Mahadevi Verma
आज क्यों तेरी वीणा मौन?
शिथिल शिथिल तन थकित हुए कर,
स्पन्दन भी भूला जाता उर,
मधुर कसक सा आज हृदय में
आन समाया कौन?
आज क्यों तेरी वीणा मौन?
झुकती आती पलकें निश्चल,
चित्रित निद्रित से तारक चल;
सोता पारावार दृगों में
भर भर लाया कौन?
आज क्यों तेरी वीणा मौन?
बाहर घन-तम; भीतर दुख-तम,
नभ में विद्युत तुझ में प्रियतम,
जीवन पावस-रात बनाने
सुधि बन छाया कौन?
आज क्यों तेरी वीणा मौन?
आँसू का मोल न लूँगी मैं !
यह क्षण क्या ? द्रुत मेरा स्पंदन ;
यह रज क्या ? नव मेरा मृदु तन ;
यह जग क्या ? लघु मेरा दर्पण ;
प्रिय तुम क्या ? चिर मेरे जीवन ;
मेरे सब सब में प्रिय तुम,
किससे व्यापार करूँगी मैं ?
आँसू का मोल न लूँगी मैं !
निर्जल हो जाने दो बादल ;
मधु से रीते सुमनों के दल ;
करुणा बिन जगती का अंचल ;
मधुर व्यथा बिन जीवन के पल ;
मेरे दृग में अक्षय जल,
रहने दो विश्व भरूँगी मैं !
आँसू का मोल न लूँगी मैं !
मिथ्या, प्रिय मेरा अवगुण्ठन
पाप शाप, मेरा भोलापन !
चरम सत्य, यह सुधि का दंशन,
अंतहीन, मेरा करुणा-कण ;
युग युग के बंधन को प्रिय !
पल में हँस 'मुक्ति' करूँगी मैं !
आँसू का मोल न लूँगी मैं !
जाने किसकी स्मित रूम झूम,
जाती कलियों को चूम चूम !
उनके लघु उर में जग; अलसित,
सौरभ-शिशु चल देता विस्मित;
हौले मृदु पद से डोल डोल,
मृदु पंखुरियों के द्वार खोल !
कुम्हला जाती कलिका अजान,
हमें सुरभित करता विश्व, घूम !
जाने किसकी छवि रूम झूम,
जाती मेघों को चूम चूम !
वे मंथर जल के बिन्दु चकित,
नभ को तज ढुल पड़ते विचलित !
विद्युत के दीपक ले चंचल,
सागर-सा गर्जन कर निष्फल,
घन थकते उनको खोज खोज,
फिर मिट जाते ज्यों विफल धूम !
जाने किसकी ध्वनि रूम झूम,
जाती अचलों को चूम चूम !
उनके जड़ जीवन में संचित,
सपने बनते निर्झर पुलकित;
प्रस्तर के कण घुल घुल अधीर,
उसमें भरते नव-स्नेह नीर !
वह बह चलता अज्ञात देश,
प्यासों में भरता प्राण, झूम !
जाने किसकी सुधि रूम झूम,
जाती पलकों को चूम चूम !
उर-कोशों के मोती अविदित,
बन पिघल पिघलकर तरल रजत,
भरते आंखों में बार बार,
रोके न आज रुकते अपार;
मिटते ही जाते हैं प्रतिपल,
इन धूलि-कणों के चरण-चूम !
झरते नित लोचन मेरे हों !
जलती जो युग युग से उज्जवल,
आभा से रच रच मुक्ताहल,
वह तारक-माला उनकी,
चल विद्युत के कंकण मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
ले ले तरल रजत औ' कंचन,
निशि-दिन ने लीपा जो आँगन,
वह सुषमामय नभ उनका,
पल पल मिटते नव घन मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
पद्मराग-कलियों से विकसित,
नीलम के अलियों से मुखरित,
चिर सुरभित नंदन उनका,
यह अश्रुभार-नत तृण मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
तम सा नीरव नभ सा विस्तृत,
हास रुदन से दूर अपरिचित;
वह सूनापन हो उनका,
यह सुखदुखमय स्पंदन मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
जिसमें कसक न सुधि का दंशन,
प्रिय में मिट जाने के साधन,
वे निर्वाण-मुक्ति उनके,
जीवन के शत-बंधन मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
बुद्बुद् में आवर्त अपरिमित;
कण में शत जीवन परिवर्तित,
हों चिर सृष्टि-प्रलय उनके,
बनने-मिटने के क्षण मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
सस्मित पुलकित नित परिमलमय,
इंद्रधनुष सा नवरंगोंमय,
अग जग उनका कण कण उनका,
पल भर वे निर्मम मेरे हों !
झरते नित लोचन मेरे हों !
टूट गया वह दर्पण निर्मम !
उसमें हंस दी मेरी छाया,
मुझमें रो दी ममता माया,
अश्रु-हास ने विश्व सजाया,
रहे खेलते आंखमिचौनी
प्रिय ! जिसके परदे में 'मैं' 'तुम' !
टूट गया वह दर्पण निर्मम !
अपने दो आकार बनाने,
दोनों का अभिसार दिखाने,
भूलों का संसार बसाने,
जो झिलमिल झिलमिल सा तुमने
हंस हंस दे डाला था निरुपम !
टूट गया वह दर्पण निर्मम !
कैसा पतझर कैसा सावन,
कैसी मिलन विरह की उलझन,
कैसा पल घड़ियोंमय जीवन,
कैसे निशि-दिन कैसे सुख-दुख
आज विश्व में तुम हो या तम !
टूट गया वह दर्पण निर्मम !
किसमें देख सँवारूं कुंतल,
अंगराग पुलकों का मल मल,
स्वप्नों से आँजूं पलकें चल,
किस पर रीझूं किस से रूठूं,
भर लूं किस छवि से अंतरतम !
टूट गया वह दर्पण निर्मम !
आज कहाँ मेरा अपनापन;
तेरे छिपने का अवगुण्ठन;
मेरा बंधन तेरा साधन,
तुम मुझ में अपना-सुख देखो
मैं तुम में अपना दुख प्रियतम !
टूट गया वह दर्पण निर्मम !
तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संस्कृति
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या?
तेरा मुख सहास अरूणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय,
खेल-खेल, थक-थक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या?
तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या?
चित्रित तू मैं हूँ रेखा क्रम,
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया-छाया में रहस्यमय
प्रेयसी प्रियतम का अभिनय क्या?
तुम सो जाओ मैं गाऊँ !
मुझको सोते युग बीते,
तुमको यों लोरी गाते;
अब आओ मैं पलकों में
स्वप्नों से सेज बिठाऊँ !
प्रिय ! तेरे नभ-मंदिर के
मणि-दीपक बुझ-बुझ जाते;
जिनका कण कण विद्युत है
मैं ऐसे प्रान जलाऊँ !
क्यों जीवन के शूलों में
प्रतिक्षण आते जाते हो ?
ठहरो सुकुमार ! गला कर
मोती पथ में फैलाऊँ !
पथ की रज में है अंकित
तेरे पदचिह्न अपरिचित;
मैं क्यों न इसे अंजन कर
आँखों में आज बसाऊँ !
जब सौरभ फैलाता उर
तब स्मृति जलती है तेरी;
लोचन कर पानी पानी
मैं क्यों न उसे सिंचवाऊँ ।
इन भूलों में मिल जाती,
कलियां तेरी माला की;
मैं क्यों न इन्ही काँटों का
संचय जग को दे जाऊँ ?
अपनी असीमता देखो,
लघु दर्पण में पल भर तुम;
मैं क्यों न यहाँ क्षण क्षण को
धो धो कर मुकुर बनाऊँ ?
हंसने में छुप जाते तुम,
रोने में वह सुधि आती;
मैं क्यों न जगा अणु अणु को
हंसना रोना सिखलाऊँ !
दीपक में पतंग जलता क्यों?
प्रिय की आभा में जीता फिर
दूरी का अभिनय करता क्यों
पागल रे पतंग जलता क्यों
उजियाला जिसका दीपक है
मुझमें भी है वह चिन्गारी
अपनी ज्वाला देख अन्य की
ज्वाला पर इतनी ममता क्यों
गिरता कब दीपक दीपक में
तारक में तारक कब घुलता
तेरा ही उन्माद शिखा में
जलता है फिर आकुलता क्यों
पाता जड़ जीवन जीवन से
तम दिन में मिल दिन हो जाता
पर जीवन के आभा के कण
एक सदा भ्रम मे फिरता क्यों
जो तू जलने को पागल हो
आँसू का जल स्नेह बनेगा
धूमहीन निस्पंद जगत में
जल-बुझ, यह क्रंदन करता क्यों
दीपक में पतंग जलता क्यों?
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।
कम्पित कम्पित,
पुलकित पुलकित,
परछाईं मेरी से चित्रित,
रहने दो रज का मंजु मुकुर,
इस बिन श्रृंगार-सदन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।
सपने औ' स्मित,
जिसमें अंकित,
सुख दुख के डोरों से निर्मित;
अपनेपन की अवगुणठन बिन
मेरा अपलक आनन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।
जिनका चुम्बन
चौंकाता मन,
बेसुधपन में भरता जीवन,
भूलों के सूलों बिन नूतन,
उर का कुसुमित उपवन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।
दृग-पुलिनों पर
हिम से मृदुतर,
करूणा की लहरों में बह कर,
जो आ जाते मोती, उन बिन,
नवनिधियोंमय जीवन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।
जिसका रोदन,
जिसकी किलकन,
मुखरित कर देते सूनापन,
इन मिलन-विरह-शिशुओं के बिन
विस्तृत जग का आँगन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।