Post date: Feb 19, 2018 8:0:45 AM
आह ! करोगे क्या सुन कर तुम
मेरी करुण कहानी को ।
भूल चुकी मैं स्वयं आज
उस स्वप्न-लोक की रानी को ।।
जो चुन कर आकाश-कुसुम का
हार बनाने वाली थी ।
उनके काँटों से इस उर का
साज सजाने वाली थी ।
अपने वैभव को बटोर कर
कहीं चढ़ाने वाली थी ।
उन्हें पकड़ने को यह दुबर्ल
हाथ बढ़ाने वाली थी ।
पर क्या संभव है पा जाना
नील-गगन का प्यारा फूल ।
जो मेरी आँखों में बरबस
रहा पुतलियों के संग झूल ।
मुझे वहां तक पहुँचाने में,
हो न सका विधि भी अनुकूल ।
सजनि ! वायु भी तो बहती थी
उस दिन मेरे ही प्रतिकूल ।।
थे अप्राप्त तो मुझे सुनहले
सपने ही दिखलाये क्यों ?
छिप-छिप बिना सूचना के
मेरे मानस में आये क्यों?
मधुमय पीड़ा से मेरी
रीती प्याली भर लाये क्यों ?
जलते जीवन में जल के
दो चार बिन्दु टपकाये क्यों ?
अरे प्राण ! इस भांति निठुर
होकर ही तुमको जाना था ?
तो फिर क्यों केवल दो दिन के
लिए मुझे पहिचाना था ?
चपला की सी चमक दिखाकर
ही यदि फिर छिप जाना था ।
तो प्राणेश ! तुम्हें मेरे
प्राणों में नहीं समाना था ।
आज झर रही हैं निर्झर-सी
झर-झर यह आंखें अविराम ।
नहीं खोजने पर भी पाता
यह उद्भ्रांत हृदय विश्राम ।
बाल-सूर्य की प्रथम रश्मि के
साथ-साथ ही आयी शाम ।
जल तम में प्रज्जवलित हो उठी
वह वियोग-ज्वाला उद्दाम ।।
यहीं रुको बस, बहत सुन लिया
तुमने उसका करुण कलाप ।
यहीं करो इति आगे सुनकर
नाहक ही होगा संताप ।।
अर्थहीन है, सारहीन है
उस पगली का सभी प्रलाप ।
भूलो उसे, भूल भी जाओ
समझो उसे अरण्य-विलाप ।।
मुझ अकिंचना के प्रति होकर
द्रवित न होना कहीं विकल ।
मेरी उष्म उसासों से मत
झुलसा लेना अन्तस्तल ।।