तुम सों कीजै मान क्यों, ब्रज नायक मनरंज।
बात कहत यों बालके, भरि आए दृग कंज।।27।।
सजि सिंगार सेजहिं चली, बाल जहाँ पति-प्रान।
चढ़त अँटारी की सिढ़ी, भई कोस परिमान।।28।।
सपनेहुँ मन भाँवतो, करत नहीं अपराध।
मेरे मनहू में सखी, रही मान की साध।।29।।
चित्रहु में सखि जाहि लखि, होत अनंत अनंद।
सपने हूँ कबहूँ सखी, मोहिं मिलिहै ब्रजचंद।।30।।
बाँधी दृग डोरानि सों, घेरी बरुनि समाज।
गई तऊ नैनानि तैं, निकसि नटी-सी लाज।।26।।
बिन देखें दुख के चलें, देखें सुख के जाहिं।
कहो लाल उन दृगनि के, अँसुवा क्यों ठहराहिं।।25।।
रात्यौ दिन जागति रहै, अगिनि लगनि की मोहिं।
मो हिय मैं तू बसतु है, आँच न पहुँचति तोहिं।।24।।
श्रम जल-कन झलकन लगे, अलकनि कलित कपोल।
पलकनि रस छलकन लगे, ललकन लोचन लोन।।23।।
जगै जोन्ह की जोति यों, छपै जलद की छाँह।
मनौ छीरनिधि की उठै, लहरि छहरि छिति माँह।।22।।
मन दैसुनिए लाल यह, तनक तरुनि की बात।
अंसुवा उड़गन गिरत हैं, होन चहत उतपात।।21।।