Post date: Feb 18, 2018 3:57:46 PM
ठेकेदार भाग लिया / अशोक चक्रधर
फावड़े ने
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक ओर
ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल.....रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।
सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
माशो की माँ / अशोक चक्रधर
नुक्कड़ पर माशो की माँ
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी झुर्रियाँ हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेव हैं,
सेव भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयाँ
--आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आँखों से
अठन्नी का ख़रा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती है टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
--गाहक की तुष्टि होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-- आती है
सूर्य ढला-- जाती है
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
सो तो है खचेरा / अशोक चक्रधर
गरीबी है- सो तो है,
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत खस्ता है – सो तो खस्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है – सो तो है।
पांय लागूं, पांय लागूं
बौहरे आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !
वह जानता है उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है –
सो तो है।
क्रम / अशोक चक्रधर
एक अंकुर फूटा
पेड़ की जड़ के पास ।
एक किल्ला फूटा
फुनगी पर ।
अंकुर बढ़ा
जवान हुआ,
किल्ला पत्ता बना
सूख गया ।
गिरा
उस अंकुर की
जवानी की गोद में
गिरने का ग़म गिरा
बढ़ने के मोद में ।
चेतन जड़ / अशोक चक्रधर
प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है ।
पहले पहले / अशोक चक्रधर
मुझे याद है
वह
जज़्बाती शुरुआत की
पहली मुलाक़ात
जब सोते हुए उसके बाल
अंगुल भर दूर थे
लेकिन उन दिनों
मेरे हाथ
कितने मज़बूर थे ?