राम, तुम्हें यह देश न भूले,
धाम-धरा-धन जाय भले ही,
यह अपना उद्देश्य न भूले।
निज भाषा, निज भाव न भूले,
निज भूषा, निज वेश न भूले।
प्रभो, तुम्हें भी सिन्धु पार से
सीता का सन्देश न भूले।
आवें ईश ! ऐसे योग—
हिल मिल तुम्हारी ओर होवें अग्रसर हम लोग।।
जिन दिव्य भावों का करें अनुभव तथा उपयोग—
उनको स्वभाषा में भरें हम सब करें जो भोग।।
विज्ञान के हित, ज्ञान के हित सब करें उद्योग।
स्वच्छन्द परमानन्द पावें मेट कर भव-रोग।।
दयानिधे, निज दया दिखा कर
एक वार फिर हमें जगा दो।
धर्म्म-नीति की रीति सिखा कर
प्रीति-दान कर भीर्ति भगा दो।।
समय-सिन्धु चंचल है भारी,
कर्णधार, हो कृपा तुम्हारी;
भार-भरी है तरी हमारी,
एक वार ही न डगमगा दो।।
ह्रास मिटे अब, फिर विकास हो;
सभी गुणों का स्थिर निवास हो;
रुचिर शान्ति का चिर विलास हो;
विश्व-प्रेम में हमें पगा दो।।
राम-रूप का शील-सत्व दो,
सेतुबन्ध-रचना-महत्त्व दो;
श्याम-रूप का रास-तत्व दो,
कुरुक्षेत्र का सु-गीत गा दो।।
ज्ञान-मार्ग की बात बता दो;
कर्म-मार्ग का पूर्ण पता दो;
काल-चक्र की चाल जता दो;
भक्ति-मार्ग में हमें लगा दो।।
फूट फैल कर फूट रही है;
उद्यमता सिर कूट रही है;
और अलसता लूट रही है;
न आप से ही हमें ठगा दो।।
रहे न यह जड़ता जीवन में;
जागरुकता हो जन जन में;
तन में बल, साहस हो मन में;
नई ज्योतियाँ सु जगमगा दो।।
भावुक ! भरा भाव-रत्नों से,
भाषा के भाण्डार भरो ।।
देर करो न देशवासी गण,
अपनी उन्नति आप करो ।।
एक हदय से, एक ईश का,
धरो, विविध विध ध्यान धरो ।।
विश्व-प्रेम-रत, रोम रोम से,
गद्गद निर्झर-सदृश झरो ।।
मन से; वाणी से, कर्मों से,
आधि, व्याधि, उपाधि हरो ।।
अक्षय आत्मा के अधिकारी,
किसी विघ्न-भय से न डरो ।।
विचरो अपने पैरों के बल,
भुजबल से भव-सिन्धु तरो ।।
जियो कर्म के लिए जगत में-
और धर्म के लिए मरो ।।
नूतन वर्ष !
आते हो? स्वागत, आओ;
नूतन हर्ष,
नूतन आशाएं लाओ ।
हमें खिलाकर खिल जाओ ।।
तुम गत वर्ष !
जाते हो? रोकें कैसे?
हा हतवर्स !
जाओ, नैश स्वप्न जैसे ।
निश्वासों में मिल जाओ ।।
जाने को नव वर्ष चला है,
और न आने को गत वर्ष ।
भुक्ति-मुक्ति के लिए भला है,
आवागमनशील संघर्ष ।।
6. स्वराज्य कविता Swarajya Maithilisharan Gupt Kavita
जो पर-पदार्थ के इच्छुक हैं,
वे चोर नहीं तो भिक्षुक हैं ।
हम को तो 'स्व' पद-विहीन कहीं
है स्वयं राज्य भी इष्ट नहीं!!
करो तुम मिलजुल कर व्यापार ।
देखो, होता है कि नहीं फिर भारत का उद्धार ।।
बहुत दिनों तक देख चुके हो दासपने का द्वार ।
अब अपना अवलम्ब आप लो, समझो उसका मार ।।
या दारुण दारिद्रय दशा क्यों, क्यों यह हाहाकार?
भिक्षावृति नहीं कर सकती इस विपत्ति से पार ।।
भरते हो तुम अपने धन से औरों के भाण्डार !
ले जाता है लाभ तुम्हारा हँस-हँस कर संसार ।।
भारतजननी के अंचल का अल्प नहीं विस्तार ।
बहती है जब भी उसमें से सरस सुधा की धार ।।
दूध बहुत है, पर हा ! मक्खन कौन करे तैयार ?
मथ लेते हैं उसे विदेशी छाँछ छोड़ कर छार !
अपने में स्वतन्त्र जीवन का कर देखो संचार ।
नहीं रहेगी और हीनता होगा पुन: प्रसार ।।
औरों की उन्नति, निज दुर्गति सोचो वारंवार ।
उद्यम में ही रत्नाकर है खारा पारावार !
8. भजन कविता Bhajan Maithilisharan Gupt Kavita
भजो भारत को तन-मन से।
बनो जड़ हाय ! न चेतन से ।।
करते हो किस इष्ट देव का आँख मूँद का ध्यान?
तीस कोटि लोगों में देखो तीस कोटि भगवान ।
मुक्ति होगी इस साधन से ।
भजो भारत को तन-मन से ।।
जिसके लिए सदैव ईश ने लिये आप अवतार,
ईश-भक्त क्या हो यदि उसका करो न तुम उपकार ।
पूछ लो किसी सुधी जन से ।
भजो भारत को तन-मन से ।।
पद पद पर जो तीर्थ भूमि है, देती है जो अन्न,
जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो करो उसे सम्पन्न ।
नहीं तो क्या होगा धन से?
भजो भारत को तन-मन से ।।
हो जावे अज्ञान-तिमिर का एक बार ही नाश,
और यहाँ घर घर में फिर से फैले वही प्रकाश ।
जियें सब नूतन जीवन से ।
भजो भारत को तन-मन से ।।
Maithilisharan Gupt Kavi