Harivansh Rai Bachchan
सर्वथा ही
यह उचित है
औ’ हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध
चिर-वीरप्रसविनी,
स्वाभिमानी भूमि से
सर्वदा प्रत्याशित यही है,
जब हमें कोई चुनौती दे,
हमें कोई प्रचारे,
तब कड़क
हिमश्रृंग से आसिंधु
यह उठ पड़े,
हुन्कारे–
कि धरती कँपे,
अम्बर में दिखाई दें दरारें।
शब्द ही के
बीच में दिन-रात बसता हुआ
उनकी शक्ति से, सामर्थ्य से–
अक्षर–
अपरिचित मैं नहीं हूँ।
किन्तु, सुन लो,
शब्द की भी,
जिस तरह संसार में हर एक की,
कमज़ोरियाँ, मजबूरियाँ हैं–
शब्द सबलों की
सफल तलवार हैं तो
शब्द निर्बलों की
पुंसक ढाल भी हैं।
साथ ही यह भी समझ लो,
जीभ को जब-जब
भुजा का एवज़ी माना गया है,
कण्ठ से गाया गया है
और ऐसा अजदहा जब सामने हो
कान ही जिसके न हों तो
गीत गाना–
हो भले ही वीर रस का वह तराना–
गरजना, नारा लगाना,
शक्ति अपनी क्षीण करना,
दम घटाना।
बड़ी मोटी खाल से
उसकी सकल काया ढकी है।
सिर्फ भाषा एक
जो वह समझता है
सबल हाथों की
करारी चोट की है।
ओ हमारे
वज्र-दुर्दम देश के,
विक्षुब्ध-क्रोधातुर
जवानो !
किटकिटाकर
आज अपने वज्र के-से
दाँत भींचो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो;
ऊपर चढ़ो,
बे-कण्ठ खोले।
बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दी चोट बोले !
बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ...
खलों की (अ) स्तुति
हमारे पूर्वजन करते रहे हैं,
और मुझको आज लगता,
ठीक ही करते रहे हैं;
क्योंकि खल,
अपनी तरफ से करे खलता,
रहे टेढ़ी,
छल भरी,
विश्वासघाती चाल चलता,
सभ्यता के मूल्य,
मर्यादा,
नियम को
क्रूर पाँवों से कुचलता;
वह विपक्षी को सदा आगाह करता,
चेतना उसकी जगाता,
नींद, तंद्रा, भ्रम भगाता
शत्रु अपना खड़ा करता,
और वह तगड़ा-कड़ा यदि पड़ा
तो तैयार अपनी मौत की भी राह करता।
आज मेरे देश की
गिरि-श्रृंग उन्नत,
हिम-समुज्ज्वल,
तपःपावन भूमि पर
जो अज़दहा
आकर खड़ा है,
वंदना उसकी
बड़े सद्भाव से मैं कर रहा हूँ;
क्योंकि अपने आप में जो हो,
हमारे लिए तो वह
ऐतिहासिक,
मार्मिक संकेत है,
चेतावनी है।
और उसने
कम नहीं चेतना
मेरे देश की छेड़ी, जगाई।
पंचशीली पँचतही ओढ़े रज़ाई,
आत्मतोषी डास तोषक,
सब्ज़बागी, स्वप्नदर्शी
योजना का गुलगुला तकिया लगाकर,
चिर-पुरातन मान्यताओं को
कलेजे से सटाए,
देश मेरा सो रहा था,
बेखबर उससे कि जो
उसके सिरहाने हो रहा था।
तोप के स्वर में गरजकर,
प्रध्वनित कर घाटियों का
स्तब्ध अंतर,
नींद आसुर अजदहे ने तोड़ दी,
तंद्रा भगा दी।
देश भगा दी।
देश मेरा उठ पड़ा है,
स्वप्न झूठा पलक-पुतली से झड़ा है,
आँख फाड़े घूरता है
घृण्य, नग्न यथार्थ को
जो सामने आकर खड़ा है।
प्रांत, भाषा धर्म अर्थ-स्वार्थ का
जो वात रोग लगा हुआ था–
अंग जिससे अंग से बिलगा हुआ था...
एक उसका है लगा धक्का
कि वह गायब हुआ-सा लग रहा है,
हो रहा है प्रकट
मेरे देश का अब रूप सच्चा !
अज़दहे, हम किस क़दर तुझको सराहें,
दाहिना ही सिद्ध तू हमको हुआ है
गो कि चलता रहा बाएँ।
अगर दुश्मन
खींचकर तलवार
करता वार
उससे नित्य प्रत्याशित यही है
चाहिए इसके लिए तैयार रहना;
यदि अपरिचित-अजनबी
कर खड्ग ले
आगे खड़ा हो जाए,
अचरज बड़ा होगा,
कम कठिन होगा नहीं उससे सँभालना;
किन्तु युग-युग मीत अपना,
जो कि भाई की दुहाई दे
दिशाएँ हो गुँजाता,
शीलवान जहान भर को हो जानता,
पीठ में सहसा छुरा यदि भोंकता,
परिताप से, विक्षोभ से, आक्रोश से,
आत्मा तड़पती,
नीति धुनती शीश
छाती पीट मर्यादा बिलखती,
विश्व मानस के लिए संभव न होता
इस तरह का पाशविक आघात सहना;
शाप इससे भी बड़ा है शत्रु का प्रच्छन्न रहना।
यह नहीं आघात, रावण का उघरना;
राम-रावण की कथा की
आज पुनरावृति हुई है।
हो दशानन कलियुगी,
त्रेतायुगी,
छल-छद्म ही आधार उसके-
बने भाई या भिखारी,
जिस किसी भी रूप में मारीच को ले साथ आए
कई उस मक्कार के हैं रूप दुनिया में बनाए।
आज रावण दक्षिणापथ नहीं,
उत्तर से उत्तर
हर ले गया है,
नहीं सीता, किन्तु शीता-
शीत हिममंडित
शिखर की रेख-माला से
सुरक्षित, शांत, निर्मल घाटियों को
स्तब्ध करके,
दग्ध करके,
उन्हें अपनी दानवी
गुरु गर्जना की बिजलियों से।
और इस सीता-हरण में,
नहीं केवल एक
समरोन्मुख सहस्त्रों लौह-काय जटायु
घायल मरे
अपने शौर्य-शोणित की कहानी
श्वेत हिमगिरि की
शिलाओं पर
अमिट
लिखते गए हैं।
इसलिए फिर आज
सूरज-चाँद
पृथ्वी, पवन को, आकाश को
साखी बताकर
तुम करो
संक्षिप्त
पर गंभीर, दृढ़
भीष्म-प्रतिज्ञा
देश जन-गण-मन समाए राम!-
अक्षत आन,
अक्षत प्राण,
अक्षत काय,
'जो मैं राम तो कुल सहित कहहिं दशानन आय!'
दग्ध होना ही
अगर इस आग में है
व्यर्थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना
व्यर्थ बावेला मचाना।
पूछ अपने आप से
उत्तर मुझे दो,
अग्नियुत हो?
बग्नियुत हो?
आग अलिंगन करे
यदि आग को
किसलिए झिझके?
चाहिए उसको भुजा भर
और भभके!
और अग्नि
निरग्नि को यदि
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो सौभाग्य रेखा जगमगाई-
आग जाकर लौट आई!
किन्तु शायद तुम कहोगे
आग आधे,
और आधे भाग पानी।
तुम पवभाजन की, द्विधा की,
डरी अपने आप से,
ठहरी हुई-सी हो कहानी।
आग से ही नहीं
पानी से डरोगे,
दूर भागोगे,
करोगे दीन क्रंदन,
पूर्व मरने के
हजार बार मरोगे।
क्यों कि जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह बिभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।
वे झंडों से सजी राजधानी के अन्दर
बैण्ड बजाकर बतलाते हैं--
ये सेना के नौजवान हैं
जो दुश्मन के मुकाबले में
नहीं टिक सके-
ये बन्दूकें, जिनके घोड़े
अरि की बन्दूकों की गोली की वर्षा में
नहीं दब सके:
ये ट्रक-टैंक, चढ़ाई पाकर
कांख-कांखकर बैठ गए जो;
औ' ये तोपें, जो मुंह बाए खड़ी रह गईं,
शत्रु सैकड़ों मील देश की
सीमा के अन्दर घुस आया;
और अन्त में ये जहाज़ हैं ।
ऊपर के साखी
नीचे के सैन्य-व्यूह-विघटन-मर्दन के !
और हार की
धरती में धँस जानेवाली लाज भुलाए
एक बेहया, बेग़ैरत, बेशर्म जाति के
लाखों मर्द, औरतें, बच्चे
रंग-बिरंगी पोशाकों में
राजमार्ग पर भीड़ लगाकर,
उन्हें देखकर शोर मचाकर,
अपनी खुशियाँ ज़ाहिर करते !
शब्द हमारे आहें भरते !
वे हमें पद-दलित करके चले गए,
वे हमें मान-मर्दित करके चले गए,
वे हमें कलंकित करके चले गए,
वे हमारे नाम, हमारी साख को
खाक में मिलाकर चले गए,
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अपनी नसों के अन्तिम स्पन्दन तक,
अपनी छाती की अन्तिम धड़कन तक,
अपनी चौकी पर डटे रहकर,
सारे देश के अपमान,
सारी जाति की लज्जा का मूल्य चुकाया ।
चाल काल की
कितनी तेज़ कभी होती है ।
अभी प्रात ही तो हमने प्रस्थान किया था
और दोपहर आते-आते
जैसे हम युग एक पार कर खड़े हुए हैं!
असमान का रंग,
धरा का रूप
अचानक बदल गया है ।
वह पर्वत जो साथ हमारे चलता-सा था
ओझल सहसा,
देवदार-बन झाड़ी-झुरमुट में परिवर्तित,
धूलि-धुंध में खोई-खोई हुई दिशाएँ
रुकी हवाएँ.
सारा वातावरण
अनिश्चय, आश्चर्य, आशंका विजड़ित ।
स्पष्ट परिस्थिति ।
फूट पड़ा कोलाहल-क्रंन्दन,
आंख-आंख में विगलित जल-कण,
जन-जन विचलित, व्याकुल, निर्धन ।
क्या न पकड़ना सम्भव होगा कुछ बीते क्षण?
सहज नहीं मन मान सकेगा-
यह युग की इति !
यह युग की इति !
राह रोक कर काल खड़ा है--
'ओ मानव नादान, बता तो
पीछे किसका कदम पड़ा है!'
किन्तु कल्पना, विह्वल, पागल,
कालचक्र को बारम्बार उलटकर कितने
विगत क्षणों को फिर-फिर जीती,
प्यासी रहती, प्यासी रहती, प्यासी रहती,
मृगजल पीती !
सुना कि
गंगा और जमुना के संगम पर
एक गुलाब का फूल खिला है ।
सुना कि
उसे देखने को-देखने भर को-
तोड़ने की बात ही नहीं उठती-
मुहल्ले-मुहल्ले से,
घर-घर से;
लोग जाते हैं-
सभ्य, शौकीन, सफेदपोश, शहराती
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इनको गुलाब ने,
दुर्निवार पुकारा है,
खींचा है,
क्योंकि वह कभी तो उगा है,
पंखुरियों में फूटा है, फूला है, जगा है,
जब इनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी के
दर्द ने, दुख ने,
आँसू औ' पसीने की बूंद ने, धार ने,
रक्त ने सींचा है ।
खून ने खून को पुकारा है;
मिट्टी और फूल में अटूट भाई-चारा है ।
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)