भादों की कारी अन्ध्यारी निसा झुकि बादर मंद फुही बरसावै .
स्यामा जू आपनी ऊची अटा पै छकी रसरीति मलारहि गावै .
ता समै मोहन के दृग दुरि तें आतुर रूप की भीख यों पावै.
पौन मया करि घूँघट टारै, दया करि दामिनि दीप दिखावै.
चरचा करी कैसे जाय।
बात जानत कछुक हमसों, कहत जिय थहराय॥
कथा अकथ सनेह की, उर नारि आवत और।
बेद रामृती उपनिषद् कों, रही नाहिंन ठौर॥
मनहि में है कहनि ताकी, सुनत स्रोता नैन।
सोब नागर लोग बूझत, कहि न आवत बैन।
हमारै मुरलीवारौ स्याम।बिनु मुरली बनमाल चंद्रिका, नहिं पहचानत नाम॥
गोपरूप बृंदावन-चारी, ब्रज-जन पूरन काम।
याहीसों हित चित्त बढौ नित, दिन-दिन पल-छिन जाम॥
नंदीसुर गोबरधन गोकुल, बरसानो बिस्राम।
'नागरिदास' द्वारका मथुरा, इनसों कैसो काम॥
ताननि की ताननि मही, परयौजुमन धुकि धाहिं।
पैठयो रव गावत स्त्रवनि, मुख तैं निसरत आहि॥
मुख तैं निसरत आहि! साहि नहिं सकत चोट चित।
ज्ञान हरद तैं दरद मिटत नहिं, बिबस लुटत छित॥
रीझ रोग रगमग्यौ पग्यौ, नहिं छूटत प्राननि।
चित चरननि क्यौं छुटैं, प्रेम वारेन की ताननि॥
बोलनि ही औरैं कछू, रसिक सभा की मानि।
मतिवारे समझै नहीं, मतवारे लैं जानि।
मतवारे लैं जानि आन कौं वस्तु न सूझै।
ज्यौ गूंगे को सैन कोउ गूंगो ही बूझै॥
भीजि रहे गुरु कृपा, बचन रस गागरि ढोलनि।
तनक सुनत गरि जात सयानप अलबल बोलनि॥
जहाँ कलह तहँ सुख नहीं,कलह सुखन को सूल.
सबै कलह इक राज में,राज कलह को मूल.
कहा भयो नृप हू भये, ढोवत जग बेगार.
लेत न सुख हरि भक्त को सकल सुखन को सार.
मैं अपने मन मूढ़ तें डरत रहत हौं हाय.
वृंदावन की ओर तें मति कबहूँ फिर जाय.
देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार बिच बहति महा गंभीर धार .
नहिं नाव,नहिं कछु और दाव हे दई !कहा कीजै उपाव.
रहे वार लग्न की लगै लाज गए पारहि पूरै सकल काज.
यह चित्त माहि करिकै विचार परे कूदि कूदि जलमध्य धार.
काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के,
तै ही कहा ? तेरी मूढ़-गूढ़ मति पंग की.
वेद के विवादनि को पावैगो न पार कहूँ,
छांड़ी देहु आस सब दान न्हान गंग की.
और सिद्धि सोधे अब,नागर,न सिद्ध कछू,
मानि लहु मेरी कही वार्त्ता सुढंग की.
जाई ब्रज भोरे !कोरे मन को रंगाई लै रे,
वृन्दावन रेनु रची गौर स्याम रंग की.
जौ मेरे तन होते दोय.
मैं काहू ते कुछ नहिं कहतो,मोते कछु कहतो नहिं कोय.
एक जो तन हरि विमुखन के सँग रहतो देस-विदेस.
विविध भांति के जग सुख दुख जहँ,नहिं भक्ति लवलेस.
एक जौ तन सतसंग रंग रँगि रहतो अति सुख पूर.
जन्म सफल करि लेतो रज बसि जहँ ब्रज जीवन मूर.
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं,आयु तो छिन छिन छीजै.
नागरीदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै.
चरन छिदत काँटनि ते स्रवत रुधिर सुधि नाहिं .
पूछति हौं फिरि हौं भटू खग मृग तरु न माहिं .
कबै झुकत मो ओर को ऐहैं मद गज चाल .
गर बाहीं दीने दोऊ प्रिया नवल नंदलाल .
सब मजहब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद.
अरे इश्क के असर बिनु ये सबही बरबाद .
आया इश्क लपेट में लागी चश्म चपेट.
सोई आया खलक में,और भरे सब पेट.
नागरीदास
पूरानाम महाराजसावंतसिंह
अन्य नाम
जन्म
अभिभावक
संतान
मुख्य रचनाएँ
भाषा
प्रसिद्धि
नागरिकता
कविताकाल
नागरीदास
पौष कृष्ण पक्ष 12, संवत् 1756
महाराज राजसिंह
सरदारसिंह
सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजसार, बिहारचंद्रिका, जुगलरस माधुरी, पदमुक्तावली आदि
ब्रजभाषा
भक्ति कवि
भारतीय
संवत् 1780 से 1819 तक