Post date: Feb 18, 2018 10:36:22 AM
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले ।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
घन तिमिर में हो गया प्रहरी यही दीपक हमारा ।
हैं अमर निधियाँ तुम्हारी
दीप माटी का हमारा !
सप्त-अश्वारथ सहस्रों
रश्मियाँ जिसको मिली थीं,
और बारह रंग की
तेजसमई आकृति खिली थी,
छू सकी जिसको न आँधी
रोकता कब है प्रभंजन ?
उदयगिरि की भी शिलाएं
रोकतीं जिसका न स्यन्दन !
जग डुबाकर डूब जाता यह अमर दिनकर तुम्हारा !
दीप माटी का हमारा !
ढालती धरती इसे जब
प्राण ज्वाला में तपाती,
और कोमल फूल ही से
तूल की बाती बनाती,
स्नेह की हर बूंद सबसे
मांगकर इसमें मिलाती,
चेतना का ऋण सभी से
ले उसी से लौ जलाती,
पुत्र धरती का यही है जो कभी तम से न हारा !
दीप माटी का हमारा !
तिमिर का बन्दी हुआ है,
अब गगन चुम्बी हिमालय,
सिंधु की उत्तुंग लहरों का, हुआ अस्तित्त्व भी लय,
दिवस शिल्पी के उकेरे
चित्र अब अनगढ़ शिला है,
किंतु रवि का दाय लेने का
किसे साहस मिला है ?
नमन कर सबको चुनौती-सी ज्वलित लौ को सँवारा !
दीप माटी का हमारा !
काल की उच्छल तरंगों में
चला दीपक अकेला ।
कौन-सी तम की चुनौती
है जिसे इसने न झेला ?
दृष्टि-धन बाँटा सभी को
छंद आकृति को दिया है,
राख थी जिसकी नियति
अंगार को रसमय किया है !
है अमा का पर्व इससे दीप्त दोपहरी तुम्हारा !
दीप माटी का हमारा !
छिन्न जीवन-पृष्ठ जिन पर
अनलिखी दुख की कथाएं,
और बिखरे पृष्ठ जिन पर,
बोलती सुख की प्रथाएँ,
ज्योति-कण से बीन इसने
सब संजोये, स्वप्न खोये,
काल लहरों में उगे जो
नये जीवन-बीज बोये!
बाँच देखो बन गया यह मर्म का छान्दस् तुम्हारा!
दीप माटी का हमारा !
एक में अब जल उठे
दीपक सहस्रों शेष क्या है ?
आज लौ का मोल क्या है
तोल क्या है देश क्या है?
बाँट देगा यह सभी आलोक
जब दिन लौट आए,
क्या दिवस पथ में बिछे यह,
या किरण मे मुस्कराए
यह न माँगेगा तिमिर के सिंधु से कोई किनारा !
यह सजग प्रहरी तुम्हारा,
दीप माटी का हमारा !
कहाँ उग आया है तू हे बीज अकेला ?
यह वह धरती रही सभी को जो अपनाती,
नहीं किसी को गोद बिठाने में सकुचाती,
ऊँच-नीच का जिसमें कोई भेद नहीं है
इसमें आकर प्राण मुक्त प्राणों से खेला !
सघन छाँह वाले हों चाहे नीम-महावट,
अमृत फलवाले हों चाहे आम्र-आमलक,
इन विशाल तरुओं का संगी बना लिया है,
जिसने अंक बिठाकर अपने लघु दूर्वादल !
इस माटी में सदा सृजन का लगता मेला !
नीर-क्षीर से पाल इन्हें नव जीवन देती,
जो मुरझाते उन्हें स्नेह-आश्रय में लेती,
नहीं माधवी सुरभित या अंगूर लताएँ,
इसने तो काँटोंवाली झाड़ी को झेला !
स्नेह-तरल माटी में ही तो रहता जीवन
ये तो हैं पाषाण सभी सूखे नीरस मन ।
अब न प्रतीक्षा कर स्नेहिल धरती माता की,
अब मत कर मनुहार मेघ जीवनदाता की,
अपने ही पौरुष से है तू आज दुकेला !
पग नीचे पाषाण चौंपकर शिर ऊंचा कर,
झेल चुनौती रवि की, नभ की, आज न तू डर,
वे ही ऊँचे उठे बढ़े जो मौन अकेले,
उनसे ही यह काल सदा संगी-सा खेला !
कहाँ उग आया है तू हे बीज अकेला ?
तुम तो हारे नहीं तुम्हारा मन क्यों हारा है ?
कहते हैं ये शूल चरण में बिंधकर हम आए,
किन्तु चुभें अब कैसे जब सब दंशन टूट गए,
कहते हैं पाषाण रक्त के धब्बे हैं हम पर,
छाले पर धोएं कैसे जब पीछे छूट गए ?
यात्री का अनुसरण करें
इसका न सहारा है !
तुम्हारा मन क्यों हारा है ?
इसने पहिन वसंती चोला कब मधुवन देखा ?
लिपटा पग से मेघ न बिजली बन पाई पायल,
इसने नहीं निदाघ चाँदनी का जाना अंतर
ठहरी चितवन लक्ष्यबद्ध, गति थी केवल चंचल !
पहुंच गए हो जहाँ विजय ने
तुम्हें पुकारा है !
तुम्हारा मन क्यों हारा है !
दु:ख आया अतिथि द्वार
लौटा न दो ।
तुम नयन-नीर उर-पीर
लौटा न दो !
स्वप्न का क्षार ही
पुतलियों में भरा,
दृष्टि विस्तार है
आज मरु की धरा,
दु:ख लाया अमृत सिंधु में डूबकर
यह घटा स्नेह-सौगात
लौटा न दो।
प्राग अभिशप्त हो
बन गए हैं शिला
न उस पर रुका पल
न युग ही चला,
दु:ख की पगछुवन शाप की मुक्ति है
कह इसे तुम पक्षघात
लौटा न दो।
उड़ गए भाव के
हंस मोती पले,
सूखता मान-सर
सांस के तट जले
दु:ख ने शिव जटा से निचोड़ा जिसे
तुम वही पुण्य जल आज
लौटा न दो।
यह गगन नीलिमा है
सदय छांह-सी,
यह क्षितिज-रेख घेरे
सुहृद बांह-सी,
स्वर्ण जूही विपिन-सी उतरती किरण,
तुम समझकर प्रलयरात
लौटा न दो।
दु:ख आया अतिथि आज
लौटा न दो ।
तुम नयन-नीर उर-पीर
लौटा न दो !
हे धरा के अमर सुत ! तुझको अशेष प्रणाम !
जीवन के अजस्र प्रणाम !
मानव के अनंत प्रणाम !
दो नयन तेरे धरा के अखिल स्वप्नों के चितेरे,
तरल तारक की अमा में बन रहे शत-शत सवेरे,
पलक के युग शुक्ति-सम्पुट मुक्ति-मुक्ता से भरे ये,
सजल चितवन में अजर आदर्श के अंकुर हरे ये,
विश्व जीवन के मुकुर दो तिल हुए अभिराम !
चल क्षण के विराम ! प्रणाम !
वह प्रलय उद्दाम के हित अमिट वेला एक वाणी,
वर्णमाला मनुज के अधिकार की भू की कहानी,
साधना अक्षर अचल विश्वास ध्वनि-संचार जिसका,
मुक्त मानवता हुई है अर्थ का संसार जिसका,
जागरण का शंख-स्वन, वह स्नेह-वंशी-ग्राम !
स्वर-छांदस् विशेष ! प्रणाम !
साँस का यह तंतु है कल्याण का नि:शेष लेखा,
घेरती है सत्य के शत रूप सीधी एक रेखा,
नापते निश्वास बढ़-बढ़ लक्ष्य है अब दूर जितना,
तोलते हैं श्वास चिर संकल्प का पाथेय कितना ?
साध कण-कण की संभाले कंप एक अकाम !
नित साकार श्रेय ! प्रणाम !
कर युगल बिखरे क्षणों की एकता के पाश जैसे,
हार के हित अर्गला, तप-त्याग के अधिवास जैसे,
मृत्तिका के नाल जिन पर खिल उठा अपवर्ग-शतदल,
शक्ति की पवि-लेखनी पर भाव की कृतियां सुकोमल,
दीप-लौ-सी उँगलियां तम-भार लेतीं थाम !
नव आलोक-लेख ! प्रणाम !
स्वर्ग ही के स्वप्न का लघुखंड चिर उज्जल हृदय है,
काव्य करुणा का, धरा की कल्पना ही प्राणमय है,
ज्ञान की शत रश्मियों से विच्छुरित विद्युत छटा-सी
वेदना जग की यहाँ है स्वाति की क्षणदा घटा-सी
टेक जीवन-राग की उत्कर्ष का चिर याम !
दुख के दिव्य शिल्प ! प्रणाम !
युग चरण दिव औ' धरा की प्रगति पथ में एक कृति है,
न्यास में यति है सृजन की, चाप अनुकूला नियति है,
अंक हैं अज-अमरता के संधि-पत्रों की कथाएँ,
मुक्त गति से जय चली, पग से बंधी जग की व्यथाएं,
यह अनंत क्षितिज हुआ इनके लिए विश्राम !
संसृति-सार्थवाह ! प्रणाम !
शेष शोणित-बिन्दु नत भू-भाल पर है दीप्त टीका,
यह शिराएँ शीर्ण रसमय का रहीं स्पंदन सभी का,
ये सृजनजीवी, वरण से मृत्यु के कैसे बनी हैं ?
चिर सजीव दधीचि ! तेरी अस्थियां संजीवनी हैं !
स्नेह की लिपियां दलित की शक्तियां उद्दाम !
इच्छाबंध मुक्त ! प्रणाम !
चीरकर भू-व्योम को प्राचीर हों तम की शिलाएँ,
अग्निशर-सी ध्वंस की लहरें जला दें पथ-दिशाएँ,
पग रहें सीमा, बनें स्वर रागिनी सूने निलय की,
शपथ धरती की तुझे औ' आन है मानव-हृदय की,
यह विराग हुआ अमर अनुराग का परिणाम !
हे असिधार-पथिक ! प्रणाम !
शुभ्र हिम-शतदल-किरीटिनि, किरण-कोमल-कुंतला जो,
सरित-तुंग-तरंगमालिनि, मरुत-चंचल-अंचला, जो,
फेन-उज्जवल अतल सागर चरणपीठ जिसे मिला है,
आतपत्र रजत-कनक-नभ चलित रंगों से धुला है,
पा तुझे यह स्वर्ग की धात्री प्रसन्न प्रकाम !
मानव-वर ! असंख्य प्रणाम !
नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूँ !
विष तो मैंने पिया, सभी को व्यापी नीलकण्ठता मेरी;
घेरे नीला ज्वार गगन को बांधे भू को छांह अंधेरी;
सपने जम कर आज हो गये चलती फिरती नील शिलाएं,
आज अमरता के पथ को मैं
जल कर उजियाला करती हूं !
हम से सीझा है यह दीपक आंसू से बाती है गीली;
दिन से धनु की आज पड़ी है क्षितिज-शिञ्जिनी उतरी ढीली,
तिमिर-कसौटी पर पैना कर चढ़ा रही मैं दृष्टि-अग्निशर,
आभाजल में फूट बहे जो
हर क्षण को छाला करती हूं ।
पग में सौ आवर्त्त बांधकर नाच रही घर-बाहर आंधी
सब कहते हैं यह न थमेगी, गति इसकी न रहेगी बांधी,
अंगारों को गूंथ बिजलियों में, पहना दूं इसको पायल,
दिशि दिशि को अर्गला
प्रभञ्जन ही को रखवाला करती हूं !
क्या कहते हो अंधकार ही देव बन गया इस मन्दिर का ?
स्वस्ति ! समर्पित इसे करूंगी आज अर्घ्य अंगारक-उर का !
पर यह निज को देख सके औ' देखे मेरा उज्जवल अर्चन,
इन सांसों को आज जला मैं
लपटों की माला करती हूं !
नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से मैं प्याला भरती हूँ !