Mahadevi Verma
अलि कहाँ सन्देश भेजूँ?
मैं किसे सन्देश भेजूँ?
एक सुधि अनजान उनकी,
दूसरी पहचान मन की,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु-भार अशेष भेजूँ!
चरण चिर पथ के विधाता
उर अथक गति नाम पाता,
अमर अपनी खोज का अब पूछने क्या शेष भेजूँ?
नयन-पथ से स्वप्न में मिल,
प्यास में घुल साध में खिल,
प्रिय मुझी में खो गया अब गया अब दूत को किस देश भेजूँ!
जो गया छबि-रूप का घन,
उड़ गया घनसार-कण बन,
उस मिलन के देश में अब प्राण को किस वेश भेजूँ!
उड़ रहे यह पृष्ठ पल के,
अंक मिटते श्वास चल के,
किस तरह लिख सजल करुणा की व्यथा सविशेष भेजूँ!
अलि, मैं कण-कण को जान चली,
सबका क्रन्दन पहचान चली।
जो दृग में हीरक-जल भरते,
जो चितवन इन्द्रधनुष करते,
टूटे सपनों के मनको से,
जो सुखे अधरों पर झरते।
जिस मुक्ताहल में मेघ भरे,
जो तारो के तृण में उतरे,
मै नभ के रज के रस-विष के,
आँसू के सब रँग जान चली।
जिसका मीठा-तीखा दंश न,
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
जो पग में चुभकर, कर देता,
जर्जर मानस, चिर आहत मन।
जो मृदु फूलो के स्पन्दन से,
जो पैना एकाकीपन से,
मै उपवन निर्जन पथ के हर,
कंटक का मृदु मन जान चली।
गति का दे चिर वरदान चली,
जो जल में विद्युत-प्यास भरा,
जो आतप मे जल-जल निखरा,
जो झरते फूलो पर देता,
निज चन्दन-सी ममता बिखरा।
जो आँसू में धुल-धुल उजला,
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
मैं मरु उर्वर में कसक भरे,
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
प्रति पग को कर लयवान चली।
नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत,
जग संगी अपना चिर विस्मित,
यह शूल-फूल कर चिर नूतन,
पथ, मेरी साधों से निर्मित।
इन आँखों के रस से गीली,
रज भी है दिल से गर्वीली,
मै सुख से चंचल दुख-बोझिल,
क्षण-क्षण का जीवन जान चली,
मिटने को कर निर्माण चली!
आँसुओं के देश में
जो कहा रूक-रूक पवन ने
जो सुना झुक-झुक गगन ने,
साँझ जो लिखती अधूरा,
प्रात रँग पाता न पूरा,
आँक डाला लह दृगों ने एक सजल निमेष में!
अतल सागर में जली जो,
मुक्त झंझा पर चली जो,
जो गरजती मेघ-स्वर में,
जो कसकती तड़ित्-उर में,
प्यास वह पानी हुई इस पुलक के उन्मेष में!
दिश नहीं प्राचीर जिसको,
पथ नहीं जंजीर जिसको
द्वार हर क्षण को बनाता,
सिहर आता बिखर जाता,
स्वप्न वह हठकर बसा इस साँस के परदेश में!
मरण का उत्सव है,
गीत का उत्सव का अमर है,
मुखर कण का संग मेला,
पर चला पंथी अकेला,
मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में!
यह बताया झर सुमन ने,
वह सुनाया मूक तृण ने,
वह कहा बेसुध पिकी ने,
चिर पिपासित चातकी ने,
सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में!
खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर,
रुदन में कुख की कथा हे,
विरह मिलने की प्रथा हे,
शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!
आँसुओं के देश में!
तापों से खारे जो विषाद से श्यामल,
अपनी चितवन में छान इन्हें कर मधु-जल,
फिर इनसे रचकर एक घटा करुणा की
कोई यह जलता व्योम आज छा जाता!
वर क्षार-शेष का माँग रही जो ज्वाला,
जिसको छूकर हर स्वप्न बन चला छाला,
निज स्नेह-सिक्त जीवन-बाती से कोई,
दीपक कर असको उर-उर में पहुँचाता!
तम-कारा-बन्दी सान्ध्य रँगों-सी चितवन;
पाषाण चुराए हो लहरों से स्पन्दन,
ये निर्मम बन्धन खोल तडित से कर से,
चिर रँग रूपों से फिर यह शून्य बसाता!
सिकता से तुलती साध क्षार से उर-धन,
पारस-साँसें बेमोल ले चला हर क्षण,
प्राणों के विनिमय से इनको ले कोई,
दिव का किरीट, भू का श्रृंगार बनाता!
जग अपना भाता है !
मुझे प्रिय पथ अपना भाता है ।
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नयनों ने उर को कब देखा,
हृदय न जाना दृग का लेखा,
आग एक में और दूसरा सागर ढुल जाता है !
धुला यह वह निखरा आता है !
और कहेंगे मुक्ति कहानी,
मैंने धूलि व्यथा भर जानी,
हर कण को छू प्राण पुलक-बंधन में बंध जाता है ।
मिलन उत्सव बन क्षण आता है !
मुझे प्रिय जग अपना भाता है !
जब यह दीप थके तब आना।
यह चंचल सपने भोले हैं,
दृग-जल पर पाले मैने, मृदु
पलकों पर तोले हैं;
दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना!
साधें करुणा - अंक ढली है,
सान्ध्य गगन - सी रंगमयी पर
पावस की सजला बदली है;
विद्युत के दे चरण इन्हें उर-उर की राह बताना!
यह उड़ते क्षण पुलक - भरे है,
सुधि से सुरभित स्नेह - धुले,
ज्वाला के चुम्बन से निखरे है;
दे तारो के प्राण इन्हीं से सूने श्वास बसाना!
यह स्पन्दन हैं अंक - व्यथा के
चिर उज्ज्वल अक्षर जीवन की
बिखरी विस्मृत क्षार - कथा के;
कण का चल इतिहास इन्हीं से लिख - लिख अजर बनाना!
लौ ने वर्ती को जाना है
वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने
रज का अंचल पहचाना है;
चिर बन्धन में बाँध इन्हें धुलने का वर दे जाना!
तू भू के प्राणों का शतदल !
सित क्षीर-फेन हीरक-रज से
जो हुए चाँदनी में निर्मित,
शरद की रेखायों में चिर
चाँदी के रंगों से चित्रित,
खुल रहे दलों पर दल झलमल !
सपनों से सुरभित दृगजल ले
धोने मुख नित रजनी आती,
उड़ते रंगों के अंचल से
फिर पोंछ उषा संध्या जाती,
तू चिर विस्मित तू चिर उज्जवल !
सीपी से नीलम से घुतिमय,
कुछ पिंग अरुण कुछ सित श्यामल,
कुछ सुख-चंचल कुछ टुख-मंथर
फैले तम से कुछ तल वरल,
मंडराते शत-शत अलि बादल !
युगव्यापी अनगिन जीवन के
अर्चन से हिम-श्रृंगार किये,
पल-पल विहसित क्षण-क्षण विकसित
बिन मुरझाये उपहार लिये,
घेरे है तू नभ के पदतल !
ओ पुलकाकुल, तू दे दिव को
नत भू के प्राणों का परिचय,
कम्पित, उर विजड़ित अधरों की
साधों का चिरजीवित संचय,
तू वज्र-कठिन किशलय--कोमल?
तू भू के प्राणों का शतदल?
तेरी छाया में अमिट रंग,
तेरी ज्वाला में अमर गान !
जड़ नीलम-श्रृंगों का वितान
मरकत की क्रूर शिला धरती,
घेरे पाषाणी परिधि तुझे
क्या मृदु तन में कम्पन भरती?
यह जल न सके,
यह गल न सके,
यह मिट कर पग भर चल न सके!
तू माँग न इनसे पंथ-दान!
जिसमें न व्यथा से ज्वलित प्राण
यह अचल कठिन उन्नत सपना,
सुन प्रलय-घोष बिखरा देगा,
इसको दुर्बल कम्पन अपना !
ढह आयेंगे,
बह जायेंगे,
यह ध्वंस कथा दुहरायेंगे !
तू घुल कर बन रचना-विधान!
घिरते नभ-निधि-आवर्त्त-मेघ,
मसि-वातचक्र सी वात चली,
गर्जन-मृदंग हरहर-मंजीर,
पर गाती दुख बरसात भली !
कम्पन मचली,
साँसें बिछलीं
इनमें कौंधी गति की बिजली!
तू सार्थवाह बस इन्हें मान !
जिस किरणांगुलि ने स्वप्न भरे,
मृदुकर-सम्पुट में गोद लिया,
चितवन में ढाला अतल स्नेह,
नि:श्वासों का आमोद दिया,
कर से छोड़ा,
उर से जोड़ा,
इंगित से दिशि-दिशि में मोड़ा !
क्या याद न वह आता अजान ?
उस पार कुहर-धूमिल कर से,
उजला संकेत सदा झरता,
चल आज तमिस्रा के उर्म्मिल
छोरों में स्वर्ण तरल भरता,
उन्मद हँस तू,
मिट-मिट बस तू
चिनगारी का भी मधुरस तू!
तेरे क्षय में दिन की उड़ान !
जिसके स्पन्दन में बढ़ा ज्वार
छाया में मतवाली आँधी,
उसने अंगार-तरी तेरी
अलबेली लहरों से बाँधी !
मोती धरती,
विद्युत् भरती,
दोनों उस पग-ध्वनि पर तरतीं!
बहना जलना अब एक प्राण !
धूप सा तन दीप सी मैं!
उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन,
खो रहा निज को अथक आलोक-सांसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन-पल,
औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल,
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन ओर समीप सी मैं!
सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाये,
रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रान्त आये,
पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन,
छांह से भर प्राण उन्मन,
तम-जलधि में नेह का मोती
रचूंगी सीप सी मैं!
धूप-सा तन दीप सी मैं!