Harivansh Rai Bachchan हरिवंशराय बच्चन
जन्म : 27 नवंबर 1907, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आत्मकथा
ओ, उज्जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
तुम विक्रम नवरत्नों में थे,
यह इतिहास पुराना,
पर अपने सच्चे राजा को
अब जग ने पहचाना,
तुम थे वह आदित्य, नवग्रह
जिसके देते थे फेरे,
तुमसे लज्जित शत विक्रम के सिंहासन ।
ओ, उज्जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
तुम किस जादू के बिरवे
से वह लड़की काटी,
छूकर जिको गुण-स्वभाव तज
काल, नियम, परिपाटी,
बोली प्रकृति, जगे मृत-मूर्च्छित
रघु-पुरु वंश पुरातन,
गंधर्व, अप्सरा, यक्ष, यक्षिणी, सुरगण ।
ओ, उज्जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
सूत्रधार, हे चिर उदार,
दे सबके मुख में भाषा,
तुमने कहा, कहो जब अपने
सुख, दुख,संशय, आशा;
पर अवनी से, अंतरिक्ष से,
अम्बर, अमरपुरी से
सब लगे तुम्हारा ही करने अभिनंदन ।
ओ, उज्जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
बहु वरदामयी वाणी के
कृपस-पात्र बहुतेरे,
देख तुम्हें ही, पर, वह बोली,
'कालीदास तुम मेरे';
दिया किसी को ध्यान, धैर्य,
करुणा, ममता, आश्वासन;
किया तुम्ही को उसने अपना
यौवन पूर्ण समर्पण;
तुम कवियों की ईर्ष्या के विषय चिरंतन ।
ओ, उज्जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्हारा ।
पर्वत पर पद रखने वाला
मैं अपने क़द का अभिमानी,
मगर तुम्हारी कृति के आगे
मैं ठिगना, बौना, बे-बानी
बुत बनकर निस्तेज खड़ा हूँ ।
अनुगुंजिन हर एक दिशा से,
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्हारा ।
धधक रही थी कौन तुम्हारी
चौड़ी छाती में वह ज्वाला,
जिससे ठोस-कड़े पत्थर को
मोम गला तुमने कर डाला,
और दिए कर आकार, किया श्रृंगार,
नीति जिनपर चुप साधे,
किंतु बोलता खुलकर जिनसे शक्ति-सुरुचमय प्राण तुम्हारा ।
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्हारा ।
एक लपट उस ज्वाला की जो
मेरे अंतर में उठ पाती,
तो मेरे भी दग्ध गिरा कुछ
अंगारों के गीत सुनाती,
जिनसे ठंडे हो बैठे हो दिल
गर्माते, गलते, अपने को
कब कर पाऊँगा अधिकरी, पाने का, वरदान तुम्हारा ।
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्हारा ।
मैं जीवित हूँ मेरे अंदर
जीवन की उद्दम पिपासा,
जड़ मुर्दों के हेतु नहीं है
मेरे मन में मोह जरा-सा,
पर उस युग में होता जिसमें
ली तुमने छेनी-टाँकी तो
एक माँगता वर विधि से, कर दे मुझको पाषाण तुम्हारा ।
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्हारा ।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!
तुम भजन गाते, अँधेरे को भागाते
रासते से थे गुज़रते,
औ' तुम्हारे एकतारे या संरंगी
के मधुर सुर थे उतरते
कान में, फिर प्राण में, फिर व्यापते थे
देह की अनगिन शिरा में;
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!
औ' सरंगी-साधु से मैं पूछता था,
क्या इसे तुम हो खिलाते?
'ई हमार करेज खाथै, मोर बचवा,'
खाँसकर वे बताते,
और मैं मारे हँसी के लोटता था,
सोचकर उठता सिहर अब,
तब न थी संगीत-कविता से, कला से, प्रीति से मेरी चिन्हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!
बैठ जाते औ' सुनाते गीत गोपी-
चंद, राजा भरथरी का,
राम का वनवास, ब्रज का रास लीला,
व्याह शंकर-शंकरी का,
औ' तुम्हारी धुन पकड़कर कल्पना के
लोक में मैं घूमता था,
सोचता था, मैं बड़ा होकर बनूँगा बस इसी पथ का पुजारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!
खोल झोली एक चुटकी दाल-आटा
दान में तुमने लिया था,
क्या तुम्हें मालूम जो वरदान
गान का मुझको दिया था;
लय तुम्हारी, स्वर तुम्हारे, शब्द मेरी
पंक्ति में गूँजा किया हैं,
और खाली हो चुकीं, सड़-गल चुकीं वे झोलियाँ कब तुम्हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!
श्यामा रानी थी पड़ी रोग की शय्या पर,
दो सौ सोलह दिन कठिन कष्ट में थे बीते,
संघर्ष मौत से बचने और बचाने का
था छिड़ा हुआ, या हम जीतें या वह जीते।
सहसा मुझको यह लगा, हार उसने मानी,
तन डाल दिया ढीला, आँखों से अश्रु बहे,
बोली, 'मुझपर कोई ऐसी रचना करना,
जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।'
मैं चौक पड़ा, ये शब्द इस तरह के थे जो
बैठते न थे उसके चरित्र के ढाँचे में,
वह बनी हुई थी और तरह की मिट्टी से,
वह ढली हुई थी और तरह की साँचे में,
जिसमें दुनिया के प्रति अनंत आकर्षण था,
जिसमें जीवन के प्रति असीम पिपासा थी,
जिसमें अपनी लघुता की वह व्यापकता थी,
यश, नाम, याद की रंच नहीं अभिलाषा थी।
क्या निकट मृत्यु के आ मनुष्य बदला करता
चट मैंने उनकी आँखों में आँखें डालीं,
वे झुठ नहीं पल भर पलकों में छिपा सकीं,
वे बोल उठी सच, थीं इतनी भोली-भाली।
'जब मैं न रहूँगी तब घड़ियों का सूनापन,
खालीपन तुम्हें डराएगा, खा जाएगा,
मेरा कहना करने में तुम लग जाओगे,
तो वह विधुरा घड़ियों का मन बहलाएगा।'
मैं बहुत दिनों से ऐसा सुनता आता हूँ,
जो ताज आगरा के जमुना के तट पर है,
मुमताज़महल के तन-मन के मोहकता के
प्रति शाहजहाँका प्रीति-प्रतीक मनोहर है।
मुमताज़ आख़िरी साँसों से यह बोली थी,
'मेरी समाधी पर ऐसी रौज़ा बनवाना,
जैसा न कहीं दुनिया में हो, जैसा न कभी
संभव हो पाए फिर दुनिया में बन पाना।'
मुमताज़महल जब चली गई तब शाहजहाँ
की सूनी, खाली, काली, कतार घड़ियों को,
यह ताजमहल ही बहलाता था, सहलाता था,
जोड़ा करता था सुधि की टूटी लड़ियों को।
मुमताज़महल भी नहीं नाम की भूखी थी,
आख़िरी नज़र से शाहजहाँ की ओर देख,
वह समझ गई थी जो रहस्य संकेतों से
बतलाती थी उसके माथे पर पड़ी रेख।
वह काँप उठी, अपनी अंतिम इच्छा कहकर
वह विदा हुई औ' शाहजहाँ का ध्यान लगा,
उन अशुभ इरादों से हटकर उन सपनों में
जो अपने अस्फुठ शब्दों से वह गई जगा।
यह ताज शाह का प्रेम-प्रतीक नहीं इतना
जितना मुमताजमहल के कोमल भावों का,
जो जीकर शीतल सीकर बनता तपों पर,
जो मरकर सुखकर मरहम बनता घावों का!
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
पाप हो या पुण्य हो, मैंने किया है
आज तक कुछ भी नहींआधे हृदय से,
औ' न आधी हार से मानी पराजय
औ' न की तसकीन ही आधी विजय से;
आज मैं संपूर्ण अपने को उठाकर
अवतरित ध्वनि-शब्द में करने चला हूँ,
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
और है क्या खास मुझमें जो कि अपने
आपको साकार करना चाहता हूँ,
ख़ास यह है, सब तरह की ख़ासियत से
आज मैं इन्कार करना चाहता हूँ;
हूँ न सोना, हूँ न चाँदी, हूँ न मूँगा,
हूँ न माणिक, हूँ न मोती, हूँ न हीरा,
किंतु मैं आह्वान करने जा रहा हूँ देवता का एक मिट्टी के डले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
और मेरे देवता भी वे नहीं हैं
जो कि ऊँचे स्वर्ग में हैं वास करते,
और जो अपने महत्ता छोड़, सत्ता
में किसी का भी नहीं विश्वास करते;
देवता मेरे वही हैं जो कि जीवन
में पड़े संघर्ष करते, गीत गाते,
मुसकराते और जो छाती बढ़ाते एक होने के लिए हर दिलजले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
छप चुके मेरी किताबें पूरबी औ'
पच्छिमी-दोनों तरह के अक्षरों में,
औ' सुने भी जा चुके हैं भाव मेरे
देश औ' परदेश-दोनों के स्वरों में,
पर खुशी से नाचने का पाँव मेरे
उस समय तक हैं नहीं तैयार जबतक,
गीत अपना मैं नहीं सुनता किसी गंगोजमन के तीर फिरते बावलों से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
सख़्त पंजा, नस-कसी चौड़ी कलाई
और बल्लेदार बाहें,
और आँखें लाल चिनगारी सरीख़ी,
चुस्त औ' सीखी निगाहें,
हाथ में घन और दो लोहे निहाई
पर धरे तो, देखता क्या;
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
भीग उठता है, पसीने से नहाता
एक से जो जूझता है,
ज़ोम में तुझको जवानी के न जाने
ख़ब्त क्या-क्या सूझता है,
या किसी नभ-देवता ने ध्येय से कुछ
फेर दी यों बुद्धि तेरी,
कुछ बड़ा तुझको बनना है कि तेरा इम्तहाँ होता कड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
एक गज़ छाती मगर सौ गज़ बराबर
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिए जो कुछ तजुर्बे-
कार लोगों ने कही है;
स्वप्न से लड़स्वप्न की ही शक्ल में हैं
लौह के टुकड़े बदलते,
लौह-सा सा वह ठोस बनकर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
धन-हथौड़े और तौले हाथ की दे
चोट अब तलवार गढ़ तू,
और है किस चीज़ की तुझसे भविष्यत
माँग करता, आज पढ़ तू,
औ' अमित संतानको अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर,
वह अजित संसार में है श्ब्द का खर खड्ग लेकर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
जब मुझे इंसान का चोला मिला है,
भार को स्वीकार करनर शान मेरी,
रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,
सख़्त पिंडी औ' कसी है रान मेरी,
किंतु दिल कोमल मिला है, क्या करूँ मैं,
देख छाया कशमकश में पड़ गया हूँ, सोचता हूँ,
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
कौन-सी ज्वाला हृदय में जल रही है
जो हरी पूर्वा-दरी मन मोहती है,
किस उपेक्षा को भुलने के लिए हर
फून-कलिका बाट मेरी जोहती है,
किसलयों पर सोहती हैं किसलिए बूँदें
कि अपने आँसुओं को देखकर मैं मुसकराऊँ,
क्या लताएँ इसलिए ही झुक गई हैं,
हाथ इनका थमकर मैं बैठ जाऊँ?
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
किंतु कैसे भूल जाऊँ सामने यह
भार बन साकार देती है चुनौती,
जिस तरह का और जिस तादाद में है,
मैं समझता हूँ इसे अपनी बपौती।
फ़र्ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम
टूट जाए, छोड़ना मज़बूत कंधों, पंजरों पर;
जो मुझे पुरु़षत्व पुरखों से मिला है,
सौ मुझे धिक्कार, जो उसको लजाऊँ।
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों
जो पड़े राग अपना मिनमिनाते,
गीत गाने के लिए जो जी रहे हैं-
काश जीने के लिए वे गीत गाते-
और वे पशु, जो कि परबस मौन रहकर
बोझ ढोते, नित्य मेरे कंठ में स्वर, भार सिरपर
हो कि जिससे गीत में मैं भार-हल्का,
भार से संगीत को भारी बनाऊँ।
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
पूर्णिमा का चाँद अंबर पर चढ़ा है,
तारकावली खो गई है,
चाँदनी में वह सफ़ेदी है कि जैसे
धूप ठंडी हो गई है;
नेत्र-निद्रा में मिलन की वीथियों में
चाहिए कुछ-कुछ अँधेरा;
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
नीड़ अपने छोड़ बैठे डाल पर कुछ
और मँडलाते हुए कुछ,
पंख फड़काते हुए कुछ, चहचहाते,
बोल दुहराते हुए कुछ,
'चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में,
गीत किसका है? सुनाओ!
मौन इस मधुयामिनी में हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
इस तरह की रात अंबर कि अजिर में
रोज़ तो आती नहीं है,
चाँद के ऊपर जवानी इस तरह की
रोज़ तो छाती नहीं है,
हम कभी होंगे अलग औ' साथ होर
भी कभी, होगी तबीयत,
यह विरल अवसर विसुधि में खो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
ये बिचारे तो समझते हैं कि जैसे
यह सवेरा हो गया है,
प्रकृति के नियमावली में क्या अचानक
हेर-फेरा हो गया है;
और जो हम सब समझते हैं कहाँ इस
ज्योति का जादू समझते,
मुक्त जिसके बंधनों से हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
डाल प्रलोभन में अपना मन
सहल फिसल नीचे को जाना,
कुछ हिम्मत का काम समझते
पाँव पतन की ओर बढ़ाना;
झुके वहीं जिस थल झुकने में
ऊपर को उठना पड़ता है;
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
काँटों से जो डरने वाले
मत कलियों से जो नेह लगाएँ,
घाव नहीं है जिन हाथों में,
उनमें किस दिन फूल सुहाए,
नंगी तलवारों की छाया
में सुंदरता विहरण करती,
और किसी ने पाई हो पर कभी पाई नहीं है भय ने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
बिजली से अनुराग जिसे हो
उठकर आसमान को नापे,
आग चले आलिंगन करने,
तब क्या भाप-धुएँ से काँपे,
साफ़, उजाले वाले, रक्षित
पंथ मरों के कंदर के हैं;
जिन पर ख़तरे-जान नहीं था, छोड़ कभी दीं राहें मैंने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
बूँद पड़ी वर्षा की चूहे
और छछूँदर बिल में भागे,
देख नहीं पाते वे कुछ भी
जड़-पामर प्राणों के आगे;
घन से होर लगाने को तन-
मोह छोड़ निर्मम अंबर में
वज्र-प्रहार सहन करते हैं वैनतेय के पैने डैने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
जब कहा है कि मैंने यह शुक्र जो
वेला विदा की पास आई,
कुछ तअज्जुब, कुछ उदासी, कुछ शरारत
से भरी तुम मुसकराई,
वक्त के डैने चले, तुम हो वहाँ, मैं
हूँ यहाँ, पर देखता हूँ,
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का निर्माण होता!
स्वप्न का वातावरण हर चीज़ के
चारों तरु़ मानव बनाता,
लाख कविता से, कला से पुष्ट करता,
अंत में वह टूट जाता,
सत्य की हर शक्ल खुलकर आँख के
अंदर निराशा झोंकती है,
और वह धुलती नहीं है ज्ञान-जल से,
दर्शनों से, मरमिटे इंसान धोता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
शीर्ष आसान से रुधीर की चाल रोकी,
पर समय की गति न थमती।
औ' ख़िज़ाबोरंग-रोग़न पर जवानी
है न ज्यादा दिन बिलमती,
सिद्ध यह करते हुए हुए अगिनती
द्वार खोलो और देखो,
और इस दयनीय-मुख के काफ़ले में
जो न होता सुबह को, वह शाम होता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
एक दिन है, जब तुम्हारे कुंतलों से
नागिनें लहरा रही हैं,
और मेरे तनतनाई बीन से ध्वनि-
राग की धारा बही है,
और तुम जो बोलती हो, बोलता मैं,
गीत उसपर शीश धुनता,
और इस संगीत-प्रीति समुद्र-जल में
काल जैसा छिप गया है मार गोता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
और यह तस्वीर कैसी,नागिने सब
केंचुलें का रूप धरतीं,
औ' हमें जब घेरता है मौन उसको
सिर्फ खाँसी भंग करती,
औ' घरेलू कर्ण-कटु झगड़े-बखेड़ों
को पड़ोसी सुन रहे हैं,
और बेटों ने नहीं है खर्च भेजा,
और हमको मुँह चिढ़ाता ढभ्ठ पोता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)