Harivansh Rai Bachchan हरिवंशराय बच्चन
जन्म : 27 नवंबर 1907, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आत्मकथा
(१)
घर से यह सोच उठी थी
उपहार उन्हें मैं दूँगी,
करके प्रसन्न मन उनका
उनकी शुभ आशिष लूँगी ।
(२)
पर जब उनकी वह प्रतिभा
नयनो से देखी जाकर,
तब छिपा लिया अञ्चल में
उपहार हार सकुचा कर ।
(३)
मैले कपड़ों के भीतर
तण्डुल जिसने पहचाने,
वह हार छिपाया मेरा
रहता कब तक अनजाने ?
(४)
मैं लज्जित मूक खड़ी थी,
प्रभु ने मुस्करा बुलाया,
फिर खड़े सामने मेरे
होकर निज शीश झुकाया !
(१)
भूल तब जाता दुख अनन्त,
निराशा पतझड़ का हो अन्त
हृदय में छाता पुन: वसन्त,
दमक उठता मेरा मुख म्लान
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(२)
पथिक जो बैठा हिम्मतहार,
जिसे लगता था जीवन भार,
कमर कसता होता तैयार,
पुन: उठता करता प्रस्थान,
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(३)
डूबते पा जाता आधार,
सरस होता जीवन निस्सार,
सार मय फिर होता संसार,
सरल हो जाते कार्य महान,
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(४)
शक्ति का फिर होता संचार,
सूझ पड़ता फिर कुछ-कुछ पार,
हाथ में फिर लेता पतवार,
पुन: खेता जीवन जल यान,
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(१)
निशा व्यतीत हो चुकी कब की !
सूर्य किरण कब फूटी!
चहल-पहल हो उठी जगत में,
नींद न तेरी टूटी!
(२)
उठा उठा कर हार गई मैं,
आँख न तूने खोली,
क्या तेरे जीवन-अभिनय की
सारी लीला हो ली ?
(३)
जीवन का तो चिन्ह यही है
सो कर फिर जग जाना,
क्या अनंत निद्रा में सोना
नहीं मृत्यु का आना ?
(४)
तुझे न उठता देख मुझे है
बार बार भ्रम होता--
क्या मैं कोई मृत शरीर को
समझ रही हूँ सोता !
(१)
"कीर ! तू क्यों बैठा मन मार,
शोक बन कर साकार,
शिथिल तन मग्न विचार !
आकर तुझ पर टूट पडा है किस चिंता का भार ?"
(२)
इसे सुन पक्षी पंख पसार,
तीलियों पर पर मार,
हार बैठा लाचार,
पिंजड़े के तारों से निकली मानो यह झङ्कार-
(३)
"कहाँ बन बन स्वच्छन्द विहार !
कहाँ वन्दी-गृह द्वार !"
महा यह अत्याचार-
एक दुसरे का ले लेना 'जन्म सिद्ध अधिकार' ।
(१)
हृदय हमारा करके गद्गद
भाव अनेक उठाता है,
उच्च हमारा होकर झण्डा
जब 'फर-फर' फहराता है!
(२)
अहे ! नहीं फहराता झण्डा
वायु वेग से चञ्चल हो,
हमें बुलाती है माँ भारत
हिला हिला कर अञ्चल को !
(३)
आओ युवको, चलें सुनें क्या
माता हमसे कहती आज ।
हाथ हमारे है रखना माँ
भारत के अञ्चल की लाज ।
(१)
"पड़े वन्दी क्यों कारागार ?
चले तुम कौन कुचाल ?
चुराया किसका माल ?
छीना क्या किसका जिस पर था तुम्हें नहीं अधिकार ?"
(२)
"न था मन में कोई कुविचार,
न थी दौलत की चाह,
न थी धन की परवाह,
था अपराध हमारा केवल किया देश को प्यार !
(३)
शीश पर मातृ भूमि-ऋण भार,
उसे हूँ रहा उतार ।
देशहित कारागार-
कारागार नहीं, वह तो है स्वतन्त्रता का द्वार !"
(१)
जेल कोठरी के मैं द्वार
वन्दी ! तुझसे मिलने आया,
नतमस्तक मन में शर्माया,
मित्र ! मित्रता का मुझसे कुछ निभ न सका व्यवहार ।
(२)
कैसे आता तेरे साथ ?
देश भक्ति करने का अवसर,
बड़े भाग्य से मिले मित्रवर !
मेरी किस्मत में वह कैसे लिखते विधि के हाथ !
(३)
मित्र ! तुम्हारे मंगल भाल
अंकित है स्वतन्त्र नित रहना,
मेरे, बंदीगृह दुख सहना,
"मैं स्वतन्त्र ! तू वन्दी ! कैसे ?"-तेरा ठीक सवाल ।
(४)
मित्र ! नहीं क्या यह अविवाद ?
स्वतंत्र ही स्वतन्त्रता खोता,
वन्दी कभी न वन्दी होता,
अपने को वन्दी कर सकते जो स्वतन्त्र आजाद ।
(५)
कम न देश का मुझको प्यार ।
साथ तुम्हारा मैं भी देता,
अंग अंग यदि जकड़ न लेता,
मेरा, प्यारे मित्र ! जगत का काला कारागार ।
1
अहे, कोयल की पहली कूक !
अचानक उसका पड़ना बोल,
हृदय में मधुरस देना घोल,
श्रवणों का उत्सुक होना, बनाना जिह्वा का मूक !
2
कूक, कोयल, या कोई मंत्र,
फूँक जो तू आमोद-प्रमोद,
भरेगी वसुंधरा की गोद ?
काया-कल्प-क्रिया करने का ज्ञात तुझे क्या तंत्र ?
3
बदल अब प्रकृति पुराना ठाट
करेगी नया-नया श्रृंगार,
सजाकर निज तन विविध प्रकार,
देखेगी ऋतुपति-प्रियतम के शुभागमन की बाट।
4
करेगा आकर मंद समीर
बाल-पल्लव-अधरों से बात,
ढँकेंगी तरुवर गण के गात
नई पत्तियाँ पहना उनको हरी सुकोमल चीर।
5
वसंती, पीले, नील, लाले,
बैंगनी आदि रंग के फूल,
फूलकर गुच्छ-गुच्छ में झूल,
झूमेंगे तरुवर शाखा में वायु-हिंडोले डाल।
6
मक्खियाँ कृपणा होंगी मग्न,
माँग सुमनों से रस का दान,
सुना उनको निज गुन-गुन गान,
मधु-संचय करने में होंगी तन-मन से संलग्न !
7
नयन खोले सर कमल समान,
बनी-वन का देखेंगे रूप—
युगल जोड़ी सुछवि अनूप;
उन कंजों पर होंगे भ्रमरों के नर्तन गुंजान।
8
बहेगा सरिता में जल श्वेत,
समुज्ज्वल दर्पण के अनुरूप,
देखकर जिसमें अपना रूप,
पीत कुसुम की चादर ओढ़ेंगे सरसों के खेत।
9
कुसुम-दल से पराग को छीन,
चुरा खिलती कलियों की गंध,
कराएगा उनका गठबंध,
पवन-पुरोहित गंध सूरज से रज सुगंध से भीन।
10
फिरेंगे पशु जोड़े ले संग,
संग अज-शावक, बाल-कुरंग,
फड़कते हैं जिनके प्रत्यंग,
पर्वत की चट्टानों पर कूदेंगे भरे उमंग।
11
पक्षियों के सुन राग-कलाप—
प्राकृतिक नाद, ग्राम सुर, ताल,
शुष्क पड़ जाएँगे तत्काल,
गंधर्वों के वाद्य-यंत्र किन्नर के मधुर अलाप।
12
इन्द्र अपना इन्द्रासन त्याग,
अखाड़े अपने करके बंद,
परम उत्सुक-मन दौड़ अमंद,
खोलेगा सुनने को नंदन-द्वार भूमि का राग !
13
करेगी मत्त मयूरी नृत्य
अन्य विहगों का सुनकर गान,
देख यह सुरपति लेगा मान,
परियों के नर्तन हैं केवल आडंबर के कृत्य !
14
अहे, फिर ‘कुऊ’ पूर्ण-आवेश !
सुनाकर तू ऋतुपति-संदेश,
लगी दिखलाने उसका वेश,
क्षणिक कल्पने मुझे घमाए तूने कितने देश !
15
कोकिले, पर यह तेरा राग
हमारे नग्न-बुभुक्षित देश
के लिए लाया क्या संदेश ?
साथ प्रकृति के बदलेगा इस दीन देश का भाग ?
(१)
ऐ छोटे विहग सुकुमार !
तेरे कोमल चंचु अधर से
निकल रहे स्नेहाप्लुत स्वर से
लगता, कोई करे किसी को निर्भय चुम्बन प्यार ।
(२)
किसको करते चुम्बन प्यार ?
क्या मानव आंखों से देखी
गई ना बुद्धि-चक्षु अवरेखी
उसको ऊषा काल बहे जो शीतल मन्द बयार ?
(३)
या सुमनों में शिशु कुमार,
जो सुगंध का अब तक सोया,
रजनी के स्वप्नों में खोया,
उसे जगाते धीमे धीमे कर के चुम्बन-प्यार ?
(४)
या तुम शशि किरणों के तार
से जो चुम्बन कर
और सितारों का प्रकाश वर
चूमचूम सस्नेह विदा करते हो, अन्तिम बार ?
(५)
या तुम बाल सूर्य के हाथ,
स्वर्ण रंग में गए रंगाए,
गए तुम्हारी ओर बढ़ाए,
करते हो आभूषित अपने रजत-चुम्बनों साथ ?
(६)
या तुम उस चुम्बन का, तात !
पाठ याद करते उठ भोर,
जिसे लिटा अञ्चल पर छोर
अपने तुमको, मातृ विहगिनि ने सिखलाया रात !
(७)
या तुम वह चुम्बन प्रति भोर
उठ कर याद किया करते हो,
(मुझे बताते क्यों डरते हो?)
जिससे तुम्हें किसी ने भेजा जीवन के इस ओर ?
(८)
तब की तो है मुझे न याद,
पर अतीत जीवन के चुम्बन
कितने चमका करें हृद्गगन !
जिनकी मूकस्मृति मेरे मन भरती मधुर विषाद!
(९)
यदि न जगत के धंधे फन्द
होते, मानस-गगन घूमता,
प्रति चुम्बन को पुन: चूमता,
सदा बना मैं तुमसा रहता एक विहंग स्वच्छन्द !
( १ )
"पड़ी दुखों की तुझ पर मार !
दुखों में सुख भरा जान तू,
रो रो कर मुख न कर म्लान तू,
हँस, हँस, हलका हो जाएगा तेरे दुख का भार ।
( २ )
निज बल पर जिनको अभिमान
संकट में साहस दिखलाते,
दुखों को हैं दूर हटाते
दुख पड़ने पर जो हँसते हैं वही वीर बलवान" ।
( ३ )
"मिले मुझे दुख लाखों बार,
पर, दुख में सुख सार समाया-
व्यंग, समझ मैं कभी न पाया ।
सुख में हंसूं, दुखों में रोऊँ-सीधा सा व्यवहार ।
( ४ )
कोमल से कोमल भी शूल
जब जब है तन मेरे गड़ता,
बच्चों सा मैं हूं रो पड़ता,
कांटों को मैं कभी न अब तक समझ सका हूँ फूल ।
( ५ )
एक नियम जीवन में पाल
रहा सदा से हूँ मैं अविचल,
कोई कहे बली या निर्बल,
उन्हें चुभा रहने देता हूँ, देता नहीं निकाल !"
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)