(1) आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
सरलार्थ- आलस्य मनुष्यों के शरीर में स्थित महान शत्रु है। परिश्रम के समान भाई नहीं है जिसको करने से दु:ख नहीं होता है।
(2) श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाÊे चापरािÊकम् ।
नहि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम् ।।
सरलार्थ- कल का कार्य आज ही कर लेना चाहिए और दोपहर के बाद करने योग्य कार्य दोपहर से पहले कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु यह प्रतीक्षा करती कि आपके द्वारा कार्य किया गया अथवा नहीं।
(3) सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः ।।
सरलार्थ- सत्य बोलना चाहिएए प्रिय बोलना चाहिएए अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। प्रिय असत्य नहीं बोलना चाहिए। यही सनातन धर्म है।
(4) सर्वदा व्यवहारे स्यात् औदार्यं सत्यता तथा ।
ऋजुता मृदुता चापि कौटिल्यं न कदाचन ।।
सरलार्थ- प्रत्येक मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा उदारताए सत्यताए सरलता और कोमलता रखनी चाहिए और कभी भी कुटिलता का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
(5) श्रेष्ठं जनं गुरुं चापि मातरं पितरं तथा ।
मनसा कर्मणा वाचा सेवेत सततं सदा ।।
सरलार्थ- प्रत्येक मनुष्य को अपने माता-पिताए गुरुजन और सज्जन पुरुष की हमेशा मन सेए कर्म से और अपनी वाणी से निरंतर सेवा करनी चाहिए।
(6) मित्रेण कलहं कृत्वा न कदापि सुखी जनः ।
इति ज्ञात्वा प्रयासेन तदेव परिवर्जयेत् ।।
सरलार्थ- कोई भी व्यक्ति अपने ही मित्र के साथ झगड़ा करके कभी भी सुखी नहीं हो सकता है इसलिए यह जानकर प्रयत्नपूर्वक इस कृत्य से बचना चाहिए।