Harivansh Rai Bachchan
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे--
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?--
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
साथी, अन्त दिवस का आया!
तरु पर लौट रहे हैं नभचर,
लौट रहीं नौकाएँ तट पर,
पश्चिम की गोदी में रवि की श्रात किरण ने आश्रय पाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!
रवि-रजनी का आलिंगन है,
संध्या स्नेह मिलन का क्षण है,
कात प्रतीक्षा में गृहिणी ने, देखो, घर-घर दीप जलाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!
जग के विस्तृत अंधकार में,
जीवन के शत-शत विचार में
हमें छोड़कर चली गई, लो, दिन की मौन संगिनी छाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!
साथी, सांझ लगी अब होने!
फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों को अस्तांचल पर पहँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट लिपट तरु-गृह-चरणों में,
वह छाया, देखो, जाती है प्राची में अपने को खोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल घिरौंदे छोड़ पथों पर चले गये हैं बच्चे सोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
रंगती स्वर्णिम रज से सुदंर
निज नीड़-अधीर खगों के पर,
तरुओं की डाली-डाली में कंचन के पात लगाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
करती सरिता का जल पीला,
जो था पल भर पहले नीला,
नावों के पालों को सोने की चादर-सा चमकाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
उपहार हमें भी मिलता है,
श्रृंगार हमें भी मिलता है,
आँसू की बूंद कपोलों पर शोणित की-सी बन जाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
बीत चली संध्या की वेला!
धुंधली प्रति पल पड़नेवाली
एक रेख में सिमटी लाली
कहती है, समाप्त होता है सतरंगे बादल का मेला!
बीत चली संध्या की वेला!
नभ में कुछ द्युतिहीन सितारे
मांग रहे हैं हाथ पसारे-
'रजनी आए, रवि किरणों से हमने है दिन भर दुख झेला!
बीत चली संध्या की वेला!
अंतरिक्ष में आकुल-आतुर,
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक- अकेला!
बीत चली संध्या की वेला!
चल बसी संध्या गगन से!
क्षितिज ने साँस गहरी
और संध्या की सुनहरी
छोड़ दी सारी, अभी तक था जिसे थामे लगन से!
चल बसी संध्या गगन से!
हिल उठे तरु-पत्र सहसा,
शांति फिर सर्वत्र सहसा
छा गई, जैसे प्रकृति ने ली विदा दिन के पवन से!
चल बसी संध्या गगन से!
बुलबुलों ने पाटलों से,
षट्पदों ने शतदलों से
कुछ कहा--यह देख मेरे गिर पड़े आँसू नयन से!
चल बसी संध्या गगन से!
उदित संध्या का सितारा!
थी जहाँ पल पूर्व लाली,
रह गई कुछ रेख काली,
अब दिवाकर का गया मिट तेज सारा, ओज सारा!
उदित संध्या का सितारा!
शोर स्यारों ने मचाया,
’(अंधकार) हुआ’--बताया,
रात के प्रहरी उलूकों ने उठाया स्वर कुठारा!
उदित संध्या का सितारा!
काटती थी धार दिन भर
पाँव जिसके तेज चलकर,
चौंकना मत, अब गिरेगा टूट दरिया का कगारा!
उदित संध्या का सितारा!
अंधकार बढ़ता जाता है!
मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
दिखलाई देता कुछ-कुछ मग,
जिसपर शंकित हो चलते पग,
दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
ड़र न लगे सुनसान सड़क पर,
इसीलिए कुछ ऊँचा स्वर कर
विलग साथियों से हो कोई पथिक, सुनो, गाता आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
अब निशा नभ से उतरती!
देख, है गति मन्द कितनी
पास यद्यपि दीप्ति इतनी,
क्या सबों को जो ड़राती वह किसी से आप ड़रती?
जब निशा नभ से उतरती!
थी किरण अगणित बिछी जब,
पथ न सूझा!
गति कहाँ अब?-
कुछ दिखाता दीप अंबर, कुछ दिखाती दीप धरती!
अब निशा नभ से उतरती!
था उजाला जब गगन में
था अँधेरा ही नयन में,
रात आती है हृदय में भी तिमिर अवसाद भरती।
अब निशा नभ से उतरती!
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
गीले बादल, पीछे रजकण,
सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता 'हरहर'- इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
तोड़-मरोड़ विटप लतिकाएँ,
नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
जाता है अज्ञात दिशा को!
हटो विहंगम, उड़ जाओगे!
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
प्रबल झंझावात, साथी!
देह पर अधिकार हारे,
विवशता से पर पसारे,
करुण रव-रत पक्षियों की आ रही है पाँत, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
शब्द ’हरहर’, शब्द ’मरमर’--
तरु गिरे जड़ से उखड़कर,
उड़ गए छत और छप्पर, मच गया उत्पात, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
हँस रहा संसार खग पर,
कह रहा जो आह भर भर--
’लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तॄण पात।’ साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
नीलम-से पल्लव टूट गए,
मरकत-से साथी छूट गए,
अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली,
कू-कू कर कोयल मांग रही नूतन घूँघट अविराम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में हैं कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जाएगी; यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
यह पावस की सांझ रंगीली!
फैला अपने हाथ सुनहले
रवि, मानो जाने से पहले,
लुटा रहा है बादल दल में अपनी निधि कंचन चमकीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!
घिरे घनों से पूर्व गगन में
आशाओं-सी मुर्दा मन में,
जाग उठा सहसा रेखाएँ-लाल, बैगनी, पीली, नीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!
इंद्र धनुष की आभा सुंदर
साथ खड़े हो इसी जगह पर
थी देखी उसने औ’ मैंने--सोच इसे अब आँखें गीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!
दीपक पर परवाने आए!
अपने पर फड़काते आए,
किरणों पर बलखाते आए,
बड़ी-बड़ी इच्छाएँ लाए, बड़ी-बड़ी आशाएँ लाए!
दीपक पर परवाने आए!
जले ज्वलित आलिंगन में कुछ,
जले अग्निमय चुंबन में कुछ,
रहे अधजले, रहे दूर कुछ, किंतु न वापस जाने पाए!
दीपक पर परवाने आए!
पहुँच गई बिस्तुइया सत्वर
लिए उदर की ज्वाल भयंकर,
बचे प्रणय की ज्वाला से जो, उदर-ज्वाल के बीच समाए!
दीपक पर परवाने आए!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
ताप जीवन श्वास वाली,
मृत्यु हिम उच्छवास वाली।
क्या जला, जलकर बुझा, ठंढा हुआ फिर प्रकृति का उर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
पड़ गया पाला धरा पर,
तृण, लता, तरु-दल ठिठुरकर
हो गए निर्जीव से--यह देख मेरा उर भयातुर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
थी न सब दिन त्रासदाता
वायु ऐसी--यह बताता
एक जोड़ा पेंडुकी का डाल पर बैठा सिकुड़-जुड़!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
मंदिर से शंखों की तानें,
मस्जिद से पाबंद अजानें
उठ कर नित्य किया करती हैं अपने भक्तों का आवाहन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
मेरा मंदिर था, प्रतिमा थी,
मन में पूजा की महिमा थी,
किंतु निरभ्र गगन से गिरकर वज्र गया कर सबका खंडन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
जब ये पावन ध्वनियाँ आतीं,
शीश झुकाने दुनिया जाती,
अपने से पूछा करता मैं, करूँ कहाँ मैं किसका पूजन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
अब निशा देती निमंत्रण!
महल इसका तम-विनिर्मित,
ज्वलित इसमें दीप अगणित!
द्वार निद्रा के सजे हैं स्वप्न से शोभन-अशोभन!
अब निशा देती निमंत्रण!
भूत-भावी इस जगह पर
वर्तमान समाज होकर
सामने है देश-काल-समाज के तज सब नियंत्रण!
अब निशा देती निमंत्रण!
सत्य कर सपने असंभव!--
पर, ठहर, नादान मानव!--
हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन!
अब निशा देती निमंत्रण!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यत कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की!
और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
मनुज के अधिकार कैसे!
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
जानता यह भी नहीं मन--
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
आ, सोने से पहले गा लें!
जग में प्रात पुनः आएगा,
सोया जाग नहीं पाएगा,
आँख मूँद लेने से पहले, आ, जो कुछ कहना कह डालें!
आ, सोने से पहले गा लें!
दिन में पथ पर था उजियाला,
फैली थी किरणों की माला
अब अँधियाला देश मिला है, आ, रागों का द्वीप जलालें!
आ, सोने से पहले गा लें!
काल-प्रहारा से उच्छश्रृंखल,
जीवन की लड़ियाँ विश्रृंखल,
इन्हें जोड़ने को, आ, अपने गीतों की हम गाँठ लगालें!
आ, सोने से पहले गा लें!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
टूट गिरीं इच्छा की कलियाँ,
अभिलाषा की कच्ची फलियाँ,
शेष रहा जुगुनूँ की लौ में आशामय उजियाला मेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
पल्लव मरमर गान कहाँ अब!
कोकिल पंचम तान कहाँ अब!
कौन गया निश्चय से सोने, देखेगा फिर जाग सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
स्वप्नों ही ने मुझको लूटा
स्वप्नों का, हा, मोह न छूटा,
मेरे नीड़ नयन में आओ, करलो, प्रेयसि, रैन, सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
दीप अभी जलने दे, भाई!
निद्रा की मादक मदिरा पी,
सुख स्वप्नों में बहलाकर जी,
रात्रि-गोद में जग सोया है, पलक नहीं मेरी लग पाई!
दीप अभी जलने दे, भाई!
आज पड़ा हूँ मैं बनकर शव,
जीवन में जड़ता का अनुभव,
किसी प्रतीक्षा की स्मृति से ये पागल आँखें हैं पथराई!
दीप अभी जलने दे, भाई!
दीप शिखा में झिल-मिल, झिल-मिल,
प्रतिपल धीमे-धीमे हिल-हिल,
जीवन का आभास दिलाती कुछ मेरी तेरी परछाईं!
दीप अभी जलने दे, भाई!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
मिल न सका स्वर जग क्रंदन का,
और मधुर मेरे गायन का,
आ तेरे उर की धड़कन से अपनी धड़कन आज मिलाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
जिसे सुनाने को अति आतुर
आकुल युग-युग से मेरा उर,
एक गीत अपने सपनों का, आ, तेरी पलकों पर गाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
फिर न पड़े जगती में गाना,
फिर न पड़े जगती में जाना,
एक बार तेरी गोदी में सोकर फिर मैं जाग न पाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
स्वप्न-लोक से हम निर्वासित,
कब से गृह सुख को लालायित,
आओ, निद्रा पथ से छिपकर हम अपने घर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
मौन रहो, मुख से मत बोलो,
अपना यह मधुकोष न खोलो,
भय है कहीं हृदय के मेरे घाव न ये भर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
आँसू भी न बहाएँगे हम,
जग से क्या ले जाएँगे हम?-
यदि निर्धनों के अंतिम धन ये जल कण भी झर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
पलक पर यह स्नेह चुम्बन
पोंछ दे सब अश्रु के कण,
नींद की मदिरा पिलाकर दे भुला जग-क्रूर-कारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
दे दिखाई विश्व ऐसा,
है रचा विधि ने न जैसा,
दूर जिससे हो गया है बहिर अंतर्द्वन्द सारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
कंठ में हो गान ऐसा,
था सुना जग ने न जैसा,
और स्वर से स्वर मिलाकर गा रहा हो विश्व सारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन,
सुन कर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)