Mahadevi Verma
पंथ होने दो अपरिचित
प्राण रहने दो अकेला
और होंगे चरण हारे,
अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे;
दुखव्रती निर्माण-उन्मद
यह अमरता नापते पद;
बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला
दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी;
आज जिसपर प्यार विस्मृत ,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला
हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो;
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल स्वप्न-शतदल,
जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला
तुम हो विधु के बिम्ब और मैं
मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर
कौतूहल के बाण !
कलियों के मधुप्यालों से जो
करती मदिरा पान,
झाँक, जला देती नीड़ों में
दीपक सी मुस्कान।
लोल तरंगों के तालों पर
करती बेसुध लास,
फैलातीं तम के रहस्य पर
आलिंगन का पाश।
ओस धुले पथ में छिप तेरा
जब आता आह्वान,
भूल अधूरा खेल तुम्हीं में
होता अन्तर्धान !
तुम अनन्त जलराशि उर्म्मि मैं
चंचल सी अवदात,
अनिल-निपीड़ित जा गिरती जो
कूलों पर अज्ञात;
हिम-शीतल अधरों से छूकर
तप्त कणों की प्यास,
बिखराती मंजुल मोती से
बुद्बुद में उल्लास,
देख तुम्हें निस्तब्ध निशा में
करते अनुसन्धान,
श्रांत तुम्हीं में सो जाते जा
जिसके बालक प्राण !
तम परिचित ऋतुराज मूक मैं
मधु-श्री कोमलगात,
अभिमंत्रित कर जिसे सुलाती
आ तुषार की रात;
पीत पल्लवों में सुन तेरी
पद्ध्वनि उठती जाग,
फूट फूट पड़ता किसलय मिस
चिरसंचित अनुराग;
मुखरित कर देता मानस-पिक
तेरा चितवन-प्रात;
छू मादक निःश्वास पुलक—
उठते रोओं से पात !
फूलों में मधु से लिखती जो
मधुघड़ियों के नाम,
भर देती प्रभात का अंचल
सौरभ से बिन दाम;
‘मधु जाता अलि’ जब कह जाती
आ संतप्त बयार,
मिल तुझमें उड़ जाता जिसका
जागृति का संसार !
स्वर लहरी मैं मधुर स्वप्न की
तुम निद्रा के तार,
जिसमें होता इस जीवन का
उपक्रम उपसंहार;
पलकों से पलकों पर उड़कर
तितली सी अम्लान,
निद्रित जग पर बुन देती जो
लय का एक वितान;
मानस-दोलों में सोती शिशु
इच्छाएँ अनजान,
उन्हें उड़ा देती नभ में दे
द्रुत पंखों का दान !
सुखदुख की मरकत-प्याली से
मधु-अतीत कर पान,
मादकता की आभा से छा
लेती तम के प्राण;
जिसकी साँसे छू हो जाता
छाया जग वपुमान,
शून्य निशा में भटके फिरते
सुधि के मधुर विहान;
इन्द्रधनुष के रंगो से भर
धुँधले चित्र अपार,
देती रहती चिर रहस्यमय
भावों को आकार !
जब अपना संगीत सुलाते
थक वीणा के तार,
धुल जाता उसका प्रभात के
कुहरे सा संसार !
फूलों पर नीरव रजनी के
शून्य पलों के भार,
पानी करते रहते जिसके
मोती के उपहार;
जब समीर-यानों पर उड़ते
मेघों के लघु बाल,
उनके पथ पर जो बुन देता
मृदु आभा के जाल;
जो रहता तम के मानस से
ज्यों पीड़ा का दाग,
आलोकित करता दीपक सा़
अन्तर्हित अनुराग।
जब प्रभात में मिट जाता
छाया का कारागार,
मिल दिन में असीम हो जाता
जिसका लघु आकार;
मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं
जैसे रश्मि प्रकाश;
मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न ज्यों
घन से तड़ित्-विलास;
मुझे बाँधने आते हो लघु
सीमा में चुपचाप,
कर पाओगे भिन्न कभी क्या
ज्वाला से उत्ताप ?
कौन तुम मेरे हृदय में?
कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित?
स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर
चूमने पदचिन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर?
कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
एक करुण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित;
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत;
पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या!
आज खो निज को मुझे
खोया मिला, विपरीत सा क्या?
क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन मधु-दिन के उदय में
कौन तुम मेरे हृदय में?
तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित?
सुन रही हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?
मूक सुख दुःख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार सा क्या?
झूम गर्वित स्वर्ग देता-
नत धरा को प्यार सा क्या?
आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
आ मेरी चिर मिलन-यामिनी !
तममयि ! घिर आ धीरे धीरे,
आज न सज अलकों में हीरे,
चौंका दे जग श्वास न सीरे,
हौले झरें शिथिल कबरी में-
गूंथे हरशरिंगार कामिनी !
हौले डाल पराग-बिछौने,
आज न दे कलियों को रोने,
दे चिर चंचल लहरें सोने,
जगा न निद्रित विश्व ढालने
विधु-प्याले से मधुर चाँदनी !
परिमल भर लावे नीरव घन,
गले न मृदु उर आँसू बन बन,
हो न करुण पी पी का क्रन्दन,
अलि, जुगनू के छिन्न हार को
पहिन न विहँसे चपल दामिनी !
अपलक हैं अलसाये लोचन,
मुक्ति बन गये मेरे बन्धन,
है अनन्त अब मेरा लघु क्षण,
रजनि ! न मेरी उर-कम्पन से
आज बजेगी विरह-रागिनी !
तम में हो चल छाया का क्षय,
सीमित को असीम में चिर लय,
एक हार में ही शत शत जय,
सजनि! विश्व का कण कण मुझको
आज कहेगा चिर सुहागिनी !
चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत्-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले?
पन्थ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर-गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
वज्र का उर एक छोटे अश्रुकण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया?
सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या नींद बनकर पास आया?
अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!
कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक् पतंग की है अमर की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!
कह दे माँ क्या अब देखूँ !
देखूँ खिलती कलियाँ या
प्यासे सूखे अधरों को,
तेरी चिर यौवन-सुषमा
या जर्जर जीवन देखूँ !
देखूँ हिम-हीरक हँसते
हिलते नीले कमलों पर,
या मुरझायी पलकों से
झरते आँसू-कण देखूँ!
सौरभ पी पी कर बहता
देखूं यह मन्द समीरण,
दुख की घूँटें पीती या
ठंडी साँसों को देखूँ !
खेलूं परागमय मधुमय
तेरी वसंत छाया में,
या झुलसे संतापों से
प्राणों का पतझर देखूँ !
मकरन्द-पगी केसर पर
जीती मधुपरियाँ ढूँढूं,
या उरपंजर में कण को
तरसे जीवनशुक देखूँ!
कलियों की घन-जाली में
छिपती देखूँ लतिकाएँ
या दुर्दिन के हाथों में
लज्जा की करूणा देखूँ !
बहलाऊँ नव किसलय के-
झूले में अलिशिशु तेरे,
पाषाणों में मसले या
फूलों से शैशव देखूँ!
तेरे असीम आंगन की
देखूँ जगमग दीवाली,
या इस निर्जन कोने के
बुझते दीपक को देखूँ !
देखूँ विहगों का कलरव
घुलता जल की कलकल में,
निस्पन्द पड़ी वीणा से
या बिखरे मानस देखूँ!
मृदु रजतरश्मियां देखूँ
उलझी निद्रा-पंखों में,
या निर्निमेष पलकों में
चिन्ता का अभिनय देखूँ!
तुझ में अम्लान हँसी है
इसमें अजस्र आंसू-जल,
तेरा वैभव देखूँ या
जीवन का क्रन्दन देखूँ
प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!
श्वासों में सपने कर गुम्फित,
बन्दनवार वेदना- चर्चित,
भर दुख से जीवन का घट नित,
मूक क्षणों में मधुर भरुंगी भारती!
दृग मेरे यह दीपक झिलमिल,
भर आँसू का स्नेह रहा ढुल,
सुधि तेरी अविराम रही जल,
पद-ध्वनि पर आलोक रहूँगी वारती!
यह लो प्रिय ! निधियोंमय जीवन,
जग की अक्षय स्मृतियों का धन,
सुख-सोना करुणा-हीरक-कण,
तुमसे जीता, आज तुम्हीं को हारती!
प्राणों के अन्तिम पाहुन!
चांदनी-धुला, अंजन सा, विद्युतमुस्कान बिछाता,
सुरभित समीर पंखों से उड़ जो नभ में घिर आता,
वह वारिद तुम आना बन!
ज्यों श्रान्त पथिक पर रजनी छाया सी आ मुस्काती,
भारी पलकों में धीरे निद्रा का मधु ढुलकाती,
त्यों करना बेसुध जीवन!
अज्ञातलोक से छिप छिप ज्यों उतर रश्मियां आती,
मधु पीकर प्यास बुझाने फूलों के उर खुलवातीं,
छिप आना तुम छायातन!
कितनी करुणाओं का मधु कितनी सुषमा की लाली,
पुतली में छान धरी है मैने जीवन की प्याली,
पी कर लेना शीतल मन!
हिम से जड़ नीला अपना निस्पन्द हृदय ले आना,
मेरा जीवनदीपक धर उसको सस्पन्द बनाना,
हिम होने देना यह मन!
कितने युग बीत गए इन निधियों का करते संचय,
तुम थोड़े से आँसू दे इन सबको कर लेना क्रय,
अब हो व्यापार-विसर्जन!
है अन्तहीन लय यह जग पल पल है मधुमय कम्पन,
तुम इसकी स्वरलहरी में धोना अपने श्रम के कण,
मधु से भरना सूनापन!
पाहुन से आते जाते कितने सुख के दुख के दल,
वे जीवन के क्षण क्षण में भरते असीम कोलाहल,
तुम बन आना नीरव क्षण!
तेरी छाया में दिव को हँसता है गर्वीला जग,
तू एक अतिथि जिसका पथ है देख रहे अगणित दृग,
सांसों में घड़ियाँ गिन गिन।