गायत्री महामंत्र और उसका अर्थ:
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतःकरण में धारण करें. वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे. -ऋग्वेद ३/६२/१०, सामवेद १४६२, यजुर्वेद ३/३५, २२/९, ३०/२, ३६/३.
Gayatri Mantra and its meaning:
Om bhurbhuvaha swaha tatsaviturvarenyam bhargo devasya dhimahi
dhiyo yo naha prachodayat.
We embrace that supreme being, the effulgent divine sun, the ultimate life force, omnipresent and omnipotent, the destroyer of all sins and sufferings and the bestower of bliss. May he inspire and enlighten our intellect to follow righteous path. -Rigveda 3/62/10, Samveda 1462, Yajurveda 3/35, 22/9, 30/2, 36/3.
आद्य शक्ति गायत्री की समर्थ साधना - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 14)
सार-संक्षेप
चौबीस अक्षरों का गायत्री महामंत्र भारतीय संस्कृति के वाङ्गमय का नाभिक कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। यह संसार का सबसे छोटा एवं एक समग्र धर्मशास्त्र है। यदि कभी भारत जगद्गुरु-चक्रवर्ती रहा है तो उसके मूल में इसी की भूमिका रही है। गायत्री मंत्र का तत्त्वज्ञान कुछ ऐसी उत्कृष्टता अपने अन्दर समाए है कि उसे हृदयंगम कर जीवनचर्या में समाविष्ट कर लेने से जीवन परिष्कृत होता चला जाता है। वेद, जो हमारे आदिग्रन्थ हैं, उनका सारतत्त्व गायत्री मंत्र की व्याख्या में पाया जा सकता है।
गायत्री त्रिपदा है। उद्गम एक होते हुए भी उसके साथ तीन दिशाधाराएँ जुड़ती हैं- (१) सविता के भर्ग-तेजस् का वरण, परिष्कृत प्रतिभा-शौर्य व साहस। (२) देवत्व का वरण, देव व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव-गरिमा को अंतराल में धारण करना। (३) मात्र अपनी ही नहीं, सारे समूह, समाज व संसार में वृद्धि की प्रेरणा उभरना।
गायत्री की पूजा-उपासना और जीवन-साधना यदि सच्चे अर्थों में की गई हो तो उसकी ऋद्धि-सिद्धियाँ स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरंतर साधक के अंतराल में उभरती रहती हैं। ऐसा साधक जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते स्वर्गीय वातावरण बना लेता है। जहाँ शिखा-सूत्र का गायत्री से अविच्छिन्न संबंध है, वहीं गायत्री का पूरक है- यज्ञ। दोनों ही संस्कृति के आधारस्तंभ हैं। अपौरुषेय स्तर पर अवतरित गायत्री मंत्र नूतन सृष्टिनिर्माण में सक्षम है एवं उसी का सामूहिक जप-उच्चारण-प्रधान प्रयोग हो पाया है। गायत्री परिवार द्वारा संचालित इस महापुरुषार्थ की पूर्णाहुति २००० में संपन्न हो रही है। विशिष्ट उपासना हेतु सभी को युगतीर्थ शान्तिकुञ्ज का आमंत्रण है।
अनुक्रमणिका
1. आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना
2. गायत्री और सावित्री का उद्भव
3. त्रिपदा गायत्री-तीन धाराओं का संगम
4. शक्ति केन्द्रों का उद्दीपन-शब्द शक्ति
5. शरीर की विभिन्न देव-शक्तियों का जागरण
6. यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री की अवधारणा
7. नौ सद्गुणों की अभिवृद्धि ही गायत्री-सिद्धि
8. गायत्री का तत्त्वदर्शन और भौतिक उपलब्धियाँ
9. चौबीस अक्षरों का शक्तिपुंज
10. शिखा-सूत्र और गायत्री मंत्र सभी के लिए
11. यज्ञ और गायत्री एक दूसरे के पूरक
12. एक आध्यात्मिक प्रयोग
13. आत्मशोधन, साधना का एक अनिवार्य चरण
14. उपासना, विधान और तत्त्वदर्शन
15. युगतीर्थ में साधना का विशेष महत्त्व
16. संस्कारों की सुलभ व्यवस्था
आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना
भारतीय संस्कृति के बहुमूल्य निर्धारणों, प्रतिपादनों और अनुशासनों का सारतत्त्व खोजना हो, तो उसे चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र का मंथन करके जाना जा सकता है। भारतीय संस्कृति का इतिहास खोजने से पता लग सकता है कि प्राचीनकाल में इस समुद्रमन्थन से कितने बहुमूल्य रत्न निकले थे? भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाने में उस मंथन से निकले नवनीत ने कितनी बड़ी भूमिका निबाही थीं। मनुष्य में देवत्व का उदय कम-से कम भारतभूमि का कमलपुष्प तो कहा ही जा सकता है। जब वह फलित हुआ तो उसका अमरफल इस भारतभूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बना सकने में समर्थ हुआ।
भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती व्यवस्थापक और दिव्य संपदाओं का उद्गम कहा जाता है। समस्त विश्व में इसी देश के अजस्र अनुदान अनेक रूपों में बिखरे हैं। यह कहने में कोई अत्युक्ति प्रतीत नहीं होती कि सम्पदा, सभ्यता और सुसंस्कारिता की प्रगतिशीलता इसी नर्सरी में जमीं और उसने विश्व को अनेकानेक विशेषताओं और विभूतियों से सुसम्पन्न किया।
भारतीय संस्कृति का तत्त्वदर्शन गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों की व्याख्या-विवेचना करते हुए सहज ही खोजा और पाया जा सकता है। गायत्री गीता, गायत्री स्मृति, गायत्री संहिता, गायत्री रामायण, गायत्री लहरी आदि संरचनाओं को कुरेदने से अंगारे का वह मध्य भाग प्रकट होता है, जो मुद्दतों से राख की मोटी परत जम जाने के कारण अदृश्य-अविज्ञात स्थिति में दबा हुआ पड़ा था।
कहना न होगा कि गरिमामय व्यक्तित्व ही इस संसार की अगणित विशेषताओं, सम्पदाओं एवं विभूतियों का मूलभूत कारण है। वह उभरे तो मनुष्य देवत्व का अधिष्ठाता और नर से नारायण बनने की संभावनाओं से भरा-पूरा है। यह गौरव-गरिमा मानवता के साथ किस प्रकार अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहे, इसका सारतत्त्व गायत्री महामंत्र के अक्षरों को महासमुद्र मानकर उसमें डुबकी लगाकर खोजा, देखा और पाया जा सकता है।
मात्र अक्षर दोहरा लेने से तो स्कूली बच्चे प्रथम कक्षा में ही बने रहते हैं। उन्हें भी प्रशिक्षित बनने के लिए वर्णमाला, गिनती जैसे प्रथम चरणों से आगे बढ़ना पड़ता है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र के साथ जो विभूतियाँ अविच्छिन्न रूप से आबद्ध हैं, उन्हें मात्र थोड़े से अक्षरों को याद कर लेने या दोहरा देने से उसमें वर्णित विशेषताओं को उपलब्ध करना नहीं माना जा सकता। उनमें सन्निहित तत्त्वज्ञान पर भी गहरी दृष्टि डालनी होगी। इतना ही नहीं, उसे हृदयंगम भी करना होगा और जीवनचर्या में नवनीत को इस प्रकार समाविष्ट करना होगा कि मलीनता का निराकरण तथा शालीनता का अनुभव सम्भव बन सके।
संसार में अनेक धर्म-सम्प्रदाय हैं। उनके अपने-अपने धर्मशास्त्र हैं। उनमें मनुष्य को उत्कृष्टता का मार्ग अपनाने के लिए प्रोत्साहन दिया गया है और समय के अनुरूप अनुशासन का विधान किया गया है। भारतीय धर्म में भी वेदों की प्रमुखता है। वेद चार हैं। गायत्री मंत्र के तीन चरण और एक शीर्ष मिलने से चार विभाग ही बनते हैं। एक-एक विभाग में एक वेद का सारतत्त्व है। आकार और विवेचना की दृष्टि से अन्यान्य धर्मकाव्यों की तुलना में वेद ही भारी पड़ते हैं। उनका सारतत्त्व गायत्री के चार चरणों में है, इसलिए उसे संसार का सबसे छोटा धर्मशास्त्र भी कह सकते हैं। हाथी के पैर में अन्य सब प्राणियों के पदचिह्न समा जाते हैं, वाली उक्ति यहाँ भली प्रकार लागू होती है।
गायत्री और सविता का उद्भव
पौराणिक कथा-प्रसंग में चर्चा आती है कि सृष्टि के आरम्भकाल में सर्वत्र मात्र जल सम्पदा ही थी। उसी के मध्य में विष्णु भगवान् शयन कर रहे थे। विष्णु की नाभि में कमल उपजा । कमल पुष्प पर ब्रह्माजी अवतरित हुए। वे एकाकी थे, असमंजसपूर्वक अनुरोध करने लगे कि मुझे क्यों उत्पन्न किया गया है? क्या करूँ? कुछ करने के लिए साधन कहाँ से पाऊँ? इन जिज्ञासाओं का सामाधान आकाशवाणी ने किया और कहा-गायत्री के माध्यम से तप करें, आवश्यक मार्गदर्शन भीतर से ही उभरेगा।’ उन्होंने वैसा ही किया और आकाशवाणी द्वारा बताए गए गायत्री मंत्र की तपपूर्वक साधना करने लगे।
पूर्णता की स्थिति प्राप्त हुई। गायत्री दो खण्ड बनकर दर्शन देने एवं वरदान-मार्गदर्शन से निहाल करने उतरी। उन दो पक्षों में से एक को गायत्री, दूसरे को सावित्री नाम दिया गया। गायत्री अर्थात् तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित पक्ष। सावित्री अर्थात् भौतिक प्रयोजनों में उसका जो उपयोग हो सकता है, उसका प्रकटीकरण। जड़-सृष्टि-पदार्थ-संरचना सावित्री शक्ति के माध्यम से और विचारणा सम्बन्ध भाव-संवेदना आस्था, आकांक्षा, क्रियाशीलता जैसी विभूतियों का उद्भव गायत्री के माध्यम से प्रकट हुआ। यह संसार जड़ और चेतन के-प्रकृति और परब्रह्म के समन्वय से ही दृष्टिगोचर एवं क्रियारत दीख पड़ता है।
इस कथन का सारतत्त्व यह है कि गायत्री-दर्शन में सामूहिक सद्बुद्धि को प्रमुखता मिली है। इसी आधार को जिस-तिस प्रकार से अपनाकर मनुष्य मेधावी प्राणवान् बनता है। भौतिक पदार्थों को परिष्कृत करने एवं उनका सदुपयोग कर सकने वाला भौतिक विज्ञान सावित्री विद्या का ही एक पक्ष है। दोनों को मिला देने पर समग्र अभ्युदय बन पड़ता है। पूर्णता के लिए दो हाथ, दो पैर आवश्यक हैं। दो फेफड़े, दो गुरदे भी अभीष्ट हैं। गाड़ी दो पहियों के सहारे ही चल पाती है, अस्तु, यदि गायत्री महाशक्ति का समग्र लाभ लेना हो तो उसके दोनों ही पक्षों को समझना एवं अपनाना आवश्यक है।
तत्त्वज्ञान मान्यताओं एवं भावनाओं को प्रभावित करता है। इन्हीं का मोटा स्वरूप चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार है। गायत्री का तत्त्वज्ञान इस स्तर की उत्कृष्टता अपनाने के लिए सद्विषयक विश्वासों को अपनाने के लिए प्रेरणा देता है। उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, मर्यादा एवं कर्तव्यपरायणता जैसी मानवीय गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रहने वाली आस्थाओं को गायत्री का तत्त्वज्ञान कहना चाहिए।
त्रिपदा गायत्री- तीन धाराओं का संगम
गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। उसके तीन चरण हैं। उद्गम एक होते हुए भी उसके साथ तीन दिशाधाराएँ जुड़ती हैं।
(१) सविता के भर्ग-तेजस् का वरण अर्थात् जीवन में ऊर्जा एवं आभा का बाहुल्य। अवाँछनीयताओं में अंत:ऊर्जा का टकराव। परिष्कृत प्रतिभा एवं शौर्य-साहस इसी का नाम है। गायत्री के नैष्ठिक साधक में यह प्रखर प्रतिभा इस स्तर की होनी चाहिए कि अनीति के आगे न सिर झुकाये और न झुककर कायरता के दबाव में कोई समझौता करे।
(२) दूसरा चरण है-देवत्व का वरण, शालीनता को अपनाते हुए उदारचेता बने रहना, लेने की अपेक्षा देने की प्रवृत्ति का परिपोषण करना। उस स्तर के व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव-गरिमा की अन्तराल में अवधारणा करना। यही है ‘‘देवस्य धीमहि।’’
(३) तीसरा सोपान है- ‘‘धियो यो न: प्रचोदयात् ’’ । मात्र अपनी ही नहीं, अपने समूह, समाज व संसार में सद्बुद्धि की प्रेरणा उभारना-मेधा प्रज्ञा, दूरदर्शी विवेकशीलता, नीर-क्षीर विवेक में निरत बुद्घिमत्ता।
यही है आध्यात्मिक त्रिवेणी-संगम जिसका अवगाहन करने पर मनुष्य असीम पुण्यफल का भागी बनता है। कौए से कोयल एवं बगुले से हंस बन जाने की उपमा जिस त्रिवेणी संगम के स्नान से दी जाती है, वह वस्तुत: आदर्शवादी साहसिकता, देवत्व की पक्षधर शालीनता एवं आदर्शवादिता को प्रमुखता देने वाली महाप्रज्ञा है। गायत्री का तत्त्वज्ञान समझने और स्वीकारने वाले में ये तीनों ही विशेषताएँ न केवल पाई जानी चाहिए वरन् उनका अनुपात निरन्तर बढ़ते रहना चाहिए। इस आस्था को स्वीकारने के उपरान्त संकीर्णता, कृपणता से अनुबन्धित ऐसी स्वार्थपरता के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि उससे प्रभावित होकर कोई दूसरों के अधिकारों का हनन करके अपने लिए अनुचित स्तर का लाभ बटोर सके-अपराधी या आततायी कहलाने के पतन-पराभव अपना सके।
नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक, भौतिक और आत्मिक , दार्शनिक एवं व्यावहारिक, संवर्धन एवं उन्मूलनपरक-सभी विषयों पर गायत्री के चौबीस अक्षरों में विस्तृत प्रकाश डाला गया है और उन सभी तथ्यों तथा रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, जिनके सहारे संकटों से उबरा और सुख-शान्ति के सरल मार्ग को उपलब्घ किया जा सकता है। जिन्हें इस सम्बन्ध में रुचि है, वे अक्षरों के वाक्यों के विवेचनात्मक प्रतिपादनों को ध्यानपूर्वक पढ़ लें और देखें कि इस छोटे से शब्द-समुच्चय में प्रगतिशीलता के अतिमहत्त्वपूर्ण तथ्यों का किस प्रकार समावेश किया गया है। इस आधार पर इसे ईश्वरीय निर्देश, शास्त्र-वचन एवं आप्तजन-कथन के रूप में अपनाया जा सकता है। गायत्री के विषय में गीता का वाक्य है-गायत्री छन्दसामहम्’’। भगवान् कृष्ण ने कहा है कि ‘‘छन्दों में गायत्री मैं स्वयं हूँ,’’ जो विद्या-विभूति के रूप में गायत्री की व्याख्या करते हुए विभूति योग में प्रकट हुई हैं।
शक्ति-केन्द्र का उद्दीपन-शब्दशक्ति द्वारा
एक विलक्षणता गायत्री महामंत्र में यह है कि इसके अक्षर, शरीर एवं मन: तंत्र के मर्मकेन्द्रों पर ऐसा प्रभाव छोड़ते हैं कि कठिनाइयों का निराकरण एवं समृद्ध-सुविधाओं का सहज संवर्द्धन बन पड़े। टाइपराइटर पर एक जगह कुंजी दबाई जाती है और दूसरी जगह सम्बद्ध अक्षर छप जाता है। बहिर्मन पर, विभिन्न स्थानों पर पड़ने वाला दबाव एवं कण्ठ के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न शब्दों का उच्चारण अपना प्रभाव छोड़ता है और इन स्थानों पर पड़ा दबाव सूक्ष्म-शरीर के विभिन्न शक्ति-केन्द्रों को उद्वेलित-उत्तेजित करता है। योगशास्त्रों के षट्चक्रों, पञ्चकोशों, चौबीस ग्रंथियों, उपत्यिकाओं और सूक्ष्म नाड़ियों का विस्तारपूर्वक वर्णन है, उनके स्थान, स्वरूप के प्रतिफल आदि का भी विवेचन मिलता है। साथ ही यह भी बताया गया है कि इन शक्ति-केन्द्रों को जागृत कर लेने पर साधक उन विशेषताओं-विभूतियों से सम्पन्न हो जाता है। इनकी अपनी-अपनी समर्थता, विशेषता एवं प्रतिक्रिया है। गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों का इनमें से एक-एक से सम्बन्ध है। उच्चारण से मुख, तालु, ओष्ठ, कण्ठ आदि पर जो दबाव पड़ता है, उसके कारण यह के न्द्र अपने-अपने तारतम्य के अनुरूप वीणा के तारों की तरह, झंकृत हो उठते हैं- सितार के तारों की तरह, वायलिन-गिटार की तरह, बैंजो-हारमोनियम की तरह झंकृत हो उठते और एक ऐसी स्वरलहरी निस्सृत करते हैं, जिससे प्रभावित होकर शरीर में विद्यमान दिव्यग्रंथियाँ जाग्रत होकर अपने भीतर उपस्थित विशिष्ट शक्तियों के जाग्रत् एवं फलित होने का परिचय देने लगती हैं। संपर्क साधने में मंत्र का उच्चारण टेलेक्स का काम करता है। रेडियो या दूरदर्शन-प्रसारण की तरह शक्तिधाराएँ यों सब ओर नि:सृत होती हैं, पर उस केन्द्र का विशेषत: स्पर्श करती हैं, जो प्रयुक्त अक्षरों के साथ शक्ति-केन्द्रों को जोड़ते हैं।
शरीर की विभिन्न देव-शक्तियों का जागरण
विराट् ब्रह्म की कल्पना में-विश्वपुरुष के शरीर में जहाँ-तहाँ विभिन्न देवताओं की उपस्थिति बताई गई है। गौ माता के शरीर में विभिन्न देवताओं के निवास का चित्र देखने को मिलता है। मनुष्य-शरीर भी एक ऐसी आत्मसत्ता का दिव्य मन्दिर है, जिसमें विभिन्न स्थानों पर विभिन्न देवताओं की स्थिति मानी गई है। धार्मिक कर्मकाण्डों में स्थापना भावभक्ति के आधार पर की जाती है। न्यासविधान इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए है। सामान्यत: ये सभी देवता प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, अनायास ही नहीं जाग पड़ते। अनेक साधनाएँ, तपश्चर्याएँ इसी जागरण के हेतु की जाती हैं, सोते सिंह या सोते सर्प निर्जीव की तरह पड़े रहते हैं, पर जब वे जाग्रत होते हैं, तो अपना पूरा पराक्रम दिखाने लगते हैं। यही प्रक्रिया मंत्र-साधना द्वारा भी पूरी की जाती है। इस तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता है कि मंत्र-साधना विशेषत: गायत्री-उपासना से एक प्रकार का लुंज-पुंज व्यक्ति जाग्रत्, सजीव एवं सशक्त हो उठता है। उसी उभरी विशेषता को मंत्र की प्रतिक्रिया या फलित हुई सिद्धि कह सकते हैं।
गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों में सम्बद्ध विभूतियों के जागरण की क्षमता है, साथ ही हर अक्षर एक ऐसे सद्गुण की ओर इंगित करता है, जो अपने आप में इतना सशक्त है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का हर पक्ष ऊँचाई की ओर उभारते हैं और उसकी सत्ता अपने आप ही अपना काम करने लगती है। फिर उन सफलताओं को उपलब्ध कर सकना संभव हो जाता है, जिनकी कि किसी देवी-देवता अथवा मंत्राराधन से आशा की जाती है। ओजस्, तेजस्, वर्चस्, इन्हीं को कहते हैं। प्रथम चरण में सूर्य जैसी तेजस्विता, ऊर्जा और गतिशीलता मनुष्य में उभरे तो समझना चाहिए कि उसने वह बलिष्ठता प्राप्त कर ली, जिसकी सहायता से ऊँची छलांग लगाना और कठिनाइयों से लड़ना संभव होता है। इसी प्रकार दूसरे चरण में देवत्व के वरण की बात है। मनुष्यों में ही पशु, पिशाच और देवता होते हैं। शालीनता, सज्जनता, विशिष्टता, भलमनसाहत देवत्व की विशेषताओं का ही प्रतिनिधित्व करती है। तीसरे चरण में सामुदायिक सद्बुद्धि के अभिवर्द्धन का निर्देशन है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता, एक तिनका रस्सा नहीं बनता, एक सींक की बुहारी क्या काम करेगी? इसलिए कहा जाता है कि एकाकी स्तर के चिंतन तक सीमित न रहा जाए, सामूहिकता, सामाजिकता को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए-सद्बुद्धि से अपने समेत सबको सुसज्जित किया जाए। यह भूल न जाया जाए कि दुर्बुद्धि ही दुष्टता और भ्रष्टता की दिशा, उत्तेजना देती है और यही दुर्गति का निमित्त कारण बनती है।
दर्शन और प्रक्रिया मिलकर ही अधूरापन दूर करते हैं। गायत्री मंत्र का उपासनात्मक कर्मकाण्ड भी फलप्रद है, क्योंकि शब्द-गुम्फन अन्त: की सभी रहस्यमयी शक्तियों को उत्तेजित करता है, पर यह भी भूला न जाए कि स्वच्छ, शुद्ध, परिष्कृत व्यक्तित्व जब गुण-कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता से परिष्कृत-अनुप्राणित होता है, तभी वह समग्र परिस्थिति बनती है, जिसमें साधना से सिद्धि की आशा की जा सकती है। घिनौने, पिछड़े, अनगढ़ और कुकर्मी व्यक्ति यदि पूजा-पाठ करते भी रहें, तो उसका कोई उपयुक्त प्रतिफल नहीं देखा जाता। ऐसे ही एकांगी प्रयोग जब निष्फल रहते हैं तो लोग समूची उपासना तथा आध्यात्मिकता को व्यर्थ बताते हुए देखे जाते हैं। बिजली के दोनों तार मिलने पर ही करेंट चालू होता है अन्यथा वे सभी उपकरण बेकार हो जाते हैं, जो विभिन्न प्रयोजनों से लाभान्वित करने के लिए बनाए गए हैं। इसीलिए उपासना के साथ जीवनसाधना और लोकमंगल की आराधना को भी संयुक्त रखने का निर्देश है। पूजा उन्हीं की सफल होती है, जो व्यक्तित्व और प्रतिभा को परिष्कृत करने में तत्पर रहते हैं, साथ ही सेवा-साधना एवं पुण्य-परमार्थ को सींचने, खाद लगाने में भी उपेक्षा नहीं करते। त्रिपदा गायत्री में जहाँ शब्द-गठन की दृष्टि से तीन चरण हैं, वहीं साथ में यह भी अनुशासन है कि धर्म-धारणा और सेवा-साधना का खाद-पानी भी उस वट-वृक्ष को फलित होने की स्थिति तक पहुँचाने के लिए ठीक तरह सँजोया जाता रहे।
यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री की अवधारणा
मंत्र दीक्षा के रूप में गायत्री का अवधारण करते समय उपनयन संस्कार कराने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रक्रिया को द्विजत्व की, मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन को परिष्कृत करने की अवधारणा भी कहते हैं। जनेऊ पहनना, उसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य जीवनचर्या को, काय कलेवर को देव मन्दिर-गायत्री देवालय बना लेना माना जाता है। यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं। इन्हें नौ मानवीय विशिष्टता को उभारने वाले सद्गुण भी कहा जा सकता है। एक गुण को स्मरण रखे रहने के लिए एक धागे का प्रावधान इसीलिए है कि इस अवधारण के साथ-साथ उन नौ सद्गुणों को समुन्नत बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाए, जो अनेक विभूतियों और विशेषताओं से मनुष्य को सुसम्पन्न करते हैं।
सौरमण्डल में नौ सदस्य ग्रह हैं। रत्नों की संख्या भी नौ मानी जाती है। अंकों की शृंखला भी नौ पर समाप्त हो जाती है। शरीर में नौ द्वार हैं। इसी प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की, धर्म-लक्षणों की गणना में नौ को प्रमुखता दी गई है। वे पास में हों, तो समझना चाहिए कि पुरातनकाल में ‘‘नौ लखा हार’’ की जो प्रतिष्ठा थी वह अपने को भी करतलगत हो गई। ये नौ गुण इस प्रकार हैं:-
(१) श्रमशीलता : समय, श्रम और मनोयोग को किसी उपयुक्त प्रयोजन में निरंतर लगाए रहना। आलस्य-प्रमाद को पास न फटकने देना। समय का एक क्षण भी बरबाद न होने देना। निरंतर कार्य में संलग्न रहना।
(२) शिष्टता : शालीनता, सज्जनता, भलमनसाहत का हर समय परिचय देना। अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा का का परिचय देना, दूसरों के साथ वही व्यवहार करना, जो औरों से अपने लिए चाहा जाता है। सभ्यता, सुसंस्कारिता और अनुशासन का निरंतर ध्यान रखना। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं से बचाव का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना।
(३) मितव्ययिता : ‘सादा जीवन -उच्च विचार’ की अवधारणा। उद्धत-शृंगारिक शेखीखोरी, अमीरी, का अहंकारी प्रदर्शन, अन्य रूढ़ियों-कुरीतियों से जुड़े हुए अपव्यय से बचना सादगी है, जिसमें चित्र-विचित्र फैशन बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुंजाइश नहीं है। अधिक खर्चीले व्यक्ति प्राय: बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं। उसमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता-अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है।
(४) सुव्यवस्था : हर वस्तु को सुव्यवस्थित, सुसज्जित स्थिति में रखना। फूहड़पन और अस्त-व्यस्तता अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन में झलकने न देना। समय का निर्धारण करते हुए, कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन करना। चुस्त- दुरुस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं। वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा-कचरा हो जाती हैं। इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं।
(५) उदार सहकारिता : मिलजुलकर काम करने में रस लेना। पारस्परिक आदान-प्रदान का स्वभाव बनाना। मिल-बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते समय गुजारने की आदत डालना। इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है। अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति-नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा। अकेलेेपन की प्रवृत्ति तो, मनुष्य को कुत्सा और कुण्ठाग्रस्त ही रखती है।
उपर्युक्त पाँच गुण पञ्चशील कहलाते हैं, व्यवहार में लाए जाते हैं, स्पष्ट दीख पड़ते हैं, इसलिए इन्हें अनुशासन वर्ग में गिना जाता है। धर्म-धारणा भी इन्हीं को कहते हैं। इनके अतिरिक्त भाव-श्रद्धा से सम्बन्धित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्धा-विश्वास स्तर पर अन्त:करण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है। इन्हें आध्यात्मिक देव-संपदा भी कह सकते हैं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है। चार वेदों का सार-निष्कर्ष यही है। चार दिशा-धाराएँ तथा वर्णाश्रम- धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं।
(६) समझदारी : दूरदर्शी विवेकशीलता। नीर-क्षीर विवेक, औचित्य का ही चयन। परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास। जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक-एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग। दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता का अवगाहन ।
(७) ईमानदारी : आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुंजाइश न रहे। भीतर और बाहर को एक समझे। छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना।
(८) जिम्मेदारी : मनुष्य यों स्वतंत्र समझा जाता है, पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है कि अपने-परायों में से किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजाइश नहीं रह जाती। ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरुपयोग न होने पाए। परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म, समाज व संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह। इसमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना।
(९) बहादुरी : साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा। अनीति के सामने सिर न झुकाना। अनाचार के साथ कोई समझौता न करना। संकट देखकर घबराहट उत्पन्न न होने देना। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयता से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना। लोभ, मोह, अहंकार, कुसंग, दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिए कटिबद्ध रहना।
नौ सद्गुणों की अभिवृद्धि ही गायत्री-सिद्धि
पाँच क्रियापरक और चार भावनापरक, इन नौ गुणों के समुच्चय को ही धर्म-धारणा कहते हैं। गायत्री-मंत्र के नौ शब्द इन्हीं नौ दिव्य संपदाओं को धारण किए रहने की प्रेरणा देते हैं। यज्ञोपवीत के नौ धागे भी यही हैं। उन्हें गायत्री की प्रतीक प्रतिमा माना गया है और इनके निर्वाह के लिए सदैव तत्परता बरतने के लिए, उसे कंधे पर धारण कराया जाता है, अर्थात् मानवीय गरिमा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए नौ अनुशासन भरे उत्तरदायित्व कंधे पर धारण करना ही वस्तुत: यज्ञोपवीत धारण का मर्म है। इन्हीं को सच्चे अर्थों में गायत्री मंत्र का जीवनचर्या में समावेश कहते हैं। मंत्रदीक्षा-गुरु दीक्षा के समय भी इन नौ अनुशासनों को हृदयंगम कराया जाता है।
गायत्री मंत्र की साधना से व्यक्ति में ये नौ सद्गुण उभरते हैं। इसी बात को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि जो इन नौ गुणों का अवधारण करता है, उसी के लिए यह संभव है कि गायत्री मंत्र में सन्निहित ऋद्धि-सिद्धियों को अपने में उभरता देखे। गंदगी वाले स्थान पर बैठने के लिए कोई सुरुचि संपन्न भला आदमी तैयार नहीं होता, फिर यह आशा कैसे की जाए कि निकृष्ट स्तर का चिंतन, चरित्र और व्यवहार अपनाए रहने वालों पर किसी प्रकार का दैवी अनुग्रह बरसेगा और उन्हें यह गौरव मिलेगा, जो देवत्व के साथ जुड़ने वालों को मिला करता है।
ज्ञान और कर्म का युग्म है। दोनों की सार्थकता इसी में है कि वे दोनों साथ-साथ रहें, एक-दूसरे को प्रभावित करें और देखने वालों को पता चले कि जो सीखा, समझा, जाना और माना गया है, वह काल्पनिक मात्र न होकर इतना सशक्त भी है कि क्रिया को, विधि-व्यवस्था को अपने स्तर के अनुरूप बना सके।
जीवन-साधना से जुड़ने वाले गायत्री महामंत्र के नौ अनुशासनों का ऊपर उल्लेख हो चुका है, इन्हें अपने जीवनक्रम के हर पक्ष में समन्वित किया जाना चाहिए अथवा यह आशा रखें कि यदि श्रद्धा-विश्वासपूर्वक सच्चे मन से उपासना की गई हो, तो उसका सर्वप्रथम परिचय इन सद्गुणों की अभिवृद्घि के रूप में परिलक्षित होगा। इसके बाद वह पक्ष आरंभ होगा, जिससे अलौकिक, आध्यात्मिक, अतींद्रिय अथवा समृद्धियों, विभूतियों के रूप में प्रमाण-परिचय देने की आशा रखी जाती है।
गायत्री का तत्त्वदर्शन और भौतिक उपलब्धियाँ
गायत्री-उपासना का सहज स्वरूप है-व्याहृतियों वाली त्रिपदा गायत्री का जप। ‘ॐ भूर्भुवः स्व:-’ यह शीर्ष भाग है, जिसका तात्पर्य है कि आकाश, पाताल और धरातल के रूप में जाने जाने वाले तीनों लोकों में उस दिव्यसत्ता को समाविष्ट अनुभव करना। जिस प्रकार न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में अपराध करने का कोई साहस नहीं करता, उसी प्रकार सर्वदा, सर्वव्यापी, न्यायकारी सत्ता की उपस्थित अपनी सब ओर सदा-सर्वदा अनुभव करना और किसी भी स्तर की अनीति का आचरण न होने देना। ‘ॐ’ अर्थात् परमात्मा। उसे विराट् विश्वब्रह्माण्ड के रूप में व्यापक भी समझा जा सकता है। यदि उसे आत्मसत्ता में समाविष्ट भर देखना हो तो स्थूल-शरीर सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर में परमात्म सत्ता की उपस्थिति अनुभव करनी पड़ती है और देखना पड़ता है कि इन तीनों ही क्षेत्रों में कहीं ऐसी मलीनता न जुटने पाए, जिसमें प्रवेश करते हुए परमात्म सत्ता को संकोच हो, साथ ही इन्हें इतना स्वस्थ, निर्मल एवं दिव्यताओं से सुसम्पन्न रखा जाए कि जिस प्रकार खिले गुलाब पर भौंरे अनायास ही आ जाते हैं, उसी प्रकार तीनों शरीरों में परमात्मा की उपस्थिति दीख पड़े और उनकी सहज सदाशयता की सुगंधि से समीपवर्ती समूचा वातावरण सुगन्धित हो उठे।
गायत्री मंत्र का अर्थ सरल और सर्वविदित है- सवितु:-तेजस्वी वरेण्यं-वरण करना,अपनाना। भर्गो-अनौचित्य को तेजस्विता के आधार पर दूर हटा फेंकना। देवस्य-देवत्व की पक्षधर विभूतियों को-धीमहि अर्थात् धारण करना। अन्त में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि इन विशेषताओं से सम्पन्न परमेश्वर हम सबकी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें, सद्बुद्धि का अनुदान प्रदान करे। कहना न होगा कि ऐसी सद्बुद्धि प्राप्त व्यक्ति, जिसकी सद्भावना जीवन्त हो, वह अपने दृष्टिकोण में स्वर्ग जैसी भरी-पूरी मन:स्थिति एवं भरी-पूरी परिस्थितियों का रसास्वादन करता है। वह जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते स्वर्गीय वातावरण बना लेता है।
स्वर्ग-प्राप्ति के अतिरिक्त दैवी अनुकम्पा का दूसरा लाभ है-मोक्ष मोक्ष अर्थात् मुक्ति। कषाय-कल्मषों से मुक्ति, दोष-दुर्गुणों से मुक्ति, भव- बन्धनों से मुक्ति। यही भव-बन्धन है, जो स्वतंत्र अस्तित्व लेकर जन्मे मनुष्यों को लिप्साओं और कुत्साओं के रूप में अपने बन्धनों में बाँधता है। यदि आत्मशोधनपूर्वक इन्हें हटाया जा सके, तो समझना चाहिए कि जीवित रहते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो गई। इसके लिए मरणकाल आने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। गायत्री की पूजा-उपासना और जीवन-साधना यदि सच्चे अर्थों में की गई हो, तो उसकी दोनों आत्मिक ऋद्धि-सिद्धियाँ स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरन्तर अनुभव में उभरती रहती हैं और उनके रसास्वादन से हर घड़ी कृत-कृत्य हो चलने का अनुभव होता है।
गायत्री-उपासना द्वारा अनेकों भौतिक सिद्धियों एवं उपलब्धियों के मिलने का भी इतिहास पुराणों में वर्णित है। वशिष्ठ के आश्रम में विद्यमान नंदिनी रूपी गायत्री ने राजा विश्वामित्र की सहस्रों सैनिकों वाली सेना की कुछ ही पलों में भोजन-व्यवस्था बनाकर, उन सबको चकित कर दिया था। गौतम मुनि को माता गायत्री ने उस सबको चकित कर दिया था। गौतम मुनि को माता गायत्री ने अक्षय पात्र प्रदान किया था, जिसके माध्यम से उन दिनों की दुर्भिक्ष-पीड़ित जनता को आहार प्राप्त हुआ था। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न कराने वाले शृंगी ऋषि को गायत्री का अनुग्रह ही प्राप्त था, जिसके सहारे चार देवपुत्र उन्हें प्राप्त हुए। ऐसी ही अनेकों कथा-गाथाओं से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है, जिनमें गायत्री-साधना के प्रतिफलों की चमत्कार भरी झलक मिलती है।
चौबीस अक्षरों का शक्तिपुञ्ज
गायत्री के नौ शब्द ही महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें आश्विन की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है। देवी भागवत में गायत्री की तीन शक्तियों-ब्राह्मी वैष्णवी, शाम्भवी के रूप में निरूपित किया गया है और नारी-वर्ग की महाशक्तियों को चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत माहात्म्यों का वर्णन किया है।
गायत्री के चौबीस अक्षरों का आलंकारिक रूप से अन्य प्रसंगों में भी निरूपण किया गया है। भगवान् के दस ही नहीं, चौबीस अवतारों का भी पुराणों में वर्णन है। ऋषियों में सप्त ऋषियों की तरह उनमें से चौबीस को प्रमुख माना गया है-यह गायत्री के अक्षर ही हैं। देवताओं में से त्रिदेवों की ही प्रमुखता है पर विस्तार में जाने पर पता चलता है कि वे इतने ही नहीं; वरन् चौबीस की संख्या में भी मूर्द्धन्य प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे हैं। महर्षि दत्तात्रेय ने ब्रह्माजी के परामर्श से चौबीस गुरुओं से अपनी ज्ञान-पिपासा को पूर्ण किया था। यह चौबीस गुरु प्रकारान्तर से गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं।
सौरमण्डल के नौ ग्रह हैं। सूक्ष्म-शरीर के छह चक्र और तीन ग्रंथि-समुच्चय विख्यात हैं, इस प्रकार उनकी संख्या नौ हो जाती है। इन सबकी अलग-अलग अभ्यर्थनाओं की रूपरेखा साधना-शास्त्रों में वर्णित है। गायत्री के नौ शब्दों की व्याख्या में निरूपित किया गया है कि इनसे किस पक्ष की, किस प्रकार साधना की जाए तो उसके फलस्वरूप किस प्रकार उनमें सन्निहित दिव्यशक्तियों की उपलब्धि होती रहे। अष्ट सिद्धियों और नौ ऋद्धियों को इसी परिकर के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिक्रिया समझा जा सकता है। अतींद्रिय क्षमताओं के रूप में परामनोविज्ञानी मानवीय सत्ता में सन्निहित जिन विभूतियों का वर्णन-निरूपण करते हैं, उन सबकी संगति गायत्री मंत्र के खण्ड-उपखण्डों के साथ पूरी तरह बैठ जाती है। देवी भागवत सुविस्तृत उपपुराण है। उसमें महाशक्ति के अनेक रूपों की विवेचना तथा शृंखला है। उसे गायत्री की रहस्यमय शक्तियों का उद्घाटन ही समझा जा सकता है। ऋषियुग के प्राय: सभी तपस्वी गायत्री का अवलम्बन लेकर ही आगे बढ़े हैं। मध्यकाल में भी ऐसे सिद्ध-पुरुषों के अनेक कथानक मिलते हैं, जिनमें यह रहस्य सन्निहित है कि उनकी सिद्धियाँ-विभूतियाँ गायत्री पर ही अवलम्बित हैं।
यदि इन्हीं दिनों इस सन्दर्भ में अधिक जानना हो, तो अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा द्वारा प्रकाशित गायत्री महाविज्ञान के तीनों खण्डों का अवगाहन किया जा सकता है, साथ ही यह भी खोजा जा सकता है कि ग्रन्थ के प्रणेता ने सामान्य व्यक्तित्व और स्वल्प साधन होते हुए भी कितने बड़े और कितने महत्वपूर्ण कार्य कितनी बड़ी संख्या में सम्पन्न किये हैं। उन्हें कोई समर्थ व्यक्ति, यों पाँच जन्मों में या पाँच शरीरों की सहायता से ही किसी प्रकार सम्पन्न कर सकता है।
अन्यान्य धर्मों में अपने-अपने सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक-एक ही प्रमुख मंत्र है। भारतीय धर्म का भी एक ही उद्गम-स्रोत है-गायत्री उसी के विस्तार के रूप में-पेड़ के तने, टहनी, फल-फूल आदि के रूप में-वेद शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, स्मृति, दर्शन, सूक्त आदि का विस्तार हुआ है। एक से अनेक और अनेक से एक होने की उक्ति गायत्री के ज्ञान और विज्ञान से सम्बन्धित-अनेकानेक दिशाधाराओं से सम्बन्धित-साधनाओं की विवेचना करके विभिन्न पक्षों को देखते हुए विस्तार के रहस्य को भली प्रकार समझा जा सकता है।
शिखा-सूत्र और गायत्री मंत्र सभी के लिए
शिखा और सूत्र हिन्दू धर्म के दो प्रतीक चिह्न हैं- ईसाइयों के क्रूस और मुसलमानों के चाँद-तारे की तरह। सृष्टि के आरम्भ में ॐकार, ॐकार से तीन व्याहृतियों के रूप में तीन तत्त्व या तीन गुण, तीन प्राण। इसके बाद अनेकानेक तत्त्वदर्शन और साधना-विज्ञान के पक्षों का विस्तारण। सृष्टि के साथ जुड़े हुए अनेक भौतिक रहस्य भी उसी क्रम-उपक्रम के साथ जुड़े समझे जा सकते हैं। अन्त में भी जो एक शेष रह जाएगा, वह गायत्री का बीजमंत्र ॐकार ही है।
समझदारी का उदय होते ही हर हिन्दू बालक को द्विजत्व की दीक्षा दी जाती है। उसके सिर पर गायत्री का ध्वजारोहण शिखा के रूप में किया जाता है। सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत। उसका धारण नर-पशु से नर-देव के जीवन में प्रवेश करना है। द्विजत्व अर्थात् जीवनचर्या को आदर्शों के अनुशासन में बाँधना। यह स्मरण प्रतीक-रूप में हृदय, कन्धे, पीठ आदि शरीर के प्रमुख अंगों पर हर घड़ी सवार रहे, इसलिए नौ महान सद्गुणों का प्रतीक-उपनयन हर वयस्क को पहनाया जाता है।
मध्यकाल के सामन्तवादी अन्धकार-युग में विकृतियाँ हर क्षेत्र में घुस पड़ीं। उनने संस्कृतिपरक भाव-संवेदनाओं और प्रतीकों को भी अछूता नहीं छोड़ा। कहा जाने लगा-गायत्री मात्र ब्राह्मण-वंश के लिए है, अन्य जातियाँ उसे धारण न करें, स्त्रियाँ भी गायत्री से सम्बन्ध न रखें, उसे सामूहिक रूप से इस प्रकार न दिया जाए, ताकि दूसरे लोग उसे सुन या सीख सकें। ऐसे मनगढ़न्त प्रतिबन्ध क्यों लगाये गये होंगे, इसका कारण खोजने पर एक ही बात समझ में आती है कि मध्यकाल में अनेकानेक मत सम्प्रदाय जब बरसाती उद्भिजों की तरह उबल पड़े तो उनने अपनी-अपनी अलग-अलग विधि-व्यवस्था प्रथा-परम्परा भक्ति-साधना आदि के अपने-अपने ढंग के प्रसंग गढ़े होंगे। उनके मार्ग में अनादि मान्यता गायत्री से बाधा पड़ती होगी, दाल न गलती होगी, ऐसी दशा में उन सबने सोचा होगा कि भले इस अनादि मान्यता के प्रति अनेक सन्देह पैदा कि ये जायें, जिससे भले लोगों का ध्यान शाश्वत् प्रतिष्ठापना की ओर से विरत किया जा सके।
कलियुग में गायत्री फलित नहीं होती, यह कथन भी ऐसे ही लोगों का है। इन लोगों को बतलाया जा सकता है कि युगनिर्माण योजना ने किस प्रकार गायत्री महामंत्र के माध्यम से समस्त संसार के नर-नारियों को इस दिशाधारा के साथ जोड़ा है और उनमें से उन सभी को उल्लास भरे प्रतिफल किस प्रकार मिले हैं, जिन्होंने गायत्री उपासना के साथ जीवन साधना को भी जोड़ रखा है। यदि उनके प्रतिपादन सही होते तो गायत्री की अनुपयोगिता के पक्ष में लोकमत हो गया होता, जबकि विवेचना से प्रतीत होता है कि इन्हीं दिनों उसका विश्वव्यापी विस्तार हुआ है और अनुभव के आधार पर सभी ने यह पाया है कि ‘सद्बुद्धि’ की उपासना ही समय की पुकार और श्रेष्ठतम उपासना है।
इस सन्दर्भ में नर और नारी का भी अन्तर नहीं स्वीकारा जा सकता है। गायत्री स्वयं मातृरूपा है। माता की गोद में उनकी पुत्रियों को न बैठने दिया जाए, यह कहाँ का न्याय है! भगवान् के साथ रिश्ते जोड़ते हुए उसे ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ जैसे श्लोकों में परमात्मा को सर्वप्रथम माता बाद में पिता, मित्र, सखा, गुरु आदि के रूप में बताया गया है। गायत्री को नारी-रूप में मान्यता देने के पीछे एक प्रयोजन यह भी है कि मातृशक्ति के प्रति इन दिनों जो अवहेलना एवं अवज्ञा का भाव अपनाया जा रहा है, उसे निरस्त किया जा सके। अगली शताब्दी नारी-शताब्दी है। अब तक हर प्रयोजन के लिए नर को प्रमुख और नारी को गौण ही नहीं, हेय-वंचित रखे जाने योग्य माना जाता रहा है। अगले दिनों यह मान्यता सर्वथा उलट दी जाने वाली है। नारी-वर्चस्व को प्राथमिकता मिलने जा रही है। ऐसी दशा में यदि भगवान् को नारी-रूप में प्रमुखतापूर्वक मान्यता मिले, तो उसमें न तो कुछ नया है और न अमान्य ठहराने योग्य। यह तो शाश्वत् परम्परा का पुनर्जीवन मात्र है। स्रष्टा ने सर्वप्रथम प्रकृति को नारी के रूप में ही सृजा है। उसी की उदरदरी से प्राणिमात्र का उद्भव-उत्पादन बन पड़ा है। फिर नारी को गायत्री-साधना से, उपनयन-धारण से वंचित रखा जाए, यह कि स प्रकार बुद्धिसंगत हो सकता है। शान्तिकुञ्ज के गायत्री-आन्दोलन ने रूढ़िवादी प्रतिबन्धों को इस सन्दर्भ में कितनी तत्परता और सफलतापूर्वक निरस्त करके रख दिया है, इसे कोई भी, कहीं भी देख सकता है। गायत्री-उपासना और यज्ञोपवीत-धारण को बिना किसी भेदभाव के सर्वसाधारण के लिए यथायोग्य स्थिति में ला दिया गया है। उसके सत्परिणाम भी प्रत्यक्ष मिलते देखे जा रहे हैं। अगले दिनों समस्त संसार एक केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा है। ऐसी दशा में गायत्री को सार्वभौम मान्यता मिले और उसे सार्वजनिक ठहराया जाए, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
यज्ञ और गायत्री एक-दूसरे के पूरक
गायत्री का पूरक एक और भी तथ्य है- यज्ञ। दोनों के सम्मिश्रण से ही पूर्ण आधार विनिर्मित होता है। भारतीय संस्कृति के जनक-जननी के रूप में यज्ञ और गायत्री को ही माना जाता है। यह प्रकृति और पुरुष हैं। इन्हें महामाया एवं परब्रह्म की संयुक्त संयोजन स्तर की मान्यता मिली है। इसलिए गायत्री दैनिक साधना में अग्नि की साक्षी रखने की, दीपक, अगरबत्ती आदि को संयुक्त रखने की प्रक्रिया चलती है। गायत्री पुरश्चरण के उपरान्त जप के अनुपात से हवन करने, आहुति देने कर्मकाण्डों में वही सर्वोपरि है। धर्मकृत्यों के, हर्षोत्सवों के सफल शुभारम्भ के अवसर पर प्राय: गायत्री-यज्ञ की ही प्रक्रिया सम्पन्न होती है। षोडश संस्कारों में, पर्व त्यौहारों में उसी की प्रमुखता एवं अनिवार्यता रहती है।
यज्ञाग्नि की गोदी में हर भारतीय धर्मानुयायी को चिता पर सुलाया जाता है। जन्मकाल में नामकरण, पुंसवन, आदि संस्कारों के समय यज्ञ होता है। यज्ञोपवीत-संस्कार की चर्चा में ही यज्ञ शब्द का प्रथम प्रयोग होता है। विवाह में अग्नि की सात परिक्रमाओं का प्रमुख विधि-विधान है। वानप्रस्थ भी यज्ञ की साक्षी में किया जाता है। सभी पर्व-त्योहार यज्ञाग्नि के सम्मिश्रण से ही सम्पन्न होते हैं, भले ही इस विस्मृति के जमाने में उसे अशिक्षित होने पर भी महिलाएँ ‘‘अग्यारी’’ के रूप में चिह्न-पूजा की तरह सम्पन्न कर लिया करें। होली तो वार्षिक यज्ञ है। नवान्न का अपने लिए प्रयोग करने से पूर्व उसे सभी लोग पहले यज्ञ-पिता को अर्पण करते हैं, बाद में स्वयं खाने का प्रचलन है। गायत्री का एक अविच्छिन्न पक्ष ‘यज्ञ’ प्राचीनकाल की मान्यताओं के अनुसार तो परब्रह्म का प्रत्यक्ष मुख ही माना गया है। प्रथम वेद-ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में यज्ञ को पुरोहित की संज्ञा दी है, साथ ही यह भी कहा है कि वह होताओं को मणि-मुक्तकों की तरह बहुमूल्य बना देता है। अग्नि की ऊर्जा और तेजस्विता ऐसी है, जिसे हर किसी को धारण करना चाहिए। अग्नि अपने सम्पर्क में आने वालों को अपनी ऊर्जा प्रदान करती है, वही रीति-नीति हमारी भी होनी चाहिए। शान्तिकुञ्ज के ब्रह्मवर्चस् शोध-संस्थान में जो शोध-कार्य उच्च वैज्ञानिक शिक्षण प्राप्त विशेषज्ञों द्वारा चल रहा है, उसमें गायत्री मंत्र के शब्दोच्चारण और यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा की इस प्रयोजन के लिए खोज की जा रही है कि उनका प्रभाव अध्यात्म तक ही सीमित है या भौतिक क्षेत्र पर भी पड़ता है? पाया गया है कि गायत्री मंत्र के साथ जुड़ी हुई यज्ञ-ऊर्जा पशु-पक्षियों वृक्ष-वनस्पतियों तक के उत्कर्ष में सहायक होती है। उसमें मनुष्यों के शारीरिक एवं मानसिक रोगों का निवारण कर सकने की तो विशेष क्षमता है ही, प्रदूषण के निवारण और वातावरण का परिशोधन भी उसके माध्यम से सहज बन पड़ता है। इसके अतिरिक्त ऐसी सम्भावनाएँ और भी प्रकट होने की आशा है, जिसके आधार पर और भी व्यापक समस्याओं में से अनेकों का निराकरण बन सके। ब्रह्मवर्चस् शोध-संस्थान के अतिरिक्त देश के हर कोने में यज्ञ-परम्परा को प्रोत्साहन देते हुए यह जाँचा जा रहा है कि उस सम्भावित ऊर्जा के सहारे सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलन में कहाँ, किस प्रकार और किस हद तक सहायता मिलती देखी गई है। गायत्री यज्ञों को एक स्वतंत्र आन्दोलन के रूप में धर्मानुष्ठान का स्तर प्रदान किया गया है। उस अवसर पर उपस्थित जनसमुदाय को यह भी समझाने का उपक्रम चलता है कि गायत्री यज्ञों में सन्निहित उत्कृष्टतावादी प्रतिपादनों के अवधारण से वैयक्तिक एवं सामूहिक अभ्युदय में कितनी महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। पिछले दिनों आध्यात्मिक प्रभाव की व्यापक रूप से जाँच-पड़ताल हुई है और उसे हर दृष्टि से उपयोगी पाया गया है।
एक आध्यात्मिक प्रयोग
यह युगसन्धि की वेला है। बीसवीं सदी की यज्ञाग्नि ही अवांछनीयताओं का समापन एवं इक्कीसवीं सदी के साथ उज्ज्वल भविष्य के आगमन एवं सतयुग की वापसी का वातावरण विनिर्मित करने जा रही है। दोनों शताब्दियों की मध्यवर्ती अवधि वाली युगसन्धि इन्हीं दिनों चल रही है। इस प्रयोजन के लिए जहाँ व्यावहारिक प्रत्यक्ष प्रयासों को क्रियान्वित किया जा रहा है, वहाँ एक करोड़ याजकों द्वारा एक लाख गायत्री यज्ञ इन्हीं दिनों सम्पन्न किये जा रहे हैं और आशा की जा रही है कि भागीरथी गंगावतरण जैसा अभिनव सुयोग एक बार फिर उतरेगा। गायत्री मंत्र के साथ यज्ञ-ऊर्जा जुड़ जाने से अभीष्ट उद्देश्य का विस्तार उसी प्रकार होता है, जैसे पतली-सी आवाज लाउडस्पीकर के साथ जुड़ जाने पर दूर-दूर तक सुनी जा सकने योग्य बनती है। रेडियो-प्रसारण और दूरसञ्चार-उपक्रम में भी यही विधा काम करती है। यज्ञाग्नि की बिजली गायत्री मंत्र की शब्द शृंखला के साथ समन्वित होकर अभीष्ट धर्मकृत्य को स्थानीय नहीं रहने देती, वरन् व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करती है। उससे असंख्य लोग अनेकानेक प्रकार से लाभान्वित होते हैं।
बैट्रियाँ बहुत बड़ी-बड़ी भी होती हैं और इतनी छोटी भी कि सामान्य-सी घड़ी के बीच बैठकर उस यंत्र को साल भर तक चलाती रह सकें। गायत्री यज्ञ बड़े आकार के भी हो सकते हैं और दीपयज्ञ स्तर के छोटे आकार वाले भी। चिनगारी छोटी होती है, फिर भी उसमें ज्वालमाल दावानल बनने की सम्भावना विद्यमान रहती है।
गायत्री मंत्र के साथ जुड़ी हुई ऊर्जा ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करती है, भले ही वह आकार में छोटी ही क्यों न हो । साधन सामग्री की महँगाई, लम्बा समय और पुरोहितों की दान-दक्षिणाओं का भार सहन न कर पाने की वर्तमान उपेक्षा को देखते हुए दीपयज्ञों के रूप में गायत्री मंत्र के अभिनव प्रयोग चल पड़े हैं और उनका प्रतिफल भी उच्चस्तरीय एवं व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करते हुए देखा गया है।
युग सन्धि की वर्तमान दस वर्षीय अवधि में शान्तिकुञ्ज से दो अत्यन्त प्रचण्ड सङ्कल्प उभरे हैं। एक-दीप यज्ञीय माध्यम से एक लाख सृजन-साधक खड़े करना। दूसरा-उभरे प्रयास में सहभागी बनने के लिए एक करोड़ व्यक्तियों को जुटाना। दोनों प्रयोजन जिस गति से सम्पन्न होते चलेंगे, उसी अनुपात से नवयुग की, सतयुग की वापसी के अनुरूप वातावरण बनता चला जाएगा। इसमें प्रयोग और प्रयास के सफल होने की सम्भावनाएँ अभियान का आरम्भ करते-करते ही दीख पड़ रही है। भविष्य के सम्बन्ध में आशापूर्वक विश्वास किया गया है कि नवयुग के अवतरण की महती सम्भावना नियत समय पर होकर रहेगी। पुरुषार्थ अपनी जगह और परमार्थ अपनी जगह। दोनों के समन्वय से, एक और एक के अंक बराबर रखने पर, दो नहीं वरन् ग्यारह बन जाते हैं, इस कथनी की यथार्थता वर्तमान दीपयज्ञ समारोहों से फलित होती देखी जा सकती है। एक लाख संगठित आध्यात्मिक प्रयोग और एक करोड़ व्यक्तियों द्वारा अपनाए गए सृजन-पुरुषार्थ दोनों मिलकर नवयुग का अवतरण सम्भव बनाएँ और उसे मत्स्यावतार की तरह विश्वव्यापी बनाएँ तो इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
यह मान्यता सभी विचारशीलों एवं सभी युग मनीषियों द्वारा स्वीकारी गई है कि इन दिनों व्यक्ति और समाज के सामने जो संकट और विग्रहों के घटाटोप छाये हुए हैं, उनका मुख्य कारण बुद्धि का भटकाव है। भ्रष्ट चिन्तन से दुष्ट आचरण और उसके फलस्वरूप अनर्थों की बाढ़ आई हुई है। उसका निराकरण करने के लिए विचारक्रान्ति ही एकमात्र उपचार है। जनमानस को परिष्कृत किये बिना विग्रहों के अनेकानेक स्वरूपों का निराकरण सम्भव नहीं हो सकेगा। विचारक्रान्ति अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसे सम्पन्न करने के लिए गायत्री यज्ञ में सन्निहित तत्त्वज्ञान जनमानस में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए, साथ ही यह भी आवश्यक है कि आद्यशक्ति व समग्र शक्ति के रूप में जानी जाने वाली गायत्री-उपासना को भी प्रश्रय दिया जाये। यह पर्याप्त न होगा कि कुछ ही लोग उसकी कठोर तपश्चर्या सम्पन्न करके कर्तव्य की इतिश्री कर लें; वरन् आवश्यक यह भी है कि इसके साथ-साथ जन-जन की प्राण-चेतना का समन्वय हो। अधिकाधिक लोग एक स्तर की साधना-पद्धति अपनाएँ और उसके सहारे बन पड़ने वाली सामूहिक प्राण-ऊर्जा का विस्तार करते हुए प्रक्रिया सम्पन्न करें, जिसे सीमित रखने से काम नहीं चलेगा। वरन् उसकी, व्यापकता, बहुलता ही अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति वाला लक्ष्य पूरा कर सकेगी।
अनेक प्रयोजनों के लिए गायत्री-उपासना के अनेक विधि-विधान हैं। उनका विस्तृत वर्णन साधना विज्ञान से सम्बन्धित शास्त्रों, अनुभवों और निष्णातजनों से प्राप्त किया जा सकता है। उपयुक्त गुरु चुनते हुए उनके मार्गदर्शन में की गई साधना अगणित फलदायी होती है। मानसिक जप कहीं भी करते रहने में कोई आपत्ति नहीं, किन्तु यदि किसी प्रयोजन-विशेष से एक संकल्पित अनुष्ठान यदि किया जाना है तो विधि-विधान विस्तार से जानकर ही उसे आरम्भ किया जाना चाहिए। यहाँ यह भ्रान्ति भली−भाँति मिटा लेनी चाहिए कि गायत्री की उपासना किसी साधक को किसी प्रकार की हानि पहुँचाती है, वस्तुत: गायत्री-साधना कभी किसी प्रकार की कोई क्षति साधक को नहीं पहुँचाती, क्योंकि यह तो सद्बुद्धि अवधारणा की साधना है।
आत्मशोधन, साधना का एक अनिवार्य चरण
आपरेशन करने से पूर्व औजारों को उबालना पड़ता है। सिनेमा घर में प्रवेश करने वालों के पास गेटपास होना चाहिए। पूजा-उपासना के कर्मकाण्डों की विधि अपनाने से पूर्व साधक की निजी जीवनचर्या उच्चकोटि की होनी चाहिए। प्राचीनकाल में यह तथ्य अध्यात्म विज्ञान में पहला चरण बढ़ाने वाले को भी समय से पूर्व जानते थे। अब तो लोग मात्र कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मानने लगे हैं और सोचते हैं कि अमुक विधि से अमुक वस्तुओं की, अमुक शब्दों के उच्चारण द्वारा मनोवाँछित अभिलाषाएँ पूरी कर ली जाएँगी। इस सिद्धांत विहीन प्रक्रिया का जब कोई परिणाम नहीं निकलता, समय की बरबादी भर होती है, तो दोष जिस-तिस पर लगाते हैं। लोग वर्णमाला सीखना अनावश्यक मानते हैं और एम. ए. का प्रमाण-पत्र झटकने की फिराक में फिरते हैं। समझा जाना चाहिए कि राजयोग के निर्माता महर्षि पतंजलि ने पहले यम और नियमों के परिपालन को प्रमुखता दी है, इसके बाद ही आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि साधनात्मक प्रयोजनों की शिक्षा दी है। गायत्री मंत्र के साधकों को सर्वप्रथम सद्बुद्धि धारण करने, सत्कर्म अपनाने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। जब प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होने से सफलता मिल जाये, तब रेखागणित, बीजगणित ,व्याकरण आदि का अभ्यास करना चाहिए। आज की महती विडम्बना यह है कि लोग विधि-विधान कर्मकाण्डों, उच्चारणों को ही समग्र समझ बैठते हैं और उतने भर से ही यह अपेक्षा कर लेते हैं कि उन पर दैवी वरदान बरसने लगेंगे और सिद्धियाँ, विभूतियाँ बटोरने में सफलता मिल जाएगी। समझना चाहिए कि अध्यात्म विद्या, जादूगरी-बाजीगरी नहीं है। उनके पीछे व्यक्तित्व को उभारने, निखारने और उत्कृष्ट बनाने की अनिवार्य शर्त जुड़ी हुई है, जिसे प्रथम चरण में ही पूरा करना पड़ता है।
बाजार में ऐसी ही मंत्र-तंत्र की पुस्तकें बिकती हैं, जिनमें अमुक कर्मकाण्ड अपनाने पर अमुक सिद्धि मिल जाने की चर्चा होती है। तथाकथित गुरु लोग भी ऐसी ही कुछ क्रिया-प्रक्रिया भर को पूर्ण समझते और शिष्यों को वैसा ही कुछ बताते हैं। इस प्रकार भ्रमग्रस्तों में से एक को धूर्त और दूसरे को मूर्ख कहा जाये, तो अत्युक्ति न होगी। धातुओं को, रसायनों को तथा विष को सर्वप्रथम शोधन, जागरण, मारण आदि के द्वारा प्रयोग में आने योग्य बनाना पड़ता है, तभी उन्हें औषधि की तरह प्रयुक्त किया जाता है। मकरध्वज जैसी रसायन बनाने के प्रारम्भिक झंझट से बचकर कोई कच्चा पारा खाने लगे, तो बलिष्ठता प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती, उलटे हानि ही अधिक होगी।
परिष्कृत जीवन को परिपुष्ट जीवन कह सकते हैं और पूजा-पाठ को शृंगार स्वस्थता के रहते यदि शृंगार भी लिया जाये, तो हर्ज नहीं, पर अकेले शृंगार सज्जा बनाकर कोई कृषकाय जराजीर्ण, रोगग्रस्त, मात्र उपहासास्पद ही बन सकता है। इन दिनों तो लोग शृंगार को ही सब कुछ मान बैठे हैं और स्वस्थता की आवश्यकता नहीं समझते और मंत्र-तंत्र का कर्मकाण्ड पूरा करके ही बड़ी-बड़ी आशा-अपेक्षा करने लगते हैं। मान्यता में बेतुकापन रहने से जब कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, तो नास्तिकों जैसी मान्यता बनाने या चर्चा करने लगते हैं।
इन पंक्तियों में विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्डों की चर्चा इसलिए नहीं की जा रही है कि यदि जीवन-साधना कर ली गई हो, तो उलटा नाम जपने वालों को भी ब्रह्म समान बन जाने के तथ्य सामने आते देखे गये हैं। मात्र राम-नाम के प्रभाव से ही पत्थर की शिलाएँ पानी पर तैरने जैसी कथा-गाथाएँ सही रूप में सामने आती देखी जाती हैं। अन्यथा रावण, मारीच, भस्मासुर आदि के द्वारा की गई कठोर शिव-साधना भी परिणाम में मात्र अनर्थ ही प्रस्तुत करती देखी गई है। मातृशक्ति की पवित्रता और उत्कृष्टता अंत:करण के मर्मस्थल तक जमा ली जाए, तो उससे भी इन्हीं नेत्रों द्वारा हर कहीं, कभी भी देवी का साक्षात्कार होने लगता है।
उपासना, विधान और तत्त्वदर्शन
सामान्य विधि विधान में गायत्री मंत्र का ॐकार, व्याहृति समेत त्रिपदा गायत्री का जप ही शान्त एकाग्र मन से करने पर अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति हो जाती है। जप के साथ ध्यान भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। गायत्री का देवता सविता है। सविता प्रात: काल के उदीयमान स्वर्णिम् सूर्य को कहते हैं। यही ध्यान गायत्री जप के साथ किया जाता है, साथ ही यह अभिव्यक्ति भी उजागर करनी होती है कि सविता की स्वर्णिम् किरणें अपने शरीर में प्रवेश करके ओजस् मन:क्षेत्र में प्रवेश करके तेजस् और अंत:करण तक पहुँचकर वर्चस् की गहन स्थापना कर रही हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को समर्थता, पवित्रता और प्रखरता से सराबोर कर रही हैं। यह मान्यता मात्र भावना बनकर ही नहीं रह जाती, वरन् अपनी फलित होने वाली प्रक्रिया का भी परिचय देती है। गायत्री की सही साधना करने वालों में ये तीनों विशेषताएँ प्रस्फुटित होती देखी जाती हैं।
शुद्ध स्थान पर, शुद्ध उपकरणों का प्रयोग करते हुए, शुद्ध शरीर से गायत्री उपासना के लिए बैठा जाता है। यह इसलिए कि अध्यात्म प्रयोजनों में सर्वतोमुखी शुद्धता का सञ्चय आवश्यक है। उपासना के समय एक छोटा जलपात्र कलश के रूप में और यज्ञ की धूपबत्ती या दीपक अग्नि के रूप में पूजा चौकी पर स्थापित करने की पराम्परा है। पूजा के समय अग्नि स्थापित करने का अर्थ-अग्नि को अपना इष्ट मानना । तेजस्विता, साहसिकता और आत्मीयता जैसे गुणों से अपने मानस को ओतप्रोत करना। जल का अर्थ है-शीतलता शान्ति, नीचे की ओर ढलना अर्थात् नम्रता का वरण करना।
पूजा चौकी पर साकार उपासना वाले गायत्री माता की प्रतिमा रखते हैं। निराकार में वही काम सूर्य का चित्र अथवा दीपक, या अग्नि रखने से काम चल जाता है। पूजा के समय धूप, दीप, नैवेद्य पुष्प आदि का प्रयोग करना होता है। यह सब भी किन्हीं आदर्शों के प्रतीक हैं। अक्षत अर्थात् अपनी कमाई का एक अंश भगवान् के लिए अर्पित करते रहना। दीपक अर्थात् स्वयं जलकर दूसरों के लिए प्रकाश उत्पन्न करना। पुष्प शोभायमान भी होते हैं और सुगन्धित भी। मनुष्य को भी अपना जीवनयापन इसी प्रकार करना चाहिए। पञ्चोपचार की पूजा सामग्री इसलिए समर्पित नहीं की जाती कि भगवान् को उनकी आवश्यकता है, वरन् उसका प्रयोजन यह है कि दिव्यसत्ता यह अनुभव करे कि साधक यदि सच्चा हो, तो उसकी भक्ति भावना में इन सद्गुणों का जुड़ा रहना अनिवार्य स्तर का होना चाहिए।
उपचार सामग्री यदि न हो, तो सब कुछ ध्यान रूप में मानसिक स्तर पर किया जा सकता है। जिस प्रकार बड़े आकार वाली यज्ञ प्रक्रिया को छोटे दीपयज्ञों के रूप में सिकोड़ लिया गया है, उसी प्रकार कर्मकाण्ड सहित पूजा-उपचार का मात्र भावना स्तर पर मानसिक कल्पनाओं के आधार पर किया जा सकता है। रास्ता चलते, काम-धाम करते, लेटे-लेटे भी गायत्री-उपासना कर लेने की परम्परा है, पर वह सब होना चाहिए। भाव संवेदनापूर्वक, मात्र कल्पना कर लेना ही पर्याप्त नहीं है।
गायत्री अनुष्ठानों की भी एक परम्परा है। नौ दिन में चौबीस हजार जप का विधान है, जिसे प्राय: आश्विन या चैत्र की नवरात्रियों में किया जाता है, पर उसे अपनी सुविधानुसार कभी भी किया जा सकता है। इसमें प्रतिदिन २७ मालाएँ पूरी करनी पड़ती हैं और अन्त में यज्ञ-अग्निहोत्र सम्पन्न करने का विधान है।
सवालक्ष अनुष्ठान चालीस दिन में पूरा होता है। उसमें ३३ मालाएँ प्रतिदिन करनी पड़ती हैं। उसके लिए महीने की पूर्णिमा के आरम्भ या अन्त को चुना जा सकता है। सबसे बड़ा अनुष्ठान २४ लाख जप का होता हैं, प्राय: एक वर्ष में पूरा किया जाता है।
युग तीर्थ में साधना का विशेष महत्त्व
शान्तिकुञ्ज एक संस्कारित तपस्थली है, जहाँ करोड़ों गायत्री मंत्र के जप-अनुष्ठान अब तक सम्पन्न हो चुके हैं, व नित्य लक्षाधिक जप सम्पन्न होकर नौकुण्डीय यज्ञशाला में साधकों द्वारा आहुतियाँ दी जाती हैं। यह ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपस्थली भी है तथा परमपावनी पुण्यतोया भागीरथी के तट पर हिमालय के हृदय उत्तराखण्ड के द्वार पर यह अवस्थित है। इसी कारण इसे एक सिद्धाश्रम की, युगतीर्थ की उपमा दी जाती है, जिसके कल्पवृक्ष के तले साधना करने वाला साधक अपनी मनोवाँछित कामनाएँ ही नहीं पूरी करता, यथाशक्ति मनोबल-आत्मबल भी सम्पादित करके लौटता है।
शान्तिकुञ्ज की तीर्थ गरिमा एवं स्थान की विशेषता का अनुभव करते हुए जब कभी उपासकों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है और सीमित आकार के आश्रम में किसी प्रकार ठूँस-ठाँस करके इच्छुकों का तारतम्य बिठाना पड़ता है तो अनुष्ठान को अति संक्षिप्त पाँच दिन का भी कर दिया जाता है और उतने ही दिन में मात्र १०८ माला का अति संक्षिप्त अनुष्ठान करने से भी काम चला लिया जाता है। कुछ साधक ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अत्यधिक व्यस्तता रहती है। उनके लिए भी पाँच दिन शान्तिकुञ्ज रहकर अनुष्ठान कर लेने की व्यवस्था बना दी जाती है, पर यह है-आपत्तिकालीन न्यूनतम व्यवस्था ही ।
जिन्हें अत्यधिक व्यस्तता नहीं है और जिन पर काम का अत्यधिक दबाव नहीं है, उनके लिए ९ दिन का २४ हजार जप वाला परम्परागत अनुष्ठान ही उपयुक्त पड़ता है। इतनी अवधि शान्तिकुञ्ज के वातावरण में रहकर व्यतीत की जाए तो वह अपेक्षाकृत अधिक फलप्रद और अधिक प्रभावोत्पादक रहती है। इतनी अवधि में सत्संग के लिए प्रवचनपरक वह लाभ भी मिल जाता है, जिसे जीवन-कला का शिक्षण एवं उच्चस्तरीय जीवनयापन का लक्ष्यपूर्ण मार्गदर्शन कहा जा सकता है। कितने ही लोगों की अभिलाषा हरिद्वार, ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला, कनखल आदि देखने की भी होती है। वह अवकाश भी तभी मिलता है, जब नौ दिन का सङ्कल्प लेकर अनुष्ठान प्रक्रिया में प्रवेश किया जाए। जिन्हें सवा लक्ष का चालीस दिन में सम्पन्न होने वाला अनुष्ठान करना हो, उन्हें अपने घर पर ही रहकर उसे करना चाहिए, क्योंकि शान्तिकुञ्ज में इतनी लम्बी अवधि तक रहने की सुविधा मिल सकना हर दृष्टि से कठिन पड़ता है।
इक्कीसवीं सदी में एक लाख प्रज्ञा संगठन बनाने और एक करोड़ व्यक्तियों की भागीदारी का निश्चित निर्धारण किया गया है। उस निमित्त भी वरिष्ठ भावनाशीलों को बहुत कुछ सीखना, जानना और शक्ति-संचय की आवश्यकता पड़ेगी। यह प्रसंग अधिक विस्तार से समझने और समझाने का है, इसलिए भी नौ दिन का समय निकालकर शान्तिकुञ्ज में प्रेरणा, दक्षता एवं क्षमता उपलब्ध करने की आवश्यकता पड़ेगी। अच्छा हो कि जिनके पास थोड़ा अवकाश हो, वे नौ दिन का सत्र हर महीने तारीख १ से ९, ११ से १९ तथा २१ से २९ तक का पूरा करें, जो निरन्तर जारी रहते हैं, किन्तु पाँच दिन के सत्रों में ही जिन्हें आना है, उनके लिए तारीख १ से ५, ७ से ११, १३ से १७ और १९ से २३ तथा २५ से २९ तक का निर्धारण है। ये दोनों साथ-साथ ही चलते रहते हैं। जिन्हें जैसी सुविधा हो, अपने पूरे परिचय समेत आवेदन पत्र भेजकर समय से पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए। बिना स्वीकृति लिए आने वालों को स्थान मिल सके, इसकी गारन्टी नहीं दी जा सकती। अशिक्षितों, जराजीर्णों, संक्रामक रोगग्रस्तों को प्रवेश नहीं मिलता।
पुरुषों की तरह महिलाएँ भी सत्र साधना के लिए शान्तिकुञ्ज आ सकती हैं। पर उन्हें छोटे बच्चों को लेकर आने की धर्मशाला स्तर की व्यवस्था यहाँ नहीं है। साधना, प्रशिक्षण और परामर्श में प्राय: इतना समय लग जाता है कि उस व्यस्तता के बीच छोटे बालकों की साज सँभाल बन नहीं पड़ती है। अत: मात्र उन्हीं को सत्रों में आना चाहिए, जो निर्विघ्न कुछ समय रहकर साधना कर यहाँ के वातावरण का लाभ ले सकें व अनुशासित व्यवस्था में भी गड़बड़ी न आने दें।
संस्कारों की सुलभ व्यवस्था
शान्तिकुञ्ज में यज्ञोपवीत संस्कार और विवाह संस्कार कराने की भी सुव्यवस्था है। इस प्रयोजन में प्राय: आडम्बर बहुत होता देखा जाता है। खर्चीले रस्मो रिवाज भी पूरे करने पड़ते हैं, इसलिए उनकी ओर हर किसी की उपेक्षा बढ़ती जाती है। शान्तिकुञ्ज में यह भी कृत्य बिना खर्च के होते हैं, इसलिए परिजनों के परिवारों में यह प्रचलन विशेष रूप से चल पड़ा है कि यज्ञोपवीत धारण के साथ जुड़ी हुई गायत्री मंत्र की अवधारणा इसी पुण्य भूमि में सम्पन्न कराई जाये।
स्पष्ट है कि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। बिना दहेज और जेवर वाली शादियाँ प्राय: स्थानीय प्रतिगामिता के बीच ठीक तरह बिना विरोध के बन नहीं पड़तीं। इसलिए विगत लम्बे समय से चलने वाली ९ कुण्डों की यज्ञशाला का दैवी प्रभाव अनुभव करते हुए संस्कार सम्पन्न कराने के लिए गायत्री माता के संस्कारों से अनुप्राणित, यह स्थान ही अधिक उपयुक्त माना जाता है। हर वर्ष बड़ी संख्या में ऐसे विवाह यहाँ सम्पन्न होते रहते हैं।
साधना के लिए, विशेषतया गायत्री उपासना के लिए शान्तिकुञ्ज में यह उपक्रम सम्पन्न करना सोने और सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसा काम देता है।
इस भूमि में रहकर साधना करने की इसलिए भी अधिक महत्ता है कि उसके साथ युगसन्धि महापुरश्चरण की प्रचण्ड प्रक्रिया भी अनायास ही जुड़ जाती है और प्रतिभा परिष्कार का वह प्रयोजन भी पूरा होता है, जिसके माध्यम से भावी शताब्दी में महामानवों के स्तर की भूमिका निबाहने का सुयोग बन पड़ता है। युगशक्ति गायत्री का, मिशन के संचालन को दिया गया यह आश्वासन जो है।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
- प्रकाशक
* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।
क्रान्तिधर्मी साहित्य-युग साहित्य महत्ता
क्रान्तिधर्मी साहित्य-युग साहित्य नाम से विख्यात यह पुस्तकमाला युगद्रष्टा-युगसृजेता प्रज्ञापुरुष पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा १९८९-९० में महाप्रयाण के एक वर्ष पूर्व की अवधि में एक ही प्रवाह में लिखी गयी है। प्राय: २० छोटी -छोटी पुस्तिकाओं में प्रस्तुत इस साहित्य के विषय में स्वयं हमारे आराध्य प.पू. गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना था- ‘‘हमारे विचार, क्रान्ति के बीज हैं। ये थोड़े भी दुनियाँ में फैल गए, तो अगले दिनों धमाका कर देंगे। सारे विश्व का नक्शा बदल देंगे।..... मेरे अभी तक के सारे साहित्य का सार हैं।..... सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं।..... जीवन और चिंतन को बदलने के सूत्र हैं इनमें।..... हमारे उत्तराधिकारियों के लिए वसीयत हैं।..... अभी तक का साहित्य पढ़ पाओ या न पढ़ पाओ, इसे जरूर पढ़ना। इन्हें समझे बिना भगवान के इस मिशन को न तो तुम समझ सकते हो, न ही किसी को समझा सकते हो।..... प्रत्येक कार्यकर्ता को नियमित रूप से इसे पढ़ना और जीवन में उतारना युग-निर्माण के लिए जरूरी है। तभी अगले चरण में वे प्रवेश कर सकेंगे। ..... यह इस युग की गीता है। एक बार पढ़ने से न समझ आए तो सौ बार पढ़ना और सौ लोगों को पढ़ाना। उनसे भी कहना कि आगे वे १०० लोगों को पढ़ाएँ। हम लिखें तो असर न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। जैसे अर्जुन का मोह गीता से भंग हुआ था, वैसे ही तुम्हारा मोह इस युग-गीता से भंग होगा।..... मेरे जीवन भर के साहित्य इस शरीर के वजन से भी ज्यादा भारी है। मेरे जीवन भर के साहित्य को तराजू के एक पलड़े पर रखें और क्रान्तिधर्मी साहित्य को दूसरे पलड़े पर, तो इनका वजन ज्यादा होगा।..... महाकाल ने स्वयं मेरी उँगलियाँ पकड़कर ये साहित्य लिखवाया है।..... इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित-प्रसारित शब्दश:-अक्षरश: करने की सभी को छूट है, कोई कापीराइट नहीं है। ..... मेरे ज्ञान शरीर को मेरे क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास करें।’’
ॐ ‘‘बेटे ! क्रान्तिधर्मी साहित्य मेरे अब तक के सभी साहित्य का मक्खन है। मेरे अब तक का साहित्य पढ़ पाओ या न पढ़ पाओ, इसे जरूर पढ़ना। इन्हें समझे बिना मिशन को न तो तुम समझ सकते हो, न ही किसी को समझा सकते हो।’’.....
ॐ ‘‘बेटे ! ये इस युग की युगगीता है। एक बार पढ़ने से न समझ आये तो सौ बार पढ़ना। जैसे अर्जुन का मोह गीता से भंग हुआ था, वैसे ही तुम्हारा मोह इस युगगीता से भंग होगा।
ॐ ‘‘हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। हमको आगे बढ़ने दीजिए, सम्पर्क बनाने दीजिए।’’.....
ॐ ‘‘मेरे जीवन भर का साहित्य शरीर के वजन से ज्यादा भारी है। यदि इसे तराजू के एक पलड़े पर रखें और क्रान्तिधर्मी साहित्य को (युग साहित्य को) एक पलड़े पर, तो इनका वजन ज्यादा होगा।
ॐ ‘‘आवश्यकता और समय के अनुरूप गायत्री महाविज्ञान मैंने लिखा था। अब इसे अल्मारी में बन्द करके रख दो। अब केवल इन्हीं (क्रान्तिधर्मी साहित्य को-युग साहित्य को) किताबों को पढ़ना। समय आने पर उसे भी पढ़ना। महाकाल ने स्वयं मेरी उँगलियाँ पकड़कर ये साहित्य लिखवाया है।’’.....
ॐ ‘‘ये उत्तराधिकारियों के लिए वसीयत है। जीवन को-चिन्तन को बदलने के सूत्र हैं इसमें। गुरु पूर्णिमा से अब तक पीड़ा लिखी है, पढ़ो।’’ .....
ॐ ‘‘हमारे विचार, क्रांति के बीज हैं, जो जरा भी दुनिया में फैल गए, तो अगले दिनों धमाका करेंगे। तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे।’’.....
ॐ १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं।’’.....
ॐ ‘‘जैसे श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को सभी तीर्थों की यात्रा कराई, वैसे ही आप भी हमें (विचार रूप में - क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में) संसार भर के तीर्थ प्रत्येक गाँव, प्रत्येक घर में ले चलें।’’.....
ॐ ‘‘बेटे, गायत्री महाविज्ञान एक तरफ रख दो, प्रज्ञापुराण एक तरफ रख दो। केवल इन किताबों को पढ़ना-पढ़ाना व गीता की तरह नित्य पाठ करना।’’.....
ॐ ‘‘ये गायत्री महाविज्ञान के बेटे-बेटियाँ हैं, ये (इशारा कर के) प्रज्ञापुराण के बेटे-बेटियाँ हैं। बेटे, (पुरानों से) तुम सभी इस साहित्य को बार-बार पढ़ना। सौ बार पढ़ना। और सौ लोगों को पढ़वाना। दुनिया की सभी समस्याओं का समाधान इस साहित्य में है।’’.....
ॐ ‘‘हमारे विचार क्रांति के बीज हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है।’’.....
ॐ ‘‘अब तक लिखे सभी साहित्य को तराजू के एक पलड़े पर रखें और इन पुस्तकों को दूसरी पर, तो इनका वजन ज्यादा भारी पड़ेगा।’’.....
ॐ शान्तिकुञ्ज अब क्रान्तिकुञ्ज हो गया है। यहाँ सब कुछ उल्टा-पुल्टा है। सातों ऋषियों का अन्नकूट है।’’.....
ॐ ‘‘बेटे, ये २० किताबें सौ बार पढ़ना और कम से कम १०० लोगों को पढ़ाना और वो भी सौ लोगों को पढ़ाएँ। हम लिखें तो असर न हो, ऐसा न होगा।’’.....
ॐ ‘‘आज तक हमने सूप पिलाया, अब क्रान्तिधर्मी के रूप में भोजन करो।’’.....
ॐ ‘‘प्रत्येक कार्यकर्ता को नियमित रूप से इसे पढ़ना और जीवन में उतारना युग-निर्माण के लिए जरूरी है। तभी अगले चरण में वे प्रवेश कर सकेंगे। ’’.....
ॐ वसंत पंचमी १९९० को वं. माताजी से - ‘‘मेरा ज्ञान शरीर ही जिन्दा रहेगा। ज्ञान शरीर का प्रकाश जन-जन के बीच में पहुँचना ही चाहिए और आप सबसे कहियेगा - सब बच्चों से कहियेगा कि मेरे ज्ञान शरीर को- मेरे क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास करें।’’.....
क्रान्तिधर्मी साहित्य की पुस्तकें:
1 इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १
2 इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग २
3 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १
4 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २
5 सतयुग की वापसी
6 परिवर्तन के महान क्षण
7 जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
8 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण
9 प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया
10 नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी
11 समस्याएँ आज की समाधान कल के
12 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले
13 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा
14 आद्य शक्ति गायत्री की समर्थ साधना
15 शिक्षा ही नहीं विद्या भी
16 संजीवनी विद्या का विस्तार
17 भाव संवेदनाओं की गंगोत्री
18 महिला जागृति अभियान
19 जीवन देवता की साधना-आराधना
20 समयदान ही युग धर्म
21 नवयुग का मत्स्यावतार
22 इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण
अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)
यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।
इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जायें, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।
योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।
प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।
कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?
साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।
काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।
कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।
अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिंतन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।
स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।
कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?
यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984
हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरंभ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )
1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।