Sarveshvar Dayal Saxena
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे,पर जब उन्होंने दिनमान का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया। सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता । सर्वेश्वर की यह अग्रगामी सोच उन्हें एक बाल पत्रिका के सम्पादक के नाते प्रतिष्ठित और सम्मानित करती है ।
सन १९६४ में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' के आग्रह पर वे पद से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए और दिनमान से जुड़ गए। १९८२ में प्रमुख बाल पत्रिका पराग के सम्पादक बने। नवंबर १९८२ में पराग का संपादन संभालने के बाद वे मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
हैं सभी माहिर उगाने
में हथेली पर फसल
औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
पेड़ हो या आदमी
कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
प्रश्न जितने बढ़ रहे
घट रहे उतने जवाब
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
खूँटियों पर ही टँगा
रह जाएगा क्या आदमी ?
सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
कुछ धुआँ
कुछ लपटें
कुछ कोयले
कुछ राख छोड़ता
चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ,
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
हरे-भरे जंगल की
जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था
चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं
धामिन मुझ से लिपटी रहती थी
और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था.
जँगल की याद
अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है
जो मुझ पर चली थीं
उन आरों की जिन्होंने
मेरे टुकड़े-टुकड़े किये थे
मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी !
चूल्हे में
लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ
बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है
उसकी खुदबुद झूठी है
या उससे किसी का पेट भरेगा
आत्मा तृप्त होगी,
बिना यह जाने
कि जो चेहरे मेरे सामने हैं
वे मेरी आँच से
तमतमा रहे हैं
या गुस्से से,
वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे
या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे.
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!
एक-एक चिनगारी
झरती पत्तियाँ हैं
जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ
इस धरती को
जिसमें मेरी जड़ें थीं!
मेरे पिता ने
मुझे एक नोटबुक दी
जिसके पचास पेज
मैं भर चुका हूँ ।
जितना लिखा था मैंने
उससे अधिक काटा है
कुछ पृष्ठ आधे कोरे छूट गए हैं
कुछ पर थोड़ी स्याही गिरी है
हाशिये पर कहीं
सूरतें बन गईं हैं
आदमी और जानवरों की एक साथ
कहीं धब्बे हैं गन्दे हाथों के
कहीं किसी एक शब्द पर
इतनी बार स्याही फिरी है
कि वह सलीब जैसा हो गया है ।
इस तरह
मैं पचास पेज भर चुका हूँ ।
इसमें मेरा कसूर नहीं है
मैंने हमेशा कोशिश की
कि हाथ काँपे नहीं
इबारत साफ़-सुथरी हो
कुछ लिखकर काटना न पड़े
लेकिन अशक्त बीमार क्षणों में
सफेद पृष्ठ काला दीखने लगा है
और शब्द सतरों से लुढ़क गए
कुछ देर के लिए जैसे
यात्रा रुक गई ।
अभी आगे पृष्ठ ख़ाली हैं
निचाट मैदान
या काले जंगल की तरह ।
बरफ़ गिर रही है ।
मुझे सतरों पर से उसे हटा-हटाकर
शब्दों का यह ठेला खींचना है
जिसमें वह सब है
जिसे मैं तुममे से हर एक को
देना चाहता हूँ
पर तुम्हारी बस्ती तक पहुँचू तो ।
मजबूत है सीवन इस नोटबुक की
पसीने या आँसुओं से
कुछ नहीं बिगड़ा !
यदि शब्दों की तरह कभी
यह हाथ भी लुढ़क गया
तो इस वीराने में
तुम इसके जिल्द की
टिमटिमाती रोशनी टटोलते
ठेले तक आना
और यह नोटबुक ले जाना
जो मेरे बाप ने मुझे दी थी
और जिसके पचास पेज
मैं भर चुका हूँ ।
लेकिन प्रार्थना है
अपने झबरे जंगली कुत्ते मत लाना
जो वह सूँघेगे
जो उन्हें सिखाया गया हो,
वह नहीं
जो है ।
15.09.1977
(अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर)
उम्र ज्यों—ज्यों बढ़ती है
डगर उतरती नहीं
पहाड़ी पर चढ़ती है.
लड़ाई के नये—नये मोर्चे खुलते हैं
यद्यपि हम अशक्त होते जाते हैं घुलते हैं.
अपना ही तन आखिर धोखा देने लगता है
बेचारा मन कटे हाथ —पाँव लिये जगता है.
कुछ न कर पाने का गम साथ रहता है
गिरि शिखर यात्रा की कथा कानों में कहता है.
कैसे बजता है कटा घायल बाँस बाँसुरी से पूछो—
फूँक जिसकी भी हो, मन उमहता, सहता, दहता है.
कहीं है कोई चरवाहा, मुझे, गह ले.
मेरी न सही मेरे द्वारा अपनी बात कह ले.
बस अब इतने के लिए ही जीता हूँ
भरा—पूरा हूँ मैं इसके लिए नहीं रीता हूँ.
तुमने जो स्वेटर
मुझे बुनकर दिया है
उसमें कितने घर हैं
यह मैं नहीं जानता,
न ही यह
कि हर घर में तुम कितनी
और किस तरह बैठी हो,
रोशनी आने
और धुआँ निकलने के रास्ते
तुमने छोड़े हैं या नहीं,
सिर्फ़ यह जानता हूँ
कि मेरी एक धड़कन है
और उसके ऊपर चन्द पसलियाँ हैं
और उनसे चिपके
घर ही घर हैं
तुम्हारे रचे घर
मेरे न हो कर भी मेरे लिए.
अब इसे पहनकर
बाहर की बर्फ़ में
मैं निकल जाऊँगा.
गुर्राती कटखनी हवाओं को
मेरी पसलियों तक आने से
रोकने के लिए
तुम्हारे ये घर
कितनी किले बन्दी कर सकेंगे
यह मैं नही जानता,
इतना ज़रूर जानता हूँ
कि उनके नीचे बेचैन
मेरी धड़कनों के साथ
उनका सीधा टकराव शुरू हो गया है.
मानता हूँ
जहाँ पसलियाँ अड़ाऊँगा
वहाँ ये मेरे साथ होंगे
लेकिन जहाँ मात खाऊँगा
वहाँ इन धड़कनों के साथ कौन होगा?
सदियों से
हर एक
एक दूसरे के लिए
ऐसे ही घर रचता रहा है
जो पसलियों के नीचे के लिए नहीं होते !
इससे अच्छा था
तुम प्यार भरी दृष्टि
मशाल की तरह
इन धड़कनों के पास गड़ा देतीं
कम —से—कम उनसे
मैं शत्रुओं का सही— सही
चेहरा तो पहचान लेता
गुर्राती हवाओं के दाँत
कितने नुकीले हैं जान लेता .
अब तो जब मैं
तूफ़ानों से लड़ता— जूझता
औंधे मुँह गिर पड़ूँगा
तो आँखों की बुझती रोशनी में
तुम्हारी सिलाइयाँ
नंगे पेड़ों—सी दीखेंगी
जिन पर न कोई पत्ता होगा न पक्षी
जो धीरे—धीरे बर्फ़ से इस कदर सफ़ेद हो जायेंगी
जैसे लाश गाड़ी में शव ले जाने वाले.
इसके बाद
तूफ़ान खत्म हो जाने पर
शायद तुम मेरी खोज में आओ
और मेरी लाश को
पसलियों पर चिपके अपने घरों के सहारे
पहचान लो
और खुश होओ कि तुमने
मेरी पहचान बनाने में
मदद की है
और दूसरा स्वेटर बुनने लगो.