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रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं-रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त में घनानन्द अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. 1746 तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द वृंदावन के आनन्दघन हैं। शुक्ल जी के विचार में ये नादिरशाह के आक्रमण के समय मारे गए। श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत भी इनसे मिलता है। लगता है, कवि का मूल नाम आनन्दघन ही रहा होगा, परंतु छंदात्मक लय-विधान इत्यादि के कारण ये स्वयं ही आनन्दघन से घनानन्द हो गए। अधिकांश विद्वान् घनानन्द का जन्म दिल्ली और उसके आसपास का होना मानते हैं। घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में खास-कलम (प्राइवेट सेक्रेटरी) थे । इस पर भी - फारसी में माहिर थे- एक तो कवि और दूसरे सरस गायक । प्रतिभासंपन्न होने के कारण बादशाह का इन पर विशष अनुग्रह था । भगवान् कृष्ण’ के प्रति अनुरक्त होकर वृंदावन में उन्होंने निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षा ली और अपने परिवार का मोह भी इन्होंने उस भक्तिके कारण त्याग दिया। मरते दम तक वे राधा कृष्ण संबंधी गीत, कवित्त-सवैये लिखते रहे। विश्वनाथप्रसाद मिश्र के मतानुसार उनकी मृत्यु अहमदशाह अब्दाली के मथुरा पर किए गए द्वितीय आक्रमण में सं. 1817 (सन् 1671) में हुई थी ।
रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं-रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त में घनानन्द अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। रीतिबद्ध कवियों के लिए आवश्यक शर्त यह थी कि उन्हें ग्रंथ-रचना के नियमों से बँधा और जकड़ा रहना पड़ता था। अपने मनोभावों को वे लक्षण के अनुसार अभिव्यक्त करते थे। दूसरी कोटि के कवि अर्थात् रीतिसिद्ध कवियों के लिए इस प्रकार की कोई आवश्यक शर्त न थी कि उन्हें रीतिग्रंथ ही लिखना है-परंतु वे कवि भी स्वतंत्र भावाभिव्यक्ति के लिए उन्मुक्त न थे। ये कवि लक्षणबद्ध ग्रंथ की रचना नहीं करते थे, परंतु इनकी काव्य-रचना में रीति का पूरा-पूरा प्रभाव था, जैसे बिहारी, रसनिधि इत्यादि । ये कवि रीतिबद्ध काव्य-रचना के मार्ग पर नहीं चलते थे - पर उसी मार्ग के साथ-साथ ही इनको बचना पड़ता था। फलतः इनकी काव्य-रचना में वे नियम कुछ शिथिल थे, जिन्हें रीतिबद्ध कवियों ने प्राणप्रण से अपना रखा था। तीसरे प्रकार के कवि वे थे, जो न तो रीतिबद्ध थे, न रीतिबद्ध –अर्थात वे रीतिमुक्त कवि थे - जिन्हें ‘रीति’ के नाम से ही घृणा थी - वे रीति का छायामात्र से भी दूर भागते थे। अपने हृदय की उमंगपूर्ण, स्वानुभूत भावनाओं को इन कवियों ने उसी रूप में अभिव्यक्त किया, जैसी उनकी अनुभूति थी । फलतः अपनी स्वच्छंद वृत्ति के कारण ये कवि रीतिमुक्त कवि कहलाए। घनानन्द, बोधा ठाकुर आदि कवि इसी धारा के सितारे हैं।
राधा अतुलरूप गुनभरी ।
ब्रजवनिता कदंब मंजरी ॥७॥
राधा मदन गुपालहिं भावै ।
मुरली मैं राधा गुन गावै ॥८॥
राधा रस प्रसाद की साधा ।
रसिक राय कैं राधा राधा ॥९॥
या राधा कों हौं आराधौं ।
राधा ही राधा रट साधौं ॥१०॥
राधा वचन, मौन हूँ राधा ।
राधा राधा राधा राधा ॥११॥
सोये राधा, जागे राधा ।
रातिघौस राधा ही राधा ॥१२॥
राधा हेरौं राधा सुनौं ।
राधा समझौं राधा गुनौं ॥१३॥
राधा मेरी स्वामिनि साँची ।
थिर चित ह्वै राधा हित नाची ॥१४॥
राधा जि कछु कहै, सो करौं ।
महल टहल टकोर अनुसरौं ॥१५॥
राधा राधा गीत सुनाऊँ ।
राधा आगें राग जमाऊँ ॥१६॥
राधा कौं बहु भाँति रिझाऊँ ।
तीखी बातनि चोख हसाऊँ ॥१७॥
राधा की चटकीली चेरी ।
चित ही चढ़ी रहित नित मेरी ॥१८॥
राधा रुचि हि लिए ई रहौं ।
विहरत गृह वनगोहन महौं ॥१९॥
रूप उज्यारी राधा देखौं ।
भागन को सुख कहा बिसेखौं ॥२०॥
राधा सबही भाँति लड़ाऊँ ।
राधा रीझें राधा पाऊँ ॥२१॥
राधा सो कछु कहौं कहानी ।
परम रसीली अति मनमानी ॥२२॥
चाँपत चरन तनक झुकि जाऊँ ।
हुवै सीस राधा के पाऊँ ॥२३॥
चरन हलाय जगाये जागौं ।
बहुरि औंधि नित पाय ना लागूँ ॥२४॥
राधा धर्यौ बहुगुनी नाऊँ ।
टरि लगि रहौं बुलाये जाऊँ ॥२५॥
राधा की जूठनि ही जियैं ।
राधा की प्यासनि ही पियैं ॥२६॥
राधा को सुख सदा मनाऊँ ।
सुख दै दै हौं हूँ सुख पाउँ ॥२७॥
राधा ढिग जब श्याम निहारौं ।
समय उचित सुख टहल विचारौं ॥२८॥
राधा पिय पै विजना ढोरौं ।
श्रम जल सुखऊँ, मन रस बोरौं ॥२९॥
पियमय ह्वै प्यारी हित पा लौं ।
ललना लाल परस पर लालौं ॥३०॥
राधा मोहन एकै दोऊ ।
नैन प्रान मन प्रेम समोऊ ॥३१॥
राधा हि लग कहत नहिं आवै ।
मोहन की राधा रुचि पावै ॥३२॥
राधा मोहन मोहन राधा ।
हिलनि मिलनि विहरनि बिनु बाधा ॥३३॥
राधा प्रेम रसामृत सरसी ।
केलि कमल कुल सुषमा दरसी ॥३४॥
राधा मन मैं मन दैं रहौं ।
राधा के मन की सब लहौं ॥३५॥
राधा को स्वभाव पहिचानौं ।
राधा की रुचि रचना ठानौं ॥३६॥
राधा मन की मोसों बोलैं ।
गुपत गाँस अपनी रुचि खोलैं ॥३७॥
हौं राधा की, राधा मेरी ।
कीरति की घर जाई चेरी ॥३८॥
राधा की मन भाव तिलौंडी ।
राधा की आनंदनि औंड़ी ॥३९॥
राधा चीर उतारन पाऊँ ।
भाग बड़ाई कहा जनाऊं ॥४०॥
राधा मोकर पाय झवावै ।
भाग भरी महावरो घावै ॥४१॥
राधा कौं हौंसनि हौं प्यारी ।
जाते तन कौं करति न न्यारी ॥४२॥
लालबिहारी हूँ सौं ऐड़नि ।
राधा के गुमान की पैड़नि ॥४३॥
उसरि भरौं हित ढरौं अंग सौं ।
करौं टहल रसमसी रंग सौं ॥४४॥
अड़े दाय कौ काय परै जब ।
बिन बहुगुनी सवारै को तब ॥४५॥
मेरौ सुख हौही भर देखौं ।
राधा कौ सुख अंतर लेखौं ॥४६॥
लिखौं सुख, जब जब मुख देखौं ।
राधा कौं सुख कहा बिसेखौं ॥४७॥
राधा कौ सुख मेरो सुख है ।
मदन गुपाल निहारै मुख है ॥४८॥
वेरी, पै अभिमान भरी हौं ।
ठकुराइनिया भाँति करी हौं ॥४९॥
राधा की बलिहार भई हौं ।
राधा यौं अपनाय लई हौं ॥५०॥
राधा बिन कछु और न सूझौं ।
सुरझि सुरझि अभिलाष उरुझौं ॥५१॥
राधा आँखिन आगे रहै ।
राधा मन कौ मारग गहै ॥५२॥
रोम रोम राधा की व्यापनि ।
रसिक जीवनी राधा जापनि ॥५३॥
राधा रटि सोई ह्वै जाऊँ ।
तब पाऊँ राधा को गाऊँ ॥५४॥
राधा बरसाने की जाई ।
ह्वै सँकेत नंदी सुर आई ॥५५॥
राधा की हौं कहौं कहा लौं ।
ब्रजबन राधामई जहाँ लौं ॥५६॥
राधा के हित वंशी बाजै ।
राधा राग भरे सुख साजै ॥५७॥
राधा बंसी की ठकुरायनि ।
सुर पावड़े बिछावति चायनि ॥५८॥
नाम गाम सब राधा नेरैं ।
राधा ही के बसौं बसेरैं ॥५९॥
यौ राधा न श्याम बिन रहै ।
मेरे मन मैं राधा महै ॥६०॥
या राधा की महा अगमगति ।
प्रेम पुंज मतिवती परम रति ॥६१॥
या राधा कौ प्रेम कहै को ।
या राधा कौ नेम गहै को ॥६२॥
राधा रमन रमन हू राधा ।
एकमेक ह्वै रहे अबाधा ॥६३॥
मिलन बिछोह कछु न सुधि परैं
अचिरज रीति राधिका धरैं ॥६४॥
या राधा कौ रस अपरस है ।
रस मूरति कौ परम सरस है ॥६५॥
दोहा
कहिबो सुनिबो समझिबो राधा ही कौ होय ।
राधा के हित की कथा भूलि सुमिरिहै सोय ॥६६॥
राधा अकथ कथा कहौं, यह कहिबे की नाहिं ।
राधा के जिय की दसा प्रीतम के हिय माहिं ॥६७॥
व्रजमोहन आनंदघन, वृंदावन रसधाम ।
अभिलाषनि बरसत रहै, राधा हित अभिराम ॥६८॥
मधुर केलि रस-झेलि सों, रसना स्वाद सुरूप ।
सुफल सुवानी वेलि को, राधा नाम अनूप ॥६९॥
मेरे मन दृग रीझि की, राधा ही कों बूझि ।
राधा के मन रीझि की, मोहिं बूझि अरु सूझि ॥७०॥
राधा मेरे प्रान है, राधा प्रान गुपाल ।
साँस कंठ धारे रहौं, राधा-मोहन माल ॥७१॥
आनँदघन बरसत सदा, राधा-जीवन स्याम ।
उज्वल रस में गौरता, प्रेम अवधि अभिराम ॥७२॥
दोऊ मिलि एकै भये ललित रंगीली जोट ।
जमुना तटनि रखौं सदा तरु बेलिनि की ओट ॥७३॥
निपट लटपटे अटपटे, भरे चटपटी चोंप ।
राधा मोद पयोद रस प्रगट केलिकुल कोंप ॥७४॥
व्रज मोहन उर अवनि मैं राधा सुपद बिहार ।
रोम-रोम आनंद घन भीजे रसिक उदार ॥७५॥
राधा हित आनंदघन मुरली गरज रसाल ।
राधा हींके रस भरे मोहन मदन गुपाल ॥७६॥
राधा के आनंद कौ मनमोहक मन साखि ।
राधा को अभिलाष जो, राधा पिय अभिलाषि ॥७७॥
राधा रसिक सँजीवनी, राधा जीवन लाल ।
राधा मोहन मैं सबै ब्रजबन बेलि तमाल ॥७८॥
राधा मेरी संपदा, जिय की जीवन मूल ।
राधा राधा रट सदा रोम रोम अनुकूल ॥७९॥
राधा मोहन मुख लगी मुरली ह्वै दिन राति ।
राधा ही राधा बजै अति मोहन धुनि जाति ॥८०॥
राधा रास सिरोमनि, राधा केलि कुलीन ।
राधा सकल कलाभरी, रस मूरति हित लीन ॥८१॥
जो कछु है सो राधिका, मो कछु और न चाह ।
राधा पद पन पैज कौ, राधा हाथ निबाह ॥८२॥
राधा सब ठाँ, सब समै, रहति बहुगुनी संग ।
तान रमन गुनगान की लै बरसावति रंग ॥८३॥
राधा अचल सुहाग के ललित रँगीले गीत ।
रागनि भींजी बहुगुनी रिझवति राधामीत ॥८४॥
राधा चाहनि चाह सौं, राधा चाहनि चाह ।
राधा ही रस सिंधु मैं, राधा राधा थाहि ॥८५॥
राधा मो दृग पूतरी, भई स्याम लखि स्याम ।
राधा राधा रमन कौ, अनुपम रूप ललाम ॥८६॥
राधा पिय प्यासनि भरी, आनँदघन रसरासि ।
स्याम रँगमगी सगमगी राधा रही प्रकासि ॥८७॥
राधा राधा नाम कौ, रसनै महासवाद ।
या प्रबंध कौ नामहू पायौ प्रिया प्रसाद ॥८८॥
प्रिया प्रसाद प्रबंध कौं पाय सवादहिं लेत ।
नित हित सहित सनेह च्वै रसना इह सुख देत ॥८९॥
राधा मंगल मालती, सरस मधुव्रत श्याम ।
जमुना तट राजत सदा रसिक सँजीवनि धाम ॥९०॥
--समाप्त--
राधा राधा राधा एक ।
सर्वोपर राधा हित टेक ॥६॥
राधा व्रज जीवन की ज्यारी ।
राधा प्राननाथ की प्यारी ॥५॥
राधा वृन्दावन की रानी ।
राधा ही मेरी ठकुरानी ॥४॥
राधा जीवन राधा प्रान ।
राधा ही राधा गुनगान ॥३॥
राधा जानौं राधा मानौं ।
मन राधा रस ही मैं सानौं ॥२॥
राधा राधा राधा कहौं ।
कहि कहि राधा राधा लहौं ॥१॥
झलकै अति सुन्दर आनन गौर / घनानंद
तब तौ छबि पीवत जीवत है / घनानंद
मीत सुजान अनीत करौ जिन / घनानंद
पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ / घनानंद
जासों प्रीति ताहि निठुराई / घनानंद
प्रीतम सुजान मेरे हित के / घनानंद
प्रिया प्रसाद रचना / घनानंद की रचना
वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै / घनानंद