Harivansh Rai Bachchan हरिवंशराय बच्चन
जन्म : 27 नवंबर 1907, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आत्मकथा
मधुवर्षिणि,
मधु बरसाती चल,
बरसाती चल,
बरसाती चल ।
झंकृत हों मेरे कानों में,
चंचल, तेरे कर के कंकण,
कटि की किंकिणि,
पग के पायल--,
कंचन पायल,
’छन्-छन्’ पायल ।
मधुवर्षिणि,
मधु बरसाती चल,
बरसाती चल,
बरसाती चल ।
मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,
मधु के धट मुझ पर बलिहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख देखा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
2.
इस नीले अंचल की छाया
में जग-ज्वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
3.
मधुघट ले जब करती नर्तन,
मेरे नुपुर की छम-छनन
में लय होता जग का क्रंदन,
झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
4.
मैं इस आंगन की आकर्षण,
मधु से सिंचित मेरी चितवन,
मेरी वाणी में मधु के कण,
मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
5.
था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीं साक़ीबाला,
था बैठा ठाला विक्रेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
6.
तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था भ्रम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप लिये सर पर,
मैं आई करती उजियाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
7.
सोने सी मधुशाला चमकी,
माणिक द्युति से मदिरा दमकी,
मधुगंध दिशाओं में चमकी,
चल पड़ा लिये कर में प्याला
प्रत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
8.
थे मदिरा के मृत-मूक घड़े,
थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,
थे जड़वत प्याले भूमि पड़े,
जादू के हाथों से छूकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
9.
मझको छूकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मालिक जागा मलकर पलकें,
अंगड़ाई लेकर उठ बैठी
चिर सुप्त विमूर्छित मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
10.
प्यासे आए, मैंने आँका,
वातायन से मैंने झाँका,
पीनेवालों का दल बाँका,
उत्कंठित स्वर से बोल उठा
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’
मैं मधुशाला की मधुबाला!
11.
खुल द्वार गए मदिरालय के,
नारे लगते मेरी जय के,
मिटे चिन्ह चिंता भय के,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला मदिरा ला-ला’!,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
12.
हर एक तृप्ति का दास यहां,
पर एक बात है खास यहां,
पीने से बढ़ती प्यास यहां,
सौभाग्य मगर मेरा देखो,
देने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला!
13.
चाहे जितना मैं दूं हाला,
चाहे जितना तू पी प्याला,
चाहे जितना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हूँ अंतिम,
यह शांत नहीं होगी ज्वाला.
मैं मधुशाला की मधुबाला!
14.
मधु कौन यहां पीने आता,
है किसका प्यालों से नाता,
जग देख मुझे है मदमाता,
जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर
तनती मैं स्वपनों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
15.
यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला,
यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,
स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,
स्वप्नों की दुनिया में भूला
फिरता मानव भोलाभाला.
मैं मधुशाला की मधुबाला!
१.
मैं ही मधुशाला का मालिक,
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
मधुपात्र, सुरा, साक़ी लाया,
प्याली बाँकी-बाँकी लाया,
मदिरालय की झाँकी लाया,
मधुपान करानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
२.
आ देखो मेरी मधुशाला,
साक़ीबालाओं की माला,
मधुमय प्याली, मधुमय प्याला,
मैं इसे सजानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
३.
जब ये मधु पी-पीकर छलकें,
देखो इनकी पुलकित पलकें,
कल कंधों पर चंचल अलकें,
मैं देख जिन्हें मतवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
४.
इनके मदिराभ अधर देखो,
मृदु कर, कमनीय कमर देखो,
कटि-किंकिण, पद-घूँघर देखो,
मैं मन को हरनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
५.
सब चली लिए मधुघट देखो,
’झरझर’ लहराते पट देखो,
’झिलमिल’ हिलते घूंघट देखो,
मैं चित्त चुरानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
६.
वे देतीं प्याले चूम-चूम,
वे बाँट रहीं मधु घूम-घूम,
वे झुक-झुककर, वे झूम-झूम,
मदमत्त बनानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
७.
पीनेवाले हैं बड़े-बड़े,
देखो, पीते कुछ खड़े-खड़े,
कुछ बैठ-बैठ, कुछ पड़े-पड़े,
यह सभा जुटानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
८.
कुछ आते हैं अरमान-भरे,
कुछ जाते हैं एहसान-भरे,
कुछ पीते गर्व-गुमान-भरे,
मन सबका रखनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
९.
अब चिंताओं का भार कहाँ,
अब क्रूर-कठिन संसार कहाँ,
अब कुसमय का अधिकार कहाँ,
भय-शोक भुलानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१०.
अब ज्ञान कहाँ, अज्ञान कहाँ,
अब पद-पदवी का ध्यान कहाँ,
अब जाति-वंश अभिमान कहाँ,
सम भाव बनानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
११.
हो मस्त जिसे होना, आए,
जितने चाहे साथी लाए,
जितनी जी चाहे पी जाए,
'बस' कभी न कहनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१२.
आओ सब-के-सब साथ चले,
सब एक ख़ाक ही के पुतले,
क्या ऊँच-नीच, क्या बुरे-भले,
मैं स्वागत करनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१३.
आओ, आओ, मत शरमाओ,
क्या सोच रहे हो ? बतलाओ,
है दाम नहीं, मत पछताओ,
मैं मुफ़्त लुटानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१४.
मैं पूछ-पूछ मदिरा दूँगा,
आशीष-दुआ सबकी लूँगा,
सबको खुश कर मैं खुश हूँगा,
जी खुश कर देनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१५.
कटु जीवन में मधुपान करो,
जग के रोदन को गान करो,
मादकता का सम्मान करो,
यह पाठ पढानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१.
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
पग-पायल की झनकार हुई,
पीने को एक पुकार हुई,
बस हम दीवानों की टोली
चल देने को तैयार हुई,
मदिरालय के दरवाज़ों पर
आवाज़ लगाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
२.
हमने छोड़ी कर की माला,
पोथी-पत्रा भू पर डाला,
मन्दिर-मस्जिद के बन्दीगृह
को तोड, लिया कर में प्याला
औ' दुनिया को आज़ादी का
सन्देश सुनाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
३.
क्रोधी मोमिन हमसे झगड़ा,
पंडित ने मंत्रों से जकड़ा,
पर हम थे कब रुकनेवाले,
जो पथ पकड़ा, वह पथ पकड़ा,
पथ-भ्रष्ट जगत को मस्ती की
अब राह बताने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
४.
छिपकर सब दिन था जग पीता,
पीता न अगर कैसे जीता ?
जब हम न समझते थे इसको,
वह दिन बीता, वह युग बीता;
साक़ी से मिल मदिरा पीने
अब खुले-खज़ाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
५.
मग में कितने सागर गहरे,
कितने नद-नाले नीर-भरे,
कितने सर, निर्झर, स्रोत मिले,
पर, नहीं कहीं पर हम ठहरे;
तेरे लघु प्याले में ही बस
अपनत्व डुबाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
६.
है ज्ञात हमें नश्वर जीवन,
नश्वर इस जगती का क्षण-क्षण,
है, किन्तु, अमरता की आशा
करती रहती उर में क्रंदन,
नश्वरता और अमरता की आशा
अब द्वन्द्व मिटाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
७.
दूरस्थित स्वर्गों की छाया
से विश्व गया है बहलाया,
हम क्यों उनपर विश्वास करें,
जब देख नहीं कोई आया ?
अब तो इस पृथ्वी-तल पर ही
सुख-स्वर्ग बसाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
८.
हम लाए हैं केवल हस्ती,
ले, साक़ी, दे अपनी मस्ती,
जीवन का सौदा ख़त्म करें,
मिल मुक्ति हमें जाए सस्ती;
साक़ी, तेरे मदिरालय को
अब तीर्थ बनाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
९.
चिरजीवी हो साक़ीबाला !
चिर दिवस जिए मधु का प्याला !
जो मस्त हमें करनेवाली,
आबाद रहे वह मधुशाला !
इतने दिन जो बदनाम रही,
उसका गुण गाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१०.
दी हाथ खुले तूने हाला,
हम सबने भी जी-भर ढाला,
यह तो अनबूझ पहेली है -
क्यों बुझ न सकी अंतर्ज्वाला ?
मदिरालय से पीकर के भी
क्या प्यासे जाने हम आए ?
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
११.
कल्पना सुरा औ' साक़ी है,
पीनेवाला एकाकी है,
यह भेद हमें जब ज्ञात हुआ,
क्या और समझना बाकी है ?
जो गाँठ न अब तक सुलझी थी,
उसको सुलझाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१२.
यह सपना भी बस दो पल है,
उर की भावुकता का फल है,
भोली मानवता चेत, अरे,
सब धोखा है, सारा छल है !
हम बिना पिए भी पछ़ताते,
पीकर पछ़ताने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१.
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
सुन्दर-सुन्दर गीत बनाता,
गाता, सब से नित्य गवाता,
थकित बटोही का बहला मन
जीवन-पथ की श्रांति मिटाता,
यह मतवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
२.
हम सब मधुशाला जाएंगे,
आशा है, मदिरा पाएंगे,
किंतु हलाहल ही यदि होगा
पीने से कब घबराएंगे !
पीनेवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
३.
उफ़! कितने इस पथ पर आते,
पहुंच मगर, कितने कम पाते,
है हमको अफ़सोस. न इसका,
इसपर जो मरते तर जाते;
मरनेनेवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
४.
यह तो दीवानों का दल है,
पीना सब का ध्येय अटल है,
प्राप्त न हो जब तक मधुशाला,
पड़ सकती किसके उर कल है!
वह मधुशाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
५.
झांक रहा, वह देखो, साकी
कर में एक सुराही बाँकी,
देख लिया क्या हमको आते?
धार लगी गिरने मदिरा की;
वह मघुशाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
६.
अपना-अपना पात्र संभालो,
ऊँचे अपने हाथ उठा लो,
सात बलाएं ले मदिरा की,
प्याले अपने होंठ लगा लो,
मधु का प्याला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
७.
प्याले में क्या आई हाला
नहीं, नहीं उतरी मधुबाला।
पीकर कैसे यह छवि खो दूँ-
सोच रहा हर पीनेवाला;
मादक हाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
८.
जिसमेँ झलक रही मधुशाला,
जिसमें प्रतिबिंबित मधुबाला,
कौन सकेगा पी उस मधु को
कितनी ही हो अंतर्ज्वाला?
उर की ज्वाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
१.
मैं एक सुराही हाला की!
मैं एक सुराही मदिरा की!
मदिरालय हैं मन्दिर मेरे,
मदिरा पीनेवाले, चेरे,
पंडे-से मधु-विक्रेता को
जो निशि-दिन रहते हैं घेरे;
है देवदासियों-सी शोभा
मधुबालाओं की माला की ।
मैं एक सुराही हाला की!
२.
कोयल-बुलबुल की तान यहाँ,
घड़ियाली, और अजान यहाँ,
जिसको सुनकर खिंच आता है
पीनेवालों का ध्यान यहाँ,
तुलसी बिरवों-सी पावनता
है अंगूरों की लतिका की ।
मैं एक सुराही मदिरा की!
३.
सब आर्य प्रवर आ सकते हैं,
सब आर्येतर आ सकते हैं;
इस मानवता के मंदिर में
सब-नारी-नर आ सकते हैं;
केवल प्रवेश उसका निषिद्ध
जिसमें मधु-प्यास नहीं बाकी ।
मैं एक सुराही हाला की!
४.
सबका सम्मान समान यहाँ,
सबको समान वरदान यहाँ,
मैं शंकर-सी औढर दानी,
है मुक्ति बड़ी आसान यहाँ,
देरी है केवल फिरने की
सब पर मेरी चितवन बांकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
५.
इस मंदिर में पूजन मेरा,
अभिवादन-अभिनंदन मेरा,
निज भाग्य सराहा करते सब,
पाकर मादक दर्शन मेरा,
जिस तप से यह पदवी पाई
मैंने, कर लो उसकी झांकी!
मैं एक सुराही हाला की!
६.
मैं कुंभकार की चाक चढ़ी,
फिर मेरे तन पर बेलि कढ़ी,
तब गई चिता पा मैं रक्खी,
हर ओर अग्नि की ज्वाल बढ़ी,
जल चिता गई हो राख-राख,
मैं मिट्टी, किंतु, रही बाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
७.
मैं मृत्यु विजय करके आई,
मैंने दैवी महिमा पाई,
मानव के नीरस जीवन में
मैं अमृत-सा मधुरस लाई,
इस गुण के कारण ही तो मैं
बन प्राण गई मधुशाला की।
मैं एक सुराही हाला की!
८.
मैं मधु से नहलार्ड जाती,
फिर प्यालों की माला पाती,
तब मेरे चारों ओर खड़ी
होकर मधुबालाएँ गातीं;
इस भाँति की गई है पूजा
जगती-तल पर किस प्रतिमा की ?
मैं एक सुराही मदिरा की!
९.
मैं मिट्टी की थी, लाल हुई,
मधु पीकर और निहाल हुई,
जब चली मुझे ले मधुबाला,
'छलछल' करके वाचाल हुई,
जिसको सुनकर पंडित-मुल्ले
भूले सब अपनी चालाकी।
मैं एक सुराही हाला की!
१०.
अब इनकी मिन्नत कौन करे?
इनके शापों से कौन डरे?
जब स्वर्ग लिए मैं फिरती हूं,
तब कौन क़यामत तक ठहरे?
जो प्राप्त अभी, उसके हित कल
की राह किसी ने कब ताकी?
मैं एक सुराही मदिरा की!
११.
मैं मधुबाला के कंधों पर
उपदेश यही देती चढ़कर-
'अपने जीवन के क्षण-क्षण को
लो मेरी मादकता से भर;
यह मिलना-जुलना क्षण भर का
फिर जाना सबको एकाकी।'
मैं एक सुराही हाला की!
१२.
लघु, मानव का कितना जीवन,
फिर क्यों उसपर इतना बंधन;
यदि मदिरा का ही अभिलाषी,
पी सकता कुछ गिनती के कण!
चुल्लू भर में गल सकता है
उसके तन का जामा ख़ाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१३.
मैं हूँ प्यालों मेँ जम जाती,
मधु के वितरण में रम जाती,
भरती अगणित मुख में मदिरा,
अपनी निधि, पर, कब कम पाती;
मैं घूम जिधर पड़ती, उठती
है गूँज उधर ध्वनि 'ला-ला' की
मैं एक सुराही हाला की!
१४.
औरों के हित मेरी हस्ती,
औरों के हित मेरी मस्ती,
मैं पीती सिंचित करने को
इन प्यासे प्यालों की बस्ती,
आनंद उठाते ये, अपयश
की भागी बनती मैं, साकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१५.
उन्मत्त- बनाना खेल नहीं,
मधु से भी बुझती प्यास कहीं;
उर तापों से पिघला मेरा,
यह नहीं सुरा की धार वही!
उर के आसव से ही होती
है शांति हृदय की ज्वाला की
मैं एक सुराही हाला की!
१६. तुमने समझा मधुपान किया?
मैंने निज रक्त प्रदान किया!
उर क्रंदन करता था मेरा,
पर मुख से मैंने गान किया!
मैंने पीड़ा को रूप दिया,
जग समझा मैंने कविता की।
मैं एक सुराही मदिरा की!
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
१.
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हीं,
कल मादकता थी भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन?
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ--
किस कुम्भकार का यह निश्चय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
२.
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,
था भ्रमित हो रहा आसमान,
उस कलावान का कुछ रहस्य
होता फिर कैसे भासमान.
जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,
थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.
भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,
क्या ज्ञान करेगा वह संचय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
३.
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छिन,
खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप
हो जग की ज्वाला के अधीन;
मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर?'
लपटें बोलीं,'चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.'
यह,लो, मीणा बाज़ार जगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
४.
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,
अमरों ने अमृत दिखलाया,
दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,
बिक,मगर,गया मैं मोल बिना
जब आया मानव सरस ह्रदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
५.
बस एक बार पूछा जाता,
यदि अमृत से पड़ता पाला;
यदि पात्र हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;
चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होहों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;
मेरा घर है अरमानो से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
६.
मैं सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल क्रूर काल के गलों में
जाना होगा--इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;
इन मेरी उलटी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
७.
मेरे पथ में आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
'क्यों तू दुनिया के लोगों में
करता है मदिरा का प्रचार?'
मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
'आनंद करो'--यह व्यंग्य भरी
है किसी दग्ध-उर की पुकार;
कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी,कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
८.
मैं देख चुका जा मसजिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;
यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रम,
कह भी दूँ,तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी?
यह चिर अनादि से प्रश्न उठा
मैं आज करूँगा क्या निर्णय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
९.
सुनकर आया हूँ मंदिर में
रटते हरिजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला में
जपते मतवाले जाम-जाम;
पंडित मदिरालय से रूठा,
मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,
मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;
मुझको मस्ती से महज काम.
भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों
मन को बहलाने के अभिनय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
१०.
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा तुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;
संघर्ष यहाँ किसका किससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
यह देख,यवनिका गिरती है,
समझा कुछ अपनी नादानी!
छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपना-अपना आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
११.
पल में मृत पीने वाले के
कल से गिर भू पर आऊँगा,
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;
अधिकार नहीं जिन बातों पर,
उन बातों की चिंता करके
अब तक जग ने क्या पाया है,
मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा?
मुझको अपना ही जन्म-निधन
'है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
१.
जग ने ऊपर की आँखों से
देखा मुझको बस लाल-लाल,
कह डाला मुझको जल्दी से
द्रव माणिक या पिघला प्रवाल,
जिसको साक़ी के अधरों ने
चुम्बित करके स्वादिष्ट किया,
कुछ मनमौजी मजनूँ जिसको
ले-ले प्यालों में रहे ढाल;
मेरे बारे में है फैला
दुनिया में कितना भ्रम-संशय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
२.
वह भ्रांत महा जिसने समझा
मेरा घर था जलधर अथाह,
जिसकी हिलोर में देवों ने
पहचाना मेरा लघु प्रवाह;
अंशावतार वह था मेरा
मेरा तो सच्चा रूप और;
विश्वास अगर मुझ पर,मानो--
मेरा दो कण वह महोत्साह,
जो सुरासुरों ने उर में धर
मत डाला वारिधि वृहत ह्रदय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
३.
मेरी मादकता से ही तो
मानव सब सुख-दुःख सका झेल,
कर सकी मानवों की पृथ्वी
शशि-रवि सुदूर से हेल-मेल,
मेरी मस्ती से रहे नाच
ग्रह गण,करता है गगन गान,
वह महोन्माद मैं ही जिससे
यह सृष्टि-प्रलय का खेल-खेल,
दु:सह चिर जीवन सह सकता
वह चिर एकाकी लीलामय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
४.
अवतरित रूप में भी तो मैं
इतनी महान,इतनी विशाल,
मेरी नन्हीं दो बूंदों ने
रंग दिया उषा का चीर लाल;
संध्या की चर्चा क्या,वह तो
उसके दुकूल का एक छोर,
जिसकी छाया से ही रंजित
पटल-कुटुम्ब का मृदुल गाल;
कर नहीं मुझे सकता बन्दी
दर-दीवारों में मदिरालय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
५.
अवतीर्ण रूप में भी तो है
मेरा इतना सुरभित शरीर,
दो साँस बहा देती मेरी
जग-पतझड में मधुऋतु समीर,
जो पिक-प्राणों में कर प्रवेश
तनता नभ में स्वर का वितान,
लाता कमलों की महफिल में
नर्तन करने को भ्रमर-भीड़;
मधुबाला के पग-पायल क्या
पाएँगे मेरे मन पर जय!
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
६.
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता इसी पर,
सर हिल्लोलित होता रह-रह,
सरि बढ़ती लहरा-लहराकर,
मेरी चंचलता की करता
रहता है सिंधु नक़ल असफल;
अज्ञानी को यह ज्ञात नहीं,
मैं भर सकती कितने सागर.
कर पाएँगे प्यासे मेरा
कितना इन प्यालो में संचय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
७.
है आज प्रवाहित में ऐसे,
जैसे कवि के ह्रदयोद्गार;
तुम रोक नहीं सकते मुझको,
कर नहीं सकोगे मुझे पार;
यह अपनी कागज़ की नावें
तट पर बाँधो आगे न बढ़ो,
ये तुम्हें डूबा देंगी गलकर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार;
बह सकता जो मेरी गति से
पा सकता वह मेरा आश्रय
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
८.
उद्दाम तरंगों से अपनी
मस्जिद,गिरजाघर ,देवालय
मैं तोड़ गिरा दूँगी पल में--
मानव के बंदीगृह निश्चय.
जो कूल-किनारे तट करते
संकुचित मनुज के जीवन को,
मैं काट सबों को डालूँगी.
किसका डर मुझको?मैं निर्भय.
मैं ढहा-बहा दूँगी क्षण में
पाखंडों के गुरू गढ़ दुर्जय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
९.
फिर मैं नभ गुम्बद के नीचे
नव-निर्मल द्वीप बनाऊँगी,
जिस पर हिलमिलकर बसने को
संपूर्ण जगत् को लाऊँगी;
उन्मुक्त वायुमंडल में अब
आदर्श बनेगी मधुशाला;
प्रिय प्रकृति-परी के हाथों से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,
चिर जरा-जीर्ण मानव जीवन से
पाएगा नूतन यौवन वय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
१०.
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी!
दिखला मत मुझको वह मरुथल,
जिसमे जाएगी खो जाएगी
मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.
है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूँगी इठलाकर;
संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?
मेरा तो विश्वास अटल--
मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी
कर दूँगी उसको जीवन मय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)