरुषार्थ, त्याग, साहस जो भी आप नाम चाहें, दे सकते हैं। यह दोनों आपके अन्दर सो गये हैं, जिसके कारण आप भगवान् का कार्य करने में असमर्थ हैं।
मित्रो, हमें आपके भीतर के संत और ब्राह्मïण को जगाना है। हम बाहर के ब्राह्मïण से क्या बात करेंगे? बाहर के संतों से हम क्या कहेंगे, बाहर संत कहाँ हैं? उनका नाम लेने से हमारा दिमाग खराब हो जाता है। आप उन बाबाजी से हमें कहने को कहते हैं, जिनने कभी कुछ नहीं किया है और न आगे करेंगे। आपके भीतर जो संत सोया है, आप उसे जगायें। संत किसे कहते हैं? जिसने अपने लोभ एवं मोह को समाप्त कर दिया है। आप देखेंगे कि इस गायत्री परिवार के लोगों में से कितने संत निकलते हुए चले आयेंगे। ऐसे व्यक्ति आपको दिखायी देंगे जिनकी जिम्मेदारी कम हो गयी है या जो अपने घर को देखते हुए भी मिशन का काम करते हैं, वे सब संत हैं, महाकाल की प्रार्थना है कि आप संत की भूमिका निभायें एवं परिव्राजक के तरीके से जन-जन तक महाकाल के संदेश को पहुँचाने का प्रयास करें। भगवान् का काम करने में अपना समय लगा दें।
उन लोगों का नाम संत है, जो बादलों की तरह से घूमते हैं और भगवान् का संदेश हर जगह पहुँचाते हैं तथा हर आदमी के भीतर जीवट पैदा करते हैं। आप लोगों में से हर आदमी के भीतर ब्राह्मïण छिपा पड़ा है। ब्राह्मïण तो वे हैं, जो काम तो करना चाहते हैं, परन्तु घर की जिम्मेदारियाँ एवं अन्य समस्याओं के कारण कुछ कर नहीं पाते हैं। हमने ऐसे ब्राह्मïणों का आह्वïान किया है कि वे निकलकर बाहर आयें। संत वे हैं, जो बिना लिए काम करते हैं। ब्राह्मïणों को लेना पड़ता है। हम उन्हें देने को तैयार हैं, वे घर से निकल कर तो आयें। हम उनके गुजारे का प्रबन्ध कर सकते हैं। अगर उन्होंने बड़ी गृहस्थी इक_ïी कर रखी है, तो बात अलग है। अगर बहुत बड़ी हविश बना रखी है, तो बात अलग है अन्यथा अगर वे पेट भरना चाहते हैं और तन ढँकना चाहते हैं, तो गायत्री परिवार के सदस्यों को ब्राह्मïणोचित खर्च देने को हम तैयार हैं।
आप जानते हैं कि प्राचीनकाल में ब्राह्मïणों का खर्च भिक्षाटन से पूरा होता था। हमने भी इस प्रकार का पात्र बना रखा है। गायत्री परिवार के घरों में ज्ञानघट-धर्मघट के रूप में स्थापित कर दिया है। उनसे कह दिया है कि आप नित्य इसमें दस पैसा डालें। हम किसी भी गायत्री परिवार के व्यक्ति को बिना ज्ञानघट के नहीं रहने देंगे। हम किसी को भी मु_ïी भर अनाज दिये बिना नहीं रहने देंगे। यह ब्राह्मïणों की जीविका के लिए हमें चाहिए। ब्राह्मïणों के पेट भरने के लिए, उनके तन ढँकने के लिए आपके ब्रह्मïभोज का पैसा चाहिए। आप दस पैसे से इनकार न करें। आप हमारे भिक्षा के पात्रों को लात मत मारिये। ये ब्राह्मïणों की आवश्यकता है। ऐसे कंजूस मत बनिये।
इस पैसे का हम क्या करेंगे? इन पैसों को हम इमारत बनाने में, हवन कराने में नहीं खर्च करेंगे। यह ज्ञानघट का पैसा विशुद्ध रूप से ब्राह्मïणों के लिए खर्च होगा। ब्रह्मïभोज का अर्थ है-हमें कार्यकत्र्ताओं की आवश्यकता पड़ेगी, हम इसके द्वारा उनकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगे। हम चाहते हैं कि हमारी जितनी भी शाखाएँ हैं, उनमें एक चरणपीठ अवश्य बननी चाहिए। उसमें हमें दो कार्यकत्र्ता चाहिए। उनमें से एक आदमी साइकिल से सारे-के-सारे आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करके विचार क्रान्ति का काम चलाए। दूसरा आदमी यहाँ मन्दिर में रहकर सारी गतिविधियों का संचालन करेगा। इस प्रकार हमें हजारों आदमी चाहिए। हमें उनके लिए पेट भरने एवं तन ढँकने के लिए पैसा चाहिए। अगर उनके छोटे बच्चे हैं, तो उन्हें फाँसी कैसे लगा देंगे। उसको तो भोजन देना ही पड़ेगा। हाँ, आगे वे बच्चा पैदा न करें, यह बात ठीक है, परन्तु अभी जो हैं, उनकी व्यवस्था तो बनानी ही पड़ेगी। उसकी पत्नी को भी देना होगा। अत: आप लोगों में से जिस किसी में भी संत की प्रवृत्ति, ब्राह्मïण की प्रवृत्ति हो, वह जागें और आगे आयें।
हमें संत-ब्राह्मïणों को जगाना है तथा इन लोगों के लिए ब्रह्मïभोज की व्यवस्था बनानी है। यह सारा-का-सारा काम आपको करना है। आप इस प्रकार के व्यक्तियों की तलाश करें। अगर आपका कुछ प्रभाव है या दबाव है, तो उसका भी उपयोग करें। आप जब विवाह-शादी में उसका उपयोग कर सकते हैं, चुनाव में खड़े होते हैं, तो उपयोग करते हैं, तो आपको इस कार्य के लिए भी अपने प्रभाव का दबाव का उपयोग करना चाहिए। अगर आपके पास ज्यादा है, तो ज्यादा देने का प्रयास कीजिए। हम इतने आदमी की व्यवस्था कैसे करेंगे? दस पैसा तो शुरुआत है। अगर सम्भव हो तो, आप एक दिन का वेतन दीजिए। अगर बेकार की चीजें हैं, तो उन्हें हमें दीजिए। आपकी चीजों की भगवान् को आवश्यकता है। आप जो करेंगे, उसका लाभ-मुनाफा आपको अवश्य ही मिलेगा। अगर आप नहीं कर पायेंगे, अपना दिल चौड़ा नहीं कर पायेंगे, तो आप घाटे में रहेंगे। इस समय दिल चौड़ा करने का समय है, उदारता का समय है। यह बीजारोपण का वर्ष है। यह लाभ उठाने का वर्ष है।
यही इस गुरुपूर्णिमा पर महाकाल का संदेश है, जो हमारे जैसे टेपरिकार्डर के माध्यम से आपको सुनाया जा रहा है। हमें आशा एवं विश्वास है कि आप साहस भरा कदम उठाएँगे और भगवान् का काम करने में पीछे नहीं रहेंगे।
ॐ शान्ति:
युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
(५ अगस्त, १९८० को शांतिकुंज
परिसर में दिया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! बड़ी ही प्रसन्नता की बात है कि इस समय गायत्री महापुरश्चरण की साधना जगह-जगह पर चल रही है। अगर आप विचार करेें, तो यह पायेंगे कि यह समय बहुत ही संकटकालीन है। इस समय इस धरती पर महामारी, युद्ध के बादल, वायु-प्रदूषण जैसे अनेक संकट घटाटोप की तरह छाये हुए हैं, जिससे महाप्रलय जैसी स्थिति बनती जा रही है। इस परिस्थिति को देखते हुए हमने आप लोगों को गायत्री महापुरश्चरण करने की सलाह दी थी और इस बात पर जोर डाला था कि आपको यह साधना करनी चाहिए। समय की माँग, समय की पुकार यह है कि इन दिनों वातावरण में जो अवांछनीय तत्त्वों का घुलन एवं मिलन हो गया है, उसे समय रहते निरस्त किया जाय, ताकि जनसाधारण की स्थिति ठीक हो सके एवं सभी को खुले वातावरण में साँस लेने का मौका मिल सके। आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण को स्वच्छ बनाया जाय। आज का वातावरण बहुत दूषित हो चुका है। यह ऐसा है, जो बच्चों के मस्तिष्क के ऊपर सीधा प्रभाव डालता है। इसके प्रभाव से वे एक कमजोर आदमी की तरह बहकर कहीं-से-कहीं जा पहुँचते हैं। वातावरण का परिशोधन इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
मित्रो! इन दिनों जो परिस्थितियाँ हैं, वे अगले दिनों बहुत ही विपन्न एवं विषम होने वाली हैं। इसके कारण अनेक प्रलयंकारी घटनाएँ घटित होंगी, विनाश की लीला होगी। उस समय मनुष्य के ऊपर बहुत सारी मुसीबतें आयेंगी। चारों दिशाओं में आँधी-तूफान, पानी-बाढ़ आदि का प्रकोप दिखाई देगा। इसका कारण यह है कि इस समय नेचर-प्रकृति नाराज हो चुकी है। वह बदला लेना चाहती है। इस परिस्थिति में कोई भी आदमी सुरक्षित नहीं है। मौसम का भी कोई ठिकाना नहीं रहेगा। गर्मी में सर्दी और सर्दी में गर्मी महसूस होगी। नित्य नयी-नयी बीमारियाँ बढ़ेंगी। डॉक्टरों के पास भी इसका कोई इलाज नहीं होगा। भाई-भाई में, पति-पत्नी में भी विश्वास नहीं होगा। सामूहिक बलात्कार, चोरी, उठाईगीरी, अनाचार, मारकाट जैसे अपराध, जो कि रावण के एवं कंस के जमाने में भी नहीं थे, उससे भी ज्यादा बढ़ेंगे। दहेज लोलुपों द्वारा बहुओं को जलाया जाएगा। लोगों में राग,द्वेष, अहंकार बढ़ता चला जाएगा। महत्वाकांक्षा लोगों के सिर पर चढ़कर बोलेगी।
साथियो! हवा में जो जहर घुलता जा रहा है, वह साँस के साथ आँख, गर्दन, गले और छाती में जाएगा और लोग बीमार होते चले जाएँगे। यही स्थिति पानी की होगी। गंगा का पानी पहले साफ था। उसका हम सेवन करते थे। अब उसको नहीं पीने के लिए प्रचार किया जा रहा है, क्योंकि गंगाजल अब प्रदूषणों से भरता जा रहा है। अब धीरे-धीरे जमीन की गर्मी कम हो गयी है। हमने उसके गर्भ में समाई सारी चीजें, जैसे-लोहा, ताँबा, कोयला, डीजल, पेट्रोल सब निकाल लिया है। जमीन खोखली होती जा रही है। इससे जगह-जगह भूकंप आएँगे। फसल भी कम उत्पन्न होगी। आज विश्वभर में जो लाखों की संख्या में एटामिक हथियार बन रहे हैं, वे क्या बच्चों के खिलौने होंगे? नहीं, वे आग उगलेेंगे। इससे मात्र तबाही आयेगी। सारी जगहों पर परमाणु युद्ध की होड़ लग जाएगी। इससे चारों ओर तबाही ही होगी।
मित्रो! क्या इस प्रकार की विपन्नता की स्थिति में, ऐसी संकट-कालीन वेला में- जब आदमी मरने-मारने को तैयार है, जो आप उनको बचाने के लिए डॉक्टरों की तरह सेवा देने के लिए आगे नहीं आ सकते हैं? यह कैसी विडम्बना है, जो आप नौकरी के बाद का चार घंटे का समय भी लोकमंगल के लिए, समाज के लिए, इन्सान का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए नहीं दे सकते हैं। इस प्रकार की जब भी परिस्थितियाँ आती हैं, तो लोग अपने ढंग से इसका समाधान करने के लिए आगे आते रहे और प्रयास करते रहे हैं।
आपने भागीरथ का नाम सुना होगा। एक बार धरती पर से पानी समाप्त हो गया था। खेतों के लिए पानी नहीं था। उस समय उन्होंने तप किया और गंगा को प्रसन्न किया। धरती पर पानी का आगमन हुआ। नदियों में, कुओं में, नहरों में पानी आ गया। फसलें लहलहा उठीं। जो लोग पानी के अभाव में मर रहे थे, वे जीवित हो गये।
इस धरती पर एक बार वृत्तासुर नाम का राक्षस पैदा हुआ था। वह किसी के कन्ट्रोल में नहीं आ रहा था। उसके अत्याचार से सब त्राहि-त्राहि कर रहे थे। तब महर्षि दधीचि आगे आये और उन्होंने अपना अस्थिपंजर दान दे दिया, ताकि उससे वज्र-धनुष का निर्माण हो सके और वृत्तासुर को समाप्त किया जा सके। आज जो मिसाइले, अस्त्र-शस्त्र, परमाणुबम आपको दिखलाई पड़ रहे हैं, यह क्या वृत्तासुर से कम हैं? आज हमें अनेकों किस्म के हत्यारे दिखाई पड़ रहे हैं। जो मात्र हजार-पाँच सौ रुपये लेकर किसी को, भी मार डालने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
इस प्रकार की परिस्थतियों में हर व्यक्ति ने अपने स्तर पर, सामूहिक स्तर पर प्रयास किया है तथा समाज, देश संस्कृति को बचाया है। आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले इसी प्रकार की परिस्थिति आयी थी, जब समाज के लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। उस समय भगवान् बुद्ध ने परिव्राजकों,भिक्षु-भिक्षुणियों को एकत्रित करके एक सामूहिक साधना कराने का प्रयास किया था, ताकि वातावरण में सुधार आ सके। इसी प्रकार हर विषम समय में व्यक्तियों के द्वारा सामूहिक प्रयास किये गये हैं।
युगसंधि की इस विषम वेला में भी इस मिशन के द्वारा इसी प्रकार का प्रयास 'युगसंधि महापुरश्चरणÓ के नाम से आरंभ किया गया है। यह प्रयास अद्भुत है। इसका चमत्कार आप लोगों को भविष्य में देखने को मिलेगा। हमने अपनी जिन्दगी में गायत्री के चौबीस महापुरश्चरण किए हैं। इसकी साधना एवं तप से प्राप्त बल के द्वारा ही हमने युग निर्माण जैसे कठिन कार्य को साहसपूर्वक पूर्ण करने की हिम्मत की है। हमने ध्वंस का समाधान और सृजन का परिपोषण करने के लिए गायत्री जयंती २३ जून, १९८० से बीस वर्ष का युगसंधि महापुरश्चरण आरंभ किया है। इसमें एक लाख नैष्ठिïक उपासकों की भागीदारी रहेगी। इसके अलावा दस लाख अनुसाधक होंगे। यह वेला सन् १९८० से सन् २००० तक की होगी अर्थात् यह पुरश्चरण बीस साल का होगा। यह समय महापरिवर्तनों के साथ जुड़ा होने के कारण भारी उथल-पुथल का होगा। अंतिम बारह वर्ष तो भयंकर मारकाट वाले होंगे।
हमारा संकल्प एक लाख नैष्ठिïक साधक बनाने का है। नैष्ठिïक और सामान्यों को मिलाकर दैनिक जप चौबीस करोड़ हो जाएगा। नियमित रूप से इतनी साधना चल पडऩे से अन्तरिक्ष के परिशोधन एवं वातावरण के अनुकूलन में भारी सहायता मिलेगी। इससे भावी संभावित विपत्तियों के टल जाने की आशा की जा सकती है। उज्ज्वल भविष्य के नवसृजन में इस साधना की प्रतिक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। इसमें जो साधक भाग लेंगे, उन्हें आशा से अधिक लाभ प्राप्त होगा। उनको आत्मकल्याण एवं लोककल्याण का दुहरा लाभ मिलता रहेगा। इसके बारे में जब हम चिन्तन करते हैं, तो हमारा मन गर्व से भर उठता है। हमें इस कार्य से काफी संतोष है।
एकाकी और सामूहिक प्रयत्नों की सफलता के स्तर में काफी अन्तर रहता है। अलग-अलग दस आदमी रहकर जितना काम करेंगे, उन दसों का सम्मिलित प्रयत्न कहीं अधिक सफलता प्रदान करेगा। इसलिए भारतवर्ष में हमेशा से तप एवं सामूहिक साधना का विशेष महत्त्व रहा है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हुए बहुत से कार्यक्रमों में इस प्रकार की साधना के द्वारा ही लाभ प्राप्त हुआ है। गायत्री महापुरश्चरण भी इसी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इसमें चौबीस लाख परिजन भाग ले रहे हैं। अनेकों कार्यक्रम भी इस शृंखला में आयोजित हो रहे हैं, जिसका वातावरण पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। महात्मा गाँधी के आन्दोलन में भी इस प्रकार की सामूहिक साधना का कम महत्त्व नहीं रहा है। इसके द्वारा ही दिव्य वातावरण बना और हजारों लोग बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी देने के लिए आगे आते चले गये। इस प्रकार की साधना में महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस एवं अरविन्द की साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिन्होंने एक दिव्य वातावरण बना दिया था।
इस समय की विकट परिस्थितियों और भयानक संभावनाओं को समय रहते रोका जाना चाहिए। इस कार्य के लिए यह समय उपयुक्त है तथा यह साधना, जो सामूहिक रूप से होने जा रही है, वह भी एक सही कदम है। छेद बन्द करने के साथ ही बर्तन में कुछ भरा भी जाना चाहिए। रोग-निवृत्ति ही पर्याप्त नहीं है, पोषण भी मिलना चाहिए। अपराधों को रोकना भी एक काम है, परन्तु इसके साथ ही समाज के अन्तर्गत रचनात्मक प्रयत्नों का तारतम्य जोडऩा भी आवश्यक है। वास्तव में इन दिनों यही दोहरी आवश्यकता युग की पुकार बनकर सामने खड़ी है, जिसे पूरा करने के लिए जाग्रत आत्माओं को आगे आना चाहिए। ध्वंस को रोकने एवं सृजन को गति देने का काम सदा से इसी वर्ग का रहा है। भगवान् राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी जैसे सभी के कार्य इनके बलबूते ही पूरे होते रहे हैं।
प्राचीनकाल यानी सतयुग में प्रकृति का पूर्ण सहयोग मनुष्य को मिलता था। भूमि, बादल, पवन सभी चीजें मनुष्य को समृद्ध बनाने में कोई कमी नहीं होने देते थे। इन दिनों प्रकृति ने विक्षुब्ध होकर आक्रोश प्रकट करना आरंभ कर दिया है, जिसके कारण अनावृष्टिï, अतिवृष्टिï, महामारी, भूकम्प, तूफान आदि का विनाशकारी त्रास हर जगह चल पड़ा है। दिव्यदर्शियों का अनुमान है कि इन दिनों प्रारंभ किये जा रहे युगसंधि महापुरश्चरण के द्वारा ये अशुभ लक्षण समाप्त हो जाएँगे। इसके साथ-ही-साथ नवसृजन की गतिविधियों में तूफानी उभार प्रस्तुत होगा, जो उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करेगा।
हमारे नैष्ठिïक साधक, जो इसमें हमारा सहयोग करना चाहते हैं, उन्हें इन पाँच संकल्पों को पूरा करना होगा। पहला है-हर दिन न्यूनतम पाँच माला गायत्री महामंत्र का जप। दूसरा-पन्द्रह मिनट की प्राणसंचार की ध्यान-धारणा। तीसरा-गुरुवार को बिना नमक का एक समय का भोजन, ब्रह्मïचर्य का पालन तथा दो घंटे मौनव्रत का पालन। चौथा-महीने में कम-से-कम एक बार न्यूनतम चौबीस आहुतियों का यज्ञ-हवन। पाँचवाँ आश्विन एवं चैत्र नवरात्रियों में चौबीस-चौबीस हजार का गायत्री अनुष्ठïान।
हमें विश्वास है कि हमारे परिजन इन नियमों-संकल्पों का पालन करते रहेंगे और नित्य नये साधकों को बनाने, उन्हे ंप्रोत्साहित करने का क्रम चलाते रहेंगे, तो इस आन्दोलन को बल मिलेगा तथा नवसृजन के, नवनिर्माण के इस कार्य को शीघ्र एवं सुगमता से पूर्ण करने में हमें सहयोग मिलेगा।
प्रज्ञावतार अर्थात् ऋतम्भरा-प्रज्ञा का आलोक-विस्तार अपने युग का अरुणोदय है, जिसके सहारे आत्मिक और भौतिक उभयपक्षीय समस्याओं का हल निकलने की पूरी संभावना है। गायत्री के तत्त्वदर्शन का आलोक जन-जन तक पहुंचाना हमारा लक्ष्य है। हमने इस महामंत्र की साधना चौबीस साल तक करके इसके लाभ के बारे में जाना है। वास्तव में इस महामंत्र के चौबीस अक्षरों में चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को सुसंस्कृत बनाने वाले सभी तत्त्व कूट-कूट कर भरे हैं। आपके द्वारा इस तरह की जानकारी अगर जन-जन तक पहुँचायी जा सकी, तो हमारा पूर्ण विश्वास है कि लोकचिन्तन और व्यवहार-प्रचलन मे ंउस उत्कृष्टïता का समावेश हो सकता है, जो युगविभीषिका से जूझने और उज्ज्वल भविष्य की संरचना में पूर्ण तथा सफल हो सके।
इस महान अभियान में जो सबसे आगे-आगे चलेंगे, उन्हें ज्यादा लाभ प्राप्त होगा। यह संकटकालीन परीक्षा की घड़ी है, जिसमें भगवान् राम के रीछ-वानरों से लेकर गीध-गिलहरी तक की भूमिका है। इसमें कृष्ण के ग्वाल-वालों की तरह हर एक को अपनी-अपनी लाठी का सहारा देकर गोवर्धन को उठाना है। इसके लिए हममें से प्रत्येक को साहसी होना चाहिए। संभावित कठिनाइयों से किसी को भी भयभीत या आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे अवसरों पर दूरदर्शिता और साहसिकता का अनुपात बढ़ाने से ही काम चलता है। समय रहते रोकथाम करने और कठिनाइयों से जूझने का साधन जुटाने में तत्पर होना ही ऐसे अवसरों पर बुद्धिमत्तापूर्ण होता है। इन दिनों ऐसी ही बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है, जो प्राणवानों के शौर्य-साहस को बढ़ाये और जन-जन की प्रखरता को जगाने के लिए काम आये।
मित्रो! आपको इस कार्य के लिए आगे आना चाहिए। यह महापुरश्चरण आपके लिए तथा समाज के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध होगा। इसको सफल बनाने के लिए आपको प्रयास करना है। भगवान् से हम प्रार्थना करते हैं—जो भी इसमें भाग लें, उनको इसके असंख्य गुना लाभ मिलें। अत: आप सभी से यह निवेदन है कि आप सब इस कार्यक्रम में भाग लें तथा इसे सफल बनाने का प्रयास करें। प्रस्तुत युगसंधि महापुरश्चरण की व्यवस्था हमने गायत्री जयंती यानी २३ जून, १९८० से बनाई है। यह बीस वर्ष तक लगातार चलेगा। सन् २००० की गायत्री जयंती पर इसकी पूर्णाहुति होगी। इसके भागीदार मात्र जप संख्या ही नहीं पूरी करेंगे, वरन् उस प्रयोग में अधिकाधिक निष्ठïा का भी समावेश करेंगे।
युगसंधि महापुरश्चरण के प्रत्येक भागीदार को शौकिया, मनमौजी, अस्तव्यस्त, भजन-पूजन करके मन बहलाने की स्थिति में नहीं रहना होगा, वरन् जो कुछ भी थोड़ा या बहुत करना है, उसमें परिपूर्ण नैष्ठिïकता का समावेश करना है। इसी मार्ग पर चलते हुए आत्मशक्ति का विकास एवं आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा होता है।
यह युगसंधि महापुरश्चरण देखने में छोटा लग रहा है, परन्तु इसके द्वारा भविष्य में बहुत फायदा होने वाला है। अगर इतना लाभदायक न होता, तो हम आपसे इसमें भागीदार बनने के लिए भावभरा निवेदन नहीं करते। यह समय की माँग है कि वातावरण में अवांछनीयता का जो समावेश हो गया है, उसे समय रहते निरस्त किया जाय।
जब बच्चा घर में पैदा होने को होता है, तो एक तरफ घर में नवजात शिशु के लिए स्वागत की तैयारी चलती हैं, तो दूसरी ओर प्रसूता को प्रसव का भारी कष्टï सहना पड़ता है। युगपरिवर्तन की इन घडिय़ों में भी इसी प्रकार की ही उथल-पुथल हो रही है। एक ओर ध्वंस चरम सीमा पर पहुँच चुका है, तो दूसरी तरफ नवसृजन की प्रक्रिया जन्म लेने वाली है। हमें इसी सृजन का काम करना है। इस समय मनुष्य की मन:स्थिति एवं परिस्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। उनके विचार करने का ढंग गलत हो गया है। इसके कारण अनेकों प्रकार की विभीषिकाएँ नित्य उत्पन्न हो रही हैं तथा अपना ताण्डव नृत्य दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही हैं।
इस समय की महती आवश्यकता यह है कि सूक्ष्म जगत के वातावरण में परिशोधन किया जाय। प्राचीनकाल में भी ऐसी ही परिस्थितियाँ थीं। लोग रावण के आतंक से त्राहि-त्राहि कर रहे थे। उस समय भगवान् राम ने अपनी शक्ति नियोजित की तथा जनसहयोग के माध्यम से रावण को निरस्त करके समाज में शांति स्थापित की थी, रामराज्य की स्थापना की थी। इसके बाद गुरु वशिष्ठï ने यह कहा कि इतना कार्य करने से ही काम नहीं चलेगा। उन दुष्टïों ने तो वातावरण को भी दूषित कर दिया है, अत: उसके लिए स्वच्छ वातावरण बनाने की भी आवश्यकता है। गुरु वशिष्ठï के कहने पर भगवान् राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये। इस अश्वमेध यज्ञ की प्रक्रिया बड़ी ही महान है, इसमें लाखों लोग बैठकर साधना करते हैं, तप करते हैं, यज्ञ-हवन करते हैं तथा वातावरण को बदल डालते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भगवान् राम के रामराज्य की स्थापना रावण के समाप्त होने से नहीं हुई, वरन् दस अश्वमेध यज्ञों के कारण हुई। भगवान् श्रीकृष्ण के जमाने में भी वैसा ही हुआ। महाभारत के बाद ही वातावरण का सुधार हो सका। यज्ञ एवं उपासना के द्वारा वातावरण में सुधार की बात बहुत प्राचीनकाल से ही चली आ रही है।
युगसंधि का यह विशेष पर्व है। ऐसे समय हजारों-लाखों वर्ष के बाद आते हैं। भगवान् को युगपरिवर्तन करना पड़ता है, परन्तु वे केवल आप जैसी आत्माओं को ही अपना माध्यम बनाते और प्रभावित करते हैं। निराकार ब्रह्मï के लिए यह कठिन है कि वह स्वयं अपने व्यापक विराट् स्वरूप को मेटकर व्यक्तियों का स्वरूप बनाये और सामान्यजनों की तरह उतार-चढ़ाव से जूझने का उपक्रम अपनाये। शासनाध्यक्ष योजना बनाते हैं और निर्देश देते हैं। आज की परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिससे भगवान् बहुत ही दुखी हैं। वह परिवर्तन चाहते हैं। एक समय महर्षि विश्वामित्र ने भी इसी तरह का परिश्रम किया था। शास्त्रों में वर्णन आता है कि उन्होंने एक नयी दुनिया बनाने के लिए घनघोर परिश्रम किया था। उस समय उन्हें अपने शिष्यों के लिए बहुत बड़ा अनुदान देना पड़ा था।
मित्रो! आध्यात्मिक अनुदानों की सामान्य परम्परा भी रही है और आपत्तिकालीन की अतिरिक्त व्यवस्था भी रही है। गुरु शिष्यों को, देवता भक्तों को समय-समय पर अनेकानेक अनुदान देते रहे हैं, परन्तु साथ-ही-साथ इसका भी ध्यान रखा जाता है कि उपलब्धकत्र्ता उसे संकीर्ण स्वार्थपरता में खर्च न करे। दैवीय वरदान दिव्य प्रयोजनों के लिए दिया जाता है। ऐसा ही अनुदान-वरदान विश्वामित्र ऋषि ने अपने शिष्यों को दिया था। इसी तरह रामकृष्ण परमहंस को जनकल्याण के लिए कुछ करना था। सो उनने विवेकानंद को ढूँढ़ निकाला और अभीष्टï प्रयोजन की पूर्ति के लिए जितनी शक्ति की आवश्यकता थी, उसे दे दी। इसी प्रकार समर्थ गुरु रामदास का अनुदान शिवाजी को, चाणक्य का चन्द्रगुप्त को मिला था।
आपको मालूम होना चाहिए कि यह युगसंधि का विशेष समय है। इस समय स्रष्टïा को परिवर्तन करना है। इस युगसंधि की वेला में नवसृजन का उत्तरदायित्व सँभालने वाली दिव्य शक्तियों को इन दिनों ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए जाग्रत आत्माओं की तलाश है। उन्हें जितना लाभ कठोर तपश्चर्या, साधना की कठिन परिस्थितियों को पार करके मिल सकता था, उतना लाभ इस विशिष्टï अवसर पर मिलने वाला है। इसे दैवी अनुदान कहा जा सकता है। इन दिनों युगसंधि की इस उपासना के माध्यम से उच्चस्तरीय अनुदान वितरण ऋतम्भरा-प्रज्ञा द्वारा किया जा रहा है। जिस प्रकार दुर्भिक्ष आदि संकटकालीन परिस्थितियों में सरकार कुआँ खोदने, उद्योग खड़ा करने, नहर बनाने जैसे कामों के लिए विशेष रूप से धन-राशि देती है, उसी प्रकार इन दिनों ऐसे असंख्य संस्कारवान आत्माओं को दिव्य अनुदान मिलने वाला है, जो किसी जमाने में राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी के सहयोगियों को प्राप्त हुआ था।
इस धरती पर जब कभी भी अनीति-अत्याचार की बढ़ोत्तरी होती है, तो इसी प्रकार का क्रम चलता है और शालीनता, सज्जनता लाने का प्रयास किया जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण के जमाने में भी ऐसा ही हुआ था। जब कभी ऐसे संकटकालीन समय आते हैं, तो बहुत-से लोग ऋषि-चरणों में अपना सब कुछ अर्पण कर देते हैं। जैसे विश्वामित्र के चरणों में राजा हरिश्चन्द्र, भगवान् बुद्ध के चरणों में राजा अशोक का समर्पण हुआ था और पूरी शक्ति से उन्होंने सहयोग दिया था। भगवान् बुद्ध के समय में जब अराजकता बढ़ी थी, तो उन्होंने अपने शिष्यों को परिव्रज्या का पाठ पढ़ाकर इसके निराकरण के लिए उन्हें देश-विदेशों में भेजा था। इस प्रकार वातावरण को संशोधित करने एवं स्वच्छ वातावरण बनाने में भगवान् बुद्ध का तप, उनके शिष्यों का तप बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। उसमें हर्षवर्धन एवं अशोक जैसे लोगों ने पूरा सहयोग दिया।
पिछले दिनों युद्धों के कारण कितने लोग मारे गये, कितना वातावरण गंदा हो गया। इस परिस्थिति में वातावरण के संशोधन में युगसंधि महापुरश्चरण द्वारा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न होगी। युगसंधि में इन दिनों हिमालय के आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र से ऐसी दिव्य क्षमताओं का-प्राणचेतना का प्रसारविस्तार हो रहा है, जिन्हें ग्रहण-धारण करके असंख्य मनुष्यों का कल्याण हो सकेगा। ऋषि-मुनियों से लेकर लोकसेवी महामानव तक यही कार्य करते रहे हैं। दैवीशक्तियों का अनुदान वे जन-जन तक पहुँचाने में लगे रहे हैं। इससे ही भगवान् की इच्छा पूरी हुई है। और जन-जन का हित हुआ है। यही कार्य युगसंधि महापुरश्चरण के अन्तर्गत हमारे नैष्ठिïक साधकों का होगा।
संकटकालीन परिस्थिति आने पर समाजसेवी, डॉक्टर अपना-अपना काम करते हैं, किन्तु हम एक बात बताना चाहते हैं कि ऐसी परिस्थिति में अध्यात्मवादी आदमी को भी हाथ-पर-हाथ रखकर नहीं बैठना चाहिए।
इस प्रकार की साधना में यद्यपि पुरुषार्थ ही प्रमुख है। इसके द्वारा ही वातावरण का परिष्कार संभव होगा। अंगद, हनुमान्, नल-नील, अर्जुन, शिवाजी आदि को यदि पराक्रम करने का मौका न मिला होता, तो सभी लोग इसी प्रकार का सामान्य जीवन जीने वाले कहलाते। युग-परिवर्तन एवं नवनिर्माण के कार्य का श्रेय उनको नहीं मिलता। ग्वालबालों को श्रेय इसलिए मिला कि भगवान् श्रीकृष्ण ने गोवर्धन उठाने की योजना बनायी और ग्वाल-वालों ने उसमें श्रीकृष्ण को अपनी-अपनी लाठी लगाकर थोड़ा-सा सहयोग दिया और कार्य पूरा हो गया। वे श्रेय के भागीदर बन गये। इस तरह का अवसर आने पर हर किसी को लोकमंगल के लिए, जनजागरण के लिए आगे आकर कार्य करने का प्रयत्न करना चाहिए।
मित्रो! आज आपको जनजागरण के लिए, युगधर्म निवाहने के लिए पुकारा गया है। अत: आपको इस कार्य के लिए आगे आकर और बढ़-चढ़कर कार्य करना चाहिए। वातावरण खराब हो जाता है, तो उसका असर पड़ता है। वातावरण का प्रभाव, परिस्थितियों का प्रभाव क्या होता है, इसे सभी लोग जानते हैं। आज ऐसी परिस्थितियाँ आ गयी हैं कि इसने असंख्य मनुष्यों को दुष्प्रवृत्तियों की ओर, दुश्चिन्तन की ओर धकेल दिया है। इसके कारण कहीं भूकम्प, बाढ़, महामारी तो कहीं अनाचाार, अत्याचार पान की विभीषिका अपना पसारा फैला रही हैं। अब समय आ गया है कि आपको रचनात्मक कार्यों की ओर चलना है। यह युगसंधि महापुरश्चरण इसी प्रकार का कार्य है। जिसमें आप सभी लोग शामिल हैं।
सामूहिकता का लाभ सभी जानते हैं। प्राचीनकाल से लेकर अब तक सभी बड़े-बड़े काम सामूहिकता के द्वारा हल होते रहे हैं। प्राचीनकाल में सभी ऋषियों की सामूहिकता अर्थात् बूँद-बूँद रक्त के द्वारा माता सीता की उत्पत्ति हुई थी। यही सीता भगवान् राम से कहीं ज्यादा असुरता को समाप्त करने में तथा रामराज्य की स्थापना करने में सफल हुईं। सीता क्या थी? ऋषियों की सामूहिकता का प्रतीक थी। दुर्गा का अवतार क्या था? देवताओं की सामूहिक शक्ति को इक_ïा करके प्रजापति ब्रह्मïा ने दुर्गा का अवतरण कराया था। श्रेष्ठï कामों के लिए अच्छे लोगों का सहयोग लेने की प्राचीनकाल से ही पद्धति रही है। भगवान् श्रीकृष्ण का गोवर्धन उठाना तथा भगवान् राम का समुद्र में पुल बाँधना, यह सब सामूहिकता का ही प्रतीक है।
आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान् बुद्ध ने अपने भिक्षु-भिक्षुणियों को इसी प्रकार की सामूहिक सेवा-साधना करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया था। हमारे सामने महात्मा गाँधी आये। उन्होंने भी इस देश को आजाद कराने के लिए सामूहिक शक्ति का ही उपयोग किया। इसके द्वारा ही स्वराज्य मिलना संभव हो सका था।
आज का यह युगसंधि महापुरश्चरण भी इसी तरह का एक महत्त्वपूर्ण सामूहिक प्रयास है। आपको यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि यह इस युग का महानतम प्रयास है। गायत्री उपासना के द्वारा ही हमने सारा चमत्कार पाया है। हम देखना चाहते हैं कि आप लोग इसमें कितनी श्रद्धा-निष्ठïा के साथ काम करते हैं। हमें विश्वास है कि यह कार्य बहुत व्यापक स्तर पर बढऩे वाला है। हमें यह स्पष्टï दिखाई दे रहा है कि यह कार्य बढ़ेगा। अनेक कार्यक्रम होंगे। इससे वातावरण में अप्रत्याशित रूप से बदलाव आयेगा। नयी पीढिय़ाँ बदलती चली जाएँगी।
गाँधीजी ने स्वतंत्रता आन्दोलन को तीव्र करने के लिए नमक सत्याग्रह चलाया था। इसमें जो लोग आगे रहे, उन्हें श्रेय मिला। नवनिर्माण के इस कार्य के अन्तर्गत भी जो आगे रहेंगे तथा अपनी भागीदारी देंगे, उन्हें भी श्रेय, सम्मान व सहयोग अधिकाधिक मिलेगा। आपका जो श्रम, भावना, धन इसमें लगा है, वह हजार गुना होकर वापस होगा और आप धन्य हो जाएँगे।
यह जो महापुरचरश्चरण चल रहा है, वह न केवल भारत के लिए, वरन् सारे विश्व के लिए, मनुष्य जाति के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहेगा। अगले दिनों युगसृजन में गायत्री महाविद्या को युग-शक्ति का रूप धारण करना है। अगले ही दिनों उसे विश्वदर्शन का, अध्यात्म का केन्द्र बिन्दु बनने का अवसर मिलेगा। अत: आप सब लोग जो इस कार्य में सहयोग देंगे, हमें काफी प्रसन्नता होगी। हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि आप में, आपके घर-परिवार में सुख-शांति आवे, प्रगति की ओर बढ़ें तथा आपका भविष्य उज्ज्वल हो।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति
जीवन को धन्य बनाने का महानतम अवसर
(सितम्बर, १९८० में शान्तिकुञ्ज में
दिया गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! यह प्रज्ञावतार के अवतरण का समय है। ये बीस वर्ष बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । इन बीस वर्षों में घोर परिवर्तन की तैयारियाँ महाकाल ने कर ली हैं। ये बीस वर्ष भगवान् के द्वारा गलाई एवं ढलाई े हैं। दुनिया इसे याद करेगी कि ऐसा कौन-सा समय आया जिसमें इतने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो गए। इसमें आप देखेंगे कि पुराने जमाने की अवांछनीयताएँ समाप्त हो जाएँगी तथा नये जमाने की सुखद संभावनाएँ लोगों को दिखायी पडऩे लगेंगी। मनुष्य का सुख-शान्ति के साथ जीवन जीना संभव हो सकेगा। हमने इस बात को युगशक्ति गायत्री में, अखण्ड ज्योति में छाप दिया है। इस समय हर धर्मवेत्ता तथा हर महान भविष्यवक्ता ने एक स्वर से इस बात को स्वीकार किया है कि अगले बीस वर्ष बड़े ही उथल-पुथल के होंगे।
इस समय अपनी पृथ्वी के संतुलन को ठीक करने के लिए भगवान् ने अवतार लेने का निश्चय किया है। ये चौबीसवाँ अवतार अन्तिम अवतार होगा। चौबीस अक्षर गायत्री मंत्र के होते हैं। यह प्रज्ञावतार ही गायत्री का अवतार होगा, जो इस शतक के अंत तक अपना काम पूरा कर लेगा और नया युग लाएगा। इसकी तैयारियाँ हो चुकी हैं। ये जो भविष्यवाणियाँ हैं, इन्हें आप माखौल न मानें। ये शब्द स्वयं महाकाल ने-भगवान् ने कहे हैं, ऐसा मानना चाहिए।
ऐसे समय में आप सभी जाग्रत आत्माओं को केवल हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं है, बल्कि विशेष काम पूरा करना है। भगवान् का अवतार तो होता है, परन्तु वह निराकार होता है। उनकी वास्तविक शक्ति जाग्रत आत्मा होती है, जो भगवान् का संदेश प्राप्त करके अपना रोल अदा करती है। जो भी भगवान् हुए हैं, वे साकार लोगों के माध्यम से ही अपना काम करते हैं, क्योंकि निराकार अपना काम स्वयं नहीं कर सकता। वह तो प्रेरणा, प्रकाश, शक्ति, मार्गदर्शन कर सकता है। काम तो साकार व्यक्तित्व-जो महान आत्मा, जाग्रत आत्मा होते हैं, उन्हें ही पूरा करना होता है। वास्तव में उन्हें साकार यानि आकार बनाकर ही वह काम करना पड़ता है। प्राण निराकार है, परन्तु उसका आधार साकार ही होता है। इसीलिए उसे शरीर धारण करके अपना कार्य पूरा करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार प्रज्ञावतार अपनी जो गतिविधियाँ चलाने जा रहे हैं, उसमें अनीति, अत्याचार से लडऩा है। उसके लिए उन्होंने कुछ माध्यम-साधन बनाया है या यह कह सकते हैं कि उन्होंने कुछ माध्यम चुना है।
वास्तव में भगवान् के कार्य में जिन्हें हाथ बँटाने का मौका मिल सके, उन्हें हम बड़ा सौभाग्यशाली मानते हैं। वे स्वयं भी इस बात को अपना सौभाग्य मानेंगे। इतना ही नहीं सारी दुनिया उनको याद करती रहेगी कि हमारे बुजुर्ग, हमारे बाप-दादे इतने महान तथा सौभाग्यशाली थे, जिन्होंने आगे बढ़कर भगवान् का हाथ बँटाया था तथा उनके कन्धे से कन्धा लगाया था। ये बातें आने वाली पीढिय़ाँ गर्व से कहेंगी। आज तो सब चादर तानकर सोये हुए हैं। आज किस प्रकार की स्थिति हो गयी है? चारों तरफ अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ रहा है। आज जो व्यक्ति प्रतिभाशाली हैं तथा आत्मबल से सम्पन्न हैं, उनमें से भी अधिकांश दो बातें ही सोचते हैं कि हमें पेट भरना चाहिए तथा कीड़े-मकोड़े की तरह औलाद पैदा करनी चाहिए। इसके अलावा उनको किसी बात की चिन्ता नहीं है। न तो वे परमार्थ की बात सोचते हैं, न आत्मा की बाबत सोचते हैं, वे केवल अपने स्वार्थ में ही संलग्र हैं।
इस विषम परिस्थिति में युग-निर्माण परिवार के व्यक्तियों को महाकाल ने बड़े जतन से ढूँढ-खोजकर निकाला है। आप सभी बड़े ही महत्त्वपूर्ण एवं सौभाग्यशाली हैं। इस समय कुछ खास जिम्मेदारियों के लिए आपको महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। आपको भगवान् के कार्य में भागीदारी निभानी है। आपको ऐसा सुन्दर मौका मिला है। वास्तव में आपको यह तथ्य समझना चाहिए कि आप भगवान् के विशेष आदमी हैं तथा भगवान् के विशेष काम के लिए आपको धरती पर अवतरित होना पड़ा है। आप धरती पर केवल बच्चे पैदा करने और पेट भरने के लिए नहीं आए हैं, बल्कि आज की इस विषम परिस्थितियों को बदलने में भगवान् की मदद करने के लिए आए हैं। इस बात को फिर से समझ लीजिए।
आपका यह ख्याल है कि भगवान् अगर किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसे बहुत सारी धन-सम्पत्ति देते हैं तथा औलाद देते हैं। यह बिल्कुल गलत और घटिया ख्याल है, भगवान के बारे में आपका। आपको इस ख्याल को बदलना चाहिए। वास्तविकता ये है कि जो भगवान् के नजदीकी होते हैं, उन्हें धन-सम्पत्ति एवं औलाद से अलग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति में ही उनके द्वारा यह सम्भव हुआ है कि वे भगवान् का काम करने के लिए अपना साहस एकत्रित कर सकें और श्रेय भी प्राप्त कर सकें। इससे कम कीमत पर किसी को भी श्रेय नहीं मिला है। आप चाहेंगे कि आपको धन-सम्पत्ति भी मिले, औलाद भी मिले तथा भगवान् का प्यार भी मिले, तो यह कदापि संभव नहीं है। आपको एक चीज तो अवश्य छोडऩा पड़ेगा। तभी आप भगवान् के प्यार, आशीर्वाद, अनुदान के भागीदार हो सकते हैं।
मित्रो, ऐसे समय में जिसे हम युग-संधि कहते हैं, प्रभातकाल की वेला तथा स्वर्णिम् सौभाग्य की वेला कहते हैं। इस महान समय में आप लोगों को केवल आवश्यक कार्य ही करने चाहिए। इस खास समय में आप लोगों को अपनी-अपनी हथकडिय़ों को थोड़ा ढीला कर देना चाहिए। इसका मतलब इस समय में सम्पत्ति इक_ïा करने की प्रवृत्ति तथा औलाद पैदा करने की प्रवृत्ति को बन्द कर देना चाहिए। इस समय आपको अपने मन को थोड़ा संयमित कर लेना चाहिए। हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हैं, उनसे हम क्या कह सकते हैं, परन्तु जो जागरूक हैं, उन्हीं से हम कुछ कह सकते हैं। आप जागरूक हैं, इसलिए हम आपसे कुछ कह रहे हैं। वास्तव में इस समय हर क्षेत्र के लोग सोये पड़े हैं। इससे अध्यात्म का क्षेत्र भी अछूता नहीं है। आज अध्यात्म क्षेत्र में वे ही व्यक्ति हैं, जो थोड़ा बहुत पूजा-पाठ करने के बाद अपनी सभी मनोकामनाएँ पूरी कराना चाहते हैं। ये सारे के सारे व्यक्ति सोये हुए हैं। ये चाहे सेठ हों या मंत्री या अध्यापक, सभी सोये हुए हैं। उनसे कुछ कहा भी जाए, तो उनकी आत्मा के ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा। ये इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देंगे। इनको तो हम पूजा के क्षेत्र में भी सोये हुए कहते हैं, अध्यात्म के क्षेत्र में सोये हुए कहते हैं।
आज प्रज्ञावतार को ऐसे जागरूकों की आवश्यकता है, जो दुनिया के कोने-कोने में जाकर सोये हुए लोगों को जगा सकें, उनके मन-प्राणों को झकझोर सकें। उनमें साहस और हिम्मत पैदा कर सकें। हम आपको देखकर यह बतला सकते हैं कि आप जागरूक व्यक्ति हैं। युगसंधि के समय पर जो महत्त्वपूर्ण कामों में हनुमान, अंगद और अर्जुन जैसा सहयोग कर सकते हैं तथा भगवान् के उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं। हम आप लोगों को सौभाग्यवान मानते हैं। हम आप लोगों को युगप्रहरी मानते हैं। हम आपको भगवान् का सहयोगी-सहायक मानते हैं। हम आप लोगों से इस समय एक ही निवेदन करना चाहते हैं कि आप लोगों को उन बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए, न ही वैसा करना चाहिए, जिन बातों पर सामान्य लोग ध्यान देते हैं और जो करते हैं। हमें पूरा विश्वास है कि आपने पिछले हजारों वर्षों में इसी प्रकार कई बार भगवान् का काम किया है। अब आप चाहें, तो पुन: हजार वर्षों तक अपना जीवन धन्य कर सकते हैं तथा महामानव बनने का श्रेय एवं सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
हम एक बात पुन: आपसे कहना चाहते हैं कि फिर ऐसा कोई समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बावत न सोचें। आपको भगवान् के इस काम के अन्तर्गत रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता सदा पूरी होती रहेगी, इसके लिए किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान् के काम में सहयोग करने, हाथ बँटाने से आपको दोहरा लाभ मिलता रहेगा-एक लोकमंगल का, दूसरा प्रभु समर्पित जीवन जीने का। मित्रो, हमारी इतनी सी बात अगर आप मान लें कि आप अपने चिन्तन से औलाद एवं धन के प्रति थोड़ा विराम लगा दें, तो मजा आ जाएगा और आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। समय की माँग को समझें और जीवन को धन्य बनाने का यह सुयोग हाथ से न जाने दें।
आप यह मान्यता बनाकर चलें कि इस समय भगवान् का काम करने की आपको नितांत आवश्यकता है। इस काम के प्रति इस समय आपको भी प्यास होनी चाहिए। भगवान् को भी अपने काम कराने की प्यास है। आपसे भगवान् कुछ चाहते हैं। आपको भी भगवान् की आवश्यकता को पूरा करने के लिए साहस एवं हिम्मत के साथ आगे बढऩा चाहिए। अगले दिनों में धन का संग्रह कोई नहीं कर सकेगा, क्योंकि आने वाले दिनों में धन के वितरण पर लोग जोर देंगे। शासन भी अगले दिनों आपको कुछ जमा नहीं करने देगा, अत: आप मालदार बनने का विचार छोड़ दें। आप अगर जमाखोरी का विचार छोड़ देंगे, तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है। अगर आप पेट भरने-गुजारे भर की बात सोचें, तो कुछ हर्ज नहीं है। आप संतान के लिए धन जमा करने, उनके लिए व्यवस्था बनाने की चिन्ता छोड़ दें। उन्हें उनके ढंग से जीने दें। संसार में जो आया है, वह अपना भाग्य लेकर आता है।
जार्ज वाशिंगटन अपने भाग्य से ही महान बने थे। उनके खानदान वालों ने उन्हें महान नहीं बनाया था। दूसरे और भी मनुष्य जो गरीब खानदान में पैदा हुए, उनके माँ-बाप ने उनके लिए दौलत नहीं छोड़ी थी, परन्तु वे अपने पुरुषार्थ से-हिम्मत से आगे बढ़े, धनवान बने। इस समय औलाद के लिए पैसे-धन-दौलत छोड़कर जाने की बात न सोचें। उन्हें श्रेष्ठï संस्कार दें। औलाद के पास धन नहीं, तो कोई बात नहीं है। आपके पास भी धन नहीं है, तो क्या हुआ? इस महत्त्वपूर्ण समय में आप प्रज्ञावतार का काम तो कर सकते हैं।
यह युगसन्धि का पहला वर्ष है। इस समय हर प्रज्ञापरिवार को तीन उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं। आपको भी तीन उत्तरदायित्वों को पूरा करना चाहिए। आपको इस समय पुरुषार्थ करना चाहिए तथा वरदान पाना चाहिए। कभी भी किसी को फोकट में कुछ नहीं मिला है। जब से यह इतिहास बना, तब से अब तक मुफ्त में किसी को कुछ नहीं मिला है। स्वामी विवेकानन्द ने, शिवाजी ने भी कीमत चुकाई, तब कुछ पाया। आप फोकट के फेर में है। मित्रो, मिट्टïी भी फोकट में नहीं मिलती। आप तो कीमत चुकाना भी नहीं चाहते। यह कीमत चुकाने का वक्त है। आप कीमत चुकाने के लिए आगे आइए न। आप बीज बोने का प्रयास तो कीजिए। अगर आप बीज नहीं बोएँगे, तो फसल कैसे काटेंगे। आप कहते हैं कि गुरुजी हम तो भजन करते हैं। भजन का हम क्या करें? केवल भजन से कोई बात नहीं बनने वाली है। भजन के साथ-साथ पुरुषार्थ भी करें। जितने संत, महामानव इस धरती पर हुए हैं, उन्होंने पुरुषार्थ किया है। तब फल पाया है। आप इस तरह पड़े रहेंगे तथा तीन माला का जप करते रहेंगे तो आप घाटे में रहेंगे। आपको कुछ लाभ नहीं मिलने वाला है। आप वरदान माँगते रहिए—कोई भी देने वाला नहीं है।
हमने पुरुषार्थ किया है। हाँ, हमने भजन भी किया है, लेकिन भजन से कुछ नहीं होता। आप में से कोई भी ऐसा आदमी नहीं है, जो पुरुषार्थ नहीं कर सकता है। आप कहते हैं कि हमारे पास क्या है, हम पुरुषार्थ कैसे करें? हम पूछते हैं कि अगर आपके पास धन-दौलत नहीं है, तो अक्ल तो है। आपके पास समय तो है, श्रम तो है। लगाइए न इन्हें भगवान् के काम में। समय की माँग को देखते हुए हम फिर से आप लोगों से यह प्रार्थना करते हैं कि यह महत्त्वपूर्ण समय है। आपको अपनी अक्ल, समय, श्रम, धन जो भी हो उसे भगवान् के खाते में जमा करने का प्रयास करना चाहिए। इस समय महाकाल, जो हिमालय में रहते हैं, उनका तीन कार्य का आदेश है। उसे पूरा करने का प्रयास करें। इन कामों के द्वारा आप घाटे में नहीं रहेंगे। ये बातें आपको अवश्य माननी चाहिए।
पहला-युगसंधि महापुरश्चरण की भागीदारी अवश्य निभाने का प्रयास करना चाहिए। नैष्ठिïक उपासना-पाँच माला गायत्री मंत्र का जप करें। इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा। इसमें अवश्य भाग लें। इसमें आत्म-कल्याण और विश्व कल्याण का भाव जुड़ा है।
दूसरा-हर गाँव में, हर शहर में प्रज्ञावतार का संदेश घर-घर तक पहुँचाने का आपको प्रयास करना चाहिए। इस बार हम सामूहिक कार्यक्रम करना चाहते हैं। इसके लिए हम चाहते हैं कि कुछ लोग परिव्राजक के रूप में युग-चेतना के संदेश को पूरे देश में पहुंचाने का प्रयास करें। वे समयदान दें और साधु-ब्राह्मïण का जीवन जिए।
तीसरा-अब व्यक्ति एकाकी काम न करे, बल्कि सब मिलजुल कर काम करेंगे। हम चाहते हैं कि हर गाँव में एक चरणपीठ, ग्रामतीर्थ स्थापित हो जाए और सभी लोग वहाँ इक_ïे हों तथा मिलजुलकर आगे के काम की-प्रगति की योजना बनायी जाए। जिस तरह एम.एल.ए. अपने क्षेत्र के विकास की योजना बनाते हैं, उसी प्रकार चरणपीठ वाले अपने-अपने गाँव के विकास की योजना बनाएँ और उसे चरितार्थ करें।
हमने शक्तिपीठ के लिए अनुरोध किया था। वह वजन हमने उठा लिया है। प्रज्ञापीठों का भी काम, उत्तरदायित्व पूरा होने वाला है, परन्तु हम उससे ज्यादा महत्त्व चरणपीठ को देना चाहते हैं, जो हर गाँव में हो। यह हमारे प्रज्ञावतार का प्रतीक हो-देवी का प्रतीक हो। इस वर्ष हमें हर गाँव में जाने की इच्छा है। अत: आप अपने-अपने मित्रों, रिश्तेदारों को बोल कर हर गाँव में एक चरणपीठ बनाने का प्रयास करें। इस चरणपीठ का काम कोई महँगा नहीं है। आप इसे सहज में पूरा कर सकते हैं। एक विवाह-शादी में कम से कम खर्च ६००० रुपये से कम नहीं होता है। चरणपीठ में तो उतना भी नहीं लगने वाला है। आप यह मानकर चलें कि आपको भगवान् ने एक संतान चरणपीठ के रूप में दी है। आप अपना दिल चौड़ा तो कर लीजिए, हिम्मत तो कर लीजिए, इसके बाद आपका काम सरलता से हो जाएगा। आपको मालूम नहीं है मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के एक भील ने प्रज्ञापीपठ के लिए अपनी जमीन दे दी। उसकी व्यवस्था एवं परिव्राजक खर्च के लिए एक और भी खेत दान कर दिया। आप क्या उस भील से भी गए-गुजरे हैं।
आप भगवान् के भक्त हैं, प्रज्ञापुत्र हैं, फिर आपकी हिम्मत इतनी कम कैसे है? आप चाहें तो किसी के पास हाथ पसारने की आवश्यकता नहीं है। आप तो एक बीघा जमीन बेचकर इस काम को कर सकते हैं। भगवान् के भक्त इतने कंजूस एवं कायर? यह देखकर तो हमें आश्चर्य होता है। आपको इतना कृपण नहीं होना चाहिए। आप दूसरों पर दोष लगाते हैं कि अमुक ने समय नहीं दिया, अमुक ने पैसा नहीं दिया। आप अपने को तो पहले तैयार करें। हम आपको कह रहे हैं। इतना ही नहीं सबसे पहले आपको आगे बढ़कर काम करना चाहिए। आप स्वयं २०० रुपये देकर पहल कीजिए, फिर देखिए चरणपीठ बनता है या नहीं। आप तो लोगों से पहले चार आना, रुपया माँगते हैं। आप अगर स्वयं पहल करेंगे, तो देखेंगे कि आप घाटे में नहीं रहेंगे। आप अपने से काम शुरू करें।
हमने ६००० रुपये में चरणपीठ बनाने की एक योजना दी है। उसमें चार चीजें हैं। इसमें कार्यकत्र्ता निवास नितान्त आवश्यक है। मंदिर बनाकर ताला लगा देंगे, तो कैसे काम चलेगा? इसलिए एक कार्यकत्र्ता निवास अवश्य बनाना होगा। दूसरा एक हॉल बना दिया जाए, जिसमें हवन, सत्संग के कार्य के साथ-साथ रात्रि को कथा-गोष्ठïी, योग शिविर प्रशिक्षण भी चल सकें। उसी में देवमन्दिर भी होना चाहिए, क्योंकि देवता नहीं होंगे, तो श्रद्धा कहाँ से जुड़ेगी। ये सभी चीजें ६००० रुपये में शामिल हैं। आपको अगर गायत्री माता की मूर्ति लेनी है, तो १००० रुपये का खर्च अतिरिक्त हो जाएगा। उस परिस्थिति में ७००० रुपये खर्च होगा। आप बड़ी मूर्ति नहीं लगा सकते, तो छोटी लगा दें। इसमें एक पुस्तकालय भी शामिल है। इस प्रकार ६००० रुपये का त्याग आप सभी को मिलजुल कर करना चाहिए। इसके अलावा जहाँ बड़ी शक्तिपीठें बन रही हैं, वहाँ भी आपको सहयोग देना चाहिए। उनके बन जाने के बाद वहाँ से कार्यकत्र्ता आपको मिलेंगे, वहाँ से सहयोग और मार्गदर्शन मिलेगा। आप सभी उन्हें सहयोग करें, ताकि वे जल्दी बन जाएँ और मिशन का उद्देश्य पूरा हो सके। हमारी गुजरात में पाँच सौ-छह सौ शाखाएँ हैं। हम चाहते हैं कि कम से कम २४० चरणपीठें वहाँ अवश्य बनें। ६००० रुपये कोई बड़ी बात नहीं है। इतना खर्च करके आप इसे बना डालिए। हम आपका ब्याज सहित रुपया वापस कर देंगे।
हमने जो कुछ भी समाज को दिया है, उससे अधिक पा लिया है। प्राचीनकाल में भी जिन लोगों ने जो कुछ दिया, उससे ज्यादा पाया था। आप यकीन रखें, आप भी जितना लगाएँगे, उससे अधिक पाएँगे। आप ज्यादा देने के लिए पात्रता साबित कीजिए। आप दे नहीं पाएँगे, तो हम आपकी सहायता कैसे कर सकते हैं। आप कृपण बने रहें, तो हम क्या करेंगे? आपको महत्त्वपूर्ण श्रेय किस प्रकार दे पाएँगे। आप आगे बढि़ए और इस चरणपीठ के कार्य को पूरा कीजिए। आपके क्षेत्र में जहाँ कहीं भी शक्तिपीठें बन रही हैं, उन्हें पूरा कराने का प्रयास कीजिए।
तीसरी बात यह है कि मात्र इतने से काम नहीं चलेगा, बल्कि आपको जनशक्ति को भी जगाना होगा। इसके बिना युग-परिवर्तन की भूमिका सम्भव नहीं होगी। आदमी की भी इसमें नितान्त आवश्यकता है। आपने मशीन तो बना दी, परन्तु कारीगर न हो, तो मशीन चलेगी कैसे? हमारे मिशन के साथ जनशक्ति की भी आवश्यकता है। इतने बड़े समाज की माँग केवल शान्तिकुंज से कहाँ पूरी हो सकती है। आप लोगों में से हर आदमी से प्रार्थना है कि आपके अन्दर जो चाण्डाल एवं बनिया छिपा हुआ है, उसे निकालिए। चाण्डाल आपको अच्छे काम नहीं करने देता है। वह हमेशा आपको बुरे काम करने की ही प्रेरणा देता है। आपके भीतर बनिया भी छिपा है, जो आपको कंजूस बनाकर रखता है। एक दमड़ी भी समाज के लिए, लोकमंगल के लिए सही ढंग से खर्च करने की प्रेरणा भी नहीं देता है। इसी के साथ यह बात भी सत्य है कि आपके भीतर ब्राह्मïण एवं संत भी छिपा है। उसे भी देखने का, जाग्रत एवं जिन्दा करने का प्रयास करें। ब्राह्मïण एवं संत को आगे आना चाहिए। इसका क्या मतलब? इसका मतलब यह है कि आपमें से जो पचास साल के हो गए हैं या जिनकी घरेलू जिम्मेदारी पूरी हो गई है अथवा कम हैं, उन्हें संत-ब्राह्मïण के काम के लिए आगे आना चाहिए। आपके लिए गुजारे का है तो आप हाय-हाय क्यों करते हैं? आपके बच्चे जब कमाने लग गए हैं, तो क्यों आप घर में बैठकर मर रहे हैं? आपको घर से बाहर निकलना चाहिए। आपको परिव्राजक के रूप में बादलों की तरह घर से निकलना चाहिए तथा समाज के लोगों को नया प्रकाश, नयी प्रेरणा, नयी रोशनी देनी चाहिए।
गायत्री परिवार के हर व्यक्ति से हमारा अनुरोध है कि जितने व्यक्ति अपने घर की व्यवस्था करके जितना समय समाजसेवा के लिए निकाल सकते हों, वे युगसृजन की भूमिका निभाने के लिए आगे आएँ। संत की प्रवृत्ति को आप जगाइये तथा अपने समय का एक अंश लगाकर समाज के लोगों को ऊँचा उठाने का प्रयास करें। उन्हें जीवन जीने की कला सिखाएँ। अगर संत की प्रवृत्ति आपमें जाग जाए, तो जो आप अपने परिवार, बाल-बच्चों के लिए खर्च कर रहे हैं, उसका एक अंश समाज के लिए अवश्य खर्च करेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। संत अगर मुर्दा पड़ा रहे, संत अगर सोता रहे, तो हम क्या कर पायेंगे? आप में संत की प्रवृत्ति जागनी ही चाहिए। आपके भीतर एक और भी चीज है, जिसे हम ब्राह्मïण कहते हैं। ब्राह्मïण कौन है? जो किफायतसारी जीवन जीता हो। अगर आप ब्राह्मïण हैं, तो हम आपके खर्चे की व्यवस्था कर सकते हैं। आप आगे आएँ और भगवान् का कार्य करें। पिछले जमाने में लोग ब्राह्मïणों को दक्षिणा देते थे। इसका मतलब यह था कि वे उनके खर्चों का भार उठाते थे।
हमने भी अपने परिजनों से दक्षिणा माँगी है। घर-घर में ज्ञानघट स्थापित किए हैं और लोगों से कहा है कि आप इसमे दस पैसे नित्य डालिए। हमें दक्षिणा दीजिए, समाज एवं राष्टï्र के उत्थान के लिए इसकी आवश्यकता है। लोगों ने हमारी बात मानी और ज्ञानघटों की संख्या बढ़ रही है। आप इसमें कंजूसी मत कीजिए। नियमित रूप से इसमें दस पैसे डालिए। इससे हम युग-परिवर्तन की सारी जिम्मेदारी पूरी करेंगे। साथ ही साथ हम ब्राह्मïणों को भी जीवित करेंगे और उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करेंगे। हम अपने देश, समाज के लोगों को ऊँचा उठाएँगे।
मित्रो, ब्राह्मïण किसे कहते हैं? यह कोई जाति नहीं, वरन् मानव समुदाय का वह वर्ग है, जो केवल अपने लिए ही नहीं, देश समाज और संस्कृति के लिए जीता है। जो पेट भरने और तन ढकने के लिए दो कपड़े की व्यवस्था जुटा लेने के पश्चात् बाकी बचे समय में समाज का काम करता है। यही ब्राह्मïण की वास्तविक पहचान है। जो इस आदर्श एवं सिद्धान्त पर चल रहे हैं, वे सारे के सारे लोग ब्राह्मïण है। आपको मालूम होना चाहिए कि आगामी दिनों प्रज्ञावतार का जो कार्य विस्तार होने वाला है, उस काम की जिम्मेदारी केवल ब्राह्मïण तथा संत ही पूरा कर सकते हैं। अत: आपको इन दो वर्गों में आकर खड़ा हो जाना चाहिए तथा प्रज्ञावतार के सहयोगी बनकर उनके कार्य को पूरा करना चाहिए। अगर आप अपने खर्च में कटौती करके तथा समय में से कुछ बचत करके इस ब्राह्मïण एवं संत परम्परा को जीवित कर सकें, तो आने वाली पीढिय़ाँ आप पर गर्व करेंगी। अगर आपको इस युग की समस्याओं के समाधान करने के लिए खर्चे में कुछ कमी आती है, तो हम आपको सहयोग करेंगे, परन्तु एक बात मालूम रहे कि हम आपके लिए प्रेाविडेण्ट फण्ड की व्यवस्था नहीं कर सकते हैं। अगर आप समय निकाल सकते हों, तो समय निकालने का प्रयास करें। हमें समयदानियों की नितान्त आवश्यकता है। आप आगे आएँ तथा प्रज्ञावतार के कामों को पूरा करें। आपमें से जहाँ कहीं भी संत, ब्राह्मïण जिन्दा हों, वे आगे आवें और महाकाल के साथी-सहचर बन कर लोकमंगल का काम करें।
संत पूरा समय देते हैं और ब्राह्मïण कुछ समय देते हैं। आपको इन दोनों में से जो अच्छा लगता हो, उस उत्तरदायित्व को पूरा करें। आपको इस समय तीन काम अवश्य पूरे करने चाहिए-
(१) युगसंधि महापुरश्चरण आपको करना ही चाहिए
(२) किसी न किसी प्रकार हर गाँव में एक चरणपीठ, ग्रामतीर्थ जिसकी लागत लगभग ६ हजार रुपये है, अवश्य बनाना चाहिए।
(३) आपको संत या ब्राह्मïण दोनों में से किसी न किसी परम्परा को अपनाना चाहिए।
आप इसे स्वयं करें, जो आपके लिए सम्भव दिखलाई पड़ता है। इसके साथ ही आप औरों से भी कराइए। अगर आप इन तीनों कामों को कर सकते हैं, तो हमें विश्वास है कि आप प्रज्ञावतार के कामों को पूरा करने में सक्षम हो सकते हैं। आपसे हमारा निवेदन है कि आप हमारे सच्चे साथी-सहचर बनकर, महाकाल के सच्चे साथी-सहचर बनकर, अगर इतना कर पाए, तो जो इस समय की माँग है, वह पूरी हो सकेगी। हमें विश्वास है कि आप इसे पूरा कर सकें गे।
सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद् दु:खमाप्रुयात्॥
ॐ शान्ति:
आत्मिक प्रगति का ककहरा
(शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में अक्टूबर १९८० में दिया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ, ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! कई बार ऐसा होता है कि बाप-दादों की बहुत-सी दौलत हमारे हाथ लग जाती है। बच्चे चाहे कमाएँ या न कमाएँ, माता-पिता बहुत-सा धन बच्चे के लिए छोड़कर चले जाते हैं। जो लड़के समझदार होते हैं, वे पैतृक धन के रहते हुए भी अपनी आमदनी का कोई-न-कोई जरिया निकाल ही लेते हैं, जिससे पैतृक धन में कमी न आने पाए। लेकिन कुछ ऐसे भी लड़के होते हैं, जो माता-पिता के धन को जुआ खेलने में, शराब पीने में गँवा देते हैं। इस तरह बुरे व्यसनों से उनका समस्त धन नष्टï हो जाता है और वे विनाश के कगार पर पहुँच जाते हैं। बुराइयों के गर्त में गिर जाते हैं।
भगवान् ने अपनी औलाद के लिए अपने अलग नियम व तरीके बनाए हैं और उसका नाम रखा है, ''मनुष्य।ÓÓ मनुष्य क्या है? मनुष्य भगवान् की नकल है। हम इसी से अंदाज लगा सकते हैं कि भगवान् बड़े रूप में कैसा होगा? जैसे इनसान है, भगवान् भी वैसा ही होगा। ऐसे ही हम अनुमान लगा सकते हैं कि समुद्र कैसा होगा? जैसा कि तालाब है, हम वैसा ही कुछ अंदाज लगा सकते हैं। कुछ ऐसी शक्तियाँ भी सृष्टिï में हैं, जो छोटे तालाब को बड़े समुद्र में बदल सकती हैं।
श्रेष्ठïतम कृति है मानव
मित्रो! भगवान् ने अपनी सर्वश्रेष्ठï प्रतिमा इनसान के रूप में ही बनाई है। शेर जब बच्चा पैदा करेगा, तो अपने समान ही पैदा करेगा, बिल्ली पैदा नहीं करेगा। इसी प्रकार सभी जीव अपने समान ही संतानोत्पत्ति करते हैं। इसी प्रकार भगवान् ने अपने प्रतिरूप में इनसान को बनाया है। इनसान को उसने इसलिए बनाया है कि वह संसार को सुंदर एवं महत्त्वपूर्ण बनाने में अपना योगदान दे। फिर हमारी आपकी मिट्टïी पलीद कैसे हो गई? हर आदमी दु:खी क्यों पाया जाता है? पूरे संसार में अनाचार और भ्रष्टïाचार क्यों फैला हुआ है? पूरा संसार अज्ञानता के अंधकार में क्यों डूब रहा है? इसका क्या कारण है? भगवान् चुप क्यों है? भगवान् को 'सत्यम्-शिवम-सुंदरम्Ó कहा जाता है, फिर उसके राजकुमार इनसान में इस बात की कमी कैसे सही गई? क्या बात हुई कि इनसान ने भगवान् के दिए हुए गुणों को एकदम भुला दिया!
स्रष्टïा ने सृष्टिï का जो प्रत्येक घटक बनाया है, उसकी छोटी-से-छोटी कलाकृति का नाम 'एटमÓ है। क्या आपने 'एटमÓ को कभी देखा है? एटम में बहुत ताकत होती है। समूचे सौरमंडल में सूर्य केन्द्र में रहता है, परंतु एटम को कभी देखा है? एटम में बहुत ताकत होती है। समूचे सौरमंडल में सूर्य केन्द्र में रहता है, परंतु एटम के अंदर ऐसा भूचाल रहता है कि वह वह सूर्य को भी अपनी ताकत से ढक लेता है। जिस तरह से अंतरिक्ष में नवग्रह चक्कर काटते रहते हैं, उसी तरह से एटम भी अपने आप में पूर्ण शक्तिशाली है व सूर्य के चारों ओर चक्कर काटता रहता है। एटम न्यूट्रानों, प्रोटानों व इलेक्ट्रानों के रूप में बराबर चक्कर काटता रहता है।
भगवान् बड़ा है, यह भी मैं मानता हूँ। एटम और इनसान दोनों बहुत ही सूक्ष्म हैं, किंतु मनुष्य की प्रकृति भगवान् ने ऐसी बना दी है कि उसमें ताकतों और चमत्कारों का समावेश कर दिया है। भगवान् और इनसान का तरीका एक ही है, सत्यम्-शिवम-सुंदरम् का। जैसे आदमी बड़ा होता है और बच्चा छोटा होता है, पर भूख दोनों की एक ही होती है। ऐसे ही भगवान् और इनसान की प्रकृति एक ही होती है।
अंतर पड़ा शक्तिक्षय के कारण
फिर यह फर्क कैसे पड़ा? मैं बताता हूँ—आपको। जैसे बड़े लोग, संपन्न लोग अपव्यय के कारण गरीब हो जाते हैं, उनकी जागीरें नीलाम हो जाती हैं। ये सब कैसे हुआ? ये सब लड़कों के अपव्यय के कारण हुआ। लड़कों ने किसी अच्छे कार्य में उस धन को नहीं लगाया, जिससे उनका जीवन आज खाना बदोशों की तरह से हो गया। आदमी के पास कमाई के बहुत सारे साधन हैं। उसकी उन्नति के लिए, लक्ष्यप्राप्ति के लिए और उसके अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत धन एकत्र हो सकता है, परंतु उसने ईश्वरप्रदत्त धन का अपव्यय किया।
मित्रो! आज हमारे सामने उपयोग की समस्या है। उत्पादन की समस्या नहीं है, कमाने की समस्या नहीं है, वरन् समस्या यह है कि धन को किस तरह से खरच किया जाए। हमें कमाने से ज्यादा उसकी चिंता करनी चाहिए, जो हमारे पास है। हमें उसकी रखवाली करनी चाहिए। एक कहावत है, 'अंधी पीसे कुत्ता खाए।Ó यह कहावत हम और आप जैसे लोगों के लिए ही किसी ने बना दी है, क्योंकि हमें अंधी की तरह दिखाई नहीं देता। जिस तरह से उसके आटे को कुत्ता खा गया था और वह बैठी अनाज पीसती रही, उसी प्रकार हमारे ईश्वरप्रदत्त धन को कोई और ही निरर्थक खा जाता है और हम कमाते रहते हैं। इसी से मिलती हुई एक और कहावत है-'अंधा रस्सी बँटता जाए। बछड़ा उसे खाता जाएÓ आपके और हमारे सामने भी ऐसी ही समस्या है।
आत्मिक प्रगति के चार मार्ग
साथियो! मैं आपको अध्यात्म के चार रास्ते बताने जा रहा हूँ। उसमें से एक साधना के बारे में है। अभी जो बछड़ा और कुत्ता का उदाहरण दिया है, वो भवसागर है। पारस को छूकर लोहे के सोना बनने की बात आपको बता चुका हूँ। पर अब मैं यह कहता हूँ कि भगवान् को छूकर आदमी भगवान् बन जाता है। रामचंद्र जी, कृष्ण जी माँ के गर्भ से पैदा हुए और जलसमाधि में या श्मशान घाट में जलाए गए। इसलिए इनसान कहलाए। जो पैदा होता है, वह मर सकता है, क्या वह आदमी भगवान् नहीं हो सकता, इनसान ही रहता है?
भगवान् आपसे यह कहता है कि यदि आपकी उपासना सही हो, तो आप साधारण मनुष्य से भगवान् बन सकते हैं। आप नर से नारायण बन सकते हैं। मुक्ति का रास्ता आपके लिए भी खुला हुआ है। आप आग हैं, लकड़ी हैं या और भी कोई त्याज्य चीज हैं। जो भी हैं आप, घबराइए मत। आग से रिश्ता बनाइए और आग की भाँति दोषरहित जीवन बनाइए। जिस प्रकार से बच्चे गुड्डïे-गुडिय़ों से खेलते हैं, उसी प्रकार आप भी पूजा-पाठ के द्वारा भगवान् से खेलते हैं। आपने कभी उपासना का महत्त्व ही नहीं समझा। यदि समझा होता, तो भगवान् के नजदीक बैठने वाले जैसे उनके बराबरी के हिस्सेदार हो जाते हैँ, आप भी उसी प्रकार उनके बराबर हो जाते।
सही उपासना कैसी
मित्रो! यदि आप भगवान् की उपासना सही तरीके से करें, तो आप टिड्डïे की तरह से हो जाएँगे। बरसात में जब चारों ओर हरियाली छाई रहती है, तो उस हरियाली को देखकर टिड्डïा हरे रंग का हो जाता है। गरमियों में घास सूखकर पीले रंग की हो जाती है, तो टिड्डïा पीली घास को देखकर पीले रंग का हो जाता है। इसी तरह से जब आपको चारों तरफ से शैतान दिखाई पड़ता है, तब आप शैतान हैं। जब आपको हैवान दिखाई पड़ता है, तब आप हैवान हैं। जब आपको इनसान दिखाई पड़ता है, तो आप इनसान हैं। यदि आप टिड्डïे की तरह से देखेंगे, तो आपको भगवान् दिखाई पड़ेगा। बताइए आपने कब की थी भगवान् की उपासना? गुरुजी! हमने तो कल ही की थी। भगवान् हमारी चौकी पर रखे हुए हैं। बेटे! भगवान् को चौकी पर नहीं, अपने हृदय में रखा जाता है। जिससे हमारे खून के साथ भगवान् घुल-मिल जाए। उपासना जीवन में समाहित की जाती है, साँसों में घोली, समाई जाती है। उपासना जीवन का साइंस है, जो हमारे जीवन के प्रत्येक आचरण में छाई रहती है। गोमुखी में हाथ डालकर माला घुमाने से उपासना नहीं होती।
मित्रो! हम उपासना को आपके चिंतन में देखना चाहते हैं, आपके विचारों में देखना चाहते हैं। जैसे सूरदास के जीवन में भगवान् आ गया था, मीरा के जीवन में भगवान् आ गया था, वैसे आपके जीवन में क्यों नहीं आया? क्योंकि भगवान् के चिंतन को आपने नहीं समझा। उसके स्वरूप को नहीं समझा। हिंदुस्तान के करोड़ से अधिक इनसान नकली उपासना करते हैं। नकली उपासना से कभी भी आप भगवान् में समाविष्टï नहीं हो सकते। प्राचीन समय के सात ऋषियों को हम उपासना करने वाला मानते थे। उन्हें हम सप्तर्षि कहते थे। परंतु आज हिंदुस्तान में न जाने कितने बाबाजी रंग-बिरंगे कपड़ा पहनकर उपासना करते हैं और जगह-जगह लोगों से अपमानित होते हुए डोलते हैं। क्यों? क्योंकि उनके पास नकली उपासना है। जिस तरह से नकली दवाइयाँ होती हैं, नकली सोना होता है, उसी तरह से जो उपासना आप करते हैं, वह नकली है। आपको माला व पूजा-पाठ के जरिए बहकाया जा रहा है। इस पूजा-पाठ से आप असली कर्मकांडों की तह तक नहीं पहुँच पाएँगे और ईश्वर के ज्ञानरूपी चमत्कार से आप वंचित रह जाएँगे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाएँगे।
उपासना जीवन में उतरे
जिस प्रकार अकेले कलम से हम परीक्षा पास नहीं कर सकते, उसके साथ ही हमें अपने विषय का संपूर्ण ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार माला फेरने से हम भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकते। अच्छी तस्वीर तब तक नहीं बन सकती, जब तक कलात्मकता कलाकार की आत्मा में प्रवेश न कर जाए। केवल रंगों व कागज के प्रयोग से ही अच्छी तस्वीर नहीं बन सकती। आप उपकरणों से ही काम चलाना चाहते हैं, कर्मकांड की तह तक नहीं जाना चाहते?
मित्रो! मैंने कहा था कि आत्मा की प्राप्ति के लिए चार तरीके हैं। उनमें से एक न कम हो सकता है और न ज्यादा। आप भगवान् को अपना गुलाम मत बनाइए। भगवान् के चरणों में अपना मस्तक झुकाइए और यह कहिए कि हम आपकी आज्ञानुसार चलेंगे। हम आपके सेवक हैं। आप इस लायक नहीं हैं कि अपनी हुकूमत भगवान् पर चला सकें। भगवान् को जो कुछ आपको देना था, दे दिया। अब आपका काम है कि आप भगवान् का ब्याज चुकाएँ। भगवान् पर अपने कर्मों का रौब मत दिखाइए। पहले तो आप भगवान् से जो मनुष्य का जीवन लेकर आए हैं, उसका ब्याज चुका दीजिए। नहीं, हमने तो पहले भी बैंक का ब्याज नहीं चुकाया था। बेटे! यह बैंक का ब्याज नहीं है, यह ईश्वर का दिया हुआ मानव-जीवन है। गुरुजी! हमने तो ऐसे ही सुना था कि राम नाम लेने से ही सारे काम हो जाते हैं। फिर क्या जरूरत है—भगवान् का कर्ज चुकाने की।
मित्रो! एक समय की बात है। एक वकील और उनका एक मुवक्किल था। मुवक्किल किसी केस में फँस गया था। उसने कहा, वकील साहब! आप मुझे छुड़ा दें, तो मैं जन्म भर आपका एहसान मानूँगा। वकील ने कहा, जन्म भर एहसान मत मान, बस तू मुझे पाँच हजार रुपये दे दे, मैं तेरा केस लड़ दूँगा। तू पागल बन जाना। मैं डॉक्टरों से मिलकर तेरे पागलपन का सर्टीफिकेट बनवा दूँगा। जब तू अदालत में जाए, तो बस एक ही शब्द याद करके जाना। जब-जब तुझसे कोई सवाल पूछे तो तू कह दिया करना—में। हमारे कानून में पागलों के लिए कोई कानून नहीं है।
न्यायाधीश ने पूछा, क्या नाम है तेरा? उसने कहा, में। क्या तूने गलत काम किया है? में। न्यायाधीश कोई भी बात पूछते तो वह कहता, में। वकील ने कहा कि साहब यह तो पागल है। यह बात उसने गवाहों व सबूतों के माध्यम से सिद्ध कर दी। जजसाहब ने कहा कि इसे बरी किया जाए।
छूटने के बाद वह आदमी वकील साहब की कोठी पर गया। वकील साहब ने कहा, लाइए हमारी फीस के पाँच हजार रुपये। उस व्यक्ति ने कहा, में। इस तरह वकील साहब अपना माथा ठोकते रह गए।
भाइयो! आप और हम सब पागल ही तो हैं। आप सब राम-राम की में लगाए रहते हैं। आप वास्तविकता का मुकाबला कीजिए, नहीं तो जंजालों में भटक जाएँगे। आप जमीन पर चलिए।
चमत्कार नहीं मर्म है भाव
राबिया एक संत थी। एक बार हसन राबिया के यहाँ आए और उन पर अपना रौब गालिब करना चाहा। उन्होंने राबिया से कहा, आओ हम दोनों नमाज पढ़ेंगे। जमीन गंदी है, इसलिए हम पानी पर बैठकर नमाज पढ़ेंगे। हसन ने अपना 'मुसल्लाÓ पानी पर फेंक दिया। 'मुसल्लाÓ पानी के ऊपर तैरने लगा। 'मुसल्लाÓ नमाज पढऩे के आसन को कहते हैं। हसन के कहने पर राबिया ने सोचा, अच्छा तो ये पानी वाली बात कहकर मेरे ऊपर अपनी करामात दिखाना चाहते हैं। राबिया ने कहा, पानी पर ही क्यों? पानी को तो मछली, मेढक गंदे करते रहते हैं। राबिया ने अपना मुसल्ला उठाया और हवा में फेंक दिया। मुसल्ला हवा में तैरने लगा। राबिया ने कहा, आइए हसन, हवा में बैठकर नमाज पढ़ेंगे। हसन यह सब देखकर दंग रह गए, क्योंकि वे राबिया पर अपने चमत्कार, सिद्धि दिखाने आए थे और अपना रौब जमाने आए थे।
राबिया ने कहा—हसन! जो काम आप करने आए थे, वह तो एक मछली भी कर सकती है और जो हवा में तैरने का काम मैं करने वाली थी, उसे तो एक मक्खी भी कर सकती थी। इसलिए न हमें पानी में तैरने की जरूरत है और न हवा में उडऩे की। हमें जमीन पर ही रहने की आवश्यकता है। हमें सचाई का मुकाबला करने की जरूरत है, क्योंकि हम जमीन पर ही पैदा हुए हैं।
मित्रो! हमें भी रामनाम के चमत्कार देखने की आदत छोड़ देनी चाहिए। इनसान का हृदय तीन हजार रुपये का होता है। रामनाम सवा रुपये का होता है। तीन हजार रुपये की जमीन पर आप सवा रुपये का बीज बोइए। फसल पैदा हो जाएगी। यह जमीन की कीमत है। बीज की कीमत बहुत कम है। खाली जमीन में घास पैदा हो सकती है। आप उसमें अपनी बकरी चरा सकते हैं, परंतु बिना जमीन के आप बीज किसमें बोएँगे? भजन से अनेक काम पूरे हो सकते हैं, परंतु भजन को दृढ़ बनाने के लिए आदमी का दृढ़ चरित्र रहना, उदार रहना अति आवश्यक है। संतों को चमत्कार आते हैं,हर एक को नहीं आते। हमारा चरित्र हमेशा ऊँचा होना चाहिए। साधना का यही तरीका है, जिसे मैं आज तक आपको समझाता चला आया हूँ।
स्वाध्याय की महत्ता
कल मैंने आपसे यह निवेदन किया था कि स्वाध्याय को भी भजन का एक हिस्सा माना जाना चाहिए। हमें किसी साहित्य विशेष में कोई दिलचस्पी नहीं है। हम तो उन्हीं विचारों को अपनाना चाहते हैं, जो नेकी के रास्ते पर चलने में मदद करें, चाहे वे विचार इनसान के मुँह से निकले हों, चाहे वे किताब में छपे हों। स्वाध्याय के लिए ऐसे ही प्रेरणाप्रद विचारों व कथनों की आवश्यकता है। आप अपने अंदर से कुविचारों को निकाल फेंकिए, दृढ़ता से उनका मुकाबला कीजिए। अपने अंदर सुविचारों को पनपने दीजिए। छेनी से छेनी काटी जाती है, यदि आपके बुरे विचार आप पर हावी होते हैं, तो आपके पास ब्रह्मïचर्य का हथियार है, उसका उपयोग कीजिए। यदि दोनों की कुश्ती करवाई जाए, तो बुरे विचारों को अच्छे विचार एक ही टक्कर में चित्त कर देंगे। आपको अपनी दिनचर्या में स्वाध्याय के लिए महत्त्वपूर्ण समय रखना ही चाहिए, नहीं तो कामुकता के अश£ील विचार दिमाग में छाए रहेंगे और आप किसी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाएँगे।
संयम : एक सस्ती औषधि
साथियो! हम आपसे यही निवेदन करना चाहते हैं कि आप अपनी बरबादी को बंद कीजिए, संयमशील बनिए। असंयम कहते हैं—बरबादी को। जो गुण हमें पूर्वजों द्वारा विरासत में मिले हुए हैं, उनको हम अपव्यय करने में लगे हुए हैं। मथुरा में एक कोतवाल साहब थे। वे बहुत ही रिश्वत लेते थे। नोटों से उन्होंने थैले और पेटियाँ भरकर रखी हुई थीं। उनके लड़के नोटों को पतंग में बाँधकर छत से उड़ाया करते थे। बच्चों से कहते कि जो हमारी पतंग को काटेगा, हम उसे दस का नोट देंगे। कभी-कभी उनके लड़के दस के नोट की सिगरेट बनाकर पी लेते थे। नोट में तंबाकू रखी और सिगरेट बनाकर पी गए। पाँच-दस वर्ष में उन्होंने बाप की सारी कमाई को नष्टï कर दिया और गरीबी का जीवन जीने लगे। वह कोतवाल और उसके बेटे बरबाद हो गए। यही हालत आपकी है और आप हैं कि कहते हैं कि कोतवाल के लड़के बड़े उद्दंड थे। हम और आप भी तो धन की बरबादी करने पर आमादा हैं।
प्रकृति का प्रत्येक जानवर लंबे समय तक जीता है। मौत तो सबको आती है, परंतु कोई भी जानवर कभी बीमार नहीं पड़ा। लेकिन आदमी बीमार पड़ता है। उसके साथ रहने वाले जानवर भी जरूर बीमार पड़ते हैं। इसकी वजह क्या है? भगवान् ने जानवरों का शरीर इस तरह से बनाया है कि वह कभी बीमार नहीं पड़ते। यदि यह मान लिया जाए कि वायरस या कीटाणु आपको बीमार करते हैं, तो अस्पताल में टी०बी० के मरीजों के कपड़े धोने वाले धोबियों को तो यह बीमारी होती ही नहीं। तब वायरस कहाँ जाते हैं।
मित्रो! ये सारे कीटाणु असंयम से आते हैं, जिसकी वजह से आपने अपनी सेहत खराब कर ली है। मनुष्य अपनी जीभ की नोंक से अपनी कब्र तैयार करता है। हमने जो बीमारियाँ अपने लिए पैदा की हैं, वे सब जीभ की नोंक द्वारा पैदा की हुई हैं, क्योंकि हमने जीभ की नोंक को संयम में नहीं रखा। इससे क्या हो जाता है। जिस तरह पहले आप परीक्षा में प्रथम आते थे, अब फेल होते चले जा रहे हैं। नजर कमजोर हो गई है, उस पर चश्मा चढ़ गया है। हमारे पड़ोस में एक किरायेदार थे, मकान में दो नल लगे हुए थे। जब कभी ऊपर वालों को परेशान करना होता, तो नीचे का नल खोल देते थे। तब ऊपर वाले को पानी लेने के लिए नीचे के कई चक्कर लगाने पड़ते थे। वे चिल्लाते रहते थे पानी के लिए।
मित्रो! हमारी आँखें कहती हैं कि हमें तेज चाहिए हमारे कान कहते हैं कि हमें ताकत चाहिए। हमारा दिमाग कहता है कि हमें खुराक चाहिए। आपके अंदर हर तरह का 'वर्चस्Ó चाहिए। स्वामी दयानंद सरस्वती एक बार शौच के लिए बाहर गए, तो मार्ग में दो साँड़ कुश्ती लड़ रहे थे। दोनों ही बड़े बलिष्ठï थे और क्रोध में लड़ते हुए लहूलुहान हो रहे थे। आपस में फिर से टक्कर मारने चले, तो स्वामी दयानंद ने कहा, क्यों रे! तुम नहीं मानोगे। साँड़ फिर भी नहीं माने तो स्वामी जी ने लोटे को जमीन पर रख दिया और एक साँड़ का सींग एक हाथ से तथा दूसरे का सींग दूसरे हाथ से पकड़कर घुमा दिया। इससे एक साँड़ गिर गया और दूसरा भाग गया। यह ताकत उनमें कहाँ से आई? संयम से। आपको भी जरूरत है संयम की। आप सभी संयम की दवाई खाइए। यह दवाई शंकराचार्य, भीष्म पितामह, हनुमान् जी आदि सभी ने खाई थी। आप कहते हैं कि बाजार की दवाइयों में बहुत ताकत होती है, सो ऐसी बात नहीं है। वे दस पैसे की चीज का एक रुपये वसूल करते हैं। इसी से आप उसकी ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं। इसलिए आप संयम की सस्ती दवा खाइए। यही आपको लाभ पहुँचाएगी। इसी से आपका दिल-दिमाग और स्वस्थ बनेगा।
मित्रो! संयम ही जीवन है। संयम चार तरह के हैं। पहला है, इंद्रिय संयम। इंद्रिय संयम से मतलब है, जीभ का संयम, जिसने आपका पेट खराब कर दिया और आप बीमार रहने लगे। जरूरत से ज्यादा आप खाते चले गए और शरीर में जहर फैल गया। आप ठीक हो सकते हैं, बशर्ते आप अपने पेट पर कृपा कीजिए, जरूरत से ज्यादा मत खाइए।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस विवाहित थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम शारदा था। वे उन्हें भरपूर प्यार करते थे, परंतु कोई जरूरी नहीं कि एक-दूसरे के शरीर को बरबाद किया जाए। एक-दूसरे के शरीर में बीमारी को प्रवेश करा दिया जाए। क्या इसी से आपका प्यार होता है? क्या मतलब है आपके प्यार से! मरद औरत को खाएगा और औरत मरद को खाएगी, क्या यही अर्थ है विवाह का? गाँधी जी ने एक किताब लिखी है, 'संयम की राह परÓ। उसमें लिखा है कि स्त्री और पुरुष बहन-भाई की तरह भी रह सकते हैं। आप पशुओं से भी कुछ सीखिए। साँड़ गायों झुंड में रहता है, परंतु बिना गाय की आवश्यकता के वह गायों की तरफ देखता भी नहीं है। वह भी ब्रह्मïचर्य का पालन करता है। जब पशु संयम से रह सकते हैं, तो आप क्यों नहीं रह सकते?
मित्रो! आप अपनी जीभ को बुरे वचन बोलने और भक्ष्य खाने से रोकिए, क्योंकि इन दोनों से ही जीभ जलती है। जली हुई जीभ से भगवान् का भजन नहीं किया जा सकता। ''जैसा खाए अन्न-वैसा बने मनÓÓ—आपकी यही नियति बन गई है। अत: आप संयम का आरंभ जीभ से करिए। उससे कहिए कि हम आपको भगवान् की पूजा के लायक बनाना चाहते हैं। स्वाद के लिए हम कोई भी ऐसी चीज नहीं खाएँगे, जो हमारे शरीर के लिए हानिकारक हो। हम किसी से ऐसे शब्द नहीं बोलेंगे, जो दूसरों को गुमराह करने वाले हों, दूसरों को पतन के मार्ग पर ले जाने वाले हों। आप संयम जीभ से शुरू कीजिए, फिर देखिए कि आपकी वाणी में चमत्कार कैसे पैदा होता है?
आप इस संबंध में हमसे पूछते हैं कि गुरुजी! आपने अपनी वाणी को कैसे शुद्ध बनाया? बेटे! हमने संयम किया है। चौबीस वर्षों तक जौ की रोटी और छाछ का सेवन किया। इससे हमारी जीभ इस योग्य हुई। नमक हमने बिल्कुल नहीं खाया। इस्लाम धर्म के संस्थापक बिना पढ़े थे, परंतु जीभ के संयम से उन्होंने अपने अंदर अपनी बात मनवाने का गुण पैदा किया। ऋषियों की जीभ से निकले हुए वचन भी मंत्र थे। उन्होंने भी संयम किया था, इसलिए आपको भी उनके बताए मार्ग पर चलना चाहिए। आप भी अपने जीवन के उचित लक्ष्य को प्राप्त कीजिए। धनुष की प्रत्यंचा जितनी खींची जाएगी, तीर उतना ही तेज चलेगा। धनुष से तात्पर्य है, हमारी जीभ से, जो मंत्र के उच्चारण के लिए है। ऋषियों की जीभ से निकले हुए मंत्रों ने राजा दशरथ के चार बच्चों को जन्म दिया था। लोमश ऋषि ने राजा परीक्षित को शाप दिया था कि जा तुझे सातवें दिन साँप काट खाएगा। उनका शाप सच्चा इसलिए था, क्योंकि ऋषि संयमशील थे। अक्षरों में कोई ताकत नहीं है। ताकत तो वाणी के संयम से आती है। शक्ति का स्रोत संयम ही है।
आप दोनों में से कोई भी चीज ले लीजिए, भौतिक या आध्यात्मिक। दोनों में ही संयम की आवश्यकता है। अत: आप इंद्रियों का संयम कीजिए। इंद्रियों के संयम का अर्थ है कि आपने अपने जीवन में चार सूराख कर रखे हैं, उनमें से एक-एक को बंद करना। अगर आपने एक भी सूराख को बंद कर दिया, तो आप में ताकत आती चली जाएगी। सूराख बंद करते ही आप यह महसूस कर सकते हैं कि आप में ताकत आनी शुरू हो गई। आपको इसके चमत्कार अच्छे स्वास्थ्य के रूप में, दीर्घजीवन के रूप में दिखाई देने लगेंगे।
आप तो हर समय परायी पत्तल ही चाटने की कोशिश करते हैं। आप अपने ऊपर विश्वास करना सीखिए। अपनी ताकत को पहचानिए। संयम की शक्ति का अंदाजा लगाइए। संयम को हम तप कहते हैं। आप खाना खाएँ चाहे न खाएँ। शरीर को धूप में खड़ा रखने से भी कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, अनेकों ऋषि धूप में खड़े रहते हैं, परंतु उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ संयम के कारण ही मिलती हैं, अन्यथा धूप में खड़े रहने पर कोई फरक नहीं पड़ता।
दूसरा संयम है, मन का संयम, विचारों का संयम। यह इस तरह से है, जिस तरह से आवारा लड़के मारे-मारे फिरते हैं। यह भी इसी तरीके का है। आपके मन में हमेशा बेकार के विचार आते रहते हैं। यदि आप थोड़ा भी संयम विचार को एकत्र करने में लगाएँ, तो आप देखेंगे कि आपके विचार क्या से क्या बन जाएँगे। साहित्यकार एवं वैज्ञानिकों में क्या विशेषता होती है? कुछ भी नहीं। बस ये विचारों को एकत्र करते हैं—मन की शक्ति से। सर्कस में काम करने वाली लड़कियों में बस एकाग्रता की शक्ति होती है। वे अपने मन को भागने से रोके रखती हैं, तभी तो वे ऊँचे झूले से झूलकर जाल में कूद पड़ती हैं और उनको जरा भी चोट नहीं आती। आप यदि एक काम पर पूरा विचार करना सीख जाएँ, तो आप क्या से क्या बन सकते हैं? हमने अपने जीवन में स्वाध्याय का नियमित समय एक घंटे के हिसाब से रखा। पंद्रह वर्ष की उम्र से सत्तर वर्ष की उम्र तक हमने सत्तर लाख पन्ने पढ़े हैं। ये सब विचारों का संयम है।
आप रात को पिक्चर देखकर आते हैं और हीरोइनों के सपने देखने लगते हैं। हीरोइनों के फोटो खरीद कर लाते हैं। पहले आप यह बताइए कि आपका वेतन कितना है? महाराज जी तीन सौ रुपये। अरे! तीन सौ रुपये तो एक हीरोइन अपने सैंट पर खरच कर देती है। आप इसी बल पर हीरोइन से दोस्ती करने की सोच रहे थे। अपने विचारों पर संयम करना सीखो। अपने विचारों को समाज-सुधार के लिए अच्छी दिशा दो। आपके दिमाग व शरीर की शक्ति आपको कहाँ-से-कहाँ पहुँचा सकती है।
मित्रो! एक और संमय है और वह है समय का संयम। आपने जितनी अधिक समय की बरबादी की है, यह उसी का परिणाम है कि आप दु:खी जीवन जी रहे हैं। समय भगवान् ने आपको इसलिए दिया है कि समय की कीमत से आप दुनिया की कीमती-से-कीमती वस्तु खरीद सकते हैं। आप चाहें तो समय की कीमत से लोकसेवी बन सकते हैं, साहित्यकार बन सकते हैं। समाज-सुधारक बन सकते हैं, परंतु आपने समय के मूल्य को नहीं पहचाना। आपने अपने जीवन का सारा समय वैसे ही व्यर्थ में नष्टï कर दिया। जिन लोगों ने समय का उपयोग किया है, वे उन्नति के ऊँचे शिखर पर चढ़ते चले गए। चमार,धोबी, मोची, भंगी भी रात्रि पाठशाला में जाकर दो घंटे प्रतिदिन के हिसाब से पढ़कर ऊँचे पद पर तरक्की कर जाते हैं। समय का सदुपयोग करने के कारण ही आज वे अनेकों संस्थाओं में कार्यरत हैं। लेकिन आप तो कहते हैं कि क्या करें साहब! हमारे पिताजी मर गए थे, इसलिए हम प्राइमरी तक ही पढ़ पाए। तो क्या पिताजी अपने साथ आपका शरीर भी ले गए? मित्रो, आपने समय की कीमत नहीं पहचानी।
एक ड्राइंग मास्टर थे। साठ वर्ष की आयु में वे रिटायर हुए। रिटायर होने के बाद उन्होंने संस्कृत पढऩा शुरू किया। संस्कृत पढ़कर वे वेदों के भाष्यकार कहलाए। उन्हें 'पद्मभूषणÓ की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने संस्कृत में भी बहुत साहित्य लिखा है। आप क्या करते हैं रिटायर्ड होकर? हमारा बेटा कमाकर लाता है और हम बेकार बैठे रहते हैं। बताइए हम क्या करें? बेकार बैठे रहना भगवान् की दी हुई संपदा का तिरस्कार करना है। उसके नियमों की अवहेलना करना है। आदमी जब तक श्रमशील नहीं होगा, तब तक उन्नतिशील नहीं हो सकता। आप अपने श्रम का उपयोग समाज की उन्नति के लिए कीजिए, जिससे हमारा समाज अच्छा और सुंदर बने।
रावण की कथा है। रावण ने एक दिन काल को पकड़ लिया। पकड़कर पाटी से बाँध लिया और फिर काल की पिटाई लगाई। काल चीखने-चिल्लाने लगा। रावण ने कहा कि काल तू मुझे धन दे और विद्या दे। काल ने डर के मारे लंका को सोने की बना दिया और रावण को विद्वान बना दिया। काल का क्या अर्थ है? आप तो काल को भूत-प्रेत या देवता मानते हैं, परंतु वास्तव में काल समय को कहते हैं। इसका जो सदुपयोग करते हैं वे महान् उपलब्धियों के स्वामी बनते हैं।
बिहार में हजारी नाम का एक किसान था। उसने अपना सारा समय आम के बगीचे लगाने में लगाया। बिहार में उसने एक हजार बाग लगाए। हजार बागों की वजह से उस जिले का नाम 'हजारी बागÓ रखा गया। आप तो अपना समय गप्पें हाँकने में लगाते हैं। समय की कीमत समझिए। आप अपने समय को आध्यात्मिक उन्नति में लगाइए। जिससे आपका जीवन सफल हो जाए। आप समय की दिनचर्या बनाइए।
साथियो! आपकी दौलत चार तरह की है। पहली है-इंद्रिय संयम। इसे अपने जीवन में महत्त्व दीजिए। इंद्रियों का संयम न करने से आप अपने आप को तबाह करते जाते हैं। आप अपने विचारों की संपदा को किन्हीं उपयोगी कार्यों में लगाना सीखिए। यदि आप ने विचारों का संयम करना प्रारंभ कर दिया, तो आपका दिमाग जिसे हम ब्रह्मïलोक कहते हैं, सद्विचारों का भंडार हो जाएगा। यही अतीन्द्रिय क्षमता का मालिक है, आपकी शालीनता का, सुख-समृद्धि का स्वामी है। यह दिमाग एक कंप्यूटर की तरह से है, जिसकी क्षमता असीम है। तीसरा संयम-समय का संयम है। इसके लिए आप अपनी दिनचर्या बनाकर चलिए। गाँधी जी ने देश के लिए अनेकों कार्य किए। अपने समय की दिनचर्या उन्होंने बनाकर रखी थी। सब कार्य वे नियत समय पर करते थे। समय को बिल्कुल भी व्यर्थ नहीं गँवाते थे। उन्होंने बहुत सारा साहित्य लिखा।
मित्रो! हम मशीन की तरह से जीते हैं। आठ बजे का समय हमारा सोने का है। मित्र आते हैं और कहते हैं कि हमसे बात कीजिए। हम कहते हैं कि हम नहीं करेंगे आप से बात, यदि आप नाराज होते हैं, तो हो जाइए हमारी बला से। हम प्रतिदिन चार घंटे लेखन करते हैं। नौ अखबारों का हम संपादन करते हैं, अखण्ड ज्योति का संपादन करते हैं, अपने मनोयोग और तन के सहयोग से। हम दोनों काम इसलिए कर लेते हैं कि हमारा अपना मन और तन दोनों एक साथ लगते हैं, परंतु आपकी कभी 'तन डोलेÓ तो 'कभी मन डोलेÓ वाली स्थिति रहती है। इसलिए आप काम में अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
गुरुजी! आपकी उन्नति में कौन-कौन सहायक हुआ है? बेटे! आध्यात्मिक दृष्टिï से गायत्री मंत्र हुआ है, किंतु इन सबके पीछे जो चमत्कार आपको दिखाई देता है, उसका कारण है, समय का संयम। हम समय के गुलाम हैं। हमारी प्रेमिका कौन है, जिसे देखे बिना हमें चैन नहीं पड़ता? वह है हमारी घड़ी, जो हर समय हमारी मेज पर रखी रहती है। आपके पास भी है घड़ी? हाँ साहब! हमारे पास और हमारी पत्नी-दोनों के पास घड़ी है। तब तो आपकी पत्नी ने एम०ए० पास कर लिया होगा? नहीं साहब, उसे तो घर के कामों से ही समय नहीं मिलता है। तो दिखाइए अपनी घड़ी और बताइए कि कितने बज रहे हैं? साहब, इसमें तो साढ़े उनतीस बज रहे हैं। समय देखना आता नहीं और घड़ी लिए फिरते हैं।
चौथा एक और महत्त्वपूर्ण संयम है। उसका नाम है-अर्थसंयम। अर्थसंयम का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। ''सादा जीवन-उच्च विचारÓÓ उन आदमियों का जीवन है, जिन्होंने अपना जीवन पहले चरण के हिसाब से जिया है। जो आदमी जमीन को चूमते हैं, आसमान को चूमते हैं, वे आदमी बेईमान होते हैं, करजदार होते हैं। जिन्होंने अध्यात्म में प्रवेश किया है और पैसे की दृष्टिï से सामंजस्य नहीं रखा, उन्हें आगे चलकर बहुत कठिनाई उठानी पड़ सकती है। मित्रो! उन्हें जीवन की उन्नति के लिए कोई रास्ता नहीं मिलेगा। बच्चों की शिक्षा व पालन-पोषण का वे उचित प्रबंध नहीं कर सकेंगे। हमेशा उनके ऊपर फिजूलखरची छाई रहेगी। आध्यात्मिक दृष्टिï से फिजूलखरची एक गुनाह है। कानून चाहे आपके ऊपर मुकदमा चलाए या न चलाए, लेकिन अध्यात्म आपके ऊपर मुकदमा जरूर चलाएगा। जिस देश व समाज में आप पैदा हुए हैं, उसके औसत के हिसाब से आप खरच कीजिए। आप कमा तो सकते हैं, लेकिन अपनी कमाई को खरच नहीं कर सकते। आप अपनी कमाई में से कुछ बचत कीजिए।
अर्थसंयम के बारे में मैं अक्सर ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम लेता हूँ। उनको पाँच सौ रुपये वेतन मिला था। उन्होंने अपने घरवालों को बुलाया और कहा कि ये लीजिए पचास रुपये। हिन्दुस्तान का व्यक्ति इससे ज्यादा खरच नहीं कर सकता। जो रुपये हमारे पास बच जाते हैं, इसको हम विद्यार्थियों के लिए खरच करेंगे। हमारा देश बहुत गरीब है। विद्यार्थियों की भीड़ उनके दरवाजे पर लगी रहती थी। आप तो जरूरत से ज्यादा खरच करते हैं। आपने-अपने जीवन में बेकार की जरूरतों को पाल रखा है। फिजूलखर्ची बंद कीजिए।
मित्रो! एक बार हमने आपको बताया था कि जब हमारे बाप-दादा मरे थे, तो जो पैसा हमें मिला था वो सारा हमने गायत्री तपोभूमि पर लगा दिया। हमने अपनी जमीन स्कूल के नाम दान कर दी। अपने लिए हमने कुछ नहीं बचाया। जब से हम अखण्ड ज्योति में रहे हैं, हम अपने परिवार में पाँच प्राणी हैं, दो बच्चे, एक हमारी माताजी और हम दो पति-पत्नी। परंतु पाँच आदमियों का हमारा खरच दो सौ रुपये मात्र रहा है। भारत के नागरिकों को बड़े ही किफायत से धन खरच करना चाहिए। गाँधी जी ने बहुत कम धन में गुजारा किया।
अमेरिका के एक सज्जन थे। पुराने कपड़े पहनते थे। खाने में भी किफायत करते थे, लेकिन वे करोड़पति थे। उनके पास एक महिला आई और कहने लगी कि हम आप से विवाह करना चाहते हैं। उस सज्जन ने कहा कि विवाह तो हम कर लेंगे, परंतु आप हमें देंगी क्या? क्या कमाएँगी हमारे लिए? महिला ने कहा, इस कंजूस के साथ कोई शादी नहीं करेगा। उस व्यक्ति के बारे में विख्यात हो गया कि वह बड़ा कृपण है। एक बार एक विश्वविद्यालय को चंदे की आवश्यकता पड़ी। कमेटी के लोग कंजूस के पास गए और कहने लगे कि साइंस की एक प्रयोगशाला बनाई जा रही है। विद्यार्थियों के लिए आप कुछ धन दीजिए।
कहने को तो उसने नमस्त कर लिया। उसकी मेज पर तीन मोमबत्तियाँ जल रही थीं। उसने एक मोमबत्ती बुझा दी। लोग यह देखकर हँस पड़े। कंजूस ने पूछा कि आपको कितना पैसा चाहिए? कमेटी के लोगों ने डरते हुए कहा पाँच सौ रुपये। कंजूस ने तुरंत पचास हजार रुपये का चेक काट दिया। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कहने लगे हमने तो आपसे पाँच सौ रुपये माँगे थे और आपने इतना दे दिया। ये क्या किया आपने? उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। कंजूस व्यक्ति कहने लगा कि मैं अपने जीवन भर प्रयोगशाला बनाने का सपना देखता रहा, पर पूरा न कर सका। अच्छी बात है—जो आप इस काम को करने जा रहे हैं। लीजिए यह पहली किश्त है। मैं आपके विश्वविद्यालय को देखने आऊँगा। अगर काम सही तरीके से हुआ तो आगे भी धन दूँगा। मैं अपनी सारी दौलत आपको देकर के जाऊँगा? मैं इसे रखकर क्या करूँगा।
मित्रो! हम व्यक्तिगत जीवन में भी किफायत कर सकते हैं। पैसा तो ऐसी चीज है कि जरा-सी मु_ïी खुलते ही समाप्त हो जाता है। फिजूलखरची को ही चोरी कहते हैं। इससे कभी भी पूरा नहीं पड़ सकता। अत: आप संयमशील बनिए और उतना ही खरच कीजिए, जिससे आपका शरीर जिंदा रह सके, परंतु अभी तो आप शरीर के लिए कम तथा विलासिता के लिए अधिक खरच करते हैं। हमारे चारों सूराखों में से हमारी उन्नति, अध्यात्म, पुण्य और लक्ष्य टपक जाता है।
अध्यात्म-जीवन में संयम को तप कहते हैं। तप चार तरह के होते हैं। यदि आप चारों तरह के तप करना शुरू करेंगे, तो तपस्वी को जो सिद्धियाँ मिलती हैं, वे सिद्धियाँ आपको प्राप्त हो जाएँगी। एक बार आप फिर समझ लें कि तप माने इंद्रियनिग्रह, तप माने मनोनिग्रह, विचारों का निग्रह। तप माने समय का संयम और तप माने अर्थ का निग्रह।
एक बात और देवताओं के अनुग्रह की बात आप समझ लें। देवता नाम इसलिए रखा गया है कि वे दया करते हैं। देवता का अर्थ है, देने वाला। देवता हर समय कुछ न कुछ देते रहते हैं, लेते नहीं हैं, हम माँगते हैं और वे देते हैं, परंतु यहाँ यह विचार करना पड़ेगा कि देवता क्या देते हैं? देवता के पास जो चीजें होंगी वही तो वह देगा। जिसके पास जो चीज नहीं होगी, तो वह क्या देगा? जो चीज बैंक में मिलती है वह है रुपया और कुछ नहीं मिलता है बैंक में। रुपये के बदले में आपको सब चीज मिल सकती है। रुपये में ताकत तो है, लेकिन देवता में जो चीज है-वह है-देवत्व। यही देवता हमें दे सकते हैं। देवत्व कहते हैं-गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टïता को। गुणों की दृष्टिï से श्रेष्ठï, कर्मों की दृष्टिï से श्रेष्ठï, स्वभाव की दृष्टिï से श्रेष्ठï-इतना काम करने के बाद देवता निश्चिंत हो जाते हैं, अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं।
मित्रो! दुनिया में सफलता एक चीज के माध्यम से मिलती है और वह है-उत्कृष्टï व्यक्तित्व। जिस व्यक्ति ने बिना मेहनत के कोई चीज प्राप्त कर ली है, उसे कहते हैं, तरकीब और तिकड़म। यदि इस तरीके से आपने कोई चीज प्राप्त कर ली है, तो वह वस्तु आपके पास नहीं ठहरेगी। आप में हजम करने की ताकत हो, तो ही आप सब चीज खा सकते हैं। दौलत को हजम करने का तरीका होना चाहिए। जैसे-जैसे आपके पास पैसा बढ़ता जाएगा, तो आपके अंदर दोष बढ़ते जाएँगे। आप गरीबों से भी बुरे पड़ेंगे। जीवन में ऐसी विसंगतियाँ बढ़ती जाएँगी, जो आपको दौलत का फायदा पहुँचाना तो दूर आपको नुकसान ही पहुँचाएँगी। यह दौलत आपको तबाह कर देगी। संतानें बिगड़ जाएँगी, इससे तो गरीबी अच्छी है।
दौलत को हजम करने की आपके शरीर में ताकत होनी चाहिए। अच्छे विचार मन में होने चाहिए। तभी आप दौलत को हजम कर सकेंगे, नहीं तो आप बुरे कार्य करेंगे। हिम्मत से बुराइयों का मुकाबला कीजिए। आपका भीम के तरीके से बलवान होना समाज के लिए अभिशाप साबित हो सकता है। इसलिए आप अपनी ताकत को उचित कार्यों में लगाइए। मैं मानवता का पुजारी हूँ। दुनिया में तबाही पढ़े-लिखे लोगों ने ही मचाई है। तो क्या हम पढऩा-लिखना छोड़ दें? पढ़ाई छोडऩे से हमारे आगे वही हालात पैदा हो जाएँगे, जैसे गाँवों में पहले एक ही आदमी पढ़ा-लिखा होता था। बाकी सब निरक्षर रहते थे। हम आपसे बार-बार कहते हैं कि किताब वालों के पास जाइए, स्वाध्याय करिए। उनका सत्संग करिए।
मित्रो! मेरा ख्याल है कि यदि सबके सब बिना पढ़े रह जाएँ, तो दुनिया में शांति कायम रह सकती है, क्योंकि तब आदमी की अक्ल का विस्तार सीमित होगा। वह सीमित क्षेत्र में ही बुराइयाँ करेगा, क्योंकि उसकी अक्ल का विस्तार ही नहीं हुआ है। तो क्या मैं शिक्षा विरोधी हूँ? क्या मैं साक्षरता विरोधी हूँ? नहीं, मैं शिक्षा का विरोधी नहीं हूँ, परंतु शिक्षा को अपने अंदर आत्मसात् करने का गुण होना चाहिए। शिक्षा के साथ मनुष्य में जिम्मेदारी भी आनी चाहिए-इसका मैं हिमायती हूँ। बहुत सारी चीजें दुनिया में हैं। देवता आपको हजम करने की शक्ति देते हैं। दुनिया की दौलत को हजम करने की भी विशेषता आप में होनी चाहिए। यदि देवत्व आपको प्राप्त हो जाए, तो आप संसार की समस्त वस्तुओं से लाभान्वित हो सकते हैं। इन्हीं सब बातों पर चलकर आप पूर्णमिदं बन सकते हैं।
आज की बात समाप्त
ॐ शांति
भक्ति का वास्तविक तात्पर्य समझें
(कल्प साधना सत्र १९८२)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! ज्ञानयोग, कर्मयोग के संदर्भ में मैं आप से पिछले दिनों चर्चा कर रहा था कि आपको दूरदर्शी तथा विवेकवान् होना चाहिए। आपको अपने कत्र्तव्य के प्रति सजग होना चाहिए, जैसे कि महापुरुष अपने कत्र्तव्यों के प्रति सजग रहते हैं। ज्ञानयोग और कर्मयोग के बाद एक मुख्य योग रह जाता है, जिसका नाम—भक्तियोग है। हम उस योग की बात कर रहे हैं, जो आदमी को भगवान् से जोड़ देता है। आत्मज्ञान इनसान को भगवान् से जोड़ देता है। आज हम इसी भक्तियोग के बारे में ही आप से चर्चा करना चाहते हैं।
आज भक्ति के संदर्भ में लोगों के विचार विकृत हो चुके हैं। आज भावसंवेदना को, रोने को लोगों ने भक्तिभाव समझ रखा है। देवी के सामने नाक रकडऩा, उनके सामने रोना—यह भक्ति नहीं कहलाती है। उलटा बैठ जाना, सीधा बैठ जाना, आँसू बहाना—यह भक्ति नहीं है। यह भावुकता है, भक्ति नहीं। जहाँ तक आध्यात्मिक प्रगति एवं भक्ति के स्वरूप का संबंध है, यह सही नहीं है।
भक्ति किसे कहते हैं—इसका सीधा सादा मतलब है प्यार-मोहब्बत। जिसके अंदर यह होता है, वह भावना से लबालब भरा होता है। प्यार से बड़ी कोई चीज नहीं है। इसी की तलाश में जीवात्मा रहता है। आनंद प्राप्त करने के लिए मनुष्य इंद्रियों का भोग करता है, सिनेमा देखता है, कामवासना के फेर में रहता है। परंतु अगर आप तीन घंटे से ज्यादा सिनेमा देखेंगे, तो आँखें खराब होने लगेंगी। इसी तरह कामवासना का भी आनंद थोड़े समय-चंद मिनटों का होता है। परंतु जीवात्मा को जो स्थिर एवं चिरस्थायी आनंद परमात्मा को प्राप्त करने पर मिलता है, उसे भक्ति कहते हैं। आपने अगर इसको अनुभव करके देखा होता, तो मजा आ जाता।
आपको अपने आपसे, अपनों से प्यार होता है। अपनी मोटर से, साइकिल से प्यार होता है। आप इसी तरह हर व्यक्ति को अपना मानिए। अगर पड़ोसी के बच्चे को भी अपना मानेंगे, तो आपको आनंद होगा। अगर कोई अपना आदमी घर में आ जाता है, तो आपको मजा आ जाता है। वास्तव में आनंद अपनेपन से होता है। अपना एवं पराये का जो फरक है, वह बहुत बड़ा है। जहाँ टार्च का प्रकाश पड़ता है, वहाँ की चीजें दिखाई पड़ती हैं। जहाँ प्रकाश नहीं पड़ता है, वहाँ अंधकार छाया रहता है। मित्रो! आप प्यार का टार्च जहाँ कहीं भी डालेंगे, जिस चीज पर भी डालेंगे, वह चीज आपको प्यारी एवं बढिय़ा-आनंददायक मालूम पड़ेगी। मजनूँ-लैला कोई खास सुंदर नहीं थे, परंतु दोनों को एक-दूसरे से प्यार था, इसलिए दोनों एक-दूसरे पर मरने-खपने के लिए तैयार रहते थे।
मित्रो! भगवान् एक रस का नाम है, जिसे शास्त्रकारों ने 'रसो वै स:Ó बतलाया है। रस किसे कहते हैं? आनंद को कहते हैं। यह आनंद कहाँ है? भगवान् में है। अगर आप भगवान् के साथ आत्मीयता जोड़ लें, तो आपको भगवान् की भक्ति का आनंद मिल जाएगा। हम भगवान् के हैं तथा भगवान् हमारे हैं, यदि ऐसी भावना मनुष्य के भीतर आ जाए, तो मजा आ जाता है। मीरा ने भगवान् को अपना पति मान रखा था। इस कारण से उस प्यार के लिए भगवान् और मीरा दोनों भूखे थे। यही भक्ति है।
मित्रो! जरासंध एवं कंस ने कृष्ण भगवान् को पराया माना था, इस कारण उसे उनसे राग-द्वेष था। अपने होते हुए भी वे पराए लगते थे, फिर आनंद एवं प्यार कहाँ से उभरता? आनंद एवं प्यार एक ही चीज का नाम है। अगर आपको आनंद पाना है, तो प्यार का माद्दा बढ़ाना पड़ेगा। यह दिखाना नहीं पड़ता, वरन् अंदर से उपजता है और बिना प्रतिदान की इच्छा के अपना सब कुछ औरों पर उँड़ेल देता है। उदाहरण के लिए, अगर आपने अपने शरीर से जरा भी प्यार किया है, तो जब उसमें जरा-सी भी गड़बड़ी हो जाती है, तो आप उसको ठीक करते हैं, दवा खाते हैं, सवाँरते हैं, बाल बनाते हैं। इसका कारण यह है कि हम अपने शरीर को अपना मानते हैं। अपनेपन का माद्दा जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ आनंद एवं प्यार बरसता रहता है। गेंद जब दीवार पर फेंकी जाती है, तो वह लौटकर आपके पास आ जाती है। गुंबज में जो आवाज लगाई जाती है, वैसी ही आवाज लौटकर प्रतिध्वनि के रूप में हमें पुन: सुनाई देती है। अर्थात् वह वापस आ जाती है।
मित्रो! ठीक उसी प्रकार जब हम किसी को प्यार करते हैं, मोहब्बत करते हैं, तो वह भी उसी आवाज की तरह हमारे पास वापस आ जाती है। कहने का मतलब यह है कि हम जिसे प्यार करते हैं, वह भी हमें प्यार करता है। इस संसार में अगर आप लोगों को राग-द्वेष के रूप में देखेंगे, तो सारे संसार में आपको राग द्वेष ही मिलेगा। अगर आप लोगों की उपेक्षा करना आरंभ कर देंगे, तो आपको चारों तरफ उदासी, सूनापन तथा उपेक्षा ही मिलेगी। सब माया तथा मिथ्या दिखलाई पड़ेगा। परंतु अगर आपकी भावनाएँ ठीक होंगी, तो आपको हर जगह राम एवं सीता दिखलाई पड़ेंगे। जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है—
सीयराम मय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
साथियो! अभी तक आपने अपना दायरा अपने शरीर तथा अपने कुटुंब तक सीमित रखा है। उस दायरे को बढ़ा दीजिए। अपने आपको सारे संसार के रूप में बढ़ा दीजिए। स्वामी रामतीर्थ अपने आपको रामबादशाह कहा करते थे। किसका बादशाह हूँ? बादलों का, आकाश का बादशाह हूँ, यह कहा करते थे। आप गंगाजी का पानी निहारना चाहें, सड़क पर चलना चाहें, बादलों को निहारना चाहें, तो आपको कौन रोक सकता है? आप किसी के काम आएँ, किसी से मीठे वचन बोलें, चिडिय़ों को दाना डाल दें, तो आपको कौन रोक सकता है? यह सत्य है कि अगर किसी के घर में घुसें या किसी का सामान आदि चुरा लें, तो आपको कोई रोक भी सकता है, कानून के हवाले कर सकता है, परंतु आप अगर अच्छा काम करेंगे, तो आपको कौन रोक सकता है? आप जिससे भी मोहब्बत करेेंगे, उसके लिए हमेशा सेवा के लिए तैयार रहेंगे।
मित्रो! प्यार का वास्तविक स्वरूप सेवा में ही दिखलाई पड़ता है। इसके द्वारा ही प्यार में निखार आता है। प्यार करने की पहचान ही यह है कि आप उसकी सेवा करना चाहते हैं या नहीं? प्यार करने वाला अपना अनुदान दूसरों को देता है। प्यार करने वाला स्वयं कष्टï उठाता है तथा दूसरों को सुखी बनाता है। प्यार सेवा सिखलाता है, प्यार अनुदान देना सिखाता है। देशभक्ति, विश्वभक्ति, भगवान् की भक्ति इसी का तो नाम है। अगर आपको हैरानी होती है, तो हो जाए, परंतु आप अपने बच्चे, देश, सारे संसार को सुखी बनाने का प्रयास करते हैं, तो वही भक्ति कहलाती है। इस दुनिया की सर्वश्रेष्ठï चीज यही है।
इस प्रकार भक्तियोग न केवल मानसिक तथा भावनात्मक संपदा है, वरन् उसके आधार पर परमार्थ तथा पुण्य का मौका भी मिलता है। आप भक्ति कीजिए तथा सेवा कीजिए, यह दोहरा लाभ प्राप्त होता है। प्यार का वास्तविक अर्थ यही है। मनुष्य का मोह एवं बंधन उसके साथ ही होता है, जिसके साथ उसका प्यार तथा मोहब्बत होता है। शंकर भगवान् की हम उपासना करते हैं, तो हमें शंकर की भक्ति के साथ भूत-पलीत लोगों की अर्थात् गए-गुजरे लोगों की, गरीब एवं पिछड़े लोगों की भी हमें सेवा करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जिनकी समझदारी कम है, उनको ऊँचा उठाना चाहिए। उनकी सेवा करनी चाहिए। शास्त्र में कहा गया है—'भज सेवायाम्Ó अर्थात् हमें भजन के साथ सेवा भी करनी चाहिए। दोनों एक ही चीज हैं। अगर हम भक्ति करते हैं तथा समाज की, पिछड़े लोगों की सेवा नहीं करते हैं, तो हमारा भजन सार्थक नहीं हो सकता है।
सेवा हम किसकी कर सकते हैं? मित्रो! इस दुनिया में व्यक्ति उसकी ही सेवा कर सकता है, जिससे वास्तव में उसकी मोहब्बत है। अत: आप अपने मोहब्बत का दायरा बढ़ाइए। जैसे-जैसे आपका यह दायरा बढ़ेगा, आप सेवाभावी बनते चले जाएँगे एवं जैसे-जैसे आप सेवाभावी बनते चले जाएँगे, आपकी भक्ति भी बढ़ती चली जाएगी।
भक्ति का अभ्यास हम भगवान् से करते हैं। यह व्यायामशाला है। जिस प्रकार पहलवान व्यायामशाला में जाकर कसरत करता है, मसक्कत करता है तथा अपने स्वास्थ्य को ठीक कर लेता है। उसी प्रकार मनुष्य भगवान् के साथ भक्ति यानी मोहब्बत करके समाज के बीच में भी जाकर प्यार एवं मोहब्बत करता है, कर सकता है।
भगवान् आदर्शों के—सिद्धांतों के समुच्चय को कहते हैं। भगवान् की कोठरी में बैठकर हम वे चीजें सीखते हैं जिनका व्यावहारिक स्वरूप जाकर हम समाज के बीच प्रस्तुत करते हैं। भगवान् कोई व्यक्ति नहीं है। वह तो एक नियामक सत्ता है, एक कायदा है, एक कानून है। भगवान् तो सेवा का नाम है। आप उसे मिठाई क्या खिलाएँगे? मुकुट क्या पहनाएँगे? यह आपकी भूल है। इसे सुधारना आवश्यक है।
पूजा-उपासना के समय, भक्ति के समय आपने कोई मूर्ति या चित्र रखा है, तो इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है, परंतु आप भगवान् को आदर्श एवं सिद्धांतों का समुच्चय मानिए। आपने अगर भगवान् शंकर को व्यक्ति विशेष माना है, तो आप भ्रम-जंजाल में पड़ जाएँगे। अगर शंकर भगवान् को आपने ऐसा माना है कि वह एक व्यक्ति है, जो बैल पर बैठकर इधर-उधर घूमता रहता है। बेल का पत्ता, आक का पत्ता, धतूरे का फूल खाता रहता है। उसके माथे पर चंद्रमा है, सिर से गंगा निकल रही है तथा भूत-प्रेत उसके साथ रहते हैं। यदि आप ऐसा मानने लगेंगे, तो आप भ्रम एवं जंजाल में पड़ जाएँगे।
मित्रो! आपको शंकर भगवान् की आदर्श एवं सिद्धांतों का एक समुच्चय मानना चाहिए, साथ ही आपको यह समझना चाहिए कि शंकर भगवान् के सिर से गंगा निकलने का अर्थ—ज्ञान का प्रवाह, गले में मुंडमाला का अर्थ—हमेशा मौत को गले लगाना, बैल की सवारी के माने-परिश्रमी बनना, चंद्रमा का मतलब—मानसिक संतुलन, भूत-प्रेत का मतलब—गए गुजरे एवं पिछड़े लोगों को गले लगाना तथा उनके विकास के बारे में सोचना, श्मशान में निवास का मतलब—वीरान में रहकर भी समाज के विकास के बारे में सोचना है। यही है शंकर भगवान् की विशेषता, जिसे हर भक्त को सोचना चाहिए।
इसी प्रकार हर भगवान् के बारे में यही बात है। हर भगवान् इसी तरह आदर्शों एवं सिद्धांतों का एक समुच्चय है, चाहे वह गणेश जी हों, हनुमान जी हों, रामचंद्र जी हों या भगवान् श्रीकृष्ण जी हों। इसी प्रकार हर देवी एवं देवता तथा अवतारों को आपको मानना चाहिए। आप जिस भी देवता की भक्ति करते हैं, उसका मतलब समझते हैं, उस देवता के सिद्धांतों एवं आदर्शों को मानते हैं, उस रास्ते पर चलते हैं। वास्तव में यही सच्ची भक्ति कहलाती है। अगर उन सिद्धांतों के प्रति, आदर्शों के प्रति आपकी श्रद्धा, आस्था का विकास होता चला जाएगा, तो आपकी भक्ति भी बढ़ती हुई चली जाएगी। अगर आप वास्तव में ऐसी भक्ति करेंगे, तो आपको फायदा होगा। आप सच्चे अर्थों में भगवान् के भक्त कहलाएँगे। मरने के बाद आप स्वर्ग-मुक्ति में जाएँगे या नहीं, कह नहीं सकता, परंतु आपको इसी जीवन में चारों ओर ऐसा नजारा नजर आएगा कि चारों तरफ स्वर्ग है। आपको चारों ओर दिव्य वातावरण दिखाई पड़ेगा। आप निहाल हो जाएँगे।
मित्रो! आप किसी के प्रति नफरत न करें। आप व्यक्ति से नहीं, उसकी बुराइयों से नफरत कीजिए तथा उसमें सुधार लाने का प्रयास कीजिए। आप प्यार के आधार पर भी लोगों को बदल सकते हैं। आप किसी से राग-द्वेष न करें। आप ऐसा काम करें कि उसके व्यक्तित्व की रक्षा भी हो जाए तथा उसकी बुराई भी दूर हो जाए। गाँधी जी ने इसी प्रकार अँगरेज़ों से प्यार की लड़ाई लड़ी, प्यार का अनुदान दिया। उसके बाद क्या हुआ? मित्रो! अँगरेज भारत छोड़कर चले गए। प्यार बहुत बड़ा संबल होता है, यह आप न भूलें। प्यार से मनुष्य के अंदर शांति आती है, उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।
मित्रो! हमने गायत्री माता से प्यार किया है और सारे समाज की सेवा की है। आप भी चाहें तो इसी प्रकार आनंद की अनुभूति कर सकते हैं तथा सब ओर से प्यार तथा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। अगर आप अपने दृष्टिïकोण तथा विचार बदल दें तथा सभी लोगों से प्यार करें, तो आप अमृतपान कर सकते हैं। यह अमृत चारों ओर बिखरा पड़ा है। आप चाहें तो उस अमृत को पी सकते हैं तथा दूसरों को भी पिला सकते हैं। यह है भक्तियोग, यह है प्यार मोहब्बत। आप चाहें तो इसे अपनाकर अपने जीवन को महान् बना सकते हैं, आत्मविकास कर सकते हैं।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति:
कैसे करें कायाकल्प?
(कल्पसत्र के दौरान १९८२ में दिया
गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मनुष्य को दो दु:ख है। एक दु:ख का नाम 'नरकÓ है और दूसरे का नाम 'बंधनÓ। इन दोनों चीजों से आदमी निकल जाए, तो सारे संसार में सुख-ही-सुख है। बंधन क्या है? बंधन वह है, जिसमें हम और आप जकड़ जाते हैं। कल्पना कीजिए उस पक्षी की, जो पिंजड़े में बंद किया हुआ है। जो कुछ आता या मिलता है, खा लेता है। दाना तो खा लेता है, लेकिन बंधन में जकड़ा हुआ होने की वजह से कुछ कर नहीं पाता। बंधन की वजह से न कहीं खुली हवा ले पाता है, न कहीं बादलों को देख पाता है। कुछ नहीं देख पाता, केवल छोटे-से पिंजड़ें में दिन गुजारता रहता है।
बंधन से बँधा हुआ व्यक्ति कैसा होता है? जेलखाने के कैदी के बारे में आप जानते हैं न, वह चारों ओर से जकड़ा हुआ होता है। हाथ जिसके बँधे हुए हैं, पैर जिसके बँधे हुए हैं। गले में जिसके रस्सा पड़ा हुआ है। आजकल तो इतना नहीं होता है, लेकिन पुराने जमाने में जेलखाने में जो आदमी रखे जाते थे, उनके हाथों में हथकडिय़ाँ हर समय पड़ी रहती थीं। वे कुछ कर नहीं सकते थे। पैरों में बेडिय़ाँ पड़ी रहती हैं। गले में रस्सा पड़ा रहता था। बेचारा कुछ कर नहीं सकता था। जैसे घोड़े को अगाड़ी व पिछाड़ी लगाम लगा देते हैं, उसी तरह से कैदी को रहना पड़ता था। जो लोग उस जमाने में रहते थे, आप उनके दुख की कल्पना कर सकते हैं कि तब मन को कितना मसोसना पड़ता होगा।
मित्रो, हमारी योग्यता, प्रतिभा, भगवान् का दिया हुआ संसार और हमारी क्षमता—इन सबका हम कुछ भी उपयोग नहीं कर पाते हैं। सब कुछ गड़बड़ा जाता है। तब क्या करना चाहिए? हमारे शास्त्रों में आदमी के लिए सबसे बड़ा पुरुषार्थ एक ही बताया गया है। वह क्या बताया गया है? वह है-'बंधनों से मुक्तिÓ। बंधनों से अगर मुक्ति मिल जाए, तो आदमी कितना सुखी हो सकता है! मुक्ति का अर्थ लोग कुछ और तरह से समझते हैं। सायुज्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, की कल्पना इस तरीके से लोगों ने अपने में बिठा रखी है कि भगवान् नाम का कोई व्यक्ति है। उसका एक बड़ा-सा कोई बैकुंठ नाम का गाँव है। इस गाँव में फालतू फंड के आदमी बैठे रहते हैं। भगवान् के समीप बस बैठे रहते हैं, न कुछ करते हैं और न करने देते हैं। बस उनके पास में सान्निध्य मुक्ति, सालोक्य मुक्ति के लोभ में रहते हैं। खाने-पीने की सब चीजें भरी पड़ी हैं। बस उसी में लगे रहते हैं। ये सालोक्य मुक्ति है, सारूप्य मुक्ति है। इसका रूप कैसा है? इसका रूप भगवान् जैसा है। भगवान् का रूप बहुत सुंदर है। हमारा भी रूप बहुत सुंदर हो गया है। खाने-पीने की सारी व्यवस्था सालोक्य में है। हम भी उसी में शामिल हो गए। सामीप्य में चौबीस घंटे बैठे रहे। क्या सुगंध आ रही है, पंखे झल रहे हैं, भगवान् जी के समीप। इस तरह की कल्पना मुक्ति के संबंध में लोगों ने कर रखी हैं। वास्तव में यह कल्पना बच्चों जैसी है। इससे क्या लाभ हो सकता है?
मुक्ति का माहात्म्य हर एक आध्यात्मिक शास्त्र ने सिखाया है और यह बताया है, सुनाया है कि जो आदमी मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं, वे जीवन में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। जीवन-मुक्त और भगवान् की प्राप्ति समान अर्थों में ली गई है। जीवनमुक्त किसे कहते हैं? जीवन मुक्त उसे कहते हैं जिसका जीवन बंधनों से छूट गया, जो पिंजरे में से निकल गया, जो जेलखाने से छूट गया। जो बच्चा माँ के पेट में छोटे-से दायरे में बैठा रहता है, वह न हिल सकता है, न डुल सकता है, न बोल सकता है, न बात कर सकता है, न साँस ले सकता है। उसमें से जब डिलिवरी हो जाती है, जन्म हो जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है। आप सांसारिक मुक्ति का अर्थ समझ गए होंगे न? अच्छा, अब उसकी बात सोचिए कि मोह से मुक्ति क्या है? बंधनों से मुक्ति क्या है?
बंधनों से मुक्ति यह है कि जिस तरीके से हमारी विचारणाएँ, भावनाएँ हैं और हमारी क्रियाशीलताएँ हैं, जिन बंधनों से जकड़ गई हैं, उन बंधनों को हम तोड़ डालें, छोड़ दें, तो हम जीवनमुक्त हो जाते हैं। असल में यही जीवनमुक्ति है। लोगों का जो ये ख्याल है कि स्वर्ग में जा करके मुक्ति मिलती है, व्यक्ति स्वर्ग में कहीं बैठा रहता है या भगवान् जी के मालगोदाम में कहीं जमा हो जाता है। बेटे! न कहीं भगवान् जी का मालगोदाम है और न कहीं आदमी बैठे रहते हैं। मुक्ति केवल जीवन में ही होती है। जीवनमुक्त आदमी होते हैं, जिनको ऋषि कहते हैं, तत्त्वदर्शी कहते हैं, जिनको मनीषी कहते हैं। मुक्ति केवल मानव जीवन में ही संभव है।
तो क्या करना चाहिए? यही तो मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ कि क्या करना चाहिए। आपको तीन बंधनों से छुटकारा पा लेना चाहिए। आप यहाँ शांतिकुंज में आए हुए हैं, कल्पसाधना कर रहे हैं, उपासना कर रहे हैं, तो आपको क्या करना चाहिए? आपको तीन बंधनों से मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। आप कोशिश कीजिए कि तीनों बंधन तोड़ दें। अगर आप चाहें तो इन तीन बंधनों को तोड़ सकते हैं। मकड़ी जाला स्वयं बनाती है और उसमें स्वयं फँस जाती है और फँसने के बाद में जब उसका मन आता है कि जाला हमारे लिए नुकसानदायक है और जाले में हमको नहीं रहना चाहिए, तो वह क्या करती है कि सारे-के-सारे जालो को अपने मुँह में समेट लेती है और निगल जाती है तथा भाग खड़ी होती है।
मित्रो! यह हमारा बंधन भी, जो चारों ओर से हमको जकड़े हुए है, असल में किसी और बाहरी शक्ति की देन नहीं है। किसी बाहरी शक्ति में इतनी गुंजाइश और दम नहीं है कि वह आदमी को जकड़ सके। भगवान् के बेटों को भला कौन जकड़ सकता है? बंधनों में जकडऩे के लिए उसका अपना ही अज्ञान, अपनी ही बेवकूफी, अपने ही कुसंस्कार हैं। जिसने आपको जकड़ लिया है। वे कौन-कौन से बंधन हैं? उनमें से एक का नाम है-'लोभÓ, एक का नाम है-'मोहÓ और एक का नाम है-'अहंकारÓ। ये तीन हमारे शत्रु हैं। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥
ये तीनों ही सबसे बड़े बंधन और बैरी हैं। अपने इन तीनों बैरियों से-रावण कुंभकरण और मेघनाद से अगर आप निपट लें, तो मजा आ जाएगा। अगर आप कंस, जरासंध आदि से निपट लें, तो मजा आ जाएगा। ये तीन आपके दुश्मन हैं। उन्होंने आपकी जिंदगी को कैसा भयानक बना दिया है? कैसा पिछड़ा बना दिया है? कितना अस्त-व्यस्त बना दिया है? अगर ये आपके जीवन को अस्तव्यस्त न बनाएँ, तो आप अपने आप को देख सकते हैं कि आपके जीवन में कितना कायाकल्प हो सकता है और आप वर्तमान परिस्थितियों की तुलना में थोड़े दिनों में कहाँ-से-कहाँ पहुँच सकते हैं। आप इन दुश्मनों से आगाह हो जाइए और इन्हें तोडऩे के लिए कोशिश कीजिए।
लोभ क्या है और इसे किस तरीके से तोड़ा जाए? लोभ कहते हैं—अनावश्यक संग्रह को। लोभ यही है कि आदमी को गुजारे के लिए मु_ïी भर चीजों की जरूरत है। मु_ïी भर चीज चाहिए उसे। मु_ïी भर से गुजारा हो जाता है। आदमी का पेट कितना छोटा होता है? भैंसे का पेट कितना बड़ा है? गधे का पेट कितना बड़ा है? घोड़े का पेट कितना बड़ा है? परंतु आदमी का पेट कितना छोटा है। जरा सा है। उसके लिए थोड़ा-सा चार मु_ïी अनाज काफी होना चाहिए। लेकिन आदमी के लोभ को देखा है न आपने, वह कितना लालची, कितना संग्रही, कितना विलासी होता है। कितना जमा कर ले, चौबीसों घंटे जमा करने के लिए मरता, खपता और छटपटाता रहता है।
संसार में बहुत से नशे हैं, जिनकी लोगों को हविश हो जाती है। शराबियों को नशे की हवस हो जाती है और वह बार-बार शराब माँगता है। इसी तरीके से लालच एक शराब है। आदमी की जरूरत क्या है और कितनी है? कुछ भी नहीं। व्यर्थ में अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए, अपनी औलाद को और अपने घरवालों को तबाह और बरबाद करने के लिए, पीछे कलह उत्पन्न करने के लिए और दुव्र्यसन पैदा करने के लिए केवल धनसंग्रह करता रहता है। जिंदगी का सारे-का-सारा हिस्सा इसी में खर्च हो जाता है। आपको इस लालच में खर्च को छोडऩा पड़ेगा। आपको इस लोभ को छोडऩा पड़ेगा।
इसके लिए आपको क्या करना पड़ेगा? आप क्या करेंगे? आपको सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांतों को स्वीकार करना पड़ेगा। ऊँचे विचार सिर्फ उस आदमी के पास आ सकते हैं, जो सादा जीवन जिए। सादा जीवन का मतलब ठाटबाट से नहीं है, वरन् इसका मतलब लोभ और लालच से है। आप लोभ और लालच अपने मन से निकाल दें और निर्वाह की बात सोचें, तो आप थोड़े-से घंटे मेहनत करने के बाद में अपना पेट बड़े मजे में भर सकते हैं। रही कुटुम्बियों की बात, तो कुटुंबियों की बात भी वैसी ही है, जिसको 'मोहÓ कहते हैं। लोभ का बढ़ा हुआ दायरा, जो कुटुंब तक फैल जाता है, उसका नाम 'मोहÓ है और जो अपने आप तक सीमित रहता है, धन तक सीमित रहता है, उसका नाम 'लोभÓ है और जो कुटुंबियों तक फैल जाता है, उसका नाम मोह है।
कुटुंबियों के प्रति आपकी जिम्मेदारियाँ तो हैं, ये तो मैं नहीं कहता कि आपकी जिम्मेदारी नहीं है। जिम्मेदारी तो आपकी सबके प्रति है। आपकी जिम्मेदारी आपके शरीर के प्रति भी है, मस्तिष्क के प्रति भी है। जीवन के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी है। भगवान् के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी है। आपकी बहुत जिम्मेदारियाँ हैं। इन सभी जिम्मेदारियों को आप सहयोग से निभाइए। उसमें आपका कुटुंब भी शामिल है। कुटुंबियों के शामिल होने का मतलब यह नहीं है कि कौन कैसा है? उन सबका लालच आप पूरा करते हैं क्या? कुटुंबियों का लालच आप मत पूरा कीजिए। कुटुंबियों की अनावश्यक आवश्यकताओं को और अनावश्यक माँगों को आप मानने से इनकार कर दीजिए। तो आप क्या करेंगे? अगर वे माँगते हैं, तो भी नहीं और नहीं माँगते हैं, तो भी नहीं। जिस चीज की जरूरत है उसे दीजिए।
आपके कुटुंबियों को किसकी जरूरत है? आपके कुटुंबियों को तीन चीजों की जरूरत है। पहली जरूरत है शिक्षा। आपके कुटुंबियों को शिक्षित होना चाहिए। स्कूली शिक्षा की बात तो मैं नहीं कहता, पर मैं यह कहता हूँ कि स्कूली शिक्षा अगर आपके पास में न भी हो, तो भी जिसको शालीनता कहते हैं, सभ्यता कहते हैं, सज्जनता कहते हैं, वह तो होनी ही चाहिए। शिक्षा का मतलब सभ्यता, शालीनता और सज्जनता से है। आप अपने घरवालों को बनाइए। उनका व्यवहार ऐसा बनाइए, उनके सोचने का तरीका ऐसा बनाइए, जानकार बनाइए, शिक्षित बनाइए। अगर ये बना देते हैं, तब हम समझते हैं कि आपने अपने घरवालों को आजीविका से भी ज्यादा, जीवन बनाने से भी ज्यादा, रेशम के कपड़े बनाने से भी ज्यादा, सोने-चाँदी के जवाहरात बनाने से भी ज्यादा आपने उनकी मदद की। इसलिए आपको मोह की अपेक्षा शिक्षा में खर्च करना चाहिए।
मित्रो! शिक्षा के साथ-साथ में क्या करें? अपने हर कुटुंबी को स्वावलंबी बनाइए। किसी को परावलंबी मत बनने दीजिए। आप अपनी पत्नी को स्वावलंबी बनाइए, गुडिय़ा मत बनाइए। उसको आप यह मत कहिए कि आपको पानी नहीं भरना है, खेती नहीं करनी है। आप खाना मत बनाइए। कपड़े आपके नौकरानी धोएगी। बस, आप पंखे के नीचे बैठे रहा करिए। ऐसा मत कीजिए। आप उसे स्वावलंबी होने दीजिए।
भगवान् न करे कभी ऐसा खराब दिन आ जाए जब आप न हों। भगवान् न करे कि ऐसा दिन आ जाए कि आपकी संपत्ति चली जाए। फिर आप क्या करेंगे? आपने तो अपनी स्त्री को घूँघट में रख करके अपाहिज बना दिया। उसे मेहनत नहीं करने दी, परिश्रम नहीं करने दिया। उपार्जन के लिए योग्य बनाया नहीं, क्षमता बढ़ाई नहीं। आज हर आदमी के अंदर उपार्जन की क्षमता उत्पन्न होनी चाहिए। आप अपने कुटुंबियों में से हर एक में उपार्जन की क्षमता उत्पन्न होने दीजिए, बढऩे दीजिए। बच्चे जरा बड़े हो गए हैं, तो उनको हाथ बँटाने दीजिए, ताकि जो वे घर का अनाज खाते हैं,उस संस्था का जरा सहयोग तो करें। उन्हें कुट्टïी कूटना सिखाइए, पानी भरना सिखाइए, शाक-वाटिका लगाना सिखाइए, कपड़े धोना सिखाइए, ताकि वे अपने घर की आर्थिक स्थिति में कुछ मदद कर सकें। आप उन्हें स्वावलंबी बनाइए, परिश्रमशील बनाइए।
साथियो! अगर आपने अपने घर-गृहस्थी वालों को स्वावलंबी नहीं बनाया है, तो यह आपका मोह है। अगर आप अपने घरवालों की अनावश्यक इच्छाओं को पूरा करने के लिए जेवर खरीदने से लेकर सिनेमा दिखाने तक अर्थात् वे चीजें जो उनके जीवन को विकसित करने के लिए आवश्यक नहीं हैं, केवल उनके मनोरंजन के लिए, उनकी हविश और जो बुरी आदतें हैं, उनको पूरा करने के लिए जो वे माँगते हैं, आप उसको पूरा कर देते हैं, तो वह आपका 'मोहÓ हो जाता है। इसके स्थान पर आप उन्हें संस्कारवान् बनाइए, सभ्य बनाइए, शिक्षित बनाइए, स्वावलंबी बनाइए, अगर आप ये तीनों काम करने के लिए जितनी मेहनत करते हैं, हम समझते हैं कि आप अपने कुटुंबियों के लिए कत्र्तव्यपालन कर रहे हैं।
अगर आप कुटुंबियों की हविश, कुटुंबियों की इच्छा और कुटुंबियों का दबाव इसलिए पूरा करते हैं कि कुटुंबी आपसे प्रसन्न रहेंगे और प्रसन्न रह करके बच्चे आपकी आज्ञा मानेंगे और औरत आपकी कामवासना की पूर्ति के लिए मदद करेगी, इसलिए आपको उन्हें प्रसन्न करना चाहिए, तो आप गलती करते हैं। आप किसी को मत प्रसन्न कीजिए। प्रसन्न करना है, तो अपनी आत्मा को प्रसन्न कीजिए, अपने परमात्मा को प्रसन्न कीजिए। इसके अलवा इस संसार में आप जितना ही लोगों को प्रसन्न करने की कोशिश करेंगे, उतना ही आप हैरान होंगे और उतने ही आप खाली हाथ रह जाँएगे। इसलिए लोभ और मोह के दो बंधनों से लालच मत कीजिए। समय पर अगर आप अपने दिमाग को खाली कर दें कि हमको गुजारे भर के लिए कमाना है, तो आपका दिमाग, आपकी स्कीम, आपकी योजनाएँ, आपका परिश्रम और पुरुषार्थ सब बच जाएगा। फिर उस बची हुई शक्ति को-क्षमता को आप उन कामों में लगा सकेंगे, जिससे आपकी आत्मा की उन्नति होती है और समाज के प्रति अपना कत्र्तव्यपालन होता है और भगवान् के आदर्शों का निर्वाह होता है। उससे कम में काम बनेगा नहीं।
आपका लालच चाहे पूरा हो या न होता हो, यह तो मैं नहीं कहता कि आप संपन्न हो गए हैं कि नहीं हो गए हैं, पर आप लालची मुझे जरूर मालूम पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में आप संपन्न कैसे हो जाएँगे? अक्ल तो है नहीं, योग्यता तो है नहीं, विद्या तो है नहीं, पुरुषार्थ है नहीं, परिश्रम है नहीं, चांस है नहीं, पूँजी है नहीं, तो कैसे धनवान् हो जाएँगे? आप तो गरीब-के-गरीब रहने वाले थे और गरीब ही रहने वाले हैं। क्योंकि आदमी को संपन्न बनाने के लिए तो अनेक साधन चाहिए। आपके पास तो कुछ भी साधन नहीं हैं, फिर संपन्न कैसे बनेंगे? परंतु अगर आपने लालच छोड़ दिया होता, तो आप इतने ही साधनों में कम-से-कम समय में गुजारा कर सकते थे। लालच अभी जितना आपका समय खा जाता है, शक्ति खा जाता है, बुद्धि खा जाता है, उस सबको आपने बचा लिया होता। बचाने के बाद में वह काम कर लिया होता, जो असंख्य लोगों ने किया है, पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी।
कबीर की भी शादी हो गई थी। जवाहरलाल नेहरू की भी शादी हो गई थी। गाँधी जी की भी शादी हो गई थी। शंकर भगवान् की भी शादी हो गई थी। रामचंद्र की भी शादी हो गई थी। हमारी भी शादी हो गई है। शादी होना और पेट भरना इतना बड़ा काम नहीं है कि जिसके लिए यह कहा जा सके कि हमारी सारी शक्ति और सारी बुद्धि, सारा परिश्रम और सारा पुरुषार्थ इसी में खर्च हो जाता है। वस्तुत: ये लोभ और मोह के व्यामोह के दो बंधन हैं, जो न आपकी अक्ल को चलने देते हैं, न परिश्रम को चलने देते हैं। आपका सारा परिश्रम लोभ के लिए विसर्जित हो गया, आपकी अक्ल और आपकी भावना मोह के लिए विसर्जित हो गई। लोभ के लिए आपका शारीरिक श्रम विसर्जित हो गया, मोह के लिए भावनाएँ एवं मानसिक क्षमता विसर्जित हो गई, तो फिर क्या रह गया आपके पास? तोडि़ए न इन बंधनों को। आप यहाँ रह करके इस कल्पसाधना में अपने आपको बदल दीजिए और लोभ एवं मोह के बंधनों से अपने आपको पीछे हटाइए।
मित्रो! मैं यह थोड़े ही कहता हूँ कि आपको पेट भरने के लिए गुजारा नहीं करना चाहिए। गुजारा करना एक बात है और लालच के लिए मरते-खपते रहना दूसरी बात है। आपको अपना कुटुंब सीमित रखना चाहिए, फिर आप क्यों बढ़ाते चले जाते हैं? किसने कहा था आपको रोज बच्चे पैदा करने के लिए? आप बिना बच्चों के जिंदा नहीं रह सकते क्या? कम बच्चों से आपका गुजारा नहीं हो सकता? आपके जो कम बच्चे हैं, उनको आप क्या पर्याप्त नहीं मान सकते? हमारा कहना मानिए अब बच्चे मत बढ़ाइए। जो बच्चे हैं, अगर उनकी क्वालिटी बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको संख्या घटानी चाहिए। इससे आगे तो किसी भी हालत में आगे मत बढ़ाइए। तब आपका मोह कम हो जाएगा। फिर आप एक माली के तरीके से अपने गृहस्थ का पालन कर रहे होंगे। तब आप एक सदाचारी और संयमी के तरीके से अपना गुजारा कर रहे होंगे। इन दोनों तरीकों से आप गुजारा कर लेंगे, तो मजा आ जाएगा।
इनके अतिरिक्त आपको तीसरा एक और काम करना चाहिए। अहंकार को हटाना चाहिए। आप अपने अहंकार को भी हटाइए। आदमी अपना आत्मविज्ञापन करने के लिए, बड़ा आदमी बनने के लिए न जाने कितना ढंग और ढोंग बनाता रहता है। लिबास, फैशन, ठाटबाट ये सब अहंकार के लिए करता है। अहंकार के लिए—सब जगह से मेरी पदवी बढऩी चाहिए, मेरे पास बढिय़ा जेवर होना चाहिए, मुझको नेता बनना चाहिए, मुझे मंच मिलना चाहिए। अपने अहंकार की पूर्ति और बड़प्पन के लिए वह जाने क्या-क्या स्वाँग रचाता रहता है। अपने अतिरिक्त किसी और की उन्नति उसे सुहाती नहीं। 'मैंÓ और 'मेराÓ बस यही उसके दो लक्ष्य बन जाते हैं। मित्रो! यह अहंकार बड़ा हानिकारक है। यह आपको ले डूबेगा।
गुरुजी! आप क्या कह रहे हैं? बेटे! मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आपकी महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं बढऩी चाहिए। आपकी महत्त्वाकांक्षाएँ जरूर बढऩी चाहिए परंतु अहंकार के नाम पर, लोगों के सामने अपनी चकाचौंध पैदा करने के नाम पर, लोगों के सामने बड़ा आदमी बनने के नाम पर अगर आप अपने अहंकार का पोषण कर रहे होंगे, तो गलती कर रहे हैं। इस अहंकार की दिशा मोड़ दीजिए। फिर किसमें लगाएँ? आप इस अहंकार को महानता की दिशा में लगाएँ कि हम महान् बनेंगे। आप महान् बनिए। यह विचार कीजिए कि दूसरों की तुलना में हमारे गुण, कर्म, स्वभाव अच्छे बनेंगे। आप ये विचार कीजिए न। क्या विचार करें? आप ये विचार कीजिए कि हमको महान् बनना है। दूसरों के सामने आपको अपनी निशानियाँ छोड़ जानी हैं, ताकि वे आपके बारे में सोचते रहें, विचार करते रहें कि देखो यह आदमी कितना शानदार था, कितना मनस्वी था, कितना धैर्यवान् था, कितना साहसी था। आप इसको बड़प्पन पर न्योछावर कर सकते हैं।
संसार में जितने भी महान् आदमी हुए हैं, उन्होंने अपनी जिंदगी श्रेष्ठï कामों में लगा दी। वे लोगों के सामने उदाहरण छोड़कर चले गए। यही उनकी विरासत है। आप तो विरासत में क्या छोड़कर जाएँगे? बेटे के लिए मकान बनाकर जाएँगे। बेटे के लिए मकान जरूरी नहीं है। फिर क्या जरूरी है? आप बेटे के लिए यह विरासत छोड़कर जाइए, ताकि लोग यह कह सकें, कि यह किसका बच्चा है। उससे आपका सम्मान बढ़ेगा। न केवल अपने बच्चों के लिए, वरन् सारे समाज के लिए विरासत छोड़कर जाइए कि जिससे लोग यह कह सकें कि हमारे पूर्व पुरुष ऐसे थे, हमारे गाँव का निवासी ऐसा था। अमुक सज्जन ऐसा था। लोक-सम्मान अर्जित कीजिए न। आत्मसम्मान अर्जित कीजिए न। भगवान् का अनुग्रह अर्जित कीजिए न। आपको इसमें क्या दिक्कत पड़ती है? इसमें तो कोई दिक्कत नहीं पडऩी चाहिए।
ये ही तीन बंधन हैं, जिन्होंने आपकी तीन चीजों को खत्म कर दिया है। पहला—आत्मसंतोष, जो आप पा सकते थे, उससे आप वंचित रह गए और उसे अब आप पा नहीं सकेंगे। क्यों? क्योंकि लोभ तो आपको कहाँ पाने देगा? लोभ तो आपको उचित और अनुचित काम करने के लिए लगाए रहेगा। लोभ आपको मेहनत करने के लिए लगाए रहेगा, कर्ज लेने के लिए लगाए रहेगा। लोभ आपको रिश्वत लेने के लिए मजबूर करता रहेगा। लोभ आपको बेईमानी करने के लिए मजबूर करता रहेगा। फिर आप किस तरीके से आत्मसंतोष पाएँगे? आत्म आपकी निरंतर जलती ही रहेगी, क्योंकि आपका लालच इतना बड़ा दुश्मन है, जिसको आप छोड़ नहीं पाएँगे, तो उसके बदले में आपको आत्मसंतोष गँवाना-ही-गँवाना है।
एक दूसरी और चीज है—लोक-सम्मान। लोकसम्मान आप नहीं पा सकेंगे? क्यों? क्योंकि आपकी सारी शक्ति, सारा प्यार इन थोड़े-से आदमियों में केंद्रित हो गया है। आप अपनी औरत को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। आप अपने बच्चों को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। कहीं कोई समाज में भी रहता है क्या? कहीं कोई संस्कृति भी है क्या? कहीं कोई दीन-दुखियारे भी रहते हैं क्या? समाज के प्रति भी कुछ कत्र्तव्य और फर्ज है क्या? नहीं साहब! जो हमने कमाया था, चार बेटों में बराबर बाँट दिया। और पड़ोसियों को? और मोहल्ले वालों को? और लोगों को? और उन लोगों को, जिनके अहसान आपके ऊपर लदे हुए हैं। उनके लिए-जिन अध्यापक ने आपको पढ़ाया था और जो बेचारा आजकल भिखारी की तरह गुजारा कर रहा है। उसके प्रति भी कुछ फर्ज है आपका कि नहीं है? नहीं, साहब मैंने तो चार बेटों में बराबर बाँट दिया। ऐसा मत कीजिए। चार बेटों में बराबर मत बाँटिए। बच्चों को स्वावलंबी बनने दीजिए और जो कुछ भी आपकी संपत्ति है, उससे समाज को लाभ उठाने दीजिए। संस्कृति को लाभ उठाने दीजिए।
भाइयो! बहनो! अपने अहंकार का परिपोषण आप उस मायने में कीजिए कि हमको महापुरुष बनना है और हम महामानव बनते हैं। अपनी चाल-ढाल और चाल-चलन ऐसा शानदार बनाते हैं कि जिससे भगवान् का अनुग्रह भी हमको प्राप्त हो सके। अगर आप महानता की दिशा में नहीं जाएँगे, बड़प्पन की दिशा में जाएँगे, तो आपको लोभ, मोह और अहंकार इन तीन को पकडऩा पड़ेगा। इनके सहारे आपको नरक में गिरना पड़ेगा और बंधन में गिरना पड़ेगा। कदाचित् अगर आप एक कदम आगे बढ़ा दें और महानता की ओर चल पड़ें तब? तब आपको दूसरा काम करना पड़ेगा। तब फिर आपको औसत भारतीय की तरीके से सीमित में निर्वाह करना पड़ेगा। आपके सारे भाई जिस तरह का गुजारा करते हैं, आप क्यों नहीं कर सकते? क्या सारे बच्चों को अपना क्यों नही बना सकते। कितने बच्चे हैं, जो विद्या के अभाव में बैठे रहते हैं। आप अपने बच्चों को कीमती कपड़ा पहनाएँ और अमुक चीज छोड़कर मरें और पड़ोसियों के बच्चों के लिए आप किताब तक खरीद कर नहीं दे सकते? ईश्वरचंद्र विद्यासागर के तरीके से आप क्या ऐसे नहीं कर सकते कि अपने घर का पचास रुपए से गुजारा कर लें और बची हुई चार सौ पचास रुपए की नौकरी को पड़ोस के विद्यार्थियों के लिए खर्च कर दें। ऐसा आप नहीं कर पाएँगे क्या?
मित्रो! लोभ, मोह को आप छोड़ दीजिए। आप अहंकार की, बड़प्पन की, अमीरी की और दूसरों की आँखों में चकाचौंध पैदा करने की हवस को छोड़ दीजिए। इसके स्थान पर आप दूसरी हवस पैदा कीजिए कि हम महान् बनेंगे। दूसरों के सामने उदाहरण पेश करेंगे।
अपनी जिंदगी का नमूना पेश करेंगे और लोगों को अपने रास्ते पर चलने के लिए, पीछे चलने के लिए हम नया रास्ता बनाकर जाएँगे। ये महानता के रास्ते हैं। अगर आप महानता के रास्ते पर चल पड़ें, तो आपके जीवन की मुक्ति हो गई। जीवनमुक्त जैसे इसी जिंदगी में आनंद उठाते हैं। मजा उड़ाते हैं और सारे विश्व में पंख लगाकर स्वच्छंद उड़ते चले जाते हैं, जैसे कि पखेरू सारे विश्व में उड़ता हुआ चला जाता है। वह कैसा सुंदर दृश्य देखता है? कैसी सुहावनी छवि का लाभ उठाता है, आप भी ठीक वैसी छवि का लाभ उठा सकते हैं, अगर आप जीवनमुक्त होने की दिशा में कोशिश करें तब। यह आपकी मु_ïी में है और आप चाहें तो इसे खरीद भी सकते हैं। आप जरा हिम्मत तो कीजिए। लोभ, मोह और अहंकार का तिरस्कार कीजिए, फिर देखिए आपकी मुक्ति आपके चरणों में आती है कि नहीं। मुझे उम्मीद है कि आप यहाँ इस कल्पसत्र में आए हैं और जीवनमुक्त होकर जाएँगे। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति:
संकल्पशक्ति की महिमा एवं गरिमा
(अक्टूबर १९८२ कल्पसाधना सत्र में दिया
गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! प्रकृति का कुछ ऐसा विलक्षण नियम है कि पतन स्वाभाविक है। उत्थान को कष्टïसाध्य बनाया गया है। पानी को आप छोड़ दीजिए, नीचे की ओर बहता हुआ चला जाएगा, उसमें आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। ऊपर से आप एक ढेला जमीन पर फेंक दीजिए, वह बड़ी तेजी के साथ गिरता हुआ चला आएगा, आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। नीचे गिरने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। ऐसे ही संसार का कुछ ऐसा विलक्षण नियम है कि पतन के लिए, बुरे कर्मों के लिए आपको ढेरों के ढेरों साधन मिल जायेंगे, सहकारी मिल जायेंगे, किताबें मिल जायेंगी, और कोई न मिलेगा, तो आपके पिछले जन्म-जन्मान्तरों के संग्रह किये हुये कुसंस्कार ही आपको इस मामले में बहुत मदद करेंगे, जो आपको गिराने के लिये बराबर प्रोत्साहित करते रहेंगे। पापपंक में घसीटने के लिये बराबर आपका मन चलता रहेगा। इसके लिए न किसी अध्यापक की जरूरत है, न किसी सहायता की जरूरत है, यह तो अपनी नेचर ऐसी हो गई है। ग्रेविटी पृथ्वी में है न। ग्रेविटी क्या करती है? ऊपर की चीजों को नीचे की ओर खींचती है। न्यूटन ने देखा सेव का फल जमीन पर ऊपर से गिरा। क्यों,गिरने में क्या बात है? जमीन में एक विशेषता है, कशिश है कि वह खीच लेती है। नीचे गिराने वाली कशिश इस संसार में इतनी भरी पड़ी है, कि उससे बचाव यदि आप न करें, उसका विरोध आप न करें, उसका मुकाबला आप न करें, तो आप विश्वास रखिये आप निरंतर गिरेंगे। पतन की ओर गिरेगे। सारा समाज इसी ओर चल रहा है। आप निगाह उठाकर देखिए आपको कहाँ ऐसे आदमी मिलेंगे, जो सिद्धान्तों को ग्रहण करते हों और आदर्शों को अपनाते हों। आप जिन्हें भी देखिये, अधिकांश लोग बुराइयों की ओर चलते हुए दिखाई पड़ेंगे। पाप और पतन के रास्ते पर उनका चिंतन और मनन काम कर रहा होगा। उनका चरित्र भी गिरावट की ओर और उनका चिंतन भी गिरावट की ओर। ऐसा ही सारे के सारे जमाने में भरा पड़ा है।
ऐसी स्थिति में आपको क्या करना चाहिये? आपको अगर ऊँचा उठना है, तो अपने भीतर से एक नई हिम्मत इक_ïी करनी चाहिये। क्या हिम्मत करें? यह हिम्मत करें, कि ऊँचे उठने वाले जिस तरीके से संकल्प बल का सहारा लेते रहे हैं और हिम्मत से काम लेते रहे हैं, व्रतशील बनते रहे हैं, आपको उस तरीके से व्रतशील बनना चाहिये। देखा है न आपने, जब जमीन पर से ऊपर चढऩा होता है, तो जीने का इंतजाम करते हैं, सीढ़ी का इंतजाम करते हैं, तब मुश्किल से धीरे-धीरे चढ़ते हैं। गिरने में क्या देर लगती है। आपको कोई ढेला ऊपर फेकना हो, तब देखिये न कितनी ताकत लगाना पड़ती है और गिरा दें तब, गिराने में क्या देर लगती है। अंतरिक्ष से उल्कायें अपने आप गिरती रहती हैं, जमीन की ओर। जब राकेट फेंकना पड़ते हैं तब। आपने देखा है न, करोड़ों-अरबों रुपया खर्च करते हैं, तब एक राकेट का अंतरिक्ष में ऊपर उछालना संभव होता है। गिरावट में तो पत्थर के टुकड़े और उल्कायें अपने आप जमीन पर आ जाती हैं। बिना किसी के बुलाये, बिना खर्च किये। पानी को कुएँ में से निकालना होता है, तो कितनी मेहनत करना पड़ती है और कुएँ में डालना हो, तो डाल दीजिये। कोई मेहनत नहीं करना पड़ेगी।
चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जो ढेरों कुसंस्कार इक_ïे कर लिये हैं, अब इन कुसंस्कारों के खिलाफ बगावत शुरू कर दीजिये। कैसे करें? अपने को मजबूत बनाइये। अगर मजबूत नहीं बनायेंगे तब? तब फिर, आपके पुराने कुसंस्कार फिर आ जायेंगे। मन को समझायें, बस जरा सी देर को समझ जायेगा, फिर उसी रास्ते पर आ जायेगा। फिर क्या करना चाहिये? अपना मनोबल ऊँचा करने के लिये आपको कोई संकल्प लेना चाहिये। संकल्प शक्ति का विकास करना चाहिये। संकल्प शक्ति किसे कहते हैं? संकल्प शक्ति उसे कहते हैं, जिसमें कि यह फैसला कर लिया जाता है कि यह तो करना ही है। यह तो हर हालत में करना है। करेंगे या मरेंगे। इस तरीके से यदि आप संकल्प किसी बात का कर लें, तो आप विश्वास रखिये कि आपका जो मानसिक निश्चय है, वह आपको आगे बढ़ा देगा। अगर आपमें मनोबल नहीं है और निश्चयबल नहीं है, ऐसे ही ख्वाब देखते रहते हैं, यह करेेंगे, वह करेंगे, विद्या पढ़ेंगे, व्यायाम करना शुरू करेंगे, फलाना काम करेंगे। आप कल्पना करते रहिये, कहीं कुछ नहीं कर सकते। कल्पनाएँ आज तक किसी की सफल नहीं हुई और संकल्प किसी के असफल नहीं हुए।
इसलिये मित्रो, संकल्प शक्ति का सहारा लेने के लिए व्रतशील बनना चाहिये। आप व्रतशील बनिये। आप यह करेंगे बस यह निश्चय कर लीजिये कि अच्छा काम करेंगे। जो भी छोटा हो या बड़ा हो आप यह काम करेंगे। जैसे हमको बुराइयों को छोडऩे के लिए संकल्प करने पड़ते हैं, बीड़ी नहीं पियेंगे, नहीं साहब हमको टट्टïी नहीं होगी। टट्टïी नहीं होगी तो हम दूसरी जुलाब की दवा ले लेंगे पर बीड़ी नहीं पियेंगे। बस यह निश्चय हुआ तो बीड़ी गयी। और आपका मन कच्चा, कच्चा, कच्चा छोड़े कि न छोड़े, पिये कि न पियें, कल पीली, फिर आज और पीलें, कल छोड़ देंगे, आज पी लेंते हैं। आगे देखा जायेगा। आप कभी नहीं छोड़ सकते। ठीक इसी तरीके से श्रेष्ठï काम करने के लिये, उन्नति की दिशा में आगे बढऩे के लिए, आपको कोई न कोई संकल्प जरूर लेना चाहिये। यह काम करेंगे। यह काम करने तक के लिये कई लोग ऐसा कर लेते हैं कि यह काम जब तक पूरा नहीं करेंगे, तब तक यह काम नहीं करेंगे। जैसे नमक नहीं खायेंगे। घी नहीं खायेंगे, शक्कर वगैरह नहीं खायेंगे। यह क्या है? देखने में तो कोई खास बात नहीं है, आपको अमुक काम करने से नमक का क्या ताल्लुक? और आप शक्कर नहीं खायेंगे, तो क्या बात बन जायेगी। अगर आपने घी खाना बंद कर दिया, तो कौंन सी बड़ी बात हो गई। कि जिससे आपको काम में सफलता मिलेगी। इन चीजों में तो दम नहीं है, लेकिन दम उस बात में है, कि आपने इतना कठोर निश्चय कर लिया है और आपने सुनिश्चित योजना बना ली है कि यह हमको करना ही करना है। करना ही करना है, तो फिर आप विश्वास रखिये वह काम पूरा होकर रहेगा।
मित्रो, चाणक्य की बात आपको नहीं मालुम? चाणक्य ने निश्चय कर लिया था, बाल बिखेर दिये थे कि जब तक नंद-वंश का नाश नहीं कर दँूगा, तब तक चोटी नहीं बाधूँगा। यह अपना व्रत और प्रतिज्ञा याद रखने का एक प्रतीक है, सिम्बल है। प्रतिज्ञा लोग भूल जाते हैं, लेकिन अगर कोई ऐसा बहिरंग अनुशासन भीतर लगा लें तो आदमी भूलता नहीं है। इसलिये कोई न कोई अनुशासन लगा लें तो अच्छा है। जैसे एक बार ऐसा हुआ—भगवान् महावीर के पास एक बहेलिया गया। उसने कहा—हमको दीक्षा लेनी है, तो भगवान् ने कहा कि आपको गुरुदक्षिणा में अहिंसा का पालन करना पड़ेगा और मांस खाना छोडऩा पड़ेगा। तो उसने कहा हम बहेलिए हैं, यह तो हम नहीं कर पायेंगे। फिर बच्चों को कहाँ से खिलायेंगे? समझदार लोगों ने उसको सलाह दी कि कम से कम एक प्राणी को न मारने का संकल्प ले ले, तो भी तेरी अहिंसा के व्रत का प्रारंभ मान लिया जायेगा। बहुत विचार करता रहा बहेलिया, फिर उसने एक जानवर को पाया। जिसके ऊपर वह दया करने को तैयार हो गया और उसे न मारने को तैयार हो गया। उस जानवर को नहीं मारूँगा, कभी नहीं मारूँगा, कौए पर दया करूँगा। बस उसने संकल्प ले लिया और दीक्षा ले ली। बस रोज विचार करता कौऐ पर दया करनी चाहिये। कौआ बेचारा कितना निरीह होता है, उसको कष्टï नहीं देना चाहिये, उसके भी तो बाल बच्चे होंगे, उसको भी तो भगवान् ने रचा है, हम अपने छोटे से लोभ के लिये कौए को क्यों मार डालें? बस यह विचार जब जड़ जमाता हुआ चला गया तो धीरे-धीरे फिर ऐसा हो गया कि फिर वह सब प्राणियों पर दया करने लगा। अंतत: वह जैन धर्म का एक बड़ा तीर्थांकर हुआ। कैसे? दिशा जो मिल गई? छोड़ेंगे, करेंगे।
बुरे कर्म छोड़ेंगे और अच्छे कर्म करेंगे, इसके लिए मन कच्चा न होने पावे और भूलभुलैयों में न पडऩे पावे, इसीलिए कोई न कोई संकल्प लेना बहुत जरूरी है। अनुष्ठïान में यही होता है। अनुष्ठïान में जप की संख्या तो उतनी ही होती है, पर उसके साथ-साथ व्रत और संकल्प लेने पड़ते हैं। कौन-कौन से? उपवास का एक, ब्रह्मïचर्य का दो, मौन का तीन, जमीन पर सोने का चार, अपनी सेवायें अपने आप करने का पाँच। ऐसा क्यों? यह मनोबल बढ़ाने की प्रक्रियायें है। आदमी का संकल्प मजबूत होना चाहिये। अध्यात्म का प्राण ही संकल्प है। संकल्प को अगर आप जीवन में से निकाल दें, फिर क्या काम बनेगा? आपको ध्यान होगा? राणा प्रताप ने यह निश्चय किया था कि वह थाली में भोजन नहीं करेंगे, जब तक अपनी आजादी प्राप्त न कर लेंगे, तब तक वह पत्तल में भोजन करेंगे। आपने कभी गाड़ी वाले लोहार देखे हैं? गाड़ी वाले लोहार अभी भी पत्तल में भोजन करते हैं, थाली में भोजन नहीं करते। अपने आपको राणा प्रताप का वंशज बतलाते हैं और यह कहते हैं, जब राणा ने यह प्रतिज्ञा ली थी कि हम घर में नहीं घुसेंगे, बाहर जंगल में घूमेंगे और पत्तल में भोजन करेंगे, यह उनका था व्रत। गाड़ी वाले लोहार यही कहते पाये गये हैं—घर में अब नहीं रहेंगे, बाहर ही घूमते रहेंगे। आजादी नहीं मिली, तो हम क्यों सुखों का भोग करेंगे? इस तरीके से संकल्प कर लेना, व्रत धारण कर लेना कई बार बड़ा उपयोगी होता है। अनुष्ठïान काल में नमक को त्याग करने वाली बात, शक्कर को त्याग कर देने वाली बात, हजामत न बनाने वाली बात, चप्पल न पहनने वाली बात, ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो आदमी के संकल्प बल को मजबूत करती हैं। आपको अपने संकल्प मजबूत बनाने चाहिये।
संकल्प के लिये कई बातें हैं। कठिनाइयाँ सामने आती हैं, तो आदमी को संकल्प बल मजबूत बनाना चाहिये। संकल्प बल न हो तब? हिम्मत न हो तब? फिर आदमी बेपेंदे लोटे की तरह से इधर-उधर भटकता रहता है। मनोबल बढ़ाने के लिये कोई न कोई संकल्प जीवन में रखना बहुत जरूरी है। गाँधी जी ने ३३ वर्ष की उम्र में ब्रह्मïचर्य की प्रतिज्ञा ली थी और यह कहा था कि हम यह निभायेंगे। इसे निभाने में, मनोबल में, कच्चाइयाँ जरूर रही होंगी, दूसरों की तरीके से उनका भी मन कभी-कभी भीतर-भीतर डगमग-डगमग करता रहा हो? लेकिन उनके संकल्प ने कहा-नहीं, हमने निश्चय कर लिया है, रघुकुल रीति सदा चल आई प्राण जाई पर वचन न जाही। इस तरीके से जब उनका संकल्प चला, तो फिर वह निभा। भीतर की कमजोरियाँ उठीं, उनसे लड़ा गया। अगर संकल्प न होता तब? व्रत नहीं लिया होता तब? निश्चय न किया होता तब? तब फिर संभव नहीं था। संकल्प कर लेने के बाद तो आदमी की आधी मंजिल पूरी हो जाती है। आपको भी अपने मनोबल की वृद्धि के लिये आत्मानुशासन स्थापित करना चाहिये। आत्मानुशासन वह है, जिसमें फिसलने वाली बरसात में पहाड़ पर चढ़ते समय लाठी लेकर लोग चलते हैं और उससे जहाँ फिसलन होती है, अपने आपको बचा लेते हैं। उसका सहारा मिल जाता है। संकल्प बल लाठी के तरीके से है, जो आपको गिरने से बचा लेता है और आपको ऊँचा चढऩे के लिये आगे बढऩे के लिये हिम्मत प्रदान करता है।
मित्रो, शीरी फरिहाद की बात सुनी होगी आपने? फरिहाद को यह कहा गया था अगर वह शीरी से शादी करना चाहता है, तो यहाँ से ३२ मील लम्बी दूरी को काटकर के एक नहर बनाकर के लाये। पहाड़ पर ही तालाब था ऊँचे पर। वह शहर से इतनी दूर था कि जिससे पानी के लिये बड़ी किल्लत रहती थी। राजा ने फरिहाद से यह कहा कि यदि आप ३२ मील लम्बी नहर खोदकर के यहाँ तक ला सकें, तो शीरी से शादी हो सकती है। उसने यही कहा, संकल्प लिया कि हम करेंगे या मरेेंगे, यह निश्चय करके जब उसने इतना कर लिया हमको नहर खोदनी है, तो वह कुल्हाड़ी और हथौड़ी लेकर चल पड़ा। उसने पहाड़ काटना शुरु कर दिया। बाहर के आदमी आये, कुछ दिन मजाक होती रही। कुछ मखौल उड़ाते रहे, कोई पागल कहता रहा, कोई बेवकूफ कहता रहा, लेकिन जब यह देखा कि इस आदमी ने यह निश्चय कर लिया है कि हम हर कीमत पर करके रहेंगे, तो लोगों की सहानुभूति पैदा हुई। संकल्पवानों के प्रति सहानुभूति भी होती है। संकल्पवान सहानुभूति के अधिकारी होते हैं।
जिनके पास संकल्प शक्ति नहीं है, वह मजाक के कारण बनते हैं, व्यंग और उपहास के कारण बनते हैं। इसलिये फरिहाद को लोगों ने मदद की, लोग आये और स्वयं भी उसके साथ बैठकर कुल्हाड़ी और हथौड़ा चलाने लगे और नहर खोदने में मदद करने लगे। टाइम तो थोड़ा लग गया, लेकिन फरिहाद ने नहर खोदकर के और वहाँ तक लाकर रख दी जहाँ तक राजा ने बतायी थी।
साथियो, यह सब संकल्प बल की बातें मैं कह रहा हँू। संकल्प बल आपको प्रत्येक काम में उपयोग करने की जरूरत है। ब्रह्मïचर्य के सम्बंध में, खानपान के सम्बंध में, समयदान और अंशदान के सम्बन्ध में, आप को कोई न कोई ऐसा काम जरूर करना चाहिये, जिसमें कि यह प्रतीत होता हो कि आपने छोटा सा संकल्प लिया और उसको पूरा करने में लग रहे हैं। यह मनोबल बढ़ाने का तरीका है। मनोबल से बढ़कर आदमी के पास और कोई शक्ति नहीं है। पैसे की ताकत अपने आप में ठीक। बुद्धि की ताकत अपने आपमें ठीक। लेकिन ऊँचा उठने का जहाँ तक ताल्लुक है, वहाँ तक मनोबल और संकल्पबल को ही सबसे बड़ा माना गया है। संकल्प बल और मनोबल से बढ़कर आदमी के व्यक्तित्त्व को उभारने वाली, प्रतिभा को उभारने वाली, उसके चरित्र को उभारने वाली और कोई वस्तु है ही नहीं। और यह संकल्प बल की वृद्धि के लिये यह आवश्यक है कि आप छोटे-छोटे, ऐसे कुछ नियम लिया कीजिये थोड़े समय के लिये, कि यह काम नहीं कर लेंगे, तब तक, हम यह नहीं करेंगे। मसलन् शाम को इतने पन्ने नहीं पढ़ लेंगे, तो सोयेंंगे नहीं। मसलन् सबेरे का भजन हम जब तक पूरा नहीं कर लेंगे खायेंगे नहीं। यह क्या है व्रतशीलता के साथ में जुड़ा हुआ अनुशासन है।
अनुशासन उन संकल्पों का नाम है, जिसमें किसी सिद्धांत का तो समावेश होता ही होता है, लेकिन उस सिद्धान्त के साथ साथ में, उस कार्य के साथ-साथ में, ऐसा भी कुछ फैसला किया जाता है, जिसमें अपने आपको स्मरण बना रहे, यह काम नहीं करेंगे। चप्पल नहीं पहनेंगे। जब तक हम मैट्रिक पास नहीं कर लेंगे चप्पल नहीं पहनेंगे। यह क्या है? बराबर यह दबाव रहता है यह काम करना था, जो नहीं कर पा रहे हैं। चप्पल इसीलिये तो नहीं पहनते। चप्पल बार-बार याद दिलाती रहेगी आपको मैट्रिक करना है। अच्छे नम्बर से पास करना है। दिन भर पढऩा है। चप्पल पर जब भी ध्यान गया, अरे भाई चप्पल कैसे पहन सकते हैं, हमने तो संकल्प लिया हुआ है, हमने तो व्रत लिया हुआ है। संकल्प आदमी की जिंदगी के लिये बहुत बड़ी कीमती वस्तु है। आप ऐसा ही किया कीजिये। आपको यहाँ से जाने के बाद में कई काम करने हैं, बड़े मजेदार करने है, बहुत अच्छे काम करने हैं, लेकिन वह चलेंगे नहीं, बस आपका मन बराबर ढीला होता चला जायेगा। मन को काट करने के लिये आप एक विचारों की सेना, विचारों की शृंखला बनाकर तैयार रखिये। विचारों से विचारों को काटते हैं। लाठी को लाठी से मारते हैं, जहर को जहर से मारते हैं। कांटे को कांटे से निकालते हैं। कुविचार जो आपको हर बार तंग करते रहते हैं, उसके मुकाबले पर एक ऐसी सेना खड़ी कर लीजिये, जो आपके बुरे विचारों से लड़ सकने में समर्थ हो।
मित्रो, अच्छे विचारों की भी तो एक सेना है। बुरे विचार आते हैं, काम वासना के विचार आते हैं, व्यभिचार के विचार आते हैं, आप ऐसा किया कीजिये, उसके मुकाबिले की एक ओर सेना खड़ी कर दीजिये। अच्छे विचारों वाली सेना। जिसमें आपको यह विचार करना पड़े, हनुमान कितने सामथ्र्यवान हो गये, ब्रह्मïचर्य की वजह से, भीष्मपितामह कितने समर्थ हो गये ब्रह्मïचर्य के कारण। आप शंकराचार्य से लेकर और अनेक संतों की बातें याद कर सकते हैं, महापुरुषों की। जिन्होंने कि अपने कुविचारों से लोहा लिया है। कुविचारों से लोहा नहीं लिया होता तो बेचारे संकल्पों की क्या विसात! चलते ही नहीं टूट जाते। कुसंस्कार हावी हो जाते और जो विचार किया गया था वह एक कोने में रक्खा रह जाता। सदाचार के आप खाली विचार करें, तो कैसे बने? आप उनके विचारों की एक बड़ी सामथ्र्य बनाइये। एक सेना बना लीजिये। जो भी बुरे विचार आयें उनको काटने के लिये। लोभ के विचार आयें, लालच के विचार आयें तो आप ईमानदारों के समर्थन के लिये, उनके इतिहास और उदाहरण और शास्त्र और आप्त पुरुषों के वचन संग्रह करके रखिये। ईमानदारी की ही कमाई खायेंगे। बेईमानी की कमाई नहीं खायेंगे। अगर आपने अपने मन में ऐसे विचारों की एक सेना तैयार कर ली है, तो आपके लिये सरल होगा, कि जब बेईमानी के विचार आयें, कामवासना के विचार आयें, ईष्र्या के विचार आयें, अध:पतन के विचार आयें, तो उनकी रोकथाम करने के लिए आप अपनी सेना को तैयार कर दें और उनसे सामने से भिड़ा दें।
मित्रो, लड़ाई लड़े बिना कैसे काम चलेगा? रावण से लड़े बिना काम चला? दुर्योधन से लड़े बिना काम चला? कंस से लड़े बिना कहीं काम चला? लड़ाई मोहब्बत की है, या कैसी है? हिंसा की है या अहिंसा की है? यह मैं इस बखत बात नहीं कह रहा हूँ। मैं तो यह कह रहा हूँ—आपको अपनी बुराइयों और कमजोरियों से मुकाबला करने के लिये भी और समाज में फैले हुए अनाचार से लोहा लेने के लिये भी हर हालत में आपको ऐसे ऊँचे विचारों की सेना बनाना चाहिये, जो आपको भी हिम्मत देने में समर्थ हो सके और आपके समीपवर्ती लोगों में भी नया माहौल पैदा करने में समर्थ हो सके, यह संकल्प भरे विचार होते हैं।
हजारी किसान ने बिहार में यह फैसला किया था, कि मुझे हजार आम के बगीचे लगाना है। बस, घर से निकल पड़ा। जमीन पर ही सोऊँगा, नंगे पैर रहूँगा, बस, इस गाँव में गया—भाई नंगे पाँव मुझे रहना है, इस गाँव में एक आम का बगीचा जरूर लगाना है। लीजिये मैं कहीं से पौध ले आता हूँ। लाइये मैं गड्डïे खोद देता हूँ, आप लगा लीजिये। रखवाली का थोड़ा इंतजाम कर दीजिये। पानी देने का थोड़ा इंतजाम कर लीजिये, पौधा हमने लगाया है। इस तरीके से हर एक आदमी को समझाता रहा, तो उसकी बात लोगों ने मान ली। क्यों मान ली? वह संकल्पवान था। संकल्पवान नहीं होता तब? ऐसे ही व्याख्यान करता फिरता तबï? हरे पेड़ लगाइये, हरियाली उगाइये। हरे पेड़ लगाइये, हरियाली उगाइये तब? तब कोई लगाता क्या? सरकार कितना प्रचार करती है, कोई सुनता है क्या? सुनने के लिए यह बहुत जरूरी है, कि जो आदमी इस बात को कहने के लिये आया है, संकल्पवान हो। संकल्पवान ही जीवन में सफल होते हैं।
संकल्पवान कौन होता है? संकल्पवान का अर्थ फिर एक बार समझ लीजिये। ऊँचे सिद्धान्तों को अपनाने का निश्चय और उस निश्चय में, रास्तें में, कोई व्यवधान न आवे, इसलिये थोड़े-थोड़ेे समय के लिये ऐसे अनुशासन, जिससे कि स्मरण बना रहे, मनोबल बढ़ता रहे, मनोबल गिरने न पावे, संकल्प की याद करके आदमी अपनी गौरव गरिमा को बनाये रह पाये, इसलिये आपको व्रतशील होना जरूरी है। व्रतशील आप रहा कीजिये। पीला कपड़े पहनने को आपको कहा गया है, यह व्रतशील होने की निशानी है। दूसरे लोग पीले कपड़े नहीं पहनते, आपको पहनना चाहिये, इसका मतलब यह है, कि आपके ऊपर दुनिया का कोई दबाव नहीं है। दुनिया का अनुकरण करने और नकल करने में आपको कोई मजा नहीं है। यह क्या है? यह व्रतशील की निशानी है। माघ के महीने में त्रिवेणी के किनारे लोग एक महीने के लिये व्रतशील होकर जाते हैं, तपसाधना करते हैं। बस वह यह निश्चय कर लेते हैं नहीं करेंगे। आप भी इस कल्प साधना शिविर में आये हैं व्रतशील होकर रहिये। निश्चय को पालन करिये। हमने यह नियम बनाया है, उसी को पालन करेंगे। भोजन जैसा भी हो, खराब है तो क्या, खराब से ही काम चलायेेंगें। नहीं साहब जायका अच्छा नहीं लगता, समोसा कचौड़ी खायेंगे। मत खाइये संकल्पवान बनिये।
मित्रो, संकल्प में अकूत शक्ति है। संकल्पवान ही महापुरुष बने हैं, संकल्पवान ही उन्नतिशील बने हैं, संकल्पवान ही सफल हुए हैं और संकल्पवानों ने ही संसार की नाव को पार लगाया है। आपको संकल्पवान और व्रतशील होना चाहिये। नेकी आपकी नीति होनी चाहिये, उदारता आपका फर्ज होना चाहिये और अगर ऐसा कर लिया हो, तब आप दूसरा कदम यह उठाना कि हम यह काम नहीं करेंगे। समय-समय पर छोटे-छोटे व्रत लिया कीजिये। अपने यहाँ गायत्री परिवार में यह रिवाज है, कि गुरुवार के दिन नमक न खाने की बात, ब्रह्मïचर्य से रहने की बात, दो घंटे मौन रहने की बात, इन सबको पालन करने पड़ते हैं। आप भी व्रतशील होकर कुछ नियम पालन करते रहेंगे और उनके साथ-साथ किसी श्रेष्ठï कत्र्तव्य और उत्तरदायित्व का ताना बाना जोड़कर रखेंगे, तो आपके विचार सफल होंगे, आपका व्यक्तित्व पैना होगा और आपकी प्रतिभा तीव्र होगी और आप एक अच्छे व्यक्ति में शुमार होंगे। अगर आप आत्मानुशासन और व्रतशीलता का महत्त्व समझेगें और उसे अपनाने की हिम्मत करेंगे तब। अगर इस तरह का एक कदम भी आप आगे बढ़ा सकेंगे, तो आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम आत्मोन्नति की दिशा में निरंतर आपको आगे बढ़ाते चलेंगे। इन्हीं शब्दों के साथ आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति:
विशिष्ठï वेला में विशिष्टï साधना
(सूक्ष्मीकरण साधना की अवधि में जुलाई, १९८४ में दिया वीडियो संदेश)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! अब हमारा जीवन एक नया मोड़ लेकर आया है। इतनी लंबी जिंदगी हमने अपने मित्रों से, भाइयों से, कुटुम्बियों से, भतीजों से, बच्चों से मिल जुलकर साथ-साथ में व्यतीत की है। ऐसा नहीं हुआ कि हम कभी अकेले रहे हों। रात को भी सोते रहे हैं, तो आप लोगों का चिंतन बराबर करते रहे हैं। समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का ख्याल करते रहे हैं। जनता के साथ हम बराबर रहे हैं। हमने अब अपने जीवन में एक नया मोड़ दिया है। नया मोड़ क्या है? अब आपके और हमारे मिलने-जुलने का क्रम बंद हो जाएगा। अब आप यह उम्मीद करें कि आप हमसे बात करेंगे, हमारी बात सुनेंगे, कठिनाइयों की अथवा जिज्ञासाओं की कोई बात हमारे सामने रखेंगे और हम उनका समाधान करेंगे। नहीं, अब यह संभव नहीं हो सकेगा। हमने अपना एक नया कार्यक्रम बना लिया है।
मित्रो, हमारे गुरु ने जो आदेश भेजा, उसी के आधार पर ही हमारा सारा-का-सारा जीवनक्रम चला है। अब तक की जिंदगी को हमने अपनी मर्जी से व्यतीत नहीं किया है। अपने कार्यक्रम स्वयं नहीं बनाये हैं। हमारे मास्टर, हमारे गुरु जिस ढंग से हमसे जो कराते हैं, हम करते हैं। इसी तरीके से हमारी सारी जिंदगी की गतिविधियाँ चलती रही हैं। अभी-अभी हमारा जो एक नया कार्यक्रम बना है। उन्हीं के आदेश के अनुसार बना है। क्या बना है? अब हमारा आपका संपर्क नहीं रहेगा। रहेंगे, तो हम जमीन पर ही, आसमान में थोड़े ही जाएँगे, लेकिन आप लोगों से संपर्क की जो जरूरत है, वह संभव नहीं हो सकेगी। आप लोग नीचे बैठे होंगे, हम ऊपर बैठे होंगे, तो क्या बातचीत नहीं करेंगे? नहीं, अब यह संभव नहीं हो सकेगा। यह हमारे जीवन का नया मोड़ है।
सकारण है जीवन का यह नया मोड़
आप लोग यह ख्याल कर सकते हैं कि इसका क्या कारण हो सकता है? आमतौर से कारण ऐसे ही होते हैं। कोई आदमी डर जाते हैं, भयभीत हो जाते हैं, शर्म के मारे बोलना बंद हो जाता है। कुछ व्यक्ति आलसी होते हैं और जगे पड़े रहते हैं। जब घर वाले आवाज देते हैं कि उठो भाई, कुछ करो, तब भी वे झूठमूठ खर्राटे लेते रहते हैं। ऐसे होते हैं—आलसी और डरपोंक आदमी। सुना है कि जो मिलेट्री में भर्ती होते हैं, उनमें से कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं कि जब लड़ाई का मौका आता है, दनादन गोलियाँ चलती हैं, तो कोई-न-कोई बहाना बनाते हैं, जैसे पेटदर्द हो गया, पु_ïे में दर्द हो गया। चला नहीं जाता है, ये बात हो गयी है, वो बात हो गई है आदि। दुनिया भर की बातें बना लेते हैं और युद्ध से भागने की कोशिश करते हैं। इन्हें पलायनवादी कहा जाता है। इस तरह आलसी एक, डरपोक दो और पलायनवादी तीन श्रेणी के व्यक्ति हुए।
तो क्या हम भी इन्हीं में से हैं? नहीं, हम इनमें से कोई भी नहीं हैं। जिन लोगों ने हमको नजदीक से देखा है, उनको स्पष्टï मालूम है कि उन तीनों में से एक भी ऐब गुरुजी के भीतर नहीं है। इन खराबियों को हमने शुरू से ही अपने भीतर से उखाड़ फेंका है। अब तो पचहत्तर साल होने को आये हैं; तो क्या इतने लंबे समय में वह बुराइयाँ कहीं छिपकर बैठ गयी होंगी? नहीं, हमने उन्हें कहीं छिपकर बैठने नहीं दिया है, साफ कर दिया है। फिर क्या कारण है कि हमको अलग एकांत में रहना पड़ा? अगले दिनों संकटों के घटाटोप और अधिक सघन होंगे, इसलिए उन्हें निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के लिए हमको अपनी शक्तियों के फैलाव को रोककर एक जगह इक_ïा करना पड़ रहा है, ताकि वह इक_ïी हुई शक्तियाँ आपके ज्यादा काम आ सकें। आप से मतलब है-समाज से, धर्म से, देश से, मानव जाति से, संस्कृति से। इसलिए फैलाव को-बिखराव को हमने बंद कर दिया है।
बिखराव को रोककर एक दिशा में सुनियोजन
मित्रो, आपने देखा होगा कि सूर्य की किरणें जब एक आतिशी शीशे के ऊपर एकत्रित कर देते हैं, तो वे कितनी पैनी हो जाती हैं। हमारी शक्ति भी वैसी ही हो जाएगी। इस संदर्भ में आप कहेंगे कि गुरुजी! आप तो फिर कमजोर हो जाएँगे? नहीं, बेटे! हम कमजोर नहीं होंगे। मान लीजिए, अगर हम कमजोर हो गये, तो भी हमारे जो बच्चे होने वाले हैं, वे बहुत ताकतवार होंगे। आपने महाभारत पढ़ा होगा कि कुन्ती तो कमजोर हो गयी थी और अपनी जिठानी गांधारी के साथ जंगल में तप करने चली गयी थी। लेकिन उनके बच्चे कितने शानदार थे, अर्जुन, भीम और दूसरे सब बच्चे एक-से-एक समर्थ थे। कुन्ती मरी नहीं थी, वरन् अपनी जगह दूसरों को छोड़ गयी थी। हम भी अपनी जगह पर दूसरों को छोड़ जाने की कोशिश में लग रहे हैं, ताकि हमारी परंपरा बंद न होने पाये।
यों तो स्थूल रूप से हमारी परंपरा बंद भी हो सकती है। पिचहत्तर साल की उम्र के बाद में आदमी कहाँ तक जिएगा? अधिक-से-अधिक पाँच वर्ष और चुस्ती व फुर्ती के साथ। उसके बाद कोई जिएगा, तो बुड्ढïा हो जाता है, कमजोर हो जाता है, इन्द्रियाँ साथ देना बंद कर देती हैं। बुढ़ापे में किसी को जवान देखा है, फिर हम कैसे जवान रह सकते हैं? स्वयं भागदौड़ करके कैसे काम कर सकते हैं? इस भाग-दौड़ के लिए हमने नये आदमी तलाश किये हैं और उनको ही बनाने में लग रहे हैं।
तप एकांत में ही क्यों?
आपने बिल्ली देखी है। बिल्ली जब बच्चा देती है, तो क्या सड़क पर देती है? नहीं, कोई ऐसा स्थान तलाश करती है, जहाँ कोई आदमी न हो और उसे देखता न हो। ये छिपकर करने वाले काम हैं-एकांत के काम हैं। हम भी अब आप लोगों से अलग हटकर एकांत में जा रहे हैं, ताकि अपनी शक्तियों को एकत्र कर सकें और शक्तिशाली बन जाएँ। एकांत होने का मतलब यह है कि आपको हम दिखाई न पड़ें। दिखाई न देने से क्या आपको कोई नुकसान है? और दिखाई पड़ें, तो आपको कुछ फायदा है क्या? बताइये, क्या आपको अपना दिल दिखाई पड़ता है? नहीं दिखाई पड़ता। आपने अपने गुर्दे देखे हैं? किसी और के भले ही देखे होंगे, पर अपने नहीं देखे होंगे। फेफड़े आपने देखे हैं क्या? वह भी नहीं देखे हैं। शीशे में आपने अपने आँख और कान देखे हों तो देखे हों और वह भी प्रत्यक्ष नहीं देखे होंगे। इस प्रकार आप हर चीज को नहीं देख सकते। देखना कोई बहुत जरूरी नहीं । यदि जरूरी होता, तो भगवान् शंकर और पार्वती जी कैलाश पर्वत पर मानसरोवर, जो यहाँ से बहुत दूर है, तप करने क्यों जाते? दिल्ली के चावड़ी बाजार में क्यों नहीं बैठ जाते? तब उनके पास देखने वाले-दर्शन करने वाले हजारों आदमी आते? विष्णु भगवान् के बारे में मैंने आपको बताया है कि वे कहाँ रहते हैं। वे क्षीरसागर में शेषशैया पर सोये रहते हैं और एकांत में रहते हैं। कोई काम नहीं करते।
मित्रो! एकांत का मतलब यहाँ वह भी नहीं है, जो अभी मैंने बताया है-भाग खड़े होना, आलसी हो जाना। यद्यपि एक मतलब यह भी होता है दूसरा मतलब एकांत का है-अपनी शक्तियों को एकत्रित करना। माँ के पेट में जब बच्चा रहता है। न किसी से बात करता है, न बोलता है और न हिलता-डुलता है। न अपनी आवश्यकता कहता है, न लड़ता है, न चिल्लाता है। चुपचाप नौ महीने तक माँ के पेट में बैठा रहता है। इससे क्या फायदा है? इससे यह फायदा है कि पानी की एक नन्हीं बूँद एक पूरे बच्चे के रूप में विकसित हो जाती है।
आजकल हमारा जो एकांत चल रहा है-सूक्ष्मीकरण चल रहा है, इसके बारे में आप उसी तरीके से समझिये। आप यह न सोचिये कि हम भाग खड़े हुए। आप यह भी न सोचिये कि हमने आपसे मुहब्बत खत्म कर दी। मुहब्बत हमारी जिंदगी से खत्म नहीं हो सकती। उन लोगों के बारे में सोचिये, जो बैरागी हो जाते हैं, माँ-बाप को छोड़ देते हैं। भाइयों को, बच्चों को बिलखता छोड़ जाते हैं। ऐसे बैरागी हम कहाँ हो सकते हैं? ऐसा हमारे लिए संभव नहीं है, क्योंकि वह रास्ता जिन लोगों ने अख्तियार किया है, उन लोगों में से सभी को हमने रोका है। सबको मना कर दिया है और कहा है कि नहीं भाई, यह रास्ता गलत है। समाज की सेवा कीजिए, समाज के साथ रहिए। समाज के साथ में स्वयं भी आगे बढिय़े, अपने गुणों को बढ़ाइये और दूसरों को आगे बढ़ाइये। हमारी यही मनोकामना है।
अभी मैं आप से अलग होने की सफाई दे रहा था। इस संबंध में क्षीरसागर में बैठे भगवान् विष्णु की सफाई दी, कैलाशवासी भगवान् शंकर की सफाई दी-अकेले एकांत में रहने की। चलिए अभी मैं आपको और उदाहरण बताता हूँ। पांडिचेरी के अरविंद घोष का नाम सुना है न आपने, उन्होंने अपने सब काम कर लिये थे। अपनी ताकत, जितनी भी थी, सब खर्च कर ली थी। ताकतवार नौजवानों को साथ लेकर अँग्रेजों को भगाने का उनका मकसद था, पर वह पूरा न हो सका। फिर उन्होंने एक नेशनल कॉलेज खोला, उसमें विद्यार्थी पढ़ाये। इस नयी पीढ़ी के लोगों को समझाया कि आजादी की लड़ाई लडऩी चाहिए। वह प्रयास भी यूँ ही नकारा साबित हुआ। इसके बाद उन्होंने एक राजनैतिक पार्टी बनायी, बम चलाये। बम चलाकर अँग्रेजों को भगाने-डराने की बात कही, लेकिन वह बात भी उनकी सफल नहीं हुई।
फिर उनको दिखाई पड़ा कि सबसे बड़ी ताकत कौन-सी है, जिससे कि बड़ी-से-बड़ी हुकूमतों से टक्कर लेना संभव है। जब उनको दिखाई पड़ा कि वह शक्ति केवल तप में है। तप कहाँ होता है? तप के लिए एकांत चाहिए। पांडिचेरी के अरविंद घोष तप के लिए एकांत में चले गये। मालूम है न आपको। उनके साथ जो माताजी रहती थीं, वह भी एकांत में रहती थीं। दिन भर में एक बार दर्शन देने के लिए माताजी बाहर आती थीं। अरविंद साल भर बाद-छह माह बाद-जब उनका मन होता था, दर्शन दे जाते थे। उसमें भी दूर ही रहते थे। इससे क्या फायदा हुआ? इसका फायदा यह हुआ कि उन्होंने सारे-के-सारे वातावरण को गरम कर दिया। ऐसा वातावरण गरम हुआ, जैसे गर्मी में चक्रवात आते हैं और धूल-मिट्टïी के बवंडर उठते हैं और लगातार आकाश की ओर उठते रहते हैं। ऐसे ही कितने सारे चक्रवात यहाँ हिन्दुस्तान में तैयार हुए। उनमें से एक का नाम गाँधी, एक का नाम नेहरू, एक का नाम पटेल, एक का नाम सुभाष, एक का नाम मालवीय था। एक साथ इतने सारे महामानव कहीं दुनिया के पर्दें पर पैदा नहीं हुए। आजादी की लड़ाई में, आन्दोलनों में लोग तो बहुत सारे एक साथ हुए हैं, पर जब से जमीन बनी है, तब से कभी भी ऐसा नहीं हुआ, जब एक साथ किसी भी मुल्क में इतने सारे महापुरुष पैदा हुए हों, जितने कि अरविंद घोष के जमाने में हुए हैं।
महङ्क्षर्ष रमण का मौन तप
ठीक इसी तरह से महर्षि रमण का वाकया है। वे भी अकेले में रहते थे, मौन रहते थे, बात नहीं करते थे। उनका सत्संग होता था, हवन होता था। चिडिय़ाँ आती थीं, दूसरे जानवर आते थे, उनके नजदीक बैठ जाते थे और उनकी मौनवाणी को सुना करते थे। आप भी हमारी मौन वाणी को बराबर सुनते रहेंगे। तब वाणी को आपके कान बर्दाश्त कर सकेंगे कि नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन हमारी यह आवाज जो दूसरी और तीसरी वाणी में होगी, अब वह बोलेगी। यह वैसी ही वाणी है, जिसे हम अभी आपके सामने बोल रहे हैं। इन्हीं वाणियों से हम आप से जिंदगी भर बात करते रहेंगे। इसके अलावा भी आदमी की तीन और वाणी हैं। एक है-मध्यमा वाणी, जो व्यक्ति के चेहरे से टपकती है। दूसरी है-परा वाणी, जो आदमी के विचारों से, दिमाग-से, निकलती है। तीसरी-पश्यन्ती वाणी है, जो मनुष्य के अंतरात्मा के अन्दर रहती है। यह सत्संग की वाणी है। इन तीन वाणियों को कोई बंद नहीं कर सकता, इनमें कोई रुकावट नहीं डाली जा सकती है। मौन रहकर भी-एकांत में रहकर भी ये तीन वाणियाँ बराबर काम करती रहती हैं। हमारी भी ये तीनों वाणियाँ बराबर काम करती रहेंगी और आपको फायदा देती रहेंगी।
हमसे कुछ पाने का प्रयास कीजिए
मित्रो! यह कब फायदा देंगी? यह तब फायदा देंगी, जब आप हमारे साथ घुलेंगे-मिलेंगे। अगर आप दूर-दूर रहेंगे, तो बात कैसे बनेगी? दूर रहने से काम नहीं बनेगा, आपको हमारे पास आना पड़ेगा। पास आने का केवल यही मतलब नहीं है कि आप शांतिकुञ्ज में, हमारे कमरे में आ जाते हैं, मिल जाते हैं, वरन् पास आने का मतलब यह है कि आप हमारे विचारों के साथ में कितनी गहराई से जुड़ते हैं। हमारे पास क्या रखा है? हमने जो त्याग, तपश्चर्याएँ, उपासनाएँ की हैं, ऐसे ढेरों आदमियों के नाम बता सकता हूँ, जिन्होंने इस तरह की उपासनाएँ की हैं। लेकिन सही बात-ईमानदारी की बात यह है कि हमारे गुरु की शक्ति-गुरु की सामथ्र्य हमें बराबर मिलती रही है और उसी के आधार पर कठपुतली की तरह हम तमाशा करते रहे हैं। आप भी आइये, आपके लिए भी रास्ता खुला हुआ है।
हमसे पहले भी बहुत से आदमियों ने इस तरह से रास्ता खोल दिया है। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद के जोड़े का नाम सुना है आपने। रामकृष्ण परमहंस केवल ध्यान करते थे। उन्होंने न कोई अनुष्ठïान किया, न कोई विशिष्टï जप किया, न हिमालय गये, रामकृष्ण परमहंस की सारी आध्यात्मिक संपदा उनके शिष्य नरेन्द्र (विवेकानन्द) को मिल गयी। उसी को लेकर विवेकानन्द ने वह काम किया, जो रामकृष्ण परमहंस अपने शरीर से नहीं कर सकते थे।
आपने विरजानन्द और महर्षि दयानन्द का नाम सुना है। कौन दयानंद? आर्य समाज वाले। उनके गुरु स्वामी विरजानंद मथुरा में रहते थे। वे आँखों से अंधे थे। उन्होंने अपनी सामथ्र्य को स्वामी दयानन्द को हस्तान्तरित कर दिया। इसके बाद स्वामी दयानंद ने वह काम कर दिखाया, जिसे हजार आदमी भी एक समय में नहीं कर सकते। आपके लिए भी रास्ता खुला हुआ है। आप हमारी शक्ति का फायदा उठाना चाहें, जो आगे चलकर और भी ज्यादा हो जायेगी, तो उठा लीजिए। पहले से भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो हमारे साथ चलते रहे हैं। हमारा कहना मानते रहे हैं, उन्हें लाभ ही हुआ है। गाँधीजी के साथ में मीरा बहिन चलती थीं, नेहरू जी चलते थे, सुभाष चलते थे, विनोबा चलते थे उन्हें क्या मिला? सबको फायदा ही हुआ है।
आपने स्वामी रामदास और शिवाजी का नाम सुना है। शिवाजी कौन थे? शिवाजी वह व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदुस्तान को आजाद कराने की तवारीख में पहला कदम उठाया और समर्थ गुरु रामदास वह थे, जो संत प्रकृति के हो गये थे और इस बात की तलाश में थे कि संत के लिए आजादी की लड़ाई लडऩा, खून-खच्चर करना आदि मुनासिब नहीं है, इसलिए कोई दूसरा रास्ता तलाश करना चाहिए। उन्होंने शिवाजी को तलाश लिया। उनका इम्तिहान सिंहनी का दूध मँगाकर लिया और इसके बाद उन्हें भवानी के हाथ से-देवी के हाथ से एक ऐसी तलवार दिलायी, जिसे लेकर के वे अक्षय हो गये, अजेय हो गये। जहाँ कहीं भी वह तलवार गयी, उन्हीं की विजय हुई।
जिस तरह शिवाजी और समर्थ गुरु रामदास का जोड़ा है, उसी तरीके से चाणक्य और चन्द्रगुप्त का जोड़ा है। चाणक्य के पास बहुत सामथ्र्य थी-शक्ति थी, किंतु चन्द्रगुप्त जो एक दासी का बेटा था, कुछ नहीं कर पाता था। लेकिन चाणक्य की शक्ति को जब उसने स्वीकार कर लिया, तो वह चक्रवर्ती सम्राट बन गया। ''मैं आपकी शक्ति को स्वीकार करता हूँÓÓ का मतलब यह होता है कि मैं आपके कहने पर चलूँगा। अगर आप यह कहते हैं कि क्या यह शक्ति हमें भी मिल जाएगी, तो यह बेकार की बात है, क्योंकि शक्तियाँ ऐसे कहीं किसी को नहीं मिली हैं। वे उद्देश्यों के लिए मिलती हैं। किसी काम के लिए मिलती हैं, किसी खास मकसद के लिए, किसी वजह के लिए मिलती हैं और किसी खास आदमी को मिलती हैं।
शक्ति-अनुदान विशेष उद्देश्यों के लिए
मित्रो! हम खास आदमी भी हैं और हमें जो शक्तियाँ मिली हैं, वे किसी खास मकसद में लगाने के लिए मिली हैं। हमारे गुरु से तीन बार हमारा मिलना हुआ है, लेकिन वे निरंतर हमारा मार्गदर्शन किया करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने धीरे से कान में आकर या जोर से कोई बात कही हो और हमने गौर से उनकी बात सुनी न हो। नाव को और राहगीर को जानते हैं न आप। नाव पार होती है, तो क्या राहगीर जो उस पर बैठा हुआ है, पार नहीं होगा? जिस राहगीर को तैरना नहीं आता वह कैसे पार होगा? लेकिन जो नाव में सवार हो जाता है, उस नाव का मल्लाह नाव को भी पार लगा देता है और बैठे हुए मुसाफिरों को भी पार लगा देता है। आप सब हमारी नाव में बैठे हैं, हम उसको भी पार लगा देंगे और आपकी जिंदगी को भी पार लगा देंगे। आपको निश्चित रूप से हमारी शक्ति मिलती रहेगी, हमारा सहयोग मिलता रहेगा। यह काम हम पहले भी करते रहे हैं और अब एकांत में भी बराबर करते रहेंगे।
समय की विभीषिका बड़ी विकट
साथियो! अब कुछ ऐसा वक्त आ गया है कि इस भयंकर वक्त में कुछ बड़ा कदम उठाये बगैर काम चलने वाला था नहीं। इन्हीं दिनों समय की विभीषिका ऐसी हुई है, जिसे आप पढ़ते होंगे। भविष्यवाणियाँ पढ़ते होंगे। टोरंटो की भविष्यवक्ता कॉन्फ्रेन्स-समाचार आपने पढ़ा है न, कोरिया का समाचार पढ़ा है न। सारी परिस्थितियाँ यह बताती हैं कि यह समय बड़ा भयंकर है। इन दिनों हवा में इतना जहर मिल रहा है, पानी में इतना जहर मिल रहा है, खाद्य पदार्थों में जहर मिल रहा है। आप जानते हैं कि परमाणु-भट्टिïयों से, परमाणु-विस्फोटों से कितनी तेजी से जहर फैल रहा है, जिन-जिन देशों ने बिजली पैदा करने के लिए अपने यहाँ अणु भट्टिïयाँ लगायी हैं, उनसे विकिरण निकल रहा है। जनसंख्या में कितनी अंधाधुंध वृद्धि हो रही है। मक्खी-मच्छरों से भी ज्यादा मनुष्यों की वृद्धि हो रही है। अगले दिनों खड़े होने के लिए उन्हें कहीं एक जगह भी नहीं मिलने वाली है। सड़क पर चलना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। खाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा।
यह सब मुसीबते नहीं-बहुत बड़ी मुसीबतें हैं। एटमी युद्ध से भी ज्यादा भयावह है, ज्यादा बच्चों का पैदा होना। यह क्राइम को-अपराध को जन्म देगा। आपने देखा नहीं, आज आदमी की मनोवृत्ति अपराध करने की हो गयी है। ईमानदारी व भलमनसाहत किसी की समझ में नहीं आती। लाला जी दुकान पर बैठे हुए, तो जरूर हैं, पर मिर्च में गेरू मिला रहे हैं। लोग मन्दिर में दर्शन करने जरूर जाते हैं, हनुमान् चालीसा का पाठ जरूर करते हैं, लेकिन नियत उनकी भी खराब है। आज सबकी नीयत खराब हो गयी है। यदि आदमी की नीयत खराब हो जाए, तो उससे भयंकर भला कौन हो सकता है?
ये सारी-की-सारी चीजें एक साथ मिल क्या गयी हैं, विश्व-मानवता के सामने मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। अब आप ही बताइये, भला इतनी चीजों से टक्कर कौन ले? हर आदमी ले लेगा? आप ले लेंगे? चौराहे पर खड़े होकर भाषण देने वाले नेता लोग टक्कर ले लेंगे? न, यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। इसके लिए तो कोई सामथ्र्यवान व्यक्ति चाहिए। जब तक कोई सामथ्र्यवान न हो, तो इतनी बड़ी शक्तियों से टक्कर नहीं ली जा सकती। फिर टक्कर लेने वाले बहुत सारे तैयार भी तो करने हैं। दो काम करने हैं। एक तो जो भयंकरता हमारी आपकी ओर घनघोर घटाओं के तरीके से बढ़ती चली आ रही है, उससे टक्कर लेनी है। टकराव के लिए मजबूत आदमी चाहिए, मजबूत हस्तियाँ चाहिए, मजबूत आध्यात्मिक शक्ति चाहिए।
भागीरथी पुरुषार्थ की वेला
आपने पढ़ा होगा-सृष्टिï के इतिहास में दो बार ऐसी ही घटनाएँ हो चुकी हैं। एक बार सब जगह पानी की कमी पड़ गयी। पानी कहीं था ही नहीं। भागीरथ स्वर्ग से गंगा को जमीन पर लाने के लिए तप करने लगे। गंगा जमीन पर आयी और धरा चहुँ ओर लहलहा उठी। यह क्या है तप की शक्ति। इसी तरह दूसरी घटना है। बहुत समय पहले की बात है-वृत्रासुर नामक एक ऐसा राक्षस हुआ है, जिसने सारे देवताओं को मारकर भगा दिया था। तब उसका मुकाबला करने के लिए महर्षि दधीचि को अपनी हड्डिïयाँ देनी पड़ी थीं। उसका जो वज्र बना, उससे वृत्रासुर मारा गया। जब यह सब आपने सुना है, तो एक बात और सुन लीजिए कि आप चाहें तो हमारी भी संगति उसी से बिठा सकते हैं।
वृत्रासुर हनन हेतु दधीचि ने दिया वज्र
आज इस तरह का समय आ गया है कि भगीरथ को फिर से इस धरती पर ज्ञान की गंगा लानी है, जिससे दुनिया में शांति पैदा हो। दूसरी ओर दधीचि का वज्र, जो इंद्र के हाथ में रहा था और जिसके प्रहार से वृत्रासुर का चूरा हो गया था, चूरा कर देने वाली ऐसी शक्ति चाहिए। वज्र की शक्ति और ज्ञान गंगा की शक्ति। इन दोनों शक्तियों का संतुलन करने के लिए हमारा कार्यक्रम चल पड़ा है। हम उसी के लिए तप कर रहे हैं। आप यह मत सोचिए कि हम भाग रहे हैं। हम भाग नहीं रहे। हम माँ के पेट में बैठ रहे हैं, ताकि अपनी शक्ति को बढ़ा करके और ज्यादा कर सकें। क्या आप यही ख्याल करते हैं कि औरों की तरीके से हम भी स्वर्ग प्राप्ति के लिए कोशिश कर रहे हैं? या मुक्ति के लिए कुछ कर रहे हैं? आपका क्या यही ख्याल है कि सिद्धियाँ और ऋद्धियाँ पाने के लिए हम तप कर रहे हैं? नहीं बेटे, यह तो हमने बहुत पहले से ही प्राप्त कर लिए थे। स्वर्ग हमारी निगाहों में है। हमारी आँखों में है। स्वर्ग हमें हर जगह दिखाई पड़ता है।
इसी तरह मुक्ति का बंधन हम न जाने कब से काटकर फेंक चुके हैं, लोभ हमारे पास फटकता भी नहीं है। हमारे पास आता भी नहीं है। वासनाओं की सलाखें, अहंकार की जंजीरें जाने कब की तोड़कर फेंक चुके हैं। मुक्ति के लिए भी प्रयास तो हम तब करें, जब यहाँ रहना हो और सिद्धियाँ? सिद्धियों के लिए उसी को कोशिश करनी चाहिए जिसके पास यह न हों। हमारे पास सिद्धियाँ भी हैं और हम मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं। हमारे पास स्वर्ग चारों ओर नजदीक ही घूमा करता है। हम अब अपने आपको तपा रहे हैं। हीरा देखा है। वह कोयला होता है और इसी कोयले को जब ज्यादा गर्मी दी जाती है, तो वह हीरा बन जाता है। एटम देखा है न आपने? वह एक धूल का कण है, जो जमीन पर पड़ा रहता है, लेकिन जब उसी को वैज्ञानिक विधि से अलग कर लिया जाता है और उसका विस्फोट किया जाता है, तो वह हिरोशिमा और नागासाकी जैसा विध्वंसकारी बन जाता है।
पंचमुखी गायत्री की उपासना पाँच वीरभद्रों का जागरण
मित्रो! अब हम पंचमुखी गायत्री की साधना करने जा रहे हैं। अब तक हमने एकमुखी गायत्री की उपासना की है। तो आपने हमें क्यों नहीं बताई पंचमुखी गायत्री की उपासना? इसलिए कि आप इसे नहीं कर सकते हैं। आपको तो एकमुखी गायत्री की उपासना करना ही मुश्किल है। माँ और बेटे का सम्बंध निभाना ही मुश्किल है। अब हम पंचमुखी गायत्री की, पाँच देवताओं की उपासना कर रहे हैं। पाँच इष्टïों की उपासना कर रहे हैं। पाँच शक्तियों की उपासना कर रहे हैं, क्योंकि हमें पाँच क्षेत्रों में काम करना है। बुद्धिजीवियों के साथ काम करना है। हमको राजनेताओं की अक्ल ठिकाने लगानी है। हम कलाकारों को एक खास रास्ते पर ले जाएँगे। हम संपन्न आदमियों से कुछ काम कराएँगे और आप जैसे लोगों से जिनको हम भावनाशील कहते हैं। आप बुद्धिजीवी न सही, राजनेता न सही, किसी देश के प्रभानमंत्री न सही, उससे हमें क्या लेना-देना। कलाकार आप नहीं हैं, आपकी वाणी में जोश-खरोश और दूसरी अन्य गायन संबंधी विशेषताएँ नहीं हैं, तो न सही? आप संपन्न नहीं हैं, तो न सही, मरने दीजिए पैसे को, भावनाशील तो हैं आप। यह संसार की, सबसे बड़ी दौलत है। हमें आपको अग्रिम मोर्चे पर खड़ा करना है।
इसी तरह भावनाशीलों को, बुद्धिजीवियों को, कलाकारों को, राजनेताओं को, संपन्न व्यक्तियों को आगे से जाकर के हमको झकझोरना है और इस तरीके से रास्ते पर लाना है कि वे लड़ाई के मोर्चें पर हमारे साथ-साथ चलें। कंधे-से-कंधा मिलाकर चलें। पाण्डवों का नाम आपने सुना है न? वे पाँच भाई थे। अर्जुन धर्नुधर था, उसके साथ-साथ सभी भाई चलते थे। क्या मजाल कि कहीं कोई अलग हो जाए। हम इसी तरीके से प्रबंध कर रहे हैं। हमारी पाँच गुनी शक्ति बढऩे जा रही है। हम पाँच वीरभद्र पैदा करने में जुट रहे हैं। हम आपसे दूर नहीं जा रहे हैं और न आपसे अलग हो रहे हैं।
मित्रो, अभी हम आपको अपनी सफाई दे रहे थे कि कहीं आप इस तरीके से न सोच लें कि गुरुजी अपनी मुक्ति के लिए, स्वर्ग प्राप्ति के लिए हमको दगा दे रहे हैं। और हमसे जो बातचीत करते थे, उस तरीके को भी उन्होंने बंद कर दिया। ऐसी बात नहीं है, हम तो आपके पीछे भूत के तरीके से लगे हैं। इसी तरह अब हम कलाकारों के पीछे, राजनेताओं के पीछे, बुद्धिजीवियों और संपन्न व्यक्तियों के पीछे भूत की तरह से लगेंगे। नया युग लाने के लिए हमें जिन भी शक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें इस कार्य में नियोजित करेंगे। उसके लिए तब क्या करना पड़ेगा? हम आपसे अलग चले जाएँगे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं समझना कि अलग चले जाने से कोई दुश्मनी होती है। माँ अपने बच्चे को गुरुकुल में पढ़ाने के लिए भेज देती है, तो क्या माँ बच्चे की दुश्मन होती है? धन कमाने के लिए कोई परदेश चला जाता है और परदेश में दो पैसे कमाकर अपने बच्चे को मनीआर्डर से भेजता रहता है। आप क्या समझते हैं कि बाप, जो परदेश चला गया था, उसने अपने बच्चों से प्रेम-मुहब्बत कम कर दी? अपने माता-पिता से मुहब्बत कम कर दी? न, ऐसा मत कहिए। अलग होने का मतलब मुहब्बत कम करना नहीं होता। इस मुहब्बत को सार्थक करने के लिए ही हमारे ये नये कदम उठे हैं।
देते ही रहेंगे हम जीवन भर
आप हमको देख नहीं पाएँगे, तो कोई हर्ज की बात नहीं। जब आप अपने आमाशय, गुर्दे, जिगर, हृदय आदि को नहीं देख सकते, फिर भी वे काम करते हैं। आपका दिल आपके साथ धड़कता तो है, फिर आप क्या शिकायत करते हैं। यह ऐसा भयंकर समय है, जिसमें कि आदमी की मुस्तैदी-चौकीदारी की बराबर जरूरत है। इस संधिकाल की संकट की वेला में हम बराबर काम करेंगे और आपके साथ रहेंगे। यह हमारी आवश्यकता भी है, इसमें कभी कमी नहीं आने देंगे। हमने जिंदगी भर दिया है और देते रहेंगे। आपके नजदीक न रहेंगे, तो क्या? सूर्य आपके नजदीक है क्या? फिर भी आप धूप में बैठे हैं और वह आपके कपड़े सुखा जाता है। चन्द्रमा आपके नजदीक है क्या? हजारों मील दूर है। समुद्र आपके नजदीक है क्या? समुद्र जाने कितनी दूर है आपसे, फिर भी वह बराबर आपका ख्याल रखता है। आप जो पानी पीते हैं, स्नान करते हैं, कपड़े धोते हैं, वह पानी कहाँ से आता है? बादलों से आता है। बादल कहाँ से आते हैं? समुद्र से। समुद्र का दिया हुआ पानी आप पीते हैं, परंतु समुद्र को शायद ही आपने देखा हो। सूर्य और चन्द्रमा की शक्ल तो आपने देखी है, पर उसके नजदीक गये हैं क्या? उसके पास तक पहुँचे हैं कभी? नहीं पहुँचे हैं। वह आपसे बहुत दूर है। जब सब चीजें आप से बहुत दूर हैं, लेकिन दूर रहते हुए भी आपकी इतनी सेवा करते हैं कि आपकी जिंदगी को सँवारे बैठी हैं। यदि हवा आपको न मिले, तो आपके प्राण निकल जाएँगे। हवा आपने देखी नहीं। अत: देखने की बात आप अपने दिमाग से हटा दें। आप हमको न देख पायें या हम आपको, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। हम एकांत में रहकर ज्यादा मजबूती से काम करेंगे और आपसे भी यही उम्मीद करेंगे कि आप भी ज्यादा मजबूती के साथ हमारे साथ-साथ कदम उठाएँगे।
आप हमारे विचारों के समीप आएँ
मित्रो! हम चाहते हैं कि आप हमारे नजदीक आयें, साथ-साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलें। हमारे नजदीक और पास नहीं आयेंगे और दूर बने रहेंगे, तो फिर हमारा शक्ति एकत्रित करना भी बेकार है। अगर आप बुद्धिजीवी हैं, राजनेता हैं, कलाकार हैं, संपन्न हैं, लेकिन भावनाशील नहीं हैं, तो हमारे किस काम के? आपको भावनाशील होना चाहिए। हमें भावनाशीलों की जरूरत है। अन्यथा हमारे मुहल्ले-पड़ोस में ढेरों मजदूर काम करते हैं, तो किसी की कृपा या अनुग्रह उन पर हुई है क्या? हम अपने गुरुदेव के नजदीक हैं। तीन बार उनके पास गये हैं। बाकी चौबीसों घंटे उन्हीं का हुक्म बजाते हैं और कहते है कि आप आदेश दीजिए।
हम क्या कहते और चाहते हैं, उस बात को आप गौर से सुनना। अगर आप नहीं सुनेंगे, तो फिर हमारे नजदीक रहने, न रहने से कोई फायदा नहीं। शंकर भगवान् और पार्वती बहुत दूर रहते हैं—कैलाश पर्वत पर, परंतु इतनी दूर रहते हुए भी आपकी सेवा में कोई कमी नहीं आने देते हैं। जब भी आप ध्यान करते हैं, वे कैलाश पर्वत से उतर करके आप तक आ जाते हैं। विष्णु भगवान् क्षीरसागर छोड़ करके आप तक आ जाते हैं। अत: आप सिद्धांतों को सुनिये, सिद्धांतों को समझिये। बच्चों का सा मुँह मत देखिये कि आप हमारी शक्ल देखें और हम आपकी शक्ल देखें। दर्पण थोड़े ही हैं, जिसमें आप हमारी शक्ल देखें और हम आपकी शक्ल को देख लें। देखना हो तो देख भी लेना, इंतजाम भी किये देते हैं। आप आमने-सामने से आवाज न सुन सकेंगे न सही, हम टेप कराये देते हैं, इसे आप सुन लेना। आपको संतोष तो हो। आपको संतोष हो जायेगा, तो हमको बहुत प्रसन्नता होगी।
आज आपको सफाई देने के लिए और आगे का काम बताने के लिए ही बुलाया है। सफाई इसके लिए नहीं कि अभी हमको जीवित रहना है। इस शरीर से न भी रहें तो सूक्ष्म शरीर से रहेंगे। मनुष्य के तीन शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर मर भी जाए, तो इससे क्या बिगड़ता है। जिंदा आदमी भी बहुत काम कर सकते हैं किंतु स्थूल शरीर के न रहने पर उससे कई गुना अधिक काम सूक्ष्म शरीर से किया जा सकता है। गुरुजी, तो फिर क्या आप हिमालय चले जाएँगे? हिमालय चले जायेंगे, तो आपको क्या दिक्कत आयेगी? हमारे गुरुजी भी तो हिमालय में रहते हैं और हिमालय में रहते हुए भी हमारी बहुत सेवा करते हैं। हम कहीं भी चले जाएँ, हिमालय चले जाएँ, शांतिकुंज में रहें, या इस शरीर को छोड़ जाएँ, पर आप यह विश्वास रखिये कि हम यहीं शान्तिकुञ्ज में मौजूद रहेंगे। आप हमको बराबर अपने समीप पायेंगे और हम आपके लिए बराबर काम कर रहे होंगे। बस आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि आप भी हमारे लिए कुछ काम कीजिए, तो मजा आ जायेगा। और क्या कहूँ आगे। आज की बात खत्म करता हूँ।
ॐ शान्ति:
गुरु दक्षिणा चुकाएँ-समयदान करें
(हीरक जयंती वर्ष १९८५ की पूर्व वेला में दिया गया श्रावणी संदेश)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! आज रक्षाबंधन का सामूहिक पर्व है। यह संकल्प का पर्व है। कत्र्तव्य-निर्धारण का पर्व है। आज हमारे ध्यान के दो केन्द्र हैं-एक तो भगवान्, जो हमें धक्का देता रहता है और आगे बढ़ाता रहता है। दूसरा भगवान् आप लोग हैं, जो हमारे कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। एक भगवान् निराकार है तथा दूसरा साकार है। आप साकार भगवान् हैं, जो हमारे कदम से कदम मिलाकर चलते हैं। हमारी बातों को मानते हैं तथा श्रम करते हैं। हमारे क्रियाकलापों में शामिल रहते हैं। आज हमारी इच्छा हुई कि आपसे अपने मन की बातें-जी की बातें करूँ। तो महाराज जी आप अपना कुशल समाचार बताएँ।
मित्रो! हमारे ऊपर भगवान् की छाया है और जब तक वह बनी रहेगी, हमारा कुछ बिगडऩे वाला नहीं है। स्वास्थ्य हमारा ठीक है। थोड़े दिन पहले एक पगले व्यक्ति द्वारा वार करने के कारण कुछ चोट लग गयी थी, अब वह ठीक है। सेहत हमारी ठीक है। मन भी ठीक है। साधना भी ठीक है और कुछ कमी रह जाएगी, तो आप लोग कदम बढ़ा देंगे, तो वह भी पूरी हो जाएगी। हमने अब तक बहुत काम किया है। अभी हमारे सामने तो आपको पता नहीं चलता है, परंतु बाद में पता चलेगा कि हमने काफी काम किया है। हमने पेपरबाजी भी नहीं, विज्ञापन भी नहीं किया और भी कुछ नहीं किया, परंतु फिर भी हमने इतना काम कर लिया, जितना किसी संस्था ने नहीं किया। न केवल हिंदुस्तान में, वरन् उसके बाहर भी बहुत काम किया है। हमने ठोस काम किया है।
मित्रो! हम से मतलब आप सबके द्वारा है। आप हमारे मित्र हैं, सहयोगी हैं। हम एवं आपने मिलकर बहुत बड़ा काम किया है। एकाकी भगवान् के लिए भी यह संभव नहीं था। गाँधी जी ने भी अकेले स्वतंत्रता संग्राम नहीं लड़ा था। उनके साथ भी एक सत्याग्रही सेना थी। उसके माध्यम से ही आंदोलन चलाया तथा अंग्रेजों को इस देश से खदेड़ बाहर किया एवं भारत को आजाद कराया। भगवान् बुद्ध के लिए भी अकेले धर्मचक्र-प्रवर्तन संभव नहीं था। उन्होंने एक लाख परिव्राजक बनाए और उनके माध्यम से उन्होंने विचारों को जन-जन तक पहुँचाया। विनोबा ने भूदान का कार्य भी अनेक सर्वोदयी कार्यकत्र्ताओं के सहयोग से किया था।
भगवान् राम ने समुद्र को पाटने एवं रावण पर विजय प्राप्त करने का कार्य क्या अकेला ही किया था? नहीं उसे, उन्होंने हनुमान, अंगद, नल-नील आदि वानर एवं भालुओं के सहयोग से पूरा किया था। भगवान् कृष्ण ने महाभारत यानी ग्रेटर इंडिया का कार्य क्या स्वयं अकेले किया था? नहीं यह संभव नहीं था। तो क्या गोवर्धन उन्होंने स्वयं उठा लिया था? नहीं, यह भी संभव नहीं था। यह सब कार्य उन्होंने ग्वाल-बालों के सहयोग से पूरा किया।
जगत की परंपरा को जाग्रत एवं जीवंत बनाए रखने के लिए भगवान् के कार्य को पूरा करने के लिए हमने भी एक संगठन बनाया। आप हमारे साथी एवं सहयोगी हैं। आपको हमने बहुत मुश्किल से ढूँढ़ा है। आपने तो सोचा होगा कि हम पत्रिका के ग्राहक बन गए और गुरुजी के हो गए। नहीं बेटे, हमने आपको हिलाया है, झकझोरा है, प्रेरणा दी है, तब आप आए हैं। आपको हमने बुलाया है। हमने आपके पहले जन्म की बात पर विचार किया, जिसमें देखा कि इनमें संस्कार हैं, जो भगवान् का काम कर सकते हैं, उन्हें हमने जगाया है। बहुत से बाबा जी आते हैं और न जाने क्या-क्या बातें बतला जाते हैं। उनकी बातों को कोई सुनता भी नहीं है, परंतु हमारे बारे में आपने ऐसा नहीं किया, आपने हमारी बातों को ध्यान से सुना, हृदय में धारण किया। इसके साथ ही उसे क्रिया में परिणत करने के लिए भी अपना समय, श्रम व अक्ल लगाने के लिए तैयार हो गए और लग रहे हैं। यह बहुत प्रसन्नता की बात है। यह हमारे प्रयास के साथ ही साथ आपके पूर्व जन्म के संस्कार का ही फल है।
मित्रो! शेर का एक बच्चा भेड़ों के बीच में चला गया था और अपने स्वरूप को भूल गया था। जब एक शेर ने उसे उसकी छाया दिखाई और उसका स्वरूप दिखलाया, तो वह जाग्रत हो गया। हम एवं आप दोनों सिंह हैं। भेड़ वह होता है, जो चौबीस घंटे पेट और प्रजनन की बात सोचता है। आप इससे आगे हैं। आपके सहयोग से ही यह मिशन आगे बढ़ पाया है। हमने आपको ढूढ़ निकाला है। हमने गहरे पानी में डुबकी लगायी है और मोतियों को चुन-चुनकर इक_ïा किया है। मोती सड़क पर नहीं पड़ा था, जो हमने केवल चुन लिया है। हमने काफी परिश्रम किया है, तब आपको पाया है। आपको बड़ी मुश्किल से जोड़ पाए हैं हम। आपको हमसे जुड़ा रहना चाहिए।
साथियो! आजकल हम सूक्ष्मीकरण साधना में हैं। दुनिया के सामने एक बड़ी मुसीबत आ गयी है। उसके समाधान के लिए हमें बड़ा काम करना है। आगे खुशहाली लाने के लिए भी प्रयास करना है। यह प्रयास भागीरथ व गंगा अवतरण एवं दधीचि की हड्डïी से वज्र बनाने से कम नहीं है, जो असुरता को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। हमारा प्रयास उसी स्तर का है। इस महान कार्य को जब हम कर रहे हैं तो आपको हमारा सहयोगी एवं सहभागी अवश्य बनना चाहिए। आपको बनना ही पड़ेगा, चाहे आप मन से करें या बिना मन से।
आपको इसमें क्या करना होगा? हमने आपको दो काम बतलाए हैं। आपको हमने एक बात यह कही है कि सूर्योदय के समय एक माला गायत्री महामंत्र का जप आपको अवश्य करना चाहिए, ताकि हमारे इस महापुरश्चरण को-इस योजना को बल मिले। दूसरा हमने आपको यह कहा था कि आपको जब हमसे मिलना हो, बातें करनी हो तो आप बेतार का तार बना लें। सूर्योदय के एक घंटे पहले से सूर्योदय के एक घंटे बाद तक जब आप हमारा चिंतन करेंगे, तो आपको हमारा संदेश, मार्गदर्शन एवं सहयोग मिलेगा। इसके अलावा हम आपसे और क्या चाहेंगे। आप हमारे बच्चे हैं, हम जो कर रहे हैं, वह आप करें, यही हमारी इच्छा है। हम जिस परंपरा पर चले हैं, आपको भी उसी पर चलाना चाहिए।
मित्रो, हमने ऋषि परंपरा को ग्रहण किया है। हमने साधु-ब्राह्मïण का, संत का जीवन ग्रहण किया है। आपको भी वही ग्रहण करना चाहिए। संत वह, जो दुनिया को हिला दे। गाँधी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद संत थे, जिन्होंने दुनिया को हिला दिया था। आपको भी वैसा ही बनने का प्रयास करना चाहिए। ब्राह्मïण अपरिग्रही होता है तथा संत सेवाभावी होता है। आपको इन दोनों परंपराओं को कायम रखना चाहिए। हमने यही रास्ता अपनाया है। आप से जितना संभव हो, इसी परंपरा को अपनाने का प्रयत्न करें। आप अपनी निजी महत्त्वाकांक्षा में काट-छाँट करें। आपकी महत्त्वाकांक्षा कम होनी चाहिए। आपकी इच्छा कम होनी चाहिए। हिंदुस्तान के आम नागरिक की तरह आपका जीवन होना चाहिए। आपको अपने परिवार को ज्यादा नहीं बढ़ाना चाहिए। जो हैं, उनमें से प्रत्येक सदस्य को स्वावलंबी बनाने का प्रयास करें। इससे आपको व उनको दोनों को प्रसन्नता होगी। यदि आप ऐसा कर सकेंगे, तो ही हमारे साथ चल सकेंगे।
अभी तो आप इस समय हमारे साथ जब उत्साह आता है, तो चलने लगते हैं और जब उत्साह कम हो जाता है, तो मगर की तरह पानी में जा बैठते हैं। यह पानी के बुलबुले की तरह से काम करना क्या कोई शान की बात है? अगर चलना है, तो फिर चलना ही है, रुकना नहीं। यही शान की बात होगी। हमारे गुरु ने हमारी शान रखी, हम आपकी शान रखेंगे। आप हमारी जिंदगी को देखिए, गाँधी जी की जिंदगी को देखिए, अन्य संतों की जिंदगी को देखिए, जिन्होंने जो संकल्प लिया, जो लक्ष्य बनाया, उसके लिए जीवन के अंत तक डटे रहे। बीच-बीच में वह भागे नहीं हैं। अगर बीच-बीच में वह व्यक्ति भागेगा, तो वह वापस कैसे आएगा? महापुरुष आखिरी दम तक अपने उद्देश्य पर डटे रहे, संकल्प पर अडिग रहे, अपने स्थान पर बने रहे। वे बीच में भागे नहीं है। अगर बीच में भागोगे, तो काम कैसे बनेगा? इससे बड़ी मुसीबत होगी। अगर कोई बैल मारने आएगा, तो आप गोबर करने लगेंगे, तो काम कैसे चलेगा? आपको उत्साह आता है, उमंग आती है, तो आप काम करते हैं और जब आपकी हवा निकल जाती है तो आप चुपचाप हो जाते हैं। इससे काम कैसे चलेगा? अगर किसी काम को कीजिए, तो पूरा कीजिए। थोड़ा-सा काम करने से क्या फायदा?
मित्रो! हमने तो हमेशा अर्जुन की तरह तीर की नोंक तथा चिडिय़ा की आँखे ही देखी हैं। हमेशा हमें अपना लक्ष्य दिखलाई पड़ा है। आपको भी जितना बन पड़े, त्याग करना चाहिए, परंतु बीच में काम बंद करके भागना ठीक नहीं है। ढीला-पोला होने में फायदा नहीं है। शानदार आदमी एकनिष्ठï रहते हैं, एक जैसे रहते हैं। आपसे भी जितना बने, मिशन के लिए त्याग करें, महाकाल के लिए त्याग करें। हमारा एक ही निवेदन है कि नवयुग लाने के लिए जनमानस का परिष्कार करना है। इसके लिए आपको बढ़-चढ़कर काम करना है। आपको मुस्तैदी का जीवन जीना चाहिए। आप वैसा बैल न बनें, जो रास्ते में बैठ जाता है। आप एक निष्ठïा से, एक श्रद्धा से काम करें तथा लगे रहें। इससे आपका, हमारा तथा मिशन तीनों का कल्याण है। हमने अपना सारा जीवन एक लक्ष्य के लिए नियोजित किया है, आप भी अपने सारे जीवन को एक लक्ष्य के लिए नियोजित कीजिए।
एक बात और आपसे कहनी है कि अब मिशन की रजतजयंती होने वाली है। अब हम पचहत्तर साल के हो गये। अरे हम तो जब से यह सृष्टिï बनी है, तभी से काम कर रहे हैं और जब तक यह रहेगी, हमें काम करना है। हमारी मुक्ति नहीं होगी। इस संसार में जब तक सब आदमी मुक्ति नहीं पा लेंगे, हमें मुक्ति की अभिलाषा नहीं है। इस दुनिया के सभी आदमी जब मुक्ति पा लेंगे, तो हम सबसे आखिरी आदमी होंगे, जो मुक्ति की अभिलाषा रखेंगे।
मित्रो! यह हीरक जयंती क्या बात है? जब आदमी पचहत्तर वर्ष का हो जाता है, तो यह जयंती मनाई जाती है। सौ साल में शताब्दी मनाई जाती है। अब हमारा यह स्थूल शरीर विद्रोह कर रहा है। हम बहुत दिन जिएँगे नहीं, यह हमारी कामना नहीं है। अब हम सूक्ष्म एवं कारण शरीर में रहकर काम करना चाहते हैं। अब हम पाँच कोषों से, पाँच शरीरों से, पाँच मोर्चों पर लड़ेंगे। हीरक जयंती वसंत पंचमी से शुरू हुआ है और अगले वर्ष तक यह मनाया जाएगा। हमारे पास ढेरों पत्र आए हैं कि गुरुजी हम आपका जुलूस, निकालेंगे, प्रदर्शनी लगाएँगे। इसी तरह न जाने क्या-क्या पत्र आए हैं। हमने विचार किया कि हमें इस जयंती वर्ष में क्या करना चाहिए? हम यानी हमारे मिशन का विस्तार कैसे हो? जन-चेतना को कैसे जगाया जाए?
हमने जुलूस आदि के लिए लोगों को मना कर दिया। इस धूमधड़ाका से कोई लाभ नहीं होगा। हमने एक सौ आठ व एक हजार आठ कुंडीय तक यज्ञ किए, जो शानदार थे, लेकिन देखा कि उसके दो साल बाद लोग उसे भूल गए। इस तरह इस धूमधड़ाके से कोई लाभ नहीं होता है। अब इससे मेरा मन भर गया है। अभी हम इन्हें नहीं मनाना चाहते। आपको हमारी बात मानना चाहिए। आगे जब जरूरी होगा, हम बता देंगे। अगर आप हमारी इच्छा के अनुसार मनाना चाहते हैं, तो हमारी एक इच्छा रह गयी है। क्या रह गई है? फूल-माला हमने ढेरों मन पहन लिए हैं। अब हमें जेवर पहनने की इच्छा है। हमारे पास ढेरों आदमी हैं। हमारा मन है कि अब हम कदम से कदम मिलाकर चलने वालों की माला पहनें। हमने गायत्री शक्तिपीठें बनाई थीं। उस काम से भी अब मेरा मन भर गया है। अब केवल मंदिर बनकर रह गए हैं। वहाँ जागृति की-जनजागरण की कोई बात नहीं है। वहाँ एक देवी बैठी है, जिसकी सुबह-शाम आरती हो जाती है। हो सकता है, अगले दिनों रचनात्मक क्रिया-कलाप चलें, उनका भी कायाकल्प हो, पर अभी तो सब देखकर हमें बहुत दुख होता है कि जनता के बहुत सारे पैसों को बर्बाद कर दिया गया व परिणाम स्वल्प ही हाथ आया।
हमारा मन है कि हमारे पास दस हजार ऐसे व्यक्ति हों, जिनकी हम माला पहनें, जो हमारे साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलें। हमारी व उनकी एक आवाज हो, एक दिशा हो तथा लगातार मिलकर लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें। उन्हें किसी बात का डर या भय न हो। इस वर्ष हमारी इच्छा दस हजार हीरे का हार पहनने की है। अगर कोई व्यक्ति मरता है या फाँसी पर चढ़ाया जाता है, तो उसकी एक इच्छा होती है, जो पूरी की जाती है। जैसे किसी की इच्छा होती है कि हम मिठाई खाएँ तथा सिगरेट पिएँ, तो उसकी इच्छा पूरी कर दी जाती है। हमारा भी मन है कि इस वर्ष हम दस हजार हीरों का हार पहनकर शहर में निकलें। जब हमारा जुलूस निकले, तो जनता यह समझे कि यह बहुत मालदार आदमी है, बहुत शानदार आदमी है, वजनदार आदमी है।
बेटे, आज मैं कबीर की तरह से पहेली कह बैठा। यहाँ दस हजार हीरों से मेरा मतलब है कि दस हजार ऐसे साथी हो जाएँ, जो नियमित रूप से हमारे कार्य अर्थात् मिशन के लिए समयदान दे सकें। पैसे की इच्छा नहीं है। इसका मतलब यह है कि हमारे हाथ-पाँव मजबूत हो जाएँ। हाथ-पाँव से हमारा मतलब आपसे है। आप हमारे चलते-फिरते हाड़-मांस के शक्तिपीठ बन जाएँ। हमने जो उम्मीद शक्तिपीठों से लगाई थी, वह आप स्वयं पूरा करना शुरू कर दें। हमें ज्ञानरथ के लिए नौकर नहीं चाहिए। हमें इसके लिए आपका समयदान चाहिए। विवेकानंद, गाँधी, विनोबा का काम स्वयं उन्होंने किया। इसी तरह यह काम आपको करने होंगे। आपके पास चौबीस घंटे हैं। आठ घंटे काम के लिए, सात घंटे सोने के लिए, पाँच घंटे नित्य काम के लिए रख लें, तो भी आपके पास चार घंटे बचते हैं। आपको नियमित रूप से चार घंटे नित्य मिशन के लिए, समाज के लिए, भगवान् के लिए देना चाहिए।
समयदान आज की अनिवार्य आवश्यकता है। इसके लिए आपको समय निकालना ही चाहिए। मान लीजिए अगर आप बीमार हो जाएँ, तो आपका समय बचेगा कि नहीं? आप यह समझें कि आप चार घंटे नित्य बीमार हो जाते हैं। आप कहेंगे कि गुरुजी हम किस काम के लिए समय दें, जैसा कि मैंने कहा है कि जनजाग्रति के लिए और किसके लिए-गुरुजी को पंखा झलने के लिए, पैर दबाने के लिए नहीं। बेटे, हमें तो जनजागृति के लिए समय चाहिए। आप समय की माँग को पूरा कीजिए। इस माँग से हमारा कान फटा जा रहा है, दिमाग पर बोझ-सा धरा है। यह कार्य अकेले से पूरा नहीं हो सकता है। इस कार्य हेतु आपसे समयदान चाहता हूँ। आप हमारे हाथ-पैर बनें, सहायक बनें। हमारा साहित्य घर-घर पहुँचाकर क्रांति कर दें। आपके चार घंटे से हमारा काम बन जाएगा। दो घंटे से कम में तो बन ही नहीं सकता। अगर इतना न बने, तो फिर आप वही हल्ला-गुल्ला करने वाले, जुलूस निकालने वाले बने रहें।
हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र से, एकलव्य ने द्रोणाचार्य से, शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास से, विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा ली थी तथा गुरुदक्षिणा चुकायी थी। आपको भी गुरु-दक्षिणा के रूप में समय देना चाहिए। जनजागृति के लिए आपका समयदान हीरे-मोतियों से, जवाहरात से भी बढ़कर है। इससे कम में युगपरिवर्तन का लक्ष्य पूरा नहीं होगा। आप हमारे बेटे हैं, साथी-सहयोगी हैं। आपसे यही अपेक्षा है, आशा है।
ॐ शान्ति
कालनेमि की माया से बचें
(गुरुपूणिमा २३-७-८६)
परिजनों के नाम वीडियो संदेश
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! आज से लगभग पचास वर्ष पहले हमने गायत्री परिवार की स्थापना की थी और अखण्ड ज्योति पत्रिका निकालना शुरू किया था। बहुत लंबा समय हो गया। इस पचास साल में हमने क्या किया? जिस तरीके से समुद्र में डुबकी लगाने वाले मोती ढूँढ़-ढूँढकर लाते हैं, हमने भी उसी तरीके से संसार भर में डुबकी लगाई और यह देखा कि कौन से आदमी प्राणवान हैं, कौन जीवंत हैं? कौन ऐसे हैं, जो आने वाले समय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में समर्थ होंगे। यह हमने बहुत गंभीरता से तलाश किया। हिन्दुस्तान में हमको काफी लोग मिले, क्योंकि यह ऋषियों की भूमि है, देवताओं की भूमि है। यहाँ हमारे चौबीस लाख के करीब गायत्री परिवार के मेंबर हैं। फिर हमने देखा कि केवल हिंदुस्तान तक ही हमें सीमित नहीं रहना चाहिए, वरन् सारे संसार में निगाह डालनी चाहिए, सारे संसार में खोजबीन करनी चाहिए।
मित्रो! सारे संसार की खोज-बीन की तो सबसे पहले प्रवासी भारतीयों को देखा, क्योंकि वे ऋषि-भूमि की संतान हैं। उनको देखना, उनको समझना सुगम था। इसके अलावा वे लोग भी हैं, जो हिंदुस्तान के निवासी नहीं हैं, लेकिन संसार के निवासी तो हैं। उन सभी को देखा और देखकर सभी को हमने अपने कुटुंब में-अपने परिवार में एक माला के तरीके से गूँथ लिया। ये गुँथी हुई माला है। गायत्री परिवार क्या है? एक गुँथी हुई माला है। इसमें कौन-कौन हैं? इसमें मोती हैं, हीरे हैं, पन्ना हैं, जवाहरात हैं। इन सबको—एक-से-एक बढिय़ा आदमी को जोड़ करके हमने रखा है। जिसमें से आप लोग हैं।
आपसे हमारा सम्पर्क कब से है? आपसे हमारा बहुत पुराने संपर्क हैं, जन्म-जन्मांतरों के भी संपर्क हैं। क्योंकि जब हमने तलाश किया, तो अपनी आध्यात्मिक शक्ति से तलाश किया कि कौन आदमी हमारे हैं, कौन हमसे संबंधित हैं, कौन हमारे साथ जुड़े हुए हैं। हमने जब यह पता लगा लिया और अखण्ड ज्योति पत्रिका भेजी, चि_िïयाँ भेजीं, तो मालूम पड़ा कि आप लोग गायत्री परिवार में शामिल हो गए हैं। कब हुए थे? आज से पचास साल पहले। पचास वर्ष के बाद में पीढिय़ाँ बदलती चली गयीं। कुछ पुराने आदमियों का स्वर्गवास हो गया, कुछ नए बच्चे पैदा हो गए। कुछ पुराने आदमी चले गये। इस तरह से परंपरा ज्यों-की-त्यों बनी रही। हार ज्यों-का-त्यों रहा। यह मिशन ज्यों-का-त्यों रहा। उसमें कोई कमी नहीं आने पाई। आप लोग वही हैं, जो बड़ा काम करने के लिए, जिस तरह के आदमियों की जरूरत पड़ती है, ठीक उसी तरह से हैं।
साथियो! हिंदुस्तान में भगवान् बुद्ध हुए थे, सरदार पटेल हुए थे, जवाहरलाल नेहरू हुए थे, सुभाषचंद्र बोस हुए थे और बहुत से आदमी हुए थे। इसी तरह से प्रभावशाली व्यक्तियों में से हिंदुस्तान से बाहर भी हमने देखा कि इस तरह के कौन से आदमी हैं, जो अपना मुल्क-अपना देश सँभाल सकें, वहाँ जाग्रति पैदा कर सकें और लोगों को ऊँचा उठा सकें, आगे बढ़ा सकें। यही सब बातें हमने देखीं और सबको एक सूत्र में बाँधकर रखा है। आप उसी शृंखला में बँधे हुए हैं।
भगवान् राम जब लंका-विजय के लिए और राम-राज्य की स्थापना के लिए गये थे, तो उनके साथ चलने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। क्योंकि रावण से लड़ाई करने के लिए कौन तैयार हो? कुंभकरण से लडऩे के लिए कौन तैयार हो? कोई तैयार नहीं हुआ। रामचंद्र जी के भाई भी आये थे, सेना को लेकर जनक जी भी आये थे, जिनकी बेटी सीता को रावण हरण करके ले गया था, परंतु कोई भी साथ नहीं आया। कोई राजा-महाराजा, कोई सैनिक-सिपाही भी नहीं आया। मनुष्यों मे से कोई तैयार नहीं हुआ। लेकिन रीछ-बंदर आगे आए। ये रीछ-बंदर कौन थे? वे देवता थे। इन देवताओं ने कहा? कि भगवान्! हम आपके साथ चलेंगे। उन्होंने अपना देवता का स्वरूप छोड़कर रीछ-बंदर का रूप बना लिया। देवताओं के रूप में आते, तो उनको वाहन लाने पड़ते, अपने हथियार लाने पड़ते, फिर रामचंद्र जी की सेना में भर्ती कैसे होते, यदि देवता बने रहते तो? अत: देवता नहीं, रीछ-बंदर बन गए। रीछ-बंदर बनकर उन्होंने वह काम किया, जो भगवान् का संकल्प था।
भगवान् के दो संकल्प थे- एक तो यह कि जो दैत्य-राक्षस हैं और विध्वंश कर रहे हैं, उनको समाप्त करें। दूसरा संकल्प यह था कि राम-राज्य की स्थापना करें, जिससे धरती पर सुख आए, शान्ति आए, चैन आए, उन्नति हो। ये उनके दो संकल्प थे। ये दोनों संकल्प जब तक पूरे नहीं हुए, जब तक वे देवता जो रीछ-बंदरों का रूप लेकर आये थे, उनके साथ-साथ बने रहे। उन्होंने राम का साथ कभी नहीं छोड़ा। रामचंद्र जी भी समझते रहे कि ये देवता हैं, जो रीछ-बंदर की शक्ल बनाकर आ गये हैं। पेंट पहनते हैं, तो क्या हुआ? हैं तो मानव की शक्ल में देवता ही। जिस तरीके से राम ने रीछ-बानरों को देवता माना और अपनी छाती से लगाकर रखा, ठीक यही बात हमारे सामने भी है। आप चाहे हिंदुस्तान में रहते हैं या हिंदुस्तान से बाहर रहते हैं, गायत्री परिवार के जितने भी लोग हैं, उनको हमने अपनी छाती से लगाकर रखा है। आपका काम करने की जिम्मेदारी हमारी है। आप हमारा काम करेेंगे और हम आपका काम करेंगे।
मित्रो! कोई आदमी किसी के यहाँ नौकरी करता है, खेती-बाड़ी करता है, तो उसके बाल-बच्चों के गुजारा करने का इंतजाम वह आदमी करता है कि नहीं, जिसने उसको नौकर रखा है। आपको नौकर तो हमने बनाकर नहीं रखा है, लेकिन अपना कुटुंबी बनाकर रखा है। तो आपके कुटुंब की-जिसमें छोटे बच्चे भी हैं, घर वाले हैं और दूसरे लोग हैं, उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी हमारी है। आपके शरीर की देखभाल हम करेंगे। आपके पैसे की देखभाल हम करेंगे। आपके मन की देखभाल हम करेंगे और कोई मुसीबत आपके ऊपर आएगी, तो हम आपके सामने खड़े होंगे और यह कहेंगे तथा करेंगे कि ये मुसीबत पहले हमारे ऊपर आए, बाद में इन लोगों के ऊपर आए।
साथियो! इस गुरुपूर्णिमा की पूर्व वेला में हमारा सभी परिजनों के नाम यह संदेश और आश्वासन है, आप इसे याद करके रखिए कि आप देवता थे और अब सामान्य मनुष्य के रूप में हैं। आपका जन्म विशेष काम के लिए हुआ है और वही विशेष काम आपको करना है और बच्चों का गुजारा भी करना है। अगर कोई मुसीबत आएगी, तो आपकी मदद हम करेंगे। हमारी सहायता हमारा गुरु करता है। हमने अपने जीवन में बहुत बड़े-बड़े काम किए हैं और बड़े कामों में हमारे गुरु ने हमारी मदद की है। हमारे भगवान् ने हमारी मदद की है। अगर आपके सामने कोई दिक्कत की बात होगी, कठिनाई की बात होगी, हैरानी की बात होगी, तो हम आपकी मदद करेंगे- सहायता करेंगे। यह हमारा दूसरा आश्वासन याद रखिये।
गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर आपको तीसरा संदेश यह है कि आप सब लोग संगठित होकर रहें, मिल-जुलकर रहें। प्रेम से रहें। भाई-चारा निभाएँ और मिशन के काम को आगे बढ़ाएँ। जो भी कार्य आगे बढ़ेगा, मिल-जुलकर ही आगे बढ़ेगा। बुहारी एक जगह पर एक साथ बँधी रहती है, तो झाडऩे में समर्थ होती है और अगर सींके बिखेर दी जाएँ, तो किसी काम की नहीं रहतीं। जिस तरीके से धागों के ताने-बाने मिले हुए होते हैं, तो उससे कपड़ा बन जाता है। अगर धागों को निकालकर अलग-अलग बिखेर दें, तो मुश्किल पड़ेगी। आप लोग सब गायत्री परिवार के सदस्य इस समय इस तरह संगठित होकर रहें, जिससे मिशन का काम ठंडा न होने पावे। कहीं भी हिंदुस्तान में, या जहाँ कहीं भी गायत्री परिवार हो, वहाँ का काम ढीला न पडऩे पाए, शिथिल न होने पाए। बराबर उत्साह बना रहे और आगे-आगे बढ़ते जाने की स्कीमें चालू रखी जाती रहें। यह तीसरा संदेश हो गया।
चौथा एक और संदेश है। चौथा संदेश यह है कि जब किसी ने ऐसे ऊँचे काम किए हैं, तो उनके काम में विघ्र डालने वाले भी हुए हैं। आपको मालूम है न! महर्षि विश्वामित्र भगवान् राम की सहायता करने के लिए एक यज्ञ कर रहे थे। तो उनको विध्वंश करने के लिए ताड़का, सुबाहू और मारीचि तीनों मिलकर आ गए। आपको मालूम है न! पूतना श्रीकृष्ण भगवान् को जहर पिलाने आई थी। आपको यह भी मालूम होगा कि हनुमान् जी जब समुद्र छलाँगने जा रहे थे, तो कौन-कौन विघ्र पैदा करने के लिए आ गए थे। इसी तरह आपके काम में भी सैकड़ों विघ्र आएँगे। सैकड़ों विघ्र आने की संभावना इसलिए भी है, क्योंकि हमने सारे संसार भर को ऊँचा उठाने का काम जो बढ़ा लिया है।
मित्रो! सारे संसार में जो महायुद्ध से लेकर महामारियों तक की जो मुसीबतें आने वाली हैं, उन सबसे हम लड़ाई लड़ेंगे, मोर्चा लेंगे। हमारे ऊपर हमले होंगे कि नहीं होंगे? हमारे ऊपर भी हमले होंगे। हमारे काम का मतलब है-हमारा मिशन, गायत्री परिवार मिशन, इस पर भी हमले होंगे। कैसे होंगे? पुराने जमाने में तो आमने-सामने की लड़ाई होती थी। खरदूषण और रावण जो था, उसकी लड़ाई होती थी कि वह जिसको देख लेता था, तलवार से मार डालता था। यह आमने-सामने की लड़ाई थी।
लेकिन रावण, कुंभकरण के साथ-साथ एक और भी था, जो सीधे तो नहीं मारता था, पर रुला-रुलाकर मारता था। उसका नाम था-कालनेमि। वह ऐसा करता था कि लोगों की बुद्धि भ्रष्टï कर देता था। किसी को भी उल्लू बना देना उसके बायें हाथ का काम था। उसने मंथरा का दिमाग खराब कर दिया और मंथरा ने कैकेयी का। उसने मंथरा को समझाया कि मैं तेरा भरत से ब्याह करा दूँगा और कैकेयी को समझाया कि तेरे भरत को राजगद्दी दिलाऊँगा। यह बात कैकेयी की समझ में आ गयी और मंथरा की भी समझ में आ गयी और उन दोनों ने ऐसा ही किया। इसी तरह कालनेमि ने सूर्पणखा को भी ऐसे ही बहका दिया। उससे यह कहा कि यहाँ के राक्षस काले हैं। उनके साथ में यदि तेरा ब्याह होगा तो काली संतान उत्पन्न होगी। दो गोरे लड़के आए हुए हैं, बड़े सुंदर राजकुमार हैं। चल तू हमारे साथ और उनसे कहना कि वे तेरे साथ ब्याह कर लें। रामचंद्रजी खट से तुझसे ब्याह कर लेंगे। अरे उनके पिता जी के भी तो तीन ब्याह हुए थे। उनकी सीताजी रही आएँगी और तू भी रही आएगी।
बस, वह बेचारी कालनेमि के बहकावे में आ गयी। उसकी कैसी मिट्टïी पलीद हुई? मंथरा की कैसी मिट्टïी पलीद हुईï? आपने पढ़ा होगा। इसी तरह तपस्वी कुंभकरण ब्रह्मïाजी से यह वरदान माँगने को था कि मैं साल भर में एक दिन सोऊँ और छह महीने जागूँ। लेकिन कालनेमि ने उसको इस तरह से पट्टïी पढ़ा दी, जिससे वह यह वरदान माँग बैठा कि वह छह महीने सोया करे और एक दिन जागा करे। वह रावण का विरोधी था। कालनेमि किसी को भी चैन से नहीं रहने देना चाहता था। उसका मन था कि कोई भी चैन से न रहने पाये। मरीचि वरदान माँगता था कि मैं स्वर्ग जाऊँ। तप करने के बाद उसने स्वर्ग मांगा था। कालनेमि ने उसे भी पट्टïी पढ़ाई कि तू यह माँग कि जब मैं चाहूँ, तब मेरा शरीर सोने का हो जाए। सीता हरण के समय उसका शरीर सोने का हो गया। सोने का नहीं होता, असली मृग होता तो क्यों मारा जाता? लेकिन वह मारा गया।
मित्रो! यह कालनेमि इसी तरीके से किया करता है। बच्चों को चुरा ले जाने वाला कालनेमि अभी भी इस युग में सक्रिय है। मथुरा में संत-बाबाजी के रूप में ठग लोग आते हैं और बच्चों को चुरा ले जाते हैं। बच्चों को जहर की मिठाई खिला देते हैं। इसी महीने ४०-५० लोग मारे गए। संत-बाबा जी का कपड़ा पहनकर कुछ लोगों ने व्यक्तियों को लड्डïू खिलाकर बेहोश कर दिया और उनका माल लेकर भाग गए। आजकल कालनेमि की माया इसी तरीके से भी चल रही है। शायद आपके यहाँ भी कोई कालनेमि जा पहुँचे, तो आप सावधान रहना। कहीं ऐसा मत करना कि अपनी मेहनत, अपना श्रम और अपना पैसा किसी ऐसे काम में लगा दें, जो किसी खास व्यक्ति के काम आए। वह न समाज के काम आए, न संस्था के काम आए, न मिशन के काम आए, न जनता के काम आए, किसी काम नहीं आए, वरन् व्यक्ति के काम आए।
आपके यहाँ ऐसी कितनी ही घटनाएँ हैं कि जो आदमी कल तक दो कौड़ी के थे, आज देखो उनके यहाँ क्या हाल हो रहे हैं? कैसे-कैसे बँगले बने हुए हैं? कैसी-कैसी मोटरें आ रही हैं। करोड़ों रुपया कहाँ से इक_ïा हो रहा है? आप अपने यहाँ देख लीजिए न? निगाहें फेंकिए, आपको मालूम पड़ जाएगा कि पहले ये क्या थे और साल-दो-साल के भीतर क्या हो गए। इतने पर भी इनको संतोष नहीं होता, तो मिशन को ही बदनाम करने पर तुल गए। अभी जो दो महीने पहले गुरुजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पी.एच.डी. करते थे, वो ही हैं, जो दो महीने बाद गालियाँ सुनाते हैं, चोर और बेईमान कहते हैं। नहीं बेटे, ये कभी भी विश्वास मत करना। अगर हम चोर और बेईमान होते, तो जो हमारी पिताजी की दी हुई संपत्ति थी, वह सारी-की-सारी संपत्ति हम अपने गाँव का हाईस्कूल बनवाने के लिए क्यों दे जाते? इसके अलावा जो कुछ भी रह गया, वह सारा-का-सारा हमने गायत्री तपोभूमि बनाने में दान कर दिया। पैसा हमारे पास इतना था कि अगर हमने उसको सँभालकर रखा होता, तो सात पीढ़ी तक काम आता। जितनी किताबें हमने लिखी हैं, उन सबका कापीराइट हमारे पास होता, तो लाखों रुपये महीने की आमदनी होती। लेकिन हम तो वही रोटी खाते हैं, जो माताजी के चौके में सबके लिए बनती है। इस संस्था के कपड़े पहनते हैं। इसके अलावा कानी कौड़ी भी हमारे पास नहीं है।
बच्चो! आपको यही कहना है कि इस तरह की बातों से आप बहकना मत। हाथी अपनी राह सड़क पर चला जाता है और कुत्ते भौंकते रहते हैं। भौकने के बाद में जब ये थक जाते हैं, तो बैठ जाते हैं। हाथी पर कोई असर नहीं पड़ता। उसको जैसा चलना चाहिए, जिस दिशा में चलना चाहिए, उसी गंभीरता से, उसी तरीके से चलता रहता है। कुत्तों के ऊपर कोई ध्यान नहीं देता। सूरज के ऊपर कोई धूल फेंकता है, तो वह धूल उसी के ऊपर गिरेगी। इससे क्या सूरज गंदा हो जाएगा? सूरज मैला हो जाएगा? सूरज बदनाम हो जाएगा? नहीं, सूरज बदनाम नहीं हो सकता। सूरज बदनाम होगा तो अपने कामों से बदनाम होगा, किसी के करने से बदनाम नहीं हो सकता। अगर हम कभी बदनाम होंगे, तो अपने कृत्यों से बदनाम होंगे और कोई दूसरा हमें बदनाम नहीं कर सकता। अगर कोई हमको बदनाम कर रहा हो, तो आपको उसकी ओर जरा भी निगाह उठाने की जरूरत नहीं है। उससे क्या हम लड़ाई-झगड़ा करें? नहीं, उससे लड़ाई-झगड़ा क्या करना है? झूठ के पाँव कहाँ होते हैं? झूठ जिंदा रहता है क्या? झूठ जिंदा नहीं रहता। झूठ अगर जिंदा रहता, तो चोर और उचक्के और उठाईगीर अब तक करोड़पति हो गए होते। लेकिन वे ऐसा थोड़े दिन ही कर पाते हैं, ज्यादा दिन तक इनका मायाजाल नहीं चल पाता।
आप सबसे हमारा निवेदन यही है कि मिशन को मजबूत बनाने के लिए, मिशन को सही रखने के लिए सही आदमियों को अपने आप में इक_ïा रखिए और उनका मनोबल बढ़ाते रहिए, हिम्मत बढ़ाते रहिए। किसी आदमी के विरोध करने से, उलटा-सीधा बकने से आप कभी भी उसके चक्कर में मत आइए। आपको कोई बात तलाश करनी हो, तो आप यहाँ आ सकते हैं। यहाँ के रजिस्टर खुले पड़े हैं। हम खुले पड़े हैं। हमारी जिंदगी खुली हुई है। हमारी जिंदगी खुली किताब के तरीके से है। इसमें कोई पन्ना ऐसा नहीं है, जिसको कोई आदमी यह अँगुली उठा सके कि इसमें काला धब्बा लगा हुआ है। न हमारी जिंदगी में काला धब्बा लगा हुआ है और न हमारे विचारों पर काला धब्बा लगा है। जिस किसी को-सबको हम चैलेंज करते हैं कि कोई भी आदमी यहाँ आए और देखे कि यहाँ कोई दाग-धब्बे की बात तो नहीं है। यहाँ दाग-धब्बे की बात आपको कभी नहीं मिलेगी। हमारा इतना ७६ वर्ष का जीवन हो गया है। इसे हमने कबीर की तरीके से रखा है-
''दास कबीर जतन से ओढ़ी,
ज्यों-की-त्यों धरि दीनी चदरिया।ÓÓ
मित्रो! हमारा जीवन, हमारा मिशन, हमारा क्रिया-कृत्य ऐसा है जिसमें हमको भी घमंड है और आपको भी गर्व होना चाहिए, आप को भी संतोष होना चाहिए। संतोष और प्रसन्नता के साथ-साथ में आपको इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि आप किसी के भी बहकावे में न आवें। बल्कि पूरी हिम्मत के साथ में, अपना पूरा जोश कायम रखते हुए अपने संगठन को कायम रखें। इस मिशन की गतिविधियों में ढील न आने दें, वरन् और भी अच्छे तरीके से करें।
साथियो! अभी मैंने अपनी बात समाप्त कर दी थी, लेकिन कुछ बातें एकाएक याद आ गयीं। वह यह कि किसी ने यह अफवाह फैला दी थी कि गुरुजी मर गए। किसी-किसी ने तो मुंडन भी करा लिया था। अभी हम मरे हैं क्या? नहीं बेटे, हम बिल्कुल जिंदा हैं और अभी बहुत दिनों तक जिंदा रहेंगे। अगर हम मरेें भी, तो पाँच गुने होकर काम करेंगे। अभी तो हमारा मरने का कोई सवाल ही नहीं। जिस किसी ने यह अफवाह फैलाई हो और जिस किसी ने मुंडन कराया हो, यह आप उसी से पूछना और उससे कहना कि गुरुजी को तो हम अपनी आँखों से देखकर आए हैं और उनका टेप सुनकर आये हैं। माता जी भी जिंदा हैं, हम भी जिंदा हैं, हमारा क्रिया-कलाप भी जिंदा है और भी सब जिंदा है। किसी-किसी ने यह अफवाह फैलाई है कि गुरुजी ने शांतिकुंज अपने जमाई को दे दिया है। गायत्री परिवार अपने साढ़ू को दे दिया है। इन बेहूदी बातों के बारे में आप कभी विचार मत करना।
मित्रो! यह सार्वजनिक संस्था है। इसका एक ट्रस्ट बना हुआ है। सात आदमी इसके ट्रस्टी हैं। जब कभी एक आदमी नहीं रहेगा, तो उसके स्थान पर दूसरा आदमी नियुक्त हो जाएगा। किसी के बिना काम रुकेगा नहीं। यह कोई राजकुमार नहीं है, जो गद्दी पर लाकर के बैठाया जाए। यह कोई जमींदारी नहीं, दुकान नहीं, जिस पर लाकर किसी को बैठा दिया जाए। यह सार्वजनिक-पारमार्थिक संस्था है। चार्टर्ड एकाउंटेंट इसका हिसाब-किताब चैक करते हैं। अगर हमारा उत्तराधिकारी कोई होगा, तो वह समर्पित कार्यकत्र्ताओं की टीम ही होगी, व्यक्ति नहीं। गायत्री तपोभूमि की भी कोई होगी, तो टीम होगी। वहाँ युग निर्माण योजना ट्रस्ट है। इसका भी कोई उत्तरदाधिकारी हुआ तो टीम होगी। कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता। व्यक्ति विशेष के मरने पर इस संस्था पर कोई असर नहीं पड़ता। व्यक्ति विशेष के चले जाने या न रहने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई बात नहीं बिगड़ती, क्योंकि इसको चलाने वाला भगवान् है। इसको चलाने वाले हमारे गुरु हैं। अब तक जितना काम बढ़ा है, इसे आपने देखा है कि वह सौ गुना, हजार गुना हो चुका है। आगे भी हमारे रहते हुए भी और न रहते हुए भी यह काम हजार गुना होगा और सौ गुना होगा-निरंतर बढ़ेगा, सारे विश्व में बढ़ेगा। यह विश्वास दिलाना रह गया था, सो दुबारा टेप करा दिया ।
गुरुपूर्णिमा का संदेश आपके लिए यही है, आप सब लोग अच्छे रहें, सुखी रहें। आपके बच्चे सुखी रहें, आप फलें-फूलें, आपकी उन्नति हो।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥
इन शब्दों के साथ हम अपनी बात समाप्त करते हैं।
॥ ॐ शान्ति॥
विशिष्टï समय को समझें, अपनी रीति-नीति बदलें
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो
योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! यह समय बहुत ही संकटमय है। हर जगह असुरता छाई हुई है। इस समय ताड़का, कुंभकरण, सुबाहु-सभी अपना ताण्डव नृत्य दिखा रहे हैं। इस समय महान व्यक्तियों को महान कार्य करना है। हर युग में ऐसे व्यक्तियों ने विशेष काम किया है। बड़े आदमी ही बड़े काम कर सकते हैं। छोटे आदमी छोटे काम कर सकते हैं। बड़े काम करने के लिए आत्मा को जगाना पड़ता है, उसे गरम करना पड़ता है। छोटे आदमी बड़े काम नहीं कर सकते। हाथी जो काम कर सकता है, छोटे जीव-जन्तु उसे नहीं कर सकते। सामान्य जीव का केवल उद्देश्य होता है-पेट एवं प्रजनन, परन्तु असामान्य व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं होता है। यह मनुष्य, जो देवता बन सकता था, उसकी महत्त्वाकांक्षाओं ने उसे बरबाद कर दिया। वह मकड़ी के जाल में फँस गया, मिट्टïी में मिल गया। वह सारे जीवन भर केवल दो ही काम करता रहता है- एक पेट तथा दूसरा प्रजनन, परन्तु असामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है। उसके अन्दर एक हलचल होती है, एक हूक उठती है। समय की पुकार को वह अनसुनी नहीं कर सकता, संकटों से जूझने के लिए उठ खड़ा होता है।
महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुँचे। उन्होंने कहा कि यह असामान्य समय है। इन बच्चों का यदि आप भविष्य बनाना चाहते हैं, इन्हें देवता बनाना चाहते हैं, तो इन्हें हमें सौंप दीजिए। दशरथ ने कहा- जैसा आपका आदेश। विश्वामित्र उन बच्चों को ले गये तथा शुरू से अन्त तक उन बच्चों ने असामान्य काम किया। असामान्य समय में, असामान्य व्यक्ति असामान्य काम करता है। राम तथा लक्ष्मण ने असामान्य जीवन जिया। वे सिद्धान्तवादी तथा आदर्शवादी थे। ऐसे ही व्यक्ति समाज को नयी दिशा देते हैं तथा लोग उनके बनाए रास्ते पर चलते हैं। जब आवश्यकता पड़ी, तो हनुमान् जी आ गये, सुग्रीव आ गये तथा अन्य हजारों रीछ-बन्दर आ गये। अगर रामचन्द्र जी अयोध्या में रहकर अन्य राजा-महाराजाओं जैसे मौज-मस्ती में डूबे रहते, तो कोई भी उनकी बात नहीं मानता। परन्तु उनके असामान्य व्यक्तित्व को देखकर हनुमान् जी भी प्रभावित हो गए तथा असामान्य समय में असामान्य काम-जैसे समुद्र को लाँघना, सीता की खोज करना, पर्वत उठा लाना, राम-लक्ष्मण को कंधे पर बिठाकर ले जाना आदि न जाने कितने महान कार्य कर दिखाये।
अगली पंक्ति में बैठने तथा काम करने के लिए मौका केवल असामान्य व्यक्तियों को मिलता है। वे ही असामान्य समय को पहचान पाते हैं। सामान्य आदमी को तो विशेष समय दिखाई ही नहीं पड़ता। गुरुगोविन्द सिंह जी को विशेष समय दिखाई पड़ा। वे असामान्य आदमी थे। उन्होंने देखा कि यह देश गुलामी की जंजीरों से कैसे छुटकारा पा सकता है। उन्होंने सोचा कि हर व्यक्ति अपने-अपने बच्चों को बहादुर सैनिकों की तरह बनाता और उनसे साहस का काम कराता, तो समाज में एक आदर्श उपस्थित होता। उन्होंने इस आवश्यकता को समझा और सोचा कि उसकी शुरुआत अपने आप से करनी चाहिए। पराये बच्चों को माँगने से पहले अपने बच्चों को इस काम में लगा देना उचित होगा। ऐसा सोचकर उन्होने एक, दो, तीन, चार-इस तरह सभी बच्चों को बारी-बारी से उस आन्दोलन के लिए अर्पित कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि चार लाख आदमियों ने गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के लिए उस आन्दोलन में अपने आपको झोंक दिया। उन्होंने दम तब लिया, जब आन्दोलन में गर्मी आ गयी।
मित्रो! आजादी का आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? पंजाब से शुरू हुआ था। पंजाब के राजा रणजीत सिंह सबसे पहले राजा थे, जिन्होंने इस आजादी के आन्दोलन में अपना सहयोग सबसे पहले दिया था तथा आजादी की लड़ाई को गति प्रदान की थी। इसके बाद अन्य लोग आते गए। गुरुगोविन्द सिंह, रणजीतसिंह जैसे योद्धा धर्ममंत्र व राजतंत्र दोनों ओर से पहली पंक्ति में आगे आए। इसके बाद काम बढ़ता गया तथा उसमे लोग सहभागी बनते चले गए। इतिहास को देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि असामान्य समय में लोगों को कुर्बानी देनी पड़ती है। यह काम जबरदस्ती से नहीं होता है, वरन् लोगों के भीतर एक हूक पैदा होती है और लोग स्वेच्छा से अपनी कुर्बानी देते हैं। गाँधी जी ने अपने आपको अर्पित किया उसके बाद लाखों आदमी उनके साथ आ गए। ७९ आदमियों को लेकर गाँधीजी जब साबरमती आश्रम से चल पड़े और नमक आन्दोालन शुरू कर दिया, तो पीछे लाखों लोग आ गये। अगर गाँधी जी स्वयं बैठे रहते तथा दूसरों से कहते, तो शायद यह काम नहीं होता। गाँधी जी सभी आन्दोलनों में आगे रहे। गाँधी जी के जेल जाने के बाद सारे देश में आग लग गयी। स्वराज्य आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? अपने आप से शुरू हुआ। आपत्तिकाल की समस्या का हल केवल अपने आप से ही सम्भव है। ऐसा साहस भरा कार्य वे असामान्य आदमी ही कर पाते हैं, जो असामान्य समय को पहचानते हैं।
मित्रो! असामान्य आदमी स्वयं आगे चलकर समाज को यह बतलाता है कि यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके लिए कुर्बानी देना चाहिए, तो लोग आगे आकर कार्य करते हैं। ऐसा साहस असामान्य आदमी ही कर सकता है। व्यक्ति पहले इस आदमी को परखते हैं कि यह मजबूत आदमी है, सिद्धान्त का आदमी है और कसौटी पर खरा सिद्ध होने के पश्चात् उसके कहने पर आगे आते हैं। भगवान् बुद्ध के जो सबसे प्यारे शिष्य थे, सबसे पहले उनको अपना घर-बार छोडऩे के लिए निवेदन किया गया था। अगर भगवान् बुद्ध ने केवल लोगों को आशीर्वाद से धन व बच्चे दे दिए होते, तो सारे विश्व में जो धर्म-चक्र प्रवर्तन की क्रान्ति हुई, शायद वह न हुई होती।
ऋषि क्या करते थे? क्या वे माला घुमाते थे? नहीं बेटे, वे माला नहीं घुमाते थे, वरन् वे सारे दिन समाज की सेवा किया करते थे। आज तो जो सबसे घटिया काम है, उसके लिए लोग आगे आते हैं। महान कार्य करने की किसी की भावना ही नहीं है। तपस्वी, संत, ऋषि जो सबसे छोटा काम करते थे सेवा का, अगर आप भी करने लगें, तो आपके जीवन में भी चमत्कार आ जाएगा। उन्होंने व्यक्ति की, समाज की, देश और धर्म की, संस्कृति की सेवा की थी। लोगों के दु:ख, तकलीफों को दूर किया था। भगवान् बुद्ध ने एशिया को ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया को बदल दिया था। वे त्याग-तपस्या की मूर्ति थे। आप नाटक का मुखौटा पहन कर हनुमान् जी नहीं बन सकते हैं। उसके लिए त्याग करना पड़ता है। ऋषियों के अन्दर सबसे महत्त्वपूर्ण एक बात होती है कि वे समय को पहचानते हैं। वे समय का परिचय प्राप्त कर अग्रिम पंक्ति में आ खड़े होते हैं तथा दूसरों को नसीहत देने से पहले अपने आपको इस योग्य बनाने का प्रयास करते हैं कि इसका प्रभाव समाज पर पड़ सके। इसके बाद ढेरों आदमी उस रास्ते पर चलना शुरू कर देते हैं।
मित्रो! इंजन जब पटरी पर चलना शुरू कर देता है, तो डिब्बे अपने आप चलना शुरू कर देते हैं। बड़े आदमी, जिनका कि व्यक्तित्व होता है, जब वे आगे चलते हैं, तो उनके सहयोगी, अनुयायी स्वयं पीछे चलने लगते हैं। रामचन्द्र जी के सबसे प्यारे हनुमान् तथा लक्ष्मण थे। उनसे उन्होंने कहा कि आपको आगे चलना चाहिए, वे चले। बुद्ध के भी जो सबसे प्रिय शिष्य थे, जब उनसे उन्होंने कहा कि आपको सबसे आगे चलना चाहिए, तो वे चले। युग निर्माण योजना की भी यही कहानी है। हमारे गुरु ने हमसे कहा कि चलना होगा और हम चले। इसके बाद लाखों लोग चलने लगे। लक्ष्मण का अनुकरण भरत ने किया। भरत का अनुसरण शत्रुघ्न ने किया। इस प्रकार रामचन्द्र जी के अनुकरण का सिलसिला चल पड़ा। सारे के सारे लोग उनके अनुयायी हो गये। इसका परिणाम यह हुआ कि सारी प्रजा चल पड़ी। इसके फलस्वरूप रामराज्य की स्थापना हो गयी।
मित्रो, दुनिया में एक ही तरीका है, जब असामान्य लोग असामान्य काम के लिए चलते हैं, तभी काम बनता है। इस दुनिया के अन्तर्गत जो छोटे-छोटे व्यक्ति थे, जिसके अन्दर प्राण था, जो जीवन्त थे, उन्होंने ही आगे कदम बढ़ाया तथा उनके पीछे लोग चले। हमें महाराणा प्रताप का जीवन दिखाई पड़ता है। महाराणा प्रताप को क्या कमी थी? उनके पास सभी चीजें थीं। वे अच्छे खाते-पीते व्यक्ति थे, पर जब उनके भीतर स्वराज्य की भावना जाग्रत हुई, उन्होंने राजपाट छोड़कर जंगल का रास्ता पकड़ लिया। वे अपने बीबी-बच्चों को कहीं भी रख देते थे। थे तो वे राजा ही, चाहते तो उनके खाने-पीने की व्यवस्था कहीं भी हो जाती, परन्तु वे बहुत तबाह हुए, जंगलों मं भटकते रहे, घास की रोटी खाते रहे, लेकिन अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा। बंदा बैरागी जैसे लोग किस तरह तबाह हुए, आप नहीं जानते हैं। उन दिनों कुछ लोगों ने अपनी लड़कियों की शादी मुगल राजाओं के साथ कर दी थी। वे अपने को राजपूत कहते थे और अपने को बड़ा राजा कहते थे। उसी जमाने में बहुत से ऐसे भी लोग थे, जो उन आक्रान्ताओं से लोहा ले लिया करते थे तथा अपने को कुर्बान तक कर देने में कोई कमी नहीं रखते थे। उन्होंने अपने सारे परिवार के लोगों को इस आग में झोंक दिया, परन्तु अपनी शान को नहीं जाने दिया। वे असामान्य लोग थे, जिन्होंने परिस्थिति को समझा तथा मुकाबला किया।
आप बहुत समझदार आदमी हैं? आप अगर समझदार नहीं होते, तो इस जमाने में जब सारी दुनिया मरने की तैयारी में बैठी है, उस समय आप लोभ, मोह, वासना, तृष्णा का जीवन जी रहे हैं। इसके साथ ही यह सोच रहे हैं कि हमें यह फायदा कैसे हो जाए, वह फायदा कैसे हो जाए? हमारे बच्चे कैसे ऑफीसर बन जाएँ, ताकि अधिक पैसा कमा सकें। इस मामले में आप बहुत समझदार आदमी हैं, परन्तु आप सिद्धान्तों से, आदर्शों से, अक्ल से समझदार नहीं हैं। आप कैसे समझदार हैं? कौए की तरह से समझदार हैं। वह हर मामले में चौकस होता है, चालाक होता है, उस्ताद होता है। उस्ताद होते हुए भी उसके हिस्से में खाने-पीने की जो चीजें होती हैं, उसको वह अपने लिए रखता है, परन्तु अन्य जीव उसे छीनकर खा लेते हैं, इसलिए वह नासमझ माना जाता है। सारे पक्षियों में बेकार माना जाता है। मित्रो, मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह विशेष समय है, इसे पहचानने की कोशिश करें। अगर आपकी आँखें हैं, तो देखें, अगर नहीं हैं, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ। आप अध्यात्मवादी हैं, तो अपको कुछ करना चाहिए। आपको सिद्धि मिली है, मुक्ति मिली है, तो आपको समाज की सेवा करनी चाहिए।
आदमी को अध्यात्मवादी तब माना जा सकता है, जब वह दूसरों के दु:ख-दर्द को बाँटकर उसे सुखी, प्रसन्न बनाने का प्रयत्न करे। ऐसे व्यक्ति को दूसरों के दुख-दर्द को दूर करने के लिए बलिदान होना पड़ता है। भजन करने से कोई कुछ मिलता है? भजन करने वाले की नीयत क्या है, यह भगवान् जानना चाहता है। आप पैसा कमाने के लिए, औलाद प्राप्त करने के लिए भजन करते हैं, तो आपके इस उद्देश्य को भी वह जानता है। आप भजनानन्दी हो सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिए भजन करने वाले अध्यात्मवादी नहीं होते हैं। ऐसे व्यक्ति से अध्यात्मवादी की उपाधि हम छीन लेते हैं, जो व्यक्तिगत लाभ के लिए भजन करते हैं। उनकी जो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए, सिद्धि के लिए भजन करते हैं, उनको मैं अध्यात्मवादी नहीं कह सकता हूँ। उनको मैं भौतिकवादी ही कहूँगा। ऐसे लोगों को ब्रह्मïवर्चस का वह ब्रह्मïतेज प्राप्त नहीं हो सकता है, जो लोकसेवी, संत, ऋषियों को मिलता रहा है। अत: आपको भी अपने आपको तपाना चाहिए। जप करना चाहिए, परन्तु उस शक्ति को, उस ऊर्जा को समाज के कष्टï के, दुख-दर्द के निवारण के लिए बाँट देना चाहिए। तभी आप संत, ऋषि कहला सकते हैं।
मित्रो, ऐसा कौन है, जो कन्या के सयानी हो जाने पर उसके लिए योग्य लड़का अर्थात् वर की तलाश न करे तथा उसकी शादी अपनी सामथ्र्य के अनुसार न करे। कोई भी व्यक्ति ऐसा निष्ठïुर नहीं होता, जो अपने बच्चों के लिए कुछ न करे। हम आप लोगों को प्यार करते हैं तथा आपको हमेशा देने के लिए तैयार रहते हैं। हर सामथ्र्यवान का यह कत्र्तव्य होना चाहिए कि वह अपने से कम सामथ्र्यवान वाले व्यक्ति को प्यार दे। अगर हम एक-दूसरे को प्यार नहीं करते हैं, तो हमारा गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार बनाना बेकार है। हमने हमेशा प्यार बाँटा है और चाहते हैं कि आप भी प्यार बाँटें। हम एक संत हैं तथा संत परम्परा के अनुसार हमारा नैतिक दायित्व है कि हम दूसरों की सहायता करें, उन्हें ऊँचा उठाएँ, उनकी प्रगति के रास्ते खोल दें। हमें अपने समीपवर्ती लोगों, पड़ोसियों का ध्यान रखना चाहिए। अगर किसी को बुखार हो, तो हमें उसकी मदद करनी चाहिए और चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए। मित्रो, इसी तरह हमें उस समय का भी ख्याल रखना चाहिए, जिसमें हम जी रहे हैं। उस समय में हमें आगे बढ़कर युग-समस्याओं को हल करना चाहिए।
मित्रो, यह आपत्तिकालीन समय है। मानव जाति आज संकट के एक कगार पर खड़ी है। ऐसे कगार पर खड़ी है कि उसके किनारे अगर ढह गये, तो वह औधे मुँह सीधे खाई में चली जाएगी। तथा मनुष्य का बहुत बड़ा अहित होगा। इस प्रकार मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय है। ऐसी विषम परिस्थिति में असामान्य मनुष्यों को शांत नहीं बैठना है। यह आपत्तिकाल है। आपको तो दिखाई नहीं पड़ रहा है, परन्तु हमें दिखाई पड़ रहा है। ऐसे व्यक्ति जिनकी आँखों में माइक्रोस्कोप फिट होता है, सूक्ष्म चीजें भी देख लेते हैं। हमें भी दिखाई पड़ रहा है कि भविष्य में अगले दिनों क्या होने वाला है। बहुत भयानक स्थिति है। मनुष्य एक ऐसे कगार पर खड़ा है, जहाँ से गिरने पर वह खाई में जा सकता है तथा विनाश की स्थिति आ सकती है। दूसरी ओर अच्छा भी हो सकता है, परन्तु इसकी सम्भावना कम है।
यह आपत्तिकालीन समय है। इस समय वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी तथा अर्थशास्त्री-तीनों मिलकर यानी विज्ञान बुद्धि और अर्थ तीनों ने मिलकर ऐसी रचना की है, जिसे रावण, कुंभकरण एवं मेघनाद की संज्ञा दी जा सकती है। बुद्धिवाद में ऐसी जकडऩ आ गयी है कि सिद्धान्तवाद, आदर्शवाद पूर्णत: समाप्त हो गया है। आज आदमी का हृदय समाप्त हो गया है। आदमी आज जानवर हो गया है। जानवर तो भी मर्यादा में रहता है, परन्तु आदमी आज नर-पिशाच होता चला जा रहा है। उसे मर्यादा का भी ध्यान नहीं है। उसकी नीयत, ईमान को खोलकर देखें, तो आपको मालूम पड़ेगा कि मनुष्य ने न जाने किसका कलेवर पहन रखा है। उसके भीतर न जाने साँप बैठा है, न जाने राक्षस बैठा है, यह पता ही नही चलता है। आदमी के भीतर अगर आप झाँकें, तो अन्दर बैठे राक्षस को देखकर आपको नफरत हो जाएगी। आज चारों तरफ नफरत की दुनिया दिखाई पड़ रही है। विज्ञान, बुद्धि और अर्थ-तीनों ने मिलकर शालीनता की सीता का अपहरण कर लिया है। राम-लक्ष्मण रूपी धर्म-अध्यात्म-दोनों बिलखते हुए मारे-मारे फिर रहे हैं। इन तीनों ने न जाने कैसा-कैसा षडयंत्र रच दिया है। आदमी प्यार को, आदर्श को, शालीनता को भुला बैठा है और मनुष्य कलेवर में पिशाच बन बैठा है।
साथियो, भूत-पलीत का नाम आपने सुना है न, वह भी उतनी हानि नहीं पहुँचा रहा है, क्योंकि उसके हाथ-पैर नहीं हैं। जिसके हाथ-पाँव न हों, भला वह क्या कर सकता है? वह चल-फिर नहीं सकता है, दौड़ नहीं सकता है। अत: उससे डर नहीं है, लेकिन जिन्दा आदमी का भूत इनसान को परेशान कर रहा है, क्योंकि उसके पास हाथ भी हैं, पाँव भी हैं और अक्ल भी है। उसके पास दूसरी चीजें भी हैं। उसके पास ताकत है। आदमी का भूत अगर किसी पर हावी होगा, तो जिन्न, भूत, पिशाच, राक्षस सभी एक कोने पर रखे रह जाएँगे, आदमी का भूत अगर सवार हो जाएगा, तो वह मुर्दा भूतों से ज्यादा खतरनाक साबित होगा। हो भी यही रहा है। वास्तव में आज आदमी के भीतर की शालीनता समाप्त हो गयी है। वह राक्षस एवं पिशाच बन गया है।
आज परिस्थितियाँ इस तरह बनती जा रही हैं कि आदमी मरेगा, तबाह हो जाएगा। आज जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि उसका क्या कहना? अगर यह इसी हिसाब से बढ़ती रही, तो एटम बम की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आदमी भूख से, प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाएगा। जिस तरह बंगाल में अकाल पड़ा था और उस समय भूख से तड़प-तड़प कर हजारों लोग मर गये थे। जापान के नागासाकी शहर पर डाले गये बम से लोग तबाह हो गये थे। इसी तरह जनसंख्या बढ़ाने के फेर में आदमी लगा रहा, तो उसका विनाश सुनिश्चित है। कितने ही लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते हैं और यह कहते हैं कि देखना हमारे हाथ में बेटा है या नहीं? अरे! तेरे हाथ में तो सत्यानाश लिखा है। कई लोग आकर कहते हैं कि गुरुजी मेरे औलाद नहीं है। उनसे मैं यही कहता हूँ कि बेटा, अभी तो तू भी शान्ति से रह रहा है, अन्यथा बेटा-बेटी तेरी चमड़ी नोच डालेंगे। अरे तू समझता नहीं, अगर इसी तरह से आबादी बढ़ती रही, तो पानी की एक-एक बूँद के लिए लोग तरस जाएँगे। सड़क पर चलने के लिए रास्ता नहीं मिलेगा। आदमी परेशान हो जाएगा। आप समझते नहीं, तबाही की दुनिया आ रही है। आपत्तिकाल का समय आ रहा है। अगर किसी वैज्ञानिक के मन में खुराफात आ जाए और वह एटमी हथियारों के भण्डार में माचिस की एक तीली सुलगा दे, तो सारा विश्व जलकर तहस-नहस हो जाएगा।
मित्रो, परिवार में, खानदान में जितने अधिक सदस्य बढ़ेंगे, उतनी ही मनुष्यों को परेशानियाँ आएँगी, वह परेशान होगा। किसी आदमी के परिवार में अ_ïाइस सदस्य हैं अर्थात् २८ आदमी एक परिवार में हैं। उनमें आपस में प्रेम, सहकार है नहीं, चूहे-बिल्ली की तरह से रह रहे हैं। चूहे बिल्ली से डरते हैं, बिल्ली चूहे से डरती है। ऐसे परिवार में आदमी की स्थिति ठीक उसी प्रकार है। आज के जमाने में जिसका जितना बड़ा परिवार है, वह उतना ही अधिक अशान्त है। विदेशों में बच्चों के बड़े होते ही माँ-बाप उन्हें अलग कर देते हैं और कहते हैं कि जाओ अपनी अलग व्यवस्था बनाओ। योरोप इस मामले में सही है, जो इस डाकू को पहले से ही अलग कर देता है। उसे गले लगाने से क्या फायदा? वहाँ लोग औलाद को घर से निकाल देते हैं और कहते हैं कि चल यहाँ तेरा कोई काम नहीं है। कारण वहाँ परिवार में प्रेम-मोहब्बत, सहकार नहीं है। बेटे के भीतर यह भावना नहीं है कि जब हमारा बाप बूढ़ा होगा, तो हमें उसकी सेवा करनी है, व्यवस्था बनानी है। बहिन-भाई में प्रेम नहीं है। बहिन की शादी से पहले भाई की जो बहू आती है, वह नर-पिशाचिनी यह कहती है कि हमें ६५० रुपये मिलते हैं। इसे घर से निकाल दीजिए, फिर हम दोनों होटल में खाना खाएँगे, क्लबों में डान्स करेंगे और सिनेमा देखेंगे।
यह तो योरोप की स्थिति है। अपने यहाँ भी अगर आपके पास पन्द्रह हजार रुपये हैं, तथा बच्चे हैं-पाँच, तो हर एक के हिस्से में तीन हजार रुपया आते हैं। उसके लिए भी मारकाट है। उसे आप अगर एक को पढ़ाने में, गजेटेड आफीसर बनाने में खर्च कर देंगे, तो बाकी बच्चों के गले में क्या फाँसी लगा देंगे या मार देंगे? या फिर उसे मैट्रिक तक पढ़ाने के बाद घर से निकालिए तथा यह कहिए कि निकल घर से, अपने आप पढ़ तथा अपने पैरों पर खड़ा हो। बेटे, आज की परिस्थितियों में आपको दुश्मन से भी होशियार रहना चाहिए तथा बड़े बेटे से भी होशियार रहना चाहिए। दुश्मनी के मामले में बड़ा बेटा, जिसके लिए आपने सब कुछ दाँव पर लगा दिया, उसमें तथा साँप-बिच्छू में कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज इस बारे में हर आदमी को यह विचार करना चाहिए कि कुटुम्ब बढ़ाने में हमें कोई फायदा नहीं है, वरन् इसके द्वारा केवल बरबादी ही बरबादी है। जापान इस मामले में काफी होशियार है। यदि वहाँ मियाँ-बीबी मिलकर नौ सौ रुपये भी कमाते हैं, तो कहते हैं कि हम दोनों सिनेमा देखेंगे, होटलों में खाएँगे, मस्ती में रहेगें। बच्चों से क्या फायदा? उन्हें पढ़ाने में, योग्य बनाने में, उनकी शादी-ब्याह करने में काफी खर्च होगा। इसके अलावा हमारी मौज-मस्ती में भी वे विघ्र डालेंगे। जापानी इस मामले में विचार करते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे न हों।
बेटे! यह क्या होने जा रहा है? यह संयुक्त प्रणाली का सत्यानाश होने जा रहा है। आज सामाजिक सहयोग-सहकार का वातावरण समाप्त होता जा रहा है। आदमी इतना स्वार्थी, लोभी होता जा रहा है, जिसे देखकर लगता है कि मानवजाति की सारी की सारी श्रेष्ठï परम्पराएँ नष्टï होने वाली हैं। आदमी को दुश्मनों से डर लगे या न लगे, परन्तु अपने कुटुम्बीजनों से काफी भयभीत रहता है कि न जाने वे कब किस चक्कर में डाल सकते हैं। बरबाद कर सकते हैं। आज ऐसी ही स्थिति बन रही है। बुढ़ापे में व्यक्ति फूट-फूटकर रोयेगा, कलपेगा कि हाय रे! औलादों ने, सम्बन्धियों ने हमें लूट लिया, बरबाद कर दिया। मित्रो, यह जमाना आता हुआ चला जा रहा है। आदमी मरे या जिये, यह मैं नहीं कहता, परन्तु आदमी के भीतर जो आत्मीयता थी, मनुष्यता थी, वह नष्टï हो जाएगी, बढ़ती हुई जनसंख्या की वजह से, बढ़ते हुए विज्ञान की वजह से, बढ़ती हुई अक्ल की भरमार की वजह से, आदमी की स्वार्थपरता की वजह से। हम और आप ऐसे ही बुरे समय में रह रहे हैं।
अगर इसी तरह की स्थिति बढ़ती चली गयी, तो हमारा और आपका भविष्य बहुत अन्धकारमय होता चला जाएगा। राजनीतिज्ञ जिस रास्ते पर आपको ले जा रहे हैं, वह हमें अन्धकारमय लग रहा है। संत-महात्माओं की प्रवृत्ति और विचारों को देखकर तो हमें रोना आता है। उनके क्रिया-कलापों को देखकर मैं काँप जाता हूँ और सोचता हूँ, हे भगवान्! ये क्या कर रहे हैं? हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान्! अगर इस संसार से कोई वर्ग नष्टï होना हो, तो सबसे पहले बाबाजियों का वर्ग नष्टï होना चाहिए। आप कहेंगे कि गुरुजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? बेटे, यह इसलिए कह रहा हूँ कि कतिपय संत-महात्मा अपने कत्र्तव्यों, उत्तरदायित्वों से भटक गये हैं। मनुष्य को जिस मानवता का शिक्षण उन्हें देना चाहिए था, वे उससे दूर हो गए हैं, जिसके कारण आदमी अपनी महानता के जिस बलबूते पर इस सृष्टिï का मुकुटमणि बना था, वह गिरते-गिरते समाप्त होता चला जा रहा है।
गुरुजी! फिर क्या होगा? मित्रो, इस दुनिया में मक्खी-मच्छर रहते हैं, तो क्या इनसे दुनिया की कोई शान है। कीड़े-मकोड़े, टिड्डïी, खटमल भी दुनिया में रहते हैं, पर उनसे कुछ लाभ है क्या? मैं नहीं जानता कि क्या लाभ है, लेकिन अगर आदमी भी इसी प्रकार से ज्यादा पैदा होंगे, तो निश्चय ही दुनिया में तबाही आयेगी। लोग परेशान होंगे। आज जो दुनिया में मनुष्यता समाप्त हो रही है, आदमी के अन्दर जो श्रेष्ठï माद्दा था, जो महानता थी, आदमी के भीतर जो देवत्व था, आज वह समाप्त होता चला जा रहा है। आदमी के भीतर जो भगवान् बैठा था वह धूमिल होता चला जा रहा है। भगवान् माने आदर्श, आदर्श माने श्रेष्ठï विचार। मित्रो, हमें जिस भगवान् की आवश्यकता है, जो हमें ऊँचा उठाता है, उसका नाम है-सिद्धांत, आदर्श। उसका नाम है-मानवी गरिमा, जो समाप्त होती चली जा रही है। ऐसे अंधकार को देखकर हमें दुख होता है कि इसी प्रकार की यदि स्थिति रही, तो आगे आदमी, आदमी की जान का ग्राहक बन जायेगा। उसके जीवन में तबाही आएगी।
मित्रो! उस समय आदमी-आदमी का खून पियेगा। आदमी-आदमी का मांस खायेगा। आदमी-आदमी को गिरायेगा। आदमी-आदमी को दुख देगा, परेशान करेगा। आदमी, आदमी का प्राण पियेगा। मर्द औरत का प्राण पियेगा और औरत, मर्द का। भाई, भाई का प्राण पियेगा। भाई, बहिन का प्राण पियेगा। बेटा, बाप का और बाप, बेटे का प्राण पियेगा। साथ रहकर भी लोग एक-दूसरे का प्राण पियेंगे। यह आपत्तिकाल का सपना, जो हमने आपको दिखाया है, वह गलत नहीं है। इस समय पैसा, अक्ल, रोटी बढ़ेगी, परंतु यही अक्ल, पैसा और रोटी अपने को खाएगी। इंसान परेशान हो जायेगा। अगले दिनों विश्वविद्यालय बहुत बनने वाले हैं, कारखाने बहुत बनने वाले हैं, परंतु हम आपको सावधान कर रहे हैं कि आने वाले समय में हर चीज की कीमत बढऩे वाली है। हर चीज हमें मुश्किल से प्राप्त होगी। लोहे जैसी चीज का भी मूल्य बढऩे वाला है। लोहे का मूल्य सोने के बराबर होगा। मुसीबत ही मुसीबत आने वाली है, यदि अभी से हम सचेत नहीं हुए तो।
इस आपत्तिकालीन समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, आदमी का आध्यात्मिकता से जुडऩा। आध्यात्मिक पारस से जो जुड़े हैं, वे पारस बन गये। विवेकानंद, दयानंद पारस बन गये। लोहे को पारस से छुलाने पर वह सोना बनता है, कहा नहीं जा सकता, परंतु यह एक सच्चाई है कि आध्यात्मिक पारस से जुडऩे पर ही लोहे जैसा व्यक्ति यानी प्राणवान, तेजवान, गुणवान, समृद्धिवान बन जाता है। उनकी अक्ल, आदर्श, सिद्धान्त महान होते हैं। वे श्रेष्ठï व महान बन जाते हैं।
मित्रो, अमृत के बारे में हमें यह पता नहीं कि कोई मरने के समय पी ले, तो वह बच सकता है। ऐसा तो हमने सुना नहीं है। यदि ऐसा अमृत हुआ होता, तो रामचंद्र जी को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। नरसिंह भगवान् को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बहुत सारे भगवान् हुए थे, उनको भी मरने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए मैं सोचता हूँ कि ऐसा अमृत कोई नहीं है। नहीं महाराज जी, शास्त्रों में, पुराणों में अमृत के बारे में बहुत लिखा है। बेटे, उसी के बारे में मैं कह रहा हूँ, जिसे पीकर लोग अजर-अमर हो जाते हैं-जैसे राजा हरिश्चंद्र। गाँधीजी ने एक ड्रामा देखा और वे हरिश्चंद्र हो गए। गाँधी जी मर गये? नहीं बेटे, गाँधी जी कैसे मर सकते हैं। ईसामसीह मर गये? नहीं बेटे, वे कैसे मर सकते हैं। भगवान् बुद्ध मर गये? नहीं, वे नहीं मरे। वे अमर हो गये। कैसे व्यक्ति अमर होते हैं? ऐसे व्यक्ति जिनके अंदर शालीनता पैदा हो जाती है। आदर्श और सिद्धान्त जिनके रोम-रोम में समा जाता है, वही व्यक्ति अमर हो जाते हैं।
आदमी के अंदर अगर शालीनता न हो, तो वह नर-पिशाच बन जाता है। जिस आदमी के मुँह से पिशाच अट्टïहास करता हुआ चला जाता है, अगर उसे उसी तरह बढऩे दिया जाये, तो वह बहुत खतरनाक हो सकता है। आज मनुष्य ने न जाने क्या-क्या बना लिया है। पहले हवाई जहाज ६०० कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ता था। आदमी ने इस दूरी को समाप्त कर दिया है। चंद्रमा पर जो राकेट भेजा गया था, उसकी गति छह हजार से सात हजार मील थी। वह सारी पृथ्वी पर ढाई घंटे में घूम जाता है। आज तो हर चीज की चाल तेज हो रही है। विनाश की भी चाल तेज हो रही है।
यह समय आपत्तिकाल का है, जो एक ओर सुंदर सपने सँजोये हुए है, तो दूसरी तरफ विनाश की लीला भी। मुँह बाए खड़ी दिखाई पड़ रही है। आप दोनों के बीच में खड़े हैं। आपको यह दिखाई नहीं पड़ता है। आप कौन हैं? आप जाग्रत आत्मा हैं। हमने जो हार युगदेवता के लिए बनाया है, वह भगवान् के इस बगीचे से अच्छे से अच्छे फूलों को लेकर बनाया है, ताकि अच्छी से अच्छी माला युगदेवता के चरणों में चढ़ाई जा सके। आपको हमने बड़ी मुश्किल से ढूँढ़ा है। आपने ढूँढ़ा है हमें? नहीं बेटे, हमने आपको ढूँढ़ा है। हमने अच्छे-अच्छे रत्नों को ढूँढ़ा है। हमने अखण्ड-ज्योति आपके पास भेजी थी। आपने मँगायी थी? नहीं, हमने भेजी थी। बेटे, जिस तरह राम-लक्ष्मण को लेने विश्वामित्र दशरथ के पास गये थे, वैसे ही हमने आपके बाप के पास जाकर आपको ढूँढ़ा है। आप समझते नहीं हैं कि हमने कैसे आपको ढूँढ़ा है। रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द के पास गये थे? वे कहते थे कि तू क्या करेगा-नौकरी करेगा? अरे हमारा काम हर्ज हो रहा है और तू नौकरी के फेर में पड़ा है। हम लोगों को मुक्त करने आये हैं। हमारा काम अलग है। हमारा 'जीवÓ अलग है। हम देश, समाज, राष्टï्र को दिशा देने आये हैं। तू नौकरी करने के लिए नहीं पैदा हुआ है। उनको रामकृष्ण परमहंस ने मजबूर किया और वे चल पड़े।
बेटे, तू भी नहीं समझ रहा है। हम भी तुझे मजबूर कर रहे हैं। हमारे पास तू आता रहता है, परन्तु मनोकामनाएँ लेकर आता है। अगर ऊँची तमन्ना लेकर आया होगा, तो तू धन्य हो जाता। हम जब अपने गुरु के पास जाते हैं, तो हमारी तमन्नाएँ ऊँची रहती हैं तथा हम महान् बन जाते हैं। वहाँ से हम महान् बनकर आते हैं। हम उनसे कहते रहते हैं कि गुरुदेव हमारा जीवन कुछ और होना चाहिए। हमारे ब्राह्मïण तथा संत जीवन में कुछ कमी रह गयी है। उसमें कुछ और प्रखरता, तेजस्विता आनी चाहिए। तलवार पर धार दी जाती है, तो वह ज्यादा मूल्यवान बन जाती है। हम चाहते हैं कि हमारे ब्राह्मïण तथा संत के जीवन में भी कुछ धार आवे, ताकि हम और काम कर सकें। जब कभी हिमालय जाता हूँ, तो हमारे और हमारे गुरु के बीच बातचीत होती है, लड़ाई-झगड़ा होता है। हम केवल एक ही बात कहते हैं कि हमारे भीतर कसक है, जान है, दम है। गुरुवर हमसे आप और अधिक काम कराइये, काम लीजिए। हमारी धार को तेज कर दीजिए, ताकि हम अधिक काम कर सकें। समाज की सेवा कर सकें। यही हम दोनों में लड़ाई-झगड़ा होता रहता है। वे कहते हैं कि तू तो बच्चा है और हम कहते हैं कि हम बच्चे नहीं बड़े हैं, आप हमें लड़ाई में भेजिए, फिर देखिए कि हम अपनी पैनी तलवार से क्या करके आते हैं।
परन्तु हमें दुख है कि आपकी और हमारी लड़ाई कुछ घटिया किस्म की होती है। मैं आपको यह बतलाना नहीं चाहता, किन्तु हम जब आपके ख्यालों को, ख्वाबों को पढ़ते हैं तथा देखते हैं, तो हमारा अन्त:करण रो पड़ता है। तब हम यह चाहते हैं कि आपकी सहायता करनी चाहिए। मित्रो, मुझे आदमी की सहायता करनी चाहिए, परन्तु आप जब सहायता माँगते हैं, तो हमें दुख होता है। अब आप बड़े हो गये हैं, तो आपको यह कहना चाहिए कि पिताजी! हम आपकी सहायता करेंगे, परन्तु आप कहते हैं कि पिताजी हम बच्चे हैं, आप हमारी सहायता कीजिए। अभी आप दो सौ मन लेकर चल रहे थे, अब हमारा भी ढाई सौ मन वजन ले लीजिए। ठीक है बेटे, हम तो लेकर चल देंगे। हम तो देश, समाज, राष्टï्र, धर्म, संस्कृति का वजन लेकर चल रहे हैं, तेरा भी लेकर चलेंगे। हमारे अन्दर क्षमता है कि इतना वजन लेकर चल सकें, परन्तु बेटे, इससे बनता क्या है? क्या आपको संतोष हो जाएगा?
मित्रो, इस शिविर में आप को बुलाने के पीछे हमारा विशेष उद्देश्य सन्निहित था। आप कहते हैं कि हमें कुण्डलिनी जागरण सिखा दीजिए, ब्रह्मïवर्चस साधना सिखा दीजिए। बेटे यह मत कह, बल्कि यह कह कि हमें बाजीगरी सिखा दीजिए। मित्रो, बाजीगरी में व्यक्तित्व-निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल बाहरी क्रियाकलापों से, आडम्बरों से वह पूरी हो जाती है। किसान को मेहनत करनी पड़ती है, पसीना बहाना पड़ता है, तब फसल मिलती है, लेकिन बाजीगर बिना किसी मेहनत के केवल जमीन पर से मिट्टïी उठाता है तथा हाथों की हेराफेरी करके पैसा कमा लेता है। इससे क्या मतलब है? हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूजा से, भजन से, सिद्धियों से तेरा क्या मकसद है। यह मैं सब अच्छी तरह जानता हूँ। तू जो देखना चाहता है, वह तो मैं इसी तरह दिखा सकता हूँ। आपको पाने की लालसा कम है, सो दिखाने से काम चल सकता है। आप लोग सिद्धियों के नाम पर जो पाना चाहते हैं, उन चीजों को मैं दिखा दूँ, तो आपको संतोष हो जाएगा। वह चीजें जो आपको मिलेंगी, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। आप छोड़कर भाग जाएँगे।
साथियो, अगर असली भगवान् आपको दिखा दूँ एवं असली भगवान् से साक्षात्कार करा दूँ, तो नारदजी की तरह से आपको अविवाहित रहकर काम करना पड़ेगा। बुद्ध की तरह से बीबी-बच्चों को छोड़कर जाना पड़ेगा। ऐसा भगवान् आपको दिखा दूँ, जो बुद्ध की तरीके से हाथ घसीटते हुए ले जाएँ। शंकराचार्य की तरह माँ को छोड़कर ले जाएँ। ऐसा भगवान् दिखा दूँ जो चाणक्य की तरह से वनवास में रहने के लिए मजबूर कर दे। ऐसा भगवान् आपको दिखा दूँ, जो समर्थ गुरु रामदास की तरह से हाथ पकड़ कर खींचता हुआ चला जाए। आप कहेंगे कि ऐसा भगवान् हमें नहीं चाहिए। गोली मारिए ऐसे भगवान् को, हमें तो तमाशा वाला भगवान् चाहिए जो हनुमान् बनकर दिख जाए, प्रकाश बनकर दिख जाए। अच्छा तो बच्चों के भगवान् चाहिए आपको। आपको मैस्मेरिज्म चाहिए।
गुरुजी! आपको समाधि लगाना आता है। हाँ बेटे, आता है और तेरी भी समाधि लगा देंगे तथा पाँच मिनट में ध्यान लगा देंगे, ऐसा मैजिक हमें आता है। हम तुझे दिखा सकते हैं। हिप्रोटिज्म करके हम तुमको न जाने क्या-क्या दिखा देंगे, तू कहेगा कि हमें खजाने दिखा दीजिए, तो दिखा देंगे। तू कहेगा कि हमें सोने से भरा हुआ एक टोकरा दिखा दीजिये, तो हम तुझे दिखा देंगे। सोने की तिजोरी हमें दिला दीजिए, तो दिला देंगे। क्यों महाराज जी! वह हमारे पास रहेगा कि नहीं? नहीं बेटे, जब तक तू हमारे कब्जे में है, तब तक तो रहेगा, उसके बाद वह नहीं रहेगा। जब तक हमारा असर रहेगा, वह भी रहेगा। इसका क्या मतलब है महाराज? यही मतलब है कि बच्चों जैसा बचकाना मनोरंजन हो जाएगा, बाकी कुछ नहीं। वह तबियत बहलाने का केवल माध्यम होगा। अध्यात्म से इसका कुछ भी लेना-देना नहीं है।
साथियो, मेरा उद्देश्य यह है कि जो असली ब्रह्मïवर्चस् का स्रोत है, उसे आप जानें। हमने इसलिए आपको बुलाया है कि यह विशेष समय है तथा आप महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं, इसलिए आपको बताने के लिए बुलाया है। हमारे गुरु ने भी हमें दिखा दिया था कि हम विशेष व्यक्ति हैं, जाग्रत् आत्मा हैं। उन्होंने कहा कि तुम साधारण आदमी नहीं हो, तुझे असाधारण कार्य करना है। हमने यह महसूस कर लिया है कि हम एक साधारण आदमी की तरह नहीं रह सकते हैं। हमने घरवालों को कह दिया था कि हमने आपके यहाँ जन्म अवश्य ले लिया, लेकिन मैं आपकी बिरादरी का नहीं हूँ तथा आपकी तरह नहीं रह सकता। हमारा काम दूसरा है। आपकी समझ एवं सलाह के मुताबिक मैं नहीं चल सकता। हमें अपनी समझ के मुताबिक चलना होगा, हमारे रास्ते अलग होंगे। अपनी अक्ल के मुताबिक चलना ही सम्भव हो सकेगा। मैं चाहता था कि ऐसा सौभाग्य आपको भी मिल जाता। काश! मैं भी आपको दिखा पाता कि आप कौन हैं? आप एक सामान्य आदमी नहीं हैं, वरन् असामान्य आदमी हैं। मैं चाहता था कि इस युगपरिवर्तन की संधिवेला में आप भी महत्वपूर्ण काम कर सके होते, तो मजा आ जाता।
मेरे गुरू जितने सामथ्र्यवान् हैं, उतना तो मैं नहीं हूँ। उन्होंने हमारे पिछले जन्मों को दिखा दिया था, लेकिन हम तो नहीं दिखा सकते कि आप पिछले जन्मों में क्या थे। आप जिस हैसियत का जीवन जी रहे हैं, वह आपके मुताबिक नहीं है, यह हम जरूर बता सकते हैं। आपकी महत्त्वाकांक्षाएँ व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं होनी चाहिए। अगर कहीं रेलगाड़ी का एक्सीडेंट हो जाए तथा हजारों लोग कराह रहे हो, तो डॉक्टरों का यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि हम सो रहे हैं तथा हमें समय नहीं है। आपको उन घायलों के लिए एक रात जागना चाहिए। एक रात जागने से आप मर नहीं सकते हैं। आपको इस जिम्मेदारी को समझना चाहिए तथा इसके लिए काम करना चाहिए।
मित्रो, हम आपसे यही कह रहे हैं कि आपके महत्त्वपूर्ण जीवन के एक-एक दिन यों ही समाप्त होते जा रहे हैं। उसमें कुसंस्कार भरते जा रहे हैं। आपको यह समझना चाहिए तथा बचे हुए जीवन को समाज के लिए अर्पित करना चाहिए। लोग सोचते हैं कि बुढ़ापे में काम करेंगे, पर यह संभव नहीं है। उस समय कुसंस्कार कुछ करने नहीं देते। हम बार-बार यही कह रहे हैं कि यह विशेष समय है। इसमें आपको कुछ करना है। हमने शिविर में आपको इसी उद्देश्य से बुलाया है। अगर आप समझ सकें, तो आपका जीवन धन्य हो जायेगा। अगर आनाकानी करते रहे, तो फिर मैं क्या कर सकता हूँ। विवेकानंद इसी प्रकार आनाकानी कर रहे थे, तब रामकृष्ण परमहंस ने उनके कंधे पर अपना पैर रखा। विवेकानंद चकमका गये। रामकृष्ण ने कहा कि अब हम मरने जा रहे हैं। हमने तुम्हें अपना सारा तप दे दिया है। अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी शक्ति आज भी विद्यमान है, जो आपको प्राप्त हो सकती है। पर आपको तो बाजीगरी पसंद है। आप मिट्टïी से सोना बनाना चाहते हैं। ब्रह्मïवर्चस् की साधना से गलना नहीं चाहते, तो हम क्या करें।
हमारे गुरुजी ने हमें बुलाया एवं शक्ति प्रदान की। हमने भी आपको एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हेतु यहाँ शिविर में बुलाया, ताकि आप आपत्तिकाल के समय को समझ सकें और आगे आकर कुछ करने को तैयार हो जाते, तो यह शिविर धन्य हो जाता और आप भी धन्य बन जाते। हनुमान् जी ने रामचंद्र जी के लिए अपने आपको झोंका, तो वे सारी की सारी चीजें जो एक संत, तपस्वी को मिलनी चाहिए, वह हनुमान् जी को प्राप्त हो गयीं। हमारे बारे में भी यही बात है। हमने कितना तप किया, यह आप नहीं जानते हैं। हम चार घंटे केवल दूसरे काम में खर्च करते हैं, बाकी समय भगवान् के कार्य में खर्च करते हैं। हमने अपने आपको एक समर्थ सत्ता के साथ जोड़ दिया है। हम उनका काम करते हैं और वे हमारा काम करते हैं। हम दोनों आपस में गुँथे हुए हैं। मैं चाहता था कि हमारा और आपका संबंध भी हमारे गुरु की तरह होना चाहिए। आजकल हम जब साधना करते हैं, तो गुरु का चित्र हमारे सामने होता है। हम चाहते हैं कि हम दोनों घुल-मिल जाएँ। हम भजन तो नहीं करते हैं, परंतु हमारा मन केवल एक ही भजन में रमता है और वह है हम और हमारा गुरु। हम चाहते थे कि आप और हम भी उसी तरह घुल-मिल जाते, तो कितना अच्छा होता। बिजली के निगेटिव और पॉजिटिव तार जब एक हो जाते हैं, तो विद्युत आ जाती है-शक्ति आ जाती है। दोस्ती के बिना आदान-प्रदान की परम्परा कैसे शुरू हो जायेगी? गुरु-शिष्य के प्रेम के बिना आदान-प्रदान कैसे शुरू हो जायेगा? मैं यह चाहता था कि इस शिविर के अंत तक आप एवं हम जरा नजदीक आ जाते तथा आपस में घुल-मिल जाते, तो मजा आ जाता।
मित्रो, हमारा एवं हमारे गुरु का मिलना बड़ा ही महत्त्वपूर्ण रहा। हमारे गुरु की आकांक्षा कामना जो भी हमारे प्रति रही होगी, हमने उसे पूरा करने का पूरा-पूरा प्रयास किया है। जब हम उन दोनों दिनों की अर्थात् गुरु से जुडऩे से पूर्व एवं बाद के दिनों की समीक्षा करते हैं और देखते हैं, तो पाते हैं कि गुरु के आदेश पर जो जीवन हमने जीने का प्रयास किया है, वह ज्यादा फायदेमंद रहा है, लाभ का रहा है। अंधे-लँगड़े की जोड़ी का अपना महत्त्व है। अंधे ने चलकर तथा लँगड़े ने देखकर सारे का सारा काम पूरा किया है। अंधे ने रास्ता तय किया तथा लँगड़े ने रास्ता दिखाया। मित्रो, आप एवं हम मिलकर अगर इस प्रकार कर पाते, तो कितना अच्छा होता। हम आपका सहयोग करते और आप हमारा सहयोग करते, तो मजा आ जाता। आप तो यह कहते हैं कि गुरुजी आप ही हमारा सहयोग कीजिए। बेटे, यही बात आपके काम की नहीं है। हम आपको आशीर्वाद दें, परंतु आप कुछ न दें, तो फिर आपका काम नहीं चलेगा। किसी का रक्त किसी दूसरे के शरीर में लगा दिया जाये, तो वह उस शरीर में केवल तीन दिन तक ही काम देता है। तीन दिन में ग्रहिता के शरीर का सिस्टम काम करने लगता है और वह व्यक्ति अपना काम कर लेता है। आपका सिस्टम जब तक काम नहीं करेगा, हमारा आशीर्वाद काम नहीं करेगा। आप समझते नहीं हैं? दूसरे का आशीर्वाद एवं वरदान आपकी सामयिक आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकता हैं, परंतु आगे केवल आपका पुरुषार्थ, श्रम ही काम करेगा।
इस शिविर में पुनर्गठन के अंतर्गत हमने आपको एक योजना दी है। आप कहेंगे कि गुरुदेव क्या इसके बिना काम नहीं चलेगा? साथियो, आप समझते नहीं हैं कि इन दिनों हिन्दुस्तान के सामने बहुत सी समस्यायें हैं। असम की समस्या है, जो अरबों-खरबों रुपये से भी हल नहीं हो सकती। बंगलादेश की समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी थी कि रुपयों से इसका हल नहीं हो सकता था। हमने उस समस्या का हल अध्यात्म-शक्तियों के द्वारा निकालने का सोचा है। आध्यात्मिक शक्तियाँ ही आड़े समय में कारगर सिद्ध होती हैं। यही शक्तियाँ मनुष्य को बदलने जा रही हैं, युग को बदलने जा रही हैं। हम स्पष्टï रूप से देख रहे हैं कि युगद्रष्टïा अपनी कलाकृति को, अपनी इस सुंदर दुनिया को नष्टï नहीं होने देगा। ऐसा समय इस सृष्टिï पर बीसों बार आ चुका है। जब भगवान् यानि स्रष्टïा तथा जीवन्त आत्माओं ने सहयोग करके इस कार्य को पूरा किया है। आज भी वैसी ही स्थिति है, जिसमें आप जैसे मूर्धन्य आत्माओं को इस प्रकार का काम करना है।
स्रष्टïा अपने द्वारा हमेशा सृजन करता है। कहा गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
ऐसी परिस्थितियों में उस समय स्रष्टïा तो अपना काम करता ही है, परन्तु वैसी संकटकालीन स्थिति में उनके सहयोगियों को भी काम करना पड़ता है। बड़े-बड़े जो काम होते हैं, युग परिवर्तन जो होता है, महाक्रान्तियाँ जो होती हैं, वह भगवान् की इच्छा तथा शक्ति से होती हैं। हमें तथा आपको तो केवल निमित्त मात्र बनना है। अगर आप श्रेय लेने की स्थिति में हों, इस जमाने का महत्वपूर्ण कार्य करने की स्थिति में हों, तो हमारा एक ही निवेदन है कि आप हमारे साथ-साथ चलें, हमारे साथ आएँ। आपको घाटा नहीं पड़ेगा। चिन्ता मत कीजिए, यह घाटे का कोई सौदा नहीं है। मित्रो, कृपणता के अलावा कोई घाटे की बात नहीं होगी। यदि इस क्षुद्रता को आप लोग छोड़ दें, तो फायदा ही फायदा है। मैं आपके भविष्य की गारण्टी ले सकता हूँ, लेकिन आपकी क्षुद्रता एवं कृपणता की गारण्टी नहीं ले सकता। इसे छोडऩे की एवज में जो महानता तथा दूसरी चीजें मिलेंगी, वह बड़े ही फायदे की होंगी।
इस शिविर में हमने आपको इसीलिए बुलाया था और बार-बार पूछा था कि क्या ऐसा करना सम्भव है? मैं जानता हूँ कि आपके पास अक्ल बहुत ज्यादा है, परन्तु क्या आप हिम्मत कर सकते हैं? हम तो चाहते हैं कि आपकी अक्ल कम हो जाए, आपकी महत्वाकांक्षाएँ कम हो जाएँ तथा आपकी भावना एवं अन्तरात्मा विकसित हो, तो काम बन जाएगा। इसलिए आपको बुलाया था और आज विदा कर रहे हैं। आप हमारे आदर्श और सिद्धान्त यहाँ से ले जाएँ तथा अपने चिन्तन, चरित्र को नये युग के निर्माण में लगा दें। मैं चाहता हूँ कि आपके सोचने के तरीके बदल जाएँ। आप नये युग के अनुरूप ढलते चले जाएँ। अभी तो आपने अपना सारा का सारा समय भौतिक आवश्यकताओं के लिए लगाया है। आपने तो जीवन केवल अपने लिए जिया है। आपने पूजा की है, लेकिन अगर आपने वास्तव में पूजा के स्थान पर भजन किया होता, सेवा-साधना की होती, तो आपकी आँखों के अन्दर से एक तेज दिखाई पड़ता। आपकी निगाहों के सामने जो भी आते, बदलते हुए चले जाते, परन्तु आपने कभी भी इस तरह का प्रयास नहीं किया। नये युग के लिए अगर आप अपने चिन्तन, भावना, चरित्र को लगा देते, तो आप तथा हम दोनों महान् हो जाते। जैसे कि हमारे गुरु और हम हो गए। पूजा तो पुजारी करता है और वह भी नौकरी के लिए, धन के लिए, औलाद के लिए करता है। यही कारण है कि किसी पुजारी के पास भगवान् नहीं जाता। यदि आप भी इसी तरह पुजारी हैं, तो आपके भी भगवान् एक लाख कोस दूर हैं।
मित्रो, हम आपसे यह निवेदन कर रहे थे कि आपकी पूजा यहाँ से जाने के बाद ऐसी चमके कि आपकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने की माँगने की बात समाप्त हो जाए और आप निरन्तर भगवान् के लिए गलने की बात सोचने लगें। इसी उद्देश्य से आपको यहाँ बुलाया था। हम चाहते हैं कि समाज में एक-दूसरे से प्रेम करने की पद्धति आप प्रारम्भ करें। आप पति-पत्नी आपस में प्रेम करें। अभी तो आपका प्रेम बिल्ली-चूहे की तरह है, राक्षसों की तरह है। आपको अपने साथी को-सहधर्मिणी को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, तरक्की की ओर ले जाने की भावना आए। हम चाहते थे कि आप यहाँ से भगवान् को गोद लेकर जाएँ। आपके तीन बेटे हैं, तो आज से चार बच्चे मान लें। अगर बच्चे को फीस देते हैं, भोजन कराते हैं, तो भगवान् को केवल अक्षत,फूल न चढ़ाएँ, उनके लिए भी त्याग करें। देश, समाज, धर्म, संस्कृति के लिए आप अपने प्यार, अक्ल, भावना, श्रम, पैसे का एक हिस्सा यानी अंशदान देना चाहिए। हमने आपको अपने कुटुम्ब में सम्मिलित होते समय अंशदान, समयदान की बातें बतलायी थीं। हम चाहते है कि आपको फूल, अगरबत्ती चढ़ाने की अपेक्षा आदर्शों के लिए-सिद्धान्तों के लिए अंशदान देना चाहिए।
साथियो, आप यहाँ से जाएँ, तो एक नमूना बनकर जाएँ, ताकि समाज में आपका प्रभाव पड़े। आप जब लोगों को सिखाने जाएँगे, तो लोग यह पूछेंगे कि आप तो हमें प्यार, त्याग, श्रम, सेवा की बात बतला रहे हैं, पर क्या आपने इसमें से कुछ ग्रहण किया है? अपने आप में धारण किया है? इसका जवाब दे देंगे, तो आपकी बात लाखों-करोड़ों आदमी मानेेंगे। हमने जो लोगों को सिखाया है, बताया है, पहले उसे हमने अपने जीवन में धारण किया है। इसी का प्रभाव है कि लोग हमारी बातें मानते हैं। आप शिकायत करते हैं कि गुरुजी शाखा वाला ठण्डा पड़ गया है। बेटे, तू अपने आपको गरम कर ले, सब तेरी बातों को मानेंगे तथा तेरे रास्ते पर चलेंगे। हम आपको युग-सृजेता, प्रज्ञापुत्र के रूप में, जाग्रत आत्मा, महामानाव के रूप में देखना चाहते हैं। आप यहाँ से जाने के बाद अपनी वाणी के अन्दर ब्रह्मïतेज पैदा करें। आप सभ्य आदमी की तरह से जीवन यापन करें। आप वकील हैं, तो आपको काले कपड़े पहनकर कार्य तो करना चाहिए, पर हृदय के अंतरंग की मिठास को भी विकसित करना चाहिए। आप को अपनी वाणी का, व्यवहार का, सभ्यता का विकास करना चाहिए।
आप यहाँ से जाएँ, तो कुछ लेकर जाएँ। आप यहाँ आते हैं, तो कुछ लेकर जाएँ, बनकर जाएँ। हमारे पास जो लोग आते हैं और आपके बारे में पूछते हैं, तो उनको हम क्या जवाब देंगे। आपके अन्दर संयमशीलता, विनम्रता, सहिष्णुता आनी ही चाहिए। आपको जो कुछ भी मिला है, उसे केवल शरीर के लिए न खर्च करे, भगवान् के लिए भी खर्च करना चाहिए। आप माँ-बाप से चार आना कब तक माँगते रहेंगे। भगवान् से माँगने की अपेक्षा भगवान् को देने के लिए आगे आना चाहिए। गुरुजी से माँगने की अपेक्षा गुरुजी को देने के लिए आगे आना चाहिए। आपके कुर्ते के ऊपर तथा अंत:करण में ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल जलनी चाहिए, ताकि भीतर का अंधकार दूर हो सके। हमारे स्वार्थ में से कुछ परमार्थ के लिए उपयोग होना चाहिए। आप थोड़ा-सा हिस्सा लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए, आदर्शों के लिए निकालिए।
मित्रो, हमने इसीलिए यह शिविर बुलाया था। यह विशेष समय है, विशेष काल है, यह बतलाने के लिए आपको बुलाया था। पेट भरने और औलाद पैदा करने की समस्या तो जब से दुनिया बनी है, तब से रही है और रहेगी। यदि आप भी इसी में लगे रहेें, तो यह जीवन बेकार हो जाएगा। उठिए, जागिए और श्रेष्ठï कामों के लिए तनकर खड़े हो जाइए। इसी अध्यात्म को बतलाने के लिए हमने आपको बुलया था, अगर आप समझ सकें, तो हमारा यह श्रम सार्थक हो जाएगा और आप भी धन्य हो जाएँगे। आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्ति॥
परिष्कृत मन:स्थिति ही स्वर्ग है
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो
योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो!
भगवान् की समीपता और कृपा पाने के लिए जिन दो कार्यों की आवश्यकता होती है, उनका विवेचन हम इन शिविरों में करते आ रहे हैं। इन सबका एक ही उद्ïदेश्य है कि आप लोग जो यहाँ आये, अब यहाँ से जाने के साथ-साथ भगवान् के साथ रिश्ता मजबूत बनाते हुए जाएँ। रिश्ता मजबूत करने के साथ-साथ उनकी कृपा भी प्राप्त करेें। भगवान् का रिश्ता अपनाना केवल धार्मिक कर्मकांड ही नहीं है, केवल परलोक की तैयारियाँ ही नहीं है, मरने के बाद मुक्त या स्वर्गलोक प्राप्त करने का आधार ही नहीं है, बल्कि इसी जीवन मेें सुख और शान्ति से ओतप्रोत होने का रास्ता है। मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा या नहीं? यह हम नहीं जानते, लेकिन इसी जीवन मेें स्वर्ग स्थापित कर सकते हैं, आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर चलते हुए।
मित्रो, साधना नगद धन है, यह उधार नहीं! कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनका परिणाम तुरंत मिलता है, लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनका परिणाम तुरंत नहीं मिलता। विद्या पढऩे का परिणाम शायद तुरंत न मिले, लेकिन जहर खाने का परिणाम तुरंत ही मिल जाता है। गलत काम करने का परिणाम देर से मिले, लेकिन आपके दोष और दुर्गुणों के परिणाम तुरंत ही मिल जाते हैं। इसी तरीके से अध्यात्म एक ऐसी प्रक्रिया का नाम है, जो मनुष्यों को तुरंत लाभ प्रदान करती है, जिसका परिणाम तुरंत मिल जाता है।
आज हमारे पास नकली अध्यात्म है। नकली अध्यात्म से परिणाम प्राप्त करने में देर लगती है और लम्बा इंतजार करना पड़ता है और यह उम्मीद लगानी पड़ती है कि हमारी मौत आयेगी और भगवान् के यहाँ जायेंगे और अध्यात्म का परिणाम इस तरीके से मिलेगा।
स्वर्ग के बारे में यह ख्याल है कि कोई स्थान विशेष है, जगह विशेष है। हमारे ख्याल से जहाँ तक हम समझ पाये हैं कि किसी स्थान का, जगह का नाम स्वर्ग नहीं है! बल्कि स्वर्ग आँखों से देखने का एक तरीका है और नरक भी आँखों से देखने का तरीका है, जैसे फोटोग्राफ लिए जाते हैं। किसी आदमी का हम सामने से फोटोग्राफ लें, तो उसकी आँखें, नाक, कान दिखायी देंगे, चेहरा दिखायी देगा और हँसता हुआ मनुष्य दिखायी देगा, अगर पीछे से किसी आदमी का फोटोग्राफ लें, तो उसके बाल और पीठ दिखायी देगी। उसमें नाक, कान, आँखें, मुँह कुछ भी दिखायी नहीं देता है। फोटोग्राफ आ गया, यह किस आदमी का है, पता ही नहीं। क्योंकि उसकी पूछें-दाढ़ी तो हैं ही नहीं। उसका चेहरा तो है ही नहीं, माथा तो है ही नहीं, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं, कि उसके यह सब चीजें नहीं हैं। पीछे से फोटोग्राफ लेने के कारण ये सब चीजें दिखायी नहीं पड़ती। दुनिया भी ठीक इसी प्रकार से है। हमारा जीवन और समस्याएँ भी इसी प्रकार से हैं और परिस्थितियाँ भी ठीक इसी प्रकार की हैं। जब हम इन सबको देखने का तौर-तरीका या नजरिया बदलते हैं, तो हमें अपनी समस्याएँ, विपत्तियाँ दिखायी पड़ती हैं और सब चीजें उल्टी-पुल्टी दिखायी देती हैं। हमें अपने जीवन में अभाव मालूम पड़ते हैं।
एक आदमी था, जो कह रहा था कि यह अभागा गुलाब ऐसी परिस्थिति में पैदा हुआ कि इसके भाग्य फूट गये। काँटों में पैदा हुआ, क्या कर्म में लिखा कर लाया? जहाँ इसका जन्म हुआ वही काँटे-ही काँटे। दूसरा आदमी कह रहा था- कैसे भाग्यवान काँटे हैं कि गुलाब के साथ पैदा हुए। क्या सुंदर गुलाब है। जो काँटा मेें उगा है। गुलाब कितना सौभाग्यशाली है, जो कि काँटो के साथ जुड़ा हुआ है। यह देखने का तरीका है। जो लोग जीवन को उल्टे तरीके से देखते हैं, उनको अपना जीवन कठिनाइयों से, अभावों से, संकटों से, विपत्तियों से भरा मालूम पड़ता है। वैसे हमारे सुखों में अभाव नहीं, हमारी शांति में अभाव नहीं है। लेकिन जब हम आसमान की ओर देखते हैं तब हमको बहुत मुसीबत मालूम पड़ती है। हमारा बड़ा वाला अफसर दो हजार रूपये कमाता है और हमको पाँच सौ पचास रूपये भेजता है। बड़ा क्लेश होता है, ईष्र्या होती है कि बड़ा अफसर हमारे घर के पास रहता है। कितना बढिय़ा मकान, मोटरकार, नौकर-चाकर और हमारे पास साईकिल है। हम कहीं भी जाते हैं, तो साईकिल से जाते हैं। कोठरी में रहते हैं। हम कभी देखें, तो दुनिया में हमसे भी ज्यादा परेशान, दुखी लोग हैं। धिक्कार है हमारा जीवन, जो हम दुखी होते है हमसे भी ज्यादा दुखी वे लोग हैं, जो झोपड़-पट्टी में रहते हैं, जिनके पास पहनने क ो कपड़े नहीं हैं, खाने को अन्न नहीं है। किसी दिन नौकरी मिल जाती है और किसी दिन यदि उनके साथ मुकाबला करें, तब हमको मालूम पडेगा कि हमारे सुखों को क ोई ठिकाना नहीं है। हम बहुत सुखी हैं।
मित्रो, सुख कोई वस्तु नहीं है। लोगों के देखने का दृष्टिïकोण का नाम ही सुख है। लोगों का ख्याल है कि जिसके पास धन-संपत्ति, नौकर-चाकर, कार-बंगला आदि है। वही सुखी होते हैं। नहीं यह बात गलत है। हमारा संपत्ति वाले लोगों से मिलना-जुलना रहा है। संपत्ति वाले सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक दुखी और परेशान नजर आते हैं। केवल हमें मालूम पड़ता है कि ये लोग सुखी हैं। हम भी वही चीजें पाने की कोशिश करते हैं, नकल करते हैं, लेकिन जब इनका दिल खोलकर देखा जाए, समझने की कोशिश की जाए, तो इन्हें सामान्य आदमी से भी ज्यादा दुखी पाते हैं।
हेनरी फोर्ड संसार का सबसे बड़ा आदमी जब मरने लगा, तो उसने अपनी डायरी में एक वृत्तांत लिखा कि मैं अपनी फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को मोटी-मोटी रोटियाँ खाता हुआ देखता हूँ गहरी नींद में सोता हुआ देखता हूँ, तो मुझे ईष्र्या होती है, डाह होती है कि मैं हेनरी फोर्ड संसार का सबसे धनी व्यकित, पर मुझे कभी नींद नहीं आयीं। मुद्ïदतों से सोया नहीं, खाना भी कभी हजम नहीं हुआ। उन्होंने लिखा-हे भगवान्! जब मुझे मौत आये और मैं जब दुबारा जन्म लँू, तो मैं चाहँूगा कि मुझे इसी फैक्ट्री में लोहा काटने का काम मिल जाये। मैं मजदूर के साथ काम करूँ। छड़ी चलाऊँ, हथौड़ा चलाता रहूँ, ताकि मेरा पेट ठीक से काम करे, मुझे नींद अच्छी आये। हेनरी फोर्ड समझता था कि मजदूर सबसे सुखी व अमीर आदमी हैं और मजदूर समझते थे कि हेनरी फोर्ड सबसे अमीर व सुखी आदमी है। इसी तरीके से दोनों एक-दूसरे को सुखी व अमीर आदमी समझते थे। कौन सुखी है और कौन दुखी है? जहाँ तक हम समझते हैं कि यह मनुष्य के ख्याल है, जो उसे सुखी व दुखी बनाते हैं।
एक था मल्लाह और एक था उसका पुत्र। दोनों एक बड़ा नाव पर सवार होकर समुद्र में उसे खेते हुए जा रहे थे। थोड़ी देर बाद तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। मल्लाह ने अपने बेटे से कहा कि ऊपर जा और अपनी पाल को ठीक तरीके से बाँध दे। पाल को अगर ठीक तरीके से बाँध दिया जाएगा, तो हवा का रुख धीमा हो जाएगा और हमारी नाव डगमगाने से बच जाएगी। बेटा बाँस के सहारे ऊपर चढ़ गया और पाल को ठीक तरीके से बाँधने लगा। उसने जब ऊपर की ओर देखा, तो उसे चारों तरफ समुद्र की ऊँची लहरें दिखायी दे रही थीं। जोरों से हवा चल रही थी। सब ओर सुनसान नजर आ रहा था। अँधेरा छाता जा रहा था। कोई भी व्यक्ति दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। यह सब देखकर बेटा चिल्लाया- ''पिता जी! मेरी तो मौत आ गयी, देखिये दुनिया में प्रलय होने जा रही है।ÓÓ तब उसका पिता जी चिल्लाया—''बेवकूफ सिर्फ नीचे की ओर नजर रख और इधर-उधर मत देख।ÓÓ बाप उस वक्त हुक्का गुडग़ुड़ा रहा था। बेटा नीचे चला आया।
अपने बेटे की तरफ हुक्का बढ़ाते हुए उसने कहा कि अपने से ऊपर देखने वाले महत्वाकांक्षी व्यक्ति दिन-रात जलते रहते हैं। लोकेषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा वाले मनुष्यों की कामनाएँ असीम और अपार हुआ करती हैं। ऐसे व्यक्ति को न शांति मिलने वाली है और न मुक्ति! मनुष्य का जीवन शांति वाला होना चाहिए, अशांत और विक्षुब्ध नहीं, लेकिन यह सब नहीं होता।
मित्रो, दोनों चीजें मालूम तो पड़ती है एक समान, लेकिन इन दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। जीवन में उन्नति करना एक बात है और प्रगति करना दूसरी बात। इसके लिए आदमी को धैर्य, साहस, मुसकराहट, संतुलन, परिश्रम की जरूरत है। इन पाँचों के सहारे उन्नति के रास्ते खुलते हुए चले जाते हैं और मनुष्य प्रगति करता हुआ चला जाता है। जो छोटे-छोटे आदमी आगे बढ़े हैं और सफलताएँ पायी हैं, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त की हैं, उनके संबल और सहारे रहे हैं-संतोष, उत्साह परिश्रम, संतुलन। इन चीजों के द्वारा ही वे आगे बढ़े हैं। लेकिन जिन्होंने अपने आप को आकांक्षाओं की आग में जलाना शुरु किया कि हमको ये नहीं मिला, हमको वह नहीं मिला, हम तो मर जाएँगे, ये करेंगे, वे करेंगे। जो व्यक्ति परिश्रम से घबराते रहे, बड़बड़ाते रहे, जिन्होंने अपना सारा-का-सारा मानसिक संतुलन खो दिया, वे जीवन में क्या कुछ प्राप्त कर सकेंगे? जो वस्तुओं में शांति की तलाश करते रहेंगे, वे अपने गिरह की भी शांति खो बैठेंगे।
मित्रो! अध्यात्म जीवन जीने की प्रणाली है, जीवन जीने की प्रक्रिया है। मरने के बाद स्वर्ग मिलता है कि नहीं, यह मैं नहीं जानता, लेकिन मैं यह जानता हँू कि आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को यदि हम जीवन में समाविष्टï कर सकते हों, तब हमारे चारों ओर स्वर्ग बिखरा हुआ दिखाई पड़ेगा। तस्वीर खींचने का यदि हमको सही ढंग मालूम हो, तो हम इस दुनिया की बेहतरीन तस्वीरें खींच सकते हैं और अपने आप की भी। हमारी भी तस्वीर बेहतरीन है, लेकिन यदि हमने दुनिया की खराब वाली तस्वीर देखना शुरू किया, अपना कैमरा कहीं गलत जगह पर फोकस कर दिया, तब हमको क्या चीजें मिलने वाली हैं? तब सबसे ऊपर की शक्ल या सिर आएगा या फिर पैर आएगा और यदि उसी आदमी को बैठाकर फोटो खींचेेंगे, तो मालूम पड़ेगा कि कोई लम्बा-लम्बा भूत खड़ा हुआ है। कैमरे का लेन्स वही है, जिससे आपने व्यक्ति को सामने खड़ा करके फोटो लिया था। कैमरे का लेन्स वही है, जो आपने पीठ पीछे से लिया है, खड़ा करके। आपको दुनिया का नहीं, अपने अंतरंग जीवन का फोटो लेना है और उसके आधार पर अपनी शांति, सुख, समृद्धि का मुल्यांकन करना है। अध्यात्म को अपने जीवन का अंग बनाना है।
साथियो! आध्यात्मिकता एक फिलॉसफी है- एक दर्शन है, सोचने- समझने की प्रणाली है, जीवन जीने की कला है। हमें अपनी समस्याओं के बारे में, कुटुम्ब के बारे में, अपनी महत्त्वकांक्षा के बारे में, अपने पुरुषार्थ के बारे में सोचना है। यदि हमारा विचार करने का क्रम ठीक हो, तो हम आपको आशीर्वाद दे सकते हैं कि आपका जीवन सुखों से भरा हुआ हो, आप प्रसन्न रहें, उन्नति करें। आपका जीवन उल्लास से भरा हुआ हो सकता है, यदि आपको सही ढंग से देखना आता हो तब। मान लीजिये किसी के कुटुम्बी की मौत होने वाली है। ठीक है आपको अपना भाई-भतीजा, चाचा-ताऊ, दादा-दादी प्यारे थे, लेकिन दूसरों को भी आवश्यकता हैं- अपने भाई-भतीजों को गोद में खिलाने की। यदि हम उनको चिपकाकर रखेंगे, तो किसी के घर ढोलक कैसे बजेगी? मिठाई कैसे बाँटी जाएगी? कोई माता अपने लाल को कैसे निहारेगी? अपने लाल को पाकर कैसे धन्य होगी? एक का आनंद-दूसरे का शोक, एक का नफा-दूसरे का नुकसान-यही दुनिया का क्रम है।
यदि हमारे विचार करने का क्रम सही हो जाए तब हमें बढिय़ा-से-बढिय़ा चीजें देखने को मौका मिलेगा। यदि इन आँखों का लेन्स बदल दिया जाय और उस लेन्स से हम उन चीजों को देखें, जो देखने लायक हैं, तो मजा आ जाएगा। हमारे पास में ब्लॉक बनाने वाला रहता है। उसके पास कई तरह के कैमरे रहते हैं। हम उससे तस्वीरें बनवाते रहते हैं, जिनमें कई तरह के रंग मिले रहते हैं। उसके पास कई रंग के ब्लॉक हैं, जिनसे वह तरह-तरह के रंगों से रंंग-बिरंगे चित्र तैयार कर लेता है। अलग-अलग तस्वीर की अलग-अलग प्लेटें तैयार करता है और सुंदर चित्र छाप देता है।
इसी तरह मित्रों! मनुष्य के भीतर दुष्टïताएँ, कमियाँ, बुराइयाँ और मूर्खताएँ होती हैं, लेकिन दुनिया में कोई भी मनुष्य इस तरीके का नहीं बनाया गया है, जिसके अंदर कमियाँ ही कमियाँ हों, बुराइयाँ ही बुराइयाँ हों। ऐसा इन्सान हमने आज तक नहीं देखा कि जिसमें सिर्फ कमियाँ और बुराइयाँ ही हों, अच्छाइयाँ न हों। कसाई के भीतर भी अच्छाई होती है। वह भी अपने बच्चों से प्यार करता है। डाकू के भीतर भी विशेषता होती है और वह है, उसका साहस। डकैती के कारण उसको परलोक में दंड मिलता है, उसको जेल जाना पड़ता है। वह लम्बी-लम्बी सजाएँ भुगतता है। लेकिन उसके साहस के कारण उसको यश भी मिलता है, और पैसा भी मिलता है। रात को जंगलों में घुसने पर जब हमको भय का भूत सताता है, तब वह अपने कंधे पर बंदूक रखकर लंबे-लंबे डग भरता है। यह उसकी विशेषता है।
मित्रों! हर मानव विशेषताओं से भरा हुआ है। हमारे देखने वाले आँखों के लेन्स यदि सही हों, आँखें सही हो तो हम वह फोटोग्राफ खींच लेते हैं, जैसा कि हमारे पड़ोस में रहने वाला फोटोग्राफर हर ब्लॉक को अलग निकाल लेता है-पीले रंग को अलग निकाल लेता है, लाल रंग को अलग और नीले रंग को अलग निकाल लेता है। यदि फोटोग्राफ हर रंग को अलग कर सकता है, तो हममें से हर मनुष्य यदि अच्छाइयों को देखना शुरू करें और अच्छाइयों को ही प्रोत्साहन दे, अच्छाइयाँ बढऩे का प्रयत्न करे, तो सर्वत्र अच्छाइयाँ-ही अच्छाइयाँ नजर आएँगी।
आप कहेंगे कि बुराइयों से कैसे लड़ा जाएगा, उनको कैसे खत्म किया जायेगा? बुराइयों से लडऩे के बहुत से तरीके हैं। उनमें से एक तरीका यह है कि उस पर लांछन लगा करके तथा मारपीट करके व गाली-गलौज करके उसको अपमानित करते हैं। अपमानित करने के बाद में उसे ढीठ बनाते हैं। दूसरा तरीका बुराइयों को दूर करने का यह है कि हम अपने आपको सुधारें। अपने आपको सुधारने के लिए बड़े-से बड़े काम किये जा सकते हैं। कुशल डॉक्टर अपना तेज चाकू ले आता है, बड़े प्यार से-मोहब्बत से मरीज को कभी पेट पर चलाता है, तो कभी टाँग के ऊपर, तो कभी सिर के ऊपर चलाता है। जगह-जगह चाकू चलाता है और अॅापरेशन चलता रहता है, परंतु यह सब कुछ वह बिना गुस्से के करता है, बिना घृणा के चाकू चलाता है। डॅाक्टर के ऊपर आप मुकदमा नहीं चलाते, उसको सजा नहीं दिलातेे, क्योंकि वह आपकी जान बचाता है। पेट में छूरा घोंप देने वाले, मारने वाले को दस साल की सजा हो जाती है, लेकिन ऑपरेशन करने वाले, चाकू चलाने वाले डॅाक्टर की तरक्की की जाती है। यह सब नीयत का कमाल है। नीयत अच्छे व्यवहार के लिए भी की जाती है और इसी आधार पर अच्छे लोगों को बदनाम भी किया जा सकता है।
मित्रों! यदि हम सबका दृष्टिïकोण बदल जाय, तो क्या-से-क्या हो सकता हैं? बेलनगंज, जो कि आगरा शहर का एक मोहल्ला है, वहाँ के एक सम्पन्न व्यक्ति को पन्द्रह दिन से नींद आनी बंद हो गयी। साथ-ही-साथ उसे ऐसी शिकायत हो गयी कि दिमाग की नसें फटने लगीं और ऐसा लगने लगा कि उसकी मौत हो जाएगी। आँखें बिलकुल लाल-लाल हो गयीं। यह सब लक्षण देखकर घरवालों को लगने लगा कि सचमुच उसकी मौत हो जाएगी। पंन्द्रह दिनों से नींद न आने के कारण उसका बुरा हाल था। किसी ने कहा था कि मथुरा में एक आचार्य जी रहते हैं, उनके पास जाने से कई आदमी अच्छे हो गये हैं, तुम भी उन्हीं के पास चले जाओ। इससे पूर्व उन्नाव की एक महिला, जो एक तहसीलदार की पत्नी थीं और वहीं प्रिंसीपल थी, आयी। उस स्त्री का बुरा हाल था। वह खूब रोया करती थी। किसी ने उससे कहा कि आचार्य जी के पास मथुरा चली जाओ। वह मेरे पास आयी। ऐसे ही किस्से-कहानियाँ किसी ने उसे सुना दिये थे। वह ठीक होकर चली गयी।
हाँ, तो आगरा वाले व्यक्ति को लोग मेरे पास लाये और कहा कि इनको पंन्द्रह दिन से नींद नहीं आयी हैं। आँखें सूजकर लाल हो गयी हैं। नसें फटी जा रही हैं। अगर इनको नींद नहीं आयेगी, तो यह मर जाएँगे। महाराज जी, इनका इलाज कीजिए। मैने कहा कि इनका इलाज किया जा सकता है और इन्हें अच्छा भी किया जा सकता है। उनके साथ आये हुए लोगों को हमने दूसरे कमरे में भेज दिया। फिर उनसे पूछा कि क्या बात है? उन्होंने कहा कि हमारे साथ एक कांड हो गया है। हमारे घर में इनकम टैक्स ऑफीसर ने छापा मारा था, जिसमें दो बही-खाते ले गये थे। यह सब हमारे मुनीम ने कराया था। उसने जाकर ऑफीसर को बताया और अपने साथ सेल्स टैक्स आफीसर व इनकम टैक्स ऑफीसर को ले आया। छापा मारने के बाद में हमारे दोनों बही-खातों को पुलिस ले गयी। उसके बाद हमारे ऊपर केस चलाया गया। हमारी गिरफ्तारी हुई। अब हम जेल से छुट गये हैं, लेकिन हमको भय लगता है कि अब न जाने क्या होने वाला है। अब हमारा क्या होगा?
यह सब सुनकर मैंने राहत की साँस ली और कहा कि आप थोड़ी देर आराम से बैठ जाइये। आपकी बीमारी तो दूर हो जाएगी, लेकिन इसके साथ-साथ हम आपको छुटकारा दिलाना चाहते हैं। वह हँसने लगा कि कैसे दिलाएँगे। मैंने पूछा-अच्छा बताइये, आपके असली और नकली बहीखाते में वास्तव में कितने खर्च का अंतर है? उन्होंने कहा—दस लाख रुपये करीब का अंतर है। फिर पूछा-अगर आपको इनकम टैक्स देना पड़े, तब कितना नुकसान भरना पड़ेगा। करीब बीस लाख रुपये का अंतर है। हमें बीस लाख रुपये देने पड़ेंगे। मैंने उनसे सहानभूति जताई और कहा आपके पास क्या-क्या समान है तथा कितनी संपत्ति व जायदाद है? वह कागज-पेन्सिल लेकर बैठ गये और नोट करने लगे। उन्होंने बताया कि फैक्ट्री व उसमें लगी मशीनों तथा बैंकों में जमा पैसा, इधर-उधर की लेन-देन का, सब मिलाकर कोई पचास लाख रुपये की संपत्ति है। हमने कहा कि इसमेें से बीस लाख निकाल दिया जाए तो कितना रुपया बचेगा? उनने कहा-तीस लाख।
मैंने कहा—मेरे पास तीस पैसे भी नहीं हैं, फिर भी देखिये—अगर गवर्नमेन्ट आपके बीस लाख रुपये ले लेती है, तो भी आपके पास तीस लाख बचे रहते हैं। तीस लाख रुपये किसे कहते हैं? तीस लाख रुपये के तीस हजार प्रति महिने ब्याज होगा। आप जब मुकदमे से छूट जाएँ और बीस लाख जुर्माना चुका दें, तब आप मुझे बुला लेना। आपको एक क्वार्टर दिला देंगे और शेष रुपये बैंक में जमा करा देंगे। आपको तीस हजार रुपये महीने की आमदानी उससे मिलता रहेगी और आप घर बैठे आनंद किया करेंगे। बात उनकी समझ में आ गयी। जब मैंने उनसे पूछा कि आपका महीने में कितना खर्च होता है, तो उनने कहा कि पाँच हजार। मैंने कहा एक महीने में कितना बचा रहता है? पच्चीस हजार। मैंने कहा पच्चीस हजार रुपया एक महीना में बच जाता है, तो साल भर में कितना हो जाएगा? उनने कहा तीन लाख रुपये। अगर आप इतना रुपया सात-आठ साल तक बचायें, तो कितना रुपया हो जाएगा? उनने कहा—तीस लाख रुपये।
मैंने कहा कि अगर गवर्नमेन्ट आपका बीस लाख रुपये ले ले, तो आपका क्या हर्ज होगा? आप सोच लीजिएगा कि सात-आठ साल तक आपने कमाया ही नहीं। वह मुस्कराने लगा। फिर मैंने उसे माताजी के पास भेेज दिया। मैंने पूछा कि क्या आप पतली रोटी खाते हैं? आप माताजी के हाथ की रोटी खाइए, मोटे हो जाएँगे। उस रात उसे पूरी नींद आयी। लोगों ने कहा-क्या आप इनसे जप वगैरह कराएँगे? मैंने कहा-नहीं। उसके जाने के बाद घर वालों की चिट्ïिठयाँ आयीं की न जाने आपने कौन-सा मंत्र फूँक दिया है कि वह अब एकदम स्वस्थ व प्रसन्नचित्त हैं।
मित्रों! यदि हमारे सोचने का, देखने का ढंग बदल दिया जाय, तो जीवन में आनंद और उल्लास आ जाएगा। तब सारा जीवनक्रम ही बदल जाएगा। लोग मरने के बाद स्वर्ग का, मुक्ति का ख्वाब देखते रहते हैं। मरने के बाद स्वर्ग देखने की इच्छा कम-से-कम मेरे जैसा पसन्द नहीं करेगा। मुसलमानों के स्वर्ग के बारे में मैंने पढ़ा है कि वहाँ पर शराब की नहरें बहती रहती हैं। जब पानी हो तो शराब, कुल्ला करना हो तो शराब, नहाना हो तो शराब। मुसलमानों की जन्नत में सत्तर हूर व बहत्तर गुलमें हैं, जो सेवा करते हैं। मित्रों, अगर हमको इस तरीके की जन्नत मिल जाये, तो मैं मर जाऊँगा। अगर कोई आदमी रेलगाड़ी में बीड़ी पीता है, तो मैं अपना सिर खिड़की से बाहर निकाल लेता हँू, लेकिन जहाँ सब लोग शराब पीतें हों, ऐसी जन्नत में जाकर क्या करूँगा। जिस जन्नत में हूरों के, अप्सराओं के नाच-गाने चलते हों, ऐसी जगह जाना मैं कभी पसंद नहीं करूँगा।
हिंदुओं के स्वर्ग के बारे में भी मैंने पढ़ा है कि वहाँ इंद्र का दरबार लगा रहता है और सुबह शाम तक नाच-गाना ही चलता है। ऐसा स्वर्ग देखने की जरूरत होगी, खाने के लिए बढिय़ा-बढिय़ा चीजें होंगी और घूमने के लिए मोटरकारें होंगी, तो मैं अशोका होटल, नटराज होटल चला जाऊँगा। दो सौ रुपये रोज का फ्लैट लूँगा, पैसे कमा कर लाऊँगा और खूब मौज करूँगा। जब ऐसा स्वर्ग मुझे इसी जिंदगी में धरती पर मिल सकता है, तो फिर मैं मरने का इंतजार क्यों करूँ। यदि इसी का नाम स्वर्ग है, खाने-पीने की सुविधा, पहनने-ओढऩे की सुविधा का नाम, नाच-रंग देखने का नाम स्वर्ग है, तो वह स्वर्ग तो यहीं पर है। कम-से-कम मेरे जैसा आदमी जिसने परिश्राम से प्यार किया है, जिसे पसीना बहाये बिना नींद नहीं आती। जो आदमी श्रम के बिना, सेवा के बिना जिन्दा नहीं रह सकता, ऐसा पाया है मैंने मन। मुझे तो उस स्वर्ग में भागना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि कृपा करके मुझे यहाँ से विदा कर दीजिये। क्योंकि मुझे गरीब, पिछड़े, असहाय लोगों की सेवा करनी है।
एक बार भगवान् बुद्ध से पूछा गया कि आपको तो मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा? उन्होंने कहा—नहीं, मैं तो स्वर्ग जाने का अधिकारी तब होऊँगा, जब हर व्यक्ति स्वर्ग जाने का अधिकारी होगा, सब को सुख व शांति मिलेगी, सब सुखी होंगे, तब तक मैं अपनी बारी काटकर दूसरे व्यक्तियों को क्यू में लगाता रहूँगा। सबके बाद में 'मैंÓ अंतिम व्यक्ति होऊँगा और स्वर्ग जाने की ख्वाहिश करूँगा। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक मैं लोगों को आगे बढ़ाता हुआ चला जाऊँगा। मित्रो! बुद्ध की वह मनोभूमि, ऋषि-मुनियों की वह मनोभूमि, जिसमें उन्होंने कहा-
न त्वहम् कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवं।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनाम् आर्तनाशनम्॥
तात्पर्य यह कि प्राणियों का आर्त और प्राणियों का दुख निवारण करने के लिए यदि हमें मौका मिल जाता है तो यह हमारे लिए वरदान है और यही हमारा सौभाग्य है।
एक बार कुंती से भगवान् कृष्ण ने कहा कि हे कुंती! वरदान माँग। मैं अब जा रहा हूँ। मैं तो भगवान् हूँ, तू जानती है क्या? कुंती ने कहा-मैं जानती हूँ कि आप भगवान् हैं। मैं आपसे एक ही वरदान माँगती हूँ कि मुझे कष्टïसाध्य जीवन दें, गरीब लोगों वाला जीवन जिऊँ ताकि मैं जान सकूं कि गरीबी क्या होती है? कठिनाइयाँ क्या होती हैं? उनके कष्टï क्या होते हैं? यह सब मैं समझ सकूँ, ताकि उनकी सहायता कर सकूँ।
मित्रो! स्वर्ग, मनुष्य के देखने और सोचने का ढंग में-तरीके में है। यह किसी जगह विशेष का नाम नहीं है। कम-से-कम स्वर्गलोक के उस जगह का पता लगा लिया गया है, चंद्रमा के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली गई है कि कभी-कभी वह इतना गरम हो जाता है कि अगर कोई धातु रख दी जाये, तो वह भी पिघल जाएगी। रात में चंद्रमा इतना अधिक ठंडा हो जाता है कि यदि कोई चीज रख दी जाय, तो वह बर्फ बनकर जम जाएगी। ऐसा गरीब चंद्रमा-जहाँ न पानी है, न हवा, वहाँ अगर आपको भेज दिया जाय, तो आप कहेंगे कि गुरुजी आपने हमें कहाँ भेज दिया। हमें वापस बुला लीजिए। लोग चंद्रमा पर गये हैं, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वहाँ ठहर सकें। वे केवल चंद मिनट चक्कर काटकर वापस आ गये हैं। इसी तरह शुक्रग्रह का पता लगा लिया गया है कि वहाँ कोयले का भंडार है। कार्बन गैस भरी पड़ी है। वहाँ आप बिल्कुल जिंदा नहीं रह सकते। वहाँ आपका दम घुट जायेगा।
कुछ लोगों का विश्वास है कि भगवान् के पास जाने से स्वर्ग मिलता है। क्या वास्तव में स्वर्ग है? किसी ने देखा है स्वर्ग कोï? किसी ने देखा हो या नहीं, लेकिन मित्रो! मैंने स्वर्ग को देखा है और मैं चाहता हूँ कि आपको भी स्वर्ग दिखाऊँ। भगवान् के पास जाने से दो चीजें मिलती हैं- पहला-'स्वर्ग,Ó दूसरा 'मुक्तिÓ। परंतु स्वर्ग केवल देखने वाले तरीके का नाम है। आप चाहें, तो अपने में स्वर्ग का प्रयोग कर सकते हैं। आप कृपा करके उन लोगों का एहसान देखना व मानना शुरू कीजिए, जिनके बोझ से आपका शरीर लदा हुआ है। आप कृपा करके उस बूढ़ी माँ को देखिये। वह कृपा की देवी है, दया की देवी है, जिसने नौ महीने आपको अपने पेट में रखा, रक्त निचोड़ा, अपनी हड्डïी गला दी। अपना सारा-का-सारा मांस निचोड़ करके हमारा एक पिंड बनाया। जब यह पिंड असहाय था तब और जमीन पर आने के बाद भी वह अपने लाल रक्त को सफेद दूध के रूप में पिलाती रही।
जब कोई व्यक्ति किसी को पचास सी.सी. खून दान दे देता है, तो जन्म भर एहसान करता है और कहता है-जब मरने के लिए बैठे थे, तब हमने आपको खून दिया था, बचाने के लिए। लेकिन मित्रो! जिसने हजारों सी.सी. रक्त आपको दूध के रूप में पिला दिया हो, उसके एहसान का क्या ठिकाना? काश! कभी आपने उस माँ को एहसान की दृष्टिï से देखा होता, तो आपको मालूम होता कि देवता और कहीं नहीं हैं, कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है, देवता 'माँÓ के रूप में आपके घर में ही है। क्या शारदा, सरस्वती को जानने की जरूरत है या लक्ष्मी को देखने के लिए आपको मुम्बई जाने की जरूरत है। नहीं, 'माँÓ के रूप में आपके घर में ही बैठी हुई है। जहाँ आज हर आदमी मुआवजा चाहता है, बदला चाहता है, वहाँ त्याग की देवी-आपकी धर्मपत्नी अपने माता-पिता, भाई-बहिन, कुटुम्ब-परिवार को छोड़कर आती है और आपकी सेवा में दिन-रात लगी रहती है। आप जिस तरीके से उसे रखते रहे, वह उसी तरीके से रही और जीवन भर अपना सारा श्रम निचोड़ती रही। धर्मपत्नी अपना रूप और यौवन, अपनी भावनाएँ आपके ऊपर निचोडती रहती है, परंतु बदले में आपसे कुछ नहीं चाहती।
साथियो! त्याग और बलिदान का देवता आपके घर में बैठा है। उस त्याग और बलिदान के देवता का नाम है— भगतसिंह। उस देवता का नाम है-महर्षि दधीचि। मित्रो! हमने महर्षि दधीचि को तो नहीं देखा, लेकिन दधीचि के रूप में अपनी पत्नी को देखा है, जिन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया मकसद के ऊपर। आपकी आँखों में 'यदि कृतज्ञता के भाव आयें,Ó तब आपको यह करना होगा कि नारी के उत्थान के लिए आपको आगे आना होगा। आप जाते तो गायत्री माता के मंदिर में हैं, लेकिन औरत को लातों से मारते हैं। जब वह बेचारी दर्द व शर्म के मारे चिल्लाती है, तब आप उसके मुँह में कपड़ा ठूँस देते हैं। तब वह सिसक-सिसक कर रोती है। धिक्कार है ऐसे लोगों, पर जो ऐसे कुकर्म करते हैं। मन में यह भावना लेकर चले थे गायत्री माता को प्रसन्न करने, उनसे वरदान माँगने चले थे, ऐसे दुष्टï, पिशाच, नीच लोगों को धिक्कार है। ऐसे ही पापी लोग नरक में जाते हैं। ऐसे लोग जहाँ कहीं भी जाएँगे, नरक बना देंगे, घर में भी, बाहर भी वे लोग नरक बना देंगे। घर-बाहर, पृथ्वी-आकाश सारी जगह नरक विद्यमान रहेगा उनके लिए।
मित्रो! जो आँखें दुष्टïता को देखती रहती हैं, दोष-दुर्गुणों को देखती हैं। जिनके भीतर कभी कोई संवेदना का भाव उत्पन्न नहीं होता। सारे जीवन में त्याग और सेवा के कृतज्ञता के भाव जब तक मनुष्य के जीवन में न आयें, तब तक स्वर्ग नहीं प्राप्त होता है। स्वर्ग अर्थात् कृतज्ञता के भाव। ये भाव जब-जब हमारी आँखों व दिल में आ जाते हैं, तब हमें छोटी-छोटी चीजें देवता के रूप में दिखायी देती हैं। दूसरे लोग हमारे ऊपर हँसा करते हैं, कहते हैं कि ये हैं हिंदू। ये क्या पूजते हैं? पत्थर। ये क्या पूजते हैं? पीपल। ये क्या पूजते हैं? घूरा। बेवकूफ वे लोग हैं, नहीं, हम लोग उनसे ज्यादा बुद्धिमान हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि जिस जानदार या बेजान चीज ने हमारे ऊपर एहसान किया है, उनके चरणों पर हमारा मस्तक झुका रहता है। अगर वह बेजान है, तो उससे हमें क्या मतलब! क्योंकि बेजान चक्की ही हमें अनाज पीस-पीसकर खिलाती है। जिस अन्न को हम ऐसे खा नहीं सकते थे, चबा नहीं सकते थे। उसको पीसकर हमारे खाने लायक बनाया। हमारे लिए पौष्टिïक अन्न बनाया, जिसने हमारा पेट भरा। चक्की न हो, तो हम कहाँ से पेट भरेंगे? देवता चक्की नहीं, तो कौन है? जिसने बिना पारिश्रमिक माँगे अपना श्रम जारी रखा। हम उसकी पूजा न करें, तो किसकी पूजा करें। वह पत्थर है अवश्य, लेकिन इनसानों से तो पत्थर अच्छा है। उन देवताओं से तो पत्थर अच्छा है, जो देवता बकरा खाने के बाद, भैंसा खाने के बाद इनसान की सहायता करने को तैयार हो। ऐसे दुष्टï कसाई देवताओं से अच्छा तो पत्थर देवता है, जो हमारे चक्की पीसने के काम में आ जाता है।
घूरा-जो कूड़ा का ढेर भरा हुआ पड़ा रहता है। जिसने गंदगी एक स्थान पर एकत्र कर ली और अपने आपको गला दिया। गलाने के बाद अपने आप को खाद बना डाला, जो कि खेतों में डाली जाती है। जिससे कि अन्न की पैदावार, चावल, गेहूँ, मक्का, जौ, फल, सब्जी आदि अधिक मात्रा में होते हैं। अगर हम घूरे की पूजा नहीं करेंगे, तो किसकी पूजा करेंगे? ये बेजान घूरा है, बेजान चक्की है, पर हम तो बेजान नहीं हैं, हममें तो जान है। हर जानदार का एक फर्ज होता है कि जिन लोगों से हम सहायता लेते हैं और जिन लोगों की सेवाएँ प्राप्त कीं, जिन लोगों का स्नेह प्राप्त किया, उन सबके प्रति कृतज्ञता के भाव रखें। कृतज्ञता का भाव रखना मित्रो, केवल वैचारिक रूप से नहीं हो सकता। जिसके प्रति कृतज्ञता के भाव हैं, उसके प्रति कुछ प्रतिक्रिया-प्रतिध्वनि होनी ही चाहिए। हर ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है। जैसे कुएँ में जो आवाज देते हैं, उसकी प्रतिध्वनि होती है और वही आवाज गूँजकर हमें पुन: सुनायी देती है। यहाँ मथुरा में एक प्रसिद्ध जगह है। जिसे पोतराकुण्ड कहते हैं। यहाँ पंडे लोग अपने यजमानों को ले जाते हैं। वहाँ उनसे कहलवाते हैं कि-'यशोदा तेरा लाला जागै कि सोवै।Ó इसमें अंतिम शब्द 'सोवैÓ। अगर आप ऐसे कह दें कि यशोदा तेरा लाल सोवै कि जागै, तो एक सेकण्ड बाद जागै शब्द की प्रतिध्वनि आयेगी।
मित्रो! कृतज्ञता के भाव जो हमारे अंतरंग में जाकर के टकराते हैं, तो इस शरीर रूपी गुंबद से एक भाव उत्पन्न होता है, एक कल्पना उत्पन्न होती है, एक आकांक्षा होती है कि जिन लोगों ने हमें अनुदान दिये हैं, हमारी सेवा-सहायता की है, उन लोगों के प्रति हमारा कोई फर्ज नहीं है क्या? क्या उनके ऋणों से मुक्ति नहीं पायी जा सकती है? मनुष्य के मन में जिस दिन ये भाव उत्पन्न होते हैं, उस दिन उसे चारों ओर देवता, दिखायी देते हैं। एक देवता वह अध्यापक दिखायी पड़ता है, जिसने प्राइमरी स्कूल में पढ़ाया था। जो रोज मुर्गा बनाता था और मार लगाता था, अगर मारता नहीं, तो आज हम और आप गाय, भैंस, बैल चरा रहे होते। मारा तो क्या हुआ, मुर्गा बनाया तो क्या हुआ, पढ़ाया भी इसी तरीके से कि अच्छी डिवीजन आती रही और पास होता गया। धन्यवाद है उस गुरु को जिसने हमें पढ़ाया। कैसा प्यार भरा गुरु था वह, जिसकी वजह से हमारे जीवन का सबसे स्वर्णिम समय बीता। छोटे-छोटे बालक, छोटे-छोटे स्कूलों में लम्बी-लम्बी जिंदगियाँ व्यतीत कीं, पर वैसा निर्मल और निश्चल प्रेम कहाँ देखा हमने?
हमने आपको कोकाकोला पिला दिया और पान भी खिलाये, लेकिन इस खिलाने,पिलाने के पीछे भी एक चाल थी। आपकी बेटी की शादी है-साड़ी खरीद ले जाइये। कितने दाम की साड़ी है? अरे दाम का क्या सोचना, दाम तो बाद में भी मिल जाएँगे। आप साड़ी ले जाइये, अजी हमारे और आपके पिताजी दोस्त थे। कोकाकोला पिलाया था, तब आपने मेरी जेब काट ली थी। हमने मित्रताएँ तो कर लीं, लेकिन स्वार्थ, छल-कपट और कामनाओं से भरी हुई। शतरंज की विसात के तरीके से हमारी मित्रताएँ बनी रहीं। जब हमारा काम पूरा हुआ, तो हमने इस तरीके से आँखें फेर लीं, जैसे पिंजरे से निकलने के बाद तोता फेर लेता है। मित्रता का अर्थ हमारे जीवन से चला गया और अन्त:करण तलाश करता फिर रहा है कि हमें कोई मित्र मिल जाये। परंतु मित्र कहाँ से मिले! मित्र के बिना, सखा के बिना, साथी के बिना पूरा जीवन एकाकी प्रेत-पिशाच सा मरघट में अकेले-अकेले बैठे रहते हैं जिनका अपना कोई भी नहीं।
मित्रो! शिकार खेलने वाले जंगल-जंगल घूमते रहते हैं। जंगलों में रहने वाले जानते हैं कि एक्कड़ नाम का एक जानवर होता है। जो झुण्ड में से निकलकर अलग चला जाता है, वह एक्कड़ कहलाता है। एक्कड़ सुअर बड़ा भयानक होता है। जंगल में जब मैं रहा, तो एक्कड़ जानवर को हमेशा तलाश करता रहा। झुण्ड से बाहर कभी हिरन रहने लगता है, तो वह बड़ा ही खुँखार हो जाता है। जहाँ भी मौका मिलता है, सींग घुसेड़ देता है किसी भी जानवर में। एक्कड़ बड़ा ही भयानक होता है, बड़ा ही खुँखार होता है, ऐसे ही अचानक हमला बोलता है। जंगल के सभी लोग जानते हैं कि इससे कैसे बचना चाहिए। इसी तरह जो व्यक्ति एक्कड़ के तरीके से रहते हैं, वे किसी को अपना सखा बना रहे हैं, किसी को मित्र बना रहे हैं, परंतु वस्तुत: उनका प्रेमी कोई भी नहीं। सब उनके लिए शतरंज की मोहरों के तरीके से हैं। जिनको यहाँ से उठाकर वहाँ रख देते हैं। जिससे गोटी लाल हो जाती है। अगर बात बन जाती है तो ठीक, अगर नहीं बनी तो उसको छोड़ देते हैं और दूसरी गोटी फिट करने की तिकड़म भिड़ाते रहते हैं।
मित्रो! हम याद करते हैं बचपन के उन लोगों को, जो कि ज्वार की रोटी लेकर आते थे और हम गेहूँ की रोटी ले जाया करते थे और आपस में मिल-बैठकर खाते थे। ब्राह्मïण, बनिया और नाई सभी साथ बैठे हुए खाते थे। तब न तो किसी को जाति का ध्यान था, न ही ऊँच-नीच का, कि कौन ब्राह्मïण है, कौन बनिया है और कौन नाई है? बड़़े हो गये, तो जाति-बिरादरी के हमारे सामाजिक बंधनों से हमारा जीवन नष्टï-भ्रष्टï हो गया। बचपन में हमने नाई के लड़के के साथ जो रोटियाँ खायी थीं, याद आता है वह निश्चल प्रेम, कृतज्ञता का भावभरा जीवन। मित्रो, आकांक्षा उत्पन्न होती है और निश्चल प्रेम याद आता है। मन करता है कि वैसा ही प्रेम भरा जीवन दुबारा मिल जाये। ऐसा मालूम होता है कि यह खूबसूरत दुनिया जो न जाने कितने हीरे जवाहरातों से बनायी गयी है। छोटे बालक और अध्यापक जब याद आते हैं, जब हमको अपनी माँ याद आती है, जो हमको गोद में लिए फिरा करती थी, तब मालूम पड़ता है कि दुनिया कितनी खूबसूरत, प्यार से, आनन्द और उल्लास से भरी हुई है। हमको जब समाज का ज्ञान आता है तो मालूम पड़ता है कि न जाने हम कितने लोगों से शिक्षण पाते हुए चले गये। इतने सारे अपना ज्ञान हमारे पास रख गये।
मित्रो! आप एक गीता खरीद करके ले आते हैं, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण की लीला का ज्ञान, जो अर्जुन को मिला था, पढ़ते हैं। धन्य है वह गीता, धन्य है-प्रेस वाले, धन्य है वह छापाखाना वाला और धन्य है वह कागज बनाने वाला टाटा मिल, जो कागज के रीम बनाता हुआ चला गया। धन्य है वह, जिसने छापने की मशीनें बनायीं, जिससे हमें ढाई आने की गीता पढऩे को मिल गयी। धन्यवाद उन सब लोगों को, जिनने इतना बेहतरीन काम किया, जिसकी वजह से गीता जैसी पवित्र व धार्मिक पुस्तक पढऩे को मिल गयी। गहराई से सोचता हूँ, तो पता चलता है कि दुनिया में कितने बेहतरीन और खूबसूरत लोग रहते हैं। हमको इन सबसे एक ही बात समझ में आती है कि दुनिया में चारों तरफ प्रेम और सौहाद्र्र बिखरा हुआ है। मित्रो, यही अमृत है और इसकी लहरों में आप उड़ते हुए और सरकते हुए चल सकते हैं। स्वर्ग है मक्के की रोटी में, स्वर्ग है फटे कपड़ों में, स्वर्ग है गरीबी में। रेशमी वस्त्र तो अंगारे के समान लगते हैं। मिठाइयाँ जो आप मजे से स्वाद ले-लेकर खाते हैं, उसमें जहर भरा हुआ है- पोटेशियम सायनाइड भरा हुआ है, जो कि आपका पेट फाड़ देगा। इसलिए आपने जों आकांक्षा भौतिकता के रूप में गाड़ रखी है कि मकान आपको मिल जाएगा, चीजें आपको मिल जाएँगी, तो आपको सुख-शांति मिल जाएगी-व्यर्थ है।
मित्रो! इससे आपके भीतर आकांक्षाएँ, तृष्णाएँ बढ़ती हुई चली जाती हैं कि अमुक चीज हमारे पास कम है और यह चीज हमको चाहिए। परंतु उनका उपयोग करना हमको कहाँ आता है? फिर भी उसको हम जोडऩा शुरू कर देते हैं। उसे जोड़ते हुए मुसीबतें हमारे पास आती हैं। बच्चे कहते हैं—माँ जी हमको यह चीज दोगी? वह कहती है-नहीं। छोटी बच्ची कहती है—माताजी हमको दोगी? कहती है नहीं। यह तो जमा करके रखा जाएगा। बहुत मुनाफा कमाया जाएगा। हमें वह कहानी याद आती है कि मधुमक्खी शहद जमा करती रही। एक दिन बंदर आया और छत्ता तोड़करके चला गया। सारा-का-सारा शहद गिर पड़ा और सारी मक्खियाँ उसमें चिपककर मर गयीं। हमको जितना लाभ मिलता है, उसका हमको सदुपयोग करना आता है क्याï? नहीं, हमको धन का सदुपयोग करना आता नहीं। हमको इतना सुंदर शरीर मिला है, उसका प्रयोग करना, उपयोग करना आता है क्या? नहीं। हमको इतना अच्छा स्वास्थ्य मिला हुआ है, उसका हमने सही उपयोग किया नहीं, फिर हम किस मुँह से ईश्वर के पास माँगने के लिए जाते हैं कि हमारा अच्छा स्वास्थ्य बना दीजिए। आपको जो धन मिला है, उसका क्या आपने सही कामों में उपयोग किया? नहीं। फिर आप किस मुँह से भगवान् के पास धन माँगने के लिए जाते हैं।
साथियो, आपको जो बुद्धि मिली है उसका आपने सही इस्तेमाल किया? नहीं। फिर आप भगवान् से बार-बार क्यों माँगते हैं? आपको इतनी विद्याबुद्धि मिली हुई थी कि आप दुनिया में शांति की धारा बहाते, उसको खूबसूरत बनाते, लेकिन आप तो संग्रह करने में लगे थे। जमा करने की बात सोचते रहे, स्वामी बनने की बात सोचते रहे, मालिक बनने की बात सोचते रहे, लेकिन आपके मन में उपयोग की बातें कहाँ आयीं? यदि उपयोग की बातें आपके मन में आतीं, तो आप सोचते कि जितना आपको मिला है वह पर्याप्त है, बहुत है। अगर आप इन सबका अच्छी तरह से प्रयोग कर सके होते, तो हम सोचते कि जितना भी आपके पास जो विद्या है, स्वास्थ्य है, जो धन है, इतने से ही सदुपयोग करके आप स्नेह-सौहाद्र्र की धाराएँ बहा सकते हैं। फिर आनंद, उल्लास और संतोष आपके चारों ओर उमड़ता हुआ चला जा सकता है। कृतज्ञता आपके मन में उमड़ती हुई चली जा सकती है। पर इस्तेमाल करना हमको कहाँ आया?
मित्रो! उस स्वर्ग की कल्पना करना व्यर्थ है, जो कि मरने के बाद मिलता है। क्योंकि आपको यदि स्वर्ग भेज दिया जाए, तो थोड़े ही दिनों में आप स्वर्ग को भी नरक बना देंगे। अपने देश के एक प्रमुख नेता काहिरा मिश्र के एक होटल में ठहराये गये थे। वहाँ का खाना उनको पसंद नहीं आया, तो उन्होंने नौकरसे कहा कि स्टोव पर चाय बना दे तथा खाना पका दे। स्टोव के धुएँ से कमरे की एक-दो दीवारें काली हो गयीं, तो उस होटल के मैनेजर ने कहा कि आपने हमारे कमरे की दीवारें गंदी कर दीं। उसने लंबा-चौड़ा बिल बनाकर उन नेता जी के पास भेजा और वह बिल उनको चुकाना पड़ा। यदि हम स्वर्ग नाम के स्थान पर जाएँ, तो वहाँ भी चारों तरफ गंदगी फैला देंगे और वही जगह थोड़े दिनों बाद नरक जैसी लगेगी। वहाँ कूड़े का ढेर लगा जाएगा, लोग गाँजा, चरस-शराब आदि का सेवन भी करेंगे। ये लोग कौन आ गये? ये भक्त आ गये, गायत्री स्तवन करने वाले आ गये। यहाँ लोग मंदिर के पीछे शौचालय की दीवारों पर पेशाब करते हैं। जगह-जगह गंदगी फैलाते हैं। बुरे व गंदे लोग जहाँ भी जाते हैं, वहाँ स्वर्ग को भी नरक बना देते हैं।
कभी-कभी हमें अकेले देहरादून एक्सप्रेस से हरिद्वार जाना पड़ता है। ट्रेन के डिब्बों पर लगी प्लेटों पर लिखा रहता है—'बम्बई से देहरादूनÓ और जब हरिद्वार से मथुरा आना होता है, तो उसी ट्रेन की प्लेटों पर लिखा होता है—'देहरादून से बम्बईÓ इसका कारण जब हमने स्टेशन मास्टर से पूछा-तो उन्होंने बताया कि ये इन प्लेटों पर दोनों तरफ लिखा होता है। जब ट्रेन वापस जाती है, तो प्लेटें पलटा दी जाती हैं। विकृत दृष्टिïकोंण वाले लोगों को यदि स्वर्ग भेज दिया जाये, तो थोड़े ही दिनों में वहाँ की पेंटिंग को भी बदल दिया जाएगा। वहाँ का साइनबोर्ड बदल दिया जाएगा कि यह है-नरक। अच्छे दृष्टिïकोण वाले लोग चाहे वे गरीबी में रहें, चाहे केवल मक्के की रोटी खाकर जीवित रहें, किसी भी तरीके से रहें, लेकिन वे लोग हर स्थिति में थोड़े ही दिनों में स्वर्ग पैदा कर सकते हैं।
एक संत इमरसन हुए हैं, जिन्होंने अँग्रेजी भाषा में आध्यात्मिक जीवन के ऊपर बहुत-सी किताबें लिखी हैं-उनका एक मंत्र है कि ''मुझे नरक में भेज दो, मैं उसे स्वर्ग बना दूँगा।ÓÓ उनकी हर किताब के पहले पन्न पर यही लिखा रहता है। किताब पहले पन्ने से शुरू होती है और हर किताब के पहले पन्ने पर लिखा है कि 'स्वर्ग कहीं होता नहीं है, बनाया जाता है, निर्मित किया जाता है। वह मनुष्य की आँखों में रहता है, भावनाओं में रहता है, अंत:करण में रहता है।Ó आध्यात्मिकता का अंतिम परिणाम यही है। मित्रो! स्वर्ग है-विचार करने का सही तरीका और चीजों का देखने का सही दृष्टिïकोंण। इसी को अँग्रेजी नाम है-फिलॉसफी और हिंदी में दर्शन। यदि दुनिया को सही ढंग से देखना शुरू करें, तो न जाने क्या देखने को मिलेगा और आप आगे बढ़ते हुए, ऊँचे उठते हुए चले जाएँगे। यही है ईश्वर को प्राप्त करने का, रिश्ता मजबूत बनाने का सीधा व सरल मार्ग। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति:
ब्रह्मïवर्चस् अर्जन की साधना व उसका मर्म
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! साधना की सफलता आन्तरिक पवित्रता-प्रखरता पर निर्भर करती है। वेदमंत्रों के उच्चारण का फल केवल अंतरंग को पवित्र करने से ही मिलता है। राजा दशरथ के यहाँ जब पुत्रेष्टिï यज्ञ की बात चली थी, तो गुरु वशिष्ठï ने कहा था कि हमारे सौ बच्चे हो गये हैं। अत: हमारे द्वारा मंत्र पढऩे से कोई लाभ नहीं होगा। संयम का पालन नहीं होगा, आहार-विहार ठीक नहीं होगा, तो वेदमंत्र का कोई लाभ नहीं हो सकेगा। ऋषियों में एक शृंगी ऋषि थे। उनकी संयम साधना, आहार-विहार साधना अनूठी थी। महिलाओं के सम्बन्ध में उन्हें कुछ भी पता नहीं था। वे जंगल में पले थे। आहार-विहार ठीक होने के कारण उनका अन्नमय कोष परिशोधित था। मनोमय कोश पवित्र था। अत: उस विशेष आयोजन के लिए शृंगी ऋषि को बुलाया गया था। उनके मुख से उच्चारित वेदमंत्रों के द्वारा यज्ञ होने पर दशरथ जी के यहाँ भगवान् के रूप में चार बालक पैदा हुए। भगवान् राम, भगवान् भरत, भगवान् लक्ष्मण, भगवान् शत्रुघ्न पैदा हुए। ये कहाँ से पैदा हुए? ये मंत्रों से पैदा हुए। उसे किसने बोला था? शृंगी ऋषि ने बोला था।
मित्रो! आहार-विहार के सम्बन्ध में परिष्कृत होने के लिए आपको भी तैयार होना चाहिए। हम ब्रह्मïवर्चस् की साधना में आपको यही कराएँगे तथा आपको मजबूर करेंगे कि आप अपने आहार-विहार को ठीक करें। हम आपकी सात्विकता पर जोर देंगे। अगर आपको अमुक चीज ठीक नहीं लगेगी, तो इसके लिए आपको ठोस प्रयास करना होगा तथा उसके लिए तैयार होना होगा। जब हम आपको ब्रह्मïवर्चस् की साधना कराएँगे, तो आपको एक भगोना दे दिया जाएगा और कहा जाएगा कि आप यहाँ से संस्कारवान अनाज लें और अपना सात्विक आहार स्वयं तैयार करें। इसमें खिचड़ी, दलिया बनाकर खा लीजिए। पहले जमाने में संत-महात्मा इसी प्रकार भिक्षा लेकर आते थे और अपना भोजन स्वयं बनाकर खा लेते थे। आपको भी उसी प्रकार करना चाहिए। हम आपको यहाँ पर जायकेदार चीजें नहीं देंगे, वरन् हम आपका जायका खराब करेंगे, उस आदत को सुधारेंगे, जिसने आपको असंयमी बना दिया है।
साधना उपासना की पहली सीढ़ी सात्विकता है। अत: आपको यह ध्यान रखना होगा कि आप चाहे यहाँ रहें अथवा कहीं भी रहें, आपको इसी प्रकार सात्विक अन्न-आहार का प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार अगर आप करेंगे, तो आपको पता चलेगा कि सात्विक आहार का भजन-पूजन पर, साधना-उपासना पर क्या प्रभाव पड़ता है। हमने चौबीस साल तक जौ की रोटी एवं छाछ का सेवन किया है। इस बीच न नमक खाया है, न शक्कर। आप पूछते हैं कि गुरुजी आपने कौन-सा बीजमंत्र लगाया है? हमने अपनी साधना में केवल सात्विक आहार का सेवन किया है। पूजा-उपासना के पहले, भजन के पहले हमें अपने मस्तिष्क एवं शरीर को सात्विक बनाना होगा, ताकि भगवान् हमारे शरीर में उपस्थित हो सकें और हमारे मस्तिष्क में प्रेरणा दे सकें। इसके लिए हमें सात्विक आहार का सेवन करना होगा।
मित्रो! हमें न केवल अपने पेट को, वरन् जीभ को भी नियंत्रित करना होगा। इसके द्वारा ही आदमी के भीतर बैठा हुआ देवत्व जाग्रत होता है तथा मनुष्य प्रगति के पथ पर आगे बढऩे लगता है। अपनी जीभ के ऊपर हमें बड़ी सावधानी से ध्यान देना होगा। फिर ध्यान देना होगा कि हम जो बोलते हैं, उसका प्रभाव पड़ता है कि नहीं। हम गिरे हुए तो नहीं हैं? हमारे द्वारा किसी को दुख तो नहीं हो रहा है? इस प्रकार के विचार अपने भीतर पनपाने के लिए हमें अपने अन्नमय शरीर को ठीक करना होगा। इसमें अन्न तथा जल दोनों चीजें सम्मिलित हैं। वातावरण का प्रभाव भी पड़ता है। अन्न के साथ इन चीजों को भी ठीक करना होगा।
दूसरा शरीर हमारा प्राणमय कोश है। हमारे शरीर में एक मैग्रेट काम करता है, जो अंतरिक्ष की चीजों को खींचता रहता है तथा उसे प्राणवान बनाता रहता है। आप जानते हैं कि जहाँ वृक्ष होते हैं, वहाँ बादल खिंचते हुए चले आते हैं। उसी प्रकार जहाँ कहीं भी श्रेष्ठïता होगी, हमारा प्राणमय कोश उसे खींचता रहता है। पिछले दिनों लीबिया में जब सारे पेड़ काट दिये गये, तो वहाँ का सारा क्षेत्र रेगिस्तान में बदल गया। बादलों ने वहाँ बरसना बन्द कर दिया। इस घटना के बाद वहाँ की जनता को, सरकार को पेड़ लगाने पड़े। धीरे-धीरे अब थोड़ी-बहुत वारिस हो जाती है। इसी प्रकार प्राणमय कोश, जिसे हम मैग्रेट कहते हैं, वह श्रेष्ठï चीजों को, जो हमारी जीवात्मा की खुराक हैं, को खींचता रहता है। इस मैग्रेट को हम साहस कहते हैं। इस साहस के माध्यम से बड़ी-बड़ी चीजें आती-जाती हैं और हम श्रेष्ठïता की ओर बढ़ते चले जाते हैं।
इस प्राणमय कोश को जब मनुष्य जाग्रत कर लेता है, तो उसके अन्दर चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। नैपोलियन बोनापार्ट का जब प्राणमय कोश जाग्रत हो गया था, उसके भीतर का साहस जब जाग गया था, तो वह आल्पस पर्वत को पार कर गया था। गाँधीजी ने जब इस शरीर को जगा लिया तो, अँग्रेज हमारे देश से भाग खड़े हुए। वह गाँधी के प्राणमय कोश का चमत्कार था। यह असली ताकत हमारे प्राणवान प्राणमय कोश का चमत्कार है। आपको अपने इस प्राणमय कोश को जाग्रत करना होगा। आपको हिम्मत-साहस की शक्ति को जाग्रत करना होगा।
बेटे, हिम्मत की शक्ति बहुत महान है। इसके द्वारा आप सभी चीजें प्राप्त कर सकते हैं। लवकुश ने इसी के द्वारा हनुमान्, लक्ष्मण तथा अन्य वीरों को हरा दिया था। यह उनकी हिम्मत थी। शरीर में कोई ताकत नहीं होती, असली ताकत तो अन्दर होती है। मनुष्य की वास्तविक ताकत उसकी प्राणों की ताकत है, हिम्मत की ताकत है। शरीर की ताकत सब कुछ नहीं होती है। जो भी गाँधी जी के पास जाता था, वह उनका हो जाता था। सरदार पटेल, नेहरू, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जो भी उनके पास गये, वह उनकी आँखों के वशीभूत हो गये। वह गाँधी जी की शक्ति नहीं थी, वरन् उनके प्राणमय कोश की शक्ति थी। वह उनकी हिम्मत थी एवं साहस था।
मित्रो, आपको भी तपस्वी बनने के लिए, साधक बनने के लिए अपने प्राणमय कोश को ताकतवर बनाना होगा। पिछले दिन हम आपको बतला रहे थे कि आपको तपस्वी जीवन जीने के लिए, साहसी बनाने के लिए हम आपको प्राणवान बनाएँगे। जिस प्रकार जीभ को कण्ट्रोल करने के लिए अन्नमय कोश को ठीक करना पड़ता है, उसी प्रकार अपने आपसे लोहा लेने के लिए आपको तपस्वी होना होगा। शरीर पग-पग पर न जाने क्या-क्या माँगता रहता है, उसे कण्ट्रोल करना होगा। अब आपको शरीर से यह कहना होगा कि अब तक हमने तेरी बात मानी, अब तुझे मेरी बात माननी होगी। इस प्रकार प्राण पर नियंत्रण हो जाने पर हम प्राण शरीर के द्वारा एक मैग्रेट पैदा करेंगे, जो इस शरीर में चमत्कार उत्पन्न कर देगा।
मित्रो, हमें अपने मन को भी नियंत्रित करना होगा। उस पर कण्ट्रोल करना होगा। जिस प्रकार रिंगमास्टर चाबुक लेकर अपने जानवरों को कंट्रोल करता है, आपको भी अपने मन को उसी प्रकार कण्ट्रोल करना होगा। आपको अपनी सारी इन्द्रियों को नियंत्रित करना होगा। उनको अपने वश में करना होगा। बेटे, इसी का नाम तप है, जिसे हम आपको बतलाना चाहते हैं। हम आपको तपस्वी बनाने का प्रयत्न करेंगे। अगर आप तपस्वी बन जाएँगे, तो इसी जिन्दगी में आप उन सारी चीजों को प्राप्त कर लेंगे, जिनकी आपको आवश्यकता है। स्वामी दयानन्द जब अपने गुरु के आदेश पर जनजागरण के लिए निकले, तो उनकी वाणी सुनने को कोई तैयार नहीं हुआ। तब वे तप करने चले गये और उसके बाद उनकी वाणी में निखार आया और वे आर्यसमाज के बहुत बड़े प्रवर्तक हुए।
मित्रो, हमारी वाणी में शक्ति है, किन्तु वह ऐसे ही नहीं आयी है। हमने भी अपने गुरु के आदेश पर चौबीस साल तक तप किया था। महात्मा आनन्द स्वामी की बातों को लोग मानें, इसलिए उन्होंने भी बरारी में तप किया था। जब गाँव के लोगों को पता लगा कि एक महात्मा तप कर रहे हैं, भजन कर रहे हैं, तो उनके लिए भोजन की व्यवस्था बना दी। वे जब तप करके निकले, तो एक विशेष ऊर्जा उन्हें प्राप्त थी। स्वामी दयानन्द ने जहाँ तप किया था, वहाँ तीन नदियाँ आकर मिलती हैं। उस अवधि में उन्होंने केवल एक समय भोजन किया। वे तीन साल तक लगातार तप करते रहे और उसके बाद इतनी शक्ति लेकर आये कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उन्होंने काफी काम भी किया। आर्यसमाज की जगह-जगह स्थापना की तथा निरन्तर दौरा करते रहे। यह प्राणों की शक्ति थी। हम आपके भीतर भी उसी प्रकार की शक्ति पैदा करना चाहते हैं। जिससे कि आप उभरकर आगे आयें। आप कितना बर्दाश्त कर सकते हैं, हमारा कहना है कि आप उतना ही तपस्वी जीवनयापन करने के लिए तैयार रहें। चान्द्रायण व्रत से लेकर जो भी आप कर सकते हैं, उसे अवश्य करें।
साधना में तप-तितिक्षा की अपनी महत्ता है। ब्रह्मïवर्चस् की साधना के अन्तर्गत यह निश्चय आपको करना होगा कि आप अस्वाद व्रत से लेकर क्या-क्या कर सकते हैं तथा अपनी कमजोरियों से किस प्रकार लड़ सकते हैं। तपस्वी जीवन जीने के लिए आप कितनी तप-तितिक्षा कर सकते हैं? यह निश्चय आपको करना है। आपको यह निश्चय करना है कि इसका स्वरूप कितना बड़ा, छोटा या मध्यम हो सकता है। बच्चों के लिए तप-साधना क्या हो सकती है। ब्रह्मïवर्चस् के माध्यम से हम आपको यह सब बतलाने वाले हैं कि पंचकोशी साधना क्या होती है? इसका पंचमुखी गायत्री से क्या संबंध होता है?
हमारे मन के भीतर चमत्कारी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। मन के अन्दर से अनेकों तरंगें निकलती हैं, जो बाहर आकर फैल जाती हैं। उसे अगर हम नियंत्रित कर लें, तो मजा आ जाएगा। तब हम एक प्राणवान व्यक्ति बन सकते हैं। मन शक्ति का पुंज है। अगर उसे नियंत्रित कर लें, तो हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैैं। अभी तक हम विज्ञान द्वारा इसके केवल सात प्रतिशत भाग की ही जानकरी प्राप्त कर सके हैं, शेष तिरानबे प्रतिशत की जानकारी प्राप्त करना अभी बाकी है। इसे 'जादू का पिटाराÓ कह सकते हैं। यह हमारा मस्तिष्क भानुमती का पिटारा है। अगर इसके बिखराव को हम नियंत्रित कर सकें, तो एक बहुत बड़ी शक्ति हम प्राप्त कर सकते हैं। अनेक दिशाओं में भागने वाले मन को अगर हम नियंत्रित कर सके, तो हम अंगद, हनुमान् तथा भीम की तरह सामथ्र्यवान हो सकते हैं। भागीरथ ने किस प्रकार अपने मन को नियंत्रित एवं नियोजित करके हिमालय में फैली गंगा को धरती पर लाये थे, यह सभी जानते हैं। वे एक सफल इंजीनियर थे, जो अपने मस्तिष्क को नियंत्रित करके इस प्रकार की योजना को चरितार्थ करने में सफल हुए थे। अनेक दिशाओं में बिखरी अपने मस्तिष्क की शक्ति को अगर हम नियंत्रित कर सकें, तो हम भागीरथ के तरीके से महान शक्तिशाली बन सकते हैं।
अत: आप अपने मस्तिष्क से बेकार की बातों को निकाल दीजिए, फिर आप वैज्ञानिक, संत, महामानव बन सकते हैं। दूसरी दिशा में यानी निगेटिव दिशा में अगर इसे लगा दें, तो फिर एक नम्बर का डाकू, जेब-कतरा भी बन सकते हैं। सर्कस में लड़कियाँ मन को एकाग्र कर लेती हैं, तो चमत्कार दिखा देती हैं। अगर हम अपने मन के बिखराव को रोक सकें, तो वह सारा-का-सारा लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी हमें आवश्यकता है। मस्तिष्क जितना शक्तिशाली यंत्र शरीर में और कोई नहीं है।
वास्तव में उसी मनुष्य का भविष्य अच्छा है, जो एक दिशा में चल सकता है। जिसका लक्ष्य एक हो तथा वह हमेशा उसी की पूर्ति में लगा हुआ हो। द्रोपदी की शादी के समय स्वयंवर रचा गया। स्वयंवर की शर्त के अनुसार मछली की आँख में तीर मारना था। अनेकों को पानी में मछली की पूँछ तथा सिर दिखाई पड़ रहा था। अर्जुन से जब लोगों ने पूछा कि आपको क्या दिखलाई पड़ रहा है? उसने कहा कि मछली की आँख एवं तीर की नोंक। अंत में विजयी अर्जुन ही हुए।
मित्रो, जिनके जीवन का एक लक्ष्य होता है, सफलता उनको ही प्राप्त होती है। एकाग्रता सबसे बड़ी चीज है। वैज्ञानिक की एक दिशा होती है, एक लक्ष्य होता है। जब हम लेख लिखते हैं, तो हमारी एकाग्रता होती है। उस समय हमारे मस्तिष्क में एक विशेष हलचल होती रहती है। उस वक्त अगर आप हमारे बगल से भी निकल जाएँ, तो हमें पता नहीं चलेगा कि आप कब आये और कब चले गये। यही एकाग्रता है, जिसके द्वारा मनुष्य को सफलता मिलती है। एकाग्रता एक दिशा का, एक धारा का नाम है। स्वामी विवेकानन्द जब प्रथम बार अमेरिका गये, तब लोगों ने उन्हें 'जीरोÓ अर्थात शून्य के सम्बन्ध में बोलने के लिए पन्द्रह मिनट का समय दिया। वे पूर्णरूपेण एकाग्रता के साथ इस विषय पर बोलते गये। पन्द्रह मिनट बोलने के बाद पन्द्रह मिनट पुन: उनको बोलने के लिए कहा गया। मित्रो! 'मेडिटेशनÓ इसी का नाम है। आदमी किसी काम में पूर्ण तन्मयता के साथ यदि जुट जाए, तो उसी में सफलता प्राप्त कर सकता है। उसे ऋद्धियाँ सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
मित्रो! किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें एकाग्रता के बारे में भी सोचना होगा। अभी हमारा जीवन अस्त-व्यस्त है। अगर हमने अपने जीवन में एकाग्रता का अभ्यास किया होता, तो हमारे जीवन की सारी समस्याओं का हल हो गया होता तथा हम प्रगति के रास्ते पर बढ़ रहे होते। जमीन का भौतिक जीवन में भी कम महत्त्व नहीं है। नागपुर का संतरा, बंगाल का चन्दन वहाँ के जमीन के हिसाब से महत्त्व रखता है।
स्थूल का उतना महत्त्व नहीं, जितना सूक्ष्म का है। गाँधी जी का शरीर बाहर से बहुत कमजोर लगता था, परन्तु उनके अन्दर वाला सूक्ष्म शरीर इतना अधिक मजबूत था कि उसके द्वारा उन्होंने आश्चर्यजनक कार्य कर डाले। अष्टïावक्र ऋषि बाहर से देखने में काले-कलूटे एवं टेढ़े-मेढ़े थे, परन्तु उनका भीतर का शरीर इतना महत्त्वपूर्ण था कि उनके ज्ञान एवं कार्य को देखकर विदेह कहे जाने वाले राजा जनक जैसे विद्वान भी आश्चर्यचकित हो जाते थे।
मित्रो! हम चाहते थे कि आप भी अपने भीतर वाली जमीन अर्थात् शरीर को जगा सकते, तो मजा आ जाता। अगर आप इसका विकास नहीं कर सके और मात्र भौतिक शरीर का, भौतिक पदार्थों का ही ध्यान रखेंगे, तो हमें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होगा कि आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे। अगर आप केवल भौतिक शरीर का ही ध्यान रखते हैं, तो हम आपको अध्यात्मवादी नहीं कह सकते हैं। भले ही आप चाहे चालीसा का पाठ करते हैं या रामायण का पाठ करते हैं, उससे हमारा कोई मतलब नहीं है। आप अगर अध्यात्मवादी हैं और आपको अगर कुछ प्राप्त करना है, तो आपको अपने भीतर वाले हिस्से को जगाना होगा, क्योंकि मनुष्य की शक्ति-सामथ्र्य, ऋषि-तत्व, ऋद्धि-सिद्धि जो भी है, वह उसके अन्दर ही है, जिसके लिए मनुष्य को साधनाएँ करनी पड़ती हैं। अन्दर एटम बम की शक्ति भरी पड़ी है, जिसे आपको जगाना और नियोजित करना भर है।
साथियो, मैं यह कह रहा था कि जीवात्मा की शक्ति बहिरंग में नहीं, अन्तरंग में है। वास्तव में हम केवल बाहर की चीजें ही देख पाते हैं। अन्दर की चीजें हम नहीं देख पाते। इस कारण से उसका महत्त्व हमें नहीं मालूम पड़ता है। अगर हम भीतर की चीजों का पता लगा सकें तथा उसे जाग्रत करने का प्रयास कर सकें, तो हमारे जीवन का कायाकल्प हो सकता है। आध्यात्मिकता का शिक्षण हमने प्रारंभ से देने का प्रयास किया है तथा लोगों को बतलाने का प्रयास किया है कि आप अपने आपको पहचानिए तथा उसके विकास के लिए प्रयास कीजिए। ''आत्मा वाऽरे ज्ञातव्य श्रोतव्य ध्यातव्यÓÓ यही वास्तविकता है। अपने आपको जानो, पहचानो तथा इसे जाग्रत करने का प्रयास करो, ताकि तुम महान हो सको-निहाल हो सको। हमारे भीतर ऋद्धि-सिद्धियों का, शक्तियों का जखीरा भरा है, उसके बारे में अगर जान सके, तो मजा आ जाएगा।
मित्रो! हमने सुना है कि कोशिकाओं के भीतर 'जीन्सÓ होते हैं, जो शरीर निर्माण से लेकर मनुष्य की सारी गतिविधियों का नियंत्रण-संचालन करते हैं और उसे निहाल कर देते हैं। आत्मा भी अन्तरंग वाला 'जीनÓ है, जो जाग्रत हो जाने पर आदमी को निहाल कर देता है। हमारा ऊपर वाला शरीर जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारा स्थूल शरीर है। जिस प्रकार हम कपड़ा पहने हुए हैं, ठीक उसी प्रकार इस काया का जो ऊपरी स्वरूप है, वह स्थूल शरीर है। हम बाकी शरीरों के बारे में जानते हैं या नहीं, यह नहीं कह सकते, परन्तु सूक्ष्म शरीर के बारे में यह जानते हैं कि यह सपने के समय बाहर आ जाता है। इस तरह हम अन्दाजा लगा लेते हैं कि हमारे अन्दर बहुत बड़ी शक्ति है, जो हमारे शरीर से बाहर निकल जाती है और इस प्रकार का सपना दिखा जाती है।
सूक्ष्म शरीर को देखा नहीं जा सकता है। जिस तरह से हम बिजली को नहीं देख सकते हैं, उसी तरह से हमारे दिमाग में विद्यमान अदृश्य इलेक्ट्रिसिटी का महत्त्व कम नहीं है। इसी प्रकार पाँच प्राणों से बना हुआ हमारा सूक्ष्म शरीर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अपना स्थूल शरीर जो हमें बाहर से दिखाई देता है और जो खाता-पीता है, टट्टïी-पेशाब करता है, राग-द्वेष करता है, उतना महत्त्वपूर्ण नही है, जितना की सूक्ष्म शरीर। अगर हम अंदर वाले इस शरीर को विकसित कर लें, तो हम शक्तिशाली हो सकते हैं। यह मनुष्य का भीतर वाला माद्दा है, जो अध्यात्म का बहुत ही महत्त्वपूर्ण माद्दा है, हिस्सा है। यही संसार को प्रभावित करता है और चमत्कार दिखलाता है। इसे हम 'सूक्ष्म शरीरÓ कहते हैं। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। एक हमारी फिजिकल बाडी है, जो हमें बाहर से दिखलाई पड़ती है, जिसे हम स्थूल शरीर कहते हैं, उसके बाद हमारा सूक्ष्म शरीर है, जो बहुत ही शक्तिशाली एवं महत्त्पूर्ण है।
अगर हम अपने खानदान के बारे में जान लें, तो हमें अपने बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है। उसी प्रकार हमारे अंदर एक से बढ़कर एक शक्तिशाली शरीर भरा पड़ा है, कोश भरे पड़े हैं, जखीरा भरा पड़ा है, अगर उसे हम जान सकें तो दुनिया के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन सकते हैं। वास्तव में मनुष्य को इसी वास्तविक संपदा के बारे में जानकारी होनी चाहिए। हम जो पाँच देवताओं की उपासना करते हैं, वह वस्तुत: अपने भीतर की, व्यक्तित्व के विकास की उपासना है। हमें न तो भगवान् के सामने नाक रगडऩे की आवश्यकता है और न पूजा करने की आवश्यकता है। बिजली के बारे में जिनको जानकारी होती है, वे घर में बैठे रहकर उसके बटन दबाते रहते हैं, जिससे घर के पंखे चलते रहते हैं, बल्व जलते रहते हैं। अत: उस बिजली के बारे में भी आपको सही जानकारी होनी चाहिए।
मित्रो! आपको हम यह बतलाना चाहते हैं कि हम भगवान् की उपासना छोड़कर अगर अपने व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयास करें, अपने आपका सुधार करने का प्रयास करें, तो यह जीवन स्वर्गमय हो सकता है तथा हम सारी चीजें प्राप्त कर सकते हैं। उस परिस्थिति में मनुष्य देवता बन जाता है, पैगम्बर बन जाता है। यह कार्य अपने आपको परिष्कृत करने से ही संभव होता है। अध्यात्म खुशामद करने का, नाक रगडऩे का नाम नहीं है। वास्तव में इसके लिए मनुष्य को तपाने की आवश्यकता है। तपाने से सोना तथा लोहा साफ हो जाता है। तपाने से पानी स्टीम-भाप बन जाता है। आपको भी तप करने की आवश्कता है। इसके लिए आपको छोटे-छोटे सिद्धान्तों का परिपालन करने, अभ्यास में उतारने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, अस्वाद व्रत रखने का प्रयास करें। आप नमक एवं शक्कर का त्याग करें। अगर जीभ पर कंट्रोल कर लिया, तो आप सब चीजें प्राप्त कर सकते हैं। यह बहुत ही खराब है, सबको परेशान करती है। जीभ पर कंट्रोल करना स्वास्थ्य के लिए भी हितकर है।
इसी तरह वाणी पर संयम रखें। बोलने से पहले यह सोचें कि हम जो कुछ बोलने जा रहे हैं, सामने वाले पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, आपको इसके लिए मौन धारण करने की आवश्यकता है। कम से कम प्रतिदिन दो घंटे के लिए मौन रहने का प्रयास करें। आप इसे सुबह या शाम ही रखें, पर रखे अवश्य। इससे वाणी में तेजस्विता आती है। वाकयुद्ध न हो, इसके लिए भी मौन व्रत पालन करने की आवश्कता है। आहार का भी संयम होना चाहिए और वाणी का भी।
वाणी-संयम के साथ अन्य इन्द्रिय संयम भी जुड़े हुए हैं। इसके लिए ब्रह्मïचर्य का पालन करना चाहिए। वस्तुत: इसका खंडन मनुष्य के विचारों के कारण होता है। मन में अगर कुविचार आ रहे हैं, तो उसके विपरीत उलटे विचार करना शुरू कर दें। अगर काम वासना के विचार आते हैं, तो भीष्म पितामह, हनुमान् आदि को याद करें। उनकी कहानी पढ़ें। इस प्रकार सकारात्मक चिन्तन से अपने विचारों को बदला जा सकता है। बुरे विचारों को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे सुंदर विचारों को अपने मन में स्थान दीजिए। इस प्रकार पवित्र-निर्मल बनकर उस महान शक्ति को अव्यय होने से रोकें, जो कि जीवन की एक महत्त्पूर्ण शक्ति है। ब्रह्मïचर्य एक महान तप है।
पैसों का अपव्यय न करें। आप जो पैसा खर्च करते हैं, उसकी बड़े ही संयमी भाव से खर्च करें। खर्च करने से पहले हजार बार सोचें कि क्या इस चीज की वास्तव में आवश्यकता है या नहीं? क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता? इस तरह पैसे पर नियंत्रण रखा जा सकता है और अपव्यय से भी बचा जा सकता है।
समय का संयम सबसे महत्त्वपूर्ण तप है। इस संसार में जो भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने अपने समय को, काल की पाटी से बाँधकर रखा था। आप टाइमटेबिल बनाकर काम करें। अपने विचारों को कण्ट्रोल करना सीखें। इस संसार में जो भी व्यक्ति सफल हुए हैं, उन्होंने अपने विचारों को नियंत्रित रखा है। जिस काम को करना अनिवार्य है, उसे अवश्य पूरा करें। इससे भी आपको लाभ ही होगा।
इस प्रकार की छोटी-छोटी तप-साधना, ब्रह्मïवर्चस् की साधना, प्रज्ञायोग की साधना के द्वारा आप अपने विचारों को, अपने अंतरंग को अधिक शुद्ध एवं पवित्र बना सकते हैं तथा जीवन के-प्रगति के सोपान को पार कर सकते हैं। आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्ति:॥
प्रज्ञावतार की सत्ता
का आश्वासन
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! आप सभी जानते हैं कि जब रात्रि समाप्त होती है, तो सूरज पूर्व दिशा से ही निकलता है। सूरज के निकलने की और कोई दिशा है ही नहीं। जब चारों ओर अंधकार छाया रहता है, तब हर एक आदमी ठोकर खाता हुआ फिरता है। उसे न तो दिशा का ज्ञान रहता है और न ही वस्तु का ज्ञान रहता है। सब जगह घोर अंधकार छाया हुआ रहता है। उस समय उलूक, साँप, बिच्छू, चोर, भूत-पलीत और निशाचरों का साम्राज्य छाया रहता है। भले आदमी खर्राटे भरकर सोये हुए रहते हैं। ऐसे अंधकार के समय में जब चारों ओर निस्तब्धता छायी रहती है, हलीचलों का नामोनिशान तक नहीं दिखाई देता, नींद की खुमारी सब पर छायी रहती है। घोर अंधकार के समय में सब जगह सुनसान हो जाता है। उस अंधकार को दूर करने के लिए जब कभी सूरज निकलता है, जब कभी ब्रह्मïमुहूर्त आता है-ऊषाकाल आता है, तब हमें उसके लिए सूरज को ही देखना पड़ता है। प्राची अपने साथ ऊषाकाल लाती है। प्रात:काल में ही सूरज की लालिमा चमकती है और वह घोर अंधकार, जो किसी तरह समाप्त नहीं हो सकता, इसको मिटाने के लिए भी कोई समर्थ नहीं हो सकता, वह केवल प्राची से उदय होने वाले सूरज के द्वारा ही हो सकता है।
मित्रो, लेकिन एक बात ऐसी भी है, जो आपको कभी-कभी ही देखने को मिलती है। कभी-कभी समय ऐसे बदल जाता है और चहुँओर ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं, जो मनुष्य के मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती हैं। उसे न ही सामाजिक उत्तरदायित्वों का ध्यान रहता है, न अपने निजी कत्र्तव्यों का ध्यान रहता है। ऐसी भटकाव की स्थिति में, ऐसी मुसीबतें आकर खड़ी हो जाती हैं, जैसे कि आज के दौर में आप चारों ओर मुसीबतों का माहौल, भयानक आशंकाओं-आतंकों से भरा वातावरण छाया हुआ देखते हैं । आज किस तरह भयंकर एटमबमों की विभीषिका छायी हुई है। इसके बारे में आप रोज अखबारों में पढ़ते हैं। हवा के जहरीले हो जाने की, संसार का तापमान बढऩे की बात आप रोज पढ़ते हैं। यह सब बातें आप लोगों की जानकारी के बाहर थोड़े ही हैं। आपको इन सबकी जानकारी है। क्या आपको मालूम नहीं है कि एटमबमों की वजह से जो विकिरण हवा में भर गया है, उसके कारण कैसी विनाशकारी काली छाया चहुँओर व्याप्त हो गयी है।
उससे कैसे हमारी पीढिय़ाँ कमजोर व अपंग होने वाली हैं? कितनी महामारियों, बीमारियों का दौर आने वाला है? इस विकिरण की वजह से-वायुप्रदूषण की वजह से, जो आज के भटकाव ने पैदा कर दिया है। जनसंख्या की बढ़ती हुई स्थिति के बारे में आप सभी को मालूम है। यदि स्थिति यही रही, तो थोड़े ही दिनों में इस पृथ्वी पर चलने-फिरने की जगह तक नहीं रहेगी। आप सभी जानते हैं कि बकरे के कटने का समय जैसे-जैसे करीब आता है, वह कुछ-कुछ सेकण्डों में थोड़ा-सा चारा खाता है। कुछ-कुछ सेकण्डों में उसमें बदलाव होता रहता है।
यही स्थिति प्राय: आज मनुष्य की हो चली है। एक अज्ञान भय से वह सदा सशंकित बना रहता है। आज मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार कितना घटिया हो गया है कि इससे प्रकृति-नेचर भी नाखुश हो गयी है। रोज ही कोई न कोई प्रकृति-प्रकोप की घटना देखने व पढऩे को मिलती है। प्रकृति का प्रकोप होता है, तो आये दिन महामारियाँ देखने को मिलती हैं। अदृश्य जगत में भयावह वातावरण उत्पन्न हो गया है। प्रकृति के प्रकोप की वजह से आये दिन भूकम्प आते हैं। आये दिन दूसरी मुसीबतें आती हैं। मुसीबतों का अंबार हमारे चारों ओर छाया रहता है। कल के बारे में कोई नहीं जानता कि बढ़ी हुई जनसंख्या का कल क्या परिणाम होगा? आज की आपाधापी जिस तरीके से मनुष्य को हैरान और परेशान करने पर तुली हुई है, उसके परिणाम क्या होंगे? आज ही कौन-सी अच्छी परिस्थितियाँ हैं, लेकिन कल के दिन हमारे और भी खराब आने वाले हैं।
अपराध बेतरीके से बढ़ते जा रहे हैं। आदमी का स्वभाव बहुत उच्छृंखल और अपराधी होता जा रहा है। आज कितनी दुर्घटनाएँ, वर्जनाएँ हो रही हैं। वर्जनाएँ जिसके अन्तर्गत आदमी को कहा जाता था कि उसे मर्यादा में रहना चाहिए। सृष्टिï का नियम बिगड़ता जा रहा है। सृष्टिï का यह नियम है कि करने वाले को भरना पड़ता है। करने के भरने वाले परिणाम को कोई नहीं रोक सकता। जहर खाने के बाद में बचाव करने की आशा कौन करेगा? आज ठीक इसी तरह की परिस्थितियाँ हैं, जिसमें सभी लोग-सम्पन्न, अमीर, गरीब, भारतीय, विदेशी और प्रवासी एवं अन्य लोग भी शामिल हैं।
तो गुरुजी! क्या इस दुनिया का विनाश होगा? नहीं, बेटे, जिस स्रष्टïा ने इस बेहतरीन, खूबसूरत दुनिया को बनाया है, जिसके समान अब तक ऐसी खूबसूरत दुनिया कहीं और नहीं है। क्या भगवान् अपनी उस खूबसूरत दुनिया को खत्म कर देगा? नहीं, उसे जब यह मालूम हुआ कि लोग इस बेहतरीन दुनिया को तबाह करने का प्रयत्न कर रहे हैं और इस दुनिया को रसातल में ले जाने की तैयारी हो गयी है, तब भगवान् ने राष्टï्रपति शासन की तरह से इसकी लगाम अपने हाथों में सँभाल ली है और सँभालने के बाद में इस संसार को फिर से सुव्यवस्थित बनाया है। अवतार भी इसी तरह से हुए हैं। अवतार कहाँ से होते हैं तथा किस तरह से होते हैं? यह आप सभी जानते हैं। चाहे उसे दसवाँ अवतार कहिए या चौबीसवाँ अवतार कहिए, यह सब भारतभूमि से उत्पन्न हुए हैं। सूरज के निकलने की एक ही दिशा-पूरब दिशा होती है। विनाश चाहे किसी भी प्रकार से हुआ हो, लेकिन इन सबके उपाय की एक ही जगह है, जहाँ से इन सबको सँभाला जा सकता है। आज फिर वही समय आ गया है कि विनाश की दुनिया जिन लोगों ने पैदा की है, इन सबको ठीक करने का काम एक बार फिर भारत भूमि करने वाली है, जो किसी जमाने में उसने की थी। सतयुग की बातें आपने पढ़ी व सुनी जरूर होंगी कि इस जमीन पर स्वर्ग किस तरह से बिखरा हुआ था। आपने भारतभूमि के इतिहास पढ़े होंगे, जैसे रामायण, महाभारत, वेद, गीता, पुराण आदि। आपको इसके विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी होनी चाहिए। प्राचीनकाल में बहुत लम्बे समय तक एक ऐसा लम्बा समय रहा, जिसको कि सतयुग कहा जा सकता है। उस सतयुग की वापसी फिर होने वाली है।
मुसीबतों के दिन क्या ऐसे ही बने रहेंगे? क्या विनाश की तबाही इसी तरीके से ही होती रहेगी? क्या इस सुन्दर दुनिया की बरबादी इसी तरह से होती रहेगी? क्या यह समय ऐसा ही बना रहेगा? नहीं, जिस कलाकार ने इस दुनिया को अपनी सारी कला झोंक करके बनाया है, वह इस दुनिया की तबाही नहीं होने दे सकता। इसलिए अब उसका अन्तिम अवतार होने वाला है। फिर समझदारी, जिम्मेदारी और ईमानदारी का माहौल बनने वाला है। एक ऐसा ही भगवान् आने वाला है, जिसके द्वारा ''वसुधैव कुटुम्बकम्ÓÓ का सिद्धान्त लागू होने वाला है। आज के बिखराव फिर से दूर हो सकें , अब वह समय ज्यादा दूर नहीं। अब सारी दुनिया को एक दुनिया बनकर रहना पड़ेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धान्त के ऊपर चलना होगा। दुनिया को एक राष्टï्र के रूप में, एक भाषा-भाषी के रूप में, एक धर्म-संस्कृति के अनुयायी के रूप में रहना पड़ेगा। दुनिया को एक व्यवस्था के अन्तर्गत, एक कानून और नियम के अंतर्गत चलना पड़ेगा। अगले दिनों ऐसी व्यवस्था लागू करनी होगा। ऐसी व्यवस्था कहाँ से आएगी? आप जानते है क्या? ऐसी व्यवस्था सिर्फ भारतीय संस्कृति में है। अगले दिनों एक ऐसी व्यवस्था कायम करनी होगी, जो कि बहुत शानदार होगी, जिसमें सभी ओर से सुख और शान्ति होगी। ऐसी व्यवस्था सिर्फ भारतीय संस्कृति में है, जिसको हम देव संस्कृति कहते हैं। देवसंस्कृति की यह विशेषता है कि इनसान की मन:स्थिति को व उसके व्यवहार को ऐसा बनाया जाए कि सारी दुनिया में सुख और शान्ति आये, क्योंकि मन:स्थिति ही सुख और शान्ति प्रदान करती है।
अच्छी परिस्थितियाँ लाने के लिए मन:स्थिति का ठीक होना जरूरी है। यह कार्य धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का है। इसको कौन-सी संस्कृति कहेंगे? इसे चाहे इनसानी कहिए, मानवीय कहिए, इसी को पुराने लोग भारतीय संस्कृति कहते हैं। वास्तव में यह मानवीय संस्कृति है, किसी एक देश की संस्कृति नहीं है। इसके विस्तृत होने का समय आ गया है। अगले दिनों भारतीय संस्कृति हर जगह फैलेगी। यह संस्कृति भारतीयों के माध्यम से लोगों को स्नेह देकर के सारी दुनिया के लोगों को एक रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर देगी। वह दिन अब दूर नहीं है, वरन् नजदीक आ गया है। हुआ क्या है? भारत भूमि पर पहले से ही यह प्रकाश फैल रहा है। मानो किसी ने पहले से ही स्कीम बनाकर रख दी हो। जब ऊषाकाल आता है, तो कोई तैयारी करता है क्या? पूरब में से लाल रंग के बादलों में से सूर्य निकलता है। ये सब सूर्य भगवान् के निकलने के लिए तैयारियाँ हैं। भगवान् की तैयारी के परिणामस्वरूप यह होता है कि थोड़े समय में अंधकार का पता नहीं चलता, उलूकों का पता नहीं चलता, चोरों का कहीं पता नहीं चलता, चमगादड़ों का पता नहीं चलता। सोने वालों की खुमारी का कहीं पता नहीं चलता, हर जगह जाग्रति की लहर फैल जाती है।
ठीक इसी तरीके की जाग्रति की लहर भारतभूमि से चल पड़ी है। क्या यह भारतवर्ष तक सीमित रहेगी? सूरज सीमित कहाँ रहता है। सूरज पूरब से निकलता है अवश्य, परंतु थोड़े ही समय में ऊपर चला जाता है। सारी दुनिया को थोड़े ही समय में अँधेरे से निकालकर उजाले का मजा चखा देता है। भारतीय संस्कृति के उदय होने का समय आ गया है। देवसंस्कृति के उत्थान होने का समय नजदीक आ गया है। देवसंस्कृति के द्वारा सतयुग को वापस लाने का समय निकट आ गया है। उन लोगों को चुनौती है, जिन्होंने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया, जिससे कि इनसान की बरबादी होकर रहे। जिनने विनाशकारी एटमबम बनाए, जिन्होंने असमानताएँ फैलायीं, जिन्होंने 'क्राइमÓ को प्रोत्साहन दिया, जिन्होंने आपाधापी को प्रोत्साहन दिया, जिन्होंने गन्दी फिल्में बनायीं, जिन्होंने इस तरह की रिवाजें चलायीं, जिससे इन्सान तबाह होने जा रहा हो, अब इन लोगों को चुनौती है। किसकी ओर से? भगवान् की ओर से, प्रज्ञावतार की ओर से, नये युग की ओर से, जो कि अब बिलकुल नजदीक आ गया है।
इसकी जिम्मेदारी किसकी है? भारतवर्ष की। इसकी जिम्मेदारी फिर से भारतवर्ष ने सँभाली है। पौर्वात्य संस्कृति ने सँभाली है और उस पौर्वात्य संस्कृति की हम और आप संतान हैं। इन सबकी जिम्मेदारी हमारी नहीं होगी, तो किसकी होगी? पूर्व की दिशा से जब सूर्य निकलता है, तो उसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? किरणें ही तो उठाएँगी। किरणों को ही तो फैलना है। वही तो गर्मी फैलाएँगी। सूर्य की किरणों को हर चीज में प्रकाश और उल्लास भरना है। आप और हम उसकी किरणें हैं। किसकी? प्राची की? प्राची कौन है? प्राची भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति की किरणें हैं—आप। आप हिन्दुस्तान में हो तो क्या, हिन्दुस्तान से बाहर हो तो क्या। इससे क्या लेना-देना? आप सभी भारतीय संस्कृति के अनुयायी हैं। आप नागरिक कहीं के हों, देश की स्थिति से 'सिटीजनÓ कहीं के हों, मैं क्या कहूँ आप से? आप तो भारतीय संस्कृति के पुत्र हैं और आप वही रहेंगे। आपकी नसों में ऋषियों का खून है, जो कि ज्यों का त्यों बना रहेगा। आप किसी भी मुल्क में रहिए, किसी भी जगह रहिए, कहीं की नागरिकता स्वीकार करिए, कोई भी काम करिए-आपके ऊपर बड़ी जिम्मेदारी है। उस जिम्मेदारी की आगाही करने के लिए ही हम आपकी सेवा में हाजिर हुए हैं। हम आपके पास इसीलिए बार-बार आते हैं और अपने कार्यकत्र्ताओं को आपके पास भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक के रूप में, सतयुग के संदेशवाहक के रूप में, इनसानी उज्ज्वल भविष्य के संदेशवाहक के रूप में भेजते हैं, यह बताने के लिए कि आप महान हैं, आपकी संस्कृति महान है। आपकी परम्परा महान है। आपको अपनी महान परम्परा को जिन्दा रखना है।
इस महान परम्परा को इसलिए जिन्दा रखना है कि इसकी हवा न केवल हिन्दुस्तान में, बल्कि सारी दुनिया में पैदा की जानी है। यह आप लोगों के द्वारा ही की जाएगी। आप ही इस जिम्मेदारी को सँभालेंगे। जो लोग अमेरिका, हालैण्ड, इंग्लैण्ड, जर्मनी आदि देशों में रहते हैं, उन सबकी जिम्मेदारी आप लोगों को सँभालनी है। जो लोग अफ्रीका के किसी भी भाग जैसे-युगाण्डा, केन्या या यूरोप में रहते हैं अर्थात् प्रवासी भारतीय हैं, वह सभी हमारे राजदूत के रूप में इस कार्य को करेंगे। जो भी भारतीय संस्कृति के पक्षधर हैं, उनको चाहें, तो हम राजदूत कह सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द भारतीय राजदूत थे। किसके? भारतीय संस्कृति के। भारत सरकार के नहीं। आप कहीं भी रहते, चाहे अफ्रीका, अमेरिका, जापान, इंग्लैण्ड या अन्य किसी भी जगह रहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे प्रवासी भारतीय चौहत्तर मुल्कों में रहते हैं। आपको भारतीय संस्कृति के बारे में, नवयुग की वापसी के बारे में लोगों को बताना है। इसकी सिर्फ जानकारी ही नहीं देना, बल्कि हर आदमी को इस कार्य के लिए प्रोत्साहित भी करना है। यह काम आपको ही करना है। अगर आप इस काम को नहीं करेंगे, तो आपकी अन्तरात्मा इसके लिए मजबूर करेगी।
साथियो, आपकी नयी पीढिय़ाँ आपसे यही अपेक्षा करेंगी कि आप ठीक समय पर ठीक कार्य करें। आप ठीक समय पर ठीक कार्य करने के लिए कमर कसकर तैयार रहिए। आप कहीं भी, किसी भी देश में रहते हैं, बड़े शानदार ढंग से रहिए। आपकी हर आदमी प्रशंसा करता है। भारतवासियों को आपके ऊपर गर्व है। प्रवासी भारतीयों ने अपने-अपने मुल्कों में रहकर जो काम किया है, वह प्रशंसनीय और सराहनीय है। आप हमसे रहते बहुत दूर हैं, आपसे हमको, भारतमाता को बड़ी आशाएँ हैं। आपकी भी अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ हैं, बच्चों की, उनकी पढ़ाई की, माता-पिता की, इनको भी पूरा करिए। पर इन जिम्मेदारियों के साथ-साथ भारतीय परम्परा, भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी उतनी ही मेहनत करनी चाहिए। आप यह काम करेंगे, हमें पूरा-पूरा विश्वास है कि आप हँसी-खुशी के साथ इसे करेंगे। हम अपने कार्यकत्र्ताओं के मार्फत आपके पास आते हैं। आपको जगाते हैं, समझाते हैं, झकझोरते हैं। आपको कभी खुश करते हैं, कभी नाराज करते हैं, कभी आपको मनाते हैं कि आप इस अमूल्य समयको समझिए। अपनी जिम्मेदारी को समझिए। आपको अभी बहुत सारे काम करने हैं। इसके लिए हमने आपके पास बहुत-सा सहित्य व किताबें भेजी हैं, जिसमें आपको, प्रवासी भारतीयों को क्या करना है, वह सब लिखा है। आपको, स्वयं को भारतीय इकाई के रूप में रहना है। न केवल संतति इकाई के रूप में, बल्कि भारतीय संस्कृति की नुमाइन्दगी करते हुए उस मुल्क में जो भी रहते हैं, उन सबको वह संदेश देना है, जिसको इनसानियत का संदेश कह सकते हैं, भारतमाता का संदेश कह सकते हैं, वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश कह सकते हैं, भारतीय संस्कृति का संदेश कह सक ते हैं। यह सब काम आपको करना है।
मित्रो, हमने आपको बहुत सारी बातें बतायी हैं, फिलहाल उनमें से कुछ काम ऐसे हैं, जो आपको जरूर करना है। वह कौन-से काम हैं? पहला काम—जो भारतीय मूल के निवासी हैं, उन सबका सम्मेलन अपने-अपने क्षेत्र में जरूर से करना है। 'युग निर्माण सम्मेलनÓ उसका नाम रखें-'प्रज्ञा अभियान सम्मेलनÓ नाम रखें। नाम से कुछ नहीं होता है। कुछ भी आप अपने मन से नाम रख सकते हैं। अगर आप वृहद सम्मेलन नहीं कर सकते, तो खण्डों में उस सम्मेलन को आप अवश्य करिए, जिससे कि सभी जन सम्मिलित हो सकें। उसके माध्यम से आप बता सकते हैं कि आप न केवल मिलजुलकर रहेंगे और न केवल एक दूसरे की सहायता करेंगे, भारतीय परम्पराओं को अपने में समाविष्टï करेंगे, बल्कि नवयुग के आगमन के बारे में लोगों को जानकारी देंगे। इस कार्य के लिए एक सम्मेलन होना जरूरी है, मीटिंग होना जरूरी है। आपको मालूम होगा कि आज से बीस साल पहले गायत्री तपोभूमि में एक हजार कुण्डीय यज्ञ हुआ था, जिसमें सभी धर्मप्रेमी व समझदार लोगों ने सहयोग किया था। उनके सहयोग से यह यज्ञ अभियान चलाया गया, जिसकी ओर से हम आपको बार-बार संदेश देते हैं। आपको अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने मुल्क में एक सम्मेलन अवश्य कराना चाहिए। उससे आपसी प्यार बढ़ेगा, एक दूसरे से मिलने पर जानकारी बढ़ेगी। इससे आपस का प्यार बढ़ेगा, एक दूसरे का सहयोग मिलेगा। इसलिए भावनात्मक एकता की दृष्टिï से एक सम्मेलन अवश्य करना चाहिए। इसलिए आप सभी को मिलजुलकर कार्य करना चाहिए, क्योंकि अकेले आप कोई भी कार्य नहीं कर सकते। भगवान् राम ने भी रीछ-वानरों को एकत्रित किया था। श्रीकृष्ण भगवान् ने भी ग्वाल-बालों का सहयोग लिया था। गाँधीजी ने भी सत्याग्रहियों का साथ लिया था। अगर आप भी मिल-जुलकर कार्य नहीं करेेंगे, तो आप सब में प्रेम कैसे बढ़ेगा? इसलिए आप सभी लोगों को मिलजुलकर सम्मेलन करना चाहिए।
दूसरा काम यह है कि आप प्रज्ञा मिशन, जिसको प्रज्ञावतार-मिशन कह सकते हैं, निष्कलंक अवतार-मिशन भी कह सकते हैं, नवयुग के संदेश भी कह सकते हैं, इसके सम्बन्ध में जानकारी देने के लिए आप छोटी-छोटी किताबें छाप सकते हैं। आप बहुत-सी जानकारी अच्छे साहित्य के माध्यम से लोगों तक पहुँचा सकते हैं। इस मिशन का क्या उद्देश्य है? हम अब तक क्या कर चुके हैं? इस सभी के लिए भगवान् की क्या प्रेरणा जुड़ी हुई है? इसके लिए स्मारिका छापनी चाहिए। स्मारिका से क्या होगा? स्मारिका से विज्ञापन मिलते हैं, जिससे विज्ञापन देने वालों का लाभ होता है। स्मारिका के माध्यम से हर छोटे-बड़े लोगों को बिना पैसे की जानकारी मिलती है। एक फिजा बन जाती है, एक माहौल बन जाता है। हर एक को इस माध्यम से आसानी से मालूम पड़ेगा कि यह सँस्था क्या है? इस मिशन का उद्देश्य क्या है? यह संस्था कितनी शानदार है और यह कितने महत्त्वपूर्ण कार्य कर चुकी है और आगे क्या-क्या कार्य करने वाली है? यह बात अगर बताएँगे नहीं, तो आपके समर्थक कहाँ से आएँगे? आपको सहयोग कहाँ से मिलेगा? आप स्मारिका कहाँ से छापेंगे। इसलिए स्मारिका आप जरूर छापें।
इसके अलावा और भी बहुत से काम हैं, जो आपको करने हैं, जिसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। आप भारतीय संस्कृति का, नवयुग का संदेश सभी को दें, इसका प्रकाश सब जगह फैलाएँ। विनाश से उत्पन्न विभीषिकाओं के बारे में लोगों को बताएँ और आगाह करें। आप लोगों को बताएँ कि नयी दुनिया बनाने के लिए, अच्छे दिन लाने के लिए अच्छे लोगों को क्या करना चाहिए। यह सब काम तभी हो सकता है, जब आप लोगों को इक_ïा करके एक बड़ा सम्मेलन करें, संगठन खड़ा करें। संगठन में स्थायित्व लाने के लिए कुछ न कुछ गतिविधियाँ निरन्तर चलनी चाहिए, जिससे लोगों का उत्साह ठंडा न हो पाए। मुझे उम्मीद है कि भारतीय संस्कृति जो कि पूर्व से नये सिरे से उदय हो रही है, उसे आप अपने तरीके से त्यागपूर्वक, उत्साहपूर्वक और हिम्मत से फैलाने में हमारी मदद करेंगे। प्रज्ञा-अभियान, गायत्री परिवार-शाखा, संगठनों को मजबूत करेंगे और उसके विचारों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में मदद करेंगे। यदि आप यह कर सकें, तो आप स्वयं देखेंगे कि जो हम लोग आप से उम्मीद करते थे, वह आपने कितनी सरलता के साथ किया, अगर आप यह काम करेंगे, तो मजा आ जाएगा। आप लोगों से प्रारम्भिक कदम उठाने के रूप में यह प्रार्थना करते हुए आज की अपनी बात समाप्त करते हैं। आप लोगों को बहुत-बहुत प्यार, आशर्वाद। आप लोग चाहे जितनी दूर रहते हों, पर हृदय के हिसाब से, भावना के हिसाब से, विचारणा के हिसाब से आप हमारे बहुत नजदीक हैं। आप बहुत प्यारे हैं, मित्र हैं, सहयोगी हैं, कुटुम्बी हैं। आप सभी सुखी रहें, समुन्नत रहें और अपने नजदीक वालों को भी ऊँचा उठाने का प्रयास करें, ऐसी भगवान् से प्रार्थना है।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खमाप्रुयात्॥
ॐ शान्ति:
भावी महाभारत- तीनों मोर्चे खुले
युग निर्माण योजना की कार्य पद्घति को तीन चरणों में विभाजित किया गया है। पहला चरण ज्ञान यज्ञ-लोगों को दिशाएँ देना, लोगों की विचारों की विकृतियों का समाधान करना, गलत सोचने के तरीके को सही सोचने में परिणत कर देना-यह रहा पहला कदम। आदमी के विचार करने का क्रम यदि सही न हो तो वह अच्छे काम-सही काम नहीं कर सकता। सही काम आदमी करे, इसके लिए उसके चिन्तन की शैली, विचार करने की शैली को परिष्कृ त होना ही चाहिए।
इन पिछले दिनों में जब विचारों की विकृति चारों ओर से फैला दी गई है, क्या धर्म, क्या समाज, क्या राजनीति? हर क्षेत्र में मनुष्य को दिग्भ्रान्त करने की कोशिश की गयी है। उसके विचारों को सुलझाने की अपेक्षा और ओछा और उजड्ड बना दिया। इन उद्विग्न मानसिक परिस्थितियों का समाधान करना आवश्यक है और नये सिरे से पुराने घास-कूड़े-कबाड़े को जो हमारे विचारों, मान्यताओं और परम्पराओं के रूप में विद्यमान है, उसको हटाकर के उसमें जो विवेकयुक्त और बुद्घिसंगत विचार पद्घति है, उसकी स्थापना करने का काम ज्ञान यज्ञ का है।
पहला कार्य अपनी योजना का ज्ञान है। ज्ञान अगर न हो, विचार न हो तो आगे वाले कदम कैसे उठाएँ जा सकते हैं? इसलिए पहला ज्ञानयज्ञ का परिचय बताया जा चुका।
ज्ञान ने मनुष्य के जीवन को प्रभावित किया कि नहीं? मनुष्य में उसकी संवेदना उत्पन्न हुई कि नहीं? मनुष्य ने उस पर विश्वास किया कि नहीं, जो सुना था? जो सुना था, उस पर विश्वास किया तो उसके लिए कुछ त्याग करने के लिए, कुछ कष्टï सहने के लिए, कुछ आगे कदम बढ़ाने के लिए तैयार होना ही चाहिए।
इसीलिए अपनी युग निर्माण योजना का दूसरा कदम ये है कि लोगों को कुछ रचनात्मक कार्य करने की, सेवा करने की प्रेरणा दी जाए। अपनी ही सेवा न करें आदमी, अपने बेटे की ही न करे बल्कि जिस समाज में पैदा हुआ है, जिस धर्म में पैदा हुआ है, जिस संस्कृति में पैदा हुआ है, जिस विश्व में पैदा हुआ है, उसकी भी सेवा करना उसका फर्ज है। ये बात समझ में आए, और थोड़ा सा समय से लेकर पैसे तक लोकमंगल के लिए खर्च करने लगे, तब ये जानना चाहिए कि हाँ, अब इस आदमी में थोड़ी सी परिपक्वता आई। परिपक्वता का चिह्न सेवा की कसौटी पर कसकर ही जाना जा सकता है।
हर आदमी को सेवाभावी होना चाहिए। सेवा ही तो भजन है। कहते हैं सेवा-पूजा करता है कि नहीं। पूजा के साथ सेवा । पूजा की और सेवा न कर सका जो लूली-लंगड़ी, कानी-कुबड़ी पूजा । इसलिए सेवा करने की वृत्ति समाज में पैदा करने की शिक्षा और हर आदमी को अपने जीवन का एक अंग मानकर के रचनात्मक कार्यों में जुट जाने की प्रेरणा रचनात्मक कार्य पद्घति की है। यह हमारा दूसरा चरण है। दूसरा चरण यही है कि आदमी को आठ घंटा सोना और आठ घंटा कमाना, आठ घंटे बच जाते हैं, उसमें से कम से कम चार घंटे खर्च करने चाहिए लोक मंगल के लिए।
पहले एक घंटे की बात थी। ज्ञान प्रसार के लिए एक घंटा और दस पैसा (युग ऋषि कम से कम आधा कप चाय या आधी रोटी की कीमत निकालने की बात कहते रहे हैं। आज की स्थिति में उसी अनुपात में अंशदान निकालना चाहिए।) खर्च करना चाहिए। अब इससे अगला कदम कम से कम चार घंटे खर्च करना चाहिए। और पैसे की दृष्टिï से यदि संभव हो तो एक दिन की आमदनी खर्च करनी चाहिए, लोक सेवा के कार्यों में। उनतीस दिन की आमदनी वह अपने लिए खर्च करले, चलिये कोई बात हुई। लेकिन एक दिन की आमदनी न खर्च कर सके समाज के लिए, ये क्या बात? एक दिन तो आदमी को अपनी आजीविका का खर्च करना ही चाहिए।
अगर आदमी 100 रू. रोज कमाता है, तो तीन रूपये उसके हो गए। इतना भी नहीं देगा क्या समाज के लिए? सब बेटे को ही खिला देगा क्या? अपने पेट को ही खिला देगा क्या? क्या समाज का हक कुछ भी नहीं है ? समाज का हक है आदमी की आमदनी के ऊपर। सरकार टैक्स लेती है वो भी समाज का हक है। हर मनुष्य अपनी स्वेच्छापूर्वक समाज के लिए पैसे से लेकर समय तक का अनुदान दे, यह भी आवश्यक है। तभी तो रचनात्मक कार्य हो सकेंगे। वरना सब एक दूसरे को कहते भर रहेंगे, करेगा कोई नहीं।
करने के लिए समय चाहिए , करने के लिए श्रम चाहिए, पसीना चाहिए और पैसा भी चाहिए। ये जो लोग देने लगें , तो समझना चाहिए दूसरा कदम हमारा आगे बढ़ा। व्यक्ति की दृष्टिï से और कार्यक्रमों की दृष्टि से भी। ज्ञानयज्ञ का जब विस्तार होने लगे और लोग-बाग उससे प्रभावित होने लगें और ये कहने लगें कि हाँ ये विचार ठीक हैं, तब उनको कहना चाहिए कि विचार ठीक हैं तो उसमें सहयोग दीजिये और कुछ काम कीजिए । लोगों को काम पर नहीं लगाया जाए और काम नहीं दिए जाएँ तब केवल मान्यता और विश्वास और विचार टिकाऊ नहीं रह सकते। वो नष्ट हो जाते हैं, चले जाते हैं और हवा में गायब हो जाते हैं।
जोश तो किसी भी बात पर आ जाता है। जैसा हम देखते हैं, वैसे ही आ जाते हैं जोश। और बस जोश आया और पानी के बबूले की तरीके से खतम। उस जोश और विश्वास को कायम रखने के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रक्रिया और श्रृंखला आवश्यक है। इसीलिए अपने इन कार्यक्रमों में इस बात को जोड़कर रखा गया है कि जो भी व्यक्ति अपने कार्यक्रमों से-विचारों से प्रभावित हों, उन्हें किसी न किसी रूप से समाज के लिए कुछ श्रम करने का-कुछ काम करने को और राष्ट्र को-विश्व को बनाने को और मनुष्य को बनाने को और परिवार को बनाने का कोई न कोई रचनात्मक कार्य करना ही चाहिए। शतसूत्रीय योजना में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
तीसरा चरण जो अपना रह जाता है, वह संघर्ष का है। संघर्ष के बिना अवांछनीय तत्त्वों को हटाया नहीं जा सकता है। कुछ निहित स्वार्थ ऐसे होते हैं, उनकी दाढ़ में ऐसा लग जाता है अथवा किसी अपनी बेवकूफी को ऐसा प्रेस्टीज प्वाइंट बना लेते हैं कि उससे पीछे हटना ही नहीं चाहते हैं। अपनी बुद्घिमानी, अपनी अक्लमंदी और अपना अहंकार-अपने घमंड को इतना ज्यादा बढ़ा लेते हैं कि अपने साथ जुड़े हुए जो विचार हैं उनका ही समर्थन करते हैं।
मान लीजिए कोई बूढ़ा आदमी है, और उसने कोई गलती की, चार धाम की यात्रा करके आया और सारा पैसा फँूक करके घर में आ गया। अब उसकी गलती को बताओ तो कोई मानेगा नहीं और दूसरे गाँव वालों को भी कहेगा-हम तो मुक्ति ले आए, तुम भी मुक्ति ले आओ। उसे समझाओ तो मानता ही नहीं ।
कुछ आदमी इस तरह के होते हैं, जिनको जड़ कहते हैं और अपनी गलती को ही प्रेष्टïीज प्वांइट बना लेते हैं। ब्याह शादी का मामला है, नाक का प्रश्न बना लेते हैं। कहते हैं कि साहब हमारे बाप-दादे के समय ऐसी शादी होती थी। ठीक है आप जो कहते हैं वो तो सही कहते हैं। आपकी बात भी सही है, ठीक माननी चाहिए। पर हम क्या कर सकते हैं? हमारे यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है।
इस तरीके से रूढि़वादियों से लेकर के जिनके स्वार्थ जुड़े हैं , जागीरदारों से लेकर के ताल्लुकेदारों तक और पण्डे-पुजारियों से लेकर के दूसरे अवांछनीय तत्त्वों तक जिनके दाढ़ में हराम के पैसों का, हराम की आमदनी का, बेकार की बातों का चस्का लग गया है, रिश्वतखोरी का चस्का लग गया, वो सीधे तरीके से मान जाएँगें क्या? नहीं। हम जब समझाएगें, हाँ, हाँ, हाँ करेंगे। कहेंगे कि आपने बिलकुल सही कहा, ऐसा ही होना चाहिए। फिर भ्रष्टïाचार विरोधी समिति के प्रेसीडेन्ट बन जाएँगे और करेंगे पूरा भ्रष्टïाचार। इस तरीके से इस तरह के लोग ही अधिकांश हैं। उनसे निपटा कैसे जाए? समझाते हैं उनको तो हमसे भी ज्यादा वो दूसरों को समझाते हैं । ऐसे लोगों को समझाने से क्या बात बनेगी ? ऐसे जड़ लोग बातों से समझ नहीं सकते।
अनीति का प्रतिरोध जरूरी
फिर किस तरीके से क्या किया जाए? रचनात्मक कार्य करने में लोगों का श्रम करने की, रचना करने की और सेवा करने की वृत्ति का विकास तो होता है, इस दृष्टिï से तो बहुत अच्छा है, जो कार्य नहीं होते हैं, वो होने लगेंगे। कुछ भाग नहीं हो रहा है, होने लगेगा। जो विकास नहीं हुआ है, होने लगेगा। लेकिन जो निहित स्वार्थ रोड़े की तरह खड़े हुए हैं, उनका क्या किया जाए? इसके लिए और कोई तरीका नहीं है। एक ही तरीका है कि उनका संघर्ष किया जाए, उनको धमकाया जाए, उनको हटाया, उनका मुकाबला किया जाए और मोर्चा लिया जाए।
मोर्चा लेना जब अनिवार्य हो जाता है और कोई रास्ता नहीं रहता तब मनुष्य का शौर्य और विवेक अवतरित होना चाहिए और शौर्य और विवेक को समय-समय पर अवतरित होना पड़ा है। भगवान्ï ने जब-जब अवतार लिए हैं, उस समय लिए हैं, जब ऋषियों के शिक्षण बेकार हो गये हैं और जब ऋषियों की रामायण की कथा और भागवत की कथा बेकार हो गयी। तब फिर भगवान को वही तीर कमान संभालना पड़ा। दसों अवतार हुए हैं, दसों अवतार में से आप प्रत्येक की गणना कर लीजिए। कच्छ-मच्छ से लेकर वराह तक और परशुराम से लेकर रामचन्द्रजी तक। एक -दो ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने ज्ञान के द्वारा भी काम चला लिया जैसे बुद्घ भगवान का अवतार। वामन का अवतार। जिन्होंने ज्ञान के द्वारा भी काम चला लिया बाकी सारे अवतार ऐसे हुए हैं जिनको लड़ाई-झगड़ा करना पड़ा है और लड़ाई-झगड़े के लिए जनता को तैयार करना पड़ा है।
अब समय ऐसा भी आ गया है जब संघर्ष, एक घनघोर संघर्ष करना पड़ेगा अवांछनीय तत्त्वों के साथ। और ये सहज में निपटने वाले नहीं हैं। शिक्षा से मानने वाले नहीं हैं। ऐसा सन्त कहाँ से आए जो सबको ठीक कर दे? ऋषियों ने बहुतो को समझाया, परन्तु उनमें से कुछ ही समझ सके। बाकी दुष्टों-दुराचारियों को तो उनके हिसाब से ही लगाना पड़ता है। उस हिसाब से लगाने के लिए संघर्ष की बहुत जरूरत पड़ेगी।
वर्तमान समय में संघर्ष करने के लिए मनुष्य और मनुष्य में टक्कर खाने की जरूरत नहीं है लेकिन विचार और विचारों में घनघोर टक्कर होने ही वाली है। ये संघर्ष जिसका मैं वर्णन करता रहा हूँ और ये कहता रहा कि युग परिवर्तन के साथ-साथ एक बहुत भारी महाभारत की संभावना जुड़ी हुई है; वो महाभारत के लड़ाई- झगड़े के बारे में मैं नहीं कहता, तोप- तलवारों के बारे में नहीं कहता। तोप-तलवार वाले जो युद्घ होते हैं उससे कोई समस्या का हल नहीं होता बल्कि नयी-नयी समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कभी भी लड़ाई हुई उससे नयी समस्याएँ पैदा हो गयी जिससे समाज का ढाँचा लड़खड़ा गया।
हिन्दुस्तान में महाभारत हुआ। महाभारत के बाद में वो परिस्थितियाँ आ गयीं जो अब तक सँभलने में नहीं आ रही हैं। द्वितीय विश्व युद्घ हुआ, उसमें कोई व्यक्ति है क्या जिसको हम मार डालेंगे। लाखों मनुष्य मार डाले जाते हैं, लाखों मनुष्यों की हत्या हो जाती है, और लाखों मनुष्यों का न जाने क्या से क्या हो जाता है? उससे सारे समाज में विच्छंृृखलता पैदा हो जाती हैं। लाभ नहीं होता है। इसलिए भावी युद्ध तो होगा ही लेकिन तमंचों का, तोपों का ऐटम बमों का युद्ध होगा ऐसा मैं कुछ नहीं कहता। होता होगा तो होगा, न होता होगा न होगा। लेकिन सतयुग को लाने के लिए जिस महायुद्घ की जरूरत है, जिस महाभारत की जरूरत है, वो कुछ अजीब किस्म का होगा। वह उस किस्म का होगा जिसमें हर विचारशील व्यक्ति को हर अविवेकी व्यक्ति के साथ लडऩा-झगडऩा पड़ेगा और जद्ïदोजहद करनी पड़ेगी। समझाने के साथ हम जो काम करते हैं और उसकी शुरूआत पहले विरोध के रूप के रूप होगी। जो आदमी गलत हैं, गलत काम करते हैं, उनका हमको असहयोग करना चाहिए और विरोध भी।
पहला कदम असहयोग
गलती हमारी ये होती है कि जब हम ये देखते हैं कि ये आदमी आतंकित कर सकता है और हमारा नुकसान कर सकता है तो हम उसकी हाँ में हाँ मिला देते हैं। खुल्लमखुल्ला विरोध की शक्ति नहीं रखते। उससे असहयोग कर नहीं सकते बल्कि उसके सहयोगी बन जाते हैं। मनुष्य की यह कायरता ही गुंड्डागर्दी और पापों को बढ़ाने में समर्थ होती है। मनुष्य अगर सीना तानकर खड़ा हो जाए और ये कहे कि हम आपकी गलत काम में सहायता नहीं कर सकते और हम आपके साथ नहीं हैं और हम आपका समर्थन नहीं कर सकते। ऐसा करने से दुष्टों की हिम्मत पचास फीसदी कम हो जाती है।
बहादुरी हममें लडऩे की न हो, तो कोई बात नहीं, पर कहने की तो हो। वोट माँगने के लिए आया, तो कहे कि साहब आपका चाल-चलन ऐसा नहीं है और आप इस लायक नहीं हैं कि हम आपको एसेम्बली में भेजे और हम आपका चुनाव में वोटे नहीं देगे। तो आदमी की आधी हिम्मत कम हो जाती है। हममें से बहुत से लोगों को इस बात का माद्ïदा ग्रहण करना ही चाहिए कि जो आदमी सही काम नहीं कर सकते हैं और जो गलत रास्ते पर जा रहे हैं, उनके साथ में हर आदमी राजी नामा न करें, समझौता न करे, समर्थक न बनें। उसकी हाँ में हाँ न मिलाएँ।
ठीक है, अगर विरोध करने की शक्ति अपने अन्दर नहीं है और लडऩे की शक्ति नहीं है तो कुछ देर के लिए चुप भी बैठ सकते हैं और उस लड़ाई के वक्त का इन्तजार भी कर सकते हैं। लेकिन समर्थन तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए और सहयोग तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए। उसका मित्र बनकर तो किसी भी हालत में नहीं रहना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अनैतिकता का पोषण करते हैं, अनैतिकता का समर्थन करते हैं।
संघर्ष यहाँ से शुरू होता है। संघर्ष की पहली प्रक्रिया वह है कि हम किसी बुरे आदमी का सहयोग न करें। कोई जुआरी हमसे उधार माँगने आये कि हम ब्याज से पैसे देंगे, कहें कि हम पैसे नहीं दे सकते। ये असहयोग हुआ। जो आदमी बुरा है उसे बुरा कहना, अच्छा है उसे अच्छा कहना । नम्र शब्दों में हम कहें, ठीक है। इज्जत खराब न करें, ये भी ठीक है। लेकिन हमको जो बात है-जो फैक्ट है उसको खोल ही देना चाहिए। खोल देने से अच्छाई रहेगी।
यदि कोई बुरा आदमी सज्जनता की बाना पहने हैं, एक सियार-शेर का चमड़ा ओढ़कर रहता है और उसके बारे में लोगों की आँखें खुल जाएगी, तो क्या हर्ज की बात है? हमको सही कहना, अच्छे को अच्छा कहना, बुरे को बुरा कहना सीखना चाहिए और हमको गलत आदमियों का असहयोग करना सीखना चाहिए। उनके साथ में हम सहयोग न करें।
यहाँ से लड़ाई शुरू होती है और लड़ाई में दोनो तरफ के लोग घायल होते हैं। सामने वाला भी घायल हो जाये और अपने को चोट नहीं आयेगी ये कै से हो सकता है? अपने आपको भी चोट आ सकती है, ये मानकर लड़ाई के मैदान में आना चाहिए। संघर्ष के मोर्चे पर सिर्फ उसी को आना चाहिए, जो इस बात के लिए तैयार हो कि मैं एक ऐसा काम करने जा रहा हूँ , जिसमें मुझे लड़ाई-झगड़ा करना पड़ेगा। लड़ाई झगड़ा करने में सामने वाला ही मारा जाता हो, सामने वाला ही घायल होता हो, सामने वाला को ही हरा दिया जाता हो, ऐसी बात तो नहीं है न। जो आदमी लड़ाई लड़ता है वो भी इस चपेट में आता है, वह भी घायल होता है, जख्म होता है। तो हमारे विरोध करने की कीमत पर अगर दूसरे लोग हमारे ऊपर हमला करेंगे, हमें नुकसान पहुँचाएँगे तो उसको भी देखेंगे। उसको भी समझेंगे, उसके लिए भी तैयार हैं। ये हिम्मत आदमी के भीतर उत्पन्न होनी चाहिए। इतनी हिम्मत अगर उत्पन्न हो जाए और आदमी के असहयोग करने का माद्दा विकसित हो जाए, बुरे को बुरा कहने का माद्दा विकसित हो जाये तो समझना चाहिए कि पाप, अनीति और अनाचार के विरूद्घ संघर्ष करने का पचास फीसदी मोर्चा फतह कर लिया।
अगला चरण विरोध
अब इससे आगे भी बढऩा होगा और न केवल असहयोग बल्कि विरोध भी करना पड़ेगा और उनकी आज्ञाओं का उल्लघंन करना भी शुरु करना पड़ेगा। जैसे कि पिता जी ने कहा हमको तो बीस हजार दहेज लेना है और हमारा कहना मानो। श्रवणकुमार ने भी तो कहना माना था, रामचन्द्र ने भी तो कहना माना था। तुम हमारे बेटे हो, हम तुम्हारे बाप हैं, हम तुम्हारा ब्याह करते हैं। बाप का हुकूम मानो।
ऐसे मौकों पर बाप के हुकूम न मानने की बेटे में हिम्मत तो होनी ही चाहिए कि बाप के पैर छुए, उनको प्रणाम करे और कहे कि आप हमारे पिताजी हैं और आपकी शान और इज्जत के हिसाब से आपका सम्मान करना मेरा काम है। मैं आपको प्यार करूँगा और आपकी सेवा करूँ गा लेकिन मैं आपका गलत काम स्वीकार नहीं कर सकता। गलत काम को अस्वीकार करना और गलत बात की मर्यादा का उल्लघंन करना कोई बुरी बात नहीं है। आप बड़े हैं, बाप हैं लेकिन बाप से भी धर्म बड़ा है, ईमान बड़ा है, विवेक बड़ा है, न्याय बड़ा है। आप न्याय से बड़े नहीं हो सकते हैं।
न्याय निष्ठों के उदाहरण
आप को कितने उदाहरण दिये जा सकते हैं प्रह्लाद का उदाहरण। प्रह्लाद का बाप था हिरण्यकश्यप। वो ये कहता था कि सोना कमाकर के लाये ईमानदारी से या बेईमानी से। राम का नाम लेने और समाज की सोचने से क्या फायदा? यही कहता था उसका बाप। बेटा कहता था कि नहीं पिताजी सोना की जरुरत नहीं है। जब अपने देश में गरीब और दु:खियारे लोग रहते हैं तो हम कम में भी काम चला सकते हैं और जो हमारे पास है वही काफी है। हम अपने सारी जिन्दगी धन कमाने के लिए क्यों लगायें? हमको अच्छे काम क्यों नहीं करने चाहिए और भगवान की आज्ञा के अनुसार विश्व में शान्ति लाने के लिए कोशिश क्यों नहीं करनी चाहिए?
बाप नाराज हुआ, बोला- नहीं मेरा कहना मान। प्रह्लाद ने कहा नहीं, मैं कहना नहीं मानूँगा। उनने कहना नहीं माना और बाप बराबर उसको तंग करता रहा। बाप ने मारा, गालियाँ दीं, बुरा-बुरा कहा। ठीक है बेटे ने गालियाँ तो नहीं दीं, उसके बदले में बेटे ने बाप को मारा तो नहीं, लेकिन शांत चित्त से ये कहता रहा कि आपका कहना नहीं मानूँगा। आपका इज्जत करुँगा ठीक है, पर कहना किसी कीमत पर नहीं मानूँगा। और उसने बाप का कहना नहीं माना। ठीक, प्रह्लाद को जला दिया गया और क्या-क्या कर दिया गया, लेकिन प्रह्लाद ने कहना नहीं माना।
कोई आदमी हमारे बाप है या हमारा बुजुर्ग है या हमारी बिरादरी का कोई पंच है और कोई गलत बात कहने के लिए करने के लिए कहता है, तो उसे कहिये हम नहीं मानेंगे आपकी बात। दूसरे उदाहरण दिये भी जा सकते हैं संबंधियों के कुटुंबियों के। अक्सर संबंधी और कुटुंबी हमें अनावश्यक रूप से धन कमाने के लिए और गलत काम करने के लिए भी सहमति और प्रोत्साहन देते रहते हैं । उनकी बातों का हमें अवज्ञा करना चाहिए।
जैसे कि मैं आपको कई उदाहरण पेश कर सकता हूँँ। विभीषण का उदाहरण इसी तरह का है। रावण उसका बड़ा भाई था, बड़े की बात मानी जानी चाहिए मोटे रिवाज के हिसाब से। लेकिन बड़े भाई की बात तभी मानी जानी चाहिए जब उसकी बात सही हो, मुनासिब हो। अगर बड़ा भाई गलत काम करता है उसका समर्थन करने की कोई जिम्मेदारी छोटे भाई की नहीं है। रावण खराब काम करता था, कुंभकरण खराब काम करता था और विभीषण से कहा गया आप हमारे खानदान के हैं, हमारे कुटुंब के हैं, हम लोग जैसे करते हैं वैसा आप भी कीजिए। उन्होंने कहा मैं खानदान का हूँ जरुर और खानदान सम्बधी खानपान और दूसरी बातों की बात आयेगी तो मैं आपकी सहायता भी करूँगा। लेकिन गलत काम मानने के लिए और आपकी गलत नीतियों में सहयोग करने के लिए मैं बाध्य नहीं हूँ। विभीषण ने अपने भाइयों का कहना नहीं माना और भाइयों को छोड़कर चला आया।
ये संघर्ष घर वालों से भी किया जा सकता है। माँ की आज्ञा का उल्लघंन करना कैकेयी और भरत का उदाहरण है। कैकेयी कहती थी मैं तेरी माँ हूँ और तू मेरा बेटा है। माँ जो कहे उसे बेटे को मानना चाहिए। और तुझे मेरा कहना मानना चाहिए। मैंने राज्य तेरे लिए रखा है, सो तुझे राज्य गद्दी पर बैठना चाहिए और रामचन्द्र जी को वनवास जाने देना चाहिए और तुझे मौज करनी चाहिए। भरत जी ने कहा-आप हमारी माँ हैं, हम आपको रोटी खिलायेंगे, आपके पैर धोयेंगे और आपको प्रणाम करेंगे लेकिन आपकी गलत बात को मानने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। हम आपकी बात किसी कीमत पर नहीं मानेंगे आप माँ हैं तो हैं। माँ से भगवान बड़ा है, आत्मा बड़ी है, न्याय बड़ा है। इस तरह के संघर्ष हमारे पारिवारिक संघर्षों में विकसित किये जा सकते हैं।
रुढिय़ाँ नहीं, विवेक अपनाएँ
अपने यहाँ समाज में अनेक कुरीतियाँ और अनेक बुराइयाँ भरी पड़ीं हैं। इसमें से पुरातनपंथी लोग, बूढ़े लोग और औरतें और बुढिय़ाएँ न जाने क्या से क्या कहती रहती हैं। अमुक रिवाज पूरा करो आदि-आदि न जाने क्या-क्या कहती रहती हैं। उनकी बात माना जाए क्या? सफेद बाल वाला कोई समझदार होता है क्या? भेड़ के बाल सफेद होते हैं तो कोई भेड़ बूढ़ी होती है क्या, बुजुर्ग होती है क्या, कोई गुरु होती है क्या? सफेद बाल वाले बुड्ïडे ऐसे बेवकूफ और अहमक पाए गये हैं, जिनको दुनिया का जरा भी ज्ञान नहीं है। वे उलटी बात कहते हैं कि उसको अपनी पेरस्टीज का प्वाइंट बना लेते हैं। उनकी बात नहीं ही माना जाना चाहिए। अवज्ञा की जानी चाहिए, ब्याह शादियों के बारे में तो खास तौर से।
शादियों के बारे में विवाह विरोधी आंदोलन जो हमने शुरू किया है, उसमें इसी तरह का घरेलू संघर्ष खड़ा करना पड़ेगा। निहित स्वार्थों का जिनके दाढ़ में खून लग गया है, जो चाहते हैं कि बेटे को बेचकर के कमाई कर लें और घर में दौलत इक_ïी कर लें और घर में वाह-वाही इक_ïी कर लें, उनका विरोध करना ही पड़ेगा और प्रह्लाद के तरीके से हर नौजवान बच्चे को इससे लडऩे के लिए खड़ा करना ही पड़ेगा।
बुढिय़ा लोग कहती हैं फलाना चीज नहीं आयी, बहू ने ऐसा नहीं किया, वो फलाना नहीं है, ढेकाना नहीं है, उनसे कहें माताजी हम आपकी सेवा करेंगे, लेकिन आप अनावश्यक रूप से तानाशाही चलाना चाहें तो हम आपकी बात नहीं मानेंगे, आप नाराज हों तो हो जायें। इंसाफ बड़ा है। आप चाहें कि हम अपनी बीवी को डराएँ, धमकाएँ तो ये कैसे हो सकता हैं? इंसाफ को मानेंगे, आपको कतई नहीं मानेंगे। ये संघर्ष माता के विरुद्घ भी होना चाहिए और पिता के विरुद्ध भी। भाई के विरुद्ध भी होना चाहिए और स्त्री के विरुद्ध भी।
स्त्रियों के विरुद्ध घरेलू संघर्ष नहीं हुए हैं क्या? हाँ, शंकराचार्य अपनी माता को छोड़कर चले गये थे। उन्होंने कहा-हमें आप कहती हैं कि हमको घर-गृहस्थी में रहना चाहिए और समाज की सेवा नहीं करनी चाहिए, हम आपकी बात नहीं मान सकते। आप माँ हैं, अपनी जगह पर हैं। लेकिन हम आपकी बात क्यों माने? स्त्रियों की बात भी ऐसी रहती है और बच्चों की बात ऐसी रहती है, सारा का सारा इतिहास इस तरह से भरा हुआ पड़ा है कि संघर्ष की वृत्ति हमको सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन करने के लिए अपने परिवारों में से ही विकसित करनी चाहिए।
जाति बिरादरी के मामले भी इसी तरह के हैं जिसमें पुरातनपंथी लोग आज भी जाल में बुरी तरह से फँसे हुये हैं। हम तो कान्यकुब्ज हैं। और कान्यकुब्ज में अठारह बिश्वा के हैं और हम तो बाजपेयी हैं। हम तो अपनी बिरादरी में ब्याह करेंगे और हम तो किसी बात सुनेंगे नहीं, किसी का छुआ खायेंगे नहीं। ये कोई बात है? ख्वामखाह के पागल आदमी!
इस तरीके से बेवकूफ और वाहियात लोगों की बातों को मान कर के हम किस तरह से न्याय और इंसाफ की हत्या कर सकते हैं? हमें इनके विरुद्ध बगावतें खड़ी करनी पड़ेगीं। और आगे चलकर हमको उन आवांछनीय तत्वों के विरुद्ध जिन्होंने की समाज को बिगाडऩे का ठेका ले रखा है और जो समाज को तबाह कर रहे हैं, उनके विरुद्ध हमको गाँधी जी के उन हथियारों का इस्तेमाल करना पड़ेगा जिनको सत्याग्रह कहते थे, जिनको असहयोग कहते थे।
असहयोग और सत्याग्रह अब आगे आकर धीरे-धीरे विकसित होने लगा और उसकी प्रक्रिया घेराव के रूप में परिणत होने लगी है। अब सत्याग्रह यह नहीं है कि हम खड़े होंगे और आप छाती पर से निकल जाइये। उसमें दबाव भी रहता है कि हम आपको नहीं बढऩे देंगे और नहीं निकलने देंगे। पहले सत्याग्रह का अलग स्वरूप था अहिंसक सत्याग्रह था कि हम आपके दरवाजे पर पड़े हुये हैं और हमारी छाती पर पाँव रखकर के आप निकल जाइये और ऐसे बेशरम लोग भी होते थे जो छाती पर पाँव रखकर निकल जाते थे।
अब ऐसे आदमियों को ज्यादा शह नहीं दी सकती। उनके कदमों पर देर तक नहीं चला जा सकता। हिंसात्मक और अहिंसात्मक सत्याग्रह के बीच की एक नयी चीज निकल पड़ी है उसका नाम है -घेराव। आदमी को दो हजार आदमी घेरकर के बैठ जाते हैं कि साहब आप अब आप यहाँ रहिये, हम आपको बाहर नहीं घर से निकलने देंगे। हम आपको मजबूर करेंगे।
मजबूर करेंगे-ये घेराव का एक नया तरीका है, उसको इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जहाँ अवांछनीय बातें होती हों, जहाँ रिश्वतखोरी होती हो, जहाँ मिलावट की बात होती हो, जहाँ बेइंसाफी होती हो, जहाँ बेईमानी होती हों, वहाँ लोगों को इस तरीके से मजबूर करना चाहिए और रोका जाना चाहिए। रोकने और मजबूर करने के लिए हमें एक ऐसी संघर्ष सेना-युग निर्माण सेना खड़ी करनी पड़ेगी जिसकी ताकत इस तरह के लोगों को डराने में समर्थ हो।
जो आदमी नहीं मानते हैं और जो आदमी गलत काम करते हैं, गलत प्रभाव पैदा करते हैं, अपनी छोटी लड़की को बूढ़े के साथ में ब्याह करते हैं, उसके यहाँ न केवल सत्याग्रह किया जाना चाहिए, न केवल पिकेटिंग किया जाना चाहिए बल्कि घेराव किया जाना चाहिए कि ऐसा वर जो छोटी लड़की से ब्याह कर रहा हो घोड़े पर आगे नहीं बढ़ सकता। नहीं बढ़ने दिया जायेगा। दो हजार आदमी रास्ता रोककर खड़े हो जायें। उसके बाप को बंद कर दिया जाय कमरे में कि आपको कमरे से नहीं निकलने दिया जायेगा। उसके कोई भी परिणाम क्यों न होते हों, कानूनी उल्लघंन होता हो तो जेल जाया जायेगा। गाँधीजी के जमाने में भी कितने आदमी जेल गये थे, आप भी जेल जा सकते हैं।
पशु-बलि जैसे घृणित कर्म रोका ही जाना चाहिए। माँस खाये या न खाये, ये बात अलग है लेकिन देवता एक आदमी का नहीं है और देवता का मालिक एक आदमी नहीं है जो देवता को बदनाम करे। देवता को बदनाम हम नहीं करने देंगे। देवी तुम्हारी ही नहीं है, देवी हमारी भी है और देवी सारी हिन्दू समाज की है। आप समाज की देवी को कलंकित न करें। आप पूजा करें ठीक है, चन्दन चढ़ायें ठीक है, फूल चढ़ायें ठीक है। लेकिन देवी को आप डाकिन, पिशाचिन और चुडै़ल के रूप में पेश करना चाहें तो हमारी माँ की बेइज्जती होती है। हम आपको ऐसा नहीं करने दे सकते हैं।
जानवर देवी के लिए काटते हैं? क्या मतलब होता है देवी के लिए काटने का? धर्म होता है? देवी खून पीती है? देवी कभी खून नहीं पी सकती। जो देवी खून पीती हैं वो देवी कैसे हो सकती हैं? वो देवी नहीं कही जा सकती। वो पिशाचिन और चुड़ैल ही कही जा सकती हैं और चुड़ैल और पिशाचिन को धर्म में कोई स्थान नहीं मिल सकता। हत्या के लिए धर्म में क्या स्थान है? खून पीने को क्या स्थान है? कत्ल करने के लिए धर्म से क्या ताल्लुक है? ये तो घोर नृशंस पाप है, पिशाचपन है?
ये पिशाचपन हमारे हिन्दू समाज में जहाँ तहाँ फैला हुआ पड़ा है। हमको लोगों के अंदर विवेक उत्पन्न क रना चाहिए। इस पिशाचपन और धर्म का कोई ताल्लुक नहीं है आपस में। देवी दुनिया में कोई ऐसी नहीं होती जो जानवरों का, मनुष्यों का, बकरों का और मुर्गियों का खून पिये और माँस खाये। ये देवियों का काम नहीं हो सकता।
प्रखर आंदोलन चले
इन गंदे रिवाजों के विरुद्ध जहाँ कहीं भी हो सके, हमें सत्याग्रह करना चाहिए और जेल जाना चाहिए। भले ही इससे थोड़ा सा नुकसान हो और कानून का उल्लघंन हो, हम नहीं जानते कहाँ कानून होता है, कहाँ नहीं होता पर अगर कानून न्याय के और इंसाफ के विरूद्ध बाधक होता है, तो हम कानून को भी देखेंगे और कानून को तोडऩे का जो खामियाजा उठाना पड़ता है, उस नुकसान को भी उठायेंगे और बर्दास्त करेंगे। न्याय बड़ा है, कानून बड़ा नहीं है। कानून बड़ा नहीं है अगर कानून यह कहता है कि बूढ़े आदमी के साथ में छोटी बच्ची का ब्याह करने में कोई कानूनी रुकावट नहीं है और अगर बच्ची का बाप छोटी बच्ची का बूढ़े आदमी के साथ शादी कर रहा है और कानूनी रुकावट नहीं है, तो हम कानून की परवाह नहीं करेंगे और हम कानून को तोड़ेंगे।
इस तरीके से लोगों में बगावत का भाव पैदा किया ही जाना चाहिए और वो बात पैदा की जानी चाहिए जो समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। धर्म के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, जितना पैसे का अपव्यय हो रहा है हमको उसके लिए संघर्ष करना पड़ेगा। हमको ये कहना पड़ेगा कि निहित स्वार्थवश जिन्होंने महंत और गद्ïदी के नाम पर इतना अकूत धन जमा कर के रखा है और जो व्यक्तियों के सुविधा के लिए खर्च किया जा रहा है, उसको हमें समाज के लिए खर्च करना चाहिए। हमें ऐसे मंदिरों में धन नहीं देना चाहिए। ऐसे पुजारियों और महंतों को जो करोड़पति और अरबपति बने हुये हैं और राजा और महाराजाओं के बाप बने हुये हैं और इस तरीके से विलासी जीवन जी रहे हैं, जिस तरह का कोई करोड़पति ही जी सकता, इस तरह के विलासी लोगों को हम कहेंगे कि आप धर्माचार्य नहीं हो सकते और हम आपको धर्माचार्य नहीं रहने देंगे। अगर आप धर्माचार्य हैं तो आपको संत के तरीके से जीना चाहिए और जो आपके पास धन सम्पति है उसे लोक मंगल के लिए खर्च किया जाना चाहिए इस पिछड़े हुये समाज में।
अगर वो नहीं मानते या उनके निहित स्वार्थ ऐसे हैं, जो हमारी बात स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं तो हमको संघर्ष करना पड़ेगा। संघर्ष के क्या तरीके होते हैं समय पर बताये जायेंगे। हमको एक लोक वाहिनी-इस तरह की सेना खड़ी करनी पड़ेगी, जो स्वयं सेवक होंगे, जो इस बात के लिए तैयार होंगे कि हम मरेंगे या मिटेंगे। इस तरह की लोक वाहिनी सेना के संरक्षण करने के लिए छावनियाँ और अखाड़े भी बनाये जा सकते हैं और बनाये जाने चाहिए। उनका कार्य प्रदर्शन करना भी होना चाहिए, उनका काम घेराव करना भी होना चाहिए, उनका काम सत्याग्रह करना भी होना चाहिए। उनका काम ऐसा होना चाहिए जो लोगों के भीतर बगावत के भाव पैदा करें। जहाँ विरोधी तत्त्व ज्यादा समर्थ हों जिनके विरूद्ध जिन पर अत्याचार किया जा रहा-सताया जा रहा है उनकी संख्या अगर कम है तो कम संख्या वाले लोगों की सहायता करने के लिए एक बड़ी सेना-एक बड़ी लोक वाहिनी तैयार हो।
सरकारी सेना के तरीके से तो नहीं, पर क्रांतिकारियों के सेना के तरीके से लोक निर्माण की सेना के तरीके से भावी महाभारत का स्वरूप देने के लिए एक सेना खड़ी करनी पड़ेगी। जो भ्रष्टाचारियों से लेकर के बेईमानों तक, दूध में मिलावट करने वालों से लेकर के कम नापने और कम तौलने वालों तक और अवांछनीय प्रक्रियाएँ और अवांछनीय चीजें समाज में उत्पन्न करने वाले और फैलाने वालों से लोहा लेना पड़ेगा, मुकाबला करना पड़ेगा और उनको मजबूर करना पड़ेगा कि आप ऐसा काम नहीं कर सकते और आपको ऐसा काम नहीं करना चाहिए।
संघर्ष की अनेक धाराएँ
आपको अपने पैसे से हर काम करने की छूट नहीं मिली है। सिनेमा वालों के विरुद्ध हमें पिकेटिंग करना पड़ेगा और धरना देना पड़ेगा, उनके कैमरों के सामने लेटना पड़ेगा और उनके काम को विफल करने के लिए यदि मौका हो तो हमें जो कुछ भी करना पड़ेगा वो हम करेंगे। संगीत, गायक और दूसरे लोग जो इस तरह के गीत गाते हैं जिससे फूहड़पन पैदा होता है उनके विरूद्ध सत्याग्रह पैदा करना पड़ेगा।
जो इस तरह के साहित्य लिखने वाले जिन्होंने समाज को जलील किया-बदनाम किया है, उनके दरवाजे पर भूख हड़ताल करके किसी को प्राण भी देना पड़े तो देना ही चाहिए। उनके जो कृतियों के प्रसंग कि इन्होंने लोगों को क्या क्या कहा और क्या-क्या समझाया, उसके कोटेशन उद्घृत करके सारे समाज में बाँटने पड़ेंगे और बताना पड़ेगा कि ये लोग ऐसे हैं जिन्होंने पैसे के लिए, अपनी कमाई के लिए-लोभ के लिए समाज को कितनी हानि पहुँचाई और कितने लोगों को खराब किया। इस तरीके से इनके भंडाफोड़ करने वाली बातों के विरुद्घ में हमें खड़ा होना ही चाहिए।
गुंडातत्व इसलिए जिंदा हैं कि वो समझते हैं कि हमारा कोई मुकाबला करने वाला नहीं है और हम चाहे जो काम कर करते हैं। इन गुंडा तत्वों को जब ये मालूम पड़ेगा कि समाज में से वो तत्व उठकर खड़े हो गये हैं जो हमारा मुकाबला करेंगे और हमारे गलत काम और उच्छृंखलता के विरुद्ध लोहा लेंगे, इस तरह की उनको जब जानकारी होगी तो उनके हौसले पस्त हो जायेंगे। गुंडा गर्दी आजकल इस लिए हावी होती जा रही है कि एक आदमी का नुकसान होता है तो दूसरा आदमी उसके बारे में आवाज नहीं उठाता। ये कहता है कि हम क्यों उस मुसीबत में फँसें इससे तो और मुसीबतें आयेंगी।
लेकिन जिन लोगों ने अपना सिर हथेली पर रख लिया है, जिन्होंने मुसीबतों को ही आमंत्रण दिया है, जो मुसीबत के लिए ही उठकर खड़े हो गये हैं और जिन्होंने अपना जीवन और जान को ऐसी चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए ही समर्पित कर दिया है, ऐसी लोकसेना उठकर खड़ी हो जाये तो बात बन जाये। तब वे लोग जो अपने आप को अकेला अनुभव करते हैं, जो ये ख्याल करते हैं कि हम अकेले क्या कर सकते हैं, हमको कुचल दिया जायेगा और हमारे विरोधी बहुत हो जायेंगे, गुंडे हमको तंग करेंगे इसलिए वे मन मारकर चुप बैठ जाते हैं; उनके हौसले चौगुने और सौगुने हो जायेंगे। तब अनीति का मुकाबला करने के लिए न केवल लोकवाहिनी सेना बल्कि असंख्य लोग उनके साथ में उठकर खड़े हो जायेंगे और एक ऐसी क्रांति उत्पन्न होगी जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति के बीच समाज-समाज के बीच, वर्ग-वर्ग के बीच और अवांछनीय-वांछनीय तत्वों के बीच जो विग्रह की आग सुलग रही है, उस आग को या तो इधर कर दिया जायेगा या उधर कर दिया जायेगा।
उपयुक्त रणनीति बनें
हम असंतोष की आग को केवल भीतर तक धधकने देना नहीं चाहते हैं, हम असंतोष के आग को खुली रूप में विकसित करना चाहते हैं। जो असंतोषजनक परिस्थितियाँ हैं उनको हम दूर करना चाहते हैं, उनसे लडऩा चाहते हैं, उनको हटाना चाहते हैं। इसीलिए हमारा अगला वाला-अंतिम कदम तब उठना चाहिए जबकि लोग ज्ञान यज्ञ से प्रभावित हो जायें और जबकि रचनात्मक कार्यों द्वारा अपनी मनोभूमि ऐसी बना लें कि समाज के प्रति हमारे कुछ कत्र्तव्य और फर्ज हैं, समाज के लिए हमको कुछ काम करना चाहिए-त्याग करना चाहिए। ये माद्दा जब विकसित हो जाये, मनुष्य थोड़ी सी अपने अंदर समर्थता अनुभव करने लगे तब उसके बाद का तीसरा चरण ये होता कि हमें संघर्ष करने के लिए विशाल प्लान बनाना चाहिए।
वो प्लान बनाने का अभी समय नहीं आया क्योंकि हम अभी ज्ञान की बात कर रहें हैं, हम अभी रचनात्मक कार्यक्रमों को दिशाएँ दे रहे हैं, लेकिन जहाँ कहीं भी इस तरह का माद्दा पाया जाय कम से कम उसका स्वरूप तो खड़ा किया जाना चाहिए। हमको एक ऐसी लोकवाहिनी-युग सेना खड़ी करनी चाहिए जो अनीति कि विरुद्ध और अवांछनीयता के विरुद्ध, अनावश्यक बातों के विरुद्ध और रूढ़वादिता के विरुद्ध-मूढ़ता के विरुद्ध लोहा ले।
ये लोहा किस तरह से लिया जाय यह स्थानीय परिस्थितियों पर टिका हुआ है। लड़ाई के लिए एक नीति निर्धारित की जा सकती है, उसका स्वरुप नहीं बनाया जा सकता। किस मोर्चे पर कब गोली चलाई जायेगी या छुपकर बैठा जायेगा या आगे बढ़ा जायेगा या पीछे हटा जायेगा, यह उस समय के सेनापति का काम है। पहले से उस मोर्चे की रूपरेखा नहीं बन सकती जैसे कि रचनात्मक कार्यक्रमों और ज्ञानयज्ञ के कार्यक्रमों की रुपरेखा बना दी गयी है। संघर्ष के बारे में उसका स्वरूप उस समय की परिस्थितियों पर टिका हुआ है। कहाँ अवांछनीयता कि तनी ज्यादा है और कहाँ आदमी का क्रोध ज्यादा से ज्यादा उफन रहा है और कहाँ जनता सहयोग करने के लिए प्रस्तुत है, वहीं उस तरह के कमजोर मोर्चों को हमको पहले लेकर चलना चाहिए और जहाँ हमारी सफलता की आशा हो पहले उन कामों को लेना चाहिए।
बहरहाल काम कहाँ से शुरु किया जाय और अंत कहाँ किया जाय ये पीछे की बात है, लेकिन हमको ये विश्वास होना चाहिए और मानकर चलना चाहिए कि नया युग लाने से पहले-व्यक्ति का निर्माण करने से पहले हमको अवांछनीय तत्वों से जूझना ही पड़ेगा, लडऩा ही पड़ेगा। उस लड़ाई के लिए हमको अपने लोगों को भी तैयार करना चाहिए, स्वयं भी तैयार होना चाहिए और एक लोकवाहिनी संघर्ष सेना होनी चाहिए और इस तरह की छावनियाँ बनायी जानी चाहिए जहाँ कुछ आदमियों के खाने-पीने का इंतजाम हो, रहने-सहने का इंतजाम हो, जो अपने जीवन को हथेली पर रखकर के केवल पाप और अनाचार के विरुद्ध उसी तरीके से संघर्ष करें, जिस तरह से सुरक्षा सेनाएँ किया करती हैं और प्राचीनकाल के क्षत्रिय काम किया करते थे।
ब्राह्मण का काम ज्ञान-यज्ञ के द्वारा, क्षत्रियों का कार्य संघर्षों के द्वारा और वैश्य एवं साधारण व्यक्ति जिनकी सेवा में रुचि है, उनके लिए रचनात्मक कार्यक्रम का आयोजन है। रचनात्मक कार्यक्रम तीन अंगों में हैं। गायत्री के तीन चरणों के अनुरुप हमने युग निर्माण योजना को तीन भागों में बाँट दिया है। अभी ज्ञान यज्ञ, अगले दिनों रचनात्मक कार्यक्रम और अंतत: संघर्ष जो ऐसे होंगे जो पाप को अंतत: विनाश करके ही छोड़ेंगे, अनाचार को जीवित नहीं ही रहने देंगे। अविवेक, अज्ञान और अन्याय जो सारे समाज पर छाया हुआ है, उसे जड़-मूल से हटा करके ही छोड़ें ऐसा एक अंतिम युद्ध होगा, जिसको हम भावी महाभारत कहेंगे। भारत छोटा नहीं रह जायेगा बल्कि एक विश्वव्यापी भारत होगा जिसको हम महान भारत कह सकते हैं। ऐसा एक महाभारत अर्थात ऐसा एक संघर्ष होगा जिसके कारण कोई पाप, कोई कुरीति और कोई अनाचार बचेगा नहीं। इस तरह के संघर्ष के लिए हमको तैयारी करनी चाहिए और जहाँ कहीं इसका छोटा-मोटा स्वरुप खड़ा किया जाना सम्भव हो, वहाँ विरोध आंदोलन के रूप में और हस्ताक्षर आंदोलन के रूप में तथा बुरे काम न करने की प्रतिज्ञा के रूप में आरंभ करने चाहिए और धीरे-धीरे उनका विकास करना चाहिए।