Post date: Feb 18, 2018 1:38:48 PM
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम[1]! तो नहीं है ये इकराम[2] ही तो है
करते हैं जिस पे ता'न[3], कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े-फ़ुज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है
दिल मुद्दई के हर्फ़े-मलामत[4] से शाद है
ऐ जाने-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है
दस्ते-फ़लक[5] में, गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-अय्याम ही तो है
आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़साल[6] सरे-बाम ही तो है
भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्ते-सरोद[7], दर्द का हंगाम ही तो है
मांटगोमरी जेल, 9 मार्च 1954
शब्दार्थ
1 गाली 2कृपा 3व्यंग्य 4 निंदा का शब्द 5आसमान का हाथ
6 अच्छे गुणों वाला यार 7 गाने का वक़्त