करि कै जु सिंगार अटारी चढी, मनि लालन सों हियरा लहक्यो।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइ कै, बास चँ दिसि को महक्यो॥
कर तें इक कंकन छूटि परयो, सिढियाँ सिढियाँ सिढियाँ बहक्यो।
कवि 'गंग भनै इक शब्द भयो, ठननं ठननं ठननं ठहक्यो॥
फूट गये हीरा की बिकानी कनी हाट हाट / गँग
चकित भँवरि रहि गयो / गँग
बैठी थी सखिन संग / गँग
हहर हवेली सुनि सटक समरकंदी / गँग
एक बुरो प्रेम को पंथ / गँग
देखत कै वृच्छन में / गँग
झुकत कृपान मयदान ज्यों / गँग
उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी / गँग
करि कै जु सिंगार अटारी चढी / गँग
नवल नवाब खानख़ाना जू तिहारी त्रास / गँग
तारों के तेज में चन्द्र छिपे नहीं / गँग
रती बिन साधु, रती बिन संत / गँग
अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै / गँग
मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै / गँग
लहसुन गाँठ कपूर के नीर में / गँग
माता कहे मेरो पूत सपूत / गँग