1 वने वने निवसन्तो वृक्षाः।
वनं वनं रचयन्ति वृक्षाः ।।
अन्वय- वृक्षा: वने वने निवसन्त:। वृक्षाः वनं-वनं रचयन्ति।
सरलार्थ- प्रत्येक वन में वृक्ष रहते हैं। वृक्ष (ही) वनों का निर्माण करते हैं अर्थात् वनों को वृक्ष ही बनाते हैं।
2 शाखादोलासीना विहगाः।
तैः किमपि कूजन्ति वृक्षाः ।।
अन्वय- विहगा: शाखादोलासीना। वृक्षा: तै: किमपि कूजन्ति।
सरलार्थ- पक्षीगण टहनी रूपी झूलों पर बैठे हुए हैं। वृक्ष उनके द्वारा कुछ भी कूकते रहते हैं।
3 पिबन्ति पवनं जलं सन्ततम्।
साधुजना इव सर्वे वृक्षाः ।।
अन्वय- सर्वे वृक्षा: साधुजना इव पवनं जलं सन्ततम् पिबन्ति।
सरलार्थ- सभी वृक्ष साधुजनों की तरह लगातार पवन और जल को पीते रहते हैं।
4 स्पृशन्ति पादैः पातालं च।
नभः शिरस्सु वहन्ति वृक्षाः ।।
अन्वय- वृक्षा: पादैः पातालं स्पृशन्ति शिरस्सु च नभ: वहन्ति।
सरलार्थ- वृक्ष जड़ रूपी पैरों से पाताल को छूते हैं तथा सिर पर आकाश को ढोते हैं।
5 पयोदर्पणे स्वप्रतिबिम्बम्
कौतुकेन पश्यन्ति वृक्षाः ।।
अन्वय- वृक्षा: पयोदर्पणे स्वप्रतिबिम्बं कौतुकेन पश्यन्ति।
सरलार्थ- वृक्ष जलरूपी दर्पण (शीशे) में अपनी परछाई को उत्सुकता से देखते हैं।
6 प्रसार्य स्वच्छायासंस्तरणम्।
कुर्वन्ति सत्कारं वृक्षाः। ।।
अन्वय- वृक्षा: स्वच्छाया संस्तरणं प्रसार्य सत्कारं कुर्वन्ति।
सरलार्थ- वृक्ष अपनाए छाया रूपी बिस्तर फैलाकर लोगों का आदर करते हैं।