Harivansh Rai Bachchan हरिवंशराय बच्चन
जन्म : 27 नवंबर 1907, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आत्मकथा
(१)
क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।
प्राची के वातायन पर चढ़
प्रात किरन ने गाया,
लहर-लहर ने ली अँगड़ाई
बंद कमल खिल आया,
मेरी मुस्कानों से मेरा
मुख न हुआ उजियाला,
आशा के मैं क्या तुमको राग सुनाऊँ।
क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।
(२)
पकी बाल, बिकसे सुमनों से
लिपटी शबनम सोती,
धरती का यह गीत, निछावर
जिसपर हीरा-मोती,
सरस बनाना था जिनको वे;
हाय, गए कर गीले,
कैसे आँसू से भीगे साज बजाऊँ ।
क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।
(३)
सौरभ के बोझे से अपनी
चाल समीरण साधे,
कुछ न कहो इस वक्त उसे,वह
स्वर्ग उठाए काँधे,
बँधी हुई मेरी कुछ साँसों
से भी मीठी सुधियाँ,
जो बीत चुकी क्या उसकी याद दिलाऊँ ।
क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।
(४)
भरा-पुरा जो रहा जगत में
उसने ही मुंह खोला,
एक अभावों की घड़ियों में
भाव-भरा मैं बोला,
इसीलिए जब गाता हूँ में
मौन प्रकृति हो जाती,
लौकिक सुख चाहे दैवी पीर जगाऊँ ।
क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।
(१)
भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।
बोल उठी है मेरे स्वर में
तेरी कौन कहानी,
कौन जगी मेरी ध्वनियों में
तेरी पीर पुरानी,
अंगों में रोमांच हुआ, क्यों
कोर नयन के भीगे,
भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।
(२)
मैंने अपना आधा जीवन
गाकर गीत गँवाया,
शब्दों का उत्साह पदों ने
मेरे बहुत कमाया,
मोती की लड़ियाँ तो केवल
तूने इनपर वारीं,
निर्धन की झोली आज गई भर पूरी।
भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।
(३)
क्षणभंगुर होता है जग में
यह रागों का नाता,
सुखी वही है जो बीती को
चलता है बिसराता,
और दुखी है पूर्ति ढूंढता
जो अपनी साधों की,
रह जाती हैं जो उर के बीच अधूरी।
भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।
(४)
गूँजेगा तेरे कानों में
मेरा गीत नशीला,
झूलेगा मेरी आँखों में
तेरा रूप रसीला,
मन सुधियों के स्वप्न बुनेंगे
लेकिन सच तो यह है,
दोनों में होगी सौ दुनिया की दूरी।
भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।
(१)
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
बंद किवाड़े कर-कर सोए
सब नगरी के बासी,
वक्त तुम्हारे आने का यह
मेरे राग विलासी,
आहट भी प्रतिध्वनित तुम्हारी
इस पर होती आई,
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
(२)
इसके गुण-अवगुण बतलाऊँ?
क्या तुमसे अनजाना?
मिला मुझे है इसके कारण
गली-गली का ताना,
लेकिन बुरी-भली, जैसी भी,
है यह देन तुम्हारी,
मैंने तो सेई एक तुम्हारी थाती।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
(३)
तुम पैरों से ठुकरा देते
यह बलि-बलि हो जाती,
कहाँ तुम्हारी छाती की भी
धड़कन यह सुन पाती,
और चुकी है चूम उँगलियाँ
मधु बरसानेवाली, अचरज क्या इतनी आज बनी मदमाती ।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
(४)
मेरी उर-वीणा पर चाहो
जो तुम तान सँवारो,
उसके जिन भावीं-भेदों को
तुम चाहो उद्गारो,
जिस परदे को चाहो खोलो,
जिसको चाहो मूँदो,
यह आज नहीं है दुनिया से शरमाती।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
(१)
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।
मैंने तो हर तार तुम्हारे
हाथों में, प्रिय, सौंप दिया है
काल बताएगा यह मैंने
ग़लत किया या ठीक किया है
मेरा भाग समाप्त मगर
आरंभ तुम्हारा अब होता है,
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।
(२)
जगती के जय-जयकारों की
किस दिन मुझको चाह रही है,
दुनिया के हँसने की मुझको
रत्ती भर परवाह नहीं है,
लेकिन हर संकेत तुम्हारा
मुझे मरण, जीवन, कुछ दोनों
से भी ऊपर, तुम तो मेरी त्रुटियों पर इस भाँति हँसो ना।
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।
(३)
मैं हूँ कौन कि धरती मेरी
भूलों का इतिहास बनाए,
पर मुझको तो याद कि मेरी
किन-किन कमियों को बिसराए
वह बैठी है, और इसीसे
सोते और जागते बख्शा
कभी नहीं मैने अपने को, आज मुझे तुम भी बख्शो ना ।
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।
(४)
तुमपर भी आरोप कि मेरी
झंकारों में आग नहीं है,
जिसको छू जग चमक न उठता
वह कुछ हो, अनुराग नहीं है,
तुमने मुझे छुआ, छेड़ा भी
और दूर के दूर रहे भी,
उर के बीच बसे हो मेरे सुर के भी तो बीच बसो ना ।
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।
(१)
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|
बीत गया युग एक तुम्हारे
मंदिर की डयोढ़ी पर गाते,
पर अंतर के तार बहुत-से,
शब्द नहीं झंकृत कर पाते,
एक गीत का अंत दूसरे
का आरंभ हुआ करता है,
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|
(२)
अपने मन को ज़ाहिर करने
का दुनिया में बहुत बहाना,
किंतु किसी में माहिर होना,
हाय, न मैंने अब तक जाना,
जब-जब मेरे उर में, सुर में
द्वंद हुआ है, मैंने देखा,
उर विजयी होता, सुर के सिर हार मढ़ी ही रह जाती है।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|
(३)
भाषा के उपरकण करेंगे
व्यक्त न मेरी आश-निराशा,
सोच बहुत दिन तक मैं बैठा
मन को मारे, मौन बनाम,
लेकिन तब थी मेरी हालत
उस पगलाई-सी बदली की,
बिन बरसे-बरसाए नभ में जो उमड़ी ही रह जाती है ।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|
(४)
चुप न हुआ जाता है मुझसे
और न मुझसे गाया जाता,
धोखे में रखकर अपने को
और नहीं बहलाया जाता,
शूल निकलने-सा सुख होता
गान उठाता जब अंबर में,
लेकिन दिल के अंदर कोई फाँस गड़ी ही रह जाती है ।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढी ही रह जाती है ।
(१)
बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|
लग रहा जैसे कि मुझसे
है सकल संसार रूठा,
लग रहा जैसे कि सबकी
प्रीति झूठी, प्यार झूठा,
और मुझ-सा दीन, मुझ-सा
हीन कोई भी नहीं है,
बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|
(२)
दोष, दूषण, दाग़ अपने
देखने जब से लगा हूँ,
जानता हूँ मैं किसी का
हो नहीं सकता सगा हूँ,
और कोई क्यों बने मेरा,
करे परवाह मेरी,
तू मुझे क्या सोच अपनाती रही, अपना रही है?
बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|
(३)
हो अगर कोई न सुनने
को; न अपने आप गाऊँ?
पुण्य की मुझमें कमी है,
तो न अपने पाप गाऊँ ?
और गाया पाप ही तो
पुण्य का पहला चरण है,
मौन जगती किन कलंकों को छिपाती आ रही है|
बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|
(४)
था मुझे छूना कि तूने
भर दिया झंकार से घर,
और मेरी सांस को भी
साथ स्वर के लग चले पर,
अब अवनि छू लूँ, गगन छू लूँ,
कि सातों स्वर्ग छू लूँ,
सन सरल मुझको कि मेरे साथ जो तू गा रहीं है ।
बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)