Post date: Feb 19, 2018 11:30:43 AM
अंगुलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रो के बहुत देर हँसाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे मुझसे बहुत दूर गई
वो ग़ज़ल मैंने बड़े शौक से गाया था जिसे
मुझसे नाराज़ है इक शख़्स का नकली चेहरा
धूप में आइना इक रोज़ दिखाया था जिसे
अब बड़ा हो के मेरे सर पे चढ़ा आता है
अपने काँधे पे कुँअर हँस के बिठाया था जिसे