jaishankar prasad
विमल इन्दु की विशाल किरणें
प्रकाश तेरा बता रही हैं
अनादि तेरी अन्नत माया
जगत् को लीला दिखा रही हैं
प्रसार तेरी दया का कितना
ये देखना हो तो देखे सागर
तेरी प्रशंसा का राग प्यारे
तरंगमालाएँ गा रही हैं
तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना
वो देख सकता है चंद्रिका को
तुम्हारे हँसने की धुन में नदियाँ
निनाद करती ही जा रही हैं
विशाल मन्दिर की यामिनी में
जिसे देखना हो दीपमाला
तो तारका-गण की ज्योती उसका
पता अनूठा बता रही हैं
प्रभो ! प्रेममय प्रकाश तुम हो
प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली
असीम उपवन के तुम हो माली
धरा बराबर जता रही है
जो तेरी होवे दया दयानिधि
तो पूर्ण होता ही है मनोरथ
सभी ये कहते पुकार करके
यही तो आशा दिला रही है
जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करुणा नौका पार लगाती है
जयति महासंगीत ! विश्व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है
कादम्िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है
भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है
निर्विकार लीलामय ! तेरी शक्ति न जानी जाती है
ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुना गाती है
गदगद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी दौड़ी जाती है
प्रभु ! तेरे चरणों में पुलकित होकर प्रणति जनाती है
जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है
जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है
जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे
जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे
उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को
नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्व-गृहस्थ को
जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में
तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में
फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है
वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है
जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नवाते
परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते
कहकर सइस्त्र मुख से जब है वही बताता
फिर मूढ़ चित्त को है यह क्यों नही सुहाता
अपनी ही आत्मा को सब कुछ जो जानते हो
परमात्मा में उसमें नहिं भेद मानते हो
जिस पंचतत्व से है यह दिव्य देह-मन्दिर
उनमें से ही बना है यह भी तो देव-मन्दिर
उसका विकास सुन्दर फूलों में देख करके
बनते हो क्यों मधुव्रत आनन्द-मोद भरके
इसके चरण-कमल से फिर मन क्यों हटाते हो
भव-ताप-दग्ध हिय को चन्दन नहीं चढ़ाते
प्रतिमा ही देख करके क्यों भाल में है रेखा
निर्मित किया किसी ने इसको, यही है रेखा
हर-एक पत्थरो में वह मूर्ति ही छिपी है
शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है
इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे
धरता है वेश वोही जैसा कि उसको दिजे
यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया
लीला उसी की जग में सबमें वही समाया
मस्जिद, पगोडा, गिरजा, किसको बनाया तूने
सब भक्त-भावना के छोटे-बड़े नमूने
सुन्दर वितान कैसा आकाश भी तना है
उसका अनन्त-मन्दिर, यह विश्व ही बना है
करुणा-निधे, यह करुण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये
कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये
हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं
हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं
सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही
पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने पुकारा है नहीं
सन्तुष्ट बालक खेलने से तो कभी थकता नहीं
कुछ क्लेश पाते, याद पड़ जाते पिता-माता वही
संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं
तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं
झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में
है बुद्धि चक्कर में भँवर सी घूमती उद्वेग में
गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो
वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो
हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो
है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो
ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन-रात हैं
कुविचार-क्रूरों के कठिन कैसे कुठिल आघात हैं
हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरूद्ध में
सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है
पूर्णिमा की रात्रि का शश्ाि अस्त अब होने को है
तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है
स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है
गा रहे हैं ये विहंगम किसके आने कि कथा
मलय-मारूत भी चला आता है हरने को व्यथा
चन्द्रिका हटने न पाई, आ गई ऊषा भली
कुछ विकसने-सी लगी है कंज की कोमल कली
हैं लताएँ सब खड़ी क्यों कुसुम की माला लिये
क्यों हिमांशु कपूर-सा है तारका-अवली लिये
अरूण की आभा अभी प्राची में दिखलाई पड़ी
कुछ निकलने भी लगी किरणो की सुन्दर-सी लड़ी
देव-दिनकर क्या प्रभा-पूरित उदय होने को हैं
चक्र के जोड़े कहो कया मोदमय होने को हैं
वृत आकृत कुंकुमारूण कंज-कानन-मित्र है
पूर्व में प्रकटित हुआ यह चरित जिसके चित्र हैं
कल्पना कहती है, कन्दुक है महाशिशु-खेल का
जिसका है खिलवाड़ इस संसार में सब मेल का
हाँ, कहो, किस ओर खिंचते ही चले जाओगे तुम
क्या कभी भी खेल तजकर पास भी आओगे तुम
नेत्र को यों मीच करके भागना अच्छा नहीं
देखकर हम खोज लेंगे, तुम रहो चाहे कहीं
पर कहो तो छिपके तुम जाओगे क्यों किस ओर को
है कहाँ वह भूमि जो रक्खे मेरे चितचोर को
बनके दक्षिण-पौन तुम कलियो से भी हो खेलते
अलि बने मकरन्द की मीठी झड़ी हो झेलते
गा रहे श्यामा के स्वर में कुछ रसीले राग से
तुम सजावट देखते हो प्रकृति की अनुराग से
देके ऊषा-पट प्रकृति को हो बनाते सहचरी
भाल के कुंकुम-अरूण की दे दिया बिन्दी खरी
नित्य-नूतन रूप हो उसका बनाकर देखते
वह तुम्हें है देखती, तुम युगल मिलकर खेलते
क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है
मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है
भारी भोझा लाद लिया न सँभार है
छल छालों से पैर छिले न उबार है
चले जा रहे वेग भरे किस ओर को
मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर को
किन्तु नहीं हे पथिक ! वह जल है नहीं
बालू के मैदान सिवा कुछ है नहीं
ज्वाला का यह ताप तुम्हें झुलसा रहा
मनो मुकुल मकरन्द-भरा कुम्हला रहा
उसके सिंचन-हेतु न यह उद्योग है
व्यर्थ परिश्रम करो न यह उपयोग है
कुसुम-वाहना प्रकृति मनोज्ञ वसन्त है
मलयज मारूत प्रेम-भरा छविवन्त है
खिली कुसुम की कली अलीगण घूमते
मद-माते पिक-पुंज मंज्जरी चूमते
किन्तु तुम्हें विश्राम कहाँ है नाम को
केवल मोहित हुए लोभ से काम को
ग्रीष्मासन है बिछा तुम्हारे हृदय में
कुसुमाकर पर ध्यान नहीं इस समय में
अविरल आँसू-धार नेत्र से बह रहे
वर्षा-ऋतु का रूप नहीं तुम लख रहे
मेघ-वाहना पवन-मार्ग में विचरती
सुन्दर श्रम-लव-विन्दु धरा को वितरती
तुम तो अविरत चले जा रहे हो कहीं
तुम्हें सुघर से दृश्य दिखाते हैं नहीं
शरद-शर्वरी शिशिर-प्रभंजन-वेग में
चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग में
भ्रम-कुहेलिका से दृग-पथ भी भ्रान्त है
है पग-पग पर ठोकर, फिर नहि शान्त है
व्याकुल होकर, चलते हो क्यो मार्ग में
छाया क्या है नहीं कही इस मार्ग में
त्रस्त पथिक, देखो करुणा विश्वेश की
खड़ी दिलाती तुम्हें याद हृदयेश की
शाीतातप की भीति सता सकती नही
दुख तो उसका पता न पा सकता कहीं
भ्रान्त शान्त पथिकों का जीवन-मूल है
इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है
कुसुमित मधुमय जहाँ सुखद अलिपुंज है
शान्त-हेतु वह देखो ‘करुणा-कुंज है
मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही,
अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में
नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा,
बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही
स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था
अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द से
अहा! अचानक किस मलयानिल ने तभी,
(फूलों के सौरभ से पूरा लदा हुआ)-
आते ही कर स्पर्श गुदगुदाया हमें,
खूली आँख, आनन्द-दृश्य दिखला दिया
मनोवेग मधुकर-सा फिर तो गूँज के,
मधुर-मधुर स्वर्गीय गान गाने लगा
वर्षा होने लगी कुसुम-मकरन्द की,
प्राण-पपीहा बोल उठा आनन्द में,
कैसी छवि ने बाल अरुण सी प्रकट हो,
शून्य हृदय को नवल राग-रंजित किया
सद्यःस्नात हुआ फिर प्रेम-सुतीर्थ में,
मन पवित्र उत्साहपूर्ण भी हो गया,
विश्व विमल आनन्द भवन-सा बन रहा
मेरे जीवन का वह प्रथम प्रभात था
पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही
इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं
युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा
हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा
कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं
शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है
है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये
और भी शतपत्र को मधुकर कही गुंजित किये
मधुर मलयानिल महक की मौज में मदमत्त है
लता-ललिता से लिपटकर ही महान प्रमत्त है
क्यारियों के कुसुम-कलियो को कभी खिझला दिया
सहज झोंके से कभी दो डाल को हि मिला दिया
घूमता फिरता वहाँ पहुँचा मनोहर कुंज में
थी जहाँ इक सुन्दरी बैठी महा सुख-पुंज में
धृष्ट मारूत भी उड़ा अंचल तुरत चलता हुआ
माधवी के पत्र-कानों को सहज मलता हुआ
ज्यो उधर मुख फेरकर देखा हटाने के लिये
आ गया मधुकर इधर उसके सताने के लिये
कामिनी इन कौतुकों से कब बहलने ही लगी
किन्तु अन्यमनस्क होकर वह टहलने ही लगी
ध्यान में आया मनोहर प्रिय-वदन सुख-मूल वह
भ्रान्त नाविक ने तुरत पाया यथेप्सित कूल वह
नील-नीरज नेत्र का तब तो मनोज्ञ विकास था
अंग-परिमल-मधुर मारूत का महान विलास था
मंजरी-सी खिल गई सहकार की बाला वही
अलक-अवली हो गई सु-मलिन्द की माला वही
शान्त हृदयाकाश स्वच्छ वसंत-राका से भरा
कल्पना का कुसुम-कानन काम्य कलियों से भरा
चुटकियाँ लेने लगीं तब प्रणय की कोरी कली
मंजरी कम्पित हुई सुन कोकिला की काकली
सामने आया युवक इक प्रियतमे ! कहता हुआ
विटप-बाहु सुपाणि-पल्लव मधुर प्रेम जता छुआ
कुमुद विकसित हो गये तब चन्द्रमा वह सज उठा
कोकिला-कल-रव-समान नवीन नूमुर बज उठा
प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया
मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का कम हो गया
सौरभित सरसिज युगल एकत्र होकर खिल गये
लोल अलकावलि हुई मानो मधुव्रत मिल गये
श्वास मलयज पवन-सा आनन्दमय करने लगा
मधुर मिश्रण युग-हृदय का भाव-रस भरने लगा
दृश्य सुन्दर हो गये, मन में अपूर्व विकास था
आन्तरिक और ब्राहृ सब में नव वसंत-विलास था
प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए
प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए
हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ
हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ
कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो-
‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी कहो’’
नही कहेंगे, कोप सहेंगे धीर हो
दर्द न समझो, क्या इतने बेपीर हो
चुप रहकर कह दुँगा मैं सारी कथा
बीती है, हे प्राण ! नई जितनी व्यथा
मेरा चुप रहना बुलवावेगा तुम्हें
मैं न कहूँगा, वह समझावेगा तुम्हें
जितना चाहो, शान्त बनो, गम्भीर हो
खुल न पड़ो, तब जानेंगे, तुम धीर हो
रूखे ही तुम रहो, बूँद रस के झरें
हम-तुम जब हैं एक, लोग बकतें फिरें
सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है
तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है
मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा
वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा
हृदय-वेदना मधुर मूर्ति तब सदा नवीन बनाती है
तुम्हें न पाकर भी छाया में अपना दिवस बिताती है
कभी समझकर रूष्ट तुम्हें वह करके विनय मनाती है
तिरछी चितवन भी पा करके तुरत तुष्ट हो जाती है
जब तुम सदय नवल नीरद से मन-पट पर छा जाते हो
पीड़ास्थल पर शीतल बनकर तब आँसू बरसाते हो
मूर्ति तुम्हारी सदय और निर्दय दोनो ही भाती है
किसी भाँति भी पा जाने पर तुमको यह सुख पाती है
कभी-कभी हो ध्यान-वंचिता बड़ी विकल हो जाती है
क्रोधित होकर फिर यह हमको प्रियतम ! बहुत सताती है
इसे तम्हारा एक सहारा, किया करो इससे क्रीड़ा
मैं तो तुमको भूल गया हूँ पाकर प्रेममयी पीड़ा
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं
छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है
प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है
स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं
पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है
निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं
देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है
लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है
कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है
हरे-हरे पत्ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं
देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं
धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है
शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें
ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें
है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना
शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना
मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता
लहू की पंचाग्नि जो दिन-रात ही है तापता
जीव जिनके आश्रमो की-सी गुहा में मोद से
वास करते, खेलते है बालवृन्द विनोद से
पत्रहीना वल्लरी-जैसे जटा बिखरी हुई
उत्तरीय-समान जिन पर धूप है निखरी हुई
शैल वे साधक सदा जीवन-सुधा को चाहते
ध्यान में काली घटा के नित्य ही अवगाहते
धूलिधूसर है धरा मलिना तुम्हारे ही लिये
है फटी दूर्वादलों की श्याम साड़ी देखिये
जल रही छाती, तुम्हारा प्रेम-वारि मिला नहीं
इसलिये उसका मनोगत-भाव-फूल खिला नहीं
नेत्र-निर्झर सुख-सलिल से भरें, दु,ख सारे भगें
शीघ्र आ जाओ जलद ! आनन्द के अंकुर उगें
दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे
उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे
वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो
भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो
जिन-पत्तियों पर रश्िमयाँ आश्रम ग्रहण करती रहीं
वे पवन-ताड़ित हो सदा ही दूर को हटती रहीं
सुख के सभी साथी दिखाते है अहो संसार में
हो डूबता उसको बचाने कौन जाता धार में
कुल्या उसी गिरि-प्रान्त में बहती रही कल-नाद से
छोटी लहरियाँ उठ रही थी आन्तरिक आहृलाद से
पर शान्त था वह शैल जैसे योग-मग्न विरक्त हो
सरिता बनी माया उसे कहती कि ‘तुम अनुरक्त हो’
वे वन्य वीरूध कुसुम परिपूरित भले थे खिल रहे
कुछ पवन के वश में हुए आनन्द से थे खिल रहे
देखो, वहाँ वह कौन बैठा है शिला पर, शान्त है
है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है
स्थिर दृष्टि है जल-विन्दु-पूरित भाव—मानस का भरा
उन अश्रुकण में एक भी उनमें न इस भव से डरा
वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित-सा दिखाई दे रहा
पर एक चिन्ता थी वही जिसको हृदय था दे रहा
था बुद्ध-पद्मासन, हृदय अरविन्द-सा था खिल रहा
वह चिन्त्य मधुकर भी मधुर गुंजार करता मिल रहा
प्रतिक्षण लहर ले बढ़ रहे थे भाव-निधि में वेग से
इस विष्व के आलोक-मणि की खोज में उद्वेग से
प्रति श्वास आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को
जो स्पर्श कर लेता कमी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को
परमाणु भी सब स्तब्ध थे, रोमांच भी था हो रहा
था स्फीत वक्षस्थल किसी के ध्यान में होता रहा
आनन्द था उपलब्ध की सुख-कल्पना मे मिल रहा
कुछ दुःख भी था देर होने से वही अनमिल रहा
दुष्प्राप्य की ही प्राप्ति में हाँ बद्ध जीवनमुक्त था
कहिये उसे हम क्या कहें, अनुरक्त था कि विरक्त था
कुछ काल तक वह जब रहा ऐसे मनोहर ध्यान में
आनन्द देती सुन पड़ी मंजीर की ध्वनि कान में
नव स्वच्छ सन्ध्या तारका में से अभी उतरी हुई
उस भक्त के ही सामने आकर खड़ी पुतरी हुई
वह मुर्त्ति बोल-‘भक्तवर! क्यों यह परिश्रम हो रहा
क्यों विश्व का आनन्द-मंदिर आह! तू यों खो रहा
यह छोड़कर सुख है पड़ा किसके कुहक के जाल में
सुख-लेख मैं तो पढ़ रही हूँ स्पष्ट तेरे भाल में
सुन्दर सुहृद सम्पति सुखदा सुन्दरी ले हाथ में
संसार यह सब सौंपना है चाहता तव हाथ में
फिर भागते हो क्यों ? न हटता यो कभी निर्भीक है
संसार तेरा कर रहा है स्वागत, चलो, सब ठीक है
उन्नत हुए भ्रू-युग्म फिर तो बंक ग्रीवा भी हुई
फिर चढ़ गई आपादमस्तक लालिमा दौड़ी हुई
‘है सत्य सुन्दरि ! तव कथन, पर कुछ सुनो मेरा कहा’
आनन्द के विह्वल हुए-से भक्त ने खुलकर कहा
‘जब ये हमारे है, भला किस लिये हम छोड़ दें
दुष्प्राप्य को जो मिल रहा सुख-सुत्र उसको तोड़ दें
जिसके बिना फीके रहें सारे जगत-सुख-भोग ये
उसको तुरत ही त्याग करने को बताते लोग ये
उस ध्यान के दो बूँद आँसू ही हृदय-सर्वस्व हैं
जिस नेत्र में हों वे नहीं समझो की वे ही निःस्व है
उस प्रेममय सर्वेश का सारा जगत् औ’ जाति है
संसार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है
फिर, कौन अप्रिय है मुझे, सुख-दुःख यह सब कुछ नहीं
केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ कहीं
हमको रूलाता है कभी, हाँ, फिर हँसाता है कभी
जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी
वह प्रेम का पागल बड़ा आनन्द देता है हमें
हम रूठते उससे कभी, फिर भी मनाता है हमें
हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मतवाले बनें
मत-धर्म सबको ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने
आनन्द आसन पर सुधा-मन्दाकिनी में स्नात हो
हम और वह बैठे हए हैं प्रेम-पुलकित-गात हो
यह दे ईर्ष्या हो रही है, सुन्दरी ! तुमको अभी
दिन बीतने दो दो कहाँ, फिर एक देखोगी कभी
फिर यह हमारा हम उसी के, वह हमीं, हम वह हुए
तब तुम न मुझसे भिन्न हो, सब एक ही फिर हो गये
यह सुन हँसी वही मूर्ति करूणा की हुई कादम्बिनी
फिर तो झड़ी-सी लग गई आनन्द के जल की घनी
15. रजनीगंधा
दिनकर अपनी किरण-स्वर्ण से रंजित करके
पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के
प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती
अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती
दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर
वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर
कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया
किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया
देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है
कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर
करता है गुंजार पान करके रस मधुकर
देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में
गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती
लज्जावती मनोज्ञ लता का दृष्य दिखाती
मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है
मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया
इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया
तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई
सुन्दर चन्द्र अमन्द हुआ प्रकटित सुखदाई
स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का
विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का
देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया
उसे उड़़ाया मारूत ने पराग जो पाया
सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवंसर पाकर
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर
कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में
मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है
तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है
रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर
मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर
अपने-सदृष समूह तारका का रजनी-भर
निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर
कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में
निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में
‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका