मुबारक (ममारख) का पूरा नाम सैयद मुबारक अली बिलग्रामी है। ये अरबी, फारसी, संस्कृत तथा हिंदी के अच्छे ज्ञाता थे। इनके दो ग्रंथ प्रसिध्द हैं- शतक तथा तिल शतक। इसमें नायिका की अलक तथा तिल पर ही दोहे लिखे गए हैं। इनकी कविता अत्यंत सरस है तथा उसमें कल्पा भी अनूठी है। इनके बहुत से स्फुट छंद में मिलते है।
अलक डोर मुख छबि नदी, बेसरि बंसी लाई।
दै चारा मुकतानि को, मो चित चली फँदाइ॥
सब जग पेरत तिलन को, थक्यो चित्त यह हेरि।
तव कपोल को एक तिल, सब जग डारयो पेरि॥
बेनी तिरबेनी बनी, तहँ बन माघ नहाय।
इक तिल के आहार तैं, सब दिन रैन बिहाय॥
हास सतो गुर रज अधर, तिल तम दुति चितरूप
मेरे दृग जोगी भये, लये समाधि अनूप॥
मोहन काजर काम को, काम दियो तिल तोहि।
जब जब ऍंखियन में परै, मोंहि तेल मन मोहि॥
परी मुबारक तिय बदन,अलक लोप अति होय.
मनो चन्द की गोद में,रही निसा सी सोय.
चिबुक कूप में मन परयो,छबि जल तृषा विचारि.
कढ़ति मुबारक ताहि हिय,अलक डोरि सी डारि.
चिबुक कूप रसरी अलक,तिल सु चरस,दृग बैल.
बारी बैस सिंगार को, सींचत मन्मथ छैल.
कान्ह की बाँकी चितौनी चुभी, झुकि काल्हि ही झाँकी है ग्वालि गवाछिन।
देखी है नोखी सी चोखी सी कोरनि, आछै फिरै उभरै चित जा छनि॥
मरयो संभार हिये में 'मुबारक, ये सहजै कजरारे मृगाछनि॥
सींक लै काजर दै गँवारिन, ऑंगुरी तैरी कटैगी कटाछनि॥
वह साँकरी कुंज की खोरि अचानक , राधिका माधव भेंट भई।
मुसक्यानि भली, ऍंचरा की अली! त्रिबली की बलि पर डीठि दई॥
झहराइ, झुकाइ, रिसाइ, 'ममारख, बाँसुरिया, हँसि छीनि लई॥
भृकुटी लटकाय, गुपाल के गाल मैं ऍंगुरी, ग्वालि गडाई गई॥
बाजत नगारे घन, ताल देत नदी नारे,
झिंगुरन झाँझ, भेरी भृंगन बजाई है।
कोकिल अलापचारी, नीलग्रीव नृत्यकारी,
पौन बीनधारी, चाटी चातक लगाई है॥
मनिमाल जुगनू मुबारक तिमिर थार,
चौमुख चिराग, चारु चपला जराई है।
बालम बिदेस, नये दुख को जनम भयौ
पावस हमारै लायौ बिरह बधाई है॥
कनक बरन बाल,नगन लसत भाल,
मोतिन के माल उर सोहैं भली भाँति है.
चंदन चढ़ाय चारु चंदमुखी मोहिनी सी,
प्रात ही अन्हाय पग धारे मुस्काति है.
चुनरी विचित्र स्याम सजि कै मुबारकजू,
ढाँकि नखशिख तें निपट सकुचाति है.
चंद्रमैं लपेटि कै समेटि कै नखत मानो,
दिन को प्रनाम किए राति चली जाती है.