(1) आसीत् कश्चित् चंचलो नाम व्याधः। पक्षिमृगादीनां ग्रहणेन सः स्वीयां जीविकां निर्वाहयति स्म।। एकदा सः वने जालं विस्तीर्य गृहम् आगतवान्। अन्यस्मिन् दिवसे प्रातःकाले यदा चंचलः वनं गतवान् तदा सः दृष्टवान् यत् तेन विस्तारिते जाले दौर्भाग्याद् एकः व्याघ्रः बद्धः आसीत्। सोSचिन्तयत्, ‘व्याघ्रः मां खादिष्यति अतएव पलायनं करणीयम्।’ व्याघ्रः न्यवेदयत्-‘भो मानव! कल्याणं भवतु ते। यदि त्वं मां मोचयिष्यसि तर्हि अहं त्वां न हनिष्यामि।’ तदा सः व्याधः व्याघ्रं जालात् बहिः निरसारयत्।
सरलार्थ- कोई चंचल नाम का शिकारी था। पक्षियों व जंगली पशुओं के पकड़ने से वह अपनी जीविका चलाता था। एक बार वह जंगल में जाल फैलाकर घर लौट आया। दूसरे दिन सुबह जब चञ्चल वन में गया तब उसने देखा कि उसके द्वारा फैलाए गए जाल में दुर्भाग्य से एक बाघ बँधा था। उसने सोचा- बाघ मुझे खा जाएगाए इसलिए (यहाँ से मुझे) भाग जाना चाहिए।बाघ ने निवेदन किया- हे मानव! तुम्हारा कल्याण हो। यदि तुम मुझे छोड़ दोगे तो मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।श् तब उस शिकारी ने बाघ को जाल से बाहर निकाल दिया।
(2) व्याघ्रः क्लान्तः आसीत्। सो{वदत्, ‘भो मानव! पिपासुः अहम्। नद्याः जलमानीय मम पिपासां शमय। व्याघ्रः जलं पीत्वा पुनः व्याधमवदत्, ‘शमय मे पिपासा। साम्प्रतं बुभुक्षितोSस्मि। इदानीम् अहं त्वां खादिष्यामि।’ चंचलः उक्तवान्, ‘अहं त्वत्कृते धर्मम् आचरितवान्। त्वया मिथ्या भणितम्। त्वं मां खादितुम् इच्छसि? व्याघ्रः अवदत्, ‘अरे मूर्ख! क्षुधार्ताय किमपि अकार्यम् न भवति। सर्वः स्वार्थं समीहते।’
सरलार्थ- बाघ थका हुआ था। वह बोला-शहे मानव! मैं प्यासा हूँ। नदी से जल लाकर मेरी प्यास बुझा दो। बाघ जल पीकर फिर शिकारी से बोला-श्मेरी प्यास बुझ गई है। अब मैं भूखा हूँ। अब मैं तुम्हें खाऊँगा।चञ्चल ने कहा-मैंने तुम्हारे लिए धर्म का आचरण किया। तुम मुझे खाना चाहते हो बाघ बोला-अरे मूर्ख! भूखे के लिए कुछ भी अकार्य नही हैं। सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं।
(3) चञ्चल: नदीजलम् अपृच्छत्। नदीजलम् अवदत्, ‘एवमेव भवति, जनाः मयि स्नानं कुर्वन्ति, वस्त्रणि प्रक्षालयन्ति तथा च मल-मूत्रादिकं विसृज्य निवर्तन्ते, वस्तुतः सर्वः स्वार्थं समीहते।
सरलार्थ- चञ्चल ने नदी के जल से पूछा। नदी के जल ने कहा-श्ऐसा ही होता है, लोग मुझमें स्नान करते हैंए कपड़े धोते हैं और मल-मूत्र आदि भी छोड़कर चले जाते हैंए इसलिए सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं।
(4) चञ्चल: वृक्षम् उपगम्य अपृच्छत्। वृक्षः अवदत्, ‘मानवाः अस्माकं छायायां विरमन्ति। अस्माकं फलानि खादन्ति, पुनः कुठारैः प्रहृत्य अस्मभ्यं सर्वदा कष्टं ददति। यत्र कुत्रपि छेदनं कुर्वन्ति। सर्वः स्वार्थं समीहते।’
सरलार्थ- चञ्चल ने वृक्ष के पास जाकर पूछा। वृक्ष बोला-मानव हमारी छाया में विश्राम करते हैंए हमारे फल खाते हैंए फिर (भी) कुल्हाड़ियों से प्रहार करके हमें हमेशा कष्ट देते हैं। जहाँ-कहीं भी काटते हैं। सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं।
(5) समीपे एका लोमशिका बदरी-गुल्मानां पृष्ठे निलीना एतां वार्तां शृणोति स्म। सा सहसा च×चलमुपसृत्य कथयति- का वार्ता? माम् अपि विज्ञापय। सः अवदत् - अहह मातृस्वसः! अवसरे त्वं समागतवती। मया अस्य व्याघ्रस्य प्राणाः रक्षिताः, परम् एषः मामेव खादितुम् इच्छति। तदनन्तरं सः लोमशिकायै निखिलां कथां न्यवेदयत्।
सरलार्थ- पास में एक लोमड़ी बेर के झाड़ के पीछे छिपी हुई यह बात सुन रही थी। वह अचानक चञ्चल के पास आकर कहती है -'क्या बात है मुझे भी बताओ। वह बोला - अरे मौसी! तुम सही अवसर पर आई हो। मैंने इस बाघ के प्राण बचाएए परन्तु यह मुझे ही खाना चाहता है। इसके बाद उसने लोमड़ी को सारी कथा बताई।
(6) लोमशिका चञ्चलम् अकथयत्-बाढम्, त्वं जालं प्रसारय। पुनः सा व्याघ्रम् अवदत् - केन प्रकारेण त्वम् एतस्मिन् जाले बद्धः इति अहं प्रत्यक्षं द्रष्टुमिच्छामि। व्याघ्रः तद् वृत्तान्तं प्रदर्शयितुं तस्मिन् जाले प्राविशत्। लोमशिका पुनः अकथयत् - सम्प्रति पुनः पुनः कूर्दनं कृत्वा दर्शय। सः तथैव समाचरत्। अनारतं कूर्दनेन सः श्रान्तः अभवत्। जाले बद्धः सः व्याघ्रः क्लान्तः सन् निःसहायो भूत्वा तत्र अपतत् प्राणभिक्षामिव च अयाचत। लोमशिका व्याघ्रम् अवदत् सत्यं त्वया भणितम् ‘सर्वः स्वार्थं समीहते।’
सरलार्थ- लोमड़ी ने चञ्चल से कहा- ठीक हैए तुम जाल फैलाओ।श् फिर उसने बाघ से कहा - किस तरह तुम इस जाल में बँधे यह मैं प्रत्यक्ष देखना चाहती हूँ।बाघ उस घटना को दिखाने के लिए उस जाल में घुस गया। लोमड़ी ने फिर कहा-श्अब बार-बार कूदकर दिखाओ।उसने वैसा ही किया। जाल में बँधा हुआ वह बाघ थककर असहाय होकर वहीं गिर पड़ा। प्राणों की ही भीख मांगने लगा। लोमड़ी ने बाध से कहा तूने सही कहा थाए सभी स्वार्थ की इच्छा करते हैं।