Post date: Feb 18, 2018 4:17:4 PM
जिज्ञासा
एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर
मुस्कुराए,
कुछ नए से भाव
उनके चेहरे पर आए।
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा—
क्यों भई,
ये डैमोक्रैसी क्या होती है?
पी.ए. कुछ झिझका
सकुचाया, शर्माया।
-बोलो, बोलो
डैमोक्रैसी क्या होती है?
-सर, जहां
जनता के लिए
जनता के द्वारा
जनता की
ऐसी-तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है।
डैमोक्रैसी
पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर !
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है !
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है !
एक विद्वान से पूछा
वे बोले—
हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।
आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।
और समानता !
कौन है जो इसे नहीं मानता ?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमनता है ?
और भाईचारा !
तो सुनो भाई !
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।
फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी ?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।
अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी ?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अफ़सरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है !
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है !
रिक्शेवाला
आवाज़ देकर
रिक्शेवाले को बुलाया
वो कुछ
लंगड़ाता हुआ आया।
मैंने पूछा—
यार, पहले ये तो बताओगे,
पैर में चोट है कैसे चलाओगे ?
रिक्शेवाला कहता है—
बाबू जी,
रिक्शा पैर से नहीं
पेट से चलता है।
कटे हाथ
बगल में एक पोटली दबाए
एक सिपाही थाने में घुसा
और सहसा
थानेदार को सामने पाकर
सैल्यूट मारा
थानेदार ने पोटली की तरफ निहारा
सैल्यूट के झटके में पोटली भिंच गई
और उसमें से एक गाढी-सी कत्थई बूंद रिस गई
थानेदार ने पूछा:
'ये पोटली में से क्या टपक रहा है ?
क्या कहीं से शरबत की बोतलें
मारके आ रहा है ?
सिपाही हडबढाया , हुजूर इसमें शरबत नहीं है
शरबत नहीं है
तो घबराया क्यों है, हद है
शरबत नहीं है, तो क्या शहद है?
सिपाही कांपा, शर शहद भी नहीं है
इसमें से तो
कुछ और ही चीज बही है
और ही चीज, तो खून है क्?
अबे जल्दी बता
क्या किसी मुर्गे की गरदन मरोड़ दी
क्या किसी मेमने की टांग तोड़ दी
अगर ऐसा है तो बहुत अच्छा है
पकाएंगे
हम भी खाएंगे, तुझे भी खिलाएंगे!
सिपाही घिघियाया
सर! न पका सकता हूं, न खा सकता हूं
मैं तो बस आपको दिखा सकता हूं
इतना कहकर सिपाही ने मेज पर पोटली खोली
देखते ही, थानेदार की आत्मा भी डोली
पोटली से निकले
किसी नौजवान के दो कटे हुए हाथ
थानेदार ने पूछाए , बता क्या है बात
यह क्या कलेस है ?
सिपाही बोला, हुजूर!
रेलवे लाइन एक्सीडेंट का केस है
एक्सीडेंट का केस है।
तो यहां क्यों लाया है,
और बीस परसेंट बाडी ले आया है।
एट़टी परसेंट कहां छोड़ आया है।
सिपाही ने कहा, माई-बाप
यह बंदा इसलिए तो शर्मिंदा है
क्योंकि एट्टी परसेंट बाडी तो जिंदा है
पूरी लाश होती तो यहां क्यों लाता
वहीं उसका पंचनामा न बनाता
लेकिन गजब बहुत बड़ा हो गया
वह तो हाथ कटवा के खड़ा हो गया
रेल गुजर गई तो मैं दौडा
वह तो तना था मानिंदे हथौडा
मुझे देखकर मुसकराने लगा
और अपनी ठूंठ बाहों को
हिला-हिलाकर बताने लगा
ले जा, ले जा
ये फालतू हैं, बेकार हैं
और बुलरा ले कहां पत्रकार हैं ?
मैं उन्हें बताऊंगा कि काट दिए
इसलिए कि
मैंने झेला है भूख और गरीबी का
एक लंबा सिलसिला
पंद्रह वर्ष हो गए
इन हाथों को कोई काम ही नहीं मिला
हां, इसलिए-इसलिए
मैंने सोचा कि फालतू हैं
इन्हें काट दूं
और इस सोए हुए जनतंत्र के
आलसी पत्रकारों को
लिखने के लिए प्लाट दूं
प्लाट दूं कि इन कटे हाथों को
पंद्रह साल से
रोजी-रोटी की तलाश है
आदमी जिंदा है और
ये उसकी तलाश की लाश है।
इसे उठा ले
अरे, इन दोनों हाथों को उठा ले
कटवा के भी मैं तो जिंदा हूं
तू क्यो मर गया ?
हुजूर, इतना सुनकर मैं तो डर गया
जिन्न है या भूत
मैने किसी तरह अपने-आपको साधा
हाथों को झटके से उठाया
पोटली में बांधा
और यहां चला आया
हुजूर, अब मुझे न भेजें
और इन हाथों को भी
आप ही सहेजें।
थानेदार चकरा गया
शायद कटे हाथ देखकर घबरा गया
बोला, इन्हें मेडिकल कालेज ले जा,
लडके इन्हें देखकर डरेंगे नहीं
इनकी चीर-फाड़ करके स्टडी करेंगे।
इसके बाद पता नहीं क्या हुआ
लेकिन घटना ने मन को छुआ
अरे उस पढ़े लिखे नौजवान ने
अपने हाथों को खो दिया
और सच कहता हूं अखबार में
यह खबर पढ़कर मैं रो दिया।
सोचने लगाकि इसे पढ़कर
तथाकथित बडे लोग
शर्म से क्यों नही गड़ गए
देखिए, आज एक अकेले पेट के लिए
दो हाथ भी कम हो गए।
वह उकता गया झूठे वादों, झूठी बातों से,
वरना क्या नहीं कर सकता था
अपने हाथों से
वह इन हाथों से किसी मकान का
नक्शा बना सकता था
हाथों में बंदूक थामकर
देश को सुरक्षा दिला सकता था।
इन हाथों से वह कोई
सडक बना सकता था
और तो और
ब्लैक बोर्ड पर 'ह' से हाथ लिखकर
बच्चों को पढ़ा सकता था,
मैं सोचता हूं
इन्हीं हाथों से उसे बचपन में
तिमाही, छमाही, सालाना परीक्षाएं दी होंगी,
मां ने पास होने की दुआएं की होंगी।
इन्हीं हाथों से वह
प्रथम श्रेणी में पास होने की
खबर लाया होगा,
इन्हीं हाथों से उसने
खुशी का लड़डू खाया होगा।
इन्हीं हाथों में डिग्रियां सहेजी होंगी
इन्हीं हाथों से अर्जियां भेजी होंगी।
और अगर काम पा जाता
तो यह नपूता
इन्हीं हाथों से मां के पांव भी छूता
खुशी में इन हाथों से ढपली बजाता
और किसी खास रात को
इन्हीं हाथों से
दुलहन का घूंघट उठाता।
इन्हीं हाथों से झुनझुना बजाकर
बेटी को बहलाता
रोते हुए बेटे के गाल सहलाता
तूने तो काट लिए मेरे दोस्त
लेकिन तू कायर नहीं है
कायर तो तब होता
जब समूचा कट जाता
और देश के रास्ते से
हमेशा-हमेशा को हट जाता
सरदार भगत सिंह ने
यह बताने के लिए देश में गुलामी है
पर्चे बांटे
और तूने बेरोजगारी है
यह बताने के लिए हाथ काटे
बडी बात बोलने का तो
मुझमें दम नहीं है
लेकिन प्यारे, तू किसी शहीद से कम नहीं है।
5. पोल-खोलक यंत्र
ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
….इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।
और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा भी जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभी जी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।
लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।
एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।
ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
– वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
– और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।
ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।
ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!