Harivansh Rai Bachchan
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
दिवस में सबके लिए बस एक जग है
रात में हर एक की दुनिया अलग है,
कल्पना करने लगी अब राह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
भूमि के उर तप्त करता चंद्र शीतल
व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल,
किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है!
कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है;
किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है,
भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है,
काश मैं भी यों बिखर सकता भुवन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
प्यार की असमर्थता कितनी करुण है ।
चाँद कितनी दूर है, वह जानता है,
और अपनी हद्द भी पहचानता है,
हाथ इसपर भी उठाता ही वरुण है ;
प्यार की असमर्थता कितनी करुण है ।
सृष्टि के पहले दिवस से यत्न जारी,
दूर उतनी ही निशा की श्याम सारी,
किंतु पीछा ही किए जाता अरुण है;
प्यार की असमर्थता कितनी करुण है ।
कट गए शत कल्प अपलक नेत्र खोले,
कौन आया ? सुन इसे नक्षत्र बोले,
भावना तो सर्वदा रहती तरुण है;
प्यार की असमर्थता कितनी करुण है ।
जो असंभव है उसीपर आँख मेरी,
चाहती होना अमर मृत राख मेरी,
प्यास की साँसें बचीं, बस यह शकुन है;
प्यार की असमर्थता कितनी करुण है ।
मैं कहाँ पर, रागिनी मेरी कहाँ पर!
है मुझे संसार बाँधे, काल बाँधे,
है मुझे जंजीर औ' जंजाल बाँधे,
किंतु मेरी कल्पना के मुक्त पर-स्वर;
मैं कहाँ पर, रागिनी मेरी कहाँ पर!
धूलि के कण शीश पर मेरे चढ़े हैं,
अंक ही कुछ भाल के कुछ ऐसे गढ़े हैं
किंतु मेरी भावना से बद्ध अंबर;
मैं कहाँ पर, रागिनी मेरी कहाँ पर!
मैं कुसुम को प्यार कर सकता नहीं हूँ,
मैं काली पर हाथ धर सकता नहीं हूँ,
किंतु मेरी वासना तृण-तृण निछावर;
मैं कहाँ पर, रागिनी मेरी कहाँ पर!
मूक हूँ, जब साध है सागर उँडेलूँ,
मूर्तिजड़, जब मन लहर के साथ खेलूँ,
किंतु मेरी रागिनी निर्बंध निर्झर;
मैं कहाँ पर, रागिनी मेरी कहाँ पर!
प्राण, मेरा गीत दीपक-सा जला है।
पाँव के नीचे पड़ी जो धूलि बिखरी,
मूर्ति बनकर ज्योति की किस भाँति निखरी,
आँसुओं में रात-दिन अंतर गला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक-सा जला है।
यह जगत की ठोकरें खाकर न टूटा,
यह समय की आँच से निकला अनूठा,
यह हृदय के स्नेह साँचे में ढला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक-सा जला है।
आह मेरी थी कि अंबर कंप रहा था,
अश्रु मेरे थे कि तारा झंप रहा था,
यह प्रलय के मेघ-मारुत में पला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक-सा जला है।
जो कभी उंचास झोंकों से लड़ा था,
जो कभी तम को चुनौती दे खड़ा था,
वह तुम्हारी आरती करने चला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक-सा जला है।
आज आँखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो ।
देखना किस ओर झुकता है ज़माना,
गूँजता संसार में किसका तराना,
प्राण, मेरी ओर पल भर तुम ढरो तो;
आज आँखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो ।
मैं बताऊँ, शक्ति है कितनी पगों में ?
मैं बताऊँ, नाप क्या सकता दृगों में ?-
पंथ में कुछ ध्येय मेरे तुम धरो तो;
आज आँखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो ।
चीर वन-घन, भेद मरु जलहीन आऊँ,
सात सागर सामने हों, तैर जाऊँ,
तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो;
आज आँखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो ।
राह अपनी मैं स्वयं पहचान लूँगा,
लालिमा उठती किधर से जान लूँगा,
कालिमा मेरे दृगों की तुम हरो तो;
आज आँखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो ।
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कहाँ वह आग जो मुझको जलाए,
है कहाँ वह ज्वाल मेरे पास आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
मैं तपोमय ज्योती की, पर प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
आज मन-वीणा, प्रिये, फिर कसो तो।
मैं नहीं पिछली अभी झंकार भूला,
मैं नहीं पहले दिनों का प्यार भूला,
गोद में ले, मोद से मुझको लसो तो;
आज मन-वीणा, प्रिये, फिर कसो तो।
हाथ धर दो, मैं नया वरदान पाऊँ,
फूँक दो, बिछुड़े हुए मैं प्राण,
स्वर्ग का उल्लास, पर भर तुम हँसो तो;
आज मन-वीणा, प्रिये, फिर कसो तो।
मौन के भी कंठ में मैं स्वर भरूँगा,
एक दुनिया ही नई मुखरित करूँगा,
तुम अकेली आज अंतर में बसो तो;
आज मन-वीणा, प्रिये, फिर कसो तो।
रात भागेगी, सुनहरा प्रात होगा,
जग उषा-मुसकान-मधु से स्नात होगा,
तेज शर बन तुम तिमिर घन में धँसो तो;
आज मन-वीणा, प्रिये, फिर कसो तो।
बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम।
गीत ठुकराया हुआ, उच्छ्वास-क्रंदन,
मधु मलय होता उपेक्षित हो प्रभंजन,
बाँध दो तूफान को मुसकान में तुम;
बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम।
कल्पनाएँ आज पगलाई हुई हैं,
भावनाएँ आज भरमाई हुई हैं,
बाँध दो उनको करुण आह्वान में तुम;
बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम।
व्यर्थ कोई भाग जीवन का नहीं हैं,
व्यर्थ कोई राग जीवन का नहीं हैं,
बाँध दो सबको सुरीली तान में तुम;
बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम।
मैं कलह को प्रीति सिखलाने चला था,
प्रीति ने मेरे हृदय को छला था,
बाँध दो आशा पुन: मन-प्राण में तुम;
बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम।
आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो।
तापमय दिन में सदा जगती रही है,
रात भी जिसके लिए तपती रही है,
प्राण, उसकी पीर का अनुमान कर लो;
आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो।
चाँद से उन्माद टूटा पड़ रहा है,
लो, खुशी का गीत फूटा पड़ रहा है,
प्राण, तुम भी एक सुख की तान भर लो;
आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो।
धार अमृत की गगन से आ रही है,
प्यार की छाती उमड़ती जा रही है,
आज, लो, मादक सुधा का पान कर लो;
आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो।
अब तुम्हें डर-लाज किससे लग रही है,
आँखें केवल प्यार की अब जग रही है,
मैं मनाना जानता हूँ, मान कर लो;
आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो।
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
दिन गया तो ले गया बातें पुरानी,
याद मुझको अब भी नहीं रातें पुरानी,
आज भी पहली निशा मनभावनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
घूँट मधु का है, नहीं झोंका पवन का,
कुछ नहीं आज मन को पाता है आज तन का,
रात मेरे स्वप्न की अनुगामिनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
यह काली का हास आता है किधर से,
यह कुसुम का श्वास जाता है किधर से,
हर लता-तरु में प्रणय की रागिनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
दुग्ध-उज्जवल मोतियों से युक्त चादर,
जो बिछी नभ के पलँग पर आज उसपर
चाँद से लिपटी लजाती चाँदनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
आ उजेली रात कितनी बार भागी,
सो उजेली रात कितनी बार जागी,
पर छटा उसकी कभी ऐसी न छाई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
चाँदनी तेरे बिना जलती रही है,
वह सदा संसार को छलती रही है,
आज ही अपनी तपन उसने मिटाई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
आज तेरे हास में मैं भी नहाया,
आज अपना ताप मैंने भी मिटाया,
मुसकराया मैं, प्रकृति जब मुसकराई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
ओ अँधेरे पाख, क्या मुझको डरता,
अब प्रणय की ज्योति के मैं गीत गाता,
प्राण में मेरे समाई यह जुन्हाई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
कोकिला अपनी व्यथा जिससे जताए,
सुन पपीहा पीर अपनी भूल जाए,
वह करुण उदगार तुमको दे सकूंगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
प्राप्त मणि—कंचन नहीं मैंने किया है,
ध्यान तुमने कब वहाँ जाने दिया है,
आंसुओ का हार तुमको दे सकूंगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
सत्य ने छूने भला मुझको दिया कब,
किन्तु उसने तुष्ट ही किसको किया कब,
स्वप्न का संसार तुमको दे सकूँगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
फूल ने खिल मौन माली को दिया जो,
बीन ने स्वरकार को अर्पित किया जो,
मैं वही उपहार तुमको दे सकूंगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
स्वप्न में तुम हो, तुम्हीं हो जागरण में।
कब उजाले में मुझे कुछ और भाया,
कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया,
तुम निशा में औ' तुम्हीं प्रात: किरण में;
स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में।
जो कही मैंने तुम्हारी थी कहानी,
जो सुनी उसमें तुम्हीं तो थीं बखानी,
बात में तुम औ' तुम्हीं वातावरण में;
स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में।
ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता,
ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता,
चित्त में तुम हो तुम्हीं हो चिंतवन में;
स्वप्न में तुम हो तुम्ही हो जागरण में।
रूप बनकर घूमता जो वह तुम्हीं हो,
राग बन कर गूंजता जो वह तुम्हीं हो,
तुम नयन में और तुम्हीं अंतःकरण में;
स्वप्न में तुम हों तुम्हीं हो जागरण में।
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु विष पिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
ठीक है मैंने कभी देखा अँधेरा,
किन्तु अब तो हो गया फिर से सबेरा,
भाग्य-किरणों ने छुआ संसार मेरा;
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
तप्त आँसू से कभी मुख म्लान होता,
किन्तु अब तो शीत जल में स्नान होता,
राग-रस-कण से घुला संसार मेरा,
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
आह से मेरी कभी थे पत्र झुलसे,
किन्तु मेरी साँस पाकर आज हुलसे,
स्नेह-सौरभ से बसा संसार मेरा;
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
एक दिन मुझमें हुई थी मूर्त जड़ता,
किन्तु बरबस आज मैं झरता, बिखरता,
है निछावर प्रेम पर संसार मेरा;
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
जानता हूँ दूर है नगरी प्रिया की,
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की,
प्यार के पथ की थकन भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
आग ने मानी न बाधा शैल-वन की,
गल रही भुजपाश में दीवार तन की,
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
साँस में उत्तप्त आँधी चल रही है,
किंतु मुझको आज मलयानिल यही है,
प्यार के शर की शरण भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
तृप्त क्या होगी उधर के रस कणों से,
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से,
प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
की कमल ने सूर्य—किरणों की प्रतीक्षा,
ली कुमुद की चांद ने रातों परीक्षा,
इस लगन को प्राण, पागलपन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
मेह तो प्रत्येक पावस में बरसता,
पर पपीहा आ रहा युग—युग तरसता,
प्यार का है, प्यास का क्रंदन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
कूक कोयल पूछती किसका पता है,
वह बहारों की सदा से परिचिता है,
इस रटन को मौसमी गायन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
विश्व की दो कामनाएँ थीं विचरतीं,
एक थी बस दूसरे की खोज करती,
इस मिलन को सिर्फ़ भुजबंधन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की,
पर नहीं परितृप्त है तृष्णा हृदय की,
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
तुम समर्पण बन भुजाओं में पड़ी हो,
उम्र इन उद्भ्रांत घड़ियों की बड़ी हो,
पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
है अधर में रस, मुझे मदहोश कर दो,
किंतु मेरे प्राण में संतोष भर दो,
मधु मिला है, मैं अमृतकण खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
जी उठा मैं, और जीना प्रिय बड़ा है,
सामने, पर, ढेर मुरदों का पड़ा,
पा गया जीवन, पर सजीवन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
बाँह तुमने डाल दी ज्यों फूल माला,
संग में, पर, नाग का भी पाश डाला,
जानता गलहार हूँ, ज़ंजीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
है अधर से कुछ नहीं कोमल कहीं पर,
किन्तु इनकी कोर से घायल जगत भर,
जानता हूँ पंखुरी, शमशीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
कौन आया है सुरा का स्वाद लेने,
जोकि आया है हृदय का रक्त देने,
जानता मधुरस, गरल के तीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
तीर पर जो उठ लहर मोती उगलती,
बीच में वह फाड़कर जबड़े निगलती,
जानता हूँ तट, उदधि गंभीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
थी मुझे घेरे बनी जो कल निराशा,
आज आशंका बनी, कैसा तमाशा,
एक से हैं एक बढ़ कर पर चुभन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
देखकर नीरस गगन रोया पपीहा,
मेह में भी तो कहीं खोया पपीहा,
फ़र्क पानी से नहीं गड़ता लगन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
आम पर तो मंजरी पर मंजरी है,
दर्द से आवाज़ कोयल की भरी है,
कब समाए स्वप्न मधुॠतु के सेहन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
फूल को ले चोंच में बुलबुल बिलखती,
एक अचरज से उसे दुनिया निरखती,
वह बदल पाई नहीं अब तक सुमन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
प्यास होती तो सलिल में डूब जाती,
वासना मिटती न तो मुझको मिटाती,
पर नहीं अनुराग है मरता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
तुम मिलीं तो प्यार की कुछ पीर जानी,
और ही मशहूर दुनिया में कहानी,
दर्द कोई भी नहीं हरता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
पाँव बढ़ते, लक्ष्य उनके साथ बढ़ता,
और पल को भी नहीं यह क्रम ठहरता,
पाँव मंजिल पर नहीं पड़ता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
स्वप्न से उलझा हुआ रहता सदा मन,
एक ही इसका मुझे मालूम कारण,
विश्व सपना सच नहीं करता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,
और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
कह उठे संसार, आया ज्योति का क्षण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब,
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
जग विभामय न तो काली रात मेरी,
मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्रण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
मध्य भाग
1. मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
1
जन कोई अपने कोटि करों को कर बाहर
अपने तप का चिर संचित कोष लुटाता है,
जब उसका सौरभ-यश कलि-कुसुमों के मुख से
विस्तृत वसुधा के कण-कण में छा जाता है,
तब जाकर तम का काला, भारी, भयकारी
पर्दा ऊपर को उठता और सिमटता है;
इतने उत्सर्गों, उल्लासों का यह अवसर,
अचरज है मुझको, कैसे प्रति दिन आता है ।
कवि वह है जिसके मन को चोट पहुँचती है
जब होती जग में सुन्दरता की अवहेला,
अनजाने भी अपमान किसीका हो जाता,
अनजाने भी अपराध कभी हो जाते हैं;
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
2
रजनी में आँखें सपनों से बहला भी लो,
दिन देन दूसरी ही कुछ माँगा करता है,
देखें अँधियारा चीर निकलता है कोई,
देखें कोई अंतर की पीड़ा हरता है,
सारी आशा-प्रत्याशाओं की परवशता
में मन गलकर निर्मम बूंदों में ढल जाता,
देखें मिलकर क्या देता जबकि प्रतीक्षा में
पलकों का आँचल मुक्ताहल से भरता है,
कवि वह है जिसके उर में आहें उठती हैं
जब होती मिलनातुर घड़ियों की अवहेला,
आँसू का कुछ भी मोल नहीं बाज़ारों में,
क्यों इस कारण कोई उसका उपहास करे;
मैं गाता हूँ इसलिए कि विरही के दृग में
जो बिंदु सुधा का सिंधु समेट छलकता है,
उसको कोई खारा जलकण मत कह बैठे ।
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
3
जब जगती छाती में अभाव की चेतनता
तब निखिल सृष्टि का मूल केंद्र ही हिलता है,
वह ठंडी साँसें खींच बिलख तब उठती है
जब एकाकी को अपना संगी मिलता है,
जलते अधरों कुछ खोज रही-सी बाँहों में
धरती की सारी बेचैनी जाहिर होती,
जब प्राणों का विनिमय प्राणी से होता है
अंबर के दिल का पंकज ही तब खिलता है,
कवि वह है जिसका अंतर विगलित होता है
जब होती जग में प्यास-प्रणय की अवहेला,
शब्दों की निर्धन दुनिया में अक्सर होता
कुछ कहते हैं पर मतलब कुछ से होता है,
मैं गाता हूँ इसलिए कि प्रेमी के मन में
जो प्यार अनंत, अपार, अगाध उमड़ता है,
उसको कोई व्यामोह-व्यसन मत कह बैठे ।
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)