श्री यमुने रस खान को शीश नांऊ।
ऐसी महिमा जानि भक्त को सुख दान, जोइ मांगो सोइ जु पाऊं ॥१॥
पतित पावन करन नामलीने तरन, दृढ कर गहि चरन कहूं न जाऊं ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत यहि चाहत नहिं पलक लाऊं ॥२॥
कितै दिन ह्वै जु गए बिनु देखे / कुम्भनदास
भक्तन को कहा सीकरी सों काम / कुम्भनदास
तुम नीके दुहि जानत गैया / कुम्भनदास
श्री यमुने पर तन मन धन प्राण वारो / कुम्भनदास
रसिकिनि रस में रहत गड़ी / कुम्भनदास
भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता / कुम्भनदास
गाय सब गोवर्धन तें आईं / कुम्भनदास
बैठे लाल फूलन के चौवारे / कुम्भनदास
साँझ के साँचे बोल तिहारे / कुम्भनदास
कहा करौं वह मूरति जिय ते न टरई / कुम्भनदास
श्री यमुने रस खान को शीश नांऊ / कुम्भनदास
संतन को कहा सीकरी सों काम / कुम्भनदास
आई ऋतु चहूँदिस फूले द्रुम / कुम्भनदास
माई हौं गिरधरन के गुन गाऊँ / कुम्भनदास
सीतल सदन में सीतल भोजन भयौ / कुम्भनदास
हमारो दान देहो गुजरेटी / कुम्भनदास