Mahadevi Verma
अपनी बात - सप्तपर्णा महादेवी वर्मा
अपनी बात
एक विशेष भू-खण्ड में जन्म और विकास पाने वाले मानव को अपनी धरती से पार्थिव अस्तित्व ही नहीं प्राप्त होता, उसे अपने परिवेश से विशेष बौद्धिक तथा रागात्मक सत्ता का दाय भी अनायास उपलब्ध हो जाता है। वह स्थूल-सूक्ष्म, बाह्य-आन्तरिक तथा प्रत्यक्ष-अगोचर ऐसी विशेषताओं का सहज ही उत्तराधिकारी बन जाता है जिनके कारण मानव-समष्टि में सामान्य रहते हुए भी सबसे भिन्न पहचाना जा सकता है। यह सामान्यता में विशेषता न उसे मानव-समष्टि के निकट इतना अपरिचित होने देती है कि उसे आश्चर्य समझा जा सके और न इतना परिचित बना देती है कि उसके सम्बन्ध में जिज्ञासा ही समाप्त हो जाये।
इस प्रकार प्रत्येक भू-खण्ड का मानव दूसरों की जानता भी है और अधिक जानना भी चाहता है।
मनुष्य को स्थूल पार्थिव सत्ता उसकी रंग-रूपमयी आकृति में व्यक्त होती है। उनके बौद्धिक संगठन से, जीवन और जगत सम्बन्धी अनेक जिज्ञासायें, उनके तत्व की शोध और समाधान के प्रयास, चिन्तन की दिशा आदि संचालित और संयमित होते हैं। उसकी रागात्मक वृत्तियों का संघात उसके सौन्दर्य-संवदेन, जीवन और जगत के प्रति आकर्षण-विकर्षण उन्हें अनुकूल और मधुर बनाने की इच्छा, उसे अन्य मानवों की इच्छा से सम्पृक्त कर अधिक विस्तार देने की कामना और उसकी कर्म-परिणति आदि का सर्जक है।
मानव-जाति की इन मूल प्रवृत्तियों के लिए वही सत्य है जो भवभूति ने करुण रस के सम्बन्ध में कहा है-
एको रसः करुण एव निमित्त भेदा-
दभित्रः पृथक पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान्।
आवर्तबुदबुद् तरंगमयान् विकारा-
नम्भों यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्।।
एक करुण रस ही निमित्त भेद से भिन्न-भिन्न मनोविकारों में परिवर्तित हो जाता है, जिस प्रकार आवर्त, बुदबुद्, तरंग आदि में परिवर्तित जल, जल ही रहता है।
यह निमित्त भेद अर्थात् देश, काल, परिवेश आदि से उत्पन्न विभिन्नातायें, एक मानव या मानव-समूह को दूसरों से सर्वथा भिन्न नहीं कर देतीं, प्रत्युत् वे उसे पार्थिव, बौद्धिक और रागात्मक दृष्टि से विशेष व्यक्तित्व देकर ही मानव सामान्य सत्य के लिए प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
किसी मानव-समूह को, उसके समस्त परिवेश के साथ तत्वतः जानने के लिए जितने माध्यम उपलब्ध हैं, उनमें सबसे पूर्ण और मधुर उसका साहित्य ही कहा जायगा। साहित्य में मनुष्य का असीम, अतः अपरिचित और दुर्बोध जान पड़ने वाला अन्तर्जगत बाह्य जगत में अवतरित होकर निश्चित परिधि तथा सरल स्पष्टता में बँध जाता है तथा सीमित, अतः चिर-परिचय के कारण पुराना लगने वाला बाह्य जगत अन्तर्जगत के विस्तार में मुक्त होकर चिर नवीन रहस्यमयता पा लेता है। इस प्रकार हमें सीमा में असीम की और असीम में संभावित सीमा की अनुभूति युगपद् होने लगती है। दूसरे शब्दों में, हम कुछ क्षणों में असंख्य अनुभूतियों पर विराट ज्ञान के साथ जीवित रहते हैं, जो स्थिति हमारे सान्त जीवन को अनन्त जीवन से एकाकार कर उसे विशेष सार्थकता और सामान्य गन्तव्य देने की क्षमता रखती है। प्रवाह में बनने मिटने वाली लहर नव-नव रूप पाती हुई लक्ष्य की ओर बढ़ती रहती है, परन्तु प्रवाह से भटक कर अकेले तट से टकराने और बिखर जाने वाली तरंग की यात्रा वहीं बालू-मिट्टी में समाप्त हो जाती है। साहित्य हमारे जीवन को, ऐसे एकाकी अन्त से बचा कर उसे जीवन के निरन्तर गतिशील प्रवाह में मिलने का सम्बल देता है।
जहाँ तक परिवर्तन का प्रश्न है, मनुष्य के पार्थिव परिवेश में भी निरन्तर परिवर्तन हो रहा है और उसके जीवन में भी। जहाँ किसी युग में ऊँचे पर्वत थे, वहाँ आज गहरा समुद्र है और जहाँ आज अथाह सागर लहरा रहा है, वहाँ किसी भावी युग में दुर्लध्य पर्वत शिर उठा कर खड़ा हो सकता है। इसी प्रकार मनुष्य के जीवन ने भी सफल-असफल संघर्षों के बीच जाग कर, सोकर, चलकर, बैठकर, यात्रा के असंख्य आयाम पार किए हैं। पर न किसी भौगोलिक परिवर्तन से धरती की पार्थिव एकसूत्रता खण्डित हुई है, न परिवेश और जीवन की चिर नवीन स्थितियों में मनुष्य अतीत बसेरों को स्मृति भूला है।
अपने विराट और निरन्तर परिवर्तनशील परिवेश तथा अनदेखे अतीत और केवल कल्पना में स्थिति रखने वाले भविष्य के प्रति मनुष्य की आस्था इतनी विशाल और गुरु है कि उसे सँभालने के लिए उसके एक विराट, अखण्ड और सर्वज्ञ सत्ता को खोज लिया है जो हर अप्रत्यावर्तित अतीत की साक्षी और हर अनागत भविष्य से प्रतिश्रुत है।
हमारा विशाल देश, असंख्य परिवर्तन सँभालने वाली अखण्ड भौगोलिक पीठिका की दृष्टि से विशेष व्यक्तित्व रखता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य जाति के बौद्धिक और रागात्मक विकास ने उस पर जो अमिट चरणचिन्ह छोड़े हैं, उन्होंने इसके सब ओर महिमा की विशेष परिधि खींच दी है। यह उसका दाय भी है और न्यास भी।
जिस प्रकार ऊँचे-शिखर पर जल, हिम बन कर शिला-खण्डों के साथ पाषाण रूप में अनन्त काल तक स्थिर भी रह सकता है और अपनी तरलता के साथ प्रपात और प्रपात से नदी बनकर निरन्तर प्रवाहित भी होता रह सकता है, इसी प्रकार मानव-संस्कृति को विकास के एक बिन्दु पर चिर निस्पन्दता भी प्राप्त हो सकती है और अनवरत प्रवाहशीलता भी। एक में एकरस ऊँचाई है और दूसरी स्थिति में समतल पाने के लिए भी पहले उसका निम्नगा होना अनिवार्य ही रहेगा।
धरती के प्रत्येक कोने और काल के प्रत्येक प्रहर में मनुष्य का हृदय किसी उन्नत स्थिति के भी पाषाणीकरण को अभिशाप मानता रहा है। इस स्थिति से बचने के उसने जितने प्रयत्न किये हैं, उनमें साहित्य उसका निरन्तर साक्षी रहा है।
दर्शन पूर्ण होने का दावा कर सकता है, धर्म अपने निर्भ्रान्त होने की घोषणा कर सकता है, परन्तु साहित्य मनुष्य को शक्ति-दुर्बलता जय-पराजय, हास-अश्रु और जीवन-मृत्यु की कथा है। वह मनुष्य रूप में अवतरित होने पर स्वयं ईश्वर को भी पूर्ण मानना अस्वीकार कर देता है।
पर इस स्वेच्छा स्वीकृत अपूर्णता या परिवर्तनशीलता से जीवन और उसके विकास की एकता का सूत्र भंग नहीं होता।
नदी के एक होने का कारण उसका पुरातन जल नहीं, नवीन तरंगभंगिमा है। देश-विशेष के साहित्य के लिए भी यही सत्य है। प्रत्येक युग के साहित्य में नवीन तरंगाकुलता उसे मूल प्रवाहिनी से विच्छिन्न नहीं करती, वरन् उन्हीं नवीन तरंगभंगिमाओं की अनन्त आवृत्तियों के कारणमूल प्रवाहिनी अपने लक्ष्य तक पहुँचने की शक्ति पाती है।
इस दृष्टि से यदि हम भारतीय साहित्य की परीक्षा करें तो काल, स्थिति जीवन, समाज, भाषा धर्म आदि से सम्बन्ध रखने वाले अनन्त परिवर्तनों की भीड़ में भी उसमें एक ऐसी तारतम्यता प्राप्त होगी जिसके अभाव में किसी परिवर्तन की स्थिति सम्भव नहीं रहती। समुद्र की बेला में जो धरती व्यक्त है, उसी की अव्यक्त सत्ता तल बन कर समुद्र की अथाह जलराशि को संभालती है। हमें समुद्र के जल का व्यवधान बने रहने के लिए तल को धरती चाहिए। साहित्य के पुरातन और नूतन के अविच्छिन्न सम्बन्ध के मूल में भी जीवन की ऐसी ही धरती है।
संस्कृति मनुष्य के, बुद्धि और हृदय के जिस परिष्कार और जीवन में उसके व्यक्तीकरण का पर्याय है, उसका दाय विभिन्न भू-खण्डों में बसे हुए मानव-मात्र को प्राप्त है, परन्तु संस्कृति की साहित्य में प्राचीनतम अभिव्यक्ति वेद-साहित्य के अतिरिक्त अन्य नहीं है।
वस्तुतः देश काल की सीमा के परे उक्त साहित्य मानव-जाति के विकास की आदिम गाथा है।
सहस्त्रों वर्षों के व्यवधान के उपरान्त भी भारतीय चिन्तन, अनुभूति, सौंदर्यबोध, आस्था आदि में उसके चिन्ह अमिट हैं। यह तथ्य तब और भी अधिक विस्मयकारक बन जाता है जब हम समय के कुहरे के अनन्त स्तर और अपनी दृष्टि की व्यर्थता का अनुभव करते हैं। पर प्रकृति के जिस नियम से मनुष्य के शरीर को पैतृक दाय के रूप में शक्ति, दुर्बलता, व्याधि विशेष के कीटाणु, रोग विशेष के प्रतिरोध के क्षमता आदि अनजाने ही प्राप्त हो जाते हैं, उसी नियम से उसके मानसिक गठन का प्रभावित होना भी स्वाभाविक कहा जायगा।
जीवन की दृष्टि के वेद-साहित्य इतना अधिक विविध है कि उसके लिए, महाभारत की विशालता व्यक्त करने वाली उक्ति ‘यन्नभारते तन्नभारते’ ही चरितार्थ होती है।
दाशराज्ञ युद्ध जैसे सर्वसंहारी संघर्ष में महाभारत का पूर्वरंग है। अनेक नाटकीय संवादों में नाट्यशास्त्र की भूमिका है। विभिन्न-विचारों के प्रतिपादन में दर्शन की अनेक आस्तिक नास्तिक सरणियों की उदार स्वीकृति है। जल, स्थल, अन्तरिक्ष आकाश आदि के व्याप्त शक्तियों की रूपात्मक अनुभूति और उनके रागात्मक अभिनन्दन में काव्य और कलाओं के विकास के इंगित हैं। व्यक्ति और समष्टि की कल्याण कामनाओं में जीवन के नैतिक मूल्यों के निर्देश हैं। कर्म के विस्तृत विवेचन में कर्तव्य की रेखायें आँकी गई हैं। व्यापक कोमल कल्पना के छायालोक में, जीवन के कठोर सीमित यथार्थ चित्रों ने धरती के निकट रहने का संकेत दिया है।
भारतीय जीवन में स्थूल कर्म से लेकर सूक्ष्म बौद्धिक प्रक्रिया और गम्भीर रागात्मकता तक जो विशेषतायें हैं, उनका तत्वतः अनुसन्धान हमें किसी न किसी पथ में इस वृहत जीवन-कोष के समीप पहुँचाए बिना नहीं रहता।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि वर्तमान अतीत की अनुकृति मात्र है। पर हम यदि मानव जीवन की निरन्तर और किसी सामान्य लक्ष्योन्मुख गतिशीलता को स्वीकृति देते हैं तो उसकी यात्रा के आरम्भ का कोई बिन्दु स्वीकार करना ही होगा, जो गन्तव्य के चरम और अन्तिम बिन्दु से अदृष्ट रहकर भी उससे विच्छिन्न नहीं हो सकता। विकास पथ का एक होना, यात्रियों की विभिन्नता, उनकी शक्तियों की विषमता, पाथेय की विविधता और गति की अनेकता को अस्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं वह चलने वालों की बौद्धिक और रागात्मक वृत्तियों की मुक्तावस्था को भी किसी संकीर्ण क्षितिज से नहीं घेरता।
धर्मग्रन्थों के लिए मनुष्य की एकांगी दृष्टि ऐसा अंधेरा बन्दीगृह बन जाती है, जिसमें उनकी उज्ज्वल रेखाएँ भी धूमिल हो जाती हैं। एक ओर धर्मविशेष के प्रति आस्थावान तत्सम्बन्धी ग्रन्थों के चतुर्दिक, अपने अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता को अग्निरेखा खींच देते हैं और दूसरी ओर भिन्न धर्मपद्धति के अनुयायी अपने चारों ओर उपेक्षा की इतनी ऊँची दीवारें खड़ी कर लेते हैं, जिन्हें अन्य दिशा से आने वाली वायु के पंख भी नहीं छू पाते। ऐसी स्थिति में धर्मग्रन्थ, अनजान कृपण की रत्नमंजूषा बन जाते हैं, जिसके यथार्थ मूल्याकन में एक ओऱ मोहान्धता बाधक है और दूसरी ओर अपरिचयजनित उपेक्षा।
वह स्वाभाविक ही है कि धर्मग्रन्थों की सीमा के भीतर रहकर अपना परिचय देने वाले साहित्य को भी इस भ्रान्त परिचय और अपरिचय का अभिशाप झेलना पड़ा। ऐसे धर्मग्रन्थों की संख्या अधिक है जो अपने कथ्य की मर्मस्पर्शी सामान्यता, शैली की मधुर स्पष्टता और भाषा के सहज सात्विक प्रवाह के कारण साहित्य की कोटि में स्थिति रखते हैं, परन्तु उनके लिए साहित्य की देश-काल-सम्प्रदायातीत मुक्ति दुर्लभ ही रहेगी।
वेद साहित्य संकीर्ण अर्थ में धर्म विशेष का परिचायक ग्रन्थ-समूह नहीं है। उसमें न किसी धर्म विशेष के संस्थापक के प्रवचनों का संग्रह है और न किसी एक धर्म की आचार-पद्धित या मतवाद का प्रतिष्ठापन या प्रतिपादन है। वस्तुत: वह अनेक युगों के अनेक तत्वचिंतक ज्ञानियों और क्रांतद्रष्टा कवियों की स्वानुभूतियों का संघात है । मनुष्य की प्रज्ञा की जैसी विविधता और उसके हृदय की जैसी रागात्मक समृद्धि वेद साहित्य में प्राप्त है, वह मनुष्य को न एकांगी दृष्टि दे सकती है न अंधविश्वास ।
आकाश के अखंड विस्तार में केंद्रित दृष्टि के लिए घट की सीमा में प्रति-बिम्बित आकाश ही अन्तिम सत्य कैसे हो सकता है !
(अपनी बात के कुछ अंश)
देखो सुमुखि ! सेतु से मेरे
भिन्न मलय तक फेनिल सागर,
छायापथ से ज्यों विभक्त हो
शरद-प्रसन्न तारकित अम्बर ।
आदि वराह रसातल से जब
पृथ्वी को लाये थे ऊपर,
प्रलय-प्रवृध्द स्वच्छ जल इसका
बना धरा का घूंघट क्षण भर ।
तुंग तरंगों से भुजंग ये,
तट पर निकले वायुपान हित
ज्ञात हुये जब रवि किरणों ने
फण-मणियां कर दीं उद्भासित ।
मूंगों की श्रेणियाँ लाल हैं
देवि, तुम्हारे ज्यों अरुणाधर !
वेगवती लहरें जाती हैं
शख-दलों को गिरा इन्हीं पर !
तीक्ष्ण अनीवाले- शिखरों पर
निपतित, विद्धमुखों को लेकर,
कष्ट सहित ही शंखयूथ यह
जल में फिर संचरण रहा कर ।
घूम रहे आवर्त्त वेग से
जल लेने के लिए झुके घन,
लगता है मानो करता है
मन्दर फिर सागर का मंथन ।
लोह -चक्र- रेखा सी तन्वी
ताल - तमाल वनों से श्यामल,
जंग लगी ज्यों धार दीखती
दूर सिन्धु की वेला निश्चल ।
इस तट पर आने में हमको
यान - वेग से लगा निमिष भर,
फल - भारानत पूग, सीपियों
से बिखरे मुक्ता सैकत पर ।
मृगनयने ! करभोरु ! पंथ पर
अपने पीछे तो देखो टुक,
निकल रही दूरस्थ सिन्धु से
धरा वनों के साथ अचानक !
नभ-गंगा-तरंग-चल- शीतल
व्योमपवन, सुरगज-मद-सुरभित,
पीता, तब मुख-स्वेद-कणों को
जो मध्याह्न ताप से उत्यित ।
चंडि ! कुतूहल से छूती हो
वन को जब फैला अपना कर,
वलयाकार तडित् मिस मानो
कंकण नव पहनाता जलधर ।
चिर परित्यक्त आश्रमों में निज
सुख से लौट बसे तापस जन,
अब निर्विघ्न जान कर जनपद
उटजों में रच रहे तपोवन ।
-रघुवंश
१
दीप्तिमय शोभित हुआ वह
धीर ज्योतिर्वेश,
भूमि पर उतरा यथा
बालार्क ले परिवेष ।
चकित करके दृष्टि को
उसने लिया यों खींच,
केन्द्र ज्यों बनता नयन का
इन्दु नभ के बीच ।
दिव्य अंगों से बरसती
स्वर्णदीप्ति अनन्त,
हो उठे भास्वर उसी से
दूर दूर दिगन्त ।
सप्त ऋषि मंडल सदृश वह
पुंज पुंज प्रकाश,
धीर दृढ़ ऋजु चरण से
कर सप्त पग का न्यास,
अभय सिंह समान उसने
फिर चतुर्दिक देख,
धीर उद्घोषित किया निज
सत्य का आलेख-
'बोध हित है जन्म
भव - कल्याण मेरा लक्ष्य,
लोकहित अन्तिम हुआ
है जन्म यह प्रत्यक्ष !'
२
गिरिराजों से कीलित धरती
हुई तरी सी झंझा-कम्पित,
नभ निरभ्र से वृष्टि हुई नव
पंकज - संकुल चन्दन - सुरभित ।
दिव्य वसन भू पर फैलाता
सुखद मनोरम बहा समीरण,
रवि ने अति भास्वरता पाई
सौम्य अग्नि जल उठी अनीन्धन ।
विहग और मृगदल दोनों ने
रोक दिया कलरव कोलाहल,
शान्त तरंगों में बहता था
शान्त भाव से सरिता का जल !,
शान्त दिशायें स्वच्छ हो गईं
नील गगन था स्वच्छ मेघ बिन,
पवन-लहरियों पर तिरता था
दिव्य लोक के तूर्यों का स्वन ।
-बुद्धचरित
देख गजों को धावित
औ' सुन घोर महारव,
दीप्त तेजयुत लक्ष्मण से
बोले तब राघव ।
'देखो हे सौमित्र !
कहां से आता नि:स्वन,
(जिसको सुनकर आज
हो गया अस्थिर यह वन ।)'
तब लक्ष्मण ने चढ़कर
पुष्पित शाल वृक्ष पर,
राघव से यों कहा
सैन्य का अवलोकन कर ।
'होकर के अभिषिक्त
राज्य करने निर्बाधित,
आते हैं यह भरत
हमारे ही वध के हित ।
जिनके कारण आप-
राज्य शाश्वत से वंचित,
वध्य शत्रु वे, मेरे
सम्मुख भरत समागत ।
राघव करिए त्वरित
चाप अपने को शिंजित,
करिए शर संधान
कवच से होकर सज्जित ।'
तब लक्ष्मण को देख
क्रोध अस्थिर उद्वेजित,
राघव बोले वचन
उन्हें करने प्रशान्त चित ।
'चाप का क्या कार्य
कैसा चर्म कैसी खड़्ग,
जब समागत हैं सुधिवर
भरत सेना संग ।
पिता से प्रतिश्रुति, करूँ
यदि मैं भरत–वध आज,
क्या करूँगा ले उसे जो
है कलंकित राज्य?
बंधु मित्रों के निधन से
प्राप्त वैभव–सार
अन्न विषमय ज्यों मुझे
होगा नहीं स्वीकार।
बंधु हों मेरे सुखी हो
क्षेम–मंगल–योग
शपथ आयुध की यही
बस राज्य का उपभोग।
सिंधु-वेष्टित भूमि पर
मुझको सुलभ अधिकार
धर्म के बिन इंद्र–पद
मुझको न अंगीकार।
बिन तुम्हारे, भरत औ’
शत्रुघ्न बिन, सुखसार
दे मुझे जो वस्तु उसको
अग्नि कर दे क्षार।
भातृवत्सल भरत ने,
होता मुझे अनुमान,
आ अयोध्या में किया
कुलधर्म का जब ध्यान,
और सुन, मैंने बना कर
जटावल्कल–वेश,
अनुज सीता सह बसाया
है विपिन का देश,
स्नेह–आतुर चेतना में
विकलता दुख–जन्य,
देखने आये भरत हमको,
न कारण अन्य।
अप्रिय कटु, माँ को सुना,
कर तात को अनुकूल
राज्य लौटाने मुझे
आये न इसमें भूल।
'क्या कभी पहले भरत ने
किया कुछ प्रतिकूल?
जो तुम्हें इस भाँति हो
भय आज शंका मूल।
क्या किसी आपत्ति में
हो पुत्र से हत तात?
प्राण–सम निज बंधु का
ही बंधु कर दे घात?
कह रहे इस भाँति तुम
यदि राज्य हेतु विशेष,
‘राज्य दो इसको’ कहूँगा
मैं भरत को देख।
शाल से तब उतर लक्ष्मण
बद्ध - अंजलि - हाथ,
पार्श्वस्थित शोभित हुए
बैठे जहाँ रघुनाथ ।
भरत मानव-श्रेष्ठ देकर
सैन्य को आवास,
चले पैदल देखने
तापस - कुटीर - निवास ।
तापसालय में विलोका
भरत ने वह धाम,
जानकी लक्ष्मण सहित
जिसमें विराजित राम ।
भरत तब दौड़े रुदित
दुख - मोह से आक्रान्त,
चरण तक पहुंचे न भू पर
गिर पड़े दुख - भ्रान्त ।
'आर्य' ही बस कह सके वे
धर्म में निष्णात,
कष्ट गद्गद से न निकली
अन्य कोई बात
जटा वल्कल सहित उनका
कृश विवर्ण शरीर,
कष्ट से पहचान भेंटे
अंक भर रघुवीर ।
भरत को तब भेंटकर
शिर सूंघकर सप्रेम,
अंक में ले राम ने
पूछा कुशल औ' क्षेम ।
(रामायण)
शान्त गगन हो, शान्त धरा हो !
फैला दिशि-दिशि
अन्तरिक्ष हो शान्त हमारा,
शान्त हमारे हित हो
सागर की जलधारा।
औषधियों में क्षेम हमारे हित बिखरा हो !
शान्त गगन हो, शान्त धरा हो !
शममय हो भूकम्प
शान्त उल्का-निपतन हो,
शम, विदीर्ण धरती
का उर भी भीति शमन हो,
क्षेमकरी ही रहे धेनु लोहितक्षीरा हो।
शान्त गगन हो, शान्त धरा हो !
उल्का - अभिहृत ग्रह
शम हों अभियान दु:खकर,
शम कृत्या छल कुहक
हिंस्र आचरण क्षेमकर,
संहारक विध्वंस हमें शम शान्ति भरा हो !
शान्त गगन हो शान्त धरा हो !
विवस्वान सम, मित्र
वरुण अंतक भी शममय,
पृथिवी के नभ के सारे
उत्पात शान्तिमय,
नभचर नक्षत्रों की गति में शम उतरा हो !
शान्त गगन हो शान्त धरा हो !
इन्द्रिय के गण पांच
षष्ठ मन से संयुत हो,
तेज-दीप्त जो रहते हैं
उर में संस्थित हो,
क्रूर कर्म-क्षम वही इन्द्रियाँ क्षेमकरा हों !
शान्त गगन हो शान्त धरा हो !
दिव्य ज्ञान से दिव्य
उच्चता पाता जो मन,
क्रूर कर्म में भी जिससे
योजित होता जन,
वही हमारा सुमन शान्त शम में निखरा हो !
शान्त गगन हो शान्त धरा हो !
परिवर्तन के पूर्व रूप
हों हमें शांतिमय,
शांत हमें हों कृत
अकृत सब कर्मों के चय,
शांत भूत भवितव्य सृष्टि कल्याणधरा हो !
शान्त गगन हो शान्त धरा हो !
परम श्रेष्ठ यह दिव्य
ब्रह्म - शंसित कल्याणी,
कठिन कर्म का कारण
भी बनती जो वाणी,
वाग्देवता वही हमारी ऋतम्भरा हो !
शान्त गगन हो शान्त धरा हो !
(अथर्ववेद)
यह वही सरयू, सदा मेरे लिए जो मान्य,
धाय उत्तर कोशलों की एक जो सामान्य ।
पुष्ट होते थे इसी की खेल सिकता-गोद,
वृद्धि पाते हैं मधुर पय - पान से सामोद ।
स्वामि से विरहित हमारी जननि ही सी म्लान,
मान्य भूपति रहित सरयू आज पड़ती जान ।
पवनशीतल इन तरुंगों के उठा कर हाथ,
दूर ही से भेंटती है आज मेरा गात ।
...........................................
कहते ही इस भांति, दाशरथि का उर-अभिमत,
जान गया पुष्पक - रथ का चालक अधिदैवत ।
देख रहे जब भरत प्रजा परिजन विस्मित से,
उतरा धरती पर विमान यह ज्योतिष्पथ से ।
-रघुवंश
देव ! देखो मंजरित,
सहकार का तरु
गन्ध - मधु - सुरभित,
खिला जिसका सुमन - दल,
बैठ जिसमें मधु-
गिरा में बोलता यह
लग रहा है हेम--
पंजर - बद्ध कोकिल-
रक्त पल्लव युक्त,
आज अशोक देखो,
प्रेमियों के हित
सदा जो विरहवर्द्धन,
जान पड़ता दग्ध-
ज्वाला से विकल हो,
कर रहे उसमें भ्रमर-
के वृन्द कूजन ।
आज उज्जवल तिलक -
द्रुम को भेंट कर यह
पीतवर्ण रसाल-
शाखा यों सुशोभित,
शुभ्र वेशी पुरुष के
ज्यों संग नारी
पीत केसर - अंग-
रागों से प्रसाधित ।
सद्य ही जिसको
निचोड़ा राग के हित
यह अलक्तक कान्ति--
शोभा फुल्ल कुरवक,
नारियों की नख-
प्रभा से चकित होकर
आज लज्जा - भार
से मानो रहा झुक !
तीर पर जिसके उगे
हैं सिन्धुवारक
देख कर इस पुष्करिणि
को हो रहा भ्रम
धवल अंशक ओढ़ कर
मानो यहाँ हो,
अंगना लेटी हुई
कोई मनोरम ।
देव ! आज वसन्त
में हो राग - उन्मद
बोलता है पिक सुनो
टुक यह मधुर स्वर,
और प्रतिध्वनि सी
उसी की जान पड़ता,
दूसरे पिक का 'कुहू'
में दिया उत्तर ।
मोह से उन्मत्तचित
प्रमदा जनों ने
हाव - भावों के चलाये
अस्त्र अनगिन,
मृत्यु निश्चित सोचता
वह धीर संयत,
हो सका न प्रसन्न
और न खिन्न उन्मन ।
(बुद्धचरित)
स्नेह भावना युक्त द्वेष भावों से विरहित,
मैं करता हूँ, तुम सबको सम सौमनस्य-चित ।
वत्स ओर धावित होती ज्यों गो ममता से,
आकर्षित तुम रहो परस्पर त्यों समता से ।
माता के प्रति पुत्र रहे अनुकूल निरन्तर,
रहे सदा निज जनक अनुगमन में वह तत्पर ।
सुखद स्नेह-मधुमति शान्ति की दायक वाणी,
गृह में पति से कहे सदा जाया कल्याणी ।
कभी सहोदर का न सहोदर विद्वेषी हो,
भगिनी का उर भगिनी का हित अन्वेषी हो,
हों समान संकल्प और व्रत एक तुम्हारा,
हो कल्याण प्रसार कथन उपकथनों द्वारा ।
हुए देवगन द्वेषरहित मन जिसको पाकर,
रखते नहीं विरोध-बुद्धि एकान्त परस्पर ।
उसी ज्ञान से प्रति गृह को करता अभिमन्त्रित,
जन जन को वह करे एक चेतना-नियन्त्रित ।
एक दूसरे से चाहे हो श्रेष्ठ ज्येष्ठ जन,
एकचित हो रहो कार्यसाधन-संयत-मन ।
पृथक न हो तुम एक धुरी में बद्ध करो श्रम,
रहो प्रियंवद् करता हूँ मन चित्त एक सम ।
हो पानीय समान, अन्न भी एक रहे नित,
एक सूत्र में तुमको मैं करता संयोजित।
चक्रनाभि संलग्न अरे ज्यों रहते अनगिन,
वैसे ही तुम करो अग्नि का मिल अभिनन्दन ।
एक कार्यरत तुम, संस्थिति भी एक तुम्हारी,
करता हूँ तुमको समान निधि का अधिकारी ।
देवों के सम करो अमृत का तुम संरक्षण,
सायं प्रात समान तुम्हारे रहें शांत मन ।
(अथर्ववेद)
......................
......................
'पाद ॰ बद्ध, समान अक्षर
तन्त्र - गेय समर्थ,
श्लोक यह, शोकार्त उर का
हो न सकता व्यर्थ !'
मुनि वचन सुन शिष्य ने
उसको किया कंठस्थ,
देख गुरु का खिन्न मन भी
हो गया प्रकृतिस्थ !
चले आश्रम ओर कर विधि-,
विहित मज्जनचार,
मार्ग में करते उसी,
संकल्प का सुविचार !
भरद्वाज प्रशिष्य ले कर
कलश जल से पूर्ण,
पंथ में गुरु-अनुगमन,
करने लगा वह तूर्ण !
धर्मविद् पहुँचे निजाश्रम,
विनत शिष्य समेत,
ध्यान युत, सबसे कहा
संकल्प का संकेत !
अन्य वटु विस्मित प्रहर्षित
हो गए यह जान,
श्लोक का फिर लगे
करने मधुर स्वर गान !
चार चरण समान अक्षर-
रचित गुरु का गीत,
अन्यथा होगा न, दुख
जो बना श्लोक पुनीत !
पूत आत्मा गुरु हुए
संकल्प में संन्यस्त,
'श्लोक छन्दायित करूंगा
राम - चरित समस्त ।'