सखी, हौं स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाइ गई वह मूरति, सूरति माहि पगी॥१॥
संग हुतो अपनो सपनो सो, सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टिो परै सखि, नेकु न न्यारो होई॥२॥
एक जु मेरी अँखियनमें निसिद्योस रह्यो करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि, सो धौं कन्हैया कौन॥३॥
कासों कहौं कौन पतियावै, कौन करै बकवाद।
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगेको गुड़ स्वाद॥४॥
श्रीगोबिन्द पद-पल्लव सिर पर बिराजमान,
कैसे कहि आवै या सुखको परिमान।
ब्रजनरेस देस बसत कालानल हू त्रसत,
बिलसत मन हुलसत करि लीलामृत पान॥१॥
भीजे नित नयन रहत प्रभुके गुनग्राम कहत,
मानत नहिं त्रिबिधताप जानत नहिं आन।
तिनके मुखकमल दरस पातन पद-रेनु परस,
अधम जन गदाधरसे पावैं सनमान॥२॥
कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी।
और न कोऊ काटनको मोह बेरी॥१॥
काम लोभ आदि ये निरदय अहेरी।
मिलिकै मन मति मृगी चहूँधा घेरी॥२॥
रोपी आइ पास-पासि दुरासा केरी।
देत वाहीमें फिरि फिरि फेरी॥३॥
परी कुपथ कंटक आपदा घनेरी।
नैक ही न पावति भजि भजन सेरी॥४॥
दंभके आरंभ ही सतसंगति डेरी।
करै क्यों गदाधर बिनु करुना तेरी॥५॥
श्रेणी: पद