mahadevi verma
अतिथि से
बनबाला के गीतों सा
निर्जन में बिखरा है मधुमास,
इन कुंजों में खोज रहा है
सूना कोना मन्द बतास।
नीरव नभ के नयनों पर
हिलतीं हैं रजनी की अलकें,
जाने किसका पंथ देखतीं
बिछ्कर फूलों की पलकें।
मधुर चाँदनी धो जाती है
खाली कलियों के प्याले,
बिखरे से हैं तार आज
मेरी वीणा के मतवाले;
पहली सी झंकार नहीं है
और नहीं वह मादक राग,
अतिथि! किन्तु सुनते जाओ
टूटे तारों का करुण विहाग।
वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना;
वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह
वह अनन्त रितुराज,नहीं
जिसने देखी जाने की राह;
वे सूने से नयन,नहीं
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज,नही
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;
ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!
क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
घटा घिर आई सूना तीर,
अंधेरी सी रजनी में पार
बुलाते हो कैसे बेपीर?
नहीं है तरिणी कर्णाधार
अपरिचित है वह तेरा देश,
साथ है मेरे निर्मम देव!
एक बस तेरा ही संदेश।
हाथ में लेकर जर्जर बीन
इन्हीं बिखरे तारों को जोर,
लिए कैसे पीड़ा का भार
देव जाऊँ अनन्त की ओर!
उच्छवासों की छाया में
पीड़ा के आलिंगन में,
निश्वासों के रोदन में
इच्छाओं के चुम्बन में;
सूने मानस मन्दिर में
सपनों की मुग्ध हँसी में;
आशा के आवाहन में
बीते की चित्रपटी में।
रजनी के अभिसारों में
नक्षत्रों के पहरों में
ऊषा के उपहासों में
मुस्काती सी लहरों में।
उन थकी हुई सोती सी
ज्योत्सना की मृदु पलकों में,
बिखरी उलझी हिलती सी
मलयानिल की अलकों में;
जो बिखर पड़े निर्जन में
निर्भर सपनों के मोती,
मैं ढूँढ रही थी लेकर
धंधली जीवन की ज्योती;
उस सूने पथ में अपने
पैरों की चाप छिपाये,
मेरे नीरव मानस में
वे धीरे धीरे आये!
मेरी मदिरा मधुवाली
आकर सारी लुढका दी,
हँसकर पीड़ा से भर दी
छोटी जीवन की प्याली;
मेरी बिखरी वीणा के
एकत्रित कर तारों को;
टूटे सुख के सपने दे
अब कहते हैं गाने को।
यह मुरझाये फूलों का
फीका सा मुस्काना है,
यह सोती सी पीड़ा को
सपनों से ठुकराना है;
गोधूली के ओठों पर
किरणों का बिखराना है,
यह सूखी पंखड़ियों में
मारुत का इठलाना है।
इस मीठी सी पीड़ा में
डूबा जीवन का प्याला,
लिपटी सी उतराती है
केवल आँसू की माला।
समीरण के पंखों में गूँथ
लुटा ड़ाला सौरभ का भार,
दया ढुलका मानस मकरन्द
मधुर अपनी स्मृति का उपहार;
अचानक हो क्यों छिन्न मलीन
लिया फूलों का जीवन छीन!
दैव सा निष्ठुर, दुख सा मूक
स्वप्न सा, छाया सा अनजान,
वेदना सा, तम सा गम्भीर
कहाँ से आया वह आह्वान?
हमारी हँसती चाह समेट
ले गया कौन तुम्हें किस देश!
छोड़ कर जो वीणा के तार
शून्य में लय हो जाता राग,
विश्व छा लेती छोटी आह
प्राण का बन्दीखाना त्याग;
नहीं जिसका सीमा में अन्त
मिली है क्या वह साध अनन्त?
ज्योति बुझ गई रह गया दीप
गई झंकार गया वह गान,
विरह है या अखण्ड़ संयोग
शाप है या यह है वरदान?
पूछता आकर हाहाकार
कहाँ हो? जीवन के उस पार?
मधुर जीवन सा मुग्ध बसंत
विधुर बनकर क्यों आती याद?
’सुधा’ वसुधा में लाया एक
प्राण में लाती एक विषाद;
बुझाकर छोटा दीपालोक
हुई क्या हो असीम में लोप?
हुई सोने की प्रतिमा क्षार
साधनायें बैठी हैं मौन,
हमारा मानसकुञ्ज उजाड़
दे गया नीरव रोदन कौन?
नहीं क्या अब होगा स्वीकार
पिघलती आँखों का उपहार?
बिखरते स्वप्नों की तस्वीर
अधूरा प्राणों का सन्देश,
हृदय की लेकर प्यासी साध
बसाया है अब कौन विदेश?
रो रहा है चरणों के पास
चाह जिनकी थी उनका प्यार।
मैं कम्पन हूँ तू करुण राग
मैं आँसू हूँ तू है विषाद,
मैं मदिरा तू उसका खुमार
मैं छाया तू उसका अधार;
मेरे भारत मेरे विशाल
मुझको कह लेने दो उदार!
फिर एक बार बस एक बार!
जिनसे कहती बीती बहार
’मतवालो जीवन है असार’!
जिन झंकारों के मधुर गान
ले गया छीन कोई अजान,
उन तारों पर बनकर विहाग
मंड़रा लेने दो हे उदार!
फिर एक बार बस एक बार!
कहता है जिनका व्यथित मौन
’हम सा निष्फल है आज कौन’!
निर्धन के धन सी हास रेख
जिनकी जग ने पायी ने देख,
उन सूखे ओठों के विषाद-
में मिल जाने दो हे उदार!
फिर एक बार बस एक बार!
जिन पलकों में तारे अमोल
आँसू से करते हैं किलोल,
जिन आँखों का नीरव अतीत
कहता 'मिटना है मधुर जीत’;
उस चिन्तित चितवन में विहास
बन जाने दो मुझको उदार!
फिर एक बार बस एक बार!
फूलों सी हो पल में मलीन
तारों सी सूने में विलीन,
ढुलती बूँदों से ले विराग
दीपक से जलने का सुहाग;
अन्तरतम की छाया समेट
मैं तुझमें मिट जाऊँ उदार!
फिर एक बार बस एक बार!
गिरा जब हो जाती है मूक
देख भावों का पारावार,
तोलते हैं जब बेसुध प्राण
शून्य से करुण कथा का भार;
मौन बन जाता आकर्षण
वहीं मिलता नीरव भाषण।
जहाँ बनता पतझार वसन्त
जहाँ जागृति बनती उन्माद,
जहाँ मदिरा देती चैतन्य
भूलना बनता मीठी याद;
जहाँ मानस का मुग्ध मिलन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
जहाँ विष देता है अमरत्व
जहाँ पीड़ा है प्यारी मीत,
अश्रु हैं नयनों का श्रॄंगार
जहाँ ज्वाला बनती नवनीत;
मृत्यु बन जाती नवजीवन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
नहीं जिसमें अत्यंन्त विच्छेद
बुझा पाता जीवन की प्यास,
करुण नयनों का संचित मौन
सुनाता कुछ अतीत की बात;
प्रतीक्षा बन जाती अंजन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
पहन कर जब आँसू के हार
मुस्करातीं वे पुतली श्याम,
प्राण में तन्मयता का हास
माँगता है पीड़ा अविराम;
वेदना बनती संजीवन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
जहाँ मिलता पंकज का प्यार
जहाँ नभ में रहता आराध्य,
ढाल देना प्राणों में प्राण
जहाँ होती जीवन की साध;
मौन बन जाता आवाहन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
जहाँ है भावों का विनिमय
जहाँ इच्छाओं का संयोग,
जहाँ सपनों में है अस्तित्व
कामनाओं में रहता योग;
महानिद्रा बनता जीवन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
जहाँ आशा बनती नैराश्य
राग बन जाता है उच्छ्वास,
मधुर वीणा है अन्तर्नाद
तिमिर में मिलता दिव्य प्रकाश;
हास बन जाता है रोदन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
रजनी ओढ़े जाती थी
झिलमिल तारों की जाली,
उसके बिखरे वैभव पर
जब रोती थी उजियाली;
शशि को छूने मचली थी
लहरों का कर कर चुम्बन,
बेसुध तम की छाया का
तटनी करती आलिंगन।
अपनी जब करुण कहानी
कह जाता है मलयानिल,
आँसू से भर जाता जब
सृखा अवनी का अंचल;
पल्लव के ड़ाल हिंड़ोले
सौरभ सोता कलियों में,
छिप छिप किरणें आती जब
मधु से सींची गलियों में।
आँखों में रात बिता जब
विधु ने पीला मुख फेरा,
आया फिर चित्र बनाने
प्राची ने प्रात चितेरा;
कन कन में जब छाई थी
वह नवयौवन की लाली,
मैं निर्धन तब आयी ले,
सपनों से भर कर डाली।
जिन चरणों की नख आभा
ने हीरकजाल लजाये,
उन पर मैंने धुँधले से
आँसू दो चार चढाये!
इन ललचाई पलकों पर
पहरा जब था व्रीणा का,
साम्राज्य मुझे दे ड़ाला
उस चितवन ने पीड़ा का!!
उस सोने के सपने को
देखे कितने युग बीते!
आँखों के कोश हुये हैं
मोती बरसा कर रीते;
अपने इस सूने पन की
मैं हूँ रानी मतवाली,
प्राणों का दीप जलाकर
करती रहती दीवाली।
मेरी आहें सोती हैं
इन ओठों की ओटों में,
मेरा सर्वस्व छिपा है
इन दीवानी चोटों में!!
चिन्ता क्या है हे निर्मम!
बुझ जाये दीपक मेरा;
हो जायेगा तेरा ही
पीड़ा का राज्य अँधेरा!
चाहता है यह पागल प्यार,
अनोखा एक नया संसार!
कलियों के उच्छवास शून्य में तानें एक वितान,
तुहिन-कणों पर मृदु कंपन से सेज बिछा दें गान;
जहाँ सपने हों पहरेदार,
अनोखा एक नया संसार!
करते हों आलोक जहाँ बुझ बुझ कर कोमल प्राण,
जलने में विश्राम जहाँ मिटने में हों निर्वाण;
वेदना मधु मदिरा की धार,
अनोखा एक नया संसार!
मिल जावे उस पार क्षितिज के सीमा सीमाहीन,
गर्वीले नक्षत्र धरा पर लोटें होकर दीन!
उदधि हो नभ का शयनगार,
अनोखा एक नया संसार!
जीवन की अनुभूति तुला पर अरमानों से तोल,
यह अबोध मन मूक व्यथा से ले पागलपन मोल!
करें दृग आँसू का व्यापार,
अनोखा एक नया संसार!
जो तुम आ जाते एक बार ।
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार ।
हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार ।