Harivansh Rai Bachchan हरिवंशराय बच्चन
जन्म : 27 नवंबर 1907, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, आत्मकथा
(उत्तरप्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित)
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले
आया डोला,
उड़न खटोला,
एक परी पर्दे से निकली पहने पंचरंग वीर
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले
आँखे टक-टक,
छाती धक-धक,
कभी अचानक ही मिल जाता दिल का दामनगीर
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले
नाव विराजी,
केवट राजी,
डांड छुई भर,बस आ पहुँची संगम पर की भीड़
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले
मन मुस्काई,
उतर नहाई,
आगे पाँव न देना,रानी,पानी अगम-गंभीर
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले
बात न मानी,
होनी जानी ,
बहुत थहाई,हाथ न आई जादू की तस्वीर
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले
इस तट,उस तट,
पनघट, मरघट,
बानी अटपट;
हाय,किसी ने कभी न जानी मांझी-मन की पीर
डोंगा डोले,
नित गंग जमुन के तीर,
डोंगा डोले.डोंगा डोले.डोंगा डोले...
गंगा की लहर अमर है,
गंगा की
धन्य भगीरथ
के तप का पथ
गगन कँपा थरथर है
गंगा की,
गंगा की लहर अम्र है
नभ से उतरी
पावन पुतरी,
दृढ शिव-जूट जकड़ है
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है
बाँध न शंकर
अपने सिर पर,
यह धरती का वर है
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है
जह्नु न हठकर
अपने मुख धर,
तृपित जगत्-अंतर है
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है.
एक धार जल
देगा क्या फल?
भूतल सब ऊसर है
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है
लक्ष धार हो
भूपर विचरो,
जग में बहुत जहर है
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है
स्त्री
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
जिसकी हैं नीलम की आँखे,
हीरे-पन्ने की हैं पाँखे,
वह मुख से उगलती है मोती की लरी
पिया मोती की लरी;पिया मोती की लरी
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
पुरुष
सीता ने सुबरन मृग माँगा,
उनका सुख लेकर वह भागा,
बस रह गई नयनों में आँसू की लरी
रानी आँसू की लरी; रानी आँसू की लरी
रानी मत माँगो;नदिया की सोन मछरी
स्त्री
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
पिया डोंगी ले सिधारे,
मैं खड़ी रही किनारे,
पिया लेके लौटे बगल में सोने की परी
पिया सोने की परी नहीं सोन मछरी
पिया सोन मछरी नहीं सोने की परी
पुरुष
मैंने बंसी जल में डाली,
देखी होती बात निराली,
छूकर सोन मछरी हुई सोने की परी
रानी,सोने की परी; रानी,सोने की परी
छूकर सोन मछरी हुई सोने की परी
स्त्री
पिया परी अपनाये,
हुए अपने पराये,
हाय!मछरी जो माँगी कैसी बुरी थी घरी!
कैसी बुरी थी घरी, कैसी बुरी थी घरी
सोन मछरी जो माँगी कैसी बुरी थी घरी
जो है कंचन का भरमाया,
उसने किसका प्यार निभाया,
मैंने अपना बदला पाया,
माँगी मोती की लरी,पाई आँसू की लरी
पिया आँसू की लरी,पिया आँसू की लरी
माँगी मोती की लरी,पाई आँसू की लरी
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी
जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी
(उत्तरप्रदेश के लोक धुन पर आधारित)
पुरुष
लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?
बंसिया की लठिया?लठिया की बंसिया?
लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?
बंसी-धुन कानों में पड़ती,
गोरी के दिल को पकड़ती,
भोरी मछरी को जैसे,मछुआ की कटिया;
मछुआ की कटिया,मछुआ की कटिया;
लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?
जग में दुश्मन भी बन जाते,
मौका पा नीचा दिखलाते,
लाठी रहती जिसके काँधे,उसकी ऊँची पगिया;
उसकी ऊँची पगिया,उसकी ऊँची पगिया;
लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?
स्त्री
राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया
लठिया औ'बंसिया,बंसिया औ'लठिया;
राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया
बंसी तेरी पीर बताए,
सुनकर मेरा मन अकुलाए,
सोने दे न जगने दे मेरी फूल-खटिया,
मेरी फूल-सेजिया,मेरी सूनी सेजिया;
राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया
प्रेमी के दुश्मन बहुतेरे,
ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे,
हारे,भागे न किसी से मेरा रंग-रसिया;
मेरा रंग-रसिया,मेरा रन-रसिया;
राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया.
मेले में खोई गुजरिया,
जिसे मिले मुझसे मिलाए
उसका मुखड़ा
चाँद का टुकड़ा,
कोई नज़र न लगाये,
जिसे मिले मुझसे मिलाए
मेले में खोई गुजरिया,
जिसे मिले मुझसे मिलाए
खोये-से नैना,
तोतरे बैना,
कोई न उसको चिढ़ाए
जिसे मिले मुझसे मिलाए
मेले में खोई गुजरिया,
जिसे मिले मुझसे मिलाए
मटमैली सारी,
बिना किनारी,
कोई न उसको लजाए,
जिसे मिले मुझसे मिलाए
मेले में खोई गुजरिया,
जिसे मिले मुझसे मिलाए
तन की गोली,
मन की भोली,
कोई न उसे बहकाए,
जिसे मिले मुझसे मिलाये
मेले में खोई गुजरिया,
जिसे मिले मुझसे मिलाये
दूंगी चवन्नी,
जो मेरी मुन्नी,
को लाए कनिया उठाए
जिसे मिले मुझसे मिलाये
मेले में खोई गुजरिया,
जिसे मिले मुझसे मिलाये
(उत्तरप्रदेश के लोकधुन पर आधारित)
सीपी में नील-परी सागर तरें,
सीपी में
बंसी उस पार बजी,
नयनों की नाव सजी,
पलकों की पालें उसासें भरें,
सीपी में
अंधड़ आकाश चढ़ा,
झोंकों का जोर बढ़ा,
शोर बढ़ा,बादल औ'बिजली लड़े,
सीपी में
सीपी में नील-परी सागर तरें,
सीपी में
आर नहीं, पार नहीं,
तुन का आधार नहीं,
झेल रही लहरों का वार लहरें,
सीपी में
सीपी में नील-परी सागर तरें,
सीपी में
अब किसको याद करें,
किससे फरियाद करे,
आज भरे नयनों से मोती झरे,
सीपी में
सीपी में नील-परी सागर तरें,
सीपी में
सहसा उजियार हुआ,
बेड़ा भी पार हुआ,
पी का दीदार हुआ,
मोदभरी नील-परी पी को वरें,
सीपी में
सीपी में नील-परी सागर तरें,
सीपी में.
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के
यह खेल हँसी,
यह फाँस फँसी,
यह पीर किसी से मत कह रे,
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के
अब मन परबस,
अब सपन परस,
अब दूर दरस,अब नयन भरे
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के
अब दिन बहुरे,
अब जी की कह रे,
मनवासी पी के मन बस रे
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के
घड़ियाँ सुबरन,
दुनियाँ मधुबन,
उसको जिसको न पिया बिसरे
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के
सब सुख पाएँ,
सुख सरसाएँ,
कोई न कभी मिलकर बिछुड़े
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के
(उत्तरप्रदेश की एक लोक धुन पर आधारित)
(लोक धुन पर आधारित)
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
रोप गये साजन,
सजीव हुआ आँगन;
जीवन के बिरवा मीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
पी की निशानी
को देते पानी
नयनों के घट गए रीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
फिर-फिर सावन
बिन मनभावन;
सारी उमर गई बीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
तू अब सूखा,
सब दिन रूखा,
दुखा गले का गीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
अंतिम शय्या
हो तेरी छैंयाँ,
दैया निभा दे प्रीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
मैंने अपने पाँवों से पर्वत कुचल दिए,
कदमों से रौंदे कुश-काँटों के वन बीहड़,
दी तोड़ डगों से रेगिस्तानों कि पसली,
दी छोड़ पगों को छाप धरा की छाती पर;
सुस्ताता हूँ;
तन पर फूटी श्रम धारा का
सुख पाता हूँ
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
मैंने सूरज कि आँखों में आँखे डाली,
मैंने शशि को मानस के अंदर लहराया,
मैंने नैनों से नाप निशाओं का अंबर
तारे-तारे को अश्रुकणों से नहलाया;
अलसाया हूँ;
पलकों में अद्भुत सपने
भर लाया हूँ
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
रस-रूप जिधर से भी मैंने आते देखा
चुपचाप बिछाया अपनी बेबस चाहों को;
वामन के भी अरमान असीमित होते हैं,
रंभा की ओर बढ़ाया अपनी बाँहों को;
बतलाता हूँ
जीवन की रंग-उमंगों को
शर्माता हूँ
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
तम आसमान पर हावी होता जाता था,
मैंने उसको उषा-किरणों से ललकारा;
इसको तो खुद दिन का इतिहास बताएगा,
थी जीत हुई किसकी औ'कौन हटा-हारा;
मैं लाया हूँ
संघर्ष प्रणय के गीतों को!
मनभाया हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
हर जीत ,जगत् की रीति चमक खो देती है,
हर गीत गूंज कर कानों में धीमा पड़ता,
हर आकर्षण घट जाता है, मिट जाता है,
हर प्रीति निकलती जीवन की साधारणता;
अकुलाता हूँ;
संसृति के क्रम को उलट कहाँ
मैं पाता हूँ
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
पर्वत ने फिर अपना शीश उठाया है,
सूरज ने फिर से वसुंधरा को घूरा है,
रंभा ने कि ताका-झाँकी फिर नंदन से,
उजियाले का तम पर अधिकार अधूरा है;
पछताता हूँ;
अब नहीं भुजाओं में पहला
बल पाता हूँ
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
कब सिंह समय की खाट बिछाकर सोता है,
कब गरुड़ बिताता है अपने दिन कन्दर में,
जड़ खंडहर भी आवाज जवाबी देता है,
वडवाग्नि जगा करती है बीच समुन्दर में;
मुस्काता हूँ
मैं अपनी सीमा,सबकी सीमा से परिचित,
पर मुझे चुनौती देते हो
तो आता हूँ
10. मिट्टी से हाथ लगाये रह
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!
मैंने अक्सर यह सोचा है,
यह चाक बनाई किसकी है?
मैंने अक्सर यह पूछा है,
यह मिट्टी लाई किसकी है?
पर सूरज,चाँद,सितारों ने
मुझको अक्सर आगाह किया,
इन प्रश्नों का उत्तर न तुझे मिल पाएगा,
तू कितना ही अपने मन को उलझाए रह
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!
मधु-अश्रु-स्वेद-रस-रक्त
हलाहल से इसको नम करने में,
क्या लक्ष्य किसी ने रक्खाहै,
इस भाँति मुलायम करने में?
उल्का,विद्युत्,निहारों ने
पर मेरे ऊपर व्यंग किया,
बहुतेरे उद्भट इन प्रश्नों में भटक चुके,
तू भी चाहे तो अपने को भटकाएरह
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!
प्रातः,दिन,संध्या,रात,सुबह
चक्कर पर चक्कर कहा-खाकर,
अस्थिर तन-मन,जर्जर जीवन,
मैं बोल उठा था घबराकर,
जब इतने श्रम-संघर्षण से,
मैं कुछ न बना,मैं कुछ न हुआ,
तो मेरी क्या तेरी भी इज्जत इसमें है,
मुझ मिट्टी से तू अपना हाथ हटाये रह
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!
अपनी पिछली नासमझी का,
अब हर दिन होता बोध मुझे,
मेरे बनने के क्रम में था
घबराना, आना क्रोध मुझे,
मेरा यह गीत सुनना भी;
होगा,मेरा चुप होना भी;
जब तक मेरी चेतनता होती सुप्त नहीं,
तू अपने में मेरा विश्वास जगाए रह
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!
काम जो तुमने कराया,कर गया;
जो कुछ कहाया कह गया
यह कथानक था तुम्हारा
और तुमने पात्र भी सब चुन लिये थे,
किन्तु उनमे थे बहुत-से
जो अलग हीं टेक अपनी धुन लिये थे,
और अपने आप को अर्पण
किया मैंने कि जो चाहो बना दो;
काम जो तुमने कराया,कर गया;
जो कुछ कहाया कह गया.
मैं कहूँ कैसे कि जिसके
वास्ते जो भूमिका तुमने बनाई,
वह गलत थी;कब किसी कि
छिप सकी कुछ भी,कहीं तुमसे छिपाई;
जब कहा तुमने कि अभिनय में
बड़ा वह जो कि अपनी भूमिका से
स्वर्ग छू ले,बंध गई आशा सभी की
दंभ सबका बह गया
काम जो तुमने कराया,कर गया;
जो कुछ कहाया कह गया.
आज श्रम के स्वेद में डूबा
हुआ हूँ,साधना में लीन हूँ मैं,
आज मैं अभ्यास में ऐसा
जूता हूँ,एक क्या,दो-तीन हूँ मैं,
किन्तु जब पर्दा गिरेगा
मुख्य नायक-सा उभरता मैं दिखूँगा;
ले यही आशा, नियंत्रण
और अनुशासन तुम्हारा सह गया
काम जो तुमने कराया,कर गया;
जो कुछ कहाया कह गया
मंच पर पहली दफा मुँह
खोलते ही हँस पड़े सब लोग मुझ पर,
क्या इसी के वास्ते तैयार
तुमने था मुझको, गुणागर?
आखिरी यह दृश्य है जिसमें
मुझे कुछ बोलना है,डोलना है,
और दर्शक हँस रहे हैं;
अब कहूँगा,थी मुझी में कुछ कमी जो
मैं तुम्हारी नाट्यशाला में
विदूषक मात्र बनकर रह गया
काम जो तुमने कराया,कर गया;
जो कुछ कहाया कह गया.
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : तेरा हार, मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, धार के इधर उधर, आरती और अंगारे, बुद्ध और नाचघर, त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे दो चट्टानें , बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप, जाल समेटा
अनुवाद : मैकबेथ, ओथेलो, हैमलेट, किंग लियर, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, चौसठ रूसी कविताएँ
विविध : खय्याम की मधुशाला, सोपान, जनगीता, कवियों के सौम्य संत : पंत, आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : सुमित्रानंदन पंत, आधुनिक कवि, नेहरू : राजनैतिक जीवन-चित्र, नए पुराने झरोखे, अभिनव सोपान, मरकट द्वीप का स्वर, नागर गीत, भाषा अपनी भाव पराए, पंत के सौ पत्र, प्रवास की डायरी, टूटी छूटी कड़ियां, मेरी कविताई की आधी सदी, सोहं हँस, आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ
आत्मकथा / रचनावली : क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, बच्चन रचनावली (नौ खंड)
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान
निधन
18 जनवरी 2003, मुंबई (महाराष्ट्र)