ramdhari singh dinkar
२३ सितंबर १९०८-२४ अप्रैल१९७४) का जन्म सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था ।
उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की । उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था । वह एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे । उनकी अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है । उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। उनकी काव्य रचनायें : प्रण-भंग , रेणुका, हुंकार, रसवंती, द्वन्द्व गीत, कुरूक्षेत्र, धूपछाँह, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, मिर्च का मज़ा, रश्मिरथी, दिल्ली, नीम के पत्ते, सूरज का ब्याह, नील कुसुम, नये सुभाषित, चक्रवाल, कविश्री, सीपी और शंख, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, मृत्तितिलक, आत्मा की आँखें, हारे को हरिनाम, भगवान के डाकिए ।
अकेलेपन से बढ़कर
आनन्द नहीं , आराम नहीं ।
स्वर्ग है वह एकान्त,
जहाँ शोर नहीं, धूमधाम नहीं ।
देश और काल के प्रसार में,
शून्यता, अशब्दता अपार में
चाँद जब घूमता है, कौन सुख पाता है ?
भेद यह मेरी समझ में तब आता है,
होता हूँ जब मैं अपने भीतर के प्रांत में,
भीड़ से दूर किसी निभृत, एकान्त में ।
और तभी समझ यह पाता हूँ
पेड़ झूमता है किस मोद में
खड़ा हुआ एकाकी पर्वत की गोद में ।
बहता पवन मन्द-मन्द है ।
पत्तों के हिलने में छन्द है ।
कितना आनन्द है !
कल मुझे पूज कर चढ़ा गया
अलि कौन अपरिचित हृदय-हार?
मैं समझ न पाई गृढ़ भेद,
भर गया अगुर का अन्धकार।
श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु
गुनगुना रहा था मर्म-गान,
"आ रहा दूर से मैं निराश,
तुम दे पाओगी तृप्ति-दान?
यह प्रेम-बुद्ध के लिए भीख,
चाहिए नहीं धन, रूप, देह,
मैं याच रहा बलिदान पूर्ण,
है यहाँ किसी में सत्य स्नेह?
पुरनारि! तुम्हारे ग्राम बीच
भगवान पडे हैं निराहार।"
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।
सिहरा जानें क्यों मुझे देख,
बोला, "पूजेगी आज आस;
पहचान गया मैं सिद्धि देवि!
हो तुम्हीं यज्ञ का शुचि हुताश।
मैं अमित युगों से हेर रहा,
देखी न कभी यह विमल कान्ति,
ऐसी स्व-पूर्ण भ्रू-बँधी तरी,
ऐसी अमेय, निर्मोघ शान्ति।
नभ-सदृश चतुर्दिक तुम्हें घेर
छा रहे प्रेम-प्रभु निराकार।"
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।::
अपनी छवि में मैं आप लीन
रह गई विमुख करते विचार,
‘वाणी प्रशस्ति की नई सीख
आया फिर कोई चाटुकार।’
पर, वीतराग-निभ चला भिक्षु
रचकर मेरा अर्चन-विधान;
कह, "चढ़ा चुका मैं पुष्प, अधिक
अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?
फिर कभी खोजने आऊँगा, पद
पर जो रख जा रहा प्यार।"
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।
"अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?"
मैं चौंक उठी सहसा अधीर;
फट गया गहन मन का प्रमाद,
आ लगा वह्नि का प्रखर तीर।
उठ विकल धूम के बीच दौड़
बोलूँ जब तक, "ठहरो किशोर!"
तब तक स्व-सिद्धि को शिला जान
था चला गया साधक कठोर।
मैंने देखा वह धूम-जाल,
मैंने पाया वह सुमन-हार;
पर, देख न पाई उन्हें सजनि!
भर गया अगुरु का अन्धकार।
तुम तो पथ के चिर पथिक देव!
कब ले सकते किस घर विराम?
मैं ही न हाय, पहचान सकी
करगत जीवन का स्वर्ण-याम।
है तृषित कौन? है जलन कहाँ?
मेघों को इसका नहीं ध्यान;
यह तो मिट्टी का भाग्य, कभी
मिल जाता उसको अमृत-दान।
फिरना न कभी मधुमास वही
शत हृदय खिलाकर एक बार;
मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
भर गया अगुरु का अन्धकार।
चरणों पर कल जो चढ़ा गए
तुम देव! हृदय का मधुर प्यार,
मन में, पुतली में उसे सज़ा
मैं आज रही धो बार-बार;
जो तुम्हें एक दिन देख नहीं
पाई अपने भ्रम में विभोर,
आकर सुन लो टुक आज उसी
पाषाणी का क्रन्दन किशोर!
छिपकर तुम पूज गए उस दिन,
छिपकर उस दिन मैं गई हार;
पर छिपा सकेगा अश्रु-ज्योति
भर गया अगुरु का अन्धकार?
कल छोड़ गए जो दीप द्वार पर,
उर पर वह आसीन आज;
साधना-चरण की रेणु-हेतु
है विकल सिद्धि अति दीन आज;
मन की देवी को फूल चढ़ा,
चाहिए तुम्हें कुछ नहीं और;
पर, विजित सिद्धि के लिए कहाँ
साधक-चरणों के सिवा ठौर?
मैं भेद न सकती तिमिर-पुंज
तुम सुन सकते न करुण पुकार;
साधना-सिद्धि के बीच हाय,
छा रहा अगुरु का अन्धकार।
मैं रह न गई मानवी आज,
देवी कह तुमने की न भूल;
अन्तर का कञ्चन चमक उठ,
जल गई मैल, झर गई धूल;
नव दीप्ति लिए नारीत्व जगा
यह पहन तुम्हारी विजय-माल;
कुछ नई विभा ले फूल उठी
जीवन-विटपी की डाल-डाल।
देखे जग मुझमें आज स्त्रीत्व
का महामहिम पूर्णावतार;
मैं खड़ी, चतुर्दिक मुझे घेर
छा रहा अगुरु का अन्धकार।
कल सौंप गए जो मुझे प्रेम,
देखो उसका शृंगार आज;
मैं कनक-थाल भर खड़ी, बुद्ध-
हित ले जाओ उपहार आज;
सब भूल गई, कुछ याद नहीं
तरुणी के मद की बात आज;
आओ, पग छू हो जाऊँगी
रमणी मैं रातों-रात आज।
माँ की ममता, तरुणी का व्रत,
भगिनी का लेकर मधुर प्यार,
आरती त्रिवर्तिक सजा करूँगी
भिन्न अगुरु का अन्धकार।
वह रही हृदय-यमुना अधीर
भर, उमड़ लबालब कोर-कोर,
आओ, कर लो नौका-विहार,
लौटो भिक्षुक, लौटो किशोर!
गायक, गान, गेय से आगे
मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।
सुनना श्रवण चाहते अब तक
भेद हृदय जो जान चुका है;
बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन
निज को कर दान चुका है।
खो जाने को प्राण विकल है
चढ़ उन पद-पद्मों के ऊपर;
बाहु-पाश से दूर जिन्हें विश्वास
हृदय का मान चुका है।
जोह रहे उनका पथ दृग,
जिनको पहचान गया है चिन्तन।
गायक, गान, गेय से आगे
मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।
उछल-उछल बह रहा अगम की
ओर अभय इन प्राणों का जल;
जन्म-मरण की युगल घाटियाँ
रोक रहीं जिसका पथ निष्फल।
मैं जल-नाद श्रवण कर चुप हूँ;
सोच रहा यह खड़ा पुलिन पर;
है कुछ अर्थ, लक्ष्य इस रव का
या ‘कुल-कुल, कल-कल’ ध्वनि केवल?
दृश्य, अदृश्य कौन सत इनमें?
मैं या प्राण-प्रवाह चिरन्तन?
गायक, गान, गेय से आगे
मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।
जलकर चीख उठा वह कवि था,
साधक जो नीरव तपने में;
गाये गीत खोल मुँह क्या वह
जो खो रहा स्वयं सपने में?
सुषमाएँ जो देख चुका हूँ
जल-थल में, गिरि, गगन, पवन में,
नयन मूँद अन्तर्मुख जीवन
खोज रहा उनको अपने में।
अन्तर-वहिर एक छवि देखी,
आकृति कौन? कौन है दर्पण?
गायक, गान, गेय से आगे
मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।
चाह यही छू लूँ स्वप्नों की
नग्न कान्ति बढ़कर निज कर से;
इच्छा है, आवरण स्रस्त हो
गिरे दूर अन्तःश्रुति पर से।
पहुँच अगेय-गेय-संगम पर
सुनूँ मधुर वह राग निरामय,
फूट रहा जो सत्य सनातन
कविर्मनीषी के स्वर-स्वर से।
गीत बनी जिनकी झाँकी,
अब दृग में उन स्वप्नों का अंजन।
गायक, गान, गेय से आगे
मैं अगेय-स्वन का श्रोता मन।
उस दिन अभागिनी संध्या की
अभिशप्त गोद में गिरे
देश के पिता,
राष्ट्र के कर्णधार,
जग के नर-सत्तम,
भारत के बापू महान
प्रर्थना-मंच पर इन्द्रप्रस्थ के अंचल में
गोली खाकर ।
कहने में जीभ सिहरती है,
मूर्च्छित हो जाती कलम,
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा ।
तब भी बापू की छाती से
करुणा ही अन्तिम बार वेग से बह निकली
शोणित का बन कर स्रोत; स्यात्
मानव के निर्घिन चरम पाप को देख विकल
लज्जित होकर हो गई लाल
गंगाजल-सी परिपूत,
दूध-सी निर्मल-धवल अहिंसा ही ।
कूटस्थ पुरुष ने किया मृत्यु का सहज वरण,
बोले केवल "हे राम !" और आनंदलीन
आनन पर धारे शान्ति जोड़ कर-कंज गिरे
प्रार्थना-निरत, होकर अदृश्य के चरणों पर;
अन्तिम प्रार्थना, न होता जिसका अन्त कभी ।
(ये कविता अभी अधूरी है)
'जय हो’, खोलो अजिर-द्वार
मेरे अतीत ओ अभिमानी!
बाहर खड़ी लिये नीराजन
कब से भावों की रानी!
बहुत बार भग्नावशेष पर
अक्षत-फूल बिखेर चुकी;
खँडहर में आरती जलाकर
रो--रो तुमको टेर चुकी।
वर्तमान का आज निमंत्रण,
देह धरो, आगे आओ;
ग्रहण करो आकार देवता!
यह पूजा-प्रसाद पाओ।
शिला नहीं, चैतन्य मूर्ति पर
तिलक लगाने मैं आई;
वर्तमान की समर-दूतिका,
तुम्हें जगाने मैं आई।
कह दो निज अस्तमित विभा से,
तम का हृदय विदीर्ण करे;
होकर उदित पुनः वसुधा पर
स्वर्ण-मरीचि प्रकीर्ण करे।
अंकित है इतिहास पत्थरों
पर जिनके अभियानों का
चरण-चरण पर चिह्न यहाँ
मिलता जिनके बलिदानों का;
गुंजित जिनके विजय-नाद से
हवा आज भी बोल रही;
जिनके पदाघात से कम्पित
धरा अभी तक डोल रही।
कह दो उनसे जगा, कि उनकी
ध्वजा धूल में सोती है;
सिंहासन है शून्य, सिद्धि
उनकी विधवा--सी रोती है।
रथ है रिक्त, करच्युत धनु है,
छिन्न मुकुट शोभाशाली,
खँडहर में क्या धरा, पड़े,
करते वे जिसकी रखवाली?
जीवित है इतिहास किसी--विधि
वीर मगध बलशाली का,
केवल नाम शेष है उनके
नालन्दा, वैशाली का।
हिमगह्वर में किसी सिंह का
आज मन्द्र हुंकार नहीं,
सीमा पर बजनेवाले घौंसों
की अब धुंधकार नहीं!
बुझी शौर्य की शिखा, हाय,
वह गौरव-ज्योति मलीन हुई,
कह दो उनसे जगा, कि उनकी
वसुधा वीर-विहीन हुई।
बुझा धर्म का दीप, भुवन में
छाया तिमिर अहंकारी;
हमीं नहीं खोजते, खोजती
उसे आज दुनिया सारी।
वह प्रदीप, जिसकी लौ रण में
पत्थर को पिघलाती है;
लाल कीच के कमल, विजय, को
जो पद से ठुकराती है।
आज कठिन नरमेघ! सभ्यता
ने थे क्या विषधर पाले!
लाल कीच ही नहीं, रुधिर के
दौड़ रहे हैं नद-नाले।
अब भी कभी लहू में डूबी
विजय विहँसती आयेगी,
किस अशोक की आँख किन्तु,
रो कर उसको नहलायेगी?
कहाँ अर्द्ध-नारीश वीर वे
अनल और मधु के मिश्रण?
जिनमें नर का तेज प्रबल था,
भीतर था नारी का मन?
एक नयन संजीवन जिनका,
एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में,
उतना ही अन्तर कोमल।
स्थूल देह की विजय आज,
है जग का सफल बहिर्जीवन;
क्षीण किन्तु, आलोक प्राण का,
क्षीण किन्तु, मानव का मन।
अर्चा सकल बुद्धि ने पायी,
हृदय मनुज का भूखा है;
बढ़ी सभ्यता बहुत, किन्तु,
अन्तःसर अब तक सूखा है।
यंत्र-रचित नर के पुतले का
बढ़ा ज्ञान दिन-दिन दूना;
एक फूल के बिना किन्तु, है--
हृदय-देश उसका सूना।
संहारों में अचल खड़ा है
धीर, वीर मानव ज्ञानी,
सूखा अन्तःसलिल, आँख में
आये क्या उसके पानी?
सब कुछ मिला नये मानव को,
एक न मिला हृदय कातर;
जिसे तोड़ दे अनायास ही
करुणा की हलकी ठोकर।
’जय हो’, यंत्र पुरुष को दर्पण
एक फूटनेवाला दो;
हृदयहीन के लिए ठेस पर
हृदय टूटनेवाला दो।
दो विषाद, निर्लज्ज मनुज यह
ग्लानिमग्न होना सीखे;
विजय-मुकुट रुधिराक्त पहनकर
हँसे नहीं, रोना सीखे।
दावानल-सा जला रहा
नर को अपना ही बुद्धि-अनल;
भरो हृदय का शून्य सरोवर,
दो शीतल करुणा का जल।
जग में भीषण अन्धकार है,
जगो, तिमिर-नाशक, जागो,
जगो मंत्र-द्रष्टा, जगती के
गौरव, गुरु, शासक, जागो।
गरिमा, ज्ञान, तेज, तप, कितने
सम्बल हाय, गये खोये;
साक्षी है इतिहास, वीर, तुम
कितना बल लेकर सोये।
’जय हो’ खोलो द्वार, अमृत दो,
हे जग के पहले दानी!
यह कोलाहल शमित करेगी
किसी बुद्ध की ही बानी।
रचनाकाल: १९४१
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले !
कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोनेवाले !
१
धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,
अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुडाते हैं।
पड़ी समय से होड़, खींच मत तलवों से कांटे रुककर,
फूंक-फूंक चलती न जवानी चोटों से बचकर , झुककर।
नींद कहाँ उनकी आँखों में जो धुन के मतवाले हैं ?
गति की तृषा और बढती, पड़ते पग में जब छले हैं।
जागरूक की जाय निश्चित है, हार चुके सोने वाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।
२
जिन्हें देखकर डोल गयी हिम्मत दिलेर मर्दानों की
उन मौजों पर चली जा रही किश्ती कुछ दीवानों की।
बेफिक्री का समाँ कि तूफाँ में भी एक तराना है,
दांतों उँगली धरे खड़ा अचरज से भरा ज़माना है।
अभय बैठ ज्वालामुखियों पर अपना मन्त्र जगाते हैं।
ये हैं वे, जिनके जादू पानी में आग लगाते हैं।
रूह जरा पहचान रखें इनकी जादू टोनेवाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।
३
तीनों लोक चकित सुनते हैं, घर घर यही कहानी है,
खेल रही नेजों पर चढ़कर रस से भरी जवानी है।
भू संभले, हो सजग स्वर्ग, यह दोनों की नादानी है,
मिटटी का नूतन पुतला यह अल्हड है, अभिमानी है।
अचरज नहीं, खींच ईंटें यह सुरपुर को बर्बाद करे,
अचरज नहीं, लूट जन्नत वीरानों को आबाद करे।
तेरी आस लगा बैठे हैं , पा-पाकर खोनेवाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।
४
संभले जग, खिलवाड़ नहीं अच्छा चढ़ते-से पानी से,
याद हिमालय को, भिड़ना कितना है कठिन जवानी से।
ओ मदहोश ! बुरा फल हल शूरों के शोणित पीने का,
देना होगा तुम्हें एक दिन गिन-गिन मोल पसीने का ।
कल होगा इन्साफ, यहाँ किसने क्या किस्मत पायी है,
अभी नींद से जाग रहा युग, यह पहली अंगडाई है।
मंजिल दूर नहीं अपनी दुख का बोझा ढोनेवाले
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले।
(१९३८ ई०)
अधखिले पद्म पर मौन खड़ी
तुम कौन प्राण के सर में री?
भीगने नहीं देती पद की
अरुणिमा सुनील लहर में री?
तुम कौन प्राण के सर में ?
शशिमुख पर दृष्टि लगाये
लहरें उठ घूम रही हैं,
भयवश न तुम्हें छू पातीं
पंकज दल चूम रही हैं;
गा रहीं चरण के पास विकल
छवि-बिम्ब लिए अंतर में री।
तुम कौन प्राण के सर में?
कुछ स्वर्ण-चूर्ण उड़-उड़ कर
छा रहा चतुर्दिक मन में,
सुरधनु-सी राज रही तुम
रंजित, कनकाभ गगन में;
मैं चकित, मुग्ध, हतज्ञान खड़ा
आरती-कुसुम ले कर में री।
तुम कौन प्राण के सर में?
जब से चितवन ने फेरा
मन पर सोने का पानी,
मधु-वेग ध्वनित नस-नस में,
सपने रंगे रही जवानी;
भू की छवि और हुई तब से
कुछ और विभा अम्बर में री।
तुम कौन प्राण के सर में?
अयि सगुण कल्पने मेरी!
उतरो पंकज के दल से,
अन्तःसर में नहलाकर
साजूँ मैं तुम्हें कमल से;
मधु-तृषित व्यथा उच्छवसित हुई,
अन्तर की क्षुधा अधर में री।
तुम कौन प्राण के सर में ?
सारी दुनिया उजड़ चुकी है,
गुजर चुका है मेला;
ऊपर है बीमार सूर्य
नीचे मैं मनुज अकेला।
बाल-उमंगों से देखा था
मनु ने जिसे उभरते,
आज देखना मुझे बदा था
उसी सृष्टि को मरते।
वृद्ध सूर्य की आँखों पर
माँड़ी-सी चढ़ी हुई है,
दम तोड़ती हुई बुढ़िया-सी
दुनिया पड़ी हुई है।
कहीं-कहीं गढ़, ग्राम, बगीचों
का है शेष नमूना,
चारों ओर महा मरघट है,
सब है सूना-सूना।
कौमों के कंकाल झुण्ड के
झुण्ड, अनेक पड़े हैं;
ठौर-ठौर पर जीव-जन्तु के
अस्थि-पुंज बिखरे हैं।
घर में सारे गृही गये मर,
पथ में सारे राही,
रण के रोगी जूझ मरे
खेतों में सभी सिपाही।
कहीं आग से, कहीं महामारी से,
कहीं कलह से,
गरज कि पूरी उजड़ चुकी है
दुनिया सभी तरह से।
अब तो कहीं नहीं जीवन की
आहट भी आती है;
हवा दमे की मारी कुछ
चलकर ही थक जाती है।
किरण सूर्य की क्षीण हुई
जाती है बस दो पल में,
दुनिया की आखिरी रात
छा जायेगी भूतल में।
कोटि-कोटि वर्षों का क्रममय
जीवन खो जायेगा,
मनु का वंश बुझेगा,
अन्तिम मानव सो जायेगा।
आह सूर्य? हम-तुम जुड़वे
थे निकले साथ तिमिर से,
होंगे आज विलीन साथ ही
अन्धकार में फिर से।
सच है, किया निशा ने मानव
का आधा मन काला,
पर, आधे पर सदा तुम्हारा
ही चमका उजियाला।
हम में अगणित देव हुए थे,
अगणित हुए दनुज भी,
सब कुछ मिला-जुलाकर लेकिन,
हम थे सदा मनुज ही।
हत्या भी की और दूसरों
के हित स्वयं मरे भी,
सच है, किया पाप, लेकिन,
प्रभु से हम सदा डरे भी।
तब भी स्वर्ग कहा करता था
"धरती बड़ी मलिन है,
मर्त्य लोक वासी मनुजों की
जाति बड़ी निर्घिन है।"
निर्घिन थे हम क्योंकि राग से
था संघर्ष हमारा,
पलता था पंचाग्नि-बीच
व्याकुल आदर्श हमारा।
हाय, घ्राण ही नहीं, तुझे यदि
होता मांस-लहू भी,
ओ स्वर्वासी अमर! मनुज-सा
निर्घिन होता तू भी,
काश, जानता तू कितना
धमनी का लहू गरम है,
चर्म-तृषा दुर्जेय, स्पर्श-सुख
कितना मधुर नरम है।
ज्वलित पिण्ड को हृदय समझकर
ताप सदा सहते थे,
पिघली हुई आग थी नस में,
हम लोहू कहते थे।
मिट्टी नहीं, आग का पुतला,
मानव कहाँ मलिन था?
ज्वाला से लड़नेवाला यह
वीर कहाँ निर्घिन था?
हम में बसी आग यह छिपती
फिरती थी नस-नस में,
वशीभूत थी कभी, कभी
हम ही थे उसके बस में।
वह संगिनी शिखा भी होगी
मुझ से आज किनारा,
नाचेगी फिर नहीं लहू में
गलित अग्नि की धारा।
अन्धकार के महागर्त्त में
सब कुछ सो जायेगा,
सदियों का इतिवृत्त अभी
क्षण भर में खो जायेगा।
लोभ, क्रोध, प्रतिशोध, कलह की
लज्जा-भरी कहानी,
पाप-पंक धोने वाला
आँखों का खारा पानी,
अगणित आविष्कार प्रकृति के
रूप जीतने वाले,
समरों की असंख्य गाथाएँ,
नर के शौर्य निराले,
संयम, नियति, विरति मानव की,
तप की ऊर्ध्व शिखाएँ,
उन्नति और विकास, विजय की
क्रमिक स्पष्ट रेखाएँ,
होंगे सभी विलीन तिमिर में, हाय
अभी दो पल में,
दुनिया की आखिरी रात
छा जायेगी भूतल में।
डूब गया लो सूर्य; गई मुँद
केवल--आँख भुवन की;
किरण साथ ही चली गई
अन्तिम आशा जीवन की।
सब कुछ गया; महा मरघट में
मैं हूँ खड़ा अकेला,
या तो चारों ओर तिमिर है,
या मुर्दों का मेला।
लेकिन, अन्तिम मनुज प्रलय से
अब भी नहीं डरा है,
एक अमर विश्वास ज्योति-सा
उस में अभी भरा है।
आज तिमिर के महागर्त्त में
वह विश्वास जलेगा,
खुद प्रशस्त होगा पथ, निर्भय
मनु का पुत्र चलेगा।
निरावरण हो जो त्रिभुवन में
जीवन फैलाता है,
वही देवता आज मरण में
छिपा हुआ आता है।
देव, तुम्हारे रुद्र रूप से
निखिल विश्व डरता है,
विश्वासी नर एक शेष है
जो स्वागत करता है।
आओ खोले जटा-जाल
जिह्वा लेलिह्य पसारे,
अनल-विशिख-तूणीर सँभाले
धनुष ध्वंस का धारे।
’जय हो’, जिनके कर-स्पर्श से
आदि पुरुष थे जागे,
सोयेगा अन्तिम मानव भी,
आज उन्हीं के आगे।
रचनाकाल: १९४२
१ जय हो, छोड़ो जलधि-मूल,
ऊपर आओ अविनाशी,
पन्थ जोहती खड़ी कूल पर
वसुधा दीन, पियासी ।
मन्दर थका, थके असुरासुर,
थका रज्जु का नाग,
थका सिन्धु उत्ताल,
शिथिल हो उगल रहा है झाग ।
निकल चुकी वारुणी, असुर
पी चुके मोहिनी हाला,
नीलकंठ शितिकंठ पी चुका
कालकूट का प्याला।
मिले नियति के भाग सभी को
सबकी पूरी चाह
जन्मो, जन्मो अमृत !
देवता देख रहे हैं राह ।
(२)
जन्मो पीड़ित, मथित उदाध
के आकुल अंतस्तल से,
जन्मो उद्वेलन-अशांति से ।
जन्मो कोलाहल से ।
वासुकि के कर्पित फण से,
जन्मो, सागर-शिला-नाग के
भीषण संघर्षण से ।
जन्मो जैसे जन्म ग्रहण
करती मणि चक्षुश्रवा से,
जन्मो जैसे किरण जन्म
लेती है सघन कुहा से ।
शमित करो विष की प्रचण्डता,
शमित करो यह दाह,
जन्मो जन्मो अमृत ! देवता
देख रहे हैं राह ।
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
-रामधारी सिंह ‘दिनकर’
समर शेष है
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?
समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।
समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।
समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।
तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
वीर
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
चूहे की दिल्ली यात्रा – दिनकर
शक्ति और क्षमा
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।