अहं नमामि मातरम्
गुरुं नमामि सादरम् ।।1।।
स्वयं पठामि सर्वदा
प्रियं वदामि सर्वदा ।।2।।
हितं करोमि सर्वदा
शुभं करोमि सर्वदा ।।3।।
विभुं नमामि सादरम्
गुरुं नमामि सादरम् ।।4।।
चलामि नीति-सत्पथे
हरामि मातृभू-व्यथाम् ।।5।।
दधामि साधुताव्रतम्
सृजामि कीर्तिसत्कथाम् ।।6।।
प्रभुं नमामि सादरम्
अहं नमामि मातरम् ।।7।।
इच्छाराम द्विवेदी ‘प्रणवः
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः
एवा मे प्राण मा बिभेः।।1।।
यथाहश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः
एवा मे प्राण मा बिभेः।।2।।
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः
एवा मे प्राण मा बिभेः।।3।।
यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः
एवा मे प्राण मा बिभेः।।4।।
भावार्थ
जैसे आकाश और पृथ्वी दोनों न डरते हैं और न दुःख देते हैं,
वैसे ही मेरे प्राण! तू मत डर! ।।1।।
जैसे दिन और रात न दुःख देते हैं और न डरते हैं,
वैसे ही मेरे प्राण! तू मत डर! ।।2।।
जैसे सूर्य और चन्द्र न दुःख देते हैं और न डरते हैं,
वैसे ही मेरे प्राण! तू मत डर! ।।3।।
जैसे सत्य और असत्य न दुःख देते हैं और न डरते हैं,
वैसे ही मेरे प्राण! तू मत डर! ।।4।।
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं
तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं
तन्मे मनः शिवसंल्पमस्तु ।।1।।
-शुक्लयजुर्वेदः(34-1)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्या-
न्नेनीयतेSभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं
तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तुु ।।2।।
-शुक्लयजुर्वेदः(34-6)
रूपान्तरम्
जो रहता है जाग्रत और दूर दूर तक जाता है,
सोया रह कर भी ऐसे ही जा कर वापस आता है।
दूर दूर वह जाने वाला सब तेजों का ज्योतिनिधान
सदा समन्वित शुभसंकल्पों से वह मन मेरा बने महान् ।।1।।
जो जन जन को बागडोर से इधर उधर ले जाता है,
चतुर सारथी ज्यों घोड़ों को इच्छित चाल चलाता है।
सदा प्रतिष्ठित हृदयदेश में अजर और अतिशय गतिमान्
सदा समन्वित शुभसंकल्पों से वह मन मेरा बने महान् ।।2।।