दुख में सुमिरन सब करे
सुख मे करे न कोय ।
जो सुख मे सुमिरन करे
दुख कहे को होय ॥ 1 ॥
तिनका कबहुँ ना निंदीये
जो पावँ तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े
पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥
माला फेरत जुग भया
फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे
मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
गुरू गोविन्द दोनो खड़े
काके लागूं पायँ ।
बिलहारी गुरू आपनो
गोवद दियो बताय ॥ 4 ॥
बिलहारी गुरू आपनो
घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवता किया
करत न लागी बार ॥ 5 ॥
कबीरा माला मनिह की
और संसारी भीख ।
माला फेरे हिर मिले
गले रहट के देख ॥ 6 ॥
सुख मे सुिमरन ना किया
दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की
कौन सुने फरीयाद ॥ 7 ॥
साईं इतना दीिजये
जा मे कुटुम समाय ।
मै भी भूखा न रहूँ
साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥
लूट सके तो लूट ले
राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे
प्राण जाहीं जब छूट ॥ 9 ॥
जाति न पूछो साधु की
पूछी लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का
पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है
जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है
जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥
धीरे-धीरे रे मना
धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा
ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥
कबीरा ते नर अंध है
गुरु को कहते और ।
हरी रूठे गुरू ठौर है
गुरू रूठे नहीं ठौर ॥ 13 ॥
पाचँ पहर धंधे गया
तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरी नाम बिन
मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥
कबीरा सोया क्या करे
उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे
पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा
सब रतनन की खान ।
तीन लोक की संपदा
रही शील में आन ॥ 16 ॥
माया मरी न मन मरा
मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी
कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
माटी कहे कुंभार से
तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा
मै रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥
रात गंवाई सोय के
दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था
कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नींद निशानी मौत की
उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांडी के
नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे
ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है
बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है
देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े
बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय है सो जाएँगे
राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले
एक बंधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर
आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी
बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है
मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला
यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदा
जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे
चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी
बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे
सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को
तु सोया चादर तान ।
सुरत संभाल ए गाफिल
अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का
बिनस जात छिन मांह ।
साँस - साँस सुमिरन करो
और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे
कलह कष्ट और मींच ।
हरी चले सो साधु है
लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥
दुर्बल को न सताइए
जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से
लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
दान दिए धन ना घते
नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो
यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस द्वारे का पिंजरा
तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है
गए अचंभा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलेए
मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे
आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
हीरा वहाँ न खोलिए
जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी
लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा
जारी कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप
बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग में बैरी कोई नहीं
जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे
दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
मै रोऊ जब जगत को
मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना
जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए
करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले
सकित सिंह और सापँ ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का
आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे
दाय, गाठँ से खात ॥ 40 ॥
बाजीगर का बांदरा
ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर
राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर मै
तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं
कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की
क्या दिखलावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा
यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥
पतिवृता मैली
काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर
वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
बैध मुआ रोगी मुआ
मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ
जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
हर चाले तो मानव
बेहद चलेसो साध ।
हद बेहद दोनों तजे
ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे
गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखंड सब
झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बंधन नहीं
ह्रदय मन नहीं साँच
वाके संग न लागिये
खाले वटिया काचँ ॥ 48 ॥
तीरथ गये ते एक फल
संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल
कहे कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए
जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े
संत कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नही,
पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके,
तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या,
कुछन थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने,
सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह दिया,
अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया,
दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं,
वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव,
फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा,
शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना,
जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची,
इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा,
जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
जागन में सोवन करे,
साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे,
तार टूट नाहीं जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चिहए ,
जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गिह रहे,
थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लगी लग्न छूटे नाहिं ,
जीभ चोंच जिर जाय ।
मीठा कहा अंगार में,
जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की,
भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नहीं,
कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर,
सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ ,
आव अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम,
आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो,
कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का,
नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना,
मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बड़ी ऊपजै,
प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें,
शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये,
शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके,
नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए,
जैसे नाद कुरंग ।
कहें कबीर बिसरे नहीं,
प्रान तजे तेहि सगं ॥ 66 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर,
मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर,
अंदर का पट खोल ॥ 67 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर,
मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर,
अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है,
नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है,
सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है,
ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें,
बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया,
सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का,
ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा,
भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की,
परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा,
हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन,
नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता,
इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे,
तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का,
तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे,
भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी,
लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका,
भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला,
जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा,
क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये,
साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब,
निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है,
तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले,
निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की,
लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं,
ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं,
ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे,
सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥
दाया कौन पर कीजिये,
का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है,
कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं,
अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी,
ता में दो न समाय ॥ 82 ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे,
सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे,
प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं,
जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले,
रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
कबीरा धीरज के धरे,
हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने,
स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥
ऊँचे पानी न टिके,
नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए,
ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥
सबते लघुताई भली,
लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा,
शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥
संत ही में सत बांटई,
रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को,
कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥
मार्ग चलते जो गिरा,
ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे,
तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥
जब ही नाम ह्रदय धरयो,
भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की,
परि पुरानी घास ॥ 90 ॥
काया काठी काल घुन,
जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस,
मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥
सुख सागर का शील है,
कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही,
द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥
बाहर क्या दिखलाए,
अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से,
तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥
फल कारण सेवा करे,
करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं,
चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥
तेरा साँई तुझमें,
ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों,
फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥
कथा-कीर्तन कुल विशे,
भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में,
नाहि और उपाव ॥ 96 ॥
कबिरा यह तन जात है,
सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की,
कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥
तन बोहत मन काग है,
लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी,
कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥
जहँ गाहक ता हूँ नहीं,
जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे,
पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥
कहता तो बहुत मिला,
गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे,
जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥
तब लग तारा जगमगे,
जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश,
ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
आस पराई राख्त,
खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता,
मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥
सोना, सज्जन, साधु जन,
टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के,
ऐके धका दरार ॥ 103 ॥
सब धरती कारज करूँ,
लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ,
गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥
बलिहारी वा दूध की,
जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की,
चार वेद का जीव ॥ 105 ॥
आग जो लागी समुद्र में,
धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ,
जाकी लाई होय ॥ 106 ॥
साधु गाँठि न बाँधई,
उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े
जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥
घट का परदा खोलकर,
सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया,
आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥
कबिरा खालिक जागिया,
और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा,
दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥
ऊँचे कुल में जामिया,
करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी,
साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥
सुमरण की सुब्यों करो
ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में,
कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥
सब आए इस एक में,
डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा,
गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥
जो जन भीगे रामरस,
विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते,
ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥
सिंह अकेला बन रहे,
पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना,
तैसा बन है और ॥ 114 ॥
यह माया है चूहड़ी,
और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के,
संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥
जहर की जर्मी में है रोपा,
अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे,
जामे कौन विचार ॥ 116 ॥
जग मे बैरी कोई नहीं,
जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे,
दया करे सब कोय ॥ 117 ॥
जो जाने जीव न आपना,
करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना,
मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥
कबीर जात पुकारया,
चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर
क्या लेत हमार ॥ 119 ॥
लोग भरोसे कौन के,
बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे,
मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥
एक कहूँ तो है नहीं,
दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे,
रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥
जो तु चाहे मुक्त को,
छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे,
बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥
साँई आगे साँच है,
साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख,
चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥
अपने-अपने साख की,
सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा,
पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥
खेत ना छोड़े सूरमा,
जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की,
मन में राखें नोह ॥ 125 ॥
लीक पुरानी को तजें,
कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें,
शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥
सन्त पुरुष की आरसी,
सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को,
उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥
भूखा-भूखा क्या करे,
क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया,
सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना,
लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से,
फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥
प्रेमभाव एक चाहिए,
भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर,
चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥
कांचे भाडें से रहे,
ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे,
बाहर चोई देह ॥ 131 ॥
साँई ते सब होते है,
बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे,
पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
केतन दिन ऐसे गए,
अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं,
जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥
एक ते अनन्त
अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया,
एक मोह समाय ॥ 134 ॥
साधु सती और सूरमा,
इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की,
तन की अनथक साध ॥ 135 ॥
हरि संगत शीतल भया,
मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि,
लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥
आशा का ईंधन करो,
मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो,
तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥
आग जो लगी समुद्र में,
धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ,
जाकी लाई होय ॥ 138 ॥
अटकी भाल शरीर में,
तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं,
कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥
अपने-अपने साख की,
सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा,
पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
आस पराई राखता,
खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता,
मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥
आवत गारी एक है,
उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये,
वही एक की एक ॥ 142 ॥
आहार करे मनभावता,
इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे,
तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥
आए हैं सो जाएँगे,
राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले,
एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥
आया था किस काम को,
तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला,
अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥
उज्जवल पहरे कापड़ा,
पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन,
बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥
उतते कोई न आवई,
पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है,
भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥
अवगुन कहूँ शराब का,
आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया,
दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
एक कहूँ तो है नहीं,
दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे,
रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोलिए,
मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे,
आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥
कबीरा संग्ङति साधु की,
जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले,
ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
एक ते जान अनन्त,
अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया,
एक बाहे समाय ॥ 152 ॥
कबीरा गरब न कीजिए,
कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में,
ना जाने का होय ॥ 153 ॥
कबीरा कलह अरु कल्पना,
सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै,
सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥
कबीरा संगति साधु की,
जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति,
देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥
कबीरा संगत साधु की,
निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना,
नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥
को छूटौ इहिं जाल परि,
कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै,
त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥
कबीरा सोया क्या करे,
उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे,
पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥
काह भरोसा देह का,
बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो,
और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥
काल करे से आज कर,
सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे
काल काल के हाथ ॥ 160 ॥
काया काढ़ा काल घुन,
जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस,
मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥
कहा कियो हम आय कर,
कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके,
चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥
कुटिल बचन सबसे बुरा,
जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है,
बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥
कहता तो बहूँना मिले,
गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे,
जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥
कबीरा मन पँछी भया,
भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै,
सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥
कबीरा लोहा एक है,
गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने,
ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥
कहे कबीर देय तू,
जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी,
कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥
करता था सो क्यों किया,
अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का,
आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥
कस्तूरी कुन्डल बसे,
म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है,
दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥
कबीरा सोता क्या करे,
जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना,
लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥
कागा काको घन हरे,
कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के,
जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥
कबिरा सोई पीर है,
जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ,
सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥
कबिरा मनहि गयन्द है,
आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै,
अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥
कबीर यह जग कुछ नहीं,
खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै,
आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥
कबिरा आप ठगाइए,
और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है,
और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥
कथा कीर्तन कुल विशे,
भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत,
नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥
कबिरा यह तन जात है,
सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की,
कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥
कलि खोटा सजग आंधरा,
शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना,
सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥
केतन दिन ऐसे गए,
अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं,
जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥
कबीर जात पुकारया,
चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर
क्या लेत हमार ॥ 180 ॥
कबीरा खालिक जागिया,
और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा,
दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥
गाँठि न थामहिं बाँध ही,
नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की,
हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥
खेत न छोड़े सूरमा,
जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की,
मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥
चन्दन जैसा साधु है,
सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे,
मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥
घी के तो दर्शन भले,
खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला,
मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
गारी ही सो ऊपजे,
कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं,
लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥
चलती चक्की देख के,
दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके,
साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥
जा पल दरसन साधु का,
ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे,
लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥
जब लग भक्ति से काम है,
तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले,
नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥
जो तोकूं काँटा बुवै,
ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है,
बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥
जा घट प्रेम न संचरे,
सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की,
साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥
ज्यों नैनन में पूतली,
त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए,
बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥
जाके मुख माथा नहीं,
नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा,
ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥
जहाँ आप तहाँ आपदा,
जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं,
चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥
जाति न पूछो साधु की,
पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का,
पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥
जल की जमी में है रोपा,
अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे,
जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं,
जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे,
पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥
झूठे सुख को सुख कहै,
मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का,
कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥
जो तु चाहे मुक्ति को,
छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे,
सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥
जो जाने जीव आपना,
करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना,
मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥
ते दिन गये अकारथी,
संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना,
भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥
तीर तुपक से जो लड़े,
सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे,
सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥
तन को जोगी सब करे,
मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये,
जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥
तब लग तारा जगमगे,
जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश,
जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥
दुर्लभ मानुष जनम है,
देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े,
बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥
दस द्वारे का पींजरा,
तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ,
गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥
धीरे-धीरे रे मना,
धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा,
ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥
न्हाये धोये क्या हुआ,
जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै,
धोये बास न जाय ॥ 208 ॥
पाँच पहर धन्धे गया,
तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन,
मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ,
पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का,
पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥
पानी केरा बुदबुदा,
अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा,
ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥
पाहन पूजे हरि मिलें,
तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली,
पीस खाय संसार ॥ 212 ॥
पत्ता बोला वृक्ष से,
सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले,
दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥
प्रेमभाव एक चाहिए,
भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर,
चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥
बन्धे को बँनधा मिले,
छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की,
पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥
बूँद पड़ी जो समुद्र में,
ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में,
बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥
बाहर क्या दिखराइये,
अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से,
तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥
बानी से पहचानिए,
साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब,
निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥
बड़ा हुआ सो क्या हुआ,
जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं,
फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले,
सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते,
भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥
माया तो ठगनी बनी,
ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो,
ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥
भज दीना कहूँ और ही,
तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी,
कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥
माया छाया एक सी,
बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे,
सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥
मथुरा भावै द्वारिका,
भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु,
कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥
माली आवत देख के,
कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए,
काल हमारी बार ॥ 225 ॥
मैं रोऊँ सब जगत् को,
मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना,
जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥
ये तो घर है प्रेम का,
खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे,
तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥
या दुनियाँ में आ कर,
छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले,
उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥
राम नाम चीन्हा नहीं,
कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं,
अलग न आवे भास ॥ 229 ॥
रात गंवाई सोय के,
दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था,
कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥
राम बुलावा भेजिया,
दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु सगं में,
सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥
संगति सों सुख्या ऊपजे,
कुसंगति सो दुख होय ।
कह कबीर तहँ जाइये,
साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥
साहिब तेरी साहिबी,
सब घट रही समाय ।
ज्यों मेहँदी के पात में,
लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥
साँझ पड़े दिन बीतबै,
चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को,
जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥
संह ही मे सत बाँटे,
रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को,
कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥
साईं आगे साँच है,
साईं साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख,
चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥
लकड़ी कहै लुहार की,
तू मति जारे मोहिं ।
एक दिन ऐसा होयगा,
मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥
हरिया जाने रुखड़ा,
जो पानी का गेह ।
सूखा काठ न जान ही,
केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥
ज्ञान रतन का जतनकर
माटी का संसार ।
आय कबीर फिर गया,
फीका है संसार ॥ 239 ॥
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं,
माँगो तुम पै येह ।
निसि दिन दरशन शाधु को,
प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥
क्षमा बड़े न को उचित है,
छोटे को उत्पात ।
कहा विष्णु का घटि गया,
जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥
राम-नाम कै पटं तरै,
देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए,
हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥
बलिहारी गुर आपणौ,
घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं देवता,
करत न लागी बार ॥ 243 ॥
ना गुरु मिल्या न सिष भया,
लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में,
चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥
सतगुर हम सूं रीझि करि,
एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का,
भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥
कबीर सतगुर ना मिल्या,
रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि,
धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥
यह तन विष की बेलरी,
गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै,
तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥
तू तू करता तू भया,
मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई,
जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥
राम पियारा छांड़ि करि,
करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं,
कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥
कबीरा प्रेम न चषिया,
चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां,
ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥
कबीरा राम रिझाइ लै,
मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन,
संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥
लंबा मारग, दूरिधर,
विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये,
दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥
बिरह-भुवगम तन बसै
मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै
तो बौरा होइ ॥ 253 ॥
यह तन जालों मसि करों,
लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की,
लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥
अंदेसड़ा न भाजिसी,
सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी,
कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥
इस तन का दीवा करौ,
बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं,
कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
अंषड़ियां झाईं पड़ी,
पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या,
राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥
सब रग तंत रबाब तन,
बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै,
कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥
जो रोऊँ तो बल घटै,
हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा,
ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥
कबीर हँसणाँ दूरि करि,
करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये,
प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥
सुखिया सब संसार है,
खावै और सोवे ।
दुखिया दास कबीर है,
जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥
परबति परबति मैं फिरया,
नैन गंवाए रोइ ।
सो बूटी पाऊँ नहीं,
जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥
पूत पियारौ पिता कौं,
गौहनि लागो घाइ ।
लोभ-मिठाई हाथ दे,
आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥
हाँसी खैलो हरि मिलै,
कौण सहै षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णं तजै,
तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥
जा कारणि में ढ़ूँढ़ती,
सनमुख मिलिया आइ ।
धन मैली पिव ऊजला,
लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥
पहुँचेंगे तब कहैगें,
उमड़ैंगे उस ठांई ।
आजहूं बेरा समंद मैं,
बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥
दीठा है तो कस कहूं,
कह्मा न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहो,
तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥
भारी कहौं तो बहुडरौं,
हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणी राम कूं
नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥
कबीर एक न जाण्यां,
तो बहु जाण्यां क्या होइ ।
एक तै सब होत है,
सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥
कबीर रेख स्यंदूर की,
काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्मा,
दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥
कबीर कूता राम का,
मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी,
जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥
कबीर कलिजुग आइ करि,
कीये बहुत जो भीत ।
जिन दिल बांध्या एक सूं,
ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥
जब लग भगहित सकामता,
सब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै
निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥
पतिबरता मैली भली,
गले कांच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै,
ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥
कामी अभी न भावई,
विष ही कौं ले सोधि ।
कुबुध्दि न जीव की,
भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥
भगति बिगाड़ी कामियां,
इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं,
जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥
परनारी का राचणौ,
जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय,
परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥
परनारी राता फिरैं,
चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै,
अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥
ग्यानी मूल गँवाइया,
आपण भये करना ।
ताथैं संसारी भला,
मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥
कामी लज्जा ना करै,
न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा,
भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥
कलि का स्वामी लोभिया,
पीतलि घरी खटाइ ।
राज-दुबारा यौं फिरै,
ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥
स्वामी हूवा सीतका,
पैलाकार पचास ।
राम-नाम काठें रह्मा,
करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥
इहि उदर के कारणे,
जग पाच्यो निस जाम ।
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो,
सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥
ब्राह्म्ण गुरु जगत् का,
साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा,
चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥
कबीर कलि खोटी भई,
मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा,
तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥
कलि का स्वमी लोभिया,
मनसा घरी बधाई ।
दैंहि पईसा ब्याज़ को,
लेखां करता जाई ॥ 296 ॥
कबीर इस संसार कौ,
समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की
उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥
तीरथ करि-करि जग मुवा,
डूंधै पाणी न्हाइ ।
रामहि राम जपतंडां,
काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥
चतुराई सूवै पढ़ी,
सोइ पंजर मांहि ।
फिरि प्रमोधै आन कौं,
आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥
कबीर मन फूल्या फिरै,
करता हूँ मैं घ्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या,
चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥
सबै रसाइण मैं क्रिया,
हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे,
तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥
हरि-रस पीया जाणिये,
जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैमता घूमत रहै,
नाहि तन की सार ॥ 302 ॥
कबीर हरि-रस यौं पिया,
बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का,
बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥
कबीर भाठी कलाल की,
बहुतक बैठे आई ।
सिर सौंपे सोई पिवै,
नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥
त्रिक्षणा सींची ना बुझै,
दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रुष ज्यूं,
घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥
कबीर सो घन संचिये,
जो आगे कू होइ ।
सीस चढ़ाये गाठ की
जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥
कबीर माया मोहिनी,
जैसी मीठी खांड़ ।
सतगुरु की कृपा भई,
नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥
कबीर माया पापरगी,
फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या,
गया कबीर काटि ॥ 308 ॥
कबीर जग की जो कहै,
भौ जलि बूड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छांड़ि करि,
करै मानि की आस ॥ 309 ॥
बुगली नीर बिटालिया,
सायर चढ़या कलंक ।
और पखेरू पी गये,
हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥
कबीर इस संसार का,
झूठा माया मोह ।
जिहि धारि जिता बाधावणा,
तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥
माया तजी तौ क्या भया,
मानि तजि नही जाइ ।
मानि बड़े मुनियर मिले,
मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥
करता दीसै कीरतन,
ऊँचा करि करि तुंड ।
जाने-बूझै कुछ नहीं,
यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥
कबीर पढ़ियो दूरि करि,
पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि,
ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो,
पाढ़िबा थे भलो जोग ।
राम-नाम सूं प्रीती करि,
भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥
पद गाएं मन हरषियां,
साषी कह्मां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां,
गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥
जैसी मुख तै नीकसै,
तैसी चाले चाल ।
पार ब्रह्म नेड़ा रहै,
पल में करै निहाल ॥ 317 ॥
काजी-मुल्ला भ्रमियां,
चल्या युनीं कै साथ ।
दिल थे दीन बिसारियां,
करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥
प्रेम-प्रिति का चालना,
पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहुँ,
जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥
सांच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदै में सांच है,
ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥
खूब खांड है खीचड़ी,
माहि ष्डयाँ टुक कून ।
देख पराई चूपड़ी,
जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥
साईं सेती चोरियाँ,
चोरा सेती गुझ ।
जाणैंगा रे जीवएगा,
मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥
तीरथ तो सब बेलड़ी,
सब जग मेल्या छाय ।
कबीर मूल निकंदिया,
कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥
जप-तप दीसैं थोथरा,
तीरथ व्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया,
यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥
जेती देखौ आत्म,
तेता सालिगराम ।
राधू प्रतषि देव है,
नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥
कबीर दुनिया देहुरै,
सीत नवांवरग जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै,
तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥
मन मथुरा दिल द्वारिका,
काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा,
तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥
मेरे संगी दोइ जरग,
एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुक्ति का,
वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥
मथुरा जाउ भावे द्वारिका,
भावै जाउ जगनाथ ।
साथ-संगति हरि-भागति
बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥
कबीर संगति साधु की,
बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि बंबाइसी,
देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥
उज्जवल देखि न धीजिये,
वग ज्यूं माडै ध्यान ।
धीर बौठि चपेटसी,
यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥
जेता मीठा बोलरगा,
तेता साधन जारिग ।
पहली था दिखाइ करि,
उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥
जानि बूझि सांचहिं तर्जे,
करै झूठ सूँ नेहु ।
ताकि संगति राम जी,
सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥
कबीर तास मिलाइ,
जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ,
नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥
कबीरा बन-बन मे फिरा,
कारणि आपणै राम ।
राम सरीखे जन मिले,
तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥
कबीर मन पंषो भया,
जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
जो जैसी संगति करै,
सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥
कबीरा खाई कोट कि,
पानी पिवै न कोई ।
जाइ मिलै जब गंग से,
तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही,
पंख रही लपटाई ।
ताली पीटै सिरि घुनै,
मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
मूरख संग न कीजिये,
लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख,
एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥
हरिजन सेती रुसणा,
संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ,
ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
काजल केरी कोठड़ी,
तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की,
पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥
पाणी हीतै पातला,
धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला,
सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥
आसा का ईंधण करूँ,
मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ,
यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
कबीर मारू मन कूँ,
टूक-टूक है जाइ ।
विव की क्यारी बोइ करि,
लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥
कागद केरी नाव री,
पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ,
पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥
मैं मन्ता मन मारि रे,
घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे,
अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥
मनह मनोरथ छाँड़िये,
तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै,
तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥
एक दिन ऐसा होएगा,
सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति,
सावधान किन होइ ॥ 357 ॥
कबीर नौबत आपणी,
दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली,
बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥
जिनके नौबति बाजती,
भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन,
गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥
कहा कियौ हम आइ करि,
कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के,
चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥
बिन रखवाले बाहिरा,
चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै,
चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥
कबीर कहा गरबियौ,
काल कहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी,
कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥
नान्हा कातौ चित्त दे,
महँगे मोल बिलाइ ।
गाहक राजा राम है,
और न नेडा आइ ॥ 363 ॥
उजला कपड़ा पहिरि करि,
पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन,
बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥
कबीर केवल राम की,
तू जिनि छाँड़ै ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ,
घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै
तो निकसौ भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी,
रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥
कबीर माला मन की,
और संसारी भेष ।
माला पहरयां हरि मिलै,
तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥
माला पहिरै मनभुषी,
ताथै कछू न होइ ।
मन माला को फैरता,
जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥
कैसो कहा बिगाड़िया,
जो मुंडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये,
जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥
माला पहरयां कुछ नहीं,
भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुंडाइ करि,
चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥
बैसनो भया तौ क्या भया,
बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि,
दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया,
खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले,
सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥
चतुराई हरि ना मिलै,
ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का
गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥
एष ले बूढ़ी पृथमी,
झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में,
बूड़े काली धार ॥ 374 ॥
कबीर हरि का भावता,
झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी,
अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥
सिंहों के लेहँड नहीं,
हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ,
साध न चलै जमात ॥ 376 ॥
गाँठी दाम न बांधई,
नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की,
हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥
निरबैरी निहकामता,
साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै,
संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥
जिहिं हिरदै हरि आइया,
सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये,
तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥
काम मिलावे राम कूं,
जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै,
जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥
राम वियोगी तन बिकल,
ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं,
दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥
पावक रूपी राम है,
घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं,
ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥
फाटै दीदै में फिरौं,
नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ,
सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥
हैवर गैवर सघन धन,
छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै,
हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥
जिहिं धरि साध न पूजि,
हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे,
भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥
कबीर कुल तौ सोभला,
जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै,
सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥
क्यूं नृप-नारी नींदिये,
क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ,
या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥
काबा फिर कासी भया,
राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया,
बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥
दुखिया भूखा दुख कौं,
सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के,
जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि,
एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है,
दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥
कबीर का तू चिंतवै,
का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै,
जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥
भूखा भूखा क्या करैं,
कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका,
सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥
रचनाहार कूं चीन्हि लै,
खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि,
ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥
कबीर सब जग हंडिया,
मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं,
देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
मांगण मरण समान है,
बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं,
मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥
मानि महतम प्रेम-रस
गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया,
जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥
संत न बांधै गाठड़ी,
पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै,
जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥
कबीर संसा कोउ नहीं,
हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा,
चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥
कबीर सोई सूरिमा,
मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले,
दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥
जिस मरनै यैं जग डरै,
सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ
पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
अब तौ जूझया ही बरगै,
मुडि चल्यां घर दूर ।
सिर साहिबा कौ सौंपता,
सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥
कबीर घोड़ा प्रेम का,
चेतनि चाढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि,
भली मचाई मार ॥ 402 ॥
कबीर हरि सब कूँ भजै,
हरि कूँ भजै न कोइ ।
जब लग आस सरीर की,
तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥
सिर साटें हरि सेवेये,
छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै,
तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥
जेते तारे रैणि के,
तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरै,
तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥
आपा भेटियाँ हरि मिलै,
हरि मेट् या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की,
कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥
जीवन थैं मरिबो भलौ,
जो मरि जानैं कोइ ।
मरनैं पहली जे मरै,
जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥
कबीर मन मृतक भया,
दुर्बल भया सरीर ।
तब पैंडे लागा हरि फिरै,
कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥
रोड़ा है रहो बाट का,
तजि पाषंड अभिमान ।
ऐसा जे जन है रहै,
ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥
कबीर चेरा संत का,
दासनि का परदास ।
कबीर ऐसैं होइ रक्षा,
ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥
अबरन कों का बरनिये,
भोपै लख्या न जाइ ।
अपना बाना वाहिया,
कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥
जिसहि न कोई विसहि तू,
जिस तू तिस सब कोई ।
दरिगह तेरी सांइयाँ,
जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥
साँई मेरा वाणियां,
सहति करै व्यौपार ।
बिन डांडी बिन पालड़ै
तौले सब संसार ॥ 413 ॥
झल बावै झल दाहिनै,
झलहि माहि त्योहार ।
आगै-पीछै झलमाई,
राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥
एसी बाणी बोलिये,
मन का आपा खोइ ।
औरन को सीतल करै,
आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥
कबीर हरि कग नाव
सूँ प्रीति रहै इकवार ।
तौ मुख तैं मोती झड़ै
हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥
बैरागी बिरकत भला,
गिरही चित्त उदार ।
दुहुँ चूका रीता पड़ै
वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥
कोई एक राखै सावधां,
चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूँ खिसै,
चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥
बारी-बारी आपणीं,
चले पियारे म्यंत ।
तेरी बारी रे जिया,
नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥
पदारथ पेलि करि,
कंकर लीया हाथि ।
जोड़ी बिछटी हंस की,
पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥
निंदक नियारे राखिये,
आंगन कुटि छबाय ।
बिन पाणी बिन सबुना,
निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥
गोत्यंद के गुण बहुत हैं,
लिखै जु हिरदै मांहि ।
डरता पाणी जा पीऊं,
मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥
जो ऊग्या सो आंथवै,
फूल्या सो कुमिलाइ ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै,
जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥
सीतलता तब जाणियें,
समिता रहै समाइ ।
पष छाँड़ै निरपष रहै,
सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥
खूंदन तौ धरती सहै,
बाढ़ सहै बनराइ ।
कुसबद तौ हरिजन सहै,
दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥
नीर पियावत क्या फिरै,
सायर घर-घर बारि ।
जो त्रिषावन्त होइगा,
सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥
कबीर सिरजन हार बिन,
मेरा हित न कोइ ।
गुण औगुण बिहणै नहीं,
स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥
हीरा परा बजार में,
रहा छार लपिटाइ ।
ब तक मूरख चलि गये
पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥
सुरति करौ मेरे साइयां,
हम हैं भोजन माहिं ।
आपे ही बहि जाहिंगे,
जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥
क्या मुख लै बिनती करौं,
लाज आवत है मोहि ।
तुम देखत ओगुन करौं,
कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥
सब काहू का लीजिये,
साचां सबद निहार ।
पच्छपात ना कीजिये
कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥
॥ गुरु के विषय में दोहे ॥
गुरु सों ज्ञान जु लीजिये
सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोदूँ बहि गये,
राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥
गुरु को कीजै दण्डव
कोटि-कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृगं को,
गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥
कुमति कीच चेला भरा,
गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम-जनम का मोरचा,
पल में डारे धोय ॥ 434 ॥
गुरु पारस को अन्तरो,
जानत है सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे,
ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥
गुरु की आज्ञा आवै,
गुरु की आज्ञा जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त हैं,
आवागमन नशाय ॥ 436 ॥
जो गुरु बसै बनारसी,
सीष समुन्दर तीर ।
एक पलक बिसरे नहीं,
जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥
गुरु समान दाता नहीं,
याचक सीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा,
सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है,
गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दै,
बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥
गुरु को सिर राखिये,
चलिये आज्ञा माहिं ।
कहैं कबीर ता दास को,
तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥
लच्छ कोष जो गुरु बसै,
दीजै सुरति पठाय ।
शब्द तुरी बसवार है,
छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥
गुरु मूरति गति चन्द्रमा,
सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर निरखता रहे,
गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥
गुरु सों प्रीति निबाहिये,
जेहि तत निबटै सन्त ।
प्रेम बिना ढिग दूर है,
प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥
गुरु बिन ज्ञान न उपजै,
गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को,
गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥
गुरु मूरति आगे खड़ी,
दुनिया भेद कछु नाहिं ।
उन्हीं कूँ परनाम करि,
सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥
गुरु शरणागति छाड़ि के,
करै भरौसा और ।
सुख सम्पति की कह चली,
नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥
सिष खांडा गुरु भसकला,
चढ़ै शब्द खरसान ।
शब्द सहै सम्मुख रहै,
निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥
ज्ञान समागम प्रेम सुख,
दया भक्ति विश्वास ।
गुरु सेवा ते पाइये,
सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥
अहं अग्नि निशि दिन जरै,
गुरु सो चाहे मान ।
ताको जम न्योता दिया,
होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥
जैसी प्रीति कुटुम्ब की,
तैसी गुरु सों होय ।
कहैं कबीर ता दास का,
पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥
मूल ध्यान गुरु रूप है,
मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है,
मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये,
गुरु बिना मिलै न ज्ञान ।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है,
सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥
सोइ-सोइ नाच नचाइये,
जेहि निबहे गुरु प्रेम ।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन,
कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥
कहैं कबीर जजि भरम को,
नन्हा है कर पीव ।
तजि अहं गुरु चरण गहु,
जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥
कोटिन चन्दा उगही,
सूरज कोटि हज़ार ।
तीमिर तौ नाशै नहीं,
बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥
तबही गुरु प्रिय बैन कहि,
शीष बढ़ी चित प्रीत ।
ते रहियें गुरु सनमुखाँ
कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥
तन मन शीष निछावरै,
दीजै सरबस प्रान ।
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन,
कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥
जो गुरु पूरा होय तो,
शीषहि लेय निबाहि ।
शीष भाव सुत्त जानिये,
सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥
भौ सागर की त्रास तेक,
गुरु की पकड़ो बाँहि ।
गुरु बिन कौन उबारसी,
भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥
करै दूरि अज्ञानता,
अंजन ज्ञान सुदेय ।
बलिहारी वे गुरुन की
हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥
सुनिये सन्तों साधु मिलि,
कहहिं कबीर बुझाय ।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै
कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥
अबुध सुबुध सुत मातु पितु,
सबहि करै प्रतिपाल ।
अपनी और निबाहिये,
सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥
लौ लागी विष भागिया,
कालख डारी धोय ।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों,
कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥
राजा की चोरी करे,
रहै रंग की ओट ।
कहैं कबीर क्यों उबरै,
काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥
साबुन बिचारा क्या करे,
गाँठे राखे मोय ।
जल सो अरसां नहिं,
क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥
॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥
सत्गुरु तो सतभाव है,
जो अस भेद बताय ।
धन्य शीष धन भाग तिहि
जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥
सतगुरु शरण न आवहीं,
फिर फिर होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे
काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥
सतगुरु सम कोई नहीं
सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये,
अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥
सतगुरु मिला जु जानिये,
ज्ञान उजाला होय ।
भ्रम का भांड तोड़ि करि,
रहै निराला होय ॥ 469 ॥
सतगुरु मिले जु सब मिले,
न तो मिला न कोय ।
माता-पिता सुत बाँधवा ये
तो घर घर होय ॥ 470 ॥
जेहि खोजत ब्रह्मा थके,
सुर नर मुनि अरु देव ।
कहै कबीर सुन साधवा,
करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥
मनहिं दिया निज सब दिया,
मन से संग शरीर ।
अब देवे को क्या रहा,
यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥
सतगुरु को माने नही,
अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये,
और मता मन जाय ॥ 473 ॥
जग में युक्ति अनूप है,
साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामें निपट अनूप है,
सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥
कबीर समूझा कहत है,
पानी थाह बताय ।
ताकूँ सतगुरु का करे,
जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥
बिन सतगुरु उपदेश,
सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और
सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥
केते पढ़ि गुनि पचि भुए,
योग यज्ञ तप लाय ।
बिन सतगुरु पावै नहीं,
कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥
डूबा औघट न तरै,
मोहिं अंदेशा होय ।
लोभ नदी की धार में,
कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥
सतगुरु खोजो सन्त,
जोव काज को चाहहु ।
मेटो भव को अंक,
आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥
करहु छोड़ कुल लाज,
जो सतगुरु उपदेश है ।
होये सब जिव काज,
निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥
यह सतगुरु उपदेश है,
जो मन माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के,
चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥
जग सब सागर मोहिं,
कहु कैसे बूड़त तेरे ।
गहु सतगुरु की बाहिं जो
जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥
॥ गुरु पारख पर दोहे ॥
जानीता बूझा नहीं बूझि
किया नहीं गौन ।
अन्धे को अन्धा मिला,
राह बतावे कौन ॥ 483 ॥
जाका गुरु है आँधरा,
चेला खरा निरन्ध ।
अन्धे को अन्धा मिला,
पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥
गुरु लोभ शिष लालची,
दोनों खेले दाँव ।
दोनों बूड़े बापुरे,
चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥
आगे अंधा कूप में,
दूजे लिया बुलाय ।
दोनों बूडछे बापुरे,
निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥
गुरु किया है देह का,
सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में,
फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥
पूरा सतगुरु न मिला,
सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के,
घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥
कबीर गुरु है घाट का,
हाँटू बैठा चेल ।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ
गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥
गुरु-गुरु में भेद है,
गुरु-गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये,
शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे,
भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये,
त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥
झूठे गुरु के पक्ष की,
तजत न कीजै वार ।
द्वार न पावै शब्द का,
भटके बारम्बार ॥ 492 ॥
सद्गुरु ऐसा कीजिये,
लोभ मोह भ्रम नाहिं ।
दरिया सो न्यारा रहे,
दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥
कबीर बेड़ा सार का,
ऊपर लादा सार ।
पापी का पापी गुरु,
यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥
जो गुरु को तो गम नहीं,
पाहन दिया बताय ।
शिष शोधे बिन सेइया,
पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥
सोचे गुरु के पक्ष में,
मन को दे ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया,
नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥
गु अँधियारी जानिये,
रु कहिये परकाश ।
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे,
गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥
गुरु नाम है गम्य का,
शीष सीख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर,
गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥
गुरुवा तो घर फिरे,
दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो,
टका परदानी देह ॥ 499 ॥
गुरुवा तो सस्ता भया,
कौड़ी अर्थ पचास ।
अपने तन की सुधि नहीं,
शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥