(पार्वती शिवं पतिरूपेण अवाञ्छत्। एतदर्थं सा तपस्यां कर्तुम् ऐच्छत्। सा स्वकीयं मनोरथं मात्रे न्यवेदयत्। तत् श्रुत्वा माता मेना चिन्ताकुला अभवत्।)
मेना - वत्से! मनीषिताः देवताः गृहे एव सन्ति। तपः कठिनं भवति। तव शरीरं सुकोमलं वर्तते। गृहे एव वस। अत्रैव तवाभिलाषः सफलः भविष्यति।
सरलार्थ- (पार्वती शिव को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। इसके लिए तप करने की इच्छा कीद्यउसने अपने मनोरथ का माता से निवेदन किया। यह सुनकर माता मेना चिंतित हो गई )
मेना- पुत्री! मनीषिता देवता घर पर ही हैं। तपस्या बहुत कठिन होती है द्य तुम्हारा शरीर ज्यादा कोमल है। तुम घर पर ही रहो। यहां पर ही तुम्हारी इच्छा सफल हो जाएगी।
पार्वती - अम्ब! तादृशः अभिलाषः तु तपसा एव पूर्णः भविष्यति। अन्यथा तादृशं पतिं कथं प्राप्स्यामि। अहं तपः एव चरिष्यामि इति मम सघड्ढल्पः।
मेना - पुत्रि! त्वमेव मे जीवनाभिलाषः।
पार्वती - सत्यम्। परं मम मनः लक्ष्यं प्राप्तुम् आकुलितं वर्तते। सिद्धिं प्राप्य पुनः तवैव शरणम् आगमिष्यामि। अद्यैव विजयया साकं गौरीशिखरं गच्छामि।
सरलार्थ- माता! वैसी इच्छा तो तपस्या से ही पूरी होगी अन्यथा वैसा पति कैसे प्राप्त करूंगी। मैं तपस्या ही करूंगी ऐसा मेरा संकल्प है।
मेना- हे पुत्री! तुम ही मेरे जीवन की अभिलाषा हो।
पार्वती- सत्य है। किंतु मेरा मन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्याकुल है। सिद्धि पाकर फिर से तुम्हारी शरण में आ जाऊंगी।आज ही विजया के साथ गौरीशिखर पर जा रही हूँ।
(ततः पार्वती निष्क्रामति)
(पार्वती मनसा वचसा कर्मणा च तपः एव तपति स्म। कदाचिद् रात्रै स्थण्डिले, कदाचिच्च शिलायां स्वपिति स्म। एकदा विजया अवदत्।)
विजया - सखि! तपःप्रभावात् हिंस्रपशवो{पि तव सखायः जाताः। पञ्चाग्नि-व्रतमपि त्वम् अतपः। पुनरपि तव अभिलाषः न पूर्णः अभवत्।
सरलार्थ- (उसके पश्चात पार्वती निकल जाती है।)
(पार्वती मन से वचन से और कर्म से तपस्या करती थी। कभी रात में नंगी जमीन परए कभी चट्टान पर सोती थी। एक बार विजया बोली।)
विजया- हे सखी! तपस्या के प्रभाव से हिंसक पशु भी तुम्हारे मित्र बन गए हैं। पंचाग्नि के व्रत से भी तुमने तपस्या की। फिर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण नहीं हुई।
पार्वती - अयि विजये! किं न जानासि? मनस्वी कदापि धैर्यं न परित्यजति। अपि च मनोरथानाम् अगतिः नास्ति।
विजया - त्वं वेदम् अधीतवती। यज्ञं सम्पादितवती। तपःकारणात् जगति तव प्रसिद्धिः। ‘अपर्णा’ इति नाम्ना अपि त्वं प्रथिता। पुनरपि तपसः फलं नैव दृश्यते।
पार्वती - अयि आतुरहृदये! कथं त्वं चिन्तिता ---------।
सरलार्थ- पार्वती- अरी! विजया क्या नहीं जानती होघ् मनस्वी कभी भी धैर्य को नहीं छोड़ते हैं। और मनोरथों की कभी समाप्ति नहीं है।
विजया - तुमने वेद पढ़े। यज्ञ किया। तपस्या के कारण से जगत में तुम्हारी प्रसिद्धि है। "अपर्णा" इस नाम से भी तुम प्रसिद्ध हो गई हो। फिर भी तपस्या का फल दिखाई नहीं दे रहा है।
पार्वती - अरी व्याकुल हृदय वाली तुम चिंतित क्यों हो.............।
(नेपथ्ये-अयि भो! अहम् आश्रमवटुः। जलं वाञ्छामि।)
(ससम्भ्रमम्) विजये! पश्य कोSपि वटुः आगतोSस्ति।
(विजया झटिति अगच्छत्, सहसैव वटुरूपधारी शिवः तत्र प्राविशत्)
विजया - वटो! स्वागतं ते। उपविशतु भवान्। इयं मे सखी पार्वती। शिवं प्राप्तुम् अत्र तपः करोति।
सरलार्थ- (परदे के पीछे से - अरे मैं आश्रम का ब्रहमचारी हूँ। जल पीना चाहता हूँ।)
(आश्चर्य के साथ) हे विजया! देखो कोई ब्रह्मचारी आया है।
(विजया जल्दी से गईए अचानक ही ब्रह्मचारी रूप धारी शिव ने वहां प्रवेश किया)
विजया - हे ब्रह्मचारी! तुम्हारा स्वागत है। आप बैठो। यह मेरी सखी पार्वती है। शिव को प्राप्त करने के लिए यहां तपस्या कर रही है।
वटुः - हे तपस्विनि! किं क्रियार्थं पूजोपकरणं वर्तते, स्नानार्थं जलं सुलभम्,
भोजनार्थं फलं वर्तते? त्वं तु जानासि एव शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
(पार्वती तूष्णीं तिष्ठति)
वटुः - हे तपस्विनि! किमर्थं तपः तपसि? शिवाय?
(पार्वती पुनः तूष्णीं तिष्ठति)
सरलार्थ- वटु - हे तपस्विनी! क्या क्रिया के लिए पूजा के उपकरण हैंए स्नान के लिए जल सहज प्राप्त हैए भोजन के लिए फल हैंघ् तुम तो जानती ही हो कि शरीर ही पहला धर्म का साधन है।
(पार्वती चुप रहती है)
वटु - हे तपस्विनी! किसलिए तपस्या कर रही होघ् शिव के लिएघ्
(पार्वती फिर चुप रहती है)
विजया - (आकुलीभूय) आम्, तस्मै एव तपः तपति।
(वटुरूपधारी शिवः सहसैव उच्चैः उपहसति)
वटुः - अयि पार्वति! सत्यमेव त्वं शिवं पतिम् इच्छसि? (उपहसन्) नाम्ना
शिवः अन्यथा अशिवः। श्मशाने वसति। यस्य त्रीणि नेत्राणि, वसनं व्याघ्रचर्म, अघõरागः चिताभस्म, परिजनाश्च भूतगणाः। किं तमेव शिवं पतिम् इच्छसि?
सरलार्थ- विजया- (परेशान होकर) हाँए उन्हीं के लिए ही तपस्या कर रही है।
(ब्रह्मचारी रूप वाले शिव अचानक जोर से हंसते हैं।)
वटु - अरी पार्वती! सच में ही तुम शिव को पति के रूप में चाहती हो (हंसते हुए) नाम से शिव है अन्यथा अशिव है। श्मशान में रहता है। जिसके तीन नेत्र हैं,बाघ के चमड़े के वस्त्र हैं, चिता की राख ही उसका अंगराग है और भूतगण परिजन हैं। क्या उसी शिव को पति के रूप में चाहती हो?
पार्वती - (क्रुद्धा सती) अरे वाचाल! अपसर। जगति न को{पि शिवस्य यथार्थं स्वरूपं जानाति। यथा त्वमसि तथैव वदसि। (विजयां प्रति) सखि! चल। यः निन्दां करोति सः तु पापभाग् भवति एव, यः शृणोति सो{पि पापभाग् भवति।
सरलार्थ- (पार्वती क्रोधित होकर) अरे बडबोले! दूर हट। जगत में कोई भी शिव के वास्तविक रुप को नहीं जानता है। जैसे तुम हो वैसे ही बोल रहे हो। (विजया की ओर) हे सखी। चलो। जो निंदा करता हैए वह तो पाप का भागी होता ही हैए जो सुनता है वह भी पाप का भागी होता है।
(पार्वती द्रुतगत्या निष्क्रामति। तदैव पृष्ठतः वटोः रूपं परित्यज्य शिवः तस्याः हस्तं गृह्णाति। पार्वती लज्जया कम्पते)
शिवः - पार्वति! प्रीतोsस्मि तव सङ्कल्पेन। अद्यप्रभृति अहं तव तपोभिः क्रीतदासोsस्मि।
(विनतानना पार्वती विहसति)
सरलार्थ- (पार्वती तेज गति से निकल जाती है। तभी पीछे से ब्रह्मचारी रूप को छोड़कर शिव उसके हाथ को पकड़ लेते हैं। पार्वती शर्म से कांपने लगती है)
शिव- हे पार्वती! तुम्हारे संकल्प से मैं प्रसन्न हूँ। आज से मैं तुम्हारी तपस्या से खरीदा हुआ तुम्हारा दास हूँ। (नीचे मुँह की हुई पार्वती हंसती है)