जाका गुरु है गीरही,
गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते,
दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥
गुरु मिला तब जानिये,
मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं,
तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥
यह तन विषय की बेलरी,
गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै,
तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥
बँधे को बँधा मिला,
छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की
पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥
गुरु बिचारा क्या करै,
शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी,
कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥
गुरु बिचारा क्या करे,
ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा
पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥
कहता हूँ कहि जात हूँ,
देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु
जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥
शिष्य पुजै आपना,
गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को,
मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥
हिरदे ज्ञान न उपजै,
मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें,
घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥
ऐसा कोई न मिला,
जासू कहूँ निसंक ।
जासो हिरदा की कहूँ,
सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥
शिष किरपिन गुरु स्वारथी,
किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को,
कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥
स्वामी सेवक होय के,
मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं,
रहिये मन के माय ॥ 512 ॥
गुरु कीजिए जानि के,
पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे,
परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥
सत को खोजत मैं फिरूँ,
सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले,
विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥
देश-देशान्तर मैं फिरूँ,
मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै,
वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥
॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन,
राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की,
घास न डारै कोय ॥ 516 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन,
नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै,
टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥
जो कामिनि परदै रहे,
सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी,
फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥
चौंसठ दीवा जोय के,
चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना,
जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥
हरिया जाने रूखाड़ा,
उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै,
कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥
झिरमिर झिरमिर बरसिया,
पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई,
पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥
कबीर ह्रदय कठोर के,
शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे,
उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥
कबीर चन्दर के भिरै,
नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया,
यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥
पशुआ सों पालो परो,
रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी,
बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥
कंचन मेरू अरपही,
अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी,
कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥
साकट का मुख बिम्ब है
निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है,
विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥
शुकदेव सरीखा फेरिया,
तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे,
पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥
कबीर लहरि समुन्द्र की,
मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई,
हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥
साकट कहा न कहि चलै,
सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै,
तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥
साकट मन का जेवरा,
भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा,
बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥
कबीर साकट की सभा,
तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै,
रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥
संगत सोई बिगुर्चई,
जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के,
सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥
साकट संग न बैठिये
करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये,
पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥
टेक न कीजै बावरे,
टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै,
सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥
साकट सूकर कीकरा,
तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये,
तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला,
गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला,
नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥
हरिजन आवत देखिके,
मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं,
मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥
खसम कहावै बैरनव,
घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता,
भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥
घर में साकट स्त्री,
आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी,
वो रखवाला पास ॥ 539 ॥
आँखों देखा घी भला,
न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला,
ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥
कबीर दर्शन साधु का,
बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा,
काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥
कबीर सोई दिन भला,
जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये,
पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥
कबीर दर्शन साधु के,
करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी,
आलस मन से हानि ॥ 543 ॥
कई बार नाहिं कर सके,
दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते,
काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥
दूजे दिन नहिं करि सके,
तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष
मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥
तीजे चौथे नहिं करे,
बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये,
कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥
दोय बखत नहिं करि सके,
दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते,
उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥
बार-बार नहिं करि सके,
पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन,
जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥
पाख-पाख नहिं करि सकै,
मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये,
कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥
बरस-बरस नाहिं करि
सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो,
कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥
छठे मास नहिं करि सके,
बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन,
जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥
मास-मास नहिं करि सकै,
उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये,
कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥
मात-पिता सुत इस्तरी
आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं,
ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥
साधु चलत रो दीजिये,
कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ,
अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥
इन अटकाया न रुके,
साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन,
मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥
खाली साधु न बिदा करूँ,
सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ,
जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥
सुनिये पार जो पाइया,
छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को,
देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥
कबीर दरशन साधु के,
खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए,
कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥
टूका माही टूक दे,
चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये,
यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥
कबीर लौंग-इलायची,
दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को,
देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥
साधु आवत देखिकर,
हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा,
नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥
साधु शब्द समुद्र है,
जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे,
कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥
साधु आया पाहुना,
माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा,
सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥
साधु आवत देखिके,
मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा,
बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥
साधु मिलै यह सब हलै,
काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै,
अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥
साधु बिरछ सतज्ञान फल,
शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं,
जर भरता संसार ॥ 566 ॥
साधु बड़े परमारथी,
शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की,
देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥
आवत साधु न हरखिया,
जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की,
मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥
छाजन भोजन प्रीति सो,
दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में,
अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥
सरवर तरवर सन्त जन,
चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने,
चारों धारी देह ॥ 570 ॥
बिरछा कबहुँ न फल भखै,
नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने,
साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥
सुख देवै दुख को हरे,
दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले,
परम सनेही साध ॥ 572 ॥
साधुन की झुपड़ी भली,
न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली,
ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥
कह अकाश को फेर है,
कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है,
कह पारस का मोल ॥ 574 ॥
हयबर गयबर सधन धन,
छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले,
हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥
क्यों नृपनारि निन्दिये,
पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित,
नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥
जा सुख को मुनिवर रटैं,
सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया,
सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥
साधु सिद्ध बहु अन्तरा,
साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको,
साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥
कबीर शीतल जल नहीं,
हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन,
राम सनेही सोय ॥ 579 ॥
आशा वासा सन्त का,
ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै,
बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥
कोटि-कोटि तीरथ करै,
कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई,
तब लग काचा काम ॥ 581 ॥
वेद थके, ब्रह्मा थके,
याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं,
सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥
सन्त मिले जानि बीछुरों,
बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले,
प्राण देह में आन ॥ 583 ॥
साधु ऐसा चाहिए,
दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं,
बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥
साधु कहावन कठिन है,
ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े
निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥
साधु कहावत कठिन है,
लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस,
गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥
साधु चाल जु चालई,
साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं
साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥
साधु सोई जानिये,
चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै,
बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥
साधु भौरा जग कली,
निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया,
जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥
साधू जन सब में रमैं,
दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै,
साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥
साधु सती और सूरमा,
राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों,
नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है,
जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है,
और सेत का सेत ॥ 592 ॥
साधु सती औ सिं को,
ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का,
साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥
साधु तो हीरा भया,
न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों
ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥
साधू-साधू सबहीं बड़े,
अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी,
ते माथे के मौर ॥ 595 ॥
सदा रहे सन्तोष में,
धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की,
और चित्त विचार ॥ 596 ॥
दुख-सुख एक समान है,
हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता,
उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन,
बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही,
सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥
साधु ऐसा चाहिए,
जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें,
अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥
सावधान और शीलता,
सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत,
धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
निबैंरी निहकामता,
स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे,
साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
मानपमान न चित धरै,
औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै,
उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
और देव नहिं चित्त बसै,
मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ,
तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
जौन चाल संसार की
जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे,
साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन,
हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में,
रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत,
अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता,
कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
कोई आवै भाव ले,
कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते,
भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
सन्त न छाड़ै सन्तता,
कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया,
शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
कमल पत्र हैं साधु जन,
बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों,
अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बहता पानी निरमला,
बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला,
दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
बँधा पानी निरमला,
जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला,
जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
एक छाड़ि पय को गहैं,
ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै,
ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
जौन भाव उपर रहै,
भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई,
ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
उड़गण और सुधाकरा,
बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में,
कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
तन में शीतल शब्द है,
बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को,
गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
तूटै बरत आकाश सौं,
कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का,
अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
ढोल दमामा गड़झड़ी,
सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं,
साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
आज काल के लोग हैं,
मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने,
सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
जुवा चोरी मुखबिरी,
ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को,
इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
कबीर मेरा कोइ नहीं,
हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों,
मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
सन्त समागम परम सुख,
जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है,
बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
सन्त मिले सुख ऊपजै
दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की,
जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
संगत कीजै साधु की
कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते,
सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
मान नहीं अपमान नहीं,
ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं,
तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
दया गरीबी बन्दगी,
समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के,
कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
सो दिन गया इकारथे,
संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना,
भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
आशा तजि माया तजै,
मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै,
कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
आसन तो इकान्त करैं,
कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी,
उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
यह कलियुग आयो अबै,
साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा,
तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
कुलवन्ता कोटिक मिले,
पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में,
तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
साधु दरशन महाफल,
कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी,
नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
साधु दरश को जाइये,
जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग,
है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
सन्त मता गजराज का,
चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं,
सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
आज काल दिन पाँच में,
बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी,
और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
साधु ऐसा चाहिए,
जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में,
ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
सन्त होत हैं, हेत के,
हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन,
गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
हेत बिना आवै नहीं,
हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन,
नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
साधु-ऐसा चाहिए,
जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं,
चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
सन्त सेव गुरु बन्दगी,
गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये,
पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
चाल बकुल की चलत हैं,
बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे,
पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
बाना पहिरे सिंह का,
चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की,
कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
साधु भया तो क्या भया,
माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया,
भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
तन को जोगी सब करै,
मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये,
जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
जौ मानुष गृह धर्म युत,
राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग,
मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
शब्द विचारे पथ चलै,
ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता,
क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
गिरही सुवै साधु को,
भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को,
निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
पाँच सात सुमता भरी,
गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के,
रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
गुरु के सनमुख जो रहै,
सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों,
कोटिक सूख ॥ 648 ॥
मन मैला तन ऊजरा,
बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला,
तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
भेष देख मत भूलिये,
बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं,
कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
कवि तो कोटि-कोटि हैं,
सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि,
ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
बोली ठोली मस्खरी,
हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी,
नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
फाली फूली गाडरी,
ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले,
गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
बैरागी बिरकत भला,
गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े,
ताको वार न पार ॥ 654 ॥
धारा तो दोनों भली,
बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे
बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
घर में रहै तो भक्ति करूँ,
ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै,
ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥
उदर समाता माँगि ले,
ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै,
ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
अजहूँ तेरा सब मिटैं,
जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै,
मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
माँगन गै सो भर रहै,
भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे,
होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
माँगन-मरण समान है,
तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के,
मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
उदर समाता अन्न ले,
तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै,
तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
आब गया आदर गया,
नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये,
जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
सहत मिलै सो दूध है,
माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है,
जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
अनमाँगा उत्तम कहा,
मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो,
पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
अनमाँगा तो अति भला,
माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले,
निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
॥ संगति पर दोहे ॥
कबीरा संगत साधु की,
नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी,
देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
एक घड़ी आधी घड़ी,
आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की,
करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
कबिरा संगति साधु की,
जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये,
बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
मन दिया कहुँ और ही,
तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी,
कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
साधुन के सतसंग से,
थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते,
जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
साखी शब्द बहुतै सुना,
मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं,
ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
साध संग अन्तर पड़े,
यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में,
सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
गिरिये परबत सिखर ते,
परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये,
बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
संत कबीर गुरु के देश में,
बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै,
जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
भुवंगम बास न बेधई,
चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा,
अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
तोहि पीर जो प्रेम की,
पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै,
खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
काचा सेती मति मिलै,
पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही,
है तन धन की हान ॥ 677 ॥
कोयला भी हो ऊजला,
जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला,
ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
मूरख को समुझावते,
ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला,
सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै,
रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै,
हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना,
मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं,
रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
ब्राह्मण केरी बेटिया,
मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की,
मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
जीवन जीवन रात मद,
अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में,
जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
दाग जु लागा नील का,
सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये,
कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
जो छोड़े तो आँधरा,
खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी,
दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
प्रीति कर सुख लेने को,
सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी,
पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
कबीर विषधर बहु मिले,
मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले,
विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
सज्जन सों सज्जन मिले,
होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले,
खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
तरुवर जड़ से काटिया,
जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं,
बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
मैं सोचों हित जानिके,
कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की
सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
लकड़ी जल डूबै नहीं,
कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के,
यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
साधू संगत परिहरै,
करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे,
त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
संगति ऐसी कीजिये,
सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है,
तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
तेल तिली सौ ऊपजै,
सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो,
ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
साधु संग गुरु भक्ति अरू,
बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू,
घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
संगत कीजै साधु की,
होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली,
धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
चर्चा करूँ तब चौहटे,
ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला,
और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
सन्त सुरसरी गंगा जल,
आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये,
साधू जन को संग ॥ 698 ॥
॥ सेवक पर दोहे ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के,
जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है,
कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥
तू तू करूं तो निकट है,
दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै,
जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥
सेवक सेवा में रहै,
सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना,
सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
अनराते सुख सोवना,
राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी,
तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥
यह मन ताको दीजिये,
साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै,
तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥
गुरु आज्ञा मानै नहीं,
चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये,
आये सिर पर काल ॥ 704 ॥
आशा करै बैकुण्ठ की,
दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं,
ताते गयो पताल ॥ 705 ॥
द्वार थनी के पड़ि रहे,
धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है,
जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥
उलटे सुलटे बचन के
शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में,
सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस,
क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै
सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥
गुरु आज्ञा लै आवही,
गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय,
बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥
गुरुमुख गुरु चितवत रहे,
जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं,
यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥
यह सब तच्छन चितधरे,
अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है,
गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
ज्ञानी अभिमानी नहीं,
सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी,
आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥
दया और धरम का ध्वजा,
धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका,
सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥
शीतवन्त सुन ज्ञान मत,
अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता,
कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥
॥ दासता पर दोहे ॥
कबीर गुरु कै भावते,
दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना,
जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
कबीर गुरु सबको चहै,
गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की,
तब लग दास न होय ॥ 716 ॥
सुख दुख सिर ऊपर सहै,
कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का,
व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥
गुरु समरथ सिर पर खड़े,
कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै,
मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥
लगा रहै सत ज्ञान सो,
सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो,
काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥
काहू को न संतापिये,
जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये,
दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥
दास कहावन कठिन है,
मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ
पाँव तले की घास ॥ 721 ॥
दासातन हिरदै बसै,
साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है,
प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥
दासातन हिरदै नहीं,
नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना,
कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥
॥ भक्ति पर दोहे ॥
भक्ति कठिन अति दुर्लभ,
भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से,
यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति बीज पलटै नहीं
जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै,
होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥
भक्ति भाव भादौं नदी,
सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये,
जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की,
चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै,
निज मन समझो आय ॥ 727 ॥
भक्ति दुहेली गुरुन की,
नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों,
ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥
भक्ति पदारथ तब मिलै,
जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो,
पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥
भक्ति भेष बहु अन्तरा,
जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में,
भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
कबीर गुरु की भक्ति करूँ,
तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये,
मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥
भक्ति दुवारा साँकरा,
राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा,
कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥
भक्ति बिना नहिं निस्तरे,
लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे,
घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
भक्ति नसेनी मुक्ति की,
संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया,
जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥
गुरु भक्ति अति कठिन है,
ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं,
महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥
भाव बिना नहिं भक्ति जग,
भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है,
दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥
कबीर गुरु की भक्ति का,
मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं,
होन चहत है दास ॥ 737 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन,
धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा,
बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥
जाति बरन कुल खोय के,
भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै,
आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
देखा देखी भक्ति का,
कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी,
केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥
आरत है गुरु भक्ति करूँ,
सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में,
भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥
जब लग भक्ति सकाम है,
तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै,
निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥
पेटे में भक्ति करै,
ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं,
लेते गये अऊत ॥ 743 ॥
निर्पक्षा की भक्ति है,
निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है,
निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥
तिमिर गया रवि देखते,
मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते,
भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
खेत बिगारेउ खरतुआ,
सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची,
ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥
ज्ञान सपूरण न भिदा,
हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का,
रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है,
रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है,
अधर धार की चोट ॥ 748 ॥
भक्तन की यह रीति है,
बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह
तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥
भक्ति महल बहु ऊँच है,
दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे,
शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥
और कर्म सब कर्म है,
भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के,
भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
विषय त्याग बैराग है,
समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों,
यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥
भक्ति निसेनी मुक्ति की,
संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही,
कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै,
भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै,
कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥
॥ चेतावनी ॥
कबीर गर्ब न कीजिये,
चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट,
तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये,
ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना,
ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये,
इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस,
खंखर भया पलास ॥ 757 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये,
काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं,
कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥
कबीर मन्दिर लाख का,
जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना,
विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥
कबीर धूल सकेलि के,
पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना,
अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥
कबीर थोड़ा जीवना,
माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर,
राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥
कबीर नौबत आपनी,
दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली,
बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये,
जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर,
देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥
कबीर यह तन जात है,
सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की,
कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥
कबीर जो दिन आज है,
सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले,
मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥
कबीर खेत किसान का,
मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे,
धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥
कबीर यह संसार है,
जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में,
झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥
कबीर सपनें रैन के,
ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में,
जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥
कबीर जन्त्र न बाजई,
टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे,
गया बजावन हार ॥ 769 ॥
कबीर रसरी पाँव में,
कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का,
बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥
कबीर नाव तो झाँझरी,
भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं,
क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
कबीर पाँच पखेरूआ,
राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी,
लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥
कबीर बेड़ा जरजरा,
कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये,
बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥
एक दिन ऐसा होयगा,
सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक,
सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥
ढोल दमामा दुरबरी,
सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के,
है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥
मरेंगे मरि जायँगे,
कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे,
छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
कबीर पानी हौज की,
देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा,
काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥
कबीर गाफिल क्या करे,
आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला,
ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥
कै खाना कै सोवना,
और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया,
आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥
हाड़ जरै जस लाकड़ी,
केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि,
भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
आज काल के बीच में,
जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै,
ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊजड़ खेड़े टेकरी,
धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया,
लंका का सरदार ॥ 782 ॥
पाव पलक की सुधि नहीं,
करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी,
ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥
आछे दिन पाछे गये,
गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे,
चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
आज कहै मैं कल भजूँ,
काल फिर काल ।
आज काल के करत ही,
औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
कहा चुनावै मेड़िया,
चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी,
दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥
सातों शब्द जु बाजते,
घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े,
बैठने लागे काग ॥ 787 ॥
ऊँचा महल चुनाइया,
सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े,
रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥
ऊँचा मन्दिर मेड़िया,
चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन,
जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥
ऊँचा दीसे धौहरा,
भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन,
जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
पाव पलक तो दूर है,
मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा,
पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥
मौत बिसारी बाहिरा,
अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया,
ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥
घर रखवाला बाहिरा,
चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे,
चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥
हाड़ जले लकड़ी जले,
जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है,
घर आवै तब जान ॥ 794 ॥
पकी हुई खेती देखि के,
गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है,
घर आवै तब जान ॥ 795 ॥
पाँच तत्व का पूतरा,
मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने,
फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥
कहा चुनावै मेड़िया,
लम्बी भीत उसारि ।
घर तो साढ़े तीन हाथ,
घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥
यह तन काँचा कुंभ है,
लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया,
कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥
कहा किया हम आपके,
कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के,
चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥
जनमै मरन विचार के,
कूरे काम निवारि ।
जिन पंथा तोहि चालना,
सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
कुल खोये कुल ऊबरै,
कुल राखे कुल जाय ।
राम निकुल कुल भेटिया,
सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥
दुनिया के धोखे मुआ,
चला कुटुम की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है,
जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥
दुनिया सेती दोसती, मुआ,
होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों,
कै साधुन के संग ॥ 803 ॥
यह तन काँचा कुंभ है,
यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया,
नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥
यह तन काँचा कुंभ है,
चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन,
जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥
जंगल ढेरी राख की,
उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी,
करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥
मलमल खासा पहिनते,
खाते नागर पान ।
टेढ़ा होकर चलते,
करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥
महलन माही पौढ़ते,
परिमल अंग लगाय ।
ते सपने दीसे नहीं,
देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥
ऊजल पीहने कापड़ा,
पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन,
बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥
कुल करनी के कारने,
ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है,
जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥
कुल करनी के कारने,
हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है,
चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥
मैं मेरी तू जानि करै,
मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा,
मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥
ज्यों कोरी रेजा बुनै,
नीरा आवै छौर ।
ऐसा लेखा मीच का,
दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥
इत पर धर उत है धरा,
बनिजन आये हाथ ।
करम करीना बेचि के,
उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥
जिसको रहना उतघरा,
सो क्यों जोड़े मित्र ।
जैसे पर घर पाहुना,
रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥
मेरा संगी कोई नहीं,
सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीत न ऊपजै,
जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥
मैं भौंरो तोहि बरजिया,
बन बन बास न लेय ।
अटकेगा कहुँ बेलि में,
तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥
दीन गँवायो दूनि संग,
दुनी न चली साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारिया,
मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥
तू मति जानै बावरे,
मेरा है यह कोय ।
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा,
सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥
या मन गहि जो थिर रहै,
गहरी धूनी गाड़ि ।
चलती बिरयाँ उठि चला,
हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥
तन सराय मन पाहरू,
मनसा उतरी आय ।
कोई काहू का है नहीं,
देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥
डर करनी डर परम गुरु,
डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरे,
गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥
भय से भक्ति करै सबै,
भय से पूजा होय ।
भय पारस है जीव को,
निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥
भय बिन भाव न ऊपजै,
भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया,
मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥
काल चक्र चक्की चलै,
बहुत दिवस औ रात ।
सुगन अगुन दोउ पाटला,
तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥
बारी-बारी आपने,
चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा,
नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥
एक दिन ऐसा होयगा,
कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै,
तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
बैल गढ़न्ता नर,
चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु,
धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं,
मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै,
जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥
खलक मिला खाली हुआ,
बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना,
तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥
चले गये सो ना मिले,
किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा,
झूठा सब संघात ॥ 831 ॥
विषय वासना उरझिकर
जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे,
निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी!
राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं ,
जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥
मछरी यह छोड़ी नहीं,
धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो,
तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥
परदा रहती पदुमिनी,
करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की,
छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥
जागो लोगों मत सुवो,
ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का,
ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥
क्या करिये क्या जोड़िये,
तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है,
देह गेह धन राज ॥ 837 ॥
जिन घर नौबत बाजती,
होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े,
बैठने लागे काग ॥ 838 ॥
कबीर काया पाहुनी,
हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा,
मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में
निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा,
मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥
अहिरन की चोरी करै,
करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता,
केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥
नर नारायन रूप है,
तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले,
खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥
मन मुवा माया मुई,
संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे,
तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै,
मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका,
अब को मरने जाय ॥ 844 ॥
एक बून्द के कारने,
रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये,
तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥
समुझाये समुझे नहीं,
धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है,
कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥
राज पाट धन पायके,
क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा,
भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥
मूरख शब्द न मानई,
धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई,
जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥
चेत सवेरे बाचरे,
फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है,
कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥
क्यों खोवे नरतन वृथा,
परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही,
मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥
आँखि न देखे बावरा,
शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये,
अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥
ज्ञानी होय सो मानही,
बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है,
और सकल जमधार ॥ 852 ॥
॥ काल के विषय मे दोहे ॥
जोबन मिकदारी तजी,
चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा
दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥
कबीर टुक-टुक चोंगता,
पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा,
दियरा दममा आय ॥ 854 ॥
झूठे सुख को सुख कहै,
मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का,
कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥
काल जीव को ग्रासई,
बहुत कह्यो समुझाय ।
कहैं कबीर में क्या करूँ,
कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥
निश्चय काल गरासही,
बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ,
देखत न पतियाय ॥ 857 ॥
जो उगै तो आथवै,
फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै,
जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥
कुशल-कुशल जो पूछता,
जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा,
कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥
जरा श्वान जोबन ससा,
काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा
कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥
बिरिया बीती बल घटा,
केश पलटि भये और ।
बिगरा काज सँभारि ले,
करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥
यह जीव आया दूर ते,
जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया,
काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥
कबीर गाफिल क्यों फिरै
क्या सोता घनघोर ।
तेरे सिराने जम खड़ा,
ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥
कबीर पगरा दूर है,
बीच पड़ी है रात ।
न जानों क्या होयेगा,
ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥
कबीर मन्दिर आपने,
नित उठि करता आल ।
मरहट देखी डरपता,
चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥
धरती करते एक पग,
समुंद्र करते फाल ।
हाथों परबत लौलते,
ते भी खाये काल ॥ 866 ॥
आस पास जोधा खड़े,
सबै बजावै गाल ।
मंझ महल से ले चला,
ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥
चहुँ दिसि पाका कोट था,
मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू,
गज बन्दा दरबार ॥
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा,
हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता,
काल ले गया मात ॥ 868 ॥
हम जाने थे खायेंगे,
बहुत जिमि बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया,
पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥
काची काया मन अथिर,
थिर थिर कर्म करन्त ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै,
त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥
हाथी परबत फाड़ते,
समुन्दर छूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले,
का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥
संसै काल शरीर में,
विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं,
जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥
बालपना भोले गया,
और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गयो,
चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥
बेटा जाये क्या हुआ,
कहा बजावै थाल ।
आवन-जावन होय रहा,
ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥
ताजी छूटा शहर ते,
कसबे पड़ी पुकार ।
दरवाजा जड़ा ही रहा,
निकस गया असवार ॥ 875 ॥
खुलि खेलो संसार में,
बाँधि न सक्कै कोय ।
घाट जगाती क्या करै,
सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥
घाट जगाती धर्मराय,
गुरुमुख ले पहिचान ।
छाप बिना गुरु नाम के,
साकट रहा निदान ॥ 877 ॥
संसै काल शरीर में,
जारि करै सब धूरि ।
काल से बांचे दास जन
जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥
ऐसे साँच न मानई,
तिलकी देखो जाय ।
जारि बारि कोयला करे,
जमते देखा सोय ॥ 879 ॥
जारि बारि मिस्सी करे,
मिस्सी करि है छार ।
कहैं कबीर कोइला करै,
फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥
काल पाय जब ऊपजो,
काल पाय सब जाय ।
काल पाय सबि बिनिश है,
काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥
पात झरन्ता देखि के,
हँसती कूपलियाँ ।
हम चाले तु मचालिहौं,
धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥
फागुन आवत देखि के,
मन झूरे बनराय ।
जिन डाली हम केलि,
सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥
मूस्या डरपैं काल सों,
कठिन काल को जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ
जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥
सब जग डरपै काल सों,
ब्रह्मा, विष्णु महेश ।
सुर नर मुनि औ लोक सब,
सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है,
आय पहुँची साँझ ।
जन-जन को मन राखता,
वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥
जाय झरोखे सोवता,
फूलन सेज बिछाय ।
सो अब कहँ दीसै नहीं,
छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥
काल फिरे सिर ऊपरै,
हाथों धरी कमान ।
कहैं कबीर गहु ज्ञान को,
छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥
काल काल सब कोई कहै,
काल न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना,
काल कहवै सोय ॥ 889 ॥
॥ उपदेश ॥
काल काम तत्काल है,
बुरा न कीजै कोय ।
भले भलई पे लहै,
बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥
काल काम तत्काल है,
बुरा न कीजै कोय ।
अनबोवे लुनता नहीं,
बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥
लेना है सो जल्द ले,
कही सुनी मान ।
कहीं सुनी जुग जुग चली,
आवागमन बँधान ॥ 892 ॥
खाय-पकाय लुटाय के,
करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा,
संग न चले छदाम ॥ 893 ॥
खाय-पकाय लुटाय के,
यह मनुवा मिजमान ।
लेना होय सो लेई ले,
यही गोय मैदान ॥ 894 ॥
गाँठि होय सो हाथ कर,
हाथ होय सी देह ।
आगे हाट न बानिया,
लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥
देह खेह खोय जायगी,
कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही,
जीवन का फल येह ॥ 896 ॥
कहै कबीर देय तू,
सब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी,
कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥
देह धरे का गुन यही,
देह देह कछु देह ।
बहुरि न देही पाइये,
अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥
सह ही में सत बाटई,
रोटी में ते टूक ।
कहैं कबीर ता दास को,
कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥
कहते तो कहि जान दे,
गुरु की सीख तु लेय ।
साकट जन औ श्वान को,
फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥
हस्ती चढ़िये ज्ञान की,
सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है,
भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥
या दुनिया दो रोज की,
मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये,
जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ॥
कबीर यह तन जात है,
सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये,
जिनके लाख करोर ॥ 903 ॥
सरगुन की सेवा करो,
निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे,
तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै,
बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले,
तहाँ भानु परगट भये॥ 905 ॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर,
राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा,
रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥
कस्तुरी कुँडली बसै,
मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |
ऎसे घटि घटि राम हैं,
दुनिया देखे नाहिँ ||907||
प्रेम ना बाड़ी उपजे,
प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जेहि रुचे,
सीस देई लै जाय ||908||
माला फेरत जुग गाया,
मिटा ना मन का फेर |
कर का मन का छाड़ि,
के मन का मनका फेर ||909||
माया मुई न मन मुआ,
मरि मरि गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मुई,
यों कह गये कबीर ||910||
झूठे सुख को सुख कहे,
मानत है मन मोद |
खलक चबेना काल का,
कुछ मुख में कुछ गोद ||911||
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे,
नदी न संचै नीर |
परमारथ के कारण,
साधु धरा शरीर ||912||
साधु बड़े परमारथी,
धन जो बरसै आय |
तपन बुझावे और की,
अपनो पारस लाय ||913||
सोना सज्जन साधु जन,
टुटी जुड़ै सौ बार |
दुर्जन कुंभ कुम्हार के,
एके धकै दरार ||914||
जिहिं धरि साध न पूजिए,
हरि की सेवा नाहिं |
ते घर मरघट सारखे,
भूत बसै तिन माहिं ||915||
मूरख संग ना कीजिए,
लोहा जल ना तिराइ |
कदली, सीप, भुजंग-मुख,
एक बूंद तिहँ भाइ ||916||
तिनका कबहुँ ना निन्दिए,
जो पायन तले होय |
कबहुँ उड़न आखन परै,
पीर घनेरी होय ||917||
बोली एक अमोल है,
जो कोइ बोलै जानि |
हिये तराजू तौल के,
तब मुख बाहर आनि ||918||
ऐसी बानी बोलिए,
मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे,
आपहुँ शीतल होय ||919||
लघता ते प्रभुता मिले,
प्रभुत ते प्रभु दूरी |
चिट्टी लै सक्कर चली,
हाथी के सिर धूरी ||920||
निन्दक नियरे राखिये,
आँगन कुटी छवाय |
बिन साबुन पानी बिना,
निर्मल करे सुभाय ||921||
मानसरोवर सुभर जल,
हंसा केलि कराहिं |
मुकताहल मुकता चुगै,
अब उड़ि अनत ना जाहिं ||922||