Mahadevi verma
जिस दिन नीरव तारों से,
बोलीं किरणों की अलकें,
"सो जाओ अलसायी हैं
सुकुमार तुम्हारी पलकें !"
जब इन फूलों पर मधु की
पहली बूंदें बिखरी थीं,
आँखें पंकज की देखीं
रवि ने मनुहार भरी सीं ।
दीपकमय कर डाला जब
जलकर पतंग ने जीवन,
सीखा बालक मेघों ने
नभ के आँगन में रोदन;
उजियारी अवगुण्ठन में
विधु ने रजनी को देखा,
तब से मैं ढूँढ रही हूं
उनके चरणों की रेखा ।
मैं फूलों में रोती वे
बालारुण में मुस्काते,
मैं पथ में बिछ जाती हूँ
वे सौरभ में उड़ जाते !
वे कहते हैं उनको मैं
अपनी पुतली में देखूँ,
यह कौन बता जाएगा
किस में पुतली को देखूँ ?
मेरी पलकों पर रातें
बरसाकर मोती सारे,
कहतीं "क्या देख रहे हैं
अविराम तुम्हारे तारे ?"
तुमने इन पर अंजन से
बुन बुन कर चादर तानी,
इन पर प्रभात ने फेरा
आकर सोने का पानी !
इन पर सौरभ की सांसें
लुट लुट जातीं दीवानी,
यह पानी में बैठी हैं
बन स्वप्न-लोक की रानी !
कितनी बीती पतझारें
कितने मधु के दिन आए,
मेरी मधुमय पीड़ा को
कोयी पर ढूँढ न पाए !
झिप झिप आँखें कहती हैं
'यह कैसी है अनहोनी ?
हम और नहीं खेलेंगी
उनसे यह आँखमिचौनी ।'
अपने जर्जर अंचल में
भरकर सपनों की माया,
इन थके हुए प्राणों पर
छायी विस्मृति की छाया !
मेरे जीवन की जागृति !
देखो फिर भूल न जाना,
जो वे सपना बन आवें
तुम चिरनिद्रा बन जाना !
इस एक बूँद आँसू में
चाहे साम्राज्य बहा दो
वरदानों की वर्षा से
यह सूनापन बिखरा दो
इच्छाओं की कम्पन से
सोता एकान्त जगा दो,
आशा की मुस्कराहट पर
मेरा नैराश्य लुटा दो ।
चाहे जर्जर तारों में
अपना मानस उलझा दो,
इन पलकों के प्यालो में
सुख का आसव छलका दो
मेरे बिखरे प्राणों में
सारी करुणा ढुलका दो,
मेरी छोटी सीमा में
अपना अस्तित्व मिटा दो !
पर शेष नहीं होगी यह
मेरे प्राणों की क्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूँढा
तुम में ढूँढूँगी पीड़ा !
रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता;
इस निदाघ के मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता।
उसमें मर्म छिपा जीवन का,
एक तार अगणित कम्पन का,
एक सूत्र सबके बन्धन का,
संसृति के सूने पृष्ठों में करुणकाव्य वह लिख जाता।
वह उर में आता बन पाहुन,
कहता मन से, अब न कृपण बन,
मानस की निधियां लेता गिन,
दृग-द्वारों को खोल विश्वभिक्षुक पर, हँस बरसा आता।
यह जग है विस्मय से निर्मित,
मूक पथिक आते जाते नित,
नहीं प्राण प्राणों से परिचित,
यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता।
मृगमरीचिका के चिर पथ पर,
सुख आता प्यासों के पग धर,
रुद्ध हृदय के पट लेता कर,
गर्वित कहता ’मैं मधु हूँ मुझसे क्या पतझर का नाता’।
दुख के पद छू बहते झर झर,
कण कण से आँसू के निर्झर,
हो उठता जीवन मृदु उर्वर,
लघु मानस में वह असीम जग को आमन्त्रित कर लाता।
विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात!
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास;
अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात!
जीवन विरह का जलजात!
आँसुओं का कोष उर, दृगु अश्रु की टकसाल;
तरल जल-कण से बने घन सा क्षणिक् मृदु गात!
जीवन विरह का जलजात!
अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास!
अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात!
जीवन विरह का जलजात!
काल इसको दे गया पल-आँसुओं का हार;
पूछता इसकी कथा निश्वास ही में वात!
जीवन विरह का जलजात!
जो तुम्हारा हो सके लीलाकमल यह आज,
खिल उठे निरुपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात!
जीवन विरह का जलजात!
मुस्काता संकेत-भरा नभ
अलि क्या प्रिय आनेवाले हैं ?
विद्युत के चल स्वर्णपाश में बँध हँस देता रोता जलधर ;
अपने मृदु मानस की ज्वाला गीतों से नहलाता सागर ;
दिन निशि को, देती निशि दिन को
कनक-रजत के मधु-प्याले हैं !
अलि क्या प्रिय आनेवाले हैं ?
मोती बिखरातीं नूपुर के छिप तारक-परियाँ नर्तन कर ;
हिमकण पर आता जाता, मलयानिल परिमल से अंजलि भर ;
भ्रान्त पथिक से फिर-फिर आते
विस्मित पल क्षण मतवाले हैं !
अलि क्या प्रिय आनेवाले हैं ?
सघन वेदना के तम में, सुधि जाती सुख-सोने के कण भर ;
सुरधनु नव रचतीं निश्वासें, स्मित का इन भीगे अधरों पर ;
आज आँसुओं के कोषों पर,
स्वप्न बने पहरे वाले हैं !
अलि क्या प्रिय आनेवाले हैं ?
नयन श्रवणमय श्रवण नयनमय आज हो रही कैसी उलझन !
रोम रोम में होता री सखी एक नया उर का-सा स्पन्दन !
पुलकों से भर फूल बन गये
जितने प्राणों के छाले हैं !
अलि क्या प्रिय आनेवाले हैं ?
प्राणपिक प्रिय-नाम रे कह !
मैं मिटी निस्सीम प्रिय में,
वह गया बँध लघु ह्रदय में
अब विरह की रात को तू
चिर मिलन की प्रात रे कह !
दुख-अतिथि का धो चरणतल,
विश्व रसमय कर रहा जल ;
यह नहीं क्रन्दन हठीले !
सजल पावसमास रे कह !
ले गया जिसको लुभा दिन,
लौटती वह स्वप्न बन बन,
है न मेरी नींद, जागृति
का इसे उत्पात रे कह !
एक प्रिय-दृग-श्यामला सा,
दूसरा स्मित की विभा-सा,
यह नहीं निशिदिन इन्हें
प्रिय का मधुर उपहार रे कह !
श्वास से स्पन्दन रहे झर,
लोचनों से रिस रहा उर ;
दान क्या प्रिय ने दिया
निर्वाण का वरदान रे कह !
चल क्षणों का खनिक-संचय,
बालुका से बिन्दु-परिचय,
कह न जीवन तू इसे
प्रिय का निठुर उपहार रे कह
मैं सजग चिर साधना ले!
सजग प्रहरी से निरन्तर,
जागते अलि रोम निर्भर;
निमिष के बुदबुद् मिटाकर,
एक रस है समय-सागर!
हो गई आराध्यमय मैं विरह की आराधना ले!
मूँद पलकों में अचंचल;
नयन का जादूभरा तिल,
दे रही हूँ अलख अविकल-
को सजीला रूप तिल तिल!
आज वर दो मुक्ति आवे बन्धनों की कामना ले!
विरह का युग आज दीखा,
मिलन के लघु पल सरीखा;
दु:ख सुख में कौन तीखा,
मैं न जानी औ न सीखा!
मधुर मुझको हो गए सब प्रिय की भावना ले!
शलभ मैं शापमय वर हूँ!
किसी का दीप निष्ठुर हूँ!
ताज है जलती शिखा
चिनगारियाँ श्रृंगारमाला;
ज्वाल अक्षय कोष सी
अंगार मेरी रंगशाला;
नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ!
नयन में रह किन्तु जलती
पुतलियाँ आगार होंगी;
प्राण मैं कैसे बसाऊँ
कठिन अग्नि-समाधि होगी;
फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मन्दिर हूँ!
हो रहे झर कर दृगों से
अग्नि-कण भी क्षार शीतल;
पिघलते उर से निकल
निश्वास बनते धूम श्यामल;
एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ!
कौन आया था न जाना
स्वप्न में मुझको जगाने;
याद में उन अँगुलियों के
है मुझे पर युग बिताने;
रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ!
शून्य मेरा जन्म था
अवसान है मूझको सबेरा;
प्राण आकुल के लिए
संगी मिला केवल अँधेरा;
मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ!