चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
दूर गए मधुवन रंगराते,
तरू-छाया-फल से ललचाते,
भृंग-विहंगम उड़ते-गाते,
प्यारे, प्यारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
छूट गई नदी की धारा,
जो चलती थी काट कगारा,
जो बहती थी फाँद किनारा,
मत पछता रे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
दूर गए गिरिवर गवींले,
धरती जकड़े, अम्बर कीले,
बीच बहाते निर्झर नीले,
फेन पुहारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
पार हुए मरूतल के टीले,
सारे अंजर-पंजर ढीले,
बैठ न थककर कुंज-करीले,
धूल-धुआँरे!
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
चलते-चलते अंग पिराते,
मन गिर जाता पाँव उठाते,
अब तो केवल उम्र घटाते
साँझ-सकारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
क्या फिर पट-परिवर्तन होगा?
क्या फिर तन कंचन होगा?
क्या फिर अमरों-सा मन होगा?
आस लगा रे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
जब तक तेरी साँस न थमती, थमे न तेरा
क़दम, न तेरा कंठ-गान!
चल बंजारे-
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
एक दिन भोली किरण की लालिमा ने
क्यों मुझे फुसला लिया था,
एक दिन घन-मुसकराती चंचला ने
क्यों मुझे बहका दिया था,
एक राका ने सितारों से इशारे
क्यों मुझे सौ-सौ किए थे,
एक दिन मैंने गगन की नीलिमा को
किसलिए जी भर पीया था?
आज डैनों की पकी रोमावली में
वे उड़ानें धुँधली याद-सी हैं;
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
याद आते हैं गरूड़-दिग्गज धनों को
चीरने वाले झपटकर,
और गौरव-गृद्ध सूरज से मिलाते
आँख जो धँसते निरंतर
गए अंबर में न जलकर पंख जब तक
हो गए बेकार उनके, क्षार उनके,
हंस, जो चुगने गए नभ-मोतियों को
और न लौटे न भू पर,
चातकी, जो प्यास की सीमा बताना,
जल न पीना, चाहती थी,
उस लगन, आदर्श, जीवट, आन के
साथी मुझे क्या फिर मिलेंगे।
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
और मेरे देखते ही देखते अब
वक्त ऐसा आ गया है,
शब्द की धरती हुई जंतु-संकुल,
जो यहाँ है, सब नया है,
जो यहाँ रेंगा उसी ने लीक अपनी
डाल दी, सीमा लगा दी,
और पिछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,
कौन ऐसा बेहाया है;
गगन की उन्मुक्तता में राह अंतर
की हुमासे औ' उठानें हैं बनातीं,
धरणि की संकीर्णता में रूढि़ के,
आवर्त ही अक्सर मिलेंगे।
आज भी सीमा-रहित आकाश
आकर्षण-निमंत्रण से भरा है,
आज पहले के युगों से सौ गुनी
मानव-मनीषा उर्वरा है,
आज अद्भुत स्वप्न के अभिनव क्षितिज
हर प्रात खुलते जा रहे हैं,
मानदंड भविष्य का सितारों
की हथेली पर धारा है;
कल्पना के पुत्र अगुआई सदा करते
रहे हैं, और आगे भी करेंगे,
है मुझे विश्वास मेरे वंशजों के
पंख फिर पड़कें-हिलेंगे,
फिर गगन-कंथन करेंगे!
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
अंबर दो फाँक-
आधे में हंस उड़े, आधे में काक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
धरती दो फाँक-
आधी में नीम फले, आधी में दाख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
दुनिया दो फाँक-
आधी में चाँदी है, आधी में राख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
जीवन दो फाँक-
आधे में रोदन है, आधे में राग!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
बाज़ी दो फाँक,
ख़ूब सँभल आँक-
जुस है किस मुट्ठी, ताक?
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
सावन में बदली
अंबर में मचली,
भीगी-भीगी होती भोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
मधु की पिटारी
भौंरे सी कारी,
बागों में पैठें न चोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
झुक-झुक बिने जा,
सौ-सौ गिने जा,
क्या है कमर में न ज़ोर
कि जामुन चूती है?
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
डालों पे चढ़कर,
हिम्मत से बढ़कर,
मेरे बीरन, झकझोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
रस के कटोरे
दुनिया के बटोरे,
रस बरसे सब ओर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
लछिमा का गीत
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल नील-नवल,
शीतल, निर्मल,
जल-तल पर सोन चिरैया रै,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
सित-रक्त कमल
झलमल-झलमल
दल पर मोती चमकैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
दर्पण इनमें,
बिंबित जिनमें
रवि-शि-कर गगन-तरैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल में हलचर,
कलकल, छलछल
झंकृत कंगन
झंकृत पायल,
पहुँचे जल-खेल-खेलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
साँवर, मुझको
भी जाने दे
पोखर में कूद
नहाने दे;
लूँ तेरी सात बलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
साँवर का गीत
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
छितवन के तरुवर बहुतेरे
उसको चार तरु से घेरे,
उनकी डालों के भुलावे में मत आना लछिमा!
उनके पातों की पुकारों, उनकी फुनगी की इशारों,
उनकी डालों की बुलावे पर न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके बीच गई सुकुमारी,
अपनी सारी सुध-बुध हारी;
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जो सुकुमारी ताल नहाती,
वह फिर लौट नहीं घर आती,
हिम-सी गलती; यह जोखिम न उठाना, लछिमा!
न उठाना, लछिमा; न उठाना लछिमा!
जल में गलने का जोखिम न उठाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
गारे गंधर्वों का मेला!
जल में करता है जल-खेला,
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
उनके घेरे में न जाना, उनके फेड़े में न पड़ना!
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके घेरे में जो आता,
वह बस उसका ही हो जाता,
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाता, लछिमा!
हो दिवाना, लछिमा, हो दिवाना, लछिमा!
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जिसके मुख से 'कृष्ण' निकलता,
उसपर ज़ोर न उनका चलता,
उनके बीच अगर पड़ जाना,
अपने साँवर बावरे को न भुलाना, लछिमा!
न भुलाना, लछिमा; न बिसराना, लछिमा!
अपने साँवर बापरे को न भुलाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
(बीकानेरी मजदूरिनियों से सुनी लोकधुन पर आधारित)
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
बाहर-बाहर बालू-बालू,
भीतर-भीतर बाग है,
बाग-बाग में हर-हर बिरवे
धन्य हमारा भाग है;
फूल-फूल पर भौंरा,
डाली-डाली कोयल टेरती।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
धवलपुरी का पक्का धागा,
सूजी जैसलमेर की,
झीनी-बीनी रंग-बिरंगी,
डलिया है अजमेर की;
कलियाँ डूंगरपुर,बूंदी की,
अलवर की,अम्बेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ओढ़नी आधा अंबर ढक ले
ऐसी है चित्तौर की,
चोटी है नागौर नगर की,
चोली रणथम्भौर की;
घघरी आधी धरती ढंकती है
मेवाड़ी घेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ऐसी लम्बी माल कि प्रीतम-
प्यारी पहनें साथ में,
ऐसी छोटी माल कि कंगन
बांधे दोनों हाथ में,
पल भर में कलियाँ कुम्हलाती
द्वार खड़ी है देर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
एक टका धागे की कीमत,
पांच टके हैं फूल की,
तुमने मेरी कीमत पूछी?--
भोले, तुमने भूल की।
लाख टके की बोली मेरी!--
दुनिया है अंधेर की!
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
(उत्तरप्रदेश के लोकधुन पर आधारित)
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
रोटी न मँहगी है,
लहँगा न मँहगा,
मँहगा है,सैंया,रुपैया।
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
बेटी न प्यारी है,
बेटा न प्यारा,
प्यारा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
नाता न साथी है,
रिश्ता न साथी
साथी है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
गाना न मीठा,
बजाना न मीठा,
मीठा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
गाँधी न नेता,
जवाहर न नेता,
नेता है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
दुनियाँ न सच्ची,
दीन न सच्चा,
सच्चा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी ब-बरसे जाएगा?
पुरुष:
बहुत दिनों से अंबर प्यासा!
स्त्री:
बहुत दिनों से धरती प्यासी!
दोनों:
बहुत दिनों से घिरी उदासी!
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
काला बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
काला बादल!
पुरुष:
गोरा बादल उठ पच्छिम से आया था--
गरज-गरज कर फिर पच्छिम को चला गया।
स्त्री:
काला बादल उठ पूरब से आया है--
कड़क रहा है,चमक रहा है,छाया है।
पुरुष:
आँखों को धोखा होता है!
स्त्री:
जग रहा है या सोता है?
पुरुष:
गोरा बादल गया नहीं था पच्छिम को,
रंग बदलकर अब भी ऊपर छाया है!
स्त्री:
गोरा बादल चला गया हो तो भी क्या,
काले बादल का सब ढंग उसी का और पराया है।
पुरुष:
इससे जल की आशा धोखा!
स्त्री:
उल्टा इसने जल को सोखा!
दोनों:
कैसा अचरज!
कैसा धोखा!
छूंछी धरती!
भरा हुआ बादल का कोखा!
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
पुरुष:
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
स्त्री:
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
दोनों:
पूरब का पच्छिम का बादल,
उत्तर का दक्खिन का बादल--
कोई बादल नहीं बरसता ।
वसुंधरा के
कंठ-ह्रदय की प्यास न हरता।
वसुधा तल का
जन-मन-संकट-त्रास न हर्ता।
व्यर्थ प्रतीक्षा!धिक् प्रत्याशा!धिक् परवशता!
उसे कहें क्या कड़क-चमक जो नहीं बरसता!
पुरुष:
गोरा बादल प्यासा रखता!
स्त्री:
काला बादल प्यासा रखता
दोनों:
जीवित आँखों की,कानों में आशा रखता,
प्यासा रखता!प्यासा रखता!प्यासा रखता!
हे महात्मन,
हे महारथ,
हे महा सम्राट!
हो अपराध मेरा क्षम्य,
मैं तेरे महाप्रस्थान की कर याद,
या प्रति दिवस तेरा
मर्मभेदी,दिल कुरेदी,पीर-टिकट
अभाव अनुभव कर नहीं
तेरे समक्ष खड़ा हुआ हूँ।
धार कर तन --
राम को क्या, कृष्ण को क्या--
मृत्तिका ऋण सबही को
एक दिन होता चुकाना;
मृत्यु का कारण,बहाना .
और मानव धर्म है
अनिवार्य को सहना-सहाना।
औ'न मैं इसलिए आया हूँ
कि तेरे त्याग,तप,निःस्वार्थ सेवा,
सल्तनत को पलटनेवाले पराक्रम,
दंभ-दर्प विचूर्णकारी शूरता औ'
शहनशाही दिल,तबियत,ठाठ के पश्चात
अब युग भुक्खरों,बौनों,नकलची बानरों का
आ गया है;
शत्रु चारों ओर से ललकारते हैं,
बीच,अपने भाग-टुकड़ों को
मुसलसल उछल-कूद मची हुई है;
त्याग-तप कि हुंडियां भुनकर समाप्तप्राय
भ्रष्टाचार,हथकंडे,खुशामद,बंदरभपकी
की कमाई खा रही है।
अस्त जब मार्तण्ड होता,
अंधकार पसरता है पाँव अपने,
टिमटिमाते कुटिल,खल-खद्योत दल,
आत्मप्रचारक गाल-गाल श्रृगाल
कहते घूमते है यह हुआ,वह हुआ,
ऐसा हुआ,वैसा हुआ,कैसा हुआ!
शत-शत,इसी ढब की,कालिमा की
छद्म छायाएँ चतुर्दिक विचरती हैं.
Harivansh Rai Bachchan हरिवंशराय बच्चन
जन्म : 27 नवंबर 1907, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आत्मकथा
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)