Gulzar
गुलज़ार का पूरा नाम समपूरन सिंह कालरा है। आप "त्रिवेणी" छंद के सृजक और हिन्दी फ़िल्म उद्योग के जाने-माने गीतकार हैं।
गुलज़ार आज यह नाम सफलता की उस बलंदी के लिए जाना जाता है जहाँ तक जाने के लिए हर कोई बेताब खड़ा है। गुल्ज़ार उन चंद नामी शायरों में से एक हैं जिन्होंने अपने गीतों, नज़्मों और कहानियों के लिए ख़्याति पायी। कुछ आगे ज़िक्र करूँ इससे पहले बताना चाहूँगा आज लगभग हर हिन्दी स्कूल में करायी जाने वाली प्रार्थना हम को मन की शक्ति देना दाता, मन विजय करें गुलज़ार का लिखा एक गीत है जो फ़िल्म गुड्डी से है। बच्चों के लिए लिखी गयी रचनाएँ जितनी गुलज़ार की सबकी ज़बाँ पर चढ़ीं शायद ही और कोई इतनी सरलता से हर नन्हें दिल में अपनी जगह बना पाया हो। अगर हम बात करें गुल्ज़ार द्वारा लिखे बाल-गीतों की तो सबसे पहले जंगल बुक का टायटल गीत जंगल-जंगल बात चली पता चला है, चड्ढी पहन के फूल खिला है फूल खिला है याद आता है, और भी हैं जैसे एलिस इन वन्डर लैण्ड का टिप-टिप टोपी-टोपी, काबुली वाला का आया झुन्नू वाला बाबा और अन्य कई फ़िल्मी गीत जैसे फ़िल्म मकड़ी का ए पापड़वाले पंगा न ले।
कुछ फ़िल्मों के नाम हैं जो सदा याद की जाती है और याद रखी जायेंगी, मेरे अपने, अचानक, परिचय, आँधी, मौसम, ख़ुशबू, मीरा, किनारा, नमकीन, लेकिन, लिबास, माचिस, इत्यादि।
बोस्की ब्याहने का समय अब करीब आने लगा है
जिस्म से छूट रहा है कुछ कुछ
रूह में डूब रहा है कुछ कुछ
कुछ उदासी है, सुकूं भी
सुबह का वक्त है पौ फटने का,
या झुटपुटा शाम का है मालूम नहीं
यूँ भी लगता है कि जो मोड़ भी अब आएगा
वो किसी और तरफ़ मुड़ के चली जाएगी,
उगते हुए सूरज की तरफ़
और मैं सीधा ही कुछ दूर अकेला जा कर
शाम के दूसरे सूरज में समा जाऊँगा !
नाराज़ है मुझसे बोस्की शायद
जिस्म का एक अंग चुप चुप सा है
सूजे से लगते है पांव
सोच में एक भंवर की आँख है
घूम घूम कर देख रही है
बोस्की,सूरज का टुकड़ा है
मेरे खून में रात और दिन घुलता रहता है
वह क्या जाने,जब वो रूठे
मेरी रगों में खून की गर्दिश मद्धम पड़ने लगती है
बस चन्द करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से
जब कोई चाँद न डूबेगा
और कोई जमीं न उभरेगी
तब ठंढा बुझा इक कोयला सा
टुकड़ा ये जमीं का घूमेगा
भटका भटका
मद्धम खकिसत्री रोशनी में!
मैं सोचता हूँ उस वक्त अगर
कागज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते
सूरज में गिरे
तो सूरज फिर से जलने लगे!!
अपने"सन्तूरी"सितारे से अगर बात करूं
तह-ब-तह छील के आफ़ाक़ कि पर्तें
कैसे पहुंचेगी मेरी बात ये अफ़लाक के उस पर भला?
कम से कम "नूर की रफ़्तार"से भी जाए अगर
एक सौ सदियाँ तो ख़ामोश ख़लाओं से
गुजरने में लगेंगी
कोई माद्दा है मेरी बात में तो
"नून"के नुक्ते सी रह जाएगी "ब्लैक होल"गुजर के
क्या वो समझेगा?
मैं समझाऊंगा क्या?
बहुत बौना है ये सूरज ....!
हमारी कहकशाँ की इस नवाही सी 'गैलेक्सी'में
बहुत बौना सा ये सूरज जो रौशन है..।
ये मेरी कुल हदों तक रौशनी पहुँचा नहीं पाता
मैं मार्ज़ और जुपिटर से जब गुजरता हूँ
भँवर से,ब्लैक होलों के
मुझे मिलते हैं रस्ते में
सियह गिर्दाब चकराते ही रहते हैं
मसल के जुस्तजु के नंगे सहराओं में वापस
फेंक देते हैं
जमीं से इस तरह बाँधा गया हूँ मैं
गले से ग्रैविटी का दायमी पट्टा नहीं खुलता!
रात में जब भी मेरी आँख खुले
नंगे पाँव ही निकल जाता हूँ
कहकशाँ छू के निकलती है जो इक पगडंडी
अपने पिछवाड़े के "सन्तुरी" सितारे की तरफ़
दूधिया तारों पे पाँव रखता
चलता रहता हूँ यही सोच के मैं
कोई सय्यारा अगर जागता मिल जाए कहीं
इक पड़ोसी की तरह पास बुला ले शायद
और कहे
आज की रात यहीं रह जाओ
तुम जमीं पर हो अकेले
मैं यहाँ तन्हा हूँ
बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,
दुआ में जब,
जम्हाई ले रहा था मैं--
दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं!
मैं जब से देख सुन रहा हूँ,
तब से याद है मुझे,
खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,
खुदा के हाथ में है सब बुरा भला--
दुआ करो!
अजीब सा अमल है ये
ये एक फ़र्जी गुफ़्तगू,
और एकतरफ़ा--एक ऐसे शख्स से,
ख़याल जिसकी शक्ल है
ख़याल ही सबूत है
मैं दीवार की इस जानिब हूँ ।
इस जानिब तो धूप भी है हरियाली भी!
ओस भी गिरती है पत्तों पर,
आ जाये तो आलसी कोहरा,
शाख पे बैठा घंटों ऊँघता रहता है।
बारिश लम्बी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,
आँखों से गुम हो जाती है,
जो मौसम आता है,सारे रस देता है!
लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,
क्यों ऐसा सन्नाटा है
कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन--
दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है
पिछली बार मिला था जब मैं
एक भयानक जंग में कुछ मशरूफ़ थे तुम
नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे
इससे पहले अन्तुला में
भूख से मरते बच्चों की लाश दफ्नाते देखा था
और एक बार ...एक और मुल्क में जलजला देखा
कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब
लौट रहे थे
तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने
आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते
कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश
तोड़ ताड़ के गेलेक्सीज के महवर तुम
जब भी जमीं पर आते हो
भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो
बड़े 'इरेटिक' से लगते हो
काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने--
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग जला कर,
अपना रास्ता खोल लिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया --
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई
मैंने जिस्म का खोल उतर के सौंप दिया --और
रूह बचा ली
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी
मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ घास की कलगियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख्तों की,छुपता हुआ
जिनके पीछे से
निकला चला जा रहा था वह सूरज
तआकुब में था उसके मैं
गिरफ्तार करने गया था उसे
जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था
वक्त की आँख पे पट्टी बांध के।
चोर सिपाही खेल रहे थे--
रात और दिन और चाँद और मैं--
जाने कैसे इस गर्दिश में अटका पाँव,
दूर गिरा जा कर मैं जैसे,
रौशनियों के धक्के से
परछाईं जमीं पर गिरती है!
धेय्या छोने से पहले ही--
वक्त ने चोर कहा और आँखे खोल के
मुझको पकड़ लिया--
तुम्हारी फुर्कत में जो गुजरता है,
और फिर भी नहीं गुजरता,
मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ , वक्त और क्या है?
कि वक्त बांगे जरस नहीं जो बता रहा है
कि दो बजे हैं,
कलाई पर जिस अकाब को बांध कर
समझता हूँ वक्त है,
वह वहाँ नहीँ है!
वह उड़ चुका
जैसे रंग उड़ता है मेरे चेहरे का, हर तहय्युर पे,
और दिखता नहीं किसी को,
वह उड़ रहा है कि जैसे इस बेकराँ समंदर से
भाप उड़ती है
और दिखती नहीं कहीं भी,
कदीम वजनी इमारतों में,
कुछ ऐसे रखा है, जैसे कागज पे बट्टा रख दें,
दबा दें, तारीख उड़ ना जाये,
मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ, वक्त और क्या है?
कभी कभी वक्त यूँ भी लगता है मुझको
जैसे, गुलाम है!
आफ़ताब का एक दहकता गोला उठा के
हर रोज पीठ पर वह, फलक पर चढ़ता है चप्पा
चप्पा कदम जमाकर,
वह पूरा कोहसार पार कर के,
उतारता है, उफुक कि दहलीज़ पर दहकता
हुआ सा पत्थर,
टिका के पानी की पतली सुतली पे, लौट
जाता है अगले दिन का उठाने गोला ,
और उसके जाते ही
धीरे धीरे वह पूरा गोला निगल के बाहर निकलती है
रात, अपनी पीली सी जीभ खोले,
गुलाम है वक्त गर्दिशों का,
कि जैसे उसका गुलाम मैं हूँ!!
उफुक फलांग के उमरा हुजूम लोगों का
कोई मीनारे से उतरा, कोई मुंडेरों से
किसी ने सीढियां लपकीं, हटाई दीवारें--
कोई अजाँ से उठा है, कोई जरस सुन कर!
गुस्सीली आँखों में फुंकारते हवाले लिये,
गली के मोड़ पे आकर हुए हैं जमा सभी!
हर इक के हाथ में पत्थर हैं कुछ अकीदों के
खुदा कि जात को संगसार करने आये हैं!!
मौजजा कोई भी उस शब ना हुआ--
जितने भी लोग थे उस रोज इबादतगाह में,
सब के होठों पर दुआ थी,
और आँखों में चरागाँ था यकीं का
ये खुदा का घर है,
जलजले तोड़ नहीं सकते इसे, आग जला सकती नहीं!
सैकड़ों मौजजों कि सब ने हिकायात सुनी थीं
सैकड़ों नामों से उन सब ने पुकारा उसको ,
गैब से कोई भी आवाज नहीं आई किसी की,
ना खुदा कि -- ना पुलिस कि!!
सब के सब भूने गए आग में, और भस्म हुये ।
मौजजा कोई भी उस शब् ना हुआ!!
मौजजे होते हैं,-- ये बात सुना करते थे!
वक्त आने पे मगर--
आग से फूल उगे, और ना जमीं से कोई दरिया
फूटा
ना समंदर से किसी मौज ने फेंका आँचल,
ना फलक से कोई कश्ती उतरी!
आजमाइश की थी काल रात खुदाओं के लिये
काल मेरे शहर में घर उनके जलाये सब ने!!
फ़सादात-४
अपनी मर्जी से तो मजहब भी नहीं उसने चुना था,
उसका मज़हब था जो माँ बाप से ही उसने
विरासत में लिया था---
अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है
मुल्क में मर्ज़ी थी उसकी न वतन उसकी रजा से
वो तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यों चुनकर,
फिर्कादाराना फसादात ने कल क़त्ल किया--!!
आग का पेट बड़ा है!
आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिये
खुश्क करारे पत्ते,
आग कर लेती है तिनकों पे गुजारा लेकिन--
आशियानों को निगलती है निवालों की तरह,
आग को सब्ज हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगतीं,
ढूंढती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!
उसको जंगल कि हवा रास बहुत है फिर भी,
अब गरीबों कि कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!
लोगों के हाथों में अब आग नहीं--
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब
शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ,
नाम थे लोगों के जो, क़त्ल हुये।
सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई--
लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे!
और ये बहता हुआ सुर्ख लहू है जो सड़क पर,
ज़बह होती हुई आवाजों की गर्दन से गिरा था
रात जब मुंबई की सड़कों पर
अपने पंजों को पेट में लेकर
काली बिल्ली की तरह सोती है
अपनी पलकें नहीं गिराती कभी,--
साँस की लंबी लंबी बौछारें
उड़ती रहती हैं खुश्क साहिल पर!
अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ,
अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी!
कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!
अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह--
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं--
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!
हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!
एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है
कहने के लिये लब हिलते नहीं,
आँखों से अदा हो जाता है!!
सुना है मिट्टी पानी का अज़ल से एक रिश्ता है,
जड़ें मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है।
तुम्हारी आँख से आँसू का गिरना था कि दिल
में दर्द भर आया,
ज़रा से बीज से कोंपल निकल आयी!!
जड़े मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है!!
शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,
भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा।
बूँदें पत्ता पत्ता कर के,
टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज
आती है!
बारिश के जाने के बाद भी,
देर तलक टपका रहता है!
तुमको छोड़े देर हुई है--
आँसू अब तक टूट रहे हैं
8. बुड्ढा दरिया-१
मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया!
कोई पूछे तुझको क्या लेना, क्या लोग किनारों
पर करते हैं,
तू मत सुन, मत कान लगा उनकी बातों पर!
घाट पे लच्छी को गर झूठ कहा है साले माधव ने,
तुझको क्या लेना लच्छी से? जाये,जा के डूब मरे!
यही तो दुःख है दरिया को!
जन्मी थी तो "आँवल नाल" उसी के हाथ में सौंपी
थी झूलन दाई ने,
उसने ही सागर पहुचाये थे वह "लीडे",
कल जब पेट नजर आयेगा, डूब मरेगी
और वह लाश भी उसको ही गुम करनी होगी!
लाश मिली तो गाँव वाले लच्छी को बदनाम करेंगे!!
मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया!!
बुड्ढा दरिया-२
मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया
दिन दोपहरे, मैंने इसको खर्राटे लेते देखा है
ऐसा चित बहता है दोनों पाँव पसारे
पत्थर फेंकें , टांग से खेंचें, बगले आकर चोंच मारें
टस से मस होता ही नहीं है
चौंक उठता है जब बारिश की बूँदें
आ कर चुभती हैं
धीरे धीरे हांफने लाग जाता है उसके पेट का पानी।
तिल मिल करता, रेत पे दोनों बाहें मारने लगता है
बारिश पतली पतली बूंदों से जब उसके पेट में
गुदगुद करती है!
मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता रहता है
ये बुड्ढा दरिया!!
बुड्ढा दरिया-३
मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया!
पेट का पानी धीरे धीरे सूख रहा है,
दुबला दुबला रहता है अब!
कूद के गिरता था ये जिस पत्थर से पहले,
वह पत्थर अब धीरे से लटका के इस को
अगले पत्थर से कहता है,--
इस बुड़ढे को हाथ पकड़ के, पार करा दे!!
मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता रहता
है ये दरिया!
छोटी छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में--
रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है,
पुल पर चढ के बहने की ख्वाहिश है दिल में!
जाडो में जब कोहरा उसके पूरे मुँह पर आ जाता है,
और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है--
ख्वाहिश है कि एक दफा तो
वह भी उसके साथ उड़े और
जंगल से गायब हो जाये!!
कभी कभी यूँ भी होता है,
पुल से रेल गुजरती है तो बहता दरिया,
पल के पल बस रुक जाता है--
इतनी सी उम्मीद लिये--
शायद फिर से देख सके वह, इक दिन उस
लड़की का चेहरा,
जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना
वर माँगा था--
उस लड़की की सूरत उसने,
अक्स उतारा था जब से, तह में रख ली थी!!
खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़ुक से सूरज,
जैसे कीचड़ में फँसा पहिया धकेला हो किसी ने
चिब्बे टिब्बे से किनारों पे नज़र आते हैं।
रोज़ सा गोल नहीं है!
उधरे-उधरे से उजाले हैं बदन पर
उर चेहरे पे खरोचों के निशाँ हैं!!
रात जब गहरी नींद में थी कल
एक ताज़ा सफ़ेद कैनवस पर,
आतिशी सुर्ख रंगों से,
मैंने रौशन किया था इक सूरज!
सुबह तक जल चुका था वह कैनवस,
राख बिखरी हुई थी कमरे में!!
"जोरहट" में, एक दफ़ा
दूर उफ़ुक के हलके हलके कोहरे में
'हेमन बरुआ' के चाय बागान के पीछे,
चान्द कुछ ऐसे रखा थ,-- --
जैसे चीनी मिट्टी की,चमकीली 'कैटल' राखी हो!!